हिन्दी साहित्य – कविता -☆ अनुत्तरित प्रश्न ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की कविता  “अनुत्तरित प्रश्न” जिसके उत्तर शायद किसी के भी पास नहीं है।  बस इसका उत्तर नियति पर छोड़ने के अतिरिक्त और कोई उपाय हो तो बताइये। ) 

 

☆ अनुत्तरित प्रश्न ☆

 

कांधे पर बैग लटकाए

बच्चों को स्कूल की बस में सवार हो

माता-पिता को बॉय-बॉय करते देख

मज़दूरिन का बेटा

उसे कटघरे में खड़ा कर देता

 

‘तू मुझे स्कूल क्यों नहीं भेजती?’

क्यों भोर होते हाथ में

कटोरा थमा भेज देती है

अनजान राहों पर

जहां लोग मुझे दुत्कारते

प्रताड़ित और तिरस्कृत करते

विचित्र-सी दृष्टि से

निहारते व बुद्बुदाते

जाने क्यों पैदा करके छोड़ देते हैं

सड़कों पर भीख मांगने के निमित

इन मवालियों को

उनकी अनुगूंज हरदम

मेरे अंतर्मन को सालती

 

मां! भगवान ने तो

सबको एक-सा बनाया

फिर यह भेदभाव कहां से आया?

कोई महलों में रहता

कोई आकाश की

खुली छत के नीचे ज़िन्दगी ढोता

किसी को सब सुख-सुविधाएं उपलब्ध

तो कोई दो जून की

रोटी के लिए भटकता निशि-बासर

और दर-ब-दर की ठोकरें खाता

 

बेटा! यह हमारे

पूर्व-जन्मों का फल है

और नियति है हमारी

यही लिखा है

हमारे भाग्य में विधाता ने

 

सच-सच बतलाना,मां!

किसने हमारी ज़िन्दगी में

ज़हर घोला

अमीर गरीब की खाई को

इतना विकराल बना डाला

 

बेटा! स्वयं पर नियंत्रण रख

हम हैं सत्ताधीशों के सम्मुख

नगण्य है हमारा अस्तित्व

उनकी करुणा-कृपा पर आश्रित

यदि हमने से सर उठाया

तो वे मसल देंगे हमें

कीट-पतंगों की मानिंद

और किसी को खबर भी ना होगी

 

परन्तु वह अबोध बालक

इस तथ्य को न समझा

न ही स्वीकार कर पाया

उसने समाज में क्रांति की

अलख जगाने का मन बनाया

ताकि टूट जायें

ऊंच-नीच की दीवारें

भस्म हो जाए

विषमता का साम्राज्य

और मिल पायें

सबको समानाधिकार

बरसें खुशियां अपरम्पार

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? मदर्स डे ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? मदर्स डे ?

( डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)

हम मातृ दिवस और अन्य कई दिवस मनाते हैं और इसी बहाने कुछ न कुछ सेलिब्रेट करते हैं। मैं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी की बेबाकी का कायल हूँ। प्रस्तुत है मातृ दिवस पर उनकी विशेष रचना तथाकथित सार्थक बेबाक  Belated टिप्पणी के साथ।

मातृदिवस पर कोई दो साल पहले लिखी थी एक कविता. सोचा उसी दिन था कि पोस्ट कर दें  पर फिर मन किया कि अभी तो बाढ़ आई हुई है.कविता भी जल जैसी होती है.  मन और समय की उथल-पुथल में कविता और उसके अभिप्रेत अर्थ उसी तरह  गड्ड-मड्ड होकर उसे अग्राह्य कर देते  हैं जैसे बाढ़़ के पानी में मिट्टी और अन्य तरह की गंदगियां मिलकर पानी को।    

मानव वृत्तियाँ भी इसी तरह से कुविचारों से प्रदूषित होकर सुयोधन को दुर्योधन बना देती हैं-“जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः।जानामि अधर्मं न च मे निवृत्तिः।।”

बाढ़ के पानी को तत्काल नहीं पिया जा सकता. स्थिर होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है.ऐसे ही कविता भी मन और समय  स्थिर होने पर ही रसपान के योग्य होती है.अब यह मान कर कि कविताओं की बाढ़ थम गई है तो सोचा कि मैं भी’माँ’पर सृजित अपनी वह कविता पोस्ट ही कर दूं.शायद आप सबको भाए. 

