हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 59 ☆ लिखने की ढो मत लाचारी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लिखने की ढो मत लाचारी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 59 ☆ लिखने की ढो मत लाचारी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

खोज जरा नए बिंब

लिखने की ढो मत लाचारी।

शब्द के पहाड़े का

रट्टा मत मार

पत्थर को और कुछ तराश

धुँधली सी आकृतियाँ

झाड़ पोंछ कर

थोड़ी बारीकियाँ तलाश

गढ़ ले इक नया ढंग

कहने में मत कर घरदारी।

डूबेगा अर्थ नहीं

गहरे में तैर

बह जा धारा के विपरीत

खुद को पतवार बना

साँसों को मोड़

गा ले फिर विप्लव का गीत

खींच दृश्य कविता में

आलोचक दृष्टि हो तारी।

(१३.२.२४)

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 63 ☆ दिल किसी का न वो दुखा सकते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “दिल किसी का न वो दुखा सकते“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 63 ☆

✍ दिल किसी का न वो दुखा सकते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हो न जाये ख़ता से डरते हैं

हर न हरगिज़ सजा से डरते हैं

 *

लुट गये प्यार में हम ऐसे कुछ

भूत जैसा वफ़ा से डरते हैं

 *

अपनी दम पर चिराग जो जलते

वो हमेशा हवा से डरते हैं

 *

कौन सी आह आसमां तोड़े

हम हर इक बद्दुआ से डरते हैं

 *

और का पेट काट हो हासिल

ऐसे हम हर नफ़ा से डरते हैं

 *

हम दुआ माँ की ले चलें घर से

फिर न कोई बला से डरते हैं

 *

आदमी वो न खेलें खतरों से

जो हमेशा क़ज़ा से डरते हैं

 *

ढूढते दूसरों की जो कमियाँ

वो बशर आइना से डरते हैं

 *

दांत जिनके भी पेट में होते

इनकी हम मित्रता से डरते हैं

 *

दिल किसी का न वो दुखा सकते

जी भी अपने ख़ुदा से डरते हैं

 *

चाह हमको बड़ी है शुहरत की

फिर भी इसके नशा से डरते हैं

 *

ए अरुण नापते गिरेबां जो

ऐसे हम आशना से डरते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 60 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – खुद को मैंने पा लिया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 60 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आज मैंने फिर, भुजाओं में तुम्हें लिपटा लिया

अपने दिल को ख्वाब में ही, इस तरह बहला लिया

*

मैं तो, तुमको देख करके झूम खुशियों से उठा 

जाने क्यों तुमने मगर मिलते ही मुँह लटका लिया

*

आज खाने में, तुम्हारे हाथ की खुशबू न थी 

याद यूँ आयी, निवाला हलक में अटका लिया

*

अपने घर वालों की यादों का करिश्मा देखिये 

बूट पालिश करने वाले बच्चे को सहला लिया

*

संस्कृति से कट गया है, ओहदा पाकर बड़ा 

प्यार की हल्दी का छापा, शहर में धुलवा लिया

*

जिस्म था मेरा, मगर इसमें न मेरी जान थी 

तुमको क्या पाया कि जैसे, खुद को मैंने पा लिया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 134 – स्मृतियों के आँगन में… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “स्मृतियों के आँगन में…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 134 – स्मृतियों के आँगन में… ☆

स्मृतियों के आँगन में यह,

काव्य कुंज का प्रतिरोपण ।

रंग – बिरंगे पुष्पों जैसे,

भावों का तुमको अर्पण ।

*

कविताओं में अनजाने ही,

लिख बैठा मन की बातें ।

मैं कवि नहीं,न कविता जानूँ ,

न जानूँ जग की घातें ।

*

आँखों से जो झलकी बॅूंदें ,

उनको लिख कर सौंप रहा ।

मन के उमड़े भावों की मैं ,

हृदय वेदना रोप रहा ।

*

माटी की यह सौंधी खुशबू ,

जब छाएगी घर आँगन में ।

संस्कृतियों के स्वर गूँजगे ,

सदा सभी के दामन में ।

*

यही धरोहर सौंप रहा मैं,

तुम मेरी कविताएँ पढ़ना ।

जब याद तुम्हें मैं आऊॅं तो ,

अपने कुछ पल मुझको देना ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 16 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 16 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

‘चुपचाप रहो’

दो शब्दों का मेल

कहने वाले

सुनने वाले के भीतर

मचा देता है

विचारों का कोलाहल!

