(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की भावप्रवण कविता “कविता” । सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता काव्यात्मक परिभाषा के लिए मैं निःशब्द हूँ। कविता छंदयुक्त हो या छंदमुक्त हो यदि कविता में संवेदना ही नहीं तो फिर कैसी कविता? )
(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि श्री मनीष तिवारी जी की यह कविता जो आईना दिखाती है उन समस्त तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं । यह उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। संपर्क, खेमें, पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता।
साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं जो उन्होने मुझे आज से 37 वर्ष पूर्व लिखा था –
“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार। हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”)
सच कह रहा हूँ भाईजान
मेरी उम्र को मत देखिए
न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइए
आईये
मैं आपको बतलाऊँ
मेरी साहित्यिक सनक को देखिए
सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है,
जिसे साहित्य समझ में नहीं आता
मेरे साहित्य को पढ़ रही है।
सनक एकदम नयी नयी है
नया नया लेखन है
नया नया जोश है,
मैं क्या लिख रहा हूँ
इसका मुझे पूरा पूरा होश है।
सब माई की कृपा है
कलम घिसते बनने लगी
कितनी घिसना है
कहाँ घिसना है
कैसी घिसना है
ये तो मुझे नहीं मालूम
पर घिसना है तो घिस रहे हैं।
हमने कहा- भाईजान जरूर घिसिये
पर इतना ध्यान रखिये
आपके घिसने से कई
समझदार साहित्यकार पिस रहे हैं।
वे अकड़कर बोले,
मेरा हाथ पकड़कर बोले-
आप बड़े कवि हैं
हम पर व्यंग्य कर रहे हैं
अत्याचार कर रहे हैं
आपको नहीं मालूम
पूरी दुनिया के पाठक
मेरी साहित्यिक सनक की
जय जयकार कर रहे हैं।
मेरा अभिनंदन कर रहे हैं
मैं उन्हें बाकायदा धनराशि देता हूँ
पर वे लेने से डर रहे हैं।
जबकि मैं जानता हूँ
मेरे जैसे लोगो का
अभिनन्दन करने वाले
अपना घर भर रहे हैं।
हमारी रचनाएं अनेक देशों में
साहित्यिक रक्त पिपासुओं द्वारा
भरपूर सराही जा रही हैं।
घनघोर वाहवाही पा रही हैं।
हमने कहा- भाईसाब
मेरा ये ख्याल है
इसी सनकी प्रतिभा का तो हमें मलाल है।
जो कविता हमें और
हमारे साहित्यिक कुनबे को
समझ में नहीं आ रही है
आपकी सर्जना को
सिरफिरी दुनिया सिर पर उठा रही है।
आखिर आप क्यों?
हिंदी साहित्य में स्वाइन फ्लू फैला रहे हैं,
और अफसोस
उस बीमारी को समझकर भी
लोग तालियां बजा रहे हैं।
आप क्या समझते हैं
आपके तथाकथित सृजन और पठन से
श्रोता जाग रहे हैं,
आपको पता ही नहीं आपका नाम सुनते ही
श्रोता दहशत में हैं और भाग रहे हैं।
आयोजकों के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं,
हाल खाली है और दरवाजे पर ताले जड़े हैं।
लगता है विदेशियों ने
साहित्यिक षड्यंत्र रचा दिया है
जैसे पूरी दुनिया ने
भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर
कोहराम मचा दिया है।
ये लाईलाज बीमारी है
आपके अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के
गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा, कहानी और
नाटक को कुचलने की तैयारी है।
आप अपने सम्मान पर गर्वित हैं, ऐंठे हैं
आपको पता नहीं
आप एक बारूद के ढेर पर बैठे हैं।
आपको पता नहीं चल रहा कि
आपकी दशा है या दुर्दशा है
आपको सम्मान का अफीमची नशा है।
आपको पता ही नहीं कि
आपके सम्मान के रंग में
कितनी मिली भंग है,
सच कहूं आपकी सृजनशीलता
पूरी तरह से नंग धड़ंग है।
मर्यादा का कलेवर आपके
तथाकथित अभिमान को ढक नहीं सकता
और, मेरे मना करने पर भी
आपका इस तरह लेखन रूक नहीं सकता।
आप अपनी वैचारिक विकलांगता
साहित्यिक विकलांगों के बीच में ही रहने दो
