English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ एलिअन/Alien – श्री संजय भारद्वाज ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem  “एलिअन ” . We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज 

☆ एलिअन ☆ 

मुखौटोंवाला झुंड

निरंतर नोंचता रहा

मेरा चेहरा,

दूसरी-तीसरी-चौथी

परत के भ्रम में

खींचता रहा मांस

झिल्ली-दर-झिल्ली,

मैं तड़पता रहा,

चिल्लाता रहा,

दर्द से बिलबिलाता रहा,

झुंड पर कोई असर नहीं पड़ा,

एकाएक

उसके चेहरे पर

भय नज़र आने लगा है,

समूह मुझसे

दूर जाने लगा है,

झुंड ने मुझे

घोषित कर दिया है

एलिअन,..,

उसकी मान्यता है,

मुखौटेविहीन चेहरा

धरती पर

नहीं पाया जाता।

 

☆ Alien

 

Masked herd

Kept tearing off

my face,

In the delusion of

second, third, fourth

under layers

Nipping off flesh Membrane-by-membrane,

layer-by-layer…

I kept on writhing in pain,

Kept crying, Kept sobbing

in excruciating pain,

But, the herd remained unmoved

All of a sudden

fear began to appear

on their faces…

They started to run away from me

Declaring me to be

an alien,

Herd believed,

Mask less face

doesn’t even exist

on the earth..!

 

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक विषाणु ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार श्री सुहास रघुनाथ पंडित जी की एक समसामयिक कविता ” एक विषाणु “.)

☆  कविता ☆ एक विषाणु ☆ 

एक  विषाणू आदमी को दुर्बल बना देता है/

उसका ज्ञान, उसका विज्ञान

उसका तंत्र, उसका मंत्र

उसके सारे क्षेपणास्त्र

सभी को ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

उसकी शक्ति, उसकी भक्ति

उसकी मति, उसकी गति

उसकी नीति, उसकी अनीति

सबको ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

उसका मान, उसका अभिमान

उसका विचार, उसका अहंकार

उसका विवेक, उसका स्वैराचार

सभी को ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

उसकी सत्ता, उसके अधिकार

उसकी भूख, उसका शृंगार

उसके मन के सारे विकार

सभी को ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

आज आया है ये कोरोना

कल का किसने जाना

अब याद एक ही रखना

अपनी मर्यादा का पालन करना

प्रकृति को गलत ना  समझना

कभी गलत ना समझना

कभी गलत ना समझना

 

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ देश हित काम करें ☆ श्री अमरेन्द्र नारायण

श्री अमरेन्द्र नारायण

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं। आज प्रस्तुत है श्री अमरेन्द्र नारायण जी की  एक विचारणीय कविता    “देश हित काम करें”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ देश हित काम करें 

आलस्य,द्वेष,हिंसा,नफरत

सब छोड़ देश हित काम करें

शांति, विकास, समृद्धि, सुख-

सुविधा का स्वागत गान करें।

 

ऐसा स्वागत कर पायेंगे

जब होगी मुखड़ों पर लाली

किसी गांव, शहर के हरखू की

कभी होगी नहीं थाली खाली

 

हम ऐक्य शांति अभियान करें

सुविधा का स्वागत गान करें।

 

हैं दिये विधाता ने साधन

पुरुषार्थ शक्ति हमको दी है

हम साथ अगर पग नहीं धरें

सोचो यह किसकी गलती है!

 

प्रतिभा भी है साधन भी हैं

मिल कर हमें आगे बढ़ना है

यह देश हमारा प्रगति करे

हमें इसी लक्ष्य पर चलना है

 

कुछ लोग स्वार्थ के ही कारण

विष वमन किया करते रहते

उलझा भटका कर लोगों में

विद्वेष वह्नि फूंका करते

 

इन सब से उनकी नेतागिरी

और चमचागिरि चल जाती है

हिंसा उकसाने वालों की

जेबें भी गरम हो जाती हैं

 

क्या यही तरीका जीने का

हम भटकावे में जीते रहें?

जो अपनी दाल गलाते हैं

उनके जूते तक ढोते रहें!

