हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #244 – 129 – “उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है…” ।)

? ग़ज़ल # 129 – “उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मिला हमको भी हमसफ़र ज़िंदगी का,

मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का।

*

मुश्किलें  इस  कदर सिर पर आईं,

हमदम बन बैठा क़हर ज़िंदगी का।

*

उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है,

किस तरह अब कटे पहर ज़िंदगी का।

*

न  होंगी  कम  दिक़्क़तें मेरी रोने से,

ग़म मुझे मिला इस कदर ज़िंदगी का।

*

सरेशाम  अंधेरा  छाया  है ‘आतिश’,

किस तरह अब हो बसर ज़िंदगी का।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 122 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।।स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर संसार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 122 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।।स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर संसार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर दिल में प्यार का   उपहार   चाहिये।

एक दूजे से जुड़ा हुआ सरोकार चाहिये।।

चाहिये जीने का हक़ हर किसीके लिए।

प्रेम की डोरी में   बंधा   संसार चाहिये।।

[2]

महोब्बत   का     बहता सैलाब    चाहिये।

भावनाओं का हरओर बस फैलाव चाहिये।।

चाहिये प्यार से भी प्यारा   रिश्ता  हमको।

दुनिया में हमें अब कोई नहीं दुराब चाहिये।।

[3]

एक धरती इक़आसमां संबको मिले छाया है।

हवा पानी इसको कौन कब बांध पाया है।।

चाहिये प्रभु का हाथ हर किसी  के सर पर।

बस मिट जाए संसार पर पड़ा  बुरा साया है।।

[4]

नफरत का नामोनिशान मिट जाये जहान से।

बस किरदार की खुशबू आये हर मकान से।।

चाहिये नहीं हमें बारूद और बम की दुनिया।

हमकदम हमसाया नजरआए हर इंसान से।।

[5]

तेरा मेरा इसका उसका नहीं हर बार चाहिये।

बिना छल कपट के हर एक व्यापार  चाहिये।।

चाहिये सम्मान से   चिंतन मनन की दुनिया।

स्वर्ग से भी सुंदर धरती    पर संसार चाहिये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – क्या भरोसा जिंदगी का ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “क्या भरोसा जिंदगी का !। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – क्या भरोसा जिंदगी का ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

क्या भरोसा जिंदगी का, बुलबुला है नीर का

पेड़ अधउखड़ी जड़ों का ज्यों नदी के तीर का ।

कभी आँधी की घड़ी में जो खड़ा फूला-फला

वही वर्षा की झड़ी में गिर पड़ा औं’ बह चला ।

ज्यों तरल आंसू नयन का विवश मन की पीर का ।।१।।

कभी बासंती पवन ने प्यार से हुलसा दिया

कभी झंझा के झकोरों ने जिसे झुलसा दिया ।

नियति जिसकी, ज्यों कोई बंदी बँधा जंजीर का ।।२।।

चार दिन के लिए जो संसार में मेहमान है

व्यस्तता में आज की जिसको न. कल का ध्यान है ।

साथ भी जिसको मिला तो नाशवान शरीर का ।।३।।

एक मिट्टी का खिलौना डर जिसे आघात का

ताप का भी, शीत का भी, वात का, बरसात का ।

ज्ञान कुछ जिसको न अपनी ही सही तासीर का ।।४।।

नहीं कोई अंदाज जिसको स्वतः अपनी राह का

पर न कोई अंत जिसकी चाह औ’ परवाह का ।

भटकना जिसको जगत में सदा एक फकीर सा ।।५।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 12 – नवगीत – नीलकंठी शंभु… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –नीलकंठी शंभु

? रचना संसार # 12 – नवगीत – नीलकंठी शंभु…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

