हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #21 – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ

? रचना संसार # 21 – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

तीरगी में प्यार का ऐसा दिया रौशन करें

हो उजाला जिसका हर सू वो वफ़ा रौशन करें

 *

लुत्फ़ आता ही कहाँ है ज़िन्दगी में आजकल

मौत आ जाए तो फिर जन्नत को जा रौशन करें

 *

मतलबी है ये जहाँ क़ीमत वफ़ा की कुछ नहीं

हुस्न से कह दो न हरगिज़ अब अदा रौशन करें

 *

आलम -ए- वहशत में हूँ और होश मुझको है नहीं

वो तो ज़ीनत हैं कहो वो मयकदा रौशन करे

 *

इंतिहा- ए- तिश्नगी कोई मिटा सकता नहीं

कह दो बीमार-ए-मुहब्बत की दवा रौशन करें

 *

किस क़दर है आज कल खुद पर गुमां इन्सान को।

मीर कह दूँ मैं उन्हें गर वो फ़ज़ा रौशन करें

 *

रोज़ ही किरदार पे उठती रही हैं उँगलियॉं

कोई  उल्फ़त का नया अब सिलसिला रौशन करें

 *

हो गया मीना मुकम्मल ज़िन्दगी का ये सफ़र

टूटती साँसे कहें चल मक़बरा रौशन करें

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #231 ☆ कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति… आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 230 ☆

☆ कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राजनीति की कैद में, आये सब अखबार

सबका अपना नजरिया, सबका कारोबार

*

ख़बरें अब अपराध की, घेर रहीं अखबार

राजनीतिक उठापटक, छपे रोज भरमार

*

मीडिया चेनल बढ़ रहे, खबरें होतीं कैद

जहां लाभ मिलता वहां, होता वह मुस्तैद

*

कला, धर्म अरु संस्कृति, छपने को बैचेन

इन पर चलती कतरनी, लगे कभी भी बैन 

*

छपने का जिनको लगा, छपकू रोग महान

उनसे होती आमदनी, मिले बहुत सा दान

*

पहले सा मिलता नहीं, पढ़ने में संतोष

खबरों की इस होड़ में, दें किसको हम दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नशामुक्ति पर दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ नशामुक्ति पर दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

करता नशा विनाश है, समझ लीजिए शाप।

ख़ुद आमंत्रित कर रहे, आप आज अभिशाप।।

*

नशा बड़ी इक पीर है, लिए अनेकों रोग।

फिर भी उसको भोगते, देखो मूरख लोग।।

*

नशा करे अवसान नित, जीवन का है अंत।

फिर भी उससे हैं जुड़े, पढ़े-लिखे औ’ संत।।

*

मत खोना तुम ज़िन्दगी, जीवन सुख का योग ।

मदिरा, जर्दा को समझ, खड़े सामने रोग।।

*

नशा मौत का स्वर समझ, जाग अभी तू जाग।

कब तक गायेगा युँ ही, तू अविवेकी राग।।

*

नशा आर्थिक क्षति करे, तन-मन का संहार।

सँभल जाइए आप सब, वरना है अँधियार।।

*

नशा लीलता हर खुशी, मारे सब आनंद।

आप कसम ले लीजिए, नशा करेंगे बंद।।

*

नशा नरक का द्वार है, खोलो बंदे नैन।

वरना तुम पछताओगे, खोकर सारा चैन।।

*

नशा मारकर चेतना, लाता है अविवेक।

नशा धारता है नहीं, कभी इरादे नेक।।

*

नशा व्याधि है, लत बुरी, नशा असंगत रोग।

तन-मन-धन पर वार कर,  लाता ग़म का योग।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आज क्यों रूठ गई कविता? ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – आज क्यों रूठ गई कविता? ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

 न प्रेम में शब्द उमड़ते

 न क्रोध में शब्द जुड़ते

जोड़-गाँठ से परे कविता

आज क्यों रूठ गई कविता?

*

प्रसाद, ओज, माधुर्य

सत्व, रज, तम

है भूल गई कविता

आज क्यों रूठ गई कविता?

*

लेखनी बह गई

कागज उड़ गया

अलंकार, छंद छोड़ चली कविता

आज क्यों रूठ गई कविता?

*

हिंडोल मन स्तब्ध कहीं

गम्य-अगम्य बोध नहीं

बुद्धि को पछाड़ देती कविता

आज क्यों रूठ गई कविता?

