हिन्दी साहित्य – कवितायें ☆ दो कवितायें 1. आसमां 2. जमीन ☆ सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

(आज प्रस्तुत हैं सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी  को  दो कवितायें  ‘आसमां ‘ और ‘जमीन’ ।)

 

एक 

? आसमां ?

 

बहती पवन  का यह शोर

खींच ले गया मुझे उस ओर

बीते हुए पल, बीते हुए क्षण

बीती हुई यादें,बीते हुए वादे

मानों कल की ही हो बात

वो हँसी-ठट्ठे,वो अठ्खेलियाँ

वो खेल-खिलौने,वो सखी-सहेलियाँ

ना थी आज की चिन्ता,

ना था कल का डर

जीते थे,जीते थे केवल उसी पल

छोटे-छोटे पलों में ही

छुपी थीं बड़ी-बड़ी खुशियाँ

दुःख-दर्द,कलह-क्लेश का

ना था कुछ एहसास

समय ने ली करवट

हुआ दूर वो सपना

ज़िंदगी की हकीकत से

हुआ जब सामना

लगा उड़ता हुआ कोई परिंदा

गिरा हो आकर ज़मीन पर धड़ाम

बनाना था पंखों को सक्षम

बनाने थे अभी कई मुकाम

नापने थे अभी कई नये आसमां !

 

दो 

? जमीन  ?

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर!

नई उड़ान,नये मुक़ाम,

     पाना तो है बहुत ख़ूब!

पर रुक कर साँस लेने,

     ज़िंदा रहने को,

धरती पर टिके रहना भी है ज़रूरी!

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर……!           

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 6 ☆ स्त्री क्या है? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “स्त्री क्या है ?”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 6  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ स्त्री क्या है ? 

 

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तों के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन.

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गौरैया ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने हीरा तलाश कर भेजा है। संभवतः ग्रामीण परिवेश में रहकर ही ऐसी अद्भुत रचना की रचना करना संभव हो। कल्पना एवं शब्द संयोजन अद्भुत! मैं  निःशब्द एवं विस्मित हूँ, आप भी निश्चित रूप से मुझसे सहमत होंगे। प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी कीअतिसुन्दर रचना “गौरैया”।)

संक्षिप्त परिचय 

व्यवसाय – कृषि, इंजन मैकेनिक

नौकरी – डाक विभाग – ग्रामीण पोस्टमैन

सम्मान – “कलम के सिपाही” टर्निंग टाइम द्वारा प्रदत्त 5 अगस्त 2017

अभिरुचि – समाज सेवा, साहित्य लेखन

सामाजिक कार्य – रक्तदान, मृत्यु-पश्चात शोध कार्य हेतु देहदान, बहन की मृत्यु पश्चात नेत्रदान में सहयोग, निर्धन कन्याओं के विवाह में सक्रिय योगदान।

 

 ☆ गौरैया ☆

 

मेरे घर के मुंडेर पर

गौरैया एक रहती थी

अपनी भाषा मे रोज़ सवेरे

मुझसे वो कुछ कहती थी

 

चीं चीं चूं चूं करती वो

रोज़ माँगती दाना-पानी

गौरैया को देख मुझे

आती बचपन की याद सुहानी

 

नील गगन से झुंडों में

वो आती थी पंख पसारे

कभी फुदकती आँगन आँगन,

कभी फुदकती द्वारे द्वारे

 

उनका रोज़ देख फुदकना,

मुझको देता  सुकूँ रूहानी

गौरैया को देख मुझे

आती बचपन की याद सुहानी…

 

चावल के दाने अपनी चोंचों में

बीन बीन ले जाती थी

बैठ घोसलें के भीतर वो

बच्चों की भूख मिटाती थी

 

सुनते ही चिड़िया की आहट

बच्चे खुशियों से चिल्लाते थे

माँ की ममता, दाने पाकर

नौनिहाल निहाल हो जाते थे

 

गौरैया का निश्छल प्रेम देख

आँखे मेरी भर आती थी

जाने अनजाने माँ की मूरत

आँखों मे मेरी, समाती थी

 

माँ की यादों ने  उस दिन

खूब मुझे रुलाया था।

उस अबोध नन्ही चिड़िया ने

मुझे प्रेम-पाठ पढ़ाया था

 

नहीं प्रेम की कोई कीमत

और नहीं कुछ पाना है

सब कुछ अपना लुटा लुटाकर

इस दुनिया से जाना है

 

प्रेम में जीना, प्रेम में मरना

प्रेम में ही मिट जाना है,

ढाई आखर प्रेम का मतलब

मैंने गौरैया से ही जाना है!