आप अपनी कीर्ती के कमल
गंदगी के कीच में ही रहने दो।
आपने हिंदी साहित्य का गला घोंटने
अपना जीवन अर्पित कर दिया,
परिणामस्वरूप स्वम्भू साहित्यकारों ने
आपको सम्मानित किया और चर्चित कर दिया।
आपके सम्मान से साहित्य के सम्रद्धि कलश भर नहीं सकते
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। कुछ लोगों के लिए कुम्भ एक पर्व है और कुछ लोगों के लिए त्रासदी। जिनके लिए कुम्भ एक पर्व है उस पर तो सब लिखते हैं किन्तु, जिसके लिए त्रासदी है , उसके लिए वे ही लिख पाते हैं जो संवेदनशील हैं। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को सादर नमन।)
(प्रस्तुत है श्रीमति सुजाता काले जी की एक भावप्रवण कविता । यह सच है कि सिर्फ समुद्र का पानी ही खारा नहीं होता। आँखों का पानी भी खारा होता है। हाँ, यह एक प्रश्नचिन्ह है कि स्त्री और पुरुष दोनों की आँखों का खारा पानी क्या क्या कहता है? किन्तु, एक स्त्री की आँखों के खारे पानी के पीछे की पीड़ा एक स्त्री ही समझ सकती है। इस तथ्य पर कल ई-अभिव्यक्ति संवाद में चर्चा करूंगा । )
प्रिय,
तुम्हारा मुझसे प्रश्न पूछना,
“तुम कैसी हो?”
और मेरा
आँखों का खारा पानी
छिपाकर कहना,
“मैं ठीक हूं।”
तब तुम्हारी व्यंग्य भरी
हँसी चुभ जाती थी
और गहरा छेद करती थी
हृदय में।
आज उसी प्रश्न का
उत्तर देने के लिए
आँखें डबडबा रही हैं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। जीवन के कटु सत्य को उजागर करती हृदयस्पर्शी कविता।)
(सुश्री सुषमा सिंह जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता “छल” एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता है जो पाठक को अंत तक एक लघुकथा की भांति उत्सुकता बनाए रखती है। सुश्री सुषमा जी की प्रत्येक कविता अपनी अमिट छाप छोड़ती है। उनकी अन्य कवितायें भी हम समय समय पर आपसे साझा करेंगे।)
हाथों में थामे पाति और अधरों पर मुस्कान लिए
आंखों के कोरों पर आंसु, और मन में अरमान लिए
हुई है पुलिकत मां ये देखो, मंद मंद मुस्काती है
मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।
बार-बार पढ़ती हर पंक्ति, बार-बार दोहराती है
लगता जैसे उन शब्दों को पल में वो जी जाती है
अपलक उसे निहार रही है, उसको चूमे जाती है
मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।
परदेस गया है बेटा, निंदिया भी तो न आती है
रो-रो कर उस पाति को ही बस वो गले लगाती है
पढ़ते-पढ़ते हर पंक्ति को, जाने कहां खो जाती है
खोज रही पाति में बचपन, जो उसकी याद दिलाती है
कितनी हो बीमार, हो कितना भी संताप लिए
खिल जाए अंतर्मन उसका, जब बेटे की आती पाति है
फिर से आई एक दिन पाति, वो तो जैसे हुई निहाल
बेटे की पाति पाकर के, खुशी से खिला था उसका भाल
उसे देख पाने की इच्छा, मन में कहीं दबाए थे
अंखियां थी अश्रु से भीगी, सबसे रही छिपाए थी
अंतिम सांसे गिनते-गिनते, सभी पातियां रही संभाल
पीड़ा थी आंखों में उसके, खोज रही थीं अपना लाल
आंचल में उस दुख को समेटे, और दिल पर लिए वो भार
दर्द भरी सखियों को संग ले, अब वो गई स्वर्ग सिधार।
बीते दिन किसी ने पिता से पूछा, क्या आई बेटे की पाति है?
मौन अधर अब सिसक पड़े थे, अश्रु बह निकले छल-छल
अब न आएगी कोई पाति, अब न होगा कोलाहल
मैं ही भेजा करता था पाति, मैं ही करता था वो छल
अब न आएगी कोई पाती, अब न होगी कोई हलचल
उस दुखिया मां को सुख देने को, मैं ही करता था वो छल।
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”। संयोगवश आज ही के अंक में भगवान शिव जी परआधारित श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक और रचना “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा” प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के सममानीय कवियों का हार्दिक आभार।)