हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 25 – किससे कहें, सुनें अब मन की—- ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “किससे कहें, सुनें अब मन की—–। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ किससे कहें, सुनें अब मन की—– ☆  

 

किससे कहें, सुनें

अब मन की।

 

नित नूतन आडंबर लादे

घूम रहे,  राजा के प्यादे

गुटर-गुटर गूँ  करे कबूतर

गिद्ध, अभय के करते वादे,

बात शहर में

जंगल, वन की।

किससे कहें……..

 

सपनों में, रेशम सी बातें

स्वर्ण-कटारी, करती घातें

रोटी  है  बेचैन, – कराहे

वे खा-खा कर नहीं अघाते,

बातें भूले

अपनेपन की।

किससे कहें……….

 

अब गुलाब में, केवल कांटे

फूल, परस्पर  खुद  में बांटे

गेंदा, जूही, मोगरा- चंपा

इनको है, मौसम के चांटे,

रौनक नहीं, रही

उपवन की ।

किससे कहें……….

 

है अपनों के बीच दीवारें

सद्भावों के, नकली नारे

कानों में, मिश्री रस घोले

मिले स्वाद,किन्तु बस खारे

कब्रों से हुँकार

गगन की ।

किससे कहें ………

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 3 ☆ गीत ☆ पर्यावरण को चोट ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है पर्यावरण संरक्षण पर एक गीत  “पर्यावरण को चोट”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 3 ☆

☆ कविता/ गीत  – पर्यावरण को चोट ☆

ना काटो,ना काटो, ना काटो सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– एक –
पेड़ पौधे  दवाइयों के तुमने काटे,
पीपल, अश्वगंधा  और बरगद सारे.
नीम ,चंदन,तुलसी के पेड़ काट डारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– दो –
सुन्दर फूलों की बगिया उजारी
चम्पा, गुलाब, गेंदा, और चमेली
जारुल ,पलास और कमल भी उजारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– तीन –
बांस, बबूल, शीशम, इमली निबुआ,
अमरुद, आम, केला, तरबूज तेन्दुआ,
 पानी न दे पाये, सब मिट गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– चार –
काट सारे पेड़ दिये, हवा पानी रोक लिये
कहाँ रूके बदरा कहाँ पानी बरसे
उड़ उड़ निकर के विखर गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– पाँच –
धरती की बोली समझ लो सारे
पेड़ और पौधे फिर से लगाओ रे
छोटे बड़े सभी लग जाओ सारे.
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆ विसाल ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “विसाल”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆

☆ विसाल

ज़ाफ़रानी* शामों में

मैं जब भी घूमा करती थी

नीली नदी के किनारे,

नज़र पड़ ही जाती थी

उस बेक़रार से दरख़्त पर

और उस कभी न मानने वाली

बेल पर!

 

आज अचानक देखा

कि पहुँचने लगी है वो बेल

उस नीली नदी किनारे खड़े

अमलतास के

उम्मीद भरे पीले दरख़्त पर,

एहसास की धारा बनकर|

 

शायद

वो खामोश रहती होगी,

पर अपनी चौकन्नी आँखों से

देखती रहती होगी

उस दरख़्त के ज़हन के उतार-चढ़ाव,

महसूस किया करती होगी

उस दरख़्त की बेताबी,

समझती होगी

उस दरख़्त की बेइंतेहा मुहब्बत को…

 

एक दिन

बेल के जिगर में भी

तलातुम** आना ही था,

और आज की शाम वो

अब बिना किसी बंदिश के

बह चली है

एहसास की धारा बनकर

विसाल*** के लिए!

 

*ज़ाफ़रानी = saffron

**तलातुम = waves

***विसाल = to meet

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्रीत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  स्त्रीत्व

 

उन आँखों में

बसी है स्त्री देह,

देह नहीं, सिर्फ

कुछ अंग विशेष,

अंग विशेष भी नहीं

केवल मादा चिरायंध,

सोचता हूँ काश,

इन आँखों में कभी

बस सके स्त्री देह..,

केवल देह नहीं

स्त्रीत्व का सौरभ,

केवल सौरभ नहीं

अपितु स्त्रीत्व

अपनी समग्रता के साथ,

फिर सोचता हूँ

समग्रता बसाने के लिए

उन आँखों का व्यास

भी तो बड़ा होना चाहिए!

 

समाज की आँख का व्यास बढ़ाने की मुहिम का हिस्सा बनें। आपका दिन सार्थक हो।

 

संजय भारद्वाज
[email protected]

प्रात: 9.24 बजे, 5.12.19

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – देह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  देह 

आत्मतत्व है तो

देह प्राणवान है,

बिना आत्मतत्व

देह निष्प्राण है..,

दो पहलुओं से

सिक्का ढलता है

परस्परावलंबिता से

जगत चलता है,

माना आत्मऊर्जा से

देह प्रकाशवान है

पर देह बिना आत्म

भी मृतक विधान है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 24 – ज़िन्दगी ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कविता  “ज़िन्दगी। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 24 ☆

☆ कविता – ज़िन्दगी    

 

किसी ने कहा

जिंदगी है खेल

कोई पास

कोई फेल

पर उन्होंने

जिंदगी खपा दी

शब्दों को चुनने में

शब्दों को तराशने में।

 

उन्हें गर्व हुआ

अपनी होशियारी पर

तभी नासमझ समय

अट्टहास करते बोला

“मूर्ख!

