हिंदी साहित्य – कविता ☆ पिता… ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के  ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते  ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कविता  पिता…

☆ कविता ☆ पिता… ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

इन दो शब्दों में भ्रमांड समा जाता है ।

 

सर्जन से समकालीन तक

बिंब से प्रतिबिंब , पिता हरपल साथ रहता है ॥

 

गोद में लिये श्वेत अंबर तले,

पिता हमें अनंतता सिखाता है ।

 

ममता की आकाश गंगा का अनर्गल यायावर बन,

कंधे को भरोसा , कदम बढ़ाना सिखाता है ।

 

स्कूल का पहला बस्ता दिला, माँ की ओट में खड़े ।

हमारे स्वावलंबी कदमों की ताल पे अपने होने का एहसास दिलाता है ।

 

बहिर्मुखी बकवाद में सच परखना ,

परस्पराधीनता से स्वाधीनता की राह दिखाता है ।

 

हमारी हर उस चोट पे , जहां माँ बिलखती है ।

वहीं हमें परिस्थिति अवलोकन सिखाता है ॥

 

जीवन में आश्रित से स्वाश्रित तक का सफ़र ।

पिता हमें चीत से बोध कराता है॥

 

माँ और पिता के बीच का परस्पर यह फ़र्क़

पिता हँस के टाल जाता है ॥

 

माँ से की गई अटखेली में दिलचस्पी ना दिखाता।

हमारी बकैती का पूरा ब्योरा रखता है ॥

 

अस्तित्व की जित्तोज़हद में उगलते मार्तंड से बचाता।

पिता हर उन परछाइयों में देव बन रहता है ॥

 

हर बच्चे का पहला हीरो , वह पहला शक्तिमान।

एक सुदृढ़ निरापद , हमारे हर उस मूल सिद्धांत की बुनियाद होता है ॥

 

पिता , माँ के पीछे लिखा ।

हमारे हर सार का अर्थ , एक निरंकारी भ्रं रहता है ॥

©  श्री आशीष गौड़

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 186 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – परेशानियों से परेशान हो न… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “परेशानियों से परेशान हो न…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 186 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – परेशानियों से परेशान हो न… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

रोता है क्यों तू, मुसीबत में रो न परेशानियों से परेशान हो न ।

 

कही कोई है ऐसा जिसे घेर करके परेशानियों ने सताया नहीं है?

नहीं जानता मैं कि दुनियों में है कोई, परेशानियों जिसने पाया नहीं है।

कहाँ तक हो कोई परेशान इनसे ये हैं हर जमाने के हर-एक के साथी-

रहेंगे ये हम तो चले जायेंगे कल, ये दो दिन इन्हें आँसूओं से भिगों न ॥१।

रोता है क्यों तू —

 

सदा रात औ’ दिन तो होते रहे हैं, होते हैं अब भी औ होते रहेंगे

न बदला चलन इस जमाने का, बस लोग ऐसे ही हँसते औं रोते रहेंगे ।

अँधेरे में ही तो जला दीप करते, विहँसती है बाती औ कट रात जाती-

यही जिन्दगी है लगा ही रहा है, यहाँ हर एक घर कभी हँसना या रोना ।२।

रोता है क्यों तू –

 

ये दुश्मन नहीं हैं सखा हैं तुम्हारे, तुम इनसे डरो मत, गले तो लगाओ

इन्हें आसरा दो, सहारा लो इनका, इन्हें अपनी राहों का साथी बनाओ ।

अगर तुम डरे ये डरायेंगे तुमको, जो होगा वो सब लूट लेंगे तुम्हारा

डरे बिन इन्हें अपना साथी बना लो, इन्हें रहने को साथ दो एक कोना ।३।

रोता है क्यों तू

 

परेशानियों खुद परेशान है ये तो बस चाहती है सहारा-तुम्हारा

जो इनको निभा साथ ले सीख इनसे, कभी वह रहेगा न जीवन में हारा ।

ये जितनी बुरी है, भली भी है उतनी ही, देतीं जगा आत्मविश्वास भारी

जो इनकी सहज भावना को समझ लें, ये दे जायेगीं कुछ इन्हें कुछ न होना ।४।

रोता है क्यों तू —

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – जीवन का आधार प्रिय

? रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन का आधार प्रिय…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

जीवन का आधार तुम्हीं प्रिय,

सजन सुभग आभास हो।

हो तुम मधुर रागिनी मनहर  ,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

प्राणाधार सजन तुम मेरे,

चातक की मनुहार हो।

रजनीगंधा से बन महके,

मन वीणा झंकार हो।।

*

साँस-साँस में प्रेम तुम्हारा,

मधुकर उर गुंजार हो।

झूमे मनवा आहट सुनकर,

नेह सुधा मधुमास हो।।

हो तुम मधुर रागिनी मनहर,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

 

कण-कण में तो प्रीति बसी है,

पुलकित उर यह जान लो।

तुम हो तो हर दिन सावन है,

प्रीत चकोरी मान लो।।

तनमन अर्पण करती तुमको,

प्रीति मधुर पहचान लो।

राह निहारूँ बन मीरा मैं,

मन मंदिर शुभ वास हो।।

 *

हो तुम मधुर रागिनी मनहर,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

 *

प्रीति रीति प्रिय तुम ही जानो,

नेह समर्पण खान है।

पावन है अनुराग भक्ति ये,

सूरदास रसखान है।।

इस जीवन को पावन करती,

सुरधारा रस पान है ।

मोहे सूरत कामदेव सी ,

तुम मधुवन की रास हो।।

 *

हो तुम मधुर रागिनी मनहर,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #238 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 237 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

