हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 62 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “रोशनी की आस…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 62 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(पहाड़ों पर प्रकृति की विध्वंसक लीला पर एक गीत)

पास सब कुछ

पर है लगता

कुछ नहीं है पास।

*

आस्थाओं

पर है भारी

प्रकृति का यह दंड

हो गया

है आदमी का

उजागर पाखंड

*

रो रही है

धरा पावन

हँस रहा आकाश ।

*

हाहाकारों

से पटी

छाती हिमालय की

हिल गईं

सब मान्यताएँ

पूजा शिवालय की

*

डगमगा कर

रह गया है

लोगों का विश्वास ।

*

दृष्टियाँ

बस खोजती हैं

अपनेपन की धूप

बेचती है

नियति पल-पल

विवशता के रूप

*

मौन करुणा

में छुपी है

रोशनी की आस ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 66 ☆ दोस्त इसको मरे जमाना हुआ… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “दोस्त इसको मरे जमाना हुआ“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 66 ☆

✍ दोस्त इसको मरे जमाना हुआ… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ढूढती क्या है ज़िन्दगी मुझमें

इश्क़ की आग जल रही मुझमें

 *

मैं उठाता हूँ ज़िन्दगीं का मज़ा

जब से आयी है सादगी मुझमें

 *

 डूब जाएगी दहर की नफ़रत

है रवाँ प्यार की नदी मुझमें

तेरी नजदीकियों का क्या कहना

खिल रही ख़ूब चाँदनी मुझमें

 *

इक तेरे बज़्म छोड़ देने से

रक़्स-फरमा है तीरगी मुझमें

 *

दोस्त इसको मरे जमाना हुआ

ढूढता क्यूँ है आदमी मुझमें

 *

अच्छे लोगों का फैज़ है ये अरुण

ज़िंदा है अब भी मुख़लिसी मुझमें

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 63 – धुंधले नक्शे कदम रह गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना –धुंधले नक्शे कदम रह गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 63 – धुंधले नक्शे कदम रह गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अपनी हद में न हम रह गये

दंग, दैरो हरम रह गये

*

अनुसरण न बड़ों का किया 

धुंधले, नक्शे कदम रह गये

*

छोड़ महफिल को, सब चल दिये

सहते हम ही सितम रह गये

*

आशिकी का नतीजा है ये 

सर हमारे कलम, रह गये

*

हुस्न उनका जो ढलने लगा

चाहने वाले, कम रह गये

*

वो न साकी न वैसी है मय 

मयकशी के वहम रह गये

*

मयकशी के, चले दौर फिर 

जब, न महफिल में हम रह गये

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 137 – हल कुछ निकले तो सार्थक है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “हल कुछ निकले तो सार्थक है…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 137 –  हल कुछ निकले तो सार्थक है… ☆

हल कुछ निकले तो सार्थक है, लिखना और सुनाना ।

वर्ना क्या रचना, क्या गाना, क्या मन को बहलाना ।।

*

अविरल नियति-नटी सा चलता, महा काल का पहिया ।

विषधर सा फुफकार लगाता, समय आज का भैया ।।

*

भीष्म – द्रोण अरु कृपाचार्य सब, बैठे अविचल भाव से ।

ज्ञानी – ध्यानी मौन साधकर, बंधे हुये सत्ता सुख से ।।

*

ताल ठोंकते दुर्योधन हैं, घूम रहे निष्कंटक ।

पांचों पांडव भटक रहे हैं, वन-बीहड़ पथ-कंटक ।।

*

धृतराष्ट्र सत्ता में बैठे, पट्टी बाँधे गांधारी ।

स्वार्थ मोह की राजनीति से, धधक रही है चिनगारी ।।

*

गांधारी भ्राता शकुनि ने, चौपड़ पुनः बिछाई है ।

और द्रौपदी दाँव जीतने, चौसर – सभा बुलाई है ।।

*

शाश्वत मूल्यों की रक्षा में, अभिमन्यु की जय है ।

किन्तु आज भी चक्रव्यूह के, भेदन में संशय है ।।

*

क्या परिपाटी बदल सकेगी, छॅंट पायेगी घोर निशा ।

खुशहाली की फसल कटेगी, करवट लेगी नई दिशा ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मन ? ?

राजहंस और भेड़िया,

एक ही पिंजड़े में बंद देखता हूँ,

मन की चारदीवारी में,

कैसे-कैसे रंग देखता हूँ !

