हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 20 ☆ संतोष के दोहे ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  उनके  अतिसुन्दर दोहे  “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 20 ☆

☆ उन्नीस बीस ☆

खुलकर स्वागत कीजिये,द्वार खड़ा अब बीस

करिये अब हँसकर विदा,बाय बाय उन्नीस

बाय बाय उन्नीस,जाते जाते रो दिया

देकर नवीन सीख,सदा के लिये सो गया

कहते कवि “संतोष’,बीस होगा अब हटकर

रखिये दिल में जोश,करें राष्ट्र हित खुलकर

 

☆ जीवन  ☆

जीवन के हर मोड़ पर,लें साहस से काम

मुश्किलों से डरें नहीं,आती रहें तमाम

आती रहें तमाम,दिल करिए कभी न छोटा

भजिये सीताराम, काम करें नहीं खोटा

कहते कवि “संतोष”,नहीं हों आश्रित मन के

हर क्षण रखिये होश,साथ अनुभव जीवन के

 

☆ उपवन  ☆

मन उपवन फूले फले,आये नई बहार

काँटो से हो दोस्ती,ऐसा हो किरदार

ऐसा हो किरदार, सभी को गले लगाले

रहे प्रेम व्यबहार,रूठों को भी मना ले

कहते कवि “संतोष”,स्वस्थ जब होगा तन- मन

दिल में हो जब जोश,खिलेगा तब मन उपवन

 

☆ अटल ☆

दृढ़ संकल्पित हों अगर, बनते मुश्किल काम

लक्ष्य कभी ना छोडिये,आयें विघ्न तमाम

आयें विघ्न तमाम, न डरकर पीछे हटिये

मिले न जब तक लक्ष्य ,सदा काम पर डटिये

कहते कवि “संतोष”,जीत उनकी है निश्चित ।

भरकर मन में जोश,रहें जो दृढ़ संकल्पित ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – केंचुली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – केंचुली ☆

केंचुली उतारते साँप को देखा
कौन अधिक विषधर
चेहरे चढ़ाते इंसान को देखा।
व्यवहार में पारदर्शिता रहे, सम्बंधों में समदर्शिता रहे।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 8 ☆ कविता – अस्मिता बनी रहे ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “अस्मिता बनी रहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 8 ☆

☆  अस्मिता बनी रहे ☆ 

 

अस्मिता बनी रहे

सुष्मिता बनी रहे

देश में रहे अमन

स्वच्छता बनी रहे

 

कर्म हम सुभग करें

झूठ से नहीं डरें

प्रीति-रीति जिंदगी

नेह का सफर करें

 

पोर-पोर में पुनीत

नव्यता बनी रहे

 

देश के लिए जिएँ

देश के लिए मरें

सत्य-पंथ पर चलें

रंग प्रेम के भरें

 

मुस्कुराएँ ताल-स्वर

काव्यता बनी रहे

 

सृष्टि को करें नमन

वृष्टि का करें शमन

छोड़कर बुराइयाँ

हो सदा अमन-चमन

 

सोच योगमय रहे

सभ्यता बनी रहे

 

लोभ, क्रोध हैं मरण

दानवीर हैं करण

मात-पित्र भक्ति ही

देवतुल्य आचरण

 

ज्ञान के प्रकाश में

भव्यता बनी रहे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 29 – मिलकर आज समीक्षा कर लें…… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  किशोर मन की एक नवीन कविता  मिलकर आज समीक्षा कर लें…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 29☆

☆ मिलकर आज समीक्षा कर लें…… ☆  

 

अच्छे दिन आने वाले हैं

थोड़ी और प्रतीक्षा कर लें

तबतक पढ़ें-लिखें हम मिलकर

अपनी पूरी शिक्षा कर लें।।

 

अच्छे दिन तब ही आएंगे

अच्छी बातें अपनाएंगे

नहीं भरोसा रहा किसी पर

हम ही अच्छे दिन लायेंगे,

होंगे सफल इरादों में हम

मन में ये दृढ़ इच्छा कर लें……।

 

झांसे में न किसी के आएं

सब्जबाग जो हमें दिखाए

मुफ्त प्रलोभन में उलझा कर

उल्टे-सीधे स्वांग रचाए,

जांच-परख कर अब हम उनकी

पहले सही परीक्षा कर लें……।

 

स्वयं हमें आगे बढ़ना है

झंझावातों से लड़ना है

अपने ही पदचिन्हों से अब

नई – नई राहें गढ़ना है,

रोजी रोटी अब दूजों से

बन याचक ना भिक्षा पर लें…..।

 

समझ रहे जो हमें खिलौने

पंगत वाले पत्तल – दोने

अब न शिकंजे में आयेंगे

हमें न समझे आधे-पौने,

समयचक्र की गति पहचाने

मिलकर आज समीक्षा कर लें…..।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अखबारो से आशा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  अखबारों के बाजारीकरण एवं गिरती दशा पर एक कविता  ‘अखबारो से आशा‘। ) 

 

☆ अखबारो से आशा ☆

 

खबरे कम विज्ञापनो की दिखती भरमार

बदल चुके है रूप रंग अपना सब अखबार

वास्तविकता से निरंतर होते जाते दूर

पत्रकारिता कर रही धन ले अधिक प्रचार

 

कहलाते जनतंत्र के रखवाले अखबार

पर अब वे देते कहाॅ उंचे सही विचार?

