हिन्दी साहित्य- कविता/गजल – * यहाँ सब बिकता है  * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

यहाँ सब बिकता है 

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी  की एक बेहतरीन गजल)

 

खुला नया बाज़ार यहाँ सब बिकता है,
कर लो तुम एतबार यहाँ सब बिकता है॥

जाति धर्म उन्माद की भीड़ जुटा करके,
खोल लिया व्यापार यहाँ सब बिकता है॥

बदल गई हर रस्म वफा के गीतों की,
फेंको बस कलदार यहाँ सब बिकता है॥

दीन धरम ईमान जालसाजी गद्दारी,
क्या लोगे सरकार यहाँ सब बिकता है॥

एक के बदले एक छूट में दूँगा मैं,
एक कुर्सी की दरकार यहाँ सब बिकता है॥

सुरा-सुन्दरी नोट की गड्डी दिखलाओ,
लो दिल्ली दरबार यहाँ सब बिकता है॥

अगर चाहिए लोकतन्त्र की लाश तुम्हें,
सस्ता दूँगा यार यहाँ सब बिकता है॥

 

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल, मुंबई 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ‘शब्द’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

शब्द !
यह जानते हुए भी कि
हर शब्द
हर कविता में फिट नहीं बैठता
ज़िद बस
कवि गण
बिना ढक्कन की
कोने में फेंक दी जाने वाली
खाली बोतल-सी
 कविता में
ऊपर से ठोंकी गई
खुखड़ी की तरह
ठोंकते ही रहते हैं
छवि विहीन
मनचाहे शब्द
और ,
शब्द हैं कि
ठुँक भी जाते हैं
अपनी कमर छिलाकर
कुछ कम नहीं हैं
ये भी
नई चाल की हर कविता पर
लार टपकाते …
थिरक उठते हैं
किसी कामी की तरह
असमय विधुर हुए शब्द !
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो * – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

 

तरक्की कहाँ से कहाँ लेके आई

बेफिक्री वाली वो दुनिया भुलाई

सबकुछ तो है पर सुकून खो गया है

कोई फिर से मेरी वो बेफिक्री लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो..

 

रोज बनाती हूँ नए आयाम

भागती हूँ दौड़ती हूँ छूने को ऊँचाइयाँ

गगन चुंबी इमारतों में खुद ही खो जाती हूँ

शाम को लौटकर दो पल सुकून के तलाशती हूँ

सुकून से भरी वो सूखी घास की ठंडी छत

कोई ला सकता हो तो फिर से ला दो

वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो

कोई मुझे……..

 

वो नानी और दादी की परियों की कहानी

राजा रानी के मरने से होती खतम थी

अम्मा की डाँट और दादी की पुचकार

चंदा की रोशनी से जगमग तारों भरी रात

वो तारों को गिनती हुई ठंडी रातें लौटा दो

दादी की कहानियों की सौगातें लौटा दो

कोई मुझे……

 

वो बरसाती अंधेरी रातों में जुगनू का चमकना

वो जुगनू संग आकाश का धरती पे उतरना

बंद कर हथेली में फिर उनको उड़ाना

वो रंग-बिरंगी तितलियाँ के पीछे दौड़ लगाना

वो कोयल की कूक सुन उसको चिढ़ाना

कोई तो कोयल की मधुर कूक फिर सुना दो

वो रंग-बिरंगी तितलियाँ कोई फिर दिखा दो

कोई मुझे……

 

वो घर से निकलते स्कूल की पगडंडी पर

लहलहाते खेत गन्नों के वो फिर से दिखा दो

चलो खाएँ गन्ने खाएँ छीमियाँ मटर की

अपने छोड़ दूजे खेतों की राह फिर दिखा दो

नून मिर्च की चटनी संग चने के फुनगी का साग

भूल गई रसना वो स्वाद फिर चखा दो

बड़ी हो गई हूँ फिर बच्चों सी चोरी सिखा दो

कोई मुझे……..

