हेमन्त बावनकर
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “संस्कार और विरासत”।)
मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8 ☆
☆ संस्कार और विरासत ☆
आज
मैं याद करती हूँ
दादी माँ की कहानियाँ।
राजा रानी की
परियों की
और
पंचतंत्र की।
मुझे लगता है
कि
वे धरोहर
मात्र कहानियाँ ही नहीं
अपितु
मुझे दे गईं हैं
हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत
जो ऋण है मुझपर।
जो देना है मुझे
अपनी अगली पीढ़ी को।
मुझे चमत्कृत करती हैं
हमारी संस्कृति
हमारे तीज-त्यौहार
उपवास
और
हमारी धरोहर।
किन्तु,
कभी कभी
क्यों विचलित करते हैं
कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?
जैसे
अग्नि के वे सात फेरे
वह वरमाला
और
उससे बने सम्बंध
क्यों बदल देते हैं
सम्बंधों की केमिस्ट्री ?
क्यों काम करती है
टेलीपेथी
जब हम रहते हैं
मीलों दूर भी ?
क्यों हम करते हैं व्रत?
करवा चौथ
काजल तीज
और
वट सावित्री का ?
मैं नहीं जानती कि –
आज
‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?
और
‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?
यमराज में है
कितनी शक्ति?
और
कहाँ जा रही है संस्कृति?
फिर भी
मैं दूंगी
विरासत में
दादी माँ की धरोहर
उनकी अनमोल कहानियाँ।
उनके संस्कार,
अपनी पीढ़ी को
अपनी अगली पीढ़ी को
विरासत में।
18 जून 2008
© हेमन्त बावनकर