हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 22 ☆ वो नज़्म ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “वो नज़्म ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 22 ☆

☆ वो नज़्म

किसी ने समझा कि मेरी नज़्म गुलाब थी

किसी ने समझा कि साज़ छेड़ती रबाब थी

 

किसी ने कहा उसकी धार बहुत ही पैनी थी

लोग समझ बैठे कातिलाना कोई तेज़ाब थी

 

किसी ने पढ़कर “वाह-वाह” तो की, पर कहा

वो एहसासों को अच्छे से छुपाती नकाब थी

 

कोई रात भर एक टक बांधे निहारता रहा

कि उसे ऐसा महसूस हुआ वो महताब थी

 

मेरे लब चुप रहे, किसी से कभी कह न सके

वो नज़्म तेरे ही लिए लिखी थी, बेहिसाब थी

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ किसान दिवस पर विशेष ☆ किसान ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  किसान दिवस पर विशेष डॉ मुक्ता जी  की कविता  “kisaan” )    

☆ किसान दिवस पर विशेष  – किसान

 

किसान —अन्नदाता

कर्ज़ के बोझ तले दबा

दाने-दाने को मोहताज़

पत्नी व बच्चों को

भूख से बिलबिलाते देख

उसका कलेजा मुंह को आता

माता-पिता की

शून्य में ताकती आंखें

उसकी असहायता

विवशता को आंकती

और मौन रहकर

सब कुछ कह जातीं

 

वह अभागा

खून के आंसू पीता

और एक दिन आत्महत्या कर

अपनी जीवन लीला का अंत कर

असाध्य दु:खों से मुक्ति पा जाता

 

उसकी ब्याहता

इस बेदर्द जहान में अकेली

ज़िंदगी के थपेड़ों का

सामना करती

उसकी जीवन नैया

बीच भंवर डूबती-उतराती

हिचकोले खाती

बच्चों को भूख से बिलबिलाते

बूढ़े सास-ससुर को

दवा के अभाव में तड़पते देख

अपनी अस्मत का सौदा करती

‘बिकाऊ हूं

खरीद लो मुझे,क्या दोगे’

यह देख मन में

आक्रोश फूटता

 

कौन है दोषी

अपराधी ‘औ’ गुनाहग़ार

वह मासूम या हमारी सरकार के

तथाकथित स्वार्थी राजनेता

जो अपनी-अपनी रोटियां सेकते

बड़ी-बड़ी रेलियां करते

लोकसभा में मुद्दा उठाते

परंतु उनकी सुध नहीं लेते

 

और युगों-युगों से

यह सिलसिला चला आता

अमीर और अधिक अमीर

और गरीब कर्ज़ के

बोझ तले दबा जाता

यह अंतर भारत

और इंडिया में

स्पष्ट नज़र आता—–

यह फ़ासला निरंतर

बढ़ता चला जाता

जिसे देख

बावरा मन कुनमुनाता

परंतु कुछ भी करने में

स्वयं को असमर्थ पाता

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 26 – कविता – कर्फ्यू में गोरैया ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक सामयिक कविता “कर्फ्यू में गोरैया । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 26 ☆

☆ कविता – कर्फ्यू में गोरैया  

 

किसी दंगाई की,

तलवार से घायल,

खून से लथपथ,

बेबस सी गोरैया,

सुबह से मुंडेर पर,

टप टप खून बहाती,

बैठी सोच रही है,

ओ घर के मालिक

काश!

तू भी तलवार रखता,

तो इतनी देर तक,

यूँ  तेरी मुंडेर पर,

मुझे बैठना न पड़ता।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 14 – कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण रचना कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला हैअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 14 – विशाखा की नज़र से

☆ कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है  ☆

 

बेरंग है सारे रंगों की अभिलाषा

हमनें गढ़ी सुविधा की परिभाषा

 

जिसनें सोखा नही हरा

हमनें कहाँ उसे हरा रंग

जिसनें जज़्ब किया नही पीला

हमनें कहाँ उसे पीला रंग

ख्वाहिशें, पर फैलाती जहाँ

उसे कहाँ आसमानी रंग

 

भगवा तो और भी कठिन है रंग

जो है लाल औ’ पीले के मध्य का परावर्तन

हरे, नीले, भगवे रंगों की

हमनें करी ख़ूब राजनीति

जबकि असल में नहीं है

यह उस व्यक्ति, वस्तु या धर्म का रंग

हमनें रंग दिया उसको वैसा

जो नहीं था उसका खुदका रंग

 

असल में होते हैं बस दो ही रंग

या तो सफ़ेद या फिर काला

दोनों में समाहित है सारे रंग

अब मत चलाना अपना कुटिल दिमाग

एक को कहना पाक, एक को नापाक

खेलना अब के ऐसी होली

रहना सफ़ेद या सोखना सब रंग

बस दिखे ना एक भी इंद्रधनुषी रंग

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य # 4 ☆ शायरी ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी अतिसुन्दर शायरियां । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #4 ☆ शायरी ☆ 

 

मेरे ख्वाबों ख्यालो में कोई साया लहराया है, न जाने ये कौनसा मौसम आया है,

न जाने कौनसी दिशा में बह रही है हवा, न जाने माझी कौनसी नाँव लाया है,

न जाने ले जाएगा किस किनारे, यही ख्याल जहन में बार बार आया है . . .