जीवन ऐसा हो सदा, खुशियों की बरसात।

सुख जीवन में दिखें, जैसे दिन हो रात।।

*

जीवन होता कठिन है, रखो लक्ष्य पर ध्यान।

प्रभु से हिम्मत मिल रही, प्रभु करें कल्याण।।

*

यात्रा जीवन नाम की, सब बैठे इस नाव।

चलना है इस सफर में, नहीं थकेंगे पाँव।।

*

धूप छांव की जिंदगी, थका थका विश्वास।

जीवन के इस सफर में, कभी न छूटे आस।।

*

अब तो सब  करने लगे, जीवन का अनुवाद।

जीवन जीना प्रेम से, होगा नहीं विवाद।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #220 ☆ संतोष के दोहे – नारी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – नारी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 220 ☆

☆ संतोष के दोहे – नारी… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नारी की महिमा बड़ी, नारी जगताधार

नारी बिन दुनिया नहीं, नारी से परिवार

*

नारी से परिवार, मान नारी का कीजै

पूज्या हैं यह जान, नहीं दुख उनको दीजे

*

कहें कवि “संतोष”, समझिये दुनियादारी

दुर्गा,लक्ष्मी,आदि, सभी अवतारी नारी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अगर तुम मिल गये होते… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

☆ कविता – अगर तुम मिल गये होते… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

जिंदगी और भी खूबसूरत होती

अगर तुम मिल गये होते…

हर रात हसीन होती

अगर तुम मिल गये होते…

हर दिन लाजवाब होता

अगर तुम मिल गये होते…

आखों में कभी आँसू  नहीं होते

अगर तुम मिल गये होते…

जिंदगी कितनी हसीन  होती

अगर तुम मिल गये होते…

तकदीर में कांटे नहीं होते

अगर तुम मिल गये होते…

दर्दभरी जिंदगी जी रही हूँ 

शायद कोई दर्द नहीं होता

अगर तुम मिल गये होते…

किस्मत में तुम होते तो

अगर तुम मिल गये होते…

राह देखती हूं अगले जनम में

मगर तुम मिल जना

मिल जाऊंगी इंतजार करते करते…

 – दत्तकन्या

© सौ. वृंदा गंभीर

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 17 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 17 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

मेरे शब्दों की

बोलती चुप्पी पर

कुछ छात्र

अनुसंधान करना चाहते हैं,

अपनी चुप्पी की

मुखरता पर

नतमस्तक हूँ!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:52 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 289 ☆ कविता – ☆ बेटी बचाती हैं देश… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 289 ☆

? कविता – बेटी बचाती हैं देश ?

गांधार की

शिव भक्त राजकुमारी

गांधारी !

इंद्रप्रस्थ और गांधार

राज्यों की शक्ति ,

समझौते में रिश्ते की राजनीति !

कुरु वंश की बड़ी

कुलवधु चुन ,

जन्मना नेत्रहीन

धृतराष्ट्र की पत्नी

बना दी गई।

और तब गांधारी ने

पति का थामा जो हाथ

देने आजन्म साथ

स्वयं अपनी आंखो पर बांध ली पट्टियां,

छोड़ दिया जीवन भर के लिए रोशनी का साथ।

 

बेटियां बचाती हैं देश

और पिता का नाम

कभी गांधारी बनकर गांधार

तो कभी जोधा बनकर आमेर

खुद के लिए चुन लेती हैं वे दुष्कर अंधा रास्ता

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 210 ☆ बाल कविता – खेल करें ऑंगन में चिड़िया ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 210 ☆

☆ बाल कविता – खेल करें ऑंगन में चिड़िया ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

खेल करें ऑंगन में चिड़िया।

पंख सजाएँ सुंदर गुड़िया।।

कोई गाती गीत मल्हारें।

कुछ तो शिशु को खूब दुलारें।।

 *

दाना चुगतीं साथ – साथ हैं।

मिल आपस में करें बात हैं।।

 *

बुलबुल सबको खूब पढ़ाए।

कविता उनको याद कराए।।

 *

मनोयोग से पुस्तक पढ़तीं।

आपस में वे कभी न लड़तीं।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #235 – कविता – ☆ चार दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके चार दोहे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #235 ☆

☆ चार दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कहाँ संतुलित अब रहा, खान-पान व्यवहार।

बिगड़े जंगल वायु जल,दुषित शोर की मार।।

*

पर्यावरण बिगड़ गया, बिगड़ गए हैं लोग।

वे ही बिगड़े कह रहे, बढ़े न बिगड़े रोग।।

*

कूड़ा-कचरा डालकर, पड़ोसियों के द्वार।

इस प्रकार से चल रहा, पर्यावरणीय प्यार।।

*

दिया नहीं जल मूल में, पत्तों पर छिड़काव।

नहीं फूल फल अब रहे, मिले मौसमी घाव।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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