हिन्दी साहित्य- कविता – * कलम की नोक पर तलवार थी * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

कलम की नोक पर तलवार थी

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की बेहतरीन गजल । )

हमारी लाश का यूँ जश्न मनाया जाए,
सियासतदारों की गलियों में घुमाया जाये ॥

यही वह आदमी है जिसने उन्हें बेपर्द किया,
जल्द फिर लौटेगा ये उनको चेताया जाये॥

लोग मर जाते हैं आवाज नहीं मारती कभी,
गूंज रुकती नहीं कितना भी दबाया जाए॥

किसी खुद्दार के खुद्दारीयत का नामों निशां,
कभी मिटता नहीं कितना भी मिटाया जाये॥

किसी का पद, कोई रुतबा, किसी हालात से यह,
कभी डरता नहीं था कितना भी डराया जाये॥

कलम की नोक पर तलवार थी रक्खी इसने,
सदा बेखौफ था उन सबको बताया जाये ॥

वह निगहबान है सड़क से संसद तक ‘उमेश’,
उसके ऐलान को उन सब को सुनाया जाये॥

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता – “दुर्गावती” – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

दुर्गावती

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा लिखित  वीर क्षत्राणी रानी दुर्गावती की कालजयी ओजस्वी कविता ‘दुर्गावती ‘। ) 

 

गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का

दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का।

 

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को माँ रेवा की घाटी ने

 

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

 

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

 

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

 

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राज्य अटकता था

बादशाह अकबर की आँखों  में वह बहुत खटकता था

 

एक बार रानी को अकबर ने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

 

बदले मेे रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुॅचाया

 

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न थी वांछित आशा

 

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

 

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

 

आती है जीवन मे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

 

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

 

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खां को तब सेना दे भेजा लडने

 

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खां सा सेनानी भी तीन बार उनसे हारा

 

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

 

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र मे रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

 

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

 

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

 

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

 

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

 

तभी फंसी रानी को आकर लगा आंख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

 

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विश्वास

 

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से हुआ हार का तब आभास

 

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढे जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

 

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

 

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है मां रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती हैं मंडला की रानी में

 

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गोडवाने में जन जन से जो गई सराही थी

 

असमय विधवा हुई थी रानी मां बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

 

जीकर दुख में अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

24 जून 1564 को इस जग से किया प्रयाण

 

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

गौर नदी के पार जहां हुई गौडो की मुगलों से हार

 

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दें जो उपहार

 

कभी दगा देती यह दुनियां कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ अलग होता इतिहास

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – सच, झूठ और जिंदगी  – श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’

श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’

सच, झूठ और जिंदगी 

(श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’ जी की जीवन के सच और झूठ को उजागर करती एक कविता।)
मुझे सच्चाई का शौक नहीं
खुदा का खौफ नहीं
झूठ की दुकान सजाता हूं
झूठ लिखता हूं
झूठ पढ़ता हूं
झूठ ओढ़ता हूं
झूठ बिछाता हूं
तभी सर उठाकर चल पाता हूं
इस दुनिया में
जो सच्चाई का दंश झेलते हैं
ना जाने कैसे वह जीते हैं
जहां झूठी तोहमतें हैं
आरोप भी झूठे हैं
पर इनके बल पर
मिलने वाली जिल्लतें
सच्ची होती हैं
इसके दम पर मिलने वाली
सजा सच्ची होती है।
वही उनका पारिश्रमिक है
यहां तक कि सत्य से मिलने वाला अंदर का सुकून भी
तब कचोटने लगता है
जब बाहर के हालात बद से बदतर
और भी भयावह होते चले जाते हैं और मैं कुछ नहीं कर पाता
इसलिए
मैं
झूठ भेजता हूं
लोग खरीदते हैं
और मैं जीता हूं
यही तरीका सिखाया है
मुझे
इस दुनिया ने
जिंदगी जीने का……
© श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’

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हिन्दी साहित्य – कविता – सरस्वती वन्दना– प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सरस्वती वन्दना