© संजय भारद्वाज  

8:36 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 196 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 196 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

☆ 

सहवास

वह

श्यामवर्ण अश्व क्या

संपूर्ण राज्य भी

कर देगा

न्योछावर।

(ओ। ययाति

, बेटी बिचवा

यह सब कहते

तेरी जिव्हा

जल क्यों न गई।)

समर्पण हेतु

राजसभा में लाई गई – माधवी।

माधवी की

सौन्दर्य प्रभा ने

मुग्ध और

चकित कर दिया

गालव और गरुड़ को ।

माधवी ने

प्रणाम किया

गालव और गरुड़ को

तदनंतर

प्रणाम कर पिता की

कहा-

आज्ञा पिताश्री |

रुद्र कंठ ययाति बोले

बेटी

मैंने तुम्हें

सौंप दिया है

ऋषि गालव को।

 क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 196 – “आँखो में घिरते हैं बादल…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत आँखो में घिरते हैं बादल...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 196 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “आँखो में घिरते हैं बादल...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

शंकायें व असंतोष

हम पर आ औंधे हैं

हृष्टपुष्ट दीवारें है

खोखले घरोंदे हैं

 

गंधहीन सपने हैं

खाली खाली है चिन्तन

जिस पर सधा हुआ है

अपना यह बैरागी मन

 

चुगली करते मौसम की

बेदाग परिस्थितियाँ

खोज रही है सुखकर रस्ते

कितने सोंधे हैं

 

और खटास मोहल्ले की

जिसकी कड़वी बातें

जगा जगा जाती है हरदम

उलझी बरसातें

 

आँखो में घिरते हैं बादल

तो उदास झरने

फूल नहीं पाये जिनके

अभिशप्त करोंदे हैं

 

इस समाज में रहते रहते

भूल गया रहना

और उमीदों का पड़ौस

बन गया दुख सहना

 

चमकदार बुनियादी बातें

प्रश्न लिये गहरे

जो अब रह रह कर आँखों

में जैसे कोंधे हैं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-06-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 15 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 15 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

मेरी चुप्पी

तुम्हारी चुप्पी

इसकी, उसकी

हम सबकी चुप्पी,

हवा को

मुट्ठी में कैद करने की

नादान युक्ति,

कोई कुछ कहता नहीं

अंधेरा घुप है,

सब चुप्पी लगा गये

और तो और

सर्वज्ञ भी चुप है।

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:31 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 183 ☆ # “कोई वजह तो होगी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “कोई वजह तो होगी ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 183 ☆

☆ # “कोई वजह तो होगी” #

तुम्हारे दिल में

थोड़ी सी जगह तो होगी

मुझे देखकर मुस्कुराने की

कोई वजह तो होगी

 

माना के तुम्हें कत्ल

करने की छूट है

पर मेरा ही कत्ल करने की

कोई वजह तो होगी

 

तुम्हारी आंखों में

छुपी हुई है चमकती बिजली यां

मेरे ही नशेमन पर गिराने की

कोई वजह तो होगी

 

अभी अभी तो

हम मीले है राह में

इतनी जल्दी बिछड़ने की

कोई वजह तो होगी

 

मोबाइल के जमाने मे

यह कैसी झिझक है

‘ मिसकॉल ‘ करके बुलाने की

कोई वजह तो होगी

 

सबसे अलग है

तुम्हारी ये अदायें

‘ श्याम ‘ के तुम पे मरने की

कोई वजह तो होगी /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – वक्त ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता वक्त…‘।)

☆ कविता – वक्त…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

बिसर गया, कि बिसार दिया,

वक्त ही तो था.

गुजर गया, कि गुज़ार दिया,

वक्त ही तो था.

 

कितने अनजान,अपने बने,

कितने अपने, अनजान बने,

समझ गए, कि समझा गया,

वक्त ही तो था.

 

स्मृति भी अजीब है,यादों की,

धागों की तरह,उलझी थीं,

मिट गई, कि मिटा दिया,

वक्त ही तो था.

 

सभी तो साथ थे,सफर में,

साथ ही चले थे मगर,

किसने थामा,किसने गिरा दिया,

वक्त ही तो था.

 

राज की ही तो बात थी,

राज ही रखना थी मगर,

आसुओं से खुल गया था,

 वक्त ही तो था.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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