हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोलाहल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  कोलाहल ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

कोलाहल

निपट पहली

संख्या हो

या असंख्येय

हो चुका हो,

कोलाहल

संख्यारेखा के

बाएँ हो या दायें हो,

हर बार

हर समय

कोलाहल की

परिणति

चुप्पी ही होती है,

चुप्पी शाश्वत है

शेष सब नश्वर!

© संजय भारद्वाज  

(2.9.18, प्रातः 6:59 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 119 ☆ हाइकु – ।। पत्रकार से ही समाचार ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 119 ☆

☆ हाइकु – ।। पत्रकार से ही समाचार ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

पत्रकारिता

आज की जरूरत

स्पष्टवादिता।

 

[2]

पत्रकार है

कलम का सिपाही

चौकीदार है।

 

[3]

है पत्रकार

शब्दों का जादूगर

राष्ट्र आधार।

 

[4]

ये समाचार

पत्रकार की देन

हर प्रकार।

 

[5]

पत्रकारिता

कभी खुशी या गम

रोज लिखता।

 

[6]

पत्रकारिता

लिखे भविष्य का भी

दूरदर्शिता।

 

[7]

ये पत्रकार

लिखे अच्छा बुरा भी

जो सरकार।

 

[8]

ये पत्रकार

आज स्पष्टवादिता

है दरकार।

 

[9]

ये पत्रकार

गलत सही चुन

झूठ नकार।

 

[10]

पत्रकारिता

सकारात्मकता हो

तो सार्थकता।

 

[11]

पत्रकारिता

यह है चौथा स्तंभ

लोकतंत्र का।

 

[12]

ये पत्रकार

मीडिया का आधार

सुने पुकार।

 

[13]

ये पत्रकार

ये संवाद संचार

आज आधार।

 

[14]

ये पत्रकार

कलम तलवार

है ललकार।

 

[15]

ये पत्रकार

करे   खबरदार

जवाबदार।

 

[16]

पत्रकारिता

हो निष्पक्ष वादिता

यही आहर्ता।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 181 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – हार कैसे मान लूँ मैं ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “आदमी कितना भोला है, नादान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 181 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – हार कैसे मान लूँ मैं ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

साफ दिखती जीत को ही हार कैसे मान लूं मैं ?

आ रहे मुधुमास को पतझार कैसे मान लूं मैं ??

 

हर अँधेरे में उजाले की कहीं सोई किरण है

तपन के ही बाद होता चाँदनी का आगमन है

देखता कुछ, बोलता कुछ, साफ जो कुछ कह न पाता

उस जगत के कथन का एतबार कैसे मान लूं मैं ।। १ ।।

 

आज अपनी जीत को ही हार को भी

जीत का पर्याय ही मैं मानता हूं

अश्रु पूर्वाभास हैं मुस्कान के मैं जानता हूं ।।

शब्द के संदर्भगत निहितार्थ अक्सर भिन्न होते

भाव को शब्दार्थ के अनुसार कैसे मान लूं मैं ।। ३ ।।

 

आज अपनी जीत को ही जगत तो

परिपाटियों को बिना समझे मानता है

जानने औ’ मानने में पर बड़ी असमानता है ।।

सुस्मिता ऊषा के बिखरे कुन्तलों की श्यामता को

अमावस की रात का अंधियार कैसे मान लूं मैं ।।४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अनमोल तुम है चाँद तारा  ☆ डॉ गुलाब चंद पटेल ☆