अपनी कृति और प्रकृति से हर माँ  एक-सी होती है पर बेटे -बेटियाँ प्रायः भिन्न-भिन्न भाव-स्वभाव के होते हैं. अधिकांश माएँ दयालु ही होती हैं .करुणा और वात्सल्य का सागर होती हैं ये माएँ। 

संतानें इनमें भी खासकर  बेटे माँ के मानक पर खरे नहीं उतरते .इन्हीं बेटों में से एक प्रतिनिधि चरित्र का शब्द चित्र प्रतिक्रिया की अनिवार्य अपेक्षा के साथ आप सभी मित्रों को समर्पित है-

 

मदर्स डे

=====

हिंडोले -सी झूलती हुई चारपाई में

गुड़ी-मुड़ी

वर्षों से कोने में पड़ी हुई

गठरी

कोई गठरी-वठरी नहीं है

चौधरी की माँ है वह

यानी पुरानी हवेली के मौजूदा मालिक की

वह रोज़  हड़काता है उसे

मालिकाना रुआब में

आज भी हड़का रहा है

वह अपनी गुड़ीमुड़ी  माँ को

“टीबी की मरीज़ -सी

क्या सुबह से खाँस-खाँस कर

अकच्छ किए हो

गिनो तो पूरे चार दिन भी

ठीक से नहीं बचे हैं ज़िंदगी के

ये तो  बिता लो ठीक से

बाबू जी कह-कह के हार के चले गए

पर गंदगी करने की

आदत गई नहीं तुम्हारी

बाबू जी इसी से छोर चलाते थे तुम पर”

जिनकी आरती उतरती थी

करवाचौथ को

मरखन्ने बैल-से थे वही बाबू जी

बात-बात पर सींग चला देते थे

वह गऊ -सी बाँ-बाँ करके चिल्ला पड़ती थी

उस पर  वही छोर पड़ रहे थे

वर्षों बाद

आखिर ज़बान भी तो चमड़े की ही होती है न

बेटे की जीभ और बाप के छोर के

रूप ओर आकार में अंतर भले था

पर मार में नहीं

वह बाँ भी न कर सकी इस बार

बस निहार के रह गई

अपने चाँद के टुकड़े को

वह उसे पीला-पीला लग रहा था इन दिनों

जैसे किसी

राहु ने ग्रस रखा हो उसे

तब तक खांसी भी फिर से आ गई थी ज़ोरों की

कहने को कह  सकती थी

‘तुम्हारी ही गंदगी थी वह

जिसके लिए खाती थी छोर

तुम्हारी यह गंदी  माँ’

पर कह न सकी

नज़र भर देखा गोल-मटोल पोते और

सामने से गुजरती सजी-धजी बहू को

देखती ही रह गई

वहाँ से नज़र हटी तो

एक बार फिर चाहा कि कह दे

उन्हीं पर गए हो बेटा!

इसी से तुम्हें भी दिखती हूँ गंदी,भदेस

एक बार ज़ोर भी लगाया कि कहे

होंठ हिले भी थे कुछ

वह यह कह पाती कि उसके पहले ही

बेटे ने हाथ ऊपर उठा इशारा कर कहा

“अच्छा चलो… उठो यहाँ से

अपना थूकदान सँभालो

जाओ थोड़ी देर

चौबाइन काकी के बरामदे में बैठो

यहाँ  मेहमान आने वाले हैं

पिंटू आज ‘मदर्स डे’.