 

जाते जाते वो जर्रा दे गया, पिछली दिवार पे निशां दे गया,

हर पत्ता डाली से ले गया, मुझसे मेरा सुंकू ले गया,

बेज़ार सी हो चली है ज़िंदगी, जैसे बेदर्द ज़िंदगी से रंगो को ले गया . . .

 

फ़िज़ा महक रही है आज, हर चिड़िया चहक रही है आज,

तुझसे पहले तेरे आने की खबर जो आयी, हर धड़कन धड़क रही है आज . . .

 

सुबह की पहली-पहली किरण जब पड़ी मेरे आँगन में,

लगा जैसे उसके आने का आगाज हुआ है जीवन में,

लम्हा-लम्हा गिन रही हूँ उसके इंतज़ार में,

न जाने कब होगा उसका दीदार अब के बरस सावन में . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उत्क्राँति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – उत्क्राँति

कुआँ, पेड़,

गाय, साँप,
सब की रक्षा को
अड़ जाता था,
प्रकृति को माँ-जाई
और धरती को
माँ कहता था..,
अब कुआँ, पेड़,
सब रौंद दिए,
प्रकृति का चीर हरता है
धरती का सौदा करता है,
आदिमपन से आधुनिकता
उत्क्राँति कहलाती है,
जाने क्यों मुझे यह
उल्टे पैरों की यात्रा लगती है!

हम सब यात्रा की दिशा पर चिंतन करें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(दोपहर 1.55, 18.12.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 20 ☆ हाथों की गलियाँ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “हाथों की गलियाँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 20 ☆

☆ हाथों की गलियाँ

अपना लेखा मेहनत है
भाग्य के भरोसे क्यों रहे?
हाथ कभी क्यों फैलाए?
हम हाथ कभी क्यों जोड़े?

हाथों की गलियाँ तंग रही
नसीब कहां हम ढूँढेंगे?
मिट्टी गारा उठाते सही,
हीरा कोयले से पाएँगे।

कल नसीब हम बदलेंगे ,
हाथों पर कालिख ही सही
हम मेहनत करने वाले हैं ,
आज भले ये तंग सही।

नई रोशनी यहां आएगी,
नया सवेरा वह लाएगी।
हज़ारों किरणों को लेकर,
हाथों की गलियाँ बनाएगी।

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तलाश ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  तलाश 

 

परिचितों की फेहरिस्त

जहाँ तक आँख जाती है

अपनों की तलाश में पर

नज़र धुंधला   जाती है 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 26 ☆ कविता ☆ समय ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर कविता  ‘समय। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 26 साहित्य निकुंज ☆

☆ समय

 

समय फिसलता जाता है

रेत की तरह

लेकिन मन में है एक आस

मन की देहरी पर

ठिठक जाता है कोई पल

स्मृतियों  के कोहरे से झांक रहा है

वह निकलेगा हल।

बीतता जाता है समय

अब समय हो गया है

व्यतीत ।

रह जाता है अतीत

समय को रोक पाया है कोई

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 17 ☆ अंतर्मन में ज्योति जलाएं ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता  अंतर्मन में ज्योति जलाएं. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 17 ☆

अंतर्मन में ज्योति जलाएं

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।

आओ तम को दूर भगायें ।।

 

पग पग पर अवरोध बहुत हैं ।

लोगों में प्रतिशोध बहुत है ।।

आओ मिलकर द्वेष हटाएं ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

छल,प्रपंच,पाखंड ने घेरा ।

लोभ,मोह का सघन अंधेरा ।।

मन से तृष्णा दूर भगायें ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

असल सत्य को जान न पाये ।

स्वयं अहंता से इतराये  ।।

क्षमा,दया,करुणा अपनाएं ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

चिंतन और चरित्र की सुचिता ।

परोपकार आचार संहिता ।।

अंतर से हँसे मुस्काएँ  ।

अंतर्मन में ज्योति जलायें ।।

 

अनीति का तिरस्कार करें हम

साहस का संचार करें हम

“संतोष” यह कौशल अपनाएं ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

सब मिल ऐसे कदम बढ़ायें ।

दिव्य गुणों को गले लगायें ।।

आओ तम को दूर भगायें ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares
image_print