हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 19 ☆ शोहरत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “शोहरत ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 19 ☆

☆ शोहरत

शोहरत तो मैंने इतनी कमाई

कि वो मेरे रग-रग में फ़ैल गयी…

 

बस, वो मुझे ही जाने क्यों रास नहीं आई!

 

न ही मेरा खून

शोहरत से ज़्यादा लाल हुआ,

न ही मेरे जिगर में

रौशनी के जुगनू उड़े,

न ही मेरी आँखों की रंगत

और बढी!

 

वो भी एक सहेली की तरह आई,

मैंने उसे बहुत वक़्त भी दिया

ताकि मैं उसे पूरी तरह समझ सकूँ,

और शायद अब

कुछ लम्हे मेरे साथ बिता

वो चली जायेगी…

 

वो सिर्फ कुछ पल की सहेली थी,

परछाईं नहीं!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – नियति ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  नियति

 

चल ही पड़ती है कलम

उच्छ्वास को इस तरह

कोई कब तक टाल सकता है,

नियति में चलना ही लिखा है

अपने आप से अबोला

कोई कब तक पाल सकता है!

 

निरंतर चलते रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8.03 , 19.11.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 7 ☆ बादल गीत ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “बादल गीत”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 7– बादल गीत ☆

 

हाथ जोड़ कर, अम्मा बोली

हाथ जोड़ कर बाबा

हाथ जोड़ कर/नद्दी-नाले

हाथ जोड़ कर

गइया-बछिया

कुत्ता-बिल्ली, मुर्गा-मुर्गी

हाथ जोड़ कर/भेड़-बकरियां

सब कह रए हैं

रुकजा बादल

–हाथ जोड़ कर, दादा बोले

हाथ जोड़ कर अम्मा

रुकजा बादल

सीड़ गइ /घर की दीवारें

टपकों से घर

भर गओ भैइया

मोड़ा-मोड़ी मचल रहे

बाहर जाबे कों/रुकजा बादल

खेतों में घुटनों तक पानी

मिट्टी बह गइ

आने-जाने की गड़बाटें

पगडंडी के संग /जैसे खो गइं…

रामभरोसे को डुकरा

बीमार धरो है/घर में बादल

हाथ जोड़ कर अम्मा बोली

हाथ जोड़ कर बाबा

रुकजा बादल

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  आउट ऑफ बॉक्स

 

माप-जोखकर खींचता रहा

मानक रेखाएँ जीवन भर

पर बात नहीं बनी..,

निजी और सार्वजनिक

दोनों में पहचान नहीं मिली,

आक्रोश में उकेर दी

आड़ी-तिरछी, बेसिर-पैर की

निरुद्देश्य  रेखाएँ

यहाँ-वहाँ अकारण,

बिना प्रयोजन..,

चमत्कार हो गया!

मेरा जय-जयकार हो गया!

आलोचक चकित थे-

आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग का

ऐसा शिल्प आज तक

देखने को नहीं मिला,

मैं भ्रमित था,

रेखाएँ, फ्रेम, बॉक्स,

आउट ऑफ बॉक्स,

मैंने यह सब

कब सोचा था भला?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 10.45 बजे,27.11.19

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 23 – राजनीति ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कविता  “राजनीति। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 23 ☆

 

☆ कविता – राजनीति  

 

राजनीतिज्ञ

हाथ देखकर

भूत भविष्य

और वर्तमान

बता सकता है।

राजनीतिज्ञ

ऐसे हाथ

उठा देता है

और

कई बार हाथ

देखने के पहले

काट भी देता है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 6 ☆ विचार ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “विचार ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 6 – विचार  ☆

 

तुम्हारे साथ

तुम्हारे

लेखक की

दो बड़ी

दिक्कत हैं

 

एक तो यह

कि तुम्हारा

लेखक

किसी को

स्वर्ग का

रास्ता

नहीं  बताता

और दूसरा

यह कि

दूसरों की तरह

यह

अमर भी

नहीं

होना चाहिता

 

ऐसा किसलिये?

ऐसा

इसीलिये।

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीवन पथ ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी  हिंदी साहित्य  की गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी  एक  अतिसुन्दर कविता “जीवन पथ ”. )

☆  जीवन  पथ  ☆

छोड़ो किस्से बात पुरानी

नया जमाना नई कहानी

 

गाँव बन गए भूल भुलैया

शहर बहुत भाता है भैया

रोजी रोटी के जुगाड़ में

दिन भर खटता है रामैया

नियति रोज उसको दौड़ाती

तब जुड़ता है दाना पानी!