डॉ गुलाब चंद पटेल

☆ कविता ☆ अनमोल तुम है चाँद तारा  ☆ डॉ गुलाब चंद पटेल ☆

तुम ही हो चाँद तारा प्यारा है 

तुम ही हो अमर प्यार हमारा है 

*

पर्दा हटते ही चाँद निकल आता है 

उसकी हर अदा हमे दिवाना बनाती है 

*

लोग तुम्हें चाहे दूर से देखते है 

नजदीक से देखने का हक्क हमारा है 

*

बादल का पर्दा हटते ही चाँद दिखता है 

इन्हें देखकर दिल मेरा बहुत धड़कता है 

*

कातिल नजरो से निगाह डाला है 

चाँद तुम पर हक सिर्फ हमारा है 

*

तुम्हें मिलने को चाँदनी रात मन बनाया है 

दिल में हमने तेरे लिए एक स्वप्न सजाया है 

*

तुम्हें बिना देखे चेन नहीं मिलता है 

तुम्हारा स्मित हमे बहुत प्यारा लगता है 

*

तुम्हारी याद रात हमे बहुत सताती है 

खुशिया की लहर हमे सुबह जल्दी जगाती है 

*

चाँद तुम इंतजार बहुत कराता है 

जीवन में प्यार की लहर दौड़ जाती है 

*

चाँद तुम हमे जी जान से प्यारा है 

तेरे संग जिंदगी जीना मकसद हमारा है 

*

कवि गुलाब ने प्यार का पैगाम पहुंचाया है 

चाँद को ही सिर्फ अपने दिल में बसाया है 

© डॉ गुलाब चंद पटेल 

अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्था गुजरात Mo 8849794377 <[email protected]>  <[email protected]>

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 10 – नवगीत – पल्लू से आँसू पोंछे माँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – पल्लू से आँसू पोंछे माँ

? रचना संसार # 10 – नवगीत – पल्लू से आँसू पोंछे माँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

मार पड़ी महँगाई की है,

नहीं सूझती बात।

मिली आज की दौर की हमें,

आँसू ही सौग़ात।।

*

रोते बच्चे मिले बटर भी,

कुछ रोटी के साथ।

पल्लू से आँसू पोंछे माँ,

पर मारे-दो हाथ।।

छूट गया काम क्या करे अब,

खाओ सूखा भात।

*

रोज़ गालियाँ देता पति भी,

आती उसे न लाज।

कटे जीवनी कैसे उसकी,

करे न कोई काज।।

पीने दारू बेचें जेवर,

रोती बस दिन-रात।

घूरे के भी दिन आते हैं,

उर रखती बस आस।

काम मिलेगा कल फिर उसको,

पूरा है विश्वास।।

तगड़ा नेटवर्क उसका भी,

देगी सबको मात।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आवेग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  आवेग  ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

‘चुप रहो’

क्रोध का पारावार

ज्यों-ज्यों बढ़ता है

अपने सिवा

हरेक से

चुप्पी की आशा करता है,

आवेग की

इकाई होती है चुप्पी!

 

© संजय भारद्वाज  

( 2.9.18, प्रातः 6:51 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #218 ☆ पूर्णिका – किससे कहें हम ये दास्तां हमारी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है पूर्णिका – किससे कहें हम ये दास्तां हमारी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 218 ☆

☆ पूर्णिका – किससे  कहें  हम ये  दास्तां  हमारी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जमाने के  हम भी  सताये  हुए  हैं

मुहब्बत में हम  चोट खाये  हुए  हैं

*

मिला दर्द हम को अपनों से ज्यादा

कैसे  बताएँ  गम   छिपाये  हुए  हैँ

*

हैँ मालूम हम को, रिवायत जगत की

फिर भी  ये दिल  हम  लगाए हुए हैं

*

किससे  कहें  हम ये  दास्तां  हमारी

कि कितने सितम हम उठाये हुए  हैँ

*

फरेबी,  दगावाज़   होती  है  दुनिया

अपने भी अब  स्वयं पराये  हुए   हैँ

*

वो  नजरें मिला कर  नजर फेरते  हैँ

फिर भी  निगाहें हम बिछाए हुए  हैँ

*

अब किसी की जरूरत नहीं है हमें

“संतोष” दिल में हम बसाए  हुए हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… नौतपा ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशित। गीत कलश (छंद गीत) और निर्विकार पथ (मत्तसवैया) प्रकाशाधीन। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 350 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… नौतपा ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(नौतपा और उसके पश्चात की वेला पर आधारित) 

गरमी भीषण पड़ी, जेठ के  महीने अड़ी,

होते गर्म रात- दिन, नौतपा जलाता तन |

*

लू लपेटे फँसे चलें, जल बिन कैसे पलें?