सेलीब्रेट करेगा ।”

@ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

मातृ दिवस विशेष 

☆ जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है ☆

 

जो निज गर्भ में नौ माह सृजन करती है,

निज लहू से निज संताने सींचा करती है।

निज मांस मज्जा जीन गुणसूत्र उसे देती है,

जो पालन पोषण करती है वो मां होती है।।

 

जीवन देती दुनिया में लाती प्रथम गुरु होती है,

मां की जान सदा ही निज बच्चों में ही होती है।

जैसे धरा की दुनिया सूर्य के चंहु ओर होती है,

मां की दुनिया संतानों के आसपास ही होती है।।

 

क्षिति जल पावक गगन समीरा भी मां होती है,

जग से वही मिलाती और सही ग़लत बताती है।

व्यक्तित्व गढ़ सवांरती संस्कार वही सिखाती है ,

दु:ख निराशा असफलता में धीरज दिखाती है।

 

जीवन है संघर्ष धरती पर जो हारे वो गिरता है,

गिर कर उठ जाए जो संग्राम वही जय करता है।

असफलता से सफलता दुख से सुख मिलता है,

जो निराश हो नहीं उठे वो मां का दूध लजाता है।।

 

वो बेटे में प्रेमी खोजे और निज पति सा रूप गढ़े,

वो बेटे की दोस्त बने और उसमें पिता भी पा जाए,

वो बेटी की दोस्त बने व संस्कार सर्जना सिखलाए,

वो बेटी में खुद को खोजे और मां को भी पा जाए।।

 

मां जब हमसे बिछड़ती है जीवन सूना लगता है,

अपनापन खो जाता है सब कुछ दूभर लगता है।

मां की उपेक्षा करे जो धिक्कार उसे सब करता है,

अपमानित जग से होता वो जीते जी ही मरता है।।

 

जीते जी स्वर्ग नहीं मिलता भगवान नहीं मिलता है,

मां का आंचल मिले जिसे स्वर्ग उसे यहां दिखता है।

मां नहीं मिलती दुनिया में बाकी सब मिल जाता है,

जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ क्या उस नर को परिणय का अधिकार है? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ क्या उस नर को परिणय का अधिकार है? ☆

 

जो निज बल पर निज जीवन जी न पाए,

जो माता-पिता और  दूसरों पर बोझ रहे,

सामर्थ्यहीन, ज्ञानहीन, और मानहानि होए,

क्या उस नर को परिणय का अधिकार है?

 

जो स्वयं दहेज मांगे सौदागर बन जाए,

जो पत्नी पर हांथ उठाए पशु बन जाए,

जिसकी नजरों में पत्नी भोग्या बन जाए,

पत्नी की चिकित्सा हेतु पत्नी संग न जाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

जो रात में देर से लौटे भोरे ही चला जाए,

ऐयासी, मदिरा, जुंए का व्यसनी हो जाए,

वस्तु समझ पत्नी का मन ही मारता जाए,

वाणी  मधुर हो पर ह्रदय विष से भर जाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

दहेज की कार में यारों संग पर्यटन जाए,

फेसबुक में  गैरों संग ही घूमते देखा जाए,

जो गर्भपात का दोष पत्नी पर ही डाले,

निज त्रुटियां न देख पत्नी को बांझ बुलाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

जो पत्नी का नित अपमान ही करता जाए,

पत्नी के गुण न देखे अवगुण गिनता जाए,

पत्नी उसके ही भरोसे आई समझ न पाए,

पत्नी के माता-पिता की निंदा करता जाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नदी की मनोव्यथा ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

☆ईस्‍टर के शुभ पर्व पर श्री लंका में हुये विस्‍फोट पर ☆

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा  रचित  एक भावप्रवण  कविता  “नदी की मनोव्यथा”।)