 

स्वाभिमान से जीने के

साधन भी हैं, सुविधा भी है

जो बहकावे में आ जाते

मन में उनके दुविधा भी है

 

सब भेद-भाव को हम भूलें

और देश के हित में काम करें

अपना भी मस्तक ऊंचा हो

भारत का सब सम्मान करें

 

फूट डालने वालों को

अपनी दुकान की चिंता है

लड़वाते रहते में उनको

संतोष और सुख मिलता है

 

इस धोखे, फरेब और नफरत के

बहकावे में हम ना आयें

मिलजुल कर देश की सेवा में

श्रद्धा पूर्वक सब जुट जायें

 

जो धूर्त लड़ाते हैं हमको

उनका हम बहिष्कार करें

धोखे चकमें में ना आयें

सच्चों का ही सत्कार करें

 

छोटी बातों में न उलझें

तत्परता से हम काम करें

और स्वाभिमान के पथ चल कर

हम देश का ऊंचा नाम करें!

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

शुभा आशर्वाद, १०५५ रिज़ रोड, साउथ सिविल लाइन्स,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश

दूरभाष ९४२५८०७२००,ई मेल [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मंजिल खो गयी) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी 

 

मंजिल खो गयी जिंदगी के ताने-बाने बुनने में,

जो बहुत हसीन दिख रही थी बचपन के खुशनुमा लम्हों में ||

 

सोचा था उलझनों को तो सुलझा लेंगे आसानी से,

पहले जिंदगी सुलझा ले जो दिख रही ज्यादा उलझनों में ||

 

मगर अफ़सोस जिंदगी भी कितनी बेवफा निकली,

उलझा कर रख दिया मुझको बुझते दियों को जलाए रखने में ||

 

अफ़सोस आसान दिखती उलझने सुलझ ना सकी,

जिसे आंसा समझ बैठा, उलझ गयी जिंदगी उसी के मकड़जाल में ||

 

ए ऊपरवाले अब तो कुछ मुझ पर रहम कर,

क्या जिंदगी हमेशा ऐसे ही उलझी रहेगी इस  मकड़जाल में ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष  देवी गीत रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे ……..। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆

रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे

भटकते दूर से थके हारे , आये दर्शन को माता तुम्हारे

 

भक्ति की भावना में नहाये , मन में आशा की ज्योति जगाये

सपनों की एक दुनियां सजाये , आये मां ! हम हैं मंदिर के द्वारे

 

चुन के विश्वास के फूल , लाके हल्दी , अक्षत औ चंदन बना के

थाली पूजा की पावन सजाके , पूजने को चरण मां तुम्हारे

 

सब तरफ जगमगा रही ज्योति , बड़ी अद्भुत है वैभव विभूति

पाता सब कुछ कृपा जिस पे होती , चाहिये हमें भी माँ सहारे

 

जग में जाहिर है करुणा तुम्हारी  , भीड़ भक्तों की द्वारे है भारी

पूजा स्वीकार हो मां हमारी , हम भी आये हैं माँ बन भिखारी

 

माँ  मुरादें हो अपनी  पूरी , हम आये हैं झोली पसारे

हरी ही हरी होये  किस्मत , दिवाले जैसे जवारे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆ बारिश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “बारिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆

☆  बारिश ☆

 

फिर वही खिलते हुए गुल,

फिर वही गीत गाती कोयल,

फिर वही बारिश,

फिर मेरा वो भीग जाने को मचल जाना

और फिर वही बूंदों में

किसी हमख़याल का अक्स…

 

बाहर बगीचे में निकली

तो बादल रुखसत ले ही रहे थे,

पर कुछ आखिरी बूँदें मेरे लब पर ठहर गयी

और मुझे मुहब्बत से भिगोने लगीं

और झाँकने लगा उससे वो अक्स…

 

मैंने मुस्कुराते हुए

लबों से उन बूंदों को हटा दिया,

कि मुहब्बत से लबरेज़ होने के लिए

नहीं थी ज़रूरत मुझे

या ही बूंदों की या ही बारिश की…

 

इंसान को बनाते वक़्त

ईश्वर मुहब्बत के पैग़ाम तो

यूँ ही उसके ज़हन में भर देता है,

पर उस राज़ से कुछ अनजान से

हम खोजते रहते हैं उसे यहाँ-वहाँ!

 

मेरा अब इस पैग़ाम से

यूँ रिश्ता बन गया था

कि जिगर में मेरे जब चाहूँ

बारिश हो जाया करती थी!

 

बगीचे की बारिश तो मात्र एक बहाना थी

खुश होने का!

