हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 22 – जियो और जीने दो ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘जियो और जीने दो ‘।आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22  – विशाखा की नज़र से

☆ जियो और जीने दो  ☆

 

बहुत कुछ कहना चाहता हूँ मैं

बिखरें बालों को समेट कर

तुम्हारे चौड़े ललाट पर

उँगलियों की पोरों से

तुम्हारी बैचैनी, तुम्हारी अकुलाहट

और बहुत कुछ ….

 

तुम्हारे हल्के नकार में रिसती

पसीने की बूंदों को

मैं अपने फाउन्टेन पेन में भर

महाकाव्य रच देना चाहता हूँ

इस स्याह रात में ….

 

स्याह रात !

जो बदनामी के डर से

और काली हो चली है

चंद्रकोर भी ढ़क चली है

कि, कोई गवाह ना रहे हमारे प्यार का

एक  सितारा भी नज़र ना आ सके

हमारे इकरार का ..

 

पर मैं ये ना समझूँ

कि क्यों प्यार छुपाया जाए

प्यार में ख़ून बहाया जाए

दीवारों पर चुनवाया जाए

सूली पर लटकाया जाए

 

कुछ तो सुन लो कानों को बंद किये आदमी

जमाने भर के पैबंद लिए आदमी

प्यार से उपजे आदमी

आदम हौवा की संतानें आदमी

कि,

इश्क अगर बीमारी है तो होने दो

रिसते है जख्म तो रिसने दो

इसे महामारी में बदलने दो

 

यूँ तो नफरतों से बाजार भरा पड़ा है

प्यार एक कोने में दुबका खड़ा है

कहीं तो प्यार परवान चढ़ने दो

जियो और जीने दो ……….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – इको पॉइंट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – इको पॉइंट

मेरे अथक संघर्ष को

निरर्थक कहने वालो

पीछे पछताओगे,

निरर्थक के आयाम

समझ जाओगे,

आज व्यवस्था की

चट्टानों से टकराकर

गूँजता है दूर-दूर तक

मेरा स्वर…,

पत्थरों को बींधता

और दरारें पैदा करता है

मेरा स्वर…,

भविष्य में इन्हीं चट्टानों में

ख़ामोशी से

मेरी अनुगूँज सुनने आओगे

और कभी

‘इको पॉइंट’ तलाश कर

अपने स्वर में

मुझे आवाज़ लगाओगे..!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 28 ☆ रेत सी यादें …..!! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा कोहरे के आँचल में लिखी हुई एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “रेत सी यादें …..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 28 ☆

☆ रेत सी यादें …..!!

यादें लौट आती हैं

याद आने को,

आँसू बहा जाती हैं

सूख जाने को।

 

दिल को तार-तार करके

लौट जाती हैं,

कितने ही भेद खोल

करके जाती हैं ।

 

समंदर किनारे रेत का

घर तोड़ जाती हैं,

लहरें बनकर आती हैं

टकरा जाती हैं ।

 

ऊँगली से लिखे शब्द को

मिटा जाती हैं,

हाथों से बने दिल को

छेद जाती हैं ।

 

यादें रेत से सरकती

जाती हैं,

बीते लम्हों की बातें

सताकर जाती हैं ।

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तट  

भीतर तूफान के थपेड़े

बाहर सैलानियों के फेरे..,

आशंका-संभावना में

समन्वय साधे रखता है,

कितने अंतर्विरोधों को

ये तट थामे रखता है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 34 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनके द्वारा रचित  “भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 34 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे

 

चंचरीक की गूंज से,

खिलती कली हजार।

अब तो तुम समझो मुझे,

तुम मेरा संसार।।

 

पतझर झरता शाख से,

वस्त्र बदलना यार।

नई कली के रूप का

हमें  है इंतजार।।

 

मन उपवन में खिल रहे,

देखो पुष्प हजार।

धरा प्रफुल्लित देखकर,

झरते हरसिंगार।।

 

गुलशन के गुल देखकर

छाई  ग़ज़ब बहार।

आया फागुन झूम के,

रंगों   की    बौछार ।।

 

यश वैभव का गेह में,

रहे हमेशा वास।

खुशियों का छाया रहे,

जीवन में मधुमास।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “फागुन”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 25 ☆

☆ फागुन ☆

 

फाग

गाँव गाँव फागें पढ़ें,ऐसा फागुन मास

होली मन महुआ हुआ,पिया मिलन की आस

 

होलिका

जलें होलिका हर गली,लेते सब नव आग

गुजिया बनती घरों में,बढ़े प्रेम अनुराग

 

