हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 189 ☆ भोजपुरी दोहे ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है भोजपुरी दोहे…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 189 ☆

☆ भोजपुरी दोहे ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

खेत खेत रउआ भयल, ‘सलिल’ सून खलिहान।

सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।

*

खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।

भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।

*

बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।

दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।

*

काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।

आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।

*

सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।

शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #239 – 124 – “अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले…” )

? ग़ज़ल # 124 – “अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

रोशनदान  नहीं  अंधेरों की बात कर,

तू मत सियासी सियारों की बात कर।

*

झुलस ले तू मई की तपती दुपहरी में,

बाद उसके मस्त फुहारों की बात कर।

*

अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले,

तब तू ख़ुशबू ओ गुलज़ारों की बात कर।

*

ख़ुद तू कितना बरहम है इन हैवान से,

मत रोज बिकते अख़बारों की बात कर।

*

बेशुमार दर्द पलता रक्काशा के दिल में,

तू मत घुँघरू के झंकारों की बात कर।

*

सुनसान  कमरे में  बैठा  क्या  सोचता,

बाहर निकल मत अंधियारों की बात कर।

*

आतिश ज़मीन पर ज़िंदगी भरपूर जी ले,

ना  आसमान पर  सितारों की बात कर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – केंद्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  केंद्र ? ?

खींचकर एक वृत्त

बीचोंबीच बिठा दी गई औरत

घोषित कर दिया गया उसे केंद्र,

बताया गया,

वृत्त, केंद्र के इर्द-गिर्द घूमता है,

भूल गए ताली बजानेवाले हाथ

राउंडर की नोक पर

छिदने-गुदने से बनता है केंद्र,

वृत्त की परिधि छोटी-बड़ी

करता है परकार

केंद्र की नाभि पर होकर सवार,

हाँ, परकार के कृत्य का

विवश, मूक माध्यम भर बनता है केंद्र,

केंद्र आनंदित है

परिधि को विस्तृत कर दिया गया है,

केंद्र दमित है

परिधि को लगभग समेट दिया गया है,

अपने ही वृत्त में कैद औरत

आजीवन मनाती रहती है जश्न

मिलती-छिनती आज़ादी का,

उस रोज़ कोई मंच से कह रहा था

देखो हम इंसानों ने

औरत को कितनी आज़ादी दी है,

जरा मुझे बताना भाई

औरत इंसान नहीं होती क्या?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 117 ☆ मुक्तक – ।।हर धड़कन में हिंदी हिंदुस्तान चाहिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 117 ☆

☆ मुक्तक – ।।हर धड़कन में हिंदी हिंदुस्तान चाहिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर रंग से भी हमें रंगीन हिंदुस्तान चाहिए।

खिले बागों   बहार सा  गुलिस्तान चाहिए।।

चाहिए विश्व में नाम   ऊँचा भारत      का।

विश्व   गुरु   भारत   का  सम्मान   चाहिए।।

[2]

मंगल चांद को  छूता भारत महान चाहिए।

अजेय  अखंड विजेता  हिंदुस्तान  चाहिए।।

दुश्मन नजर उठा  कर देख भी  न    सके।

हर शत्रु का   हमको   काम तमाम चाहिए।।

[3]

हमें गले मिलते राम और रहमान   चाहिए।

एक दूजे के लिए  प्रणाम  सलाम चाहिए।।

चाहिए हमें मिल कर रहते हुए सब    लोग।

एक दूजे के लिए दिलों में एतराम चाहिए।।

[4]

एक सौ पैंतीस करोड़ सुखी अवाम   चाहिए।

कश्मीर से कन्याकुमारी प्रेम पैगाम चाहिए।।

चाहिए विविधता में एकता का शक्ति दर्शन।

सम्पूर्ण विश्व में राष्ट्र का  यशो  गान चाहिए।।

[5]

पुरातन संस्कार मूल्य का  गुणगान चाहिए।

हर भारतवासी के चेहरे पर मुस्कान चाहिए।।

चाहिए गर्व और  गौरव   अपने भारत का।

हर धड़कन में  हिन्दी हिंद का पैगाम चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 179 ☆ ३० मई -पत्रकार दिवस विशेष >> पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ३० मई -पत्रकार दिवस विशेष >> पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जनतांत्रिक शासन के पोषक

जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से , सबके जिनसे रहते है गहरे सरोकार

जो धडकन है अखबारो की जिनसे चर्चायेे प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के निज सुखदुख से परे निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

चुभते रहते है कांटे भी जब करने को बढते सुधार

कर्तव्य पंथ पर चलते भी सहने पडते अक्सर प्रहार

पर कम ही पाते समझ कभी संघर्षपूर्ण उनकी गाथा

धोखा दे जाती मुस्काने भी उनको प्रायः कई बार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते है कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

जग के कोई भी कोने में झंझट होती या अनाचार

ये ही देते नई सोच समझ हितदृष्टि हटा सब अंधकार

जग में दैनिक व्यवहारों मे बढते दिखते भटकाव सदा

उलझाव भरी दुनियाॅ में नित ये ही देते सुलझे विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

