हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 11 ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “अनुरागी ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 11  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 13 ☆ ईज़ाद ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 13 ☆

 

☆ ईज़ाद ☆

 

वर्षों से गरीबी का दंश झेल रहे

माता-पिता ने विवश होकर कहा

हम नहीं कर पा रहे रोटी का जुगाड़

न ही करवा पा रहे हैं

तुम्हारी बहन का इलाज

 

बालक दौड़ा-दौड़ा

डाक्टर के पास गया

और उनसे किया सवाल

‘ क्या तुमने की है ऐसी दवा ईज़ाद

जो भूख पर पा सके नियंत्रण ‘

 

डॉक्टर साहब का माथा चकराया

आखिर उस मासूम बच्चे के ज़ेहन में

सहसा यह प्रश्न क्यों आया

 

वह बालक बेबाक़ बोला

‘तुमने चांद पर विजय पा ली

मंगल ग्रह पर सृष्टि रचना के स्वप्न संजोते हो

पूरी दुनिया पर आसीन होने का दम भरते हो’

 

ज़रा! हमारी ओर देखो…सोचो

कितने दिन हम जी पाएंगे पेट पकड़

भूख से बिलबिलाते

पेट की क्षुधा को शांत करने को प्रयासरत

शायद हम करेंगे लूटपाट,डकैती

व देंगे हत्या को अंजाम

और पहुंच जाएंगे सीखचों के पीछे

जहां सुविधा से स्वत:प्राप्त होगी

रोटी,कपड़ा और सिर छिपाने को छत

 

साहब! संविधान में संशोधन कराओ

सबको समानता का ह़क दिलवाओ

ताकि भूख से तड़प कर

कर्ज़ के नीचे दबकर

किसी को न करनी पड़े आत्महत्या

और देने पड़ें प्राण।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सोचो जरा….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?✍ संजय दृष्टि  – सोचो ज़रा..! ✍?

 

सोचने लगा

तो यों ही सोचा,

चाहे तो जला देना

मेरे साथ

मेरा पसंदीदा

कुर्ता-पायजामा,

जीन्स, हाफ कुर्ता,

मेरा चश्मा और..

पसंदीदा की

इससे लम्बी फेहरिस्त

नहीं है मेरी..,

खैर! जो-जो तुम चाहो

कर देना आग के हवाले

पर सुनो,

हाथ मत लगाना

मेरे प्रसूत शब्दों को..,

 

फिर आगे सोचा

तो यों ही सोचा

आखिर क्यों मानोगे

तुम मेरी बात..,

चलो, जला भी दिये मेरे शब्द

सोचो, कागज़ ही जलेगा न!

तुम्हारे ज़ेहन में तो

चाहे-अनचाहे

बसे ही रहेंगे मेरे शब्द,

भला उनको कैसे जलाओगे?

 

फिर आगे सोचा

तो यों ही सोचा

मान लो कर दिया जाये

तुम्हारा ब्रेन वॉश,

जैसा आतंकियों का

किया जाता है,

फिर तुम्हारे ज़ेहन में

नहीं बसेंगे मेरे शब्द,

पर सुनो, तब भी

नष्ट नहीं होंगे मेरे शब्द..!

 

चलो तुम्हारी झुंझलाहट

सुलझा दूँ

इस पहेली का

हल समझा दूँ,

अब मैंने जो सोचा

तो यह सोचा,

जो मैंने लिखा

वह पहला नहीं था

और आखिरी भी नहीं होगा..!

 

मुझसे पहले

हज़ारों, लाखों ने

यही सोचा, लिखा होगा,

मेरे बाद भी

हज़ारों, लाखों

यही सोचेंगे, यही लिखेंगे!

 

सो मेरे मित्रो!

सो मेरे शत्रुओ!

मिट जाता है शरीर

मिट जाते हैं कपड़े,

जूते, चश्मा, परफ्यूम

बेंत आदि-आदि..,

पर अमरपट्टा लिए

बैठे रहते हैं शब्द

जच्चा वॉर्ड से श्मशान तक,

अतीत हो जाते हैं व्यक्ति

व्यतीत नहीं होते विचार,

विश्वास न हो तो

सोच कर देखो बार!

 

तुम सोचोगे तो

तुम भी यही लिखोगे,

सोचने लगा तो

यों ही सोचा,

फिर आगे सोचा तो

वही सोचा

जो तुमने था सोचा,

जो उसने था सोचा,

जो वे सोचेंगे,

सोचो, ज़रा सोचो

सोचो तो सही ज़रा..!

 

आज और सदा अपनी नश्वरता और अपने अमर्त्य होने का भान रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 2 – मिट जाएगा …. ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “मिट जाएगा…. ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 2 ☆

 

☆ मिट जाएगा….

 

खुशियों के चंद लमहों के लिए,

आस्था-परंपरा को पैरों तले रौंदने वाले,

मृग-मरीचिका के पीछे क्यों कर भागे,

खुद अस्तित्व भूल औरों को जहर पिलाने वाले,

मिट जाएगा क्षण भर में तू,

खुदगर्ज बन औरों की राह मिटाने वाले.