जो मीठा पावन जल देकर हमको सुस्वस्थ बनाती है
जिसकी घाटी और जलधारा हम सबके मन को भाती है
तीर्थ क्षेत्र जिसके तट पर हैं जिनकी होती है पूजा
वही नदी माँ दुखिया सी अपनी व्यथा सुनाती है
पूजा तो करते सब मेरी पर उच्छिष्ट बहाते हैं
कचरा पोलीथीन फेंक जाते हैं जो भी आते हैं
मैल मलिनता भरते मुझमें जो भी रोज नहाते हैं
गंदे परनाले नगरों के मुझमें ही डाले जाते हैं
जरा निहारो पड़ी गन्दगी मेरे तट और घाटों में
सैर सपाटे वाले यात्री ! खुश न रहो बस चाटों में
मन के श्रद्धा भाव तुम्हारे प्रकट नहीं व्यवहारों में
समाचार सब छपते रहते आये दिन अखबारों में
ऐसे इस वसुधा को पावन मैं कैसे कर पाउँगी ?
पापनाशिनी शक्ति गवाँकर विष से खुद मर जाउंगी
मेरी जो छबि बसी हुई है जन मानस के भावों में
धूमिल वह होती जाती अब दूर दूर तक गांवों में
प्रिय भारत में जहाँ कहीं भी दिखते साधक सन्यासी
वे मुझमें डुबकी , तर्पण ,पूजन ,आरति के हैं अभिलाषी
तुम सब मुझको माँ कहते , तो माँ को बेटों सा प्यार करो
घृणित मलिनता से उबार तुम  मेरे सब दुख दर्द हरो
सही धर्म का अर्थ समझ यदि सब हितकर व्यवहार करें
तो न किसी को कठिनाई हो , कहीं न जलचर जीव मरें
छुद्र स्वार्थ नासमझी से जब आपस में टकराते हैं
इस धरती पर तभी अचानक विकट बवण्डर आते हैं
प्रकृति आज है घायल , मानव की बढ़ती मनमानी से
लोग कर रहे अहित स्वतः का , अपनी ही नादानी से
ले निर्मल जल , निज क्षमता भर अगर न मैं बह पाउंगी
नगर गांव, कृषि वन , जन मन को क्या खुश रख पाउँगी ?
प्रकृति चक्र की समझ क्रियायें ,परिपोषक व्यवहार करो
बुरी आदतें बदलो अपनी , जननी का श्रंगार करो
बाँटो सबको प्यार , स्वच्छता रखो , प्रकृति उद्धार करो
जहाँ जहाँ भी विकृति बढ़ी है बढ़कर वहाँ सुधार करो
गंगा यमुना सब नदियों की मुझ सी राम कहानी है
इसीलिये हो रहा कठिन अब मिलना सबको पानी है
समझो जीवन की परिभाषा , छोड़ो मन की नादानी
सबके मन से हटे प्रदूषण , तो हों सुखी सभी प्राणी !!

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ कविता ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆  कविता ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  की  जी की सार्थक कविता “कविता ”।  कविता के सृजन की पृष्ठभूमि  पर सृजित एक कविता।) 

 

कविता को गढ़ना नहीं पड़ता

कविता रचती है अपने आपको

रचती है अपने समय को

तोड़ती है भ्रम

कवि होनें का

कविता बनाती है, अपना संसार

जिसमें बसती है,असंख्य रचनाये

 

मां ने देखा है

असहनीय दर्द के बाद

पहली बार नर्स की गोद में

अभी- अभी जन्में शिशु को

 

पहली बारिश में भीगते हुए

देखता है,  चुम्बकीय नजरों से

जवान होता हुआ लड़का

सोलह साल की लड़की को

 

जरा सी आहट होने पर

पकड़े जाने के भय से

छुपा लेती है किताब को

जवान लड़की, क़ि कोई

पढ़ न ले छुपा प्रेमपत्र

 

चिड़िया चहक उठती है

चूजे की पहली उड़ान पर

कुहुक उठती है कोयल

आम में जब आते है बौर

 

कविता फूटती है, जब

किसान करता है,  आत्महत्या

मौसम के बेईमान होने पर

 

लड़की मार दी जाती है

करती है,  जब किसी से प्रेम

 

नहीं रोक पाती है, जब कविता

जब रोका जाता है,  किसी को

पानी भरने से

गांव के एकमात्र कुएं से

 

पानी तो पानी,पर उसमें भी

खींच दी जाती है लकीर

पर कविता नहीं खींच पाती

अपने बीच कोई रेखा

 

कविता स्पर्श करना चाहती है

ऐसे क्षणों को

जिनमे प्यार हो,दुःख हो,सुख हो

और हो अपनापन।

 

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तुम पत्थर भी बन जाती हो..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