सुबह सुबह अखबारों से ही मिलते हैं सारे समाचार

जिनका संपादन औ प्रसार करते हैं नामी पत्रकार

निष्पक्ष और गंभीर पत्रकारों का होता बडा मान

क्योंकि सब गतिविधियों के विश्लेषक सच्चे पत्रकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वन के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ – वन के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

वन जब तक, तब तक यहाँ, हवा मिलेगी ख़ूब।

वरना हम सब पीर में, जाएँगे नित डूब।।

*

वन का रहना है हमें, सुख का नव संसार।

रहे सुखद परिवेश तब, जीवन का आधार।।

*

वन हरियाली, चेतना, देता जो उल्लास।

मिलती हैं साँसें हमें,  सतत् मिले नव आस।।

*

मिलतीं औषधियाँ हमें, वन-उपजें भी ख़ूब।

जीवों का विचरण वहाँ, उगती कोमल दूब।।

*

वन तो खुशियों को रचे, लाता मंगल गान।

करता वन जीना सदा, बेहद ही आसान।।

*

वन में मंगल हो रहा,  खुशियों का पैग़ाम।

वन ने ही जग को दिए, नवल-धवल आयाम।।

*

वन से रौनक, पर्यटन, नैसर्गिक शुभगान।

फल, पत्ते हैं पेड़ सब, उपयोगी सामान।।

*

वन से ही है प्रकृति नव, वन से ही वनराज।

धर्म रचे वन में गए, हर्षित हुआ समाज।।

*

वन से ही लकड़ी मिले, पौराणिक इतिहास।

तपसी जीवन वन रचें, अधरों पर नव हास।।

*

पर्यावरण सुधारना, वन का चोखा काम।

जीवन की गतिशीलता, है देवों का धाम।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वह  ? ?

वह माँ, वह बेटी,

वह प्रेयसी, वह पत्नी,

वह दादी, नानी,

वह बुआ, मौसी,

चाची, मामी वह..,

शिक्षिका, श्रमिक,

अधिकारी, राजनेता,

पायलट, ड्राइवर,

डॉक्टर, इंजीनियर,

सैनिक, शांतिदूत,

क्या नहीं है वह..,

योगेश्वर के

विराट दर्शन में

हर रूप की

जननी है वह..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 9 – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब

? रचना संसार # 9 – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

कुमुदिनियों के गजरे सूखे,

वसंत की अगवानी में।

रोम-रोम छलनी भँवरे का,

माली की मनमानी में।।

 *

परिवर्तन आया जीवन में

फूल गुलाबों के चुभते।

गुलमोहर के पेड़ो में अब,

बस काँटे निशदिन उगते।।

गयीं रौनकें हैं उपवन की

सुगंध न रातरानी में।

 *

बोली लगती सच्चाई की,

मिथ्या सजी दुकानों में।

प्रतिपक्षी आश्वासन देते,

नारों भरे विमानों में।।

दाग लगा अपनी निष्ठा को,

पोंछें चूनर धानी में।

 *

लाक्षागृह का जाल बुन रही,

बैठी कौरव की टोली।

विष का घूँट पी रहे पाँडव,

खाकर रिश्तों की गोली।।

जमघट अधर्मियों का लगता,

आग लगाते पानी में।

 *

पाँच सितारा होटल में तो,

भाग्य गरीबों का सोता।

नित्य करों के नये बोझ से,

व्यापारी बैठा रोता।।

चोट बजट घाटे का देता,

अपनी ही नादानी में।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #234 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 234 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चित्र बनाया आपका, देखे स्वप्न हज़ार।

मैं तुझमें खोती गई, तू ही मेरा प्यार।।

*

तुझको माना साजना, होकर भाव विभोर।

मैं दुल्हन तेरी बनी,  बांँधे जीवन डोर।।

*

दूर नहीं तुमसे हुए, चले गए  परदेश।

आओ जल्दी तुम सजन, बना वियोगी वेश।।

*

  सोये नहीं दिन रात हम, स्वप्न देखते जाग।

बिन तेरे निन्द्रा कहाँ, भड़क रही है आग।।

*

मैं तेरी अभिसारिका, बस तेरी है आस।

टूट रहा है स्वप्न अब, छूट रही है सांस।।

*

तेरी राह निहारती , नहीं मुझे अब चैन।

*कब आआगे पीव तुम, राह देखते नैन।।

*

तुम बिन तो सब रूठ गया, रूठ गया है प्यार।

बिछिया पायल कंगना,  रूठा है शृंगार।।

*

मोर पंख की लेखनी, लिखे भाव उद्गार।

प्रेम प्यार से लिख रहे, शब्दों की झंकार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #216 ☆ एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 216 ☆

एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो ☆ श्री संतोष नेमा ☆

स्वप्न    सुनहरे   टूट     गए

अपने   हमसे    रूठ    गए

*

हाथ थामें कब तक सच का

दोस्त    पुराने    छूट     गए

*

मुंह   देखी  न  आती हमको

सच   बोला  तो   झूठ    गए

*

बैठे   रहे   किनारों   पर  जो

धार   देख  कर   कूद    गए

*

मंजिल  मिलती खुद्दारों  को

जो   डर   बैठे     चूक   गए

*

सदा वफा   से  दूर  रहा  जो

गम – सागर में वह  डूब  गए

*

गुलों से यारी  प्यार  गीत से

ये   “संतोष”  को   लूट   गए

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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