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 7 – गुरु पर्व पर विनम्र नमन….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  गुरु पर्व  पर प्रस्तुत है एक कविता  “गुरु पर्व पर विनम्र नमन…..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 7 ☆

 

☆ गुरु पर्व पर विनम्र नमन…..  ☆  

 

क्या कहें आपको, अध्यापक

टीचर, शिक्षक जी, या गुरुवर

या कहें, शिक्षकों के शिक्षक

दीक्षा दानी, हे पूण्य प्रवर।

 

क, क-कहरा से शुभारम्भ

ज्ञ, ज्ञान प्राप्ति ,करवाते हो

य, योग, गुणनफल, गुण अनेक

भ, भाग-बोध सिखलाते हो।

 

जीवन के लक्ष्य प्राप्ति में, गुरुवर

सहचर तुम बन जाते हो

बाधाओं से,  संघर्ष करें

साहस के मंत्र, सिखाते हो।

 

कहते हैं कि, है शब्द – ब्रह्म

तो, ब्रह्म ज्ञान के, हो दाता

गुरु-गोविंद में से पूज्य कौन

गुरुवर ही है, विद्या दाता।

 

हो ज्ञानी, तुम सम्माननीय

हे वंदनीय, है नमन् तुम्हें

अभिलाषा है, अनवरत,गुरु-

मुख से, अमृत रसधार बहे।

 

आशीष आप के बने रहें

गुण-ज्ञान की, प्रीत फुहार रहे

सद्भाव, शांति, करुणा, मन में

जन-जन से, मधुमय प्यार रहे।

 

है नमन् तुम्हें, सादर प्रणाम

शिक्षक गुरुजन का,अभिनंदन

अन्तर्मन, भक्ति भाव से,शीष

झुका कर, करते हैं, वन्दन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सनातन प्रश्न ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  उनकी एक विचारणीय कविता   “सनातन प्रश्न ”।)

 

☆ सनातन प्रश्न

 

चंद सनातन प्रश्नों के

उत्तर की तलाश में

मन आज विचलित है मेरा

कौन हूं,क्यों हूं

और क्या है अस्तित्व मेरा

 

शावक जब पंख फैला

आकाश में उड़ान भरने लगें

दुनिया को अपने

नज़रिए से देखने लगें

उचित-अनुचित का भेद त्याग

गलत राह पर कदम

उनके अग्रसर होने लगें

दुनिया की रंगीनियों में

मदमस्त वे रहने लगें

माता-पिता को मौन

रहने का संकेत करने लगें

उनके साथ चंद लम्हे

गुज़ारने से कतराने लगें

आत्मीय संबंधों को तज

दुनियादारी निभाने लगें

तो समझो –मामला गड़बड़ है

 

कहीं ताल्लुक

बोझ ना बन जाएं

और एक छत के नीचे

रहते हुए होने लगे

अजनबीपन का अहसास

सहना पड़े रुसवाई

और ज़लालत का दंश

तो कर लेना चाहिए

अपने आशियां की ओर रुख

ताकि सुक़ून से कर सकें

वे अपना जीवन बसर

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

गुरु पुर्णिमा विशेष 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक  भावप्रवण कविता।)

 

☆ हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है ☆

 

हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है,

गुरुओं की स्मृति जगाने मन में आया है।

मन में बहते गुरु प्रेम का ये सिंधु लाया है,

गुरुकृपा वात्सल्यता की सौगात लाया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – आया है।

 

गुरूः बृह्मा गुरुः विष्णु गुरुः देवो महेश्वरः,

गुरूः साक्षात् परबृहम् का मंत्र लाया है।

गुरू सच्चा मिल जाए तो मिलता है ईश्वर,

जीवन में सफलता के वो सोपान लाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – आया है।

 

गुरू वशिष्ठ और विश्वामित्र की ही कृपा थी,

दोनों के सान्निध्य ने राम त्रेता में  बनाया है।

सांदीपनी ने द्वापर में कृष्ण बलराम लाया है,

द्रोणाचार्य की शस्त्र विद्या ने अर्जुन बनाया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

परशुराम ने गंगापुत्र को अजेय भीष्म बनाया है,

चाणक्य ने चंद्रगुप्त से बृहद भारत कराया है।

रामदास की राष्ट्रीयता ने शिवा जी बनाया है,

नानक के अद्वैत ने सिखों को मार्ग दिखाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

गोरखनाथ ने मछंदर से नाथ संप्रदाय चलाया है,

रामानंद ने कबीर को गढ़ कबीर पंथ चलाया है।

रत्ना ने तुलसी को भक्त बना रामायण रचाया है,

रामकृष्ण ने नरेंद्र को गढ़ वैश्विक यश बढ़ाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

आज गुरूओं की दुर्दशा पर मन दुखी हो गया है,

आज गुरू कोचिंग संस्थानों का दास हो गया है।

आज गुरु राजनीति का शिकार क्यों हो गया है,

वो बिका उसका चारित्रिक पतन क्यों हो गया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ गुरु वन्दना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

गुरु पुर्णिमा विशेष 

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की  गुरु पुर्णिमा पर विशेष रचना “गुरु वंदना”  “गुरु वन्दना”)

 

गुरु वन्दना☆ 

बिन गुरु कृपा न हरि मिलें,बिनु सत्संग न विवेक

हरि सम्मुख जो कर सके,गुरू वही हैं नेक।

 