पाठक पा पाता नहीं पढने से संतोष

समाचार मिलते हुए अनाचार व्यभिचार

 

सत्य न्याय प्रियता से कम होता दिखता प्यार

बढता जाता झूठ गलत बातो पर अधिकार

भूल रहे संस्थान सब अपने शुभ उद्धेश्य

लगता है हो गये है व्यापारिक बाजार

 

बदल रहा है आजकल जब सारा संसार

हर एक क्षेत्र में बढ रहा अनुचित अत्याचार

मानव मन विचलित तथा है अनीति मे लिप्त

आशा है अखबार से वे कुछ करें सुधार

 

नीति नियम अवमानना से बढती तकरार

सत्य ही हर कल्याण का है पावन आधार

चाहते हंै आशा किरण हो लोग निराश

पत्र दे विमल प्रकाश तो कट सकता अंधियार

 

प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव ’विदग्ध’

ए-1,शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर

मो. 9425484452

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 1 ☆ राजनीति शास्त्र बनाम राजनैतिक शस्त्र ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” प्रारम्भ करने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। कुछ समय से आपकी अपनी ब्लॉग साइट/ई-पत्रिका “ई-अभिव्यक्ति” के सम्पादन में से समय निकाल कर कुछ नया लिखने और अपने पुराने साहित्य के अवलोकन के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा एवं अपनी स्वांतःसुखाय रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

 

साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #1  

☆ राजनीति शास्त्र बनाम राजनैतिक शस्त्र ☆

 

प्रश्न था

राजनीति शास्त्र की परिभाषा?

 

लोकतंत्र में जन्में,

राजनैतिक छात्रावास में पले

विचारशील,

क्रान्तिकारी छात्र का

उत्तर था

’राज’ नेताओं के लिये

’नीति’ जनता के लिये

और

’शास्त्र’ छात्रों के लिये।

 

अब यदि

आप पूछेंगे उससे

छात्र की परिभाषा

तब निःसन्देह

उसका उत्तर होगा

’राजनैतिक शस्त्र’।

 

(काव्य- संग्रह ‘शब्द और कविता’ से)

17 जनवरी 1982

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तब लिखो..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तब लिखो..!  ☆

(एक पुरानी रचना, नए कलेवर में)

थोड़ा पढ़ो

कुछ गुनो

कम बोलो

अधिक तौलो,

निरंतर सुनो

अविराम सोचो

हरेक से सीखो

तब लिखो..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “पिंजरा”  as  ☆ Caged Willpower ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – पिंजरा ☆

 

पिंजरे की चारदीवारियों में

फड़फड़ाते हैं मेरे पंख

खुला आकाश देखकर

आपस में टकराते हैं मेरे पंख,

मैं चोटिल हो उठता हूँ

अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ

अपनी असहायता को

आक्रोश में बदल देता हूँ,

चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ

अपलक नीलाभ निहारता हूँ,

फिर थक जाता हूँ

टूट जाता हूँ

अपनी दिनचर्या के

समझौतों तले बैठ जाता हूँ,

दुःख कैद में रहने का नहीं

खुद से हारने का है

क्योंकि पिंजरा मैंने ही चुना है

आकाश की ऊँचाइयों से डरकर

और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ

इस कैद से ऊबकर,

एक साथ, दोनों साथ

न मुमकिन था, न है

इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ

खुले बादलों का आमंत्रण देख

पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ

फिर बिन उड़े

पिंजरे में मिली रोटी देख

पंख समेट लेता हूँ,

अनुत्तरित-सा प्रश्न है

कैद किसने, किसको कर रखा है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ सिद्ध ☆ श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

☆ कविता  –  सिद्ध ☆

स्वयं सिध्द

और सील-ठप्पे लगे

सरकारी कागजों को

फिर दुबारा सिध्द करने की

फालतू जिद में

कितना समय लगता है

देश को ?

–यह स्वयंसिद्ध है

और

सही बात तुम्हें सरकार

और उसके नुमाइंदों से ही

मिलकर पूछना चाहिए..

लेकिन मेरे मिलने से पहले ही

माफिया मिल लेते हैं

इसलिये मैं,

अपने आप को

यह सिध्द नहीं कर पाता

कि मैं भी आदमी हूँ

क्योंकि

मेरा मानना है कि

हर आदमी के अंदर

सही दिल-दिमाग का एक

ईमानदार

आदमी रहता है।

लेकिन मेरी इस बात को कोई

मानने को तैयार ही नहीं …

—तुम्हारी असल दिक्कत

तुम्हारी ईमानदारी और

तुम्हारी कल्पनाओं का यह

सुंदर आदमी ही है, गोपाल!

जो तुम्हें सिध्द नहीं होने देता

और हर बार तुम

आदमी होने से छूट जाते हो।

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 22 ☆ जिंदगी और हालात ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “जिंदगी और हालात”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 22 ☆

☆ जिंदगी और हालात

बदल जाती है जिंदगी,

हालातों के साथ,

इन्सां के पास क्या होता है?

मलता है हाथ

सामना करते हुए ,

कभी झुक जाता है,

ठोकर खाकर गिरने पर,

रूक जाता है।

हवा का रूख पलटकर ,

कभी चलता है,

जलते चरागों से खुद को,

कभी बचाता है।

बदल जाते हैं रास्ते,

बदल जाते हैं चराग भी

हालातों से बचकर ,

जहां कभी बनता है?

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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