हे नीललोहित नीलकंठी शंभु गंगाधार हो।

अक्षत चढ़ाते भक्त भोलेनाथ को स्वीकार हो।।

 *

ओंकार हो भीमा सुशोभित बाल मयंक माथ प्रभु।

हे विष्णुवल्लभ भक्त वत्सल सोम निर्गुण साथ प्रभु।।

हो सर्व -व्यापी तुम शिवाशंकर बसे कैलाश भी।

सादर नमन आशीष दो प्रभु तुम धरा आकाश भी।।

भर दो सभी भंडार गिरिधन्वा शिवं साकार हो।

 *

बम-बम त्रिलोकीनाथ जगमग है शिवाला जाइए।

शिवरात्रि ओंकारा उमापति सुख प्रदाता आइए।।

प्रभु नित्य बाजे प्रेम की डमरू हरो संताप भी।

मंगल करो भूलोक आकर के बिराजो आप भी।।

हे भूतपति हम तो खड़े चरणों प्रभो उद्धार हो।

 *

गणनाथ अभ्यंकर पुरारी भीम अनुपम आस है।

अवधूतपति पशुपति पिनाकी भूतपति उर वास है।।

अभिमान तोड़ो दुष्ट का जीवन सफल श्रीकंठ हो।

हे शूलपाणी हो कृपानिधि सोमप्रिय शिति कंठ हो।।

तांडव करें विपदा हरें दाता त्रिलोकी सार हो।

शंकर शिरोमणि प्रभु जटाधारी प्रजापति सत्य हैं।

स्वामी विरूपाक्षाय अभिनंदन करें आदित्य हैं।।

तन केसरी छाला अगोचर शक्ति भी अध्यात्म प्रभु।

नंदी बिराजे भस्मधारी प्राणदा एकात्म प्रभु।।

हो सृष्टि पालक श्रेष्ठ प्रमथाधिप शिवा त्रिपुरार हो।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #239 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 239 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

थाम लिया है आपने, चलते रहना संग।

थामें रहना राह में, हूँ मैं आधा अंग।।

*

साथी तुमको मानना, स्वामी मेरे आज।

दासी के इस रूप में, करती सारे काज।।

*

मिलते थे हम आपसे, वही पुरानी याद।

पूरी की है आपने, सपनों की फरियाद।।

*

तू मोहन का रूप है, मैं राधिके सुजान।

प्रभु आपसे ही मिलती, राधा को पहचान।।

*

जीवन जीने की कला, तुझ से सीखी मीत।

तेरा ही गुण गा रहे, लिखते तुझ पर गीत।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #221 ☆ एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 221 ☆

☆ एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बंद जब उनकी ज़ुबां  होती है

बात  नजरों से  बयां  होती  है

*

मोम  क्या है  वो क्या  समझेंगे

संग-दिल जिनकी अदा होती है

*

तिश्नगी प्यार की बढ़ी इस कदर

लरजते  होठों  से अयां  होती है

*

सुकूं  रूह को  मिले  जो प्यार  में

तनवीर    ऐसी   कहाँ   होती   है

*

याद   उनकी  लाती  है  बे- सुधी

देख  उनको  उम्मीदें जवां होती हैं

*

हमें  ऐतवार  है वफा  पर  अपनी

पर तकदीर सभी की जुदा होती है

*

“संतोष” प्यार में खोए हैं इस तरह

न आग लगती है, न धुआँ  होती है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ श्री रणधीर की मूल पंजाबी सात कविताएँ   ☆ भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ श्री रणधीर की मूल पंजाबी सात कविताएँ  ☆  भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

श्री रणधीर

(भारतीय साहित्य अकादमी, (पंजाबी काव्य) 2023 का युवा कवि पुरस्कार विजेता रणधीर की चर्चित काव्य पुस्तक “ख़त जो लिखने से रह गए” में से चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद करते हुए प्रसन्नचित हूँ। उनकी यथार्थ से जुड़ी हुई कविताएँ पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ हैं। समाज की कुरीतियों के सामने नये प्रश्न चिन्ह खड़े करती हैं। उनकी कविताएँ देखने में  छोटी हैं किन्तु, उनके भावार्थ का कैनवस बहुत विशाल है। ये प्रेम की अनुभूतियों को नये ढंग से परिभाषित करती हैं। उनकी रचनाओं में से जो जीवन दर्शन की तस्वीर उभरती है उसमें अपनी मर्ज़ी के रंग भरे जा सकते हैं। पंजाबी साहित्य को भविष्य में उनसे बहुत सी उम्मीदें हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह अनुवादित रचनाएँ हिन्दी पाठकों को आनन्दित करेंगी।)

१.  साँचा

होता तो यूँ ही है

एक साँचा होता

एक मनुष्य होता

एक पंछी होता

मोटा-पतला

चलता-फिरता

साँचों के आगे आ बैठता।

 

पर साँचे क्रूर ही होते हैं

उड़ान, क़द, आकार नहीं देखते

लाभ-हानि नहीं झेलते

अपना नाप नहीं बदलते।

 

उड़ान को, परों को

ख़यालों को, ज़रूरतों को, अभाव को

सब कुछ भिक्षा-पात्र में बदल देते हैं

 

मनुष्य ऐसे ही तो नहीं

सीधा चलने लगता

सच-झूठ

पाप-पुण्य कहने लगता

 

होता तो यूँ ही है

बस एक साँचा होता….

