हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 42 ☆ पाँच दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “पाँच दोहे .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 42 ☆

☆ पाँच दोहे ☆ 

चिंतन वो ही श्रेष्ठ है, करे जगत उद्धार।

खुद को दे विश्वास जो, यही सत्य है सार।।

 

उत्सव मेरा नित्य है, देता नव उपहार।

मन में नव ऊर्जा भरे, करता प्रेम अपार।।

 

संशय-विस्मय मत करो, मन में भरो उमंग।

जीवन तो है बाँसुरी, रहकर सदा अनंग।

 

काम सदा वे ही करें, रहकर आत्म यथेष्ट।

जीवन पुष्पों-सा खिले, हरदम रहें सचेष्ट।।

 

चपल कौमुदी खिल गई, शशि ने किया उजास।

तन-मन आनन्दित हुआ, कण – कण प्रकृति हुलास ।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 64 – होकर खुद से अनजाने ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना होकर खुद से अनजाने। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 64 ☆

☆ होकर खुद से अनजाने ☆  

 

पल पल बुनता रहता है ताने-बाने

भटके ये आवारा मन चौसर खाने।

 

बीत रहा जीवन

शह-मात तमाशे में

सांसे तुली जा रही

तोले माशे में

अनगिन इच्छाओं के

होकर दीवाने……..।

 

कुछ मिल जाए यहाँ

वहाँ से कुछ ले लें

रैन-दिवस मन में

चलते रहते मेले

रहे विचरते खुद से

होकर अनजाने……।

 

ज्ञानी बने स्वयं

बाकी सब अज्ञानी

करता रहे सदा ये

अपनी मनमानी

किया न कभी प्रयास

स्वयं को पहचानें……।

 

अक्षर-अक्षर से कुछ

शब्द गढ़े इसने

भाषाविद बन अपने

अर्थ मढ़े इसने

जांच-परख के नहीं

कोई हैं पैमाने…….।

 

रहे अतृप्त सशंकित

सदा भ्रमित भय में

बीते समूचा जीवन

यूं ही संशय में

समय दूत कर रहा

प्रतीक्षा सिरहाने…..।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भगवत गीता ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की श्रीमद भगवतगीता  पर आधारित कविता भगवत गीताई-अभिव्यक्ति  प्रतिदिन सतत  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  द्वारा रचित  श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद  महाकाव्य से एक श्लोक, उसका पद्यानुवाद एवं अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कर रहा है। वर्तमान में 18 वे अध्याय के श्लोक का प्रकाशन हो रहा है। आप उन्हें प्रतिदिन आत्मसात कर  सकते हैं ।  ) 

☆ भगवत गीता ☆

श्री कृष्ण का संसार को वरदान है गीता

निष्काम कर्म का बडा गुणगान है गीता

दुख के महासागर मे जो मन डूब गया हो

अवसाद की लहरो मे उलझ ऊब गया हो

तब भूल भुलैया मे सही राह दिखाने

कर्तव्य के सत्कर्म से सुख शांति दिलाने

संजीवनी है एक रामबाण है गीता

पावन पवित्र भावो का संधान है गीता

है धर्म का क्या मर्म कब करना क्या सही है

जीवन मे व्यक्ति क्या करे गीता मे यही है

पर जग के वे व्यवहार जो जाते न सहे है

हर काल हर मनुष्य को बस छलते रहे है

आध्यात्मिक उत्थान का विज्ञान है गीता

करती हर एक भक्त का कल्याण है गीता

है शब्द सरल अर्थ मगर भावप्रवण है

ले जाते है जो बुद्धि को गहराई गहन मे

ऐसा न कहीं विष्व मे कोई ग्रंथ ही दूजा

आदर से जिसकी होती है हर देष मे पूजा

भारत के दृष्टिकोण की पहचान है गीता

 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 15 – आजाद हो गए मोती ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता आजाद हो गए मोती) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 15 – आजाद हो गए मोती

 

खुल गयी गांठ आजाद हो गए मोती,

बिखर कर चारों और फ़ैल गए सब, ठहर गए जिसको जहां जगह मिली ||

 

गिरते मोती इधर-उधर फुदक रहे थे,

जश्न मना रहे थे सब फुदक-फुदक कर, धागे से आजादी जो मिली ||

 

उतर गया मुंह सबका जब जमीन पर धड़ाम से गिरे,

कोई  इस तो कोई उस कोने में गिरा, किसी को कचरे मे जगह मिली ||

 

कुछ मोती तो ज्यादा उतावले थे आजादी के जश्न में,

ऐसे औंधे मुंह गिरे, सबसे बिछुड़ ना जाने किसको कहाँ जगह मिली ||

 

पहले सब खुश थे एक मुद्द्त बाद आजादी जो मिली,

अब सब अपनी-अपनी जगह दुबक गए जहां भी उन्हें जगह मिली ||

 

सब एक दूसरे को जलन ईर्ष्या करने लगे,

सब एक दूसरे को तिरछी नजर से देखते रहे मगर आँखे नहीं मिली ||

 

कुछ मोती समझदार थे जो एक जगह इकट्ठे थे,

कुछ खुद को ज्यादा होशियार समझते थे, वे इधर-उधर बिखरे मिले ||

 

सबको समझ आया बंद गांठ में कितने मजबूत थे,

चाह कर भी मोती धागे में खुद को पिरो वापिस माला नहीं बन सकते ||

 

बिखरे मोतियों को देख खुला धागा भी रोने लगा,

धागे को देख सब अतीत में खो गए काश कोई हमें एक सूत्र में बांध दे ||

 

धीरे-धीरे धागा भी वर्तमान से अतीत हो गया,

धागा ठोकरे खा अदृश्य हो गया, मोती धुंधला कर एक दूसरे को भूल गए ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 52 ☆ सो जाएँ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “ सो जाएँ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 52 ☆

☆  सो जाएँ ☆

 

चलो गहरी रात हो गयी, सो जाएँ

उदासी की गोद में ही सही, सो जाएँ

 

खामोश दीवारें बुला रही हैं प्यार से

उनकी ही आरज़ू पूरी करने, सो जाएँ

 

मकड़ी जाला बुन रही होगी उजाले का

उससे मूंह फेर कर आओ ना, सो जाएँ

 

शब् भर कुछ ख्वाब देख लें जुस्तजू के

ज़रीं उम्मीद दिल में छुपाये, सो जाएँ

 

फिर सुबह आ ही जायेगी नाउम्मीदी लिए

आज रात के दामन में छुपकर, सो जाएँ

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ तो चलूँ….! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ तो चलूँ….!

 

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने कागज़ के माथे पर

कलम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का लिख लूँ

तो चलूँ…!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सैन्य जीवन की ओर ☆ कर्नल अखिल साह

कर्नल अखिल साह 

(ई- अभिव्यक्ति से हाल ही में जुड़े  कर्नल अखिल साह जी  एक सम्मानित सेवानिवृत्त थल सेना अधिकारी हैं। आप  1978 में सम्मिलित रक्षा सेवा प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान के साथ चयनित हुए। भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में प्रशिक्षण के पश्चात आपने  इन्फेंट्री की असम रेजीमेंट में जून 1980 में कमिशन प्राप्त किया। सेवा के दौरान कश्मीर, पूर्वोत्तर क्षेत्र, श्रीलंका समेत अनेक स्थानों  में तैनात रहे। 2017 को सेवानिवृत्त हो गये। सैन्य सेवा में रहते हुए विधि में स्नातक व राजनीति शास्त्र में स्नाकोत्तर उपाधि विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त किया । कर्नल साह एक लंबे समय से साहित्य की उच्च स्तरीय सेवा कर रहे हैं। यह हमारे सैन्य सेवाओं में सेवारत वीर सैनिकों के जीवन का दूसरा पहलू है। ऐसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एवं साहित्यकार से परिचय कराने के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी  में प्रवीण  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हार्दिक आभार।  हमारा प्रयास रहेगा कि उनकी रचनाओं और अनुवाद कार्यों को आपसे अनवरत साझा करते रहें। आज प्रस्तुत है कर्नल अखिल साह जी की  एक भावप्रवण कविता ‘सैन्य जीवन की ओर

☆ सैन्य जीवन की ओर

 

अनजानी सी थी वह राह

अनदेखी, अनसुनी थी वह डगर

जिस पर निकल पड़ा था मैं

छोड़ घर-परिवार, गांव-नगर।

 

विचलित सा, सहमा सा था मैं

जब भर्ती होकर गया निकल

त्याग कर हर सुख सुविधा

मित्रों का साथ, माँ का आँचल।

 

पर चंद दिनों के दौर में ही

भूल गया सब कष्ट अपने,

अब श्रम, प्रशिक्षण, अनुशासन

बन गए मेरे जीवन के सपने।

 

उमड़ रहा है मन में मेरे

देश सेवा का अजब जूनून

सैन्य वर्दी में ही अब मुझे

मिल रहा है ग़ज़ब सुकून।

 

© कर्नल अखिल साह

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 65 – निर्मल सांसें मिलेगी तुमको ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं  समसामयिक कविता   “निर्मल सांसें मिलेगी तुमको।  आशा पर संसार टिका है। ईश्वर शीघ्र  इस आपदा से सारे विश्व को मुक्ति दिलाएंगे और सबको निर्मल सांसे मिलेगी। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 65 ☆

☆ कविता – निर्मल सांसें मिलेगी तुमको ☆

 

ये कैसी लाचारी है

चारों ओर हाहाकारी हैं

 

मानव की विवशता  देखो

प्रकृति भी निठुराई है

श्वासों का सब खेल निराला

ऑंखें  सबकी पथराई है

 

मनुज डरा है मनुज से

सहमा भाई से भाई है

पूछ ना ले कोई कहीं से

स्वयं को सब ने बचाई है

 

यह कैसा है तांडव छाया

घनघोर विपदा है आई

मरे मिले ना कोई चार कांधे

रोने न कोई है माँ जाई

 

आग उगलते लपटों में

वसुंधरा भी कांप रही

बेबस होती जिंदगी में

धन भी काम न आया सही

 

बहता निर्मल स्वच्छ जल

बार बार कहता संदेश यही

अपने लिए जिएं सदा कल

प्रकृति के लिए जियो तो सही

 

निर्मल सांसें मिलेगी तुमको

नहीं बांधना होगा बंधन

मत काटो मेरे अंचल को

मिलेगा तुमको अनमोल धन

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

बालों में है उंगलियां, अधर अधर के पास।

सब कुछ ठहरा है मगर ,मन का चले प्रवास।।

 

पंछी होता मन अगर ,गाता बैठ मुंडेर ।

देख नहीं पाता तुम्हें, कितनी कितनी देर।।

 

एक रसीले हाथ ने, लिखा भूमि पर नाम।

मस्तक को दुविधा हुई, किसको करूं प्रणाम।।

 

एक गुलाबी  गात ने, पहिन गुलाबी चीर।

फूलों के इतिहास को,दे दी एक नजीर।।

 

हल्के नीले रंग का, पहिन लिया परिधान।

जैसे आई चांदनी, कर यमुना में  स्नान।।

 

करता जिसकी अर्चना, उसके विविध स्वरूप।

जो दुर्गा कल्याणिका ,गायत्री का रूप।।

 

शैया शायी सुंदरी, बिखरे बिखरे केश।

अलसाई सी भंगिमा ,आमंत्रण संदेश।।

 

पीत वसन शैया शयन ,कुंतल झरे पराग।

ऊपर से सब शांत है ,भीतर ठंडी आग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एकांत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ एकांत

एकांत का साथी

एकांत ओढ़ता हूँ,

एकांत बिछाता हूँ,

एकांत से बोलता हूँ,

एकांत से बतियाता हूँ,

समर्पण का उत्कर्ष है

एकात्म, परमात्म हो जाता है,

एकांत मेरा संगी हो जाता है,

कुछ भी रहे एकांत पर

एकांत नहीं रह पाता है।

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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