हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको“)

✍ मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जान तुझपे ही मैं निसार करूँ

अय वतन इतना तुझसे प्यार करूँ

 *

पौ है फटने लगी लो शब गुजरी

और कब तक मैं इंतज़ार करूँ

 *

हाथ में हाथ दो न छोडूंगा

कैसे इस दिल पे इख्तियार करूँ

 *

आप तनक़ीद कीजिये खुलकर

अपने किरदार में निखार करूँ

 *

तुम वफ़ा का यकीं दिलाओ तो

मैं तुम्हें अपना राजदार करूँ

 *

गम बँटाने जो मेरे साथ हो तुम

क्यों तलाशे मैं ग़म गुसार करूँ

 *

दुश्मनी कर ले दोस्ती न सही

पीठ पर में कभी न वार करूँ

 *

साथ चल मेरे कारवाँ कर दो

नफरतें सारी तार तार करूँ

 *

मैं बुलंदी पे भी तुम्हें हूँ वही

ये गुजारिश मैं खाकसार करूँ

 *

मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको

चाह लूँ रंक ताजदार करूँ

 *

इश्क़ की गलियों में तू रुसवा अरुण

किस तरह तेरा ऐतबार करूँ

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… चैत्र नवरात्र… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… चैत्र नवरात्र☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

चैत्र मास तिथि प्रतिपदा , बहुत हर्ष है आज।

नवसंवत्सर वार है , बनते शुभमय काज।।1!!

*

भजते माँ अम्बे रहे, नवसंवत्सर वार।

जले ज्योति है नौ दिवस,  माँ करती उद्धार।।2!!

*

माँ अम्बे का सज रहा,  खूब बड़ा दरबार।

रखे मात अम्बे कदम, हरती कष्ट अपार।।3!!

*

पूजा घर पर ही करें , भगवा ध्वज फहराय।

चरण शरण मैया पड़े , जीवन का सुख पाय।।4!!

*

धर्म जाति कोई रहे, माने खुश त्योहार।

भक्ति भाव मन में सजे,  सुखद बने संसार।।5!!

*

नव कलिका मन की खिली, अब आनन्द विभोर।

नव संवत्सर की किरण , मन में करती शोर।।6!!

*

चैत्र शुक्ल संवत रहे, सुखमय हो परिवेश।

बुरी बला जग से मिटे,  मिले सुखद संदेश।।7!!

*

भारतीय नव वर्ष में,मना रहे त्योहार।

सत्य सनातन धर्म यह,  नवसंवत शुभ सार।।8!!

*

जले ज्योति हर घर  सजे, हुआ तिमिर का नाश।

कलश स्थापना कर रहे,  करते दूर निराश।।9!!

*

जीवन जीना शुरु करें, करना सदा विशेष ।

धर्म कर्म अरु प्रीत भर, अंतस मत रख द्वेष ।।10!!

 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 48 – प्यार से जीत लूँ जहाँ सारा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – प्यार से जीत लूँ जहाँ सारा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 48 – प्यार से जीत लूँ जहाँ सारा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मैं, तेरे नाम का प्याला चाहूँ 

अब, न कोई दूसरी हाला चाहूँ

*

दाग, जिसमें न हों बुराई के 

पुण्य का दिव्य दुशाला चाहूँ

*

मैं भी, अंधा था मोह माया में 

ज्ञान का, सिर्फ उजाला चाहूँ

*

नफरतें बो रहे हैं, सब मजहब 

धर्म, इन्सानियत वाला, चाहूँ

*

नाम, हर साँस में तुम्हारा हो 

जिन्दगी की, वही माला, चाहूँ

*

प्यार से, जीत लूँ जहाँ सारा 

कोई बन्दूक न भाला चाहूँ

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 124 – अपने संस्कारों को हमने… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपने संस्कारों को हमने…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 124 – कविता – अपने संस्कारों को हमने… ☆

अपने संस्कारों को हमने,

घर-आँगन में तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

 *

तन पर पड़ीं झुर्रियां देखीं,

सिर में छाई सफेदी ।

दर्पण ने सूरत दिखलाई

दिल ने खोया आपा।

 *

जोड़-तोड़ कर भरी तिजोरी,

अंतिम समय में लोचा।।

जीवन जीना सरल है भैया,

सबसे कठिन बुढ़ापा।

 *

गलत राह पर चढ़े शिखर में,

गिरते आँखों देखा।

बुरे काम का बुरा नतीजा,

जोगी ने घर नापा।।

 *

बनी हवेली रही काँपती,

वक्त में काम न आई।

साँसों की जब डोर है टूटी,

यम ने मारा लापा।

 *

जिन पर था विश्वास हमारा,

घात लगा धकियाया।

गैरों ने ही दिया सहारा,

अखबारों ने छापा।

 *

देर सही अंधेर नहीं है,

सूरज तो निकलेगा।

दशरथ नंदन हैं अवतारी

रावण ने भी भाँपा।

 *

अपने संस्कारों को हमने,

अपने हाथों तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दशरथ मांझी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

।। शुभ गुड़ी पाडवा ।। 

न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर।

*

परिवर्तन का संवत्सर
केवल कागज़ों तक सीमित न रहे।
मन मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो,
मानव स्वागत से समष्टिगत हो।

।। शुभ गुड़ी पाडवा ।। 

? संजय दृष्टि – दशरथ मांझी ? ?

वे खड़े करते रहे

मेरे इर्द-गिर्द

समस्याओं के पहाड़

धीरे-धीरे….,

मेरे भीतर

पनपता गया

एक ‘दशरथ मांझी’

धीरे-धीरे…!