☆ तुम पत्थर भी बन जाती हो..!! ☆
(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  नारी पर एक भावप्रवण कविता । ) 

 

नारी तुम चलो तो,
नदिया सी बहती हो।
सब कुछ समेटे हुए,
आँचल में छिपाती हो।
मिट्टी, काँटे, कंकड़
पत्थर को तोड़ती हो।
अपनी गर्भ में अमूल्य
मोतियों को पालती हो।

नारी तुम रुकी तो,
पहाड़ सी बन जाती हो।
आँधी, तूफान या हो
ज्वालामुखी सहती हो।
अनगिनत बहते झरने
आँखों में बसाती हो।
भूस्सखन हो चाहे कितने
जड़ बन जाती हो।

हे नारी…!!
तुम मोम बन जाती हो,
और कभी मोम से
पत्थर भी बन जाती हो..!!

© सुजाता काळे
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ मोलकी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

☆ मोलकी ☆

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। डॉ मुक्ता जी के ये शब्द  “अनजान बालिका, दुल्हन नहीं ’मोलकी’ ” कहलाती है। निःशब्द हूँ । बेहतर है आप स्वयं यह कविता पढ़ कर टिप्पणी दें।) 

 

औरत का वजूद ना कभी था

ना होगा कभी

उसे समझा जाता है कठपुतली

मात्र उपयोगी वस्तु

उपभोग का उपादान

जिस पर पति का एकाधिकार

मनचाहा उपयोग करने के पश्चात्

वह फेंक सकता है बीच राह

और घर से बेदखल कर

उस मासूम की

अस्मत का सौदा

किसी भी पल अकारण

नि:संकोच कर सकता है

 

आजकल

भ्रूण-हत्या के प्रचलन

और घटते लिंगानुपात के कारण

लड़कियों की खरीदारी का

सिलसिला बेखौफ़ जारी है

 

चंद सिक्कों में

खरीद कर लायी गयी

रिश्तों के व्याकरण से

अनजान बालिका

दुल्हन नहीं ’मोलकी’ कहलाती

और वह उसकी जीवन-संगिनी नहीं

सबकी सम्पत्ति समझी जाती

जिसे बंधुआ-मज़दूर समझ

किया जाता

गुलामों से भी

बदतर व्यवहार

 

भूमंडलीकरण के दौर में

‘यूज़ एंड थ्रो’

और‘तू नहीं और सही’

का प्रचलन सदियों से

बदस्तूर जारी है

और यह है रईसज़ादों का शौक

जिसमें ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने सेंध लगा

लील लीं परिवार की

अनन्त,असीम खुशियां

और पर-स्त्री संबंधों की आज़ादी

कलंक है भारतीय संस्कृति पर

जाने कब होगा इन बुराईयों का

समाज से अंत ‘औ’ उन्मूलन

शायद! यह लाइलाज हैं

नहीं कोई इनका समाधान

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ क्या तुम समझते हो? ☆ – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

☆ क्या तुम समझते हो? ☆

(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी  का स्त्री पर  एक  हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण  कविता।) 

 

क्या तुम समझते हो

स्त्री होने का दुःख ?

नहीं तुम नहीं समझ सकते

तुम्हें अपने पुरूष होंने

का बहुत अभिमान है।

सदियों दर सदियों तक

तुम नहीं बदलोगे ।

क्या तुम एक दिन के लिए

केवल एक दिन के लिए

स्त्री बनना चाहोगे ?

देखना चाहोगे

महिने के वो सात दिन

किस पीड़ा से गुजरती है ?

जीना चाहोगे संस्कारों के नाम पर

शोषित होकर

क्या तुम एक संतान को जन्म देकर

नौ महीने का अनुभव करना चाहोगे?

क्या एक दिन तुम चारदिवारी में

बंद रहकर सब की

देखभाल करना चाहोगे

सबकी इच्छाओ की पूर्ति के लिए

अपनी इच्छाओं को रौंध पाओगे?