 

२. बारिश बनाम कीचड़

खिड़की से बाहर

बारिश हो रही है

 

मैं अपने

कोट और टाई की तरफ़ देखता

डरते-डरते देखता हूँ

बड़े साहब की आँखों की तरफ़

बरसात

जिनके लिए बदबू है

बस कीचड़ और कुछ भी नहीं

 

मेरा मन उड़ कर

बारिश में भीगने को करता है

झुक जाता हूँ

कोट और टाई के बोझ के नीचे

सहम जाता हूँ

बड़े साहब की आँखों में

कीचड़ देख।

३. मैं और वह

अक्सर वह कहता

कि इन्सान के पास

बुद्धि हो

कला हो

महकते फूल हों

जागता आकाश हो

भागता दरिया हो

 

मैं अक्सर महसूस करता

इन्सान के पास

आँख हो

सिर हो

पैर हों

हाथ हों

इन्सान…

सफ़र, दरिया, आकाश, सूरज

स्वयं ही बन जाता।

 

४. प्रेम कविताएं

प्रेम में लिखी कविताएं

प्रेम ही होती हैं

छल-कपट से मुक्त

शोर से दूर

दोष/गुण से परे

चुप-चाप लिखी रहती हैं

पानी के सीने पर

 

एक रात

उतर जाता है आदमी

इस गहरे पानी में

हर खुलते रास्ते को बंद कर

गुम हो जाता है

इसके  गहरे धरातल में

 

आदमी डूब जाता

ऊपर उठ

तैरने लगती हैं कविताएं

निकल जाती हैं

दूर कहीं…

किसी और देश

किसी अनजाने सफ़र पर

 

आदमी को

डूबना ही पड़ता

तांकि तैरती रह सकें हमारे सीने पर

प्रेम  कविताएं।

 

५ . बूँद

मैंने

बारिश की हर बूँद के साथ

महसूस किया

कितने सागरों-दरियाओं को

स्पर्श का अनुभव।

 

६.  तेरे मिलने से पहले

तेरे मिलने से पहले

यह नहीं था

कि हँसता नहीं था

पंछी चहचहाते नहीं थे

दरिया बहते

फूल महकते नहीं थे

या ऋतुओं का आना-जाना नहीं था

यह भी नहीं

कि जीता नहीं था।

 

बस तेरे मिलने से पहले

मैं अर्थहीन था

साँसों से भरा

अहसास से विहीन

फूल की छुअन का अहसास

रंग-ख़ुशबू के नज़दीक ही जानता

पंछियों की बोली की ताल से

बे-ख़बर

इस गाती महकती धुन को रिकॉर्ड करता।

 

जंगलों में भटकता

पेड़ों के बराबर

साँस लेने में असमर्थ

पतंग की उड़ान को

डोर से ही देखता

हाथों की प्यास से अनजान

पानी की मिठास को

जीभ से ही चखता

जी रहा था मैं।

 

तेरे मिलने से पहले

मैं जीवन के इस तरफ़ ही था

तेरा मिलना

कोई दिव्य करिश्मा था

या चमत्कार कोई

जिसने हुनर दिया

इन्सान की हाथों की लकीर से

पार झाँकने का

चुप में मुस्कुराने का

जीवन को बाहों में भर कर

आलिंग्न करने का।

 

वैसे तेरे मिलने से पहले भी

जीता था मैं

मन चाहे रंगों की बात करता

साँस लेता

दूर खड़ा सब कुछ देखता।

 

७. ख़त जो लिखने से रह गए

उन दिनों में

मैं बहुत व्यस्त था

लिख नहीं सका तुझे ख़त

 

कई बार प्रयत्न किया

कोई बोल बोलूँ

शब्द घड़ूँ

पर

शब्द घड़ने की रुत में

पहुँच गया कान छिदवाने

“गोरखनाथ” के टीले

गली-गली घूमता

भटकता

फटे कान  ठीक करवाने

या वालियों का नाप देने के लिए

 