तुमने नष्ट की है जिंदगी

अपने स्मारक के

पत्थर जुटाने में।”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – विशाखा की नज़र से ☆ निर्वासित ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना निर्वासित अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – विशाखा की नज़र से

☆ निर्वासित  ☆

 

पहले वो ज्वार उगाती थी

वही खाती और खिलाती थी ।

पर कई बरस सूखा पडा ,पानी दुश्वार हुआ ।

धरती तपी और बहुत तपी

 

फिर उसने कपास ऊगाया

उसे ओढा औरों को ओढ़ाया

पर इस बदलाव से धरती का सीना छलनी हुआ

उसके हर बूँद का दोहन हुआ

फिर ना उसमें कपास ऊगा ।

 

कुछ थे इसी फ़िराक में ,जमीन के जुगाड़ में

उन्होंने कंक्रीट का जंगल बुना

खरपतवार सा उसे फेंका गया

पर उसी जगह उसे काम मिला

परिचय पत्र पर नया नाम मिला

 

पर कितने ही बर्तन वो साफ़ करें

हर वक्त उसे फटकार मिले

कोने में माटी का संसार मिले

माटी की थी देह उसकी

माटी में ही मिल गई ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य #2 ☆ ग़ज़ल – सूखे फूल के पत्ते . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल सूखे फूल के पत्ते . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #2 ☆ कविता – सूखे फूल के पत्ते . . .☆ 

सूखे फूल के पत्ते उड़ाया करता हूँ मैं,

याद जब भी आती है तस्वीर तेरी बनाया करता हूँ मैं,

रेत के घरोंदे जो बनाये थे हमने साहिल में ,

बेदर्द लहरों से उनको बचाया करता हूँ मैं ,

न जाने कौन सी बात थी तुम में ,

जिसके लिए आज भी  आहें भरा करता हूँ मैं ,

तेरे आने की आहट आज भी है जहन में ,

जिसके लिए तरसा करता हूँ मैं ,

तेरी हंसी की किलकारियां आज भी हैं सहरा में ,

उनके ही सहारे तो जिया करता हूँ मैं ,

तेरा गम जो खाया करता है अकेले में ,

सरी महफ़िल में सबसे छुपाया करता हूँ मैं ,

बदनाम न हो जाए तू ज़माने में ,

इसलिए अजनबी सा गुजर जाया करता हूँ मैं ,

सूखे फूल के पत्ते उड़ाता रहता हूँ मैं,

याद जब भी आती है तस्वीर तेरी बनाया करता हूँ मैं..

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ ओ सम्मान वालो ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय  स्तर ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की  एक सार्थक एवं कटु सत्य को उजागर करती एक  कविता  “ओ सम्मान वालो ।” इसमें कोई दो मत नहीं है कि  पुरस्कारों/सम्मानों की लालसा और इस दौड़ में अक्सर ऐसा हो रहा है। किन्तु, यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि वास्तव में जो सम्मान के हकदार हैं वे  इससे वंचित रह जाते हैं और सभी समान दृष्टि से देखे जाते हैं।  फिर कई ऐसे भी हैं जो बिना किसी लालसा के शांतिपूर्वक स्वान्तः सुखाय साहित्य सेवा किये जा रहे हैं, जो कदापि इस रचना के पात्र नहीं हैं । श्री मनीष तिवारी जी को उनकी इस बेबाक कविता के लिए हार्दिक बधाई। )

☆ ओ सम्मान वालो  ☆

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

लेना है शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र

तो रुपये निकालो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

सम्मान करने वाली

थोक दुकान पर आओ

फुटकर सम्मान वाली

दुकान पर मत जाओ

हमसे यश पा लो

अपना चेहरा चमका लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

हमें इससे कोई मतलब नहीं

रचनाएं आपकी हैं

या आपके बाप की हैं

जिन रचनाओं को सुनकर

जनता आपको सर पर

उठा लेती है

उनमें आपकी कम

माँ बाप की छवि

ज्यादा दिखाई देती है,

पास आओ, बैठो

थोड़ा मुस्करा लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

हमें इससे क्या लेना देना

कि, आपने अपनी

उधार ली हुई प्रतिभा

सबको दिखाई है,

और पूर्वजों की रचनाएं लेकर

पुस्तक अपने नाम से छपवाई है।

तुम तो बस हमारे पास आओ

शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र पा लो

खुद सम्हलो और हमें सम्हालो

कार्यक्रम का खर्च निकालो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

सम्मान के संयोजक महोदय

आपने जिन जिन विभूतियों का

सम्मान किया है,

विधाता ने भी

उनके भाग्य में क्या रचा है

समाज में उनका

सम्मान ही नहीं बचा है।

फिर भी,

आपने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को

अनेकानेक विशेषण लगाकर

तथाकथित रूप से

जितनी तेजी से

पुरस्कृत और परिष्कृत किया है।

समाज ने उतनी ही तीव्र गति से

उसी दिन से उन्हें तिरस्कृत किया है।

आपसे निवेदन है

उनकी इज्ज़त बचा लो

अपना सम्मान पत्र, शाल, श्रीफल

उनके घर से

सरेआम उठा लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न 9424608040 / 9826188236

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संतुलन

 

लालसाओं का

अथाह सिंधु,

क्षमताओं का

चिमुक भर चुल्लू,

सिंधु और चुल्लू का

संतुलन तय करता है

सिमटकर आदमी का

ययाति रह जाना

या विस्तार पाकर

अगस्त्य हो जाना!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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