गुरु की है महिमा अंनत ,है ऊंचा गुरु मुकाम

पहले सुमरें गुरू को,फिर सुमिरें श्री राम।

 

गुरु को हिय में राखिये, गुरु चरणो में प्रेम

दिग्दर्शक नहीं गुरु सा,वही सिखाते नेम।

 

भय भ्रांति हरते गुरू,दिखा सत्य की राह

थामी जिसने गुरु शरण,मिलती कृपा अथाह।

 

गुरु कृपा से काम बनें,गुरू का पद महान

सेवा से ही सुखद फल,जानत सकल जहान।

 

गुरु का वंदन नित करें,गुरु का रखें ध्यान

प्रेरक न कोई गुरु सा,गुरु सृष्टि में महान।

 

गुरु में गुरुता वही गुरु,गुरु में न हो ग़ुरूर

ज्ञान सिखाता गुरु हमें,गुरु से रहें न दूर।

 

नीर क्षीर करते वही,करें शिष्य उपचार

तम हरके रोशन करें,सिखाते सदाचार।

 

गुरु भक्ति हम सदा करें,हर दिन हो गुरुवार

आता जो भी गुरु शरण,उसका हो उद्धार।

 

गुरु सागर हैं ज्ञान के,गुरू गुणों की खान

अंदर बाहर एक रहें,वही गुरु हैं महान।

 

गुरु पारस सम जानिये, स्वर्ण करें वो लोह

पूज्यनीय हैं गुरु सदा,करें न गुरु से द्रोह।

 

भय वश बोलें जबहिं गुरु,होता नहीं कल्याण

पद,प्रतिष्ठा,प्रभाव से,गुरु का घटता मान।

 

जिस घर में होता नहीं,सदगुरु का सत्कार

उस घर खुशियां ना रहें,रहता वो लाचार।

 

गुरु चरणों मे स्वर्ग है,गुरु ही चारों धाम

संकट में गुरु साधना,सदैव आती काम।

 

गुरु शरण “संतोष”सदा,गुरु से रखता प्रेम

चाहत गुरु आशीष की,है निश दिन नित नेम।

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #5 – राजनीति के तीतर ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  पाँचवी  कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “राजनीति के तीतर”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #5 ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – राजनीति के तीतर ☆

तीतर के दो आगे तीतर,

तीतर के दो पीछे तीतर,

बढ़  ना पाये तीनों तीतर ।

 

कुंठित रह गये भीतर-भीतर,

बढ ना जाये अगला तीतर,

खींच रहा है पिछला तीतर।

 

बाहर खूब दिखावा करते,

कुढ़ते रहते भीतर-भीतर,

जहां खड़े थे पहले तीतर।

 

वही खड़े हैं अब भी तीतर,

तीतर के दो आगे तीतर,

तीतर के दो पीछे तीतर।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ होम करते रहे हाथ जलते रहे.! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण रचना   “होम करते रहे हाथ जलते रहे.!”)

 

☆ होम करते रहे हाथ जलते रहे.! ☆ 

 

होम करते रहे हाथ जलते रहे.!

हम मगर सत्य के साथ चलते रहे।

 

हर कदम पर दिया प्यार का इम्तिहां।

मुझको पागल समझता रहा ये जहां।।

नफरतों के कुटिल साँप पलते रहे

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

एक उम्मीद जलती रही रात-दिन।

बर्फ मन की पिघलती रही रात-दिन।

हर नजर में हमीं रोज खलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

ज्यादती कर रही बदनियति आजकल।

बदनुमा है मनुज की प्रकृति आजकल।

आचरण धर्म के हाथ मलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

आस-विश्वास का खुद हीआधार हूँ।

मुश्किलों का स्वयं मैं खरीदार हूँ ।

वक्त के साथ ही रोज ढलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ वारकरी ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। आज प्रस्तुत है उनकी  एक सामयिक कविता  “वारकरी…! ”। )

 

☆ वारकरी…! ☆ 

 

पंढरीच्या वाटेवर चालतोया वारकरी

विठ्ठलाला भेटण्याची आस असे त्याच्या ऊरी..!

 

टाळ मृदूंगची लय मना मनात घुमते

एक एक अभंगाने देहभान हरपते..!

 

हर एक वारकरी माझ्या विठूचेच रूप

डोक्यावरी टोपी त्याच्या भासे कळसाचे रूप..!

 

इवल्याशा तुळशीने दिंडी शोभून दिसते

दिंडी पताका घेऊन वारी सुखात चालते..!

 

किर्तीनात मृदूंग ही जेव्हा वाजत रहातो

भक्तिभाव तुकयाचा माझ्या अंतरी दाटतो..!

 

वारीमध्ये चालताना मी ही विठूमय झालो

माऊलीच्या सावलीला काही क्षण विसावलो..!

 

नाही म्हणावे कशाला काही कळेनाच आता

कंठ विठ्ठल विठ्ठल गात आहे गोड आता..!

 

© सुजित कदम

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