 

स्त्री होने के लिए

अहिल्या सा पत्थर होना पड़ता है

मोक्ष के नाम पर ठोकरों में रहना पड़ता है

द्रौपदी सा चीरहरण सहना पड़ता है

गली गली दुर्योधन भटकते हैं

जो औरत को भोग समझते हैं

झेलना पड़ता है गांधारी सा अंधापन।

 

सास -ससुर, पति की महत्वाकांक्षों के कारण

अपना ममत्व गिराना पड़ता है

सिर्फ और सिर्फ पुरूष संतान को जीवित रखने के लिए

कितनी बच्चियों को कुर्बान होना पड़ता है

जिन्हें पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है

फिर भी उजड़ी कोख लिए जीना पड़ता है

कितनी अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है

सिया सा आत्मा के जंगलों में भटकना पड़ता है

क्या तुमने दी है कभी अग्नि परीक्षा

सावित्री सा तपस्वी होना पड़ता है

मृत्यु तक को हारना पड़ता है

क्या कभी तुम अपनी सहचरी के लिए

लड़े हो मौत से नहीं तुम तो अपने अहंकार

क्षणिक भूख के लिए स्त्री का शरीर ही नहीं

आत्मा तक  छिन्न-भिन्न कर देते हो

फेंक देते हो मरने के लिए उसका जिस्म तार-तार कर के

और अपने होने पर गर्व करते हो

क्या है तुम्हारे पास गर्व करने जैसा कुछ है?

 

जब भी इस बात से भ्रमित हो कि तुम

संसार की सबसे श्रेष्ठ कृति हो

तो जाकर अपनी माँ से लिपट जाना

जब तुम्हें लगे कि माँ की गोद से बढ़कर कोई जगह

या सुखद अहसास दुसरा नहीं है

तो स्त्री का महत्व जीवन में ही नहीं

संसार में क्या होता है समझ लोगे

तब तुम सही मायने में

पुरूष कहलाओगे ।

 

 

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? टूट गया बंजारा मन ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? टूट गया बंजारा मन ?

(प्रस्तुत  है जीवन की कटु सच्चाई  एवं रिश्तों के ताने बाने को उजागर करती कविता।  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)

 

माना रिश्ता जिनसे दिल का

दे बैठा मैं तिनका-तिनका

दिल के दर्द,कथाएँ सारी

रहा सुनाता बारी-बारी

सुनते थे ज्यों गूँगे-बहरे

कुछ उथले कुछ काफी गहरे

 

मतलब सधा,चलाया घन.

टूट गया बंजारा मन.

 

भाषा मधुर शहद में घोली

जिनकी थी अमृतमय बोली

दाएँ में ले तीर-कमान

बाएँ हाथ से खींचे कान

बदल गए आचार-विचार

दुश्मन-सा सारा व्यवहार

उजड़ा देख के मानस-वन.

टूट गया बंजारा मन.

 

जिस दुनिया से यारी की

उसने ही गद्दारी की

लगा कि गलती भारी की

फिर सोचा खुद्दारी की

धृतराष्ट्र की बाँहों में

शेष बची कुछ आहों में

किसने लूटा अपनापन.

टूट गया बंजारा मन.

 

कैसे अपना गैर हो गया

क्योंकर इतना बैर हो गया

क्या सचमुच वो अपना था

या फिर कोई सपना था

अपनापन गंगा-जल है

जहाँ न कोई छल-बल है

ईर्ष्या से कलुषित जीवन.

टूट गया बंजारा मन.

 

वे रिश्तों के कच्चे धागे

आसानी से तोड़ के भागे

मेरे जीवन-पल अनमोल

वे कंचों से रहे हैं तोल

छूट रहे जो पीछे-आगे

जोड़ रहा मैं टूटे धागे

उधड़ न जाए फिर सीवन.

टूट रहा बंजारा मन.

 

बाहर भरे शिकारी जाने

लाख मनाऊँ पर ना माने

अनुभव हीन, चपल चितवन

उछल रहा है वन-उपवन

‘नाद रीझ’ दे देगा जीवन

 

यह मृगछौना मेरा मन

विष-बुझे तीर की है कसकन.

टूट गया बंजारा मन.

 

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

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