 

बच्ची थी जब तब ये बड़प्पन था लुभाता

तरह-तरह के सब्जबाग था दिखाता

बताया नहीं इसने कभी

कि गया बचपन न लौटेगा

पाने को इसको कभी फिर मन तरसेगा

फिर न देखूँगी बड़े होने के सपने….2

ले लो सारे सपने वो बेफिक्री लौटा दो

कोई मुझे…….

 

वो बारिश के पानी में घंटों नहाना

वो हल्दी वाले दूध संग माँ की मीठी डाँट खाना

भूल सारी मस्ती माँ के गर्म आँचल में दुबक जाना

और बिना देरी किए माँ का वैद्य से दवाई ले आना

और नहीं कुछ तो वैद्य की वो कड़वी पुड़िया ही लौटा दो

वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो।

 

जीवन की भाग-दौड़ में जीना ही भूल गई हूँ

माँ के बिन जीते-जीते

बचपन से कितनी दूर आ गई हूँ

नहीं चाहिए ऊँचाई

मुझे रोज की वो ठोकरें लौटा दो

वो गिरकर फूटे घुटनों के

घाव फिर दिखा दो

वो घाव पे हल्दी लगाती माँ की मीठी सी छुवन फिर लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

वो चिकनी ……….

 

आज डनलप के मुलायम गद्दे हैं पर नींद रूठ गई

पहले सर्दी में दादी पुआल बिछाती थी

बड़े ही सुकून भरी वो रात होती थी

एक ही रजाई में पुआल के गद्दे पे

सोते थे सभी साथ, होती थी चुहलबाजियाँ

वो पुआल की मीठी सी गरमाहट तो ला दो

नींद वाली सुकून भरी रातें ही लौटा दो

कोई मुझे…….

चिकनी मिट्टी…….

 

दिवाली पे आँगन में मिट्टी के घरौंदे

रंग मिले चूने की सफेदी से थे चमकते

बड़ों की दुनिया से जुदा

दिवाली के दीयों से जगमगाता…

हमें महलों का अहसास था कराता।

वो मिट्टी का घरौंदा फिर से बना दो

उसमें वो राम दरबार की तस्वीर भी सजा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

चिकनी मिट्टी से पुता…..

 

बड़ी हो गई हूँ तरक्की भी कर लिया है

कमा के रुपैय्या बैंक बैलेंस भर लिया है

फिरभी

फिर भी आँखें खोजती हैं वो मिट्टी की गुल्लक

जिसमें भरे होते बाबूजी के दिए अठन्नी चवन्नी के सिक्के

मेरे बैंक खातों को कोई वो गुल्लक का पता दो

ले लो चेक मेरे बैंक बैलेंस भी ले लो

फिर से मुझे उस गुल्लक की खनक तो सुना दो

कोई मुझे….

वो चिकनी मिट्टी……

 

© मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️

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हिन्दी साहित्य – कविता – * रसोई * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

रसोई

(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)

 

जब हर रोज़ रसोई घर में
कैद हो जाती है सांसें
कुछ बदल नहीं सकती हूँ
अपनी सीमाओं को तब
कभी कभी खाने में परोस
दिया करती हूँ ।

अपना भरोसे से भरा परांठा
अपनी खुशी, नाराजगी, उदासी की मिक्स सब्जी
टुटे, बिखरे, सहमे ख्यालों का पुलाव
कभी तीखे, खट्टे, रूखे स्वभाव को
ढेर सारा उंडेल कर
बेस्वाद, बदहजमी वाला खाना
कभी-कभी खाने में परोस देती हूँ ।

खाने की टेबल पर बिछा देतीं हूँ
अपनी अधुरी महत्वाकांक्षाएं से बुना
टेबल क्लोथ
खाली ग्लास में भर देती हूँ
उम्मीदों का पानी ।

थाली, कटोरी, चम्मच जब सब को
भर देती हूँ
अपनी आंखों की नमीं से
मुंह में कैद हुऐ अलफाजों से
कुछ गीले लम्हों से
और थोड़ी सी खामोशी से

तब अस्तित्व टूट कर टेबिल के
नीचे बिखर जाता है
जूठन सा और
आत्मविश्वास सहम जाता है
खरखट सा हो जाता है ।

© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * गीत * – सुश्री गुंजन गुप्ता

सुश्री गुंजन गुप्ता

(युवा  कवयित्री  सुश्री गुंजन गुप्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)

गीत 

मैं चन्दा की  धवल चांदनी,
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित,
तू मेरी मुस्कान पिया॥

जैसे ब्रज की विकल गोपियाँ,
उलझ गयी हों सवालों में।
जैसे तम के दिव्य सितारे,
गुम हो जाएँ  उजालों में।
बेसुध हो जाऊँ जिस मधुर-मिलन में,
तू ऐसी मुलाक़ात पिया॥

संदली स्वप्न की मिट्टी में,
बोकर अपने जीवन मुक्ता को।
भावों की नयी कोपलों को,
सींचा नित नयनों के जल से।
भीग जाऊँ जिस प्रेम सुधा से,
तू ऐसी बरसात पिया॥

मैं चन्दा की धवल चांदनी
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित
तू मेरी मुस्कान पिया॥

 

© सुश्री गुंजन गुप्ता

गढ़ी मानिकपुर,  प्रतापगढ़़ (उ प्र)

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पेंसिल की नोक * – सुश्री नूतन गुप्ता

सुश्री नूतन गुप्ता 

 

पेंसिल की नोक

(संयोग से  इसी जमीन  पर इसी  दौरान एक और कविता  की रचना श्री  विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां के शीर्षक से रची गई। मुझे आज  ये  दोनों कवितायें  जिनकी अपनी अलग  पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। 

प्रस्तुत है  सुश्री  नूतन गुप्ता  जी की भावप्रवण कविता ।)

 

छिलते छिलते घायल हो गई ये पेंसिल की नोक
लिखने के अब क़ाबिल हो गई ये पेंसिल की नोक।
मीठा लिखते रहना इस पेंसिल की आदत था
आज अचानक क़ातिल हो गई ये पेंसिल की नोक
हरदम इसके लफ़्ज़ों से बस लहू टपकता था
पायल जैसी पागल हो गई ये पेंसिल की नोक।
कभी मनाती फिरती थी नाराज़ समंदर को
अब कितनों का साहिल हो गई ये पेंसिल की नोक
नूतन’ क्या मालूम नहीं था फटे मुक़द्दर की है तू
खुशियों में क्यूँ गाफ़िल हो गई ये पेंसिल की नोक।

©  नूतन गुप्ता

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां * – श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां

(संयोग से  इसी जमीन  पर इसी  दौरान एक और कविता  की रचना सुश्री नूतन गुप्ता जी द्वारा “पेंसिल की नोक “ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज  ये  दोनों कवितायें  जिनकी अपनी अलग  पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। 

प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की भावप्रवण कविता ।)

 

पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां”
फेंकी गईं खीज और ऊब से…
मेज और सोच से गिराई गईं
गिर कर भी बची रह गई उनकी नोक
पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया
उठा कर फिर फिर चलाया गया उन्हें
वे छिलती रहीं बार-बार
उनकी अस्मिता बिखरती रही
घिट के कद बौना होता गया
उन्हें घर से बाहर नहीं किया गया
वे जरूरत पर मिल जाने वाले
सामान की तरह रखी गईं
रैक के धूल भरे कोनों में
सीलन भरे चौकों और पिछले कमरों में
उन्हें जगह मिली
बच्चे भी उन्हें अनसुना करते रहे…
पेन और पिता से कमतर देखा.. जो दफ्तर जाते थे
हमेशा गलत बताई गई उनकी लिखत.. अनंतिम रही..
जो मिटने को अभिशप्त थी
वे साथ रह रहीं नई और पुरानी पेंसिलों
और स्त्रियों से झगड़ती रहीं
यही सुख था.. जो उन्हें हासिल था
बरस बरस कम्पास बॉक्स और तंग घरों में
पुरुषों और पैनों के नीचे दबकर
चोटिल आत्मा लिए
अपनी देह से प्रेम लिखती रहीं
पर चूड़ीदार ढक्कनों  में बंद रहे पुरुष
उनकी तरलता स्याही की तरह
बस सूखे कागजों में दर्ज हुई
पेंसिल की तरह बरती गईं घरेलू स्त्रियां।।
© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- कविता – * …. तो ज़िंदगी मिले * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