मदन

चञ्चल चितवन मन बड़ा,कभी रखे ना धीर

मन मतङ्ग व्याकुल हुआ,चुभे मदन के तीर

 

फागुन

मस्ती फागुन में बढ़ी,चढ़ा फागुनी रंग

अब अबीर उड़ने लगी,खूब मची हुड़दंग

 

महुआ

मादक महुआ झूम कर,करता बहुत कमाल

रंग फागुनी चढ़ गया,करते सभी धमाल

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 12 ☆ कविता – हर कहानी है नई ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “हर कहानी है नई .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 12 ☆

☆ हर कहानी है नई  ☆ 

 

फूल बनकर मुस्कराती

हर कहानी है नई

चाँद-से मुखड़े बनाती

हर कहानी है नई

 

बह रहीं शीतल हवाएँ

कर रहीं जीवन अमर

पर्वतों की गोद से ही

झर रहे झरने सुघर

वाणियों में रस मिलाता

बोल करता है प्रखर

 

चाँदनी रातें लुटातीं

हर कहानी है नई

 

तेज बनकर सूर्य का

ऊष्मा बिखेरे हर दिवस में

शाक ,फल में स्वाद भरता

हर तरफ ऐश्वर्य यश में

सृष्टि का सम्पूर्ण स्वामी

हैं सभी आधीन वश में

 

नीरजा नदियाँ बहातीं

हर कहानी है नई ।

 

शाश्वत है शांति सुख है

और फैला है पवन में

सृष्टि का है वह नियामक

इंद्रियों-सा  जीव-तन में

जन्म देता वृद्धि करता

वह मिले हर सुमन कण में

 

बुलबुलों के गीत गाती

हर कहानी है नई

 

है धरा सिंगार पूरित

बस रही है हर कड़ी में

हीर,पन्ना मोतियों-सी

दिख रही पारस मणी में

टिमटिमाते हैं सितारे

सप्त ऋषियों की लड़ी में

 

पर्वतों-सी सिर उठाती

हर कहानी है नई

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 34 – समय कब अच्छा रहा है?…….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  माँ नर्मदा वंदना  “समय कब अच्छा रहा है?……..। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 34 ☆

☆ समय कब अच्छा रहा है?…….. ☆  

 

हवा के रुख के इर्द-गिर्द

अब हर कोई

“कुछ अलग” कहलाने के लोभ में

लिखे, बोले जा रहे हैं-

‘आज हम ऐसे समय में ..

हम वैसे समय में ..

और न जाने

कैसे समय में जी रहे हैं,

पर वे ये बताने को

कतई तैयार नहीं

वे, पहले,

जैसे समय में जी रहे थे।

 

कार से उतरकर

कॉरपेट पर चरण रखने वाले

छालों की बात कर रहे हैं

हैं तो इधर के ही

पर प्रदर्शन में उधर से

चल रहे हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 12 ☆ कविता – अधर सिले पर संवाद बना है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता  “अधर सिले पर संवाद बना है।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 12 ☆

☆ अधर सिले पर संवाद बना है ☆

अधर सिले पर संवाद बना है

बिन बोले  ही शब्दों को जना है

 

चाँद निहारता रहा ओस रात

कुछ कहता पर कोहरा घना है

 

दाँत रहे तब हालात नहीं थे

अब तो खाने में  मना चना है

 

ईमानदारी को क्या समझेंगे

लोभ – लालच में ही मन सना है

 

मिलना ही है तुझे तेरी मंजिल

बस रखना  मन  नेक भावना है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆ जोश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जोश”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆

☆ जोश

जब सीली रात के झरोखे से

पूनम का चाँद मुस्कुराया,

चांदनी की जुस्तजू ग़ज़ब थी!

 

मैं भी उड़कर

पहुँच गयी आसमान की गोद में

और पी ली मैंने भी

दूधिया चांदनी!

 

तब से न जाने

मेरे ज़हन में जोश की

कई शाखाएं उग आयीं

और बन गयी मैं एक हरा दरख़्त

जो अपनी ख़ुशी ख़ुद ही ढूँढ़ लेता है!

 

अब तो इस दरख़्त में

कई गुल खिल उठे हैं

और ये सारे जहां को महकाते हैं

और देते हैं छाँव

उन सारे मुसाफिरों को

जो तनिक भी ग़म से पीड़ित हो उठते हैं!

 

कभी-कभी

मैं भी बैठ जाती हूँ

उसी दरख़्त के नीचे

और चूसने देती हूँ उमंग के फल

अपने ही जिगर को,

कि कहीं मेरी शाखाएं

कोई तोड़ न दे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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