सूरज प्रचंड ताप, आपत को सहे जन ||

*

बाहर को मत जाओ, घर रह सुख पाओ,

तपती है मरुभूमि, हुआ बुरा हाल मन‌।

*

नौतपा पे सब हारे, सूखे नदी वृक्ष सारे,

योगिता काँपते पल, जल थल और वन ||

*

ओ बरखा रानी आओ, बदरा बनके छाओ,

प्यासी है धरती सारी, प्यासे सारे जलचर।

*

बूंदें बन बरसना, गर्मी में है जीव घना,

तीव्र घनघोर जल, शीतल ठंडक कर।।

*

कृषक देखता राह, नव हो जीवन चाह,

चलें कब खेत पर, बनकर हलधर।

*

सौंधी माटी की महक, खत्म देह की दहक,

वृक्ष को लगायें सभी, स्फुरित हो बीज  हर।।

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मन का दरवाज़ा ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

कविता – मन का दरवाज़ा ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

घर के दरवाज़े

और मन के दरवाज़े में

बहुत फ़र्क़ होता है

 

घर का दरवाज़ा तो

अक्सर खुला करता है

मेहमानों के लिए, आने वालों के लिए

किन्तु,

मन का दरवाज़ा खुलता है

जीवन में एक बार

कभी किसी अपने के लिये

 

यह घर का दरवाज़ा

लकड़ी से बनी

कोई वस्तु नहीं

हमारे घर की मर्यादा है

हमारे घर का सुरक्षा कवच है

 

खिड़कियों की तो अपनी एक सीमा है

खिड़कियाँ कभी कभार खुलती हैं

पुरवाई के हल्के से झोंके से

इनके पर्दे तो हिल सकते हैं

दरवाज़ा भी हल्का सा खुल सकता है

 

मगर

मन का दरवाज़ा कहाँ खुलता है..?

यह तो खुलता है

मधुर स्मृतियों के झोंकों से

किसी अपने की दस्तक से

किसी अपने के इंतज़ार में

इसकी चाबीयाँ टंगी नहीं रहतीं

दीवार में लगी कील से

 

वो संवेदनाओं की ध्वनि

मन की गहराई से उठती

समर्पण की आकांक्षाओं का परिणाम है

 

मन के दरवाजे का खुलना

दिल के अंदर छुपी आवाज़

एक साधना की भावना

मन के समन्दर में

उठे ज्वार-भाटा को

करती है शांत

लाती है स्थिरता

 

बार-बार

घर के दरवाज़े का खुलना

ले के आता है

बाहर की आवाज़ों का शोर

विचलित करता है

मन की भावनाओं को,

संवेदनाओं को…

 

कहाँ हो तुम..?

आ जाओ !

खुली हैं

तुम्हारे लिए

स्मृतियों की खिड़कियाँ…

मन का दरवाज़ा।

☆ 

© डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं –  9646863733 ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भेड़िया ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – भेड़िया ? ?

भेड़िया उठा ले गया

झाड़ी की ओट में,

बर्बरता से उसका

अंग-प्रत्यंग भक्षण किया,

कुछ दिन बाद

देह का सड़ा-गला

अवशेष बरामद हुआ,

भेड़ियों का ग्राफ

निरंतर बढ़ता गया,

फिर यकायक

दुर्लभ होते प्राणियों में

भेड़िये का नाम पाकर

मेरा माथा ठनक गया,

अध्ययन से यह

तथ्य स्पष्ट हुआ,

चौपाये भेड़िये

जिस गति से घट रहे हैं,

दोपाये भेड़िये

उससे कई गुना अधिक

गति से बढ़ रहे हैं…!

© संजय भारद्वाज  

(प्रातः 3.45 बजे, 26.4.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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