कुछ भी था

मैं बहुत व्यस्त था

इश्क़ को योग बनाने में

योग से इश्क जगाने में

 

अगली बार जब नींद खुली

मेरे पास मशक थी

घनेईया बाबा

पिला रहा था घायलों  को पानी

मैं दूर से ही

दोस्त-दुश्मन गिन रहा था

गिनती के जोड़-घटाव में

रुक गया

मेरे ख़तों का कारवाँ ।

 

उम्मीद नहीं छोड़ी

समय बीतता गया

किसी न किसी तरह

स्वयं को घसीट लाया

तेरे दर तक

चौंक गया

रास्ते की चकाचौंध देख

चुंधियाई आँखों से

शामिल हो गया अन्धी भीड़ में

जो जा रही थी

कहीं मकान गिराने

कहीं अबला की इज़्ज़त लूटने

कहीं बच्चों को अनाथ करने

मेरा क़ुसूर बस इतना था

कि चल पड़ा

उस भीड़ के साथ

नहीं तो उस समय

मैं ज़रूर लिखता तुझे ख़त

 

थोड़ी दूर आ कर

दम लेते हुए सोचा

अब है सही मौक़ा

शब्द उच्चारण का

अचानक देखते ही देखते

मेरे हाथ गले के टायर हो गए

धू-धू करते धधक गए

मेरे सहित कई और लोगों ने

शब्द खो दिए

 

तेरी शिकायत सिर-माथे

मुझे मुआफ़ करना

उम्मीद करता हूँ

सदी के इस साल में

लिख सकूँगा तुझे वो

“ख़त जो लिखने से रह गए”।

कवि – श्री रणधीर 

भावानुवाद –  डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 22 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 22 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

आदमी

बोलता रहा ताउम्र

दुनिया ने

अबोला कर लिया,

हमेशा के लिए

चुप हो गया आदमी

दुनिया आदमी पर

बतिया रही है!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 9:44 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 211 ☆ बाल गीत – चित्र बनाएँ धूम मचाएँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 211 ☆

बाल गीत – चित्र बनाएँ धूम मचाएँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चित्र बनाएँ

धूम मचाएँ।

सुमन , राम के मन हरषाएँ।।

 *

चित्र बनाते चंदा मामा

चंद्रयान भारत लिख रामा

नई प्रीत लिख रंग जमाएं।

चित्र बनाएँ

धूम मचाएँ।

 *

चित्र बनाएँ सप्तऋषी के।

जोकर वाली हँसी – खुशी के।

लप्पा – लोरी मिलकर गाएँ।

चित्र बनाएँ

धूम मचाएँ।।

 *

चित्र बनाएँ तारा ध्रुव के।

राधा , सीता जय गणपत के।

पूर्व दिशा में रवि मुस्काएँ।

चित्र बनाएँ

धूम मचाएँ।।

 *

चित्र बनाएँ माँ , बापू के।

पर्वत , सरिता , तरु , टापू के।

चित्र सभी को मन – मन भाएँ।

चित्र बनाएँ

धूम मचाएँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #236 – कविता – ☆ चलाचली की बेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता चलाचली की बेला” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #236 ☆

☆ चलाचली की बेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चलाचली की बेला

गठरी गाँठ लगा लें

खोया जो उसको भूलें

पाया जितना कुछ

उसे सँभालें।

 

बेचैनी उदासियों को

इक तरफ फेंक दें

रहे न शेष प्रमाद

तमस को समूल मेट दें

गीत लिखे उजियारे के जो

मुक्तकंठ से उनको गा लें

चलाचली की……

 

मेले-ठेले गाँव, शहर

कस्बे बस्ती में

क्या अच्छा क्या बुरा घटा 

जग की कश्ती में,

जीवन सागर के प्रवाह सँग

निज अन्तर्सम्बन्ध बना लें

चलाचली की……

 

पुण्याई-सत्कर्म साथ

गठरी में रख लें

पूर्व रवाना होने के

फिर देख-परख लें,

अब तो मनवा मोहपाश की

त्यागे सब मायावी चालें

चलाचली की……

 

प्रश्न करेंगे ऊपर

क्या धरती से लाये

गए लक्ष्य लेकर जो

वह पूरा कर आये,

वहाँ खुलेंगे पोथी-पन्ने

साँच-झूठ के उजले-काले

चलाचली की……।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares