हिन्दी साहित्य- कविता – यह जो विधान भवन है न – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

यह जो विधान भवन है न 

एक दिन मेरी माँ

आँगन में बने मिट्टी के चूल्हे से

इकलौती बची लकड़ी

खींचते हुए  कह रही थी

‘यह जो विधानभवन है न

अपने प्रदेश का

यहाँ बहुत बड़ा जंगल था कभी

शेर,बाघ,भालू ,भेड़िए और लोमड़ी तक

निर्द्वंद्व रहते थे इनमें

पेड़ों पर छोटी चिड़ियों से लेकर

तोतों और कबूतरों के

झुंड के झुंड बसा करते थे उसमें

बाजों और  गिद्धों के डेरे रहते थे

जंगल कटा तो

सब जानवर उसी भवन में छिप गए ‘

और चिड़ियां?

आँगन में एक रोटी के इंतज़ार में बैठे-बैठे

मैंने पूछ ही लिया तपाक से

बोली ,’देखो न

आँगन में कौन मंडरा रही हैं

चोंच भर आटे की फिराक में

और तोते ,कबूतर आदि?

इस पर माँ बोली

‘इन्हें बाज और गिद्ध खा गए’

और गिद्धों को कौन खा गया माँ ?

इतना सुनते ही माँ बिफर पड़ी

‘इंसान और कौन बेटा ?’

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – नारी तू सृजनहार – सुश्री मालती मिश्रा

सुश्री मालती मिश्रा  

 

 

 

 

 

कविता – नारी तू सृजनहार 

(यह कविता  सुश्री मालती मिश्रा जी के काव्य -संग्रह  ‘अन्तर्ध्वनि ‘की शीर्ष कविताओं में से एक है। हमने कल इस पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित की थी। हमें पूर्ण विश्वास है आपको निश्चित ही यह कविता पसंद आएगी।  सुश्री मालती मिश्रा जी ने इस कविता में नारी को नारी शक्ति का एहसास दिलाने की चेष्टा की है।

 

नारी की अस्मिता आज

क्यों हो रही है तार-तार,

क्यों बन राक्षस नारी पर

करते प्रहार यूँ बारम्बार।

 

क्यों जग जननी यह नारी

जो स्वयं जगत की सृजनहार,

दुष्ट भेड़ियों के समक्ष

क्यों पाती है खुद को लाचार।

 

क्यों शिकार बनती यह जग में

नराधम कुंठित मानस का,

क्यों नहीं बनकर यह दुर्गा

करती स्वयं इनका शिकार।

 

जो नारी जन सकती मानव को

क्या वह इतनी शक्तिहीन है,

क्यों नहीं दिखाती अपना बल यह

क्यों नहीं दिखाती यम का द्वार।

 

सुन हे अबला अब जाग जा

पहचान तू अपने आप को,

पहचान ले अपनी शक्तियों कों

त्याग दे दुख संताप को।

 

नहीं बिलखने से कुछ होगा

दया की आस तू अब छोड़,

उठने वाले हाथों को तू

बिन सोचे अब दे मरोड़।

 

जो दया है तेरी कमजोरी

तू अपनी शक्ति उसे बना

जैसे को तैसा का सिद्धांत

बिन झिझके अब तू ले अपना।

 

अब कृष्ण नहीं आएँगे यहाँ

तेरा चीर बढ़ाने को,

तुझे स्वयं सक्षम बनना होगा

दुशासन का रक्त बहाने को।

 

गिद्ध जटायु नहीं इस युग में

तेरा सम्मान बचाने को,

राम बाण तुझे ही बनना होगा

रावण की नाभि सुखाने को।

 

जाग हे नारी पहचान तू खुद को

तू आदिशक्ति तू लक्ष्मी है,

महिषासुरों के इस युग में

तू ही महिषासुरमर्दिनी है।

 

सीता-सावित्री अहिल्या तुझमें

तो दुर्गा-काली भी समाई है,

पुत्री, भार्या, भगिनी है तो

दुर्गावती लक्ष्मीबाई भी है।

 

मत देख राह तू कानून की

वह पट्टी बाँधे बैठी है,

उसकी आँखों के समक्ष ही

आबरू की बलि चढ़ती है।

 

न्याय तुझे पाने के लिए

अपना कानून बनना होगा,

छोड़ सहारा औरों का

खुद सशक्त हो उठना होगा।।

 

© मालती मिश्रा ‘मयंती’

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हिन्दी साहित्य – कविता – जब मैं छोटा बच्चा था – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जब मैं छोटा बच्चा था

 

जब मैं छोटा बच्चा था

तब सब कुछ अच्छा था

दादाजी कहते हैं, मेरे

तब मैं सच्चा था ।

 

तब न खिलोने थे ऐसे

मंहंगे रिमोट वाले

नहीं कभी बचपन ने

ऊंच नीच के भ्रम पाले

टी.वी.फ्रिज, कम्प्यूटर

ए. सी.नहीं जानते थे

आदर करना, एक-दूजे का

सभी मानते थे।

तब न स्कूटर कार कहीं थे

घर भी कच्चा था………

 

चाचा,मामा, मौसी,दादा

रिश्ते खुशबू के

अंकल,आंटी, माम् डेड,ब्रा

नाम न थे, रूखे

गिल्ली-डंडे, कौड़ी-कंचे

खेल, कबड्डी कुश्ती

खूब तैरना, नदी-बावड़ी

तन-मन रहती चुस्ती।

बड़े बुजुर्ग, मान रखते

बच्चों की इच्छा का……….

 

दहीं-महीं और दूध-मलाई

जी भर खाते थे

शक्तिवर्धक देशी व्यंजन

सब को भाते थे

सेन्डविच,पिज्जा-बर्गर का

नाम निशान न था

रोगों को न्योता दे

ऐसा खान-पान नहीं था।

बुड्ढी के वे बाल

शकर का मीठा लच्छा था………

 

हमें बताते, दादाजी

तब की  सारी  बातें

सुन कर खुश तो होते

पर, संशय में पड़ जाते

अचरज तो होता, सुनकर

जो भी वे, बतलाते

सहज,सरल शिक्षा

नीति की ज्ञान भरी बातें।

पर जब भी, जो कहा

उन्होंने बिल्कुल सच्चा था…..

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – कविता – वे अद्भुत क्षण! – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

वे अद्भुत क्षण!

याद करें

वे अद्भुत क्षण?

जिन्हें आपने बरसों सँजो रखे हैं

सबसे छुपाकर

बचपन के जादुई बक्से में,

डायरी के किसी पन्ने में,

मन के किसी कोने में,

एक बंद तिजोरी में।

 

जब कभी

याद आते हैं,

वे अद्भुत क्षण?

 

तब कहीं खो जाता है।

वो बचपन का जादुई बक्सा,

वो डायरी का पन्ना,

वो बंद तिजोरी की चाबी

होने लगती है बेताबी।

 

साथ ही

खोने लगता है

वो मासूम बचपना

वो अल्हड़ जवानी

और लगने लगती है

सारी दुनिया सयानी।

 

भीग जाता है

वो मन का कोना

वो आँखों का कोना।

 

बरबस ही

याद आ जाते हैं

वे अद्भुत क्षण!