© संजय भारद्वाज  

(प्रात: 11: 47 बजे, 6 जुलाई 2024)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 199 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 199 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

अपनी वंशवृद्धि के लिये।

हर्यश्व ने

माधवी की देह को

जाँचा परखा

जैसे

आहक परखता है

बैल, घोड़े या घड़े को ।

उसने

वेधक दृष्टि डाली

पुष्ट नितम्ब

कदली स्तंभ सी जंधाएँ

उन्नत तेजस ललाट

और

नासिका

सभी उच्च पुष्ट।

अंगुलियाँ

केश

रोम

की सूक्ष्मता निहारी।

देखा

अंग गंभीर भी हैं

और

रक्तवर्ण भी।

कन्या के

सभी अंग

शुभ और आनुपातिक हैं।

हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 199 – “आँखो में घिरते हैं बादल…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत आँखो में घिरते हैं बादल...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 199 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “आँखो में घिरते हैं बादल...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

शंकायें व असंतोष

हम पर आ औंधे हैं

हृष्टपुष्ट दीवारें है

खोखले घरोंदे हैं

गंधहीन सपने हैं

खाली खाली है चिन्तन

जिस पर सधा हुआ है

अपना यह बैरागी मन

 *

चुगली करते मौसम की

बेदाग परिस्थितियाँ

खोज रही है सुखकर रस्ते

कितने सोंधे हैं

 *

और खटास मोहल्ले की

जिसकी कड़वी बातें

जगा जगा जाती है हरदम

उलझी बरसातें

 *

आँखो में घिरते हैं बादल

तो उदास झरने

फूल नहीं पाये जिनके

अभिशप्त करोंदे हैं

 *

इस समाज में रहते रहते

भूल गया रहना

और उमीदों का पड़ौस

बन गया दुख सहना

 *

चमकदार बुनियादी बातें

प्रश्न लिये गहरे

जो अब रह रह कर आँखों

में जैसे कोंधे हैं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-06-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 27 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 27 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

शोर से सख़्त चिढ़ है

वह चुप्पी चाहता है

फिर देखकर मरघट

बस्ती को चला आता है!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 10:28 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 186 ☆ # “मुझे अब जीने की आस नही” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मुझे अब जीने की आस नही

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 186 ☆

☆ # “मुझे अब जीने की आस नही” # ☆

मैं तपते रेगिस्तान में

रेत के तूफान में

कब से भटक रहा हूँ

कब से अटक रहा हूँ

ढूंढ रहा हूं जल की बूंदें

हाथ जोड़े आंखें मूंदे

हर पल कितना भारी है

यह कैसी दुश्वारी है

अब मुश्किल है शायद बचना

हर तरफ फैली है मृगतृष्णा

मेरा लक्ष्य ही जल को पाना है

अपनी प्यास बुझाना है

फिर कैसे कह दूँ मुझे प्यास नहीं

मुझे अब जीने की आस नही

 

यह कैसे वक्त के धारे हैं

पथ में रखे अंगारे हैं  

तपती हुई चट्टानें हैं  

गर्मी सीना ताने हैं  

कोई पेड़ नहीं,

कोई छांव नहीं

बंजर जमीन है चारों तरफ़

दूर दूर तक कोई गांव नहीं

राह के पत्थर जैसे भाले हैं

पांव में कितने छालें हैं  

शरीर थक कर चूर है  

मंजिल कितनी दूर है  

धक धक करती धड़कन है

निराश कितना यह मन है

फिर कैसे कह दूँ  

मुझे आभास नहीं

मुझे अब जीने की आस नहीं

 

कुछ लोग मिले और छूट गये

रिश्ते बने और टूट गये

कुछ मैंने देखे सपने थे

कुछ दिल के करीब अपने थे

कुछ तपती धूप के साये थे

जब नींद टूटी तो पराये थे

मैं छाछ से ही जला था

मुझे अपनों ने ही छला था

निराले जीवन के रंग थे

अजीब दुनिया के ढंग थे

मैं तो अकेला ही चला था

तपते रेगिस्तान में ही पला था

जल की बूंद बूंद को तरसा था

पर पानी नहीं बरसा था

ना प्यास बुझी

ना भूख मिटी

ना प्यार मिला

किस किस से करूं

मैं यही गिला

फिर कैसे कह दूँ  

मुझे अहसास नहीं  

मुझे अब जीने की आस नहीं/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – राम जाने… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘राम जाने…‘।)

☆ कविता – राम जाने… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

चांद तारों से मिलकर,

सज कर संवर कर,

किससे मिलने चला,

ये तो राम जाने,,

 

फूल डाली पर खिलकर,

कलियों से मिलकर,

किससे मिलने खिला,

ये तो राम जाने,,

 

नदी पर्वत से चलकर,

झरनों में ढलकर,

किसको रही है बुला,

ये तो राम जाने,

 

यूं ही जीवन है,

चलता है मगर,

जाना है किधर,

ये तो राम जाने,

 

न कुसूर,न फितूर,

प्यार में डूब गए,

आगे क्या होगा अब,

ये तो राम जाने,

 

राज की बात है,

राज ही रहने दो,

खुलने पर क्या होगा,

ये तो राम जाने,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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