(यह संयोग ही नहीं मेरा सौभाग्य ही है कि – ईश्वर ने वर्षों पश्चात मुझे अपने पूर्व प्राचार्य  श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी (केंद्रीय विद्यालय क्रमांक -1), जबलपुर से सरस्वती वंदना  के रूप में माँ वीणा वादिनी का आशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। अपने गुरुवर द्वारा लिखित ‘सरस्वती वंदना’ आप सबसे साझा कर गौरवान्वित एवं कृतार्थ अनुभव कर रहा हूँ।) 

 

शुभवस्त्रे हंस वाहिनी वीण वादिनी शारदे ,

डूबते संसार को अवलंब दे आधार दे !

 

हो रही घर घर निरंतर आज धन की साधना ,

स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना

आत्म वंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है,

चेतना जग की जगा मां वीण की झंकार दे !

 

सुविकसित विज्ञान ने तो की सुखों की सर्जना

बंद हो पाई न अब भी पर बमों की गर्जना

रक्त रंजित धरा पर फैला धुआं और और ध्वंस है

बचा मृग मारिचिका से , मनुज को माँ प्यार दे

 

ज्ञान तो बिखरा बहुत पर, समझ ओछी हो गई

बुद्धि के जंजाल में दब प्रीति मन की खो गई

उठा है तूफान भारी, तर्क पारावार में

भाव की माँ हंसग्रीवी, नाव को पतवार दे

 

चाहता हर आदमी अब पहुंचना उस गाँव में

जी सके जीवन जहाँ, ठंडी हवा की छांव में

थक गया चल विश्व, झुलसाती तपन की धूप में

हृदय को माँ ! पूर्णिमा का मधु भरा संसार दे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता – मन तो सब का होता है – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

मन तो सब का होता है

 

मन तो सब का होता है

बस, एक पहल की जरूरत है।

 

निष्प्रही, भाव – भंगिमा

चित्त में,मायावी संसार बसे

कैसे फेंके यह जाल, मछलियां

खुश हो कर, स्वयमेव  फंसे,

ताने-बाने यूं चले, निरन्तर

शंकित  मन  प्रयास  रत है

बस एक पहल की जरूरत है।

 

ये, सोचे, पहले  वे  बोले

दूजा सोचे, मुंह ये, खोले

जिह्वा से दोनों मौन, मुखर

-भीतर एक-दूजे को तोले

रसना कब निष्क्रिय होती है

उपवास, साधना या व्रत है

बस एक पहल की जरूरत है।

 

रूकती साँसे किसको भाये

स्वादिष्ट लालसा, रोगी को

रस, रूप, गंध-सौंदर्य, करे

-मोहित,विरक्त-जन, जोगी को

ये अलग बात,नहीं करे प्रकट

वे अपने मन के, अभिमत हैं

बस एक पहल की जरूरत है।

 

आशाएं,  तृष्णाएं  अनन्त

मन में जो बसी, कामनायें

रख इन्हें, लिफाफा बन्द किया

किसको भेजें, न समझ आये

नही टिकिट, लिखा नहीं पता

कहाँ पहुंचे यह ,बेनामी खत है

बस एक पहल की जरूरत है।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य- कविता – पेड़ कट गया – श्री सदानंद आंबेकर

हिन्दी साहित्य- कविता – पेड़ कट गया – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

पेड़ कट गया
(हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं, इस अत्यंत मार्मिक एवं भावप्रवण  काव्यात्मक आत्मकथ्य के लिए। यह काव्यात्मक आत्मकथ्य हमें ही नहीं हमारी अगली पीढ़ी के लिए भी  पर्यावरण  के  संरक्षण के लिए एक संदेश है। श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।)

 

(दो तीन दिन पूर्व एक निर्माणस्थल पर एक परिपक्व पेड़ को बेदर्दी से कटते देखा।  पिछले आठ सालों से उसे देख रहा था।  मैं कर तो कुछ नहीं पाया पर उसकी पुकार इन शब्दों में उतर आयी।  सब कुछ ऐसे ही घटित हुआ है।)