*

मनाने पर नहीं मानती

समझाने से नहीं समझती

क्यों सूझ नहीं रही कविता

आज क्यों रूठ गई कविता?

*

विगलित मन प्राणपखेरू

पलछिन में भ्रम तोड़ती कविता

“मैं” चूर-चूर मदमस्त सरिता

नयनधारा पीर जान कविता

करें सहज अनुराग अनीता

अब हाथ थाम लेती कविता

अब नहीं रूठती कविता

अब नहीं रूठेगी कविता

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

03 अगस्त 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पहचान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पहचान ? ?

(कवितासंग्रह ‘चेहरे’ से।)

अव्यवस्थित से पड़े  

कुछ लिखे, कुछ अधलिखे काग़ज़,

मसि के  स्पर्श की प्रतीक्षा में रखे

सुव्यवस्थित कुछ अन्य काग़ज़,

एक ओर रखी खुली ऐनक,

धाराप्रवाह चलती कलम,

अभिव्यक्त होती अनुभूति,

भावनाओं का मानस स्पंदन,

हर पंक्ति पर आत्ममुग्ध अपेक्षा,

अपेक्षित अपनी ही प्रशंसा का गान,

क्या काफ़ी है इतनी

मेरे लेखक होने की पहचान…?

 *

खचाखच भरा सभागार,

प्रशंसा में उद्धृत साहित्यकार,

शब्दों से मेरी क्रीड़ा,

तालियों की अनुगूँज अपार,

औपचारिक पुष्पगुच्छों के रेले,

संग तस्वीर खींचाने की रेलमपेलें,

कृत्रिम मुस्कानों  का प्रत्युत्तर,

भोथरी ज़मीन पर खड़ा मेरा अपंग अभिमान

क्या काफ़ी है इतनी

मेरे लेखक होने की पहचान…?

 *

कुछ सम्मानों की चिप्पियाँ चिपकाए,

आलोचनाओं का प्रत्युत्तर

यथासमय देने की इच्छा मन में दबाए,

पराये शब्दों में मीन-मेख की तलाश,

अपने शब्द सामर्थ्य पर खुद इतराए,

लब्ध-प्रतिष्ठितों में स्थापित होने की सुप्त चाह,

नवोेदितों के बीच कराते अपनी जय-जयकार,

क्या काफ़ी है इतनी

मेरे लेखक होने की पहचान…?

 *

सर्द ठंड में ठिठुरती बच्ची को

सम्मान में मिली शॉल ओढ़ा देना,

अपनी रचनाओं से बुनी चादर पर

फुटपाथ के असहाय परिवार को सुला देना,

राह चलती एक आंधी माई को

सड़क पार करा देना,

भीख माँंगते नन्हें के गालों पर

अपने गीतों की हँंसी थिरका देना,  

 *

पिया की बाट जोहती को

गुनगुनाने के लिए अपने गीत देना,

बच्चों के  ठुकराने से आहत

वृद्ध को अपने शब्दोेंं की प्रीत देना,

परदेस गए बेटे का

घर चिठ्ठी लिखने,

मेरे ही शब्द टटोलना,

विदा होती बेटी को

दिलासा देने,

माँ का मेरे ही लोकगीत ओढ़ना,

 *

पीड़ित महिला के समर्थन में

नया गीत रच देना,

नफ़रत की फसलों में प्रेम का

नया बीज रोप देना,

उजाले के निवासियों के लिए

प्रकाश बाँंटने की

अनिवार्य रीत लिख देना,

अंधेरेे के रहवासियों के लिए

नया एक दीप रच देना,

 *

उपेक्षितों में शब्दों से

जागरूकता का मंत्र फूँक देना,

निर्दोषों के पक्ष में

कलम से युद्ध का

शंख फूँक देना,

 *

दंभ से दूरी, विनय का ज्ञान,

समझौतों को नकार

सच्चे आँसुओं की पहचान,

आहत को राहत,

दुखी के दुख का भान,

झूठ के खिलाफ सच्चाई का मान,

यह है-

मेरे लेखक होने की पहचान,

मेरी वेदना, मेरी संवेदना को

सामर्थ्य देनेवाली

माँ  शारदा, तुम्हें शतश: प्रणाम।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः। 🕉️

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 219 ☆ बाल गीत – कितने प्यारे रंग भर दिए… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 219 ☆ 

बाल गीत – कितने प्यारे रंग भर दिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