…. तो ज़िंदगी मिले 

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी  की एक बेहतरीन गजल)

 

जी डी पी उछल रही हमें फक्र है खुदा,
तू खैरात बाँटना  छोड़ दे तो जिंदगी मिले॥1॥

खेतों में सपने बोये फसल काटे जहर का,
रब को अगर तू बख्श दे तो ज़िंदगी मिले॥2॥

ऊपर औ नीचे बीच में मध्यम है पिस रहा,
नज़रें इनायत हो तो इधर ज़िंदगी मिले ॥3॥

जय जवान, जय किसान, विज्ञान की है जय,
तू धर्म बेचना  छोड़ दे तो जिंदगी मिले ॥4॥

मजबूर नहीं था कभी, अब मजलूम हो गया,
मज़लूमों को अगर बख्श दे तो जिंदगी मिले ॥5॥

हमने खून-पसीने से सींचा है हिंदुस्तान ‘उमेश’
तू खून पीना छोड़ दे अगर तो जिंदगी मिले ॥6॥

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता – * चलो बुहारें….. * – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

चलो बुहारें…..

 

चलो जरा कुछ देर स्वयं के

अंतर में मुखरित हो जाएं

अपने मन को मौन सिखाएं।

 

जीवन को अभिव्यक्ति देना

शुष्क रेत में नौका खेना

दूर क्षितिज के स्वप्न सजाए

पंखहीन पिंजरे की मैना,

बधिर शब्द बौने से अक्षर

वाणी की होती सीमाएं। अपने मन को…..

 

बिन जाने सर्वज्ञ हो गए

बिन अध्ययन, मर्मज्ञ हो गए

भावशून्य, धुंधुआते अक्षर

बिन आहुति के यज्ञ हो गए,

समिधा बने, शब्द अंतस के

गीत समर्पण के तब गायें। अपने मन को…..

 

तर्क वितर्क किये आजीवन

करता रहा जुगाली ये मन

रहे सदा अनभिज्ञ स्वयं से

पतझड़ सा यह है मन उपवन,

महक उठें महकाएं जग को

क्यों न हम बसन्त बन जाएं। अपने मन को…..

 

कब तक भटकेंगे दर-दर को

पहचानें सांसों के स्वर को

खाली हों कल्मष कषाय से

चलो बुहारें अपने घर को

करें किवाड़ बन्द, बाहर के

फिर भीतर, एक दीप जलाएं। अपने मन को….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – कविता – * दुनिया भर के बेटों की ओर से… * – श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

दुनिया भर के बेटों की ओर से…

(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

 

एक दिन सुबह सोकर

तुम नहीं उठोगे बाबू…

बीड़ी न जलाओगे

खूँटी पर ही टंगा रह जाएगा

अंगौछा…

उतार न पाओगे

 

देर तक सोने पर

हमको नहीं गरिआओगे

कसरत नहीं करोगे ओसारे

गाय की पूँछ ना उमेठेगो

न करोगे सानी

दूध न लगाओगे

 

सपरोगे नहीं बाबू

बटैया पर चंदन न लगाओगे

नहीं चाबोगे कलेवा में बासी रोटी

गुड़ की ढेली न मंगवाओगे

सर चढ़ेगा सूरज

पर खेत ना जाओगे

 

ओंधे पड़े होंगे

तुम्हारे जूते बाबू…

पर उस दिन

अम्मा नहीं खिजयाऐगी

जिज्जी तुम्हारी धोती

नहीं सुखाएगी

बेचने जमीन

भैया नहीं जिदयाएंगे

 

उस दिन किसी को भी

ना डांटोगे बाबू

जमीन पर पड़े अपलक

आसमान ताकोगे

पूरे घर से समेट लोगे डेरा बाबू … तुम

दीवार पर टंगे चित्र

में रहने चले जाओगे

फिर पुकारेंगे तो हम रोज़

पर कभी लौटकर ना आओगे ।।

 

© विवेक चतुर्वेदी

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