 

जब थी रची

सबसे प्रिय कृति

कविता, संस्मरण,

व्यंग्य, लेख, कहानी

और

खो गई है उनकी प्रति।

 

जब था उकेरा

साफ सुथरे केनवास पर,

विविध रंगों से सराबोर,

मनोभावों का बसेरा।

 

जब था रखा

मंच/रंगमंच पर प्रथम कदम

और

साथ कोई भी नहीं था सखा।

तालियाँ सभी ने थी बजायीं

किन्तु,

स्वयं को स्वयं ने ही था परखा।

 

यह मेरी प्रथम

अन्योन्यक्रियात्मक (Interactive) कविता है

जो

आपसे सीधा संवाद करती है।

मनोभावों की शब्द सरिता है

किन्तु,

आपसे बहुत कुछ कहती है।

 

ई-अभिव्यक्ति के मंच पर

आपसे उपहार स्वरूप

आपकी सबसे प्रिय कृति लानी है।

जो मुझे

आपकी जुबानी

सारी दुनिया को सुनानी है।

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – चिड़िया – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

 

चिड़िया

 

जब चिड़िया फुदकती है,
तो नहीं पूछो उसकी जाति,

जब चिड़िया चहकती है,
तो नहीं पूछो उसका धर्म,

चिड़िया पंख पसारती है,
तो नहीं पूछो वो मकसद,

चिड़िया हमारे मन में,
पैदा करती है उड़ने का भ्रम,

चिड़िया हमें सिखाती है,
घोंसले बनाने जैसा परिश्रम,

चिड़िया धर्म नहीं मानती,
चुगती है दाना बनाके झुंड,

चिड़िया उदास नहीं होती,
घोंसला टूटने के बाद,

फिर से हौसला बढ़ाती है,
उत्साह से हर तिनके साथ,

© जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – जिन्दगी का गणित – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

जिंदगी का गणित 

वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।

बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।

फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।

मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।

दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।

शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।

आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?

यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?

मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र – डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र 

अभिलाषाएं  अनगिनत,  सपने  कई हजार

भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।

 

दोहरा जीवन जी रहे,सुविधा भोगी लोग

स्वांग संत का दिवस में,रैन अनेकों भोग।

 

पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज

सुरा पान एकान्त में, बड़े – बड़ों  के राज।

 

यदि योगी नहीं बन सकें, उपयोगी बन जांय

दायित्वों के साथ में, परहित कर सुख पांय।

 

रामलीला में राम का अभिनय करता खास

मात – पिता को दे दिया, उसने ही वनवास।

 

सभी मुसाफिर है यहाँ,जाना है कहीं ओर

मंत्री  –  संत्री, अर्दली,  साहूकार  या  चोर।

 

लगा रहे हैं कहकहे, कर के वे दातौन

मटमैली सी  देहरी, सकुचाहट में मौन।

 

मोहपाश में है घिरा , अर्जुन सा जनतंत्र

कौरव दल के  बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।

 

बदल रही है बोलियां, बदल रहे हैं ढंग

बौराये से सब लगे, ज्यों  खाएं हो भंग।

 

ठहर गई है  जिंदगी,  मौन  हो  गए  ओंठ

रुके पांव उम्मीद के, गुमसुम गुमसुम चोट।

 

भूल  गए  सरकार जी, आना  मेरे  गाँव

छीन ले गए साथ मे, मेल-जोल सद्भाव।

 

शकुनि  से   पांसे  चले, ये   सरकारी   लोग

तबतक खुश होते नहीं,जबतक चढ़े न भोग।

 

जब से मेरे गाँव में, पड़े शहर के पांव

भाई  चारे प्रेम के, बुझने लगे अलाव।

 

लिखते – पढ़ते, सीखते, बढ़े आत्मविश्वास

मंजिल पर पहुंचे वही, जिसने किए प्रयास।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – कविता – दीप पर्व / दीवाली (दो कवितायें) – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

दीप पर्व

दीप पर्व का अर्थ है,  जन मन भरो उजास ।

केवल अपना ही नहीं ,सबका करो विकास।।

 

दीप उजाला बांटकर ,  देता है   संदेश ।

अपना हित साधो मगर, सर्वोपरि हो देश।।

 

बांध ,रेल, पुल में नहीं, अपना  हिंदुस्तान ।

सच्चे मन से देख  ले ,बच्चों की मुस्कान।।

 

