(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “मनुष्य आज है दुखी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 188 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – मनुष्य आज है दुखी… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – सतरंगी सपने…।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण रचना आँखों से बहती रही…।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – रोशनी की खातिर…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 225 ☆
☆ एक पूर्णिका – रोशनी की खातिर …☆ श्री संतोष नेमा ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – मुंशी प्रेमचंद जयंती विशेष – हँसी
(कविता संग्रह- “चेहरे’ = प्रकाशन वर्ष- 2014)
31 जुलाई, मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर उन्हें नमन। बचपन में उनकी कहानी ‘घासवाली ‘ पढ़ी थी। उसकी नायिका के धुँधले-से अक्स और कहानी की पृष्ठभूमि ने बीस वर्ष बाद लिखी कविता को भी प्रभावित किया। मुंशी जी को समर्पित कविता साझा कर रहा हूँ।
हँसी
भीड़ को चीरती-सी एक हँसी मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी, कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी, मैं टूटा था, दरक-सा गया था क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी..?
पुष्पा गॉंव की एक घसियारिन थी, सलीके से उसके हाथ आधा माथा ढके जब घास काटते थे तो उसके रूप की कल्पना मात्र से कई कलेजे कट जाते थे…
थी फूल अनछुई-सी, जंगली घास में जूही-सी, काली भरी-भरी सी देह, बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें, मुझे शायद आँखों से अधिक सुंदर उसमें तैरते उसके भाव लगते थे, भाव जिनकी मल्लिका को शब्दों की जरूरत ही नहीं, यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी…
पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली पर कुँआरी लड़कियाँ भी उसके रूप से जल जाती थीं गांव के मरदों के अंदर के जानवर को, कल्पनाओं में भी उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था, लोक-लाज-रिवाजों के कपड़ों के भीतर भी उनका प्राकृत रूप नज़र आ ही जाता था…
पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी, पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी, पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक अपेक्षा थी…
गॉंव के छोटे ठाकुर … बस ठाकुर थे नतीजतन रसिया तो होने ही थे, जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती, वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती, मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी कोई अपेक्षा पुरुष बसा है, अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में कुछ क्षण ठाकुर के, किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे, काँटों की शय्या को सोने के पलंग सपने सलोने से कम नहीं लगते थे…
खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी, डूबते क्षितिज को चूमता सूरज, पक्षियों का कलरव, घर लौटते चौपायों का समूह, दूर जंगल में शेर की गर्जना, अपने डग घर की ओर बढ़ाती आतांकित बकरियों की छलांग, इन सब के बीच- सारी चहचहाट को चीरते गूँज रही थी पुष्पा की हँसी …
सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया, घर लौटकर, पसीना सुखाकर, कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना, मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना…
स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी, ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी, चली जा रही थी पुष्पा …
एकाएक, शेर की गर्जना ऊँची हुई, मेमनों में हलचल मची, एक विद्रूप चौपाया मासूम बकरी को घेरे खड़ा था, ठाकुर का एक हाथ मूँछों पर था दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था …
हँसी यकायक चुप हो गई, झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया, सर पर रखा घास का झौआ बगैर सहारे के तन गया था, हाथ की हँसुली अब हथियार बन गया था…
रणचंडी का वह रूप ठाकुर देखता ही रह गया, शर्म से ऑँखें झुक गईं, आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा, निःशब्द शब्दों की जननी सारे भाव ताड़ गई- ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है? तू तो गाँव का मुखिया है, हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है, फिर क्यों तू ऐसा है, क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है…?
ए भाई ! आज जो तूने मेरा हाथ थामा तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा, ये मैंनेे माना है, एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था, ठाकुर के पाप की गठरी को उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था, ठाकुर का जीवन बदल चुका था छोटे ठाकुर, अब सचमुच के ठाकुर थे…
पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था, निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था, फिर शहर में घास बेचती, ग्राहकों को लुभाकर बातें करती, ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप, पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप?
उसे मुझे देख लिया था पर उसकी तल्लीनता में कोई अंतर नहीं आया था, उलटे कनखियों से उसे देखने की फिराक में मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था, वह फिर भी हँसती रही…
गॉंव के खेतों के बीच से जाती उस संकरी पगडंडी पर, उस शाम पुष्पा फिर मिली थी वह फिर हँसी थी…
बोली- बाबूजी! जानती हूँ, शहर की मेरी हँसी तुमने गलत नहीं मानी है, पुष्पा वैसी ही है जैसी तुमने शुरू से जानी है, हँसती चली गई, हँसती चली गई हँसती-हँसती चली गई दूर तक…
अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए अस्तित्व को लिए निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं, क्षितिज को देखता रहा, जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा, खुद ने खुद से प्रश्न किया ठाकुर और तेरे जैसों की सफेदपोशी क्या सही थी, उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी..!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता नाखून… ।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #240 ☆
☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भोर का संदेश…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 64 ☆ भोर का संदेश… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