कितने प्यारे रंग भर दिए

चिड़ियों के ‘पर’ में किसने।

नव-नूतन संसार बनाया

क्या सचमुच ही ईश्वर ने।।

बड़ी मनोहर चिड़ियाँ आएँ

प्रतिदिन अपने बागों में।

साथ सदा मिलकर हैं रहतीं

गाएँ नूतन रागों में।।

 *

इनकी चोंच नुकीली अतिशय

मन भी देख लगा रमने।।

 *

काला , पीला , लाल ,सुनहरा

सजे परों के मोहक रंग।

खाएँ दाना बड़ी मगन हों

खेलें ,उड़ें करें न तंग।।

 *

रखना जल से भरे पात्र सब

धरा लगी लू से तपने ।।

 *

पेड़ लगेंगे , चिड़ियाँ चहकें

नीड़ बनेंगे विटपों के।

हरी-भरी सब धरती होगी

जल पीएँ भर मटकों के।

 *

सरल ,सहज सब जीवन जीएँ

सृष्टि लगेगी खुद सजने।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 70 ☆ मन बावरा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तुमसे हारी हर चतुराई…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 70 ☆ मन बावरा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

बाँसुरी पर किसी ने

अधर रख दिए

भोर का मन खिला

बावरा हो गया।

*

देह गोकुल हुई

साँस का वृंदावन

फिर महकने लगा

गंध राधा का मन

*

रास रचती रहीँ

कामना गोपियाँ

सारा मधुवन छवि

साँवरा हो गया।

 * 

तट तनुजा के

हैं खिलखिलाने लगे

वृक्ष सारे ही

जल में नहाने लगे

*

चोंच भर ले

उजाले की पहली किरन

बृज का आँगन

पावन धरा हो गया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 74 ☆ शराफ़त का उतारो तुम न जेवर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भावप्रवण विचारणीय रचना “शराफ़त का उतारो तुम न जेवर...“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 74 ☆

✍ शराफ़त का उतारो तुम न जेवर... ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हमेशा तौलिए हर बात लोगो

करे दिल पर बड़ा आघात लोगो

 *

नदी तालाब दरिया और सागर

सभी कतरे की है सौगात लोगो

 *

ख़ुशी खाँसी खुनस मदिरा मुहब्बत

छुपा सकते नहीं ज़ज़्बात लोगो

 *

बचा सकते हैं तन मन बारिशों से

भिगो दे आँखों की है बरसात लोगो

 *

शराफ़त का उतारो तुम न जेवर

कोई दिखलाय जब औकात लोगो

 *

सबेरे पर यकीं रखिये वो होगा

नहीं रहना है गम की रात लोगो

 *

न इनका दीन औ ईमान कोई

नहीं हैवान की है जात लोगो

 *

यकीं है जीत पर मुझको मिलेगी

हुई शह है नहीं ये मात लोगो

 *

अरुण आनंद लेता इनको गाकर

भजन प्रेयर या होवें नात लोगो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 71 – कोई मतलब की बात होने दो… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कोई मतलब की बात होने दो।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 71 – कोई मतलब की बात होने दो… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

दिल की धड़कन की, बात होने दो 

अब, मुहब्बत की बात, होने दो

जिससे, रोमांच हो शिराओं में 

उस शरारत की, बात होने दो

ज्येष्ठ संत्रास का, बिता आये 

अब तो, सावन की बात होने दो

अपने सौहार्द, हों सुदृढ़ फिर से 

अब न नफरत की बात होने दो

जिससे, सारी फिजाँ महक जाये 

उस तबस्सुम की, बात होने दो

वक्त, बरबाद मत करो अपना 

कोई, मतलब की बात होने दो

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 144 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 144 – मनोज के दोहे ☆

नेक दृष्टि सबकी रहे, होती सुख की वृष्टि।

जग की है यह कामना, मंगल मय हो सृष्टि।।

*

पोर्न फिल्म को देख कर, बिगड़ा है संसार।

नारी की अब अस्मिता, लुटे सरे बाजार।।

*

शिष्टाचार बचा नहीं, बिगड़ रहे घर-द्वार।

संस्कृति की अवहेलना,है समाज पर भार।।

*

तिलक लगाकर माथ में, सभी बने हैं संत।

अंदर के शैतान का, करा न पाए अंत।।

*

अंतरिक्ष में पहुंँच कर, मानव भरे उड़ान।

धरा सुरक्षित है नहीं, बिगड़ रही पहचान।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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