 

अपनों को तोड़कर लोलुपता के पकड़े जो रास्ते,

रोएगा वह फिर बिखरे रिश्ते जोड़ने के वास्ते,

फिर रिश्तों को सी पाया है भला कोई कभी,

ऐ रिश्तों को कच्ची-टुच्ची ड़ोर समझने वाले,

मिट जाएगा…….

 

संसार मोह, भरम का भंडार है यहाँ,

ईमान, सच्चाई, करम से छुटकारा भी कहाँ,

इन्हें छोड़ पथ तू सँवर पाएगा कभी,

द्वेष, दंभ को अपनाकर खुद को नोचने वाले,

मिट जाएगा…….

 

सपने सच होंगे सच्चाई जब साथ हो

स्वार्थ नहीं अब परोपकार  की बात हो,

उनको भला भूल पाया है संसार कभी,

खुद करने भला औरों के सिर काटने वाले,

मिट जाएगा…….

 

खाली हाथ आया था खाली हाथ ही जाएगा,

जो करम तुम्हारा था वही साथ ले जाएगा,

सत्कर्म नहीं झुके हैं जमाने के आगे कभी,

फूल ही बिखेरना औरों के पथ काँटे बिछाने वाले,

मिट जाएगा………

 

वक्त नहीं गुजरा अभी तू सिर को उठाए जा,

मत सोच खुद का पर काज हित बीज बोए जा,

फसल लहलहाएगी जिंदगी की कभी न कभी,

समझदार होकर ना समझी की नौटंकी वाले,

मिट जाएगा……..

-०-

१९ अगस्त २०१९

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5 ☆ छोटी ज़िंदगी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “छोटी ज़िंदगी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5   

☆ छोटी ज़िंदगी ☆

 

कभी देखा है ध्यान से तुमने

मस्ताने गुलों को पेड़ों की डालियों पर

मुस्कुराते हुए?

 

शर्माती सी कली

जब एक गुल में परिवर्तित होती है,

उसका चेहरा ही बदल जाता है

और लबों पर उसके लाली छा जाती है!

 

हवाएँ इन इठलाते गुलों को

कभी चूमती हैं,

कभी मुहब्बत से गले लगा लेती हैं;

सूरज इनमें रौशनी भर

इनमें नया जोश पैदा करता है;

तितलियाँ और भँवरे

इनसे इश्क कर बैठते हैं;

पर यह गुल

इन सभी बातों से अनजान,

सिर्फ ख़ुशी से झूलते रहते हैं!

 

कभी-कभी इनको देखकर

बड़ा आश्चर्य होता है…

क्या यह गुल नहीं जानते

कि इनकी ज़िन्दगी इतनी छोटी है?

 

सुनो,

शायद यह बात गुल

अच्छे से जानते हैं,

और शायद यह भी समझते हैं

कि जितनी भी ज़िन्दगी हो

उसमें हर पल का लुत्फ़ लेना चाहिए;

तभी तो यह इतना खुश रहते हैं…

 

आज

अपने बगीचे में

जब एक बार फिर एक शोख गुलाबी गुलाब को

ख़ुशी से सारोबार देखा,

मेरे भी सीने में बसा हुआ डर

कहीं उड़ गया!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title ?✍ Creativity ✍? published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi ji for this beautiful translation.)

 

?✍ संजय दृष्टि  – सृजन ✍?

 

कोई धन से अड़ा रहा

सम्पर्कों पर कोई खड़ा रहा,

प्राचीन से अर्वाचीन तक

बार्टर का सिलसिला चला रहा,

मैं निपट बावरा अकिंचन

केवल सृजन के बल पर टिका रहा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रकृति (1-2) ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

?? संजय दृष्टि  – प्रकृति (1-2) ??

 

 

प्रकृति-1

 

प्रकृति ने चितेरे थे चित्र चहुँ ओर

मनुष्य ने कुछ चित्र मिटाये

अपने बसेरे बसाये,

 

प्रकृति बनाती रही चित्र निरंतर,

मनुष्य ने गेरू-चूने से

वही चित्र दीवारों पर लगाये,

 

प्रकृति ने येन केन प्रकारेण

जारी रखा चित्र बनाना

मनुष्य ने पशुचर्म, नख, दंत सजाये,

 

निर्वासन भोगती रही

सिमटती रही, मिटती रही,

विसंगतियों में यथासंभव

चित्र बनाती रही प्रकृति,

 

प्रकृति को उकेरनेवाला

प्रकृति के खात्मे पर तुला

मनुष्य की कृति में

अब नहीं बची प्रकृति,

 

मनुष्य अब खींचने लगा है

मनुष्य के चित्र..,

मैं आशंकित हूँ,

बेहद आशंकित हूँ..!

 

प्रकृति-2

 

चित्र बनाने के लिए उसने

उतरवा दिये उसके परिधान,

फटी आँखे लिए वह बुदबुदाया-

अनन्य सौंदर्य! अद्भुत कृति!