नारे व्यर्थ विकास के, भाषण सभी फिजूल।

हंसते गाते यदि  नहीं ,  बच्चों  के   स्कूल ।।

 

दाता ने हमको  दिये, अन्न ,वस्त्र ,  स्कूल  ।

देश देवता को करें, अर्पित जीवन फूल ।।

 

एक अंधेरा  उजाला , किंतु नहीं है मित्र ।

सदभावों की सुरभि से ,होंगे सभी सुमित्र।।

 

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”



दीवाली

 

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें,क्यों बैठे चुपचाप।।

 

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

कर लेना फिर सामना ,पहले दीप उजाल।।

 

कष्टों का अंबार है ,दुःखों का अंधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो ,फैलेगा  उजियार ।।

 

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

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हिन्दी साहित्य – कविता – दीपों की मौन अभिव्यक्ति – श्री हेमन्त बावनकर

दीपों की मौन अभिव्यक्ति

आज से हम सबके घर-आँगन प्रकाशोत्सव दीपावली पर्व के पावन अवसर पर जगमगाने लगे हैं। किन्तु, ऐसे भी कुछ घर-आँगन हैं जो उनकी बाट जोह रहे हैं जो सीमा पर शहीद हो गए हैं और कभी लौट के नहीं आएंगे। उन समस्त परिवारों को नमन एवं वीरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए मेरे काव्य संग्रह “शब्द ….. और कविता” में प्रकाशित एक कविता “दीपों की मौन अभिव्यक्ति”।

 

 

 

 

 

 

 

 

मराठी मित्र मंडल, फ़्रांकेन जर्मनी द्वारा एर्लांगेन शहर में रविवार 22 अक्तूबर 2017 को दीपावली समारोह के आयोजन के अवसर पर मेरी काव्य प्रस्तुति ‘दीपों की मौन अभिव्यक्ति’ का विडियो लिंक निम्न है:

विडियो लिंक – दीपों की मौन  अभिव्यक्ति

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – मकड़-जाल – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा
मकड़-जाल। 
(दीपावली  पर तन्हा दम्पत्ति को समर्पित)
संतान! हाँ संतान की हर उम्र की
होतीं अलग-अलग समस्याएँ
शैशव, बचपन, किशोर, युवा, प्रौढ़
रेशमी धागे हैं एक जाल के
देखा है हर माँ-बाप ने पाल कर।
परेशानियों से लड़ते
पल-पल क्षण-प्रतिक्षण
उलझते, सुलझते
एक-एक क़दम रखते
वे संभाल-संभाल कर।
संतान को समस्या की तरह
समस्या को संतान की तरह
उलट-पुलट कर परखते
बढ़िया से बढ़िया हल ढूँढते
हर नज़र से देख भाल कर।
दिक़्क़तों पर दिक़्क़तें सुलझाते
तन मन धन से
सुलगते देह दिमाग़ से
सब जानते समझते
उलझते जाते जान कर।
भुनभुनाते खीझते चिल्लाते
उलझते जाते महीन रेशों में
ख़ुद के बनाए घरोंदे में
गुज़ारते समय
एक-एक साल कर।
उन्हें जीवन देने में
फिसलती जाती
जीवन मुट्ठी से रेत
रीते-हाथ थके-पाँव
बैठे अब निढ़ाल कर।
लड़का-बहु अमेरिका में व्यस्त
बेटी-दामाद बैंगलोर में मस्त
हम अपने बुने जाल में क़ैद
सूनी दीवारों पर तैर रहे
साँस संभाल-संभाल कर।
हाँ! हम मकड़ी हैं
बुनते मोह का ख़ुद जाल
उलझते जाते उसमें
धन दौलत भाव तृष्णा
अकूत डालकर।
बचपन की बगिया में
जवानी की खटिया में
कमाई के कोल्हू में
बुने थे जो ख़्वाब
बिखर गए निस्सार कर।
© सुरेश पटवा

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