 

अब तक झूम रहा था देखो, मारुत संग संग डोल रहा था,

हरष हरष  कर बात अनोखी, जाने कैसी बोल रहा था,

चिडियों की चह-चह बोली को, आर्तनाद  ने बांट दिया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

तन कर रहती जो शाखायें, सबसे पहले उनको छाँटा

तेज धार की आरी लेकर, एक एक पत्ते को काटा,

अंत वार तब किया तने पर, चीख मार कर पेड गिरा

तुमको जीवन देते देते, मैं ही क्यों बेमौत मरा।

पर्यावरण भूल कर सबने, युवा पेड का खून किया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

नहीं बही इक बूंद खून की, दर्द न उभरा सीने में

पूछ रहा है कटा पेड वह, क्या घाटा था जीने में,

तुम्हें चाहिये है विकास तो, उसकी धारा बहने दो

बनती सडकें, बनें भवन पर, हमें चैन से रहने दो।

पत्थर दिल मानव हंस बोला, क्या तुमने है हमें दिया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

लगा ठहाके, जोर लगाके, मरे पेड़ को उठा लिया

बिजली के आरे पर रखकर, टुकडे टुकडे बना दिया,

कुर्सी, सोफा, मेज बनाये, घर का द्वार बनाया है

मिटा किसी का जीवन तुमने, क्यों संसार सजाया है।

निरपराध का जीवन लेकर, ये कैसा निर्माण किया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

मौन रो रही आत्मा उसकी, बार बार यह कहती है

धरती तेरे अपराधों को, पता नहीं क्यों सहती है,

नहीं रहेगी हरियाली और, कल कल करती जल की धार

मुश्किल होगा जीवन तेरा, बंद करो ये अत्याचार।

सुंदर विश्व  बनाया प्रभु ने, क्यों इसको बरबाद किया

मानव के अंधे लालच ने सब वृक्षों को काट दिया,

मानव के अंधे लालच ने सब वृक्षों को काट दिया।।

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – भारत का भाषा गीत – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल जी की हिन्दी एवं भारत की समस्त भाषाओं तथा देशप्रेम से ओत प्रोत कविता।

भारत का भाषा गीत 

*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
‘सलिल’ पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
‘सलिल’ विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

विश्ववाणी हिंदी संस्थान

 २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१.
चलभाष: ९४२५१८३२४४, ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल – डॉ हनीफ

डॉ हनीफ

 

(डॉ हनीफ का e-abhivyakti में स्वागत है। डॉ हनीफ स प महिला  महाविद्यालय, दुमका, झारखण्ड में प्राध्यापक (अंग्रेजी विभाग) हैं । आपके उपन्यास, काव्य संग्रह (हिन्दी/अंग्रेजी) एवं कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)

ग़ज़ल

श्वासें रुकी -रुकी सी चेहरा मुरझा गया है

आंखों से टपकती शबनम दिल आज खो गया है

दागे हसरत रो पड़ी है कलियों को याद करके

पंखुड़ियां भी सिसक उठी है,परिंदा जो कुचल गया है

आती तो होगी याद समंदर को भी तूफां

साहिल के नशेमन वीरान जो बन गया है

बादल थम-थम के रोने क्यों लगा है

जमीं तो बदल चुकी है फसलों से भर गया है

‘अकेला’ सोच सोच के न कर सेहत खराब अपना

वो दुनियां उजड़ चुकी है तेरे दिल में जो बस गया है।

 

         2.