 

झूठे वादों ने लूटा है

खुशियों का दामन छूटा है

व्याकुल  मन अब क्यों रोता है

सगा नहीं कोई होता है

जीवन पथ पर निकल पड़े हैं

चलती मन मे खींचा तानी।।

 

कहीं बबूलों के जंगल हैं

कहीं महकती अमराई है

पीले करने हाथ सिया के

उर में चिंता गहन समाई है

किससे मन की व्यथा बताये

दुनिया लगती है वीरानी।।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 11 – विशाखा की नज़र से ☆ लागी लगन ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना लागी लगन अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 11 – विशाखा की नज़र से

☆ लागी लगन ☆

 

प्रीत की धुन छिड़ी,
छिड़ी बस छिड़ती रही
अब तू नाच …..

 

देख स्वप्न , दिवास्वप्न भी
मूंद आँखे या अधखुली
अब तू जाग …….

 

बोलेगा हर अंग तेरा ,
हर राग तेरा , गीत तेरा
अब तू गा …….

 

प्रेमपथ पर देह चली ,
गीत गाते मीरा चली ,
कृष्ण की परिक्रमा उसका नाच है ,
अधखुली दृष्टि उसकी जाग है ,
समर्पण , प्रेम का दूजा नाम है ।
तो ,
अब तो तू जाग ………

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मेरा प्यार अभागा गाँव ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  बदलते हुए ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता – मेरा प्यार अभागा गाँव। इस रचना के सम्पादन के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं । )

अगले सप्ताह रविवार से हम प्रस्तुत करेंगे श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली माई “।

☆ मेरा प्यार अभागा गाँव  ☆

उजड़  गये हैं घर-मुंडेर
 उजड़ रहे अब गाँव,
  पेड़ कट गए  दरवाजे के
   नहीं रही अब वो ठंडी छांव…
पट गये सब ताल-तलैया,
 सूख गया, कुँओं का नीर,
  पनघट खत्म हुए गाँवों से,
    कौन सुने अब उनकी पीर…
कौवे तक नहीं रहे गाँवों में,
 गोरी का सगुन  बिचारे कौन,
  पितृपक्ष भी हो गया सूना,
   आओ काग पुकारे कौन…
उजड़ गये सब बाग-बगीचे
 कजरी आल्हा हुए अब बंद,
  खत्म हुआ चहकना चिड़ियों का
   झुरमुट बंसवारी भी रहे चंद…
नहीं रही घीसू की मड़ई,
 नहीं रहे वो थिरकते पाँव
  नहीं रही वो सँकरी गलियाँ
   नहीं रहे वो चहकते गाँव…
नहीं रहा अब हुक्का-पानी,
 नहीं रहे वो गर्म-अलाव,
  गाँव की गोरी, चली शहर को,
   खाती नूडल, पास्ता और पुलाव…
जब से गगरी बनी सुराही,
 चला शहर गाँवो की ओर,
  खत्म हो गई लोकधुनें सब,
   रह गया बस डीजे का शोर…
खत्म हो गया अब  देशी
 गुड़, शर्बत और ठंडी लस्सी,
  ठेलों पर बिकता पिज्जा-बर्गर
   नहीं बनती है अब रोटी-मिस्सी…
शुरू हो गई अब गाँवों में
 आधुनिकता की अंधी रेस,
  ललुआ अब बन गया हीरो,
   धारे है निपट, जोकर  का वेश…
जब से आया शहर गाँव में,
 नहीं रही ममता की छाँव,
  रौनक सब खत्म हुई अब,
   उजड़ा-उजड़ा सा मेरा गाँव..

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य #1 ☆ कविता – ओंस की बूँदे  ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  ओंस की बूँदे । अब आप प्रत्येक रविवार सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #1 ☆ कविता – ओंस की बूँदे  ☆ 

ओंस की पहली बूँद जब गिरी ,

तब तुम्हारी कल्पना हुईं ,

सर्दी की सूनी रातों में ,

तुम्हारी पायल की झंकार हुईं ,

खनकी जो तेरे हाँथो की चूड़ी ,

तो बिन बादल बरसात हुईं ,

तेरी इक झलक के लिए ,

भँवरों में भी यलगार हुईं ,

जब खुदा ने बनाया तुझे ,

तो उसके मन में भी दरार हुईं ,

उठी जो तेरी पलकें भरी महफ़िल में ,

तो हर नज़र बेक़रार हुईं ,

सहरा में जो तूने रखा कदम ,

तो हर डाली गुलज़ार हुईं

तेरे इक दीदार की चाहत में ,

हर गली परवानों से सरोबार हुईं  . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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