असली बारिश तो गिरती ही रहनी चाहिए

जिगर के हर ज़रीन कोने में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एलिअन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ एलिअन

मुखौटोंवाला झुंड

निरंतर नोंचता रहा

मेरा चेहरा,

दूसरी-तीसरी-चौथी

परत के भ्रम में

खींचता रहा मांस

झिल्ली-दर-झिल्ली,

मैं तड़पता रहा,

चिल्लाता रहा,

दर्द से बिलबिलाता रहा,

झुंड पर कोई असर नहीं पड़ा,

एकाएक

उसके चेहरे पर

भय नज़र आने लगा है,

समूह मुझसे

दूर जाने लगा है,

झुंड ने मुझे

घोषित कर दिया है

एलिअन,..,

उसकी मान्यता है,

मुखौटेविहीन चेहरा

धरती पर

नहीं पाया जाता।

 

©  संजय भारद्वाज 

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो  ☆

 

दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो

मन में श्रद्धा विश्वास लिये , मां का करते जयकार चलो !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

है डगर कठिन देवालय की , माँ पथ मेरा आसान करो

मैं द्वार दिवाले तक पहुँचू ,इतना मुझ पर एहसान करो !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

उँचे पर्वत पर है मंदिर , अनुपम है छटा छबि न्यारी है

नयनो से बरसती है करुणा , कहता हर एक पुजारि है !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

मां ज्योति तुम्हारे कलशों की , जीवन में जगाती उजियाला

हरयारी हरे जवारों की , करती शीतल दुख की ज्वाला  !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

जगजननि माँ शेरावाली ! महिमा अनमोल तुम्हारी है

पर करती तुम कृपा वही , जग में सुख का अधिकारी है !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

तुम सबको देती हो खुशियाँ , सब भक्त यही बतलाते हैं

जो निर्मल मन से जाते हैं वे झोली भर वापस आते है !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

मेरे मन की विफलता, तेरे मन का ताप ।

हैं लहरें एहसास की, कह जाती चुपचाप।।

 

मन को कसकर बांध लो, कड़ी परीक्षा द्वार ।

चाह रहा में हारना, तुम जीतो सरकार।।

 

नाम तुम्हारा कुछ नहीं, हम भी हैं बेनाम ।

अलग-अलग थे कब हुए, जाने केवल राम।।

 

आयु रूप की संपदा ,सब कुछ है बेमेल ।

एकाकी अर्पित हुआ, यह किस्मत का खेल।।

 

दिल के भीतर वायलिन, झंकृत है हर तार।

भावों का पूजार्चन, साधे    बंदनवार।।

 

बार-बार में कर रहा, तर्क और अनुमान।

सत्यापित कैसे करूं, जन्मों की पहचान।।

 

दो क्षण के सानिध्य ने, सौंप दिए मधुकोष।

तृषित आत्मा को मिला ,अद्वितीय परितोष।।

 

प्रेम तृषा की वासना, अद्भुत तिर्यक रेख।

चातक मन की चाहना, मौन मुग्ध आलेख।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 20 – ओ सुहागिन झील ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “ओ सुहागिन झील। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 20– ।। अभिनव गीत ।।

☆ ओ सुहागिन झील

लक्ष्य को संधान करते

देखता है नील

धनुष की डोरी चढ़ाते

काँपता है भील

 

कथन :: एक

बस अँगूठा ,तर्जनी की

पकड़ का यह संतुलन भर

आदमी की हिंस्र लोलुप

वृत्ति का उपयुक्त स्वर

 

या प्रतीक्षित परीक्षण का

मौन यह उपक्रम अनूठा

या कदाचित अनुभवों

की पुस्तिका अश्लील

 

कथन :: दो

पुण्य पापों की समीक्षा

के लिये उद्यत व्यवस्था

याक जंगल के नियम को

जाँचने कोई अवस्था

 

या प्रमाणों में कहीं

बचता बचाता झूठ कोई

दी गई जिसको यहाँ पर

फिर सुरक्षित ढील

 

कथन:: तीन

गहन हैं निश्चित यहाँ की

राजपोषित सब प्रथायें

फिर कहाँवन के प्रवर्तित

रूप पर कर लें सभायें

 

पैरव फैलाये थके हैं

सभी पाखी अकारण ही

जाँच लेतू भी स्वयं को

ओ! सुहागिन झील

याक=या कि

पैर व= पैर

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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