देख लूं जो तुझको हम नजरों से बुला लेंगे

खता क्या हुई मेरी अश्कों से बता देंगे

कहाँ मिले थे कहाँ बिछुड़े थे ये मुझे याद नहीं

दिल की धड़कनें चलेगी जो रास्ता बता देंगे

जुस्तजू है मुझको कब से ये तुझे क्या पता

कूचों में लगे गुलशन तुझको गवाह देंगे

मौत भी अगर आये सो बार मर लूंगा मैं

मुस्कुराती नजरों से दामन जो थमा देंगे

‘अकेला’ दिन रात करता फरियाद खुदा से

जन्नत के बागों में दोनों को मिला देंगे ।

 

© डॉ हनीफ 

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हिन्दी साहित्य – कविता – शेष कुशल है – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

शेष कुशल है

ये तीन शब्द

“शेष कुशल है”

काफी कुछ समेटे हैं

अपने आप में।

 

एक पुस्तक गढ़ दी है

इन तीन शब्दों नें।

मेरी चिट्ठी पढ़ी आपने

मैंने आपकी चिट्ठी पढ़ी

अपने आप में।

 

सच ही तो है

मन बड़ा चंचल है।

जाने क्या-क्या है सोचता?

जाने क्या-क्या है सुनता?

जैसे

हरि अनन्त

हरि कथा अनन्ता।

 

कुछ बातें चिट्ठी में

नहीं लिखी हैं जाती

अन्तर्मन की

पीड़ाएँ खुलकर के

मुखरित नहीं हैं होती।

 

वैसे तो आज

चिट्ठी कौन लिखता है?

सोशल मीडिया पर

नकली मुस्कराहट लिए चेहरा

और बेमन मन

दोनों ही दिखता है?

चिट्ठी उसे वही है लिखता

जिसका जमीर

कहीं नहीं है बिकता

या फिर

ऐसा हो मजमून

ताकि सनद रहे

वक्त जरूरत पर काम आवे।

 

गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू

जाने कहाँ खो जाती है?

भैया भाभी की याद

सदा एकान्त में

सदा रुलाती है।

 

अलमारी सिरहाने में

चिट्ठी के एक-एक शब्द में

आपका अथाह प्रेम झलकता है।

एक-एक लिखी घटना से

सारा हृदय धड़कता है।

 

कितने भोले हो भैया

सारे गाँव की बात बताते हो।

अपना मर्म अपनी तकलीफ़ें

संकेतों में समझाते हो।

खुद आंबाहल्दी – चूना

गुड़ का लेप लगाते हो

और

भाभी के इलाज के खर्चे की

चिन्ता बहुत जताते हो।

 

आपका छोटे हूँ

ऐसी बहुत सी बाते हैं

लिखना मुश्किल है

अब क्या लिखूँ

बस

यही सोच सोच

अपना मन बहलाते हैं।

 

यह सच है कि

साठ सत्तर के बाद

हम सब

बोनस जीवन ही जीते हैं

और

अपने आपको

मुक्तिधाम की कतार में पाते हैं।

 

अब तो

मन साझा करने

चिट्ठियाँ लिखें भी तो

लिखें किसे?

 

आपकी लाड़ी भी छूट गईं!

 

बस

अब तो

खुद को ही लिखना है

और

खुद को ही पढ़ना है।

 

शेष कुशल है।

शेष कुशल है।

 

© हेमन्त बावनकर  

(वरिष्ठ साहित्यकार अग्रज  डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की कृति  ‘शेष कुशल है’ से प्रेरित कविता।)

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हिन्दी साहित्य-कविता – पिता की याद – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

पिता की याद

 

पिता बैठते हैं कभी

कभी इधर कभी उधर,

कभी अमरूद के नीचे

कभी परछी के किनारे

कभी खोलते हैं कुण्डी

कभी बंद करते हैं किवाड़

गाय को डालते हैं चारा

बछिया को पिलाते दूध

लौकी की बेल पकड़ लेते

फिर खीरा तोड़ ले आते

अम्मा पर चिल्लाने लगते

आंगन के कचरे से चिढ़ते

चिड़ियों को दाना डाल देते

कभी चिड़चिड़े रोने लगते

बरसते पानी में भीगने लगते

पिता हर जगह मौजूद रहते

सूरज की रोशनी के साथ

पिता जब भी याद आते

तन मन में भूकंप भी लाते

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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