वीभत्स परिभाषाएँ सुनकर

शर्म से गड़ गई प्रकृति..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 10 – “गरीबासन” तथा  “कोशिश ” ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  दसवीं कड़ी में उनकी दो लघु कवितायें  “गरीबासन” तथा  “कोशिश ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 10 ☆

 

☆ गरीबासन ☆ 

 

धूप है कि चिलचिलाती

भूख है फिर कुलबुलाती

जीवन भर की चाकरी

पर पटती नहीं उधारी

सुख चैन छिना कैसी तरक्की

मंहगे गुड़चने में फसी बेबसी

 

☆ कोशिश ☆ 

 

साजिशें वो रचते है

दुनिया में

जिन्हें कोई

जंग जीतनी हो…….

हमारी कोशिश तो

दिल जीतने की होती है…

ताकि रिश्ता

कायम रहे

जब तक जिंदगी हो ..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गंतव्य की ओर ☆ – सुश्री पल्लवी भारती

सुश्री पल्लवी भारती 

 

(प्रकृति अपने प्रत्येक रूप के रंगो- छंदों से केवल एक ही इशारा करती है, कि “आओ, अपने गंतव्य की ओर चलो”… इसी विषय पर आधारित है  सुश्री पल्लवी भारती जी की यह कविता- “गंतव्य की ओर”।) 

 

? गंतव्य की ओर ?

 

प्रात: रश्मि की किरण से,

और सांध्य के सघन से;

रक्त-वर्णित अंबुधि में,

अरूण के आश्रय-सुधि में;

सप्ताश्र्व-रथ पे आरूढ़,

सदैव से निश्चयी दृढ़।

दीप्त भाल विशाल ज्यों क्षितिज के उस छोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

खग- गणों के कलरवों में,

मौन हुए गीतों के स्वर में;

एक चिंतन भोज्य-कण,

और तिनकों का संरक्षण।

अस्थिर गगन और धूलिमय नभ;

ध्येय अपना पीछे हुआ कब?

शीघ्रतम दिन व्यतीत ज्यों अब हुआ है भोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

पुष्प तरूवर वाटिका,

चाहे लतिका वन-कंटिका;

तृण-शिशु और पल्लवित पर,

सहला रहे हैं मारूत्य-कर।

फल फूल मुखरित कंठ से,

सेवा आगाध आकंठ से।

नव-शाख पुलकित हरिताभ पट-धर और पुष्पित डोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

उन्माद गिरि का निर्झर है,

उल्लास नदी का प्रखर है;

संसृति कूल-किनारें सिंचित,

नानाविधि जीवन संरक्षित।

पथ दुर्गमों को कर पार,

लहरें हैं नाची बारंबार।

जीवन प्रदत्त अस्थिर चपलता द्रुत गति अघोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

दिन-रैन संग में सन्निहित,

काल-भाल पट्टिका पर उद्धृत।

हो बाल रवि या नव निशा,

हो तुच्छ प्राणी या वसुन्धरा;

वायु पतझड़ कोकिला स्वर,

द्वंद्व संगम लीन कर।

फिर कहाँ कैसी प्रतीक्षा प्रलाप का है शोर!

चलें गंतव्य की ओर॥.

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – कविता -☆ श्रद्धांजलि ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा  पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी की प्रथम पुण्यतिथिपर श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई कविता  “श्रद्धांजलि”।)

 

☆ अटल स्मृति – श्रद्धांजलि ☆

 

हे राजनीति के भीष्म पितामह!

हे कवि हृदय, हे कवि अटल!

हे  शांति मसीहा प्रेम पुजारी!

जन महानायक अविकल।

हे राष्ट्र धर्म की मर्यादा,

हे चरित महा उज्जवल।

नया लक्ष्य ले दृढ़प्रतिज्ञ,

आगे बढ़े चले अटल।

हे अजातशत्रु जन नायक ॥1॥

 

आई थी अपार बाधाएं,

मुठ्ठी खोले बाहे फैलाये।

चाहे सम्मुख तूफान खड़ा हो,

चाहे  प्रलयंकर घिरे घटाएँ।

राह तुम्हारी रोक सकें ना ,

चाहे अग्नि अंबर बरसाएँ।

स्पृहा रहित निष्काम भाव,

जो डटा रहे वो अटल।

हे अजातशत्रु जन नायक ॥2॥

 

थी राह कठिन पर रुके न तुम,

सह ली पीड़ा पर झुके न तुम,

ईमान से अपने डिगे न तुम,

परवाह किसी की किए न तुम,

धूमकेतु बन अम्बर में

एक बार चमके  थे तुम।

फिर आऊंगा कह कर के,

करने से कूच न डरे थे तुम।

हे अजातशत्रु जन नायक ॥3॥

 

काल के कपाल पर,

खुद लिखा खुद ही मिटाया।

बनकर प्रतीक शौर्य का,

हर बार गीत नया गाया।

लिख दिया अध्याय नूतन,

ना कोई अपना पराया ।

सत्कर्म से अपने सभी के,

आंख के तारे बने।

पर काल के आगे विवश हो,

छोड़कर हमको चले।

हम सभी दुख से है कातर

श्रद्धा सुमन अर्पित किये।

सबके हृदय छाप अपनी

आप ही अंकित किये ॥4॥

 

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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