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 8:17 बजे, 7 अप्रैल 2023

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संयोजक – सद्मार्ग मिशन ☆ संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 183 – सुमित्र के दोहे… जीवन  ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – जीवन।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 183 – सुमित्र के दोहे… जीवन ✍

क्षणभर का सानिध्य ही, तन में भरे उजास।

दर्शन की यमुना हरे, युगों युगों की प्यास।।

*

हृदय और मरुदेश में, अंतर नहीं विशेष।

हरित भूमियों के तले, पतझड़ के अवशेष ।।

*

तन-मन में शैथिल्य है, गहरा है अवसाद ।

एक सहारा शेष है, अपने प्रिय की याद।।

*

यह सांसों की बांसुरी, कब लोगे तुम हाथ ।

प्रश्नाकुल साधे कहें, कब तक रहें, अनाथ।।

*

मरुथल जैसी जिंदगी, अंतहीन भटकाव।

हरित भूमियों से मिले, जीवन के प्रस्ताव।।

*

नील वसन तन आवरित, सितवर्णी छविधाम।

कहां प्राण घन राधिके, अश्रु अश्रु घनश्याम।।

*

मौसम की गाली सुने, मन का मौन मजूर ।

और आप ऐसे हुए, जैसे पेड़ खजूर।।

*

जंगल जंगल घूम कर, मचा रहे हो धूम ।

पंछी को पिंजरा नहीं, ऐसे निकले सूम।।

*

क्या मेरा संबल मिला, बस तेरा अनुराग ।

मन मगहर को कर दिया, तूने पुण्य प्रयाग।

*

सांस सदा सुमिरन करें, आंखें रही अगोर।

अहो प्रतीक्षा हो गई, दौपदि वस्त्र अछोर।।

*

बरस बीत कर यो गया, मेघ गया हो रीत।

कालिदास के अधर पर, यक्ष प्रिया का गीत।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 185 – “इधर आँख में आँसू…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  इधर आँख में आँसू ...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 185 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “इधर आँख में आँसू ...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

उतर गई सूरज की पीली-

धूप बढ़ी छाया ।

गया‘ , दिहाडी से अब

तक क्यों लौट नहीं पाया?

 

उसकी बेटी कल से भूखी

व कुपोषिता थी ।

ग्राम महाजन के कर्जे की

रुग्ण शोषिता भी

 

उसके सूखे कंठ सिर्फ

अटका था यह जुमला-

माँ कब दोगी रोटी कल

से कुच्छ नहीं खाया ॥

 

पिघले शीशे से उंडेल

कर शब्द अचेत हुई ।

मेरी बेटी बची सिर्फ

क्या जैसे छुईमुई ।

 

ऐसा सोच गयारमवा

की औरत दरवाजे –

आतुर खड़ी प्रार्थना

करती सुन लो रघुराया ॥

 

तनिक देर के बाद कोई

हरकारा चिल्लाया ।

मढ़ पर भण्डारा, हुजूर ने

सबको बुलवाया ।

 

इधर आँख में आँसू मन

में लहर खुशी की रख –

गयाराम की बीबी कहती

धन्य प्रभू माया ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्रीलिंग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – स्त्रीलिंग ? ?

नवजात का रुदन

जगत की पहली भाषा,

अबोध की खिलखिलाहट

जगत का पहला महाकाव्य,

शिशु का उंगली पकड़ना

जगत का पहला अनहद नाद,

संतान का माँ को पुकारना

जगत का पहला मधुर निनाद,

प्रसूत होती स्त्री केवल

एक शिशु को नहीं जनती,

अभिव्यक्ति की संभावनाओं के

महाकोश को जन्म देती है,

संभवत: यही कारण है

भाषा, स्त्रीलिंग होती है!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 172 ☆ विश्व कविता दिवस विशेष # “शायद वो कविता कहलाई होगी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है विश्व कविता दिवस परआपकी भावप्रवण कविता “शायद वो कविता कहलाई होगी”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 172 ☆

☆ # विश्व कविता दिवस विशेष – “शायद वो कविता कहलाई होगी” # ☆ 

हिमखंड जब प्रखर तापसे

टूटकर पिघले होंगे

बर्फ से जल के फौवारे

चारों तरफ निकले होंगे

बर्फ की चट्टानो को चिरकर

जल के धारों को मोड़कर

जल की धारा बहते बहते

अवरोधों को सहते सहते

कहीं कुंड, कहीं झरना

कहीं जलाशय, कहीं नदी

कहलाई होगी

तभी जल के नाद में डूबकर

प्रवाह के गीत बनकर

कोई रचना बन पाई होगी

शायद वो कविता कहलाई होगी

 

वर्षा के रुत में, तपते देह से बुत में

काले काले मेघ, गर्जना करते मेघ

प्रचंड गर्जना से

गिराते चपल तड़ित

शांत वातावरण को कर खंडीत

वर्षा की बूंदें,

पृथ्वी पर है सब आंखें मूंदे

तपते देह को भिगोती होगी

हृदय में आग लगाती होगी

तब अनायास ही

हर देह से

वर्षा से नेह से

जब प्रित लगाई होगी

शायद वो कविता कहलाई होगी

 

सावन के झूलों में

फूलों के मेलों में

झूलती तरूणाई

ले मदमस्त अंगड़ाई

आसमान को छुती हुई

सावन के गीत गाती हुई

प्रियतम को याद कर

मेघों से फरियाद कर

श्रृंगार कर लज्जा ती होगी

रसिक प्रेमी को बुलाती होगी

इनके फुहारों में मिलन से

जो रसधार बहाई होगी

शायद वो कविता कहलाई होगी

 

तपे हुए लोहे पर मारता घन

जलते कोयले सा जलता मन

पसीने से तरबतर शरीर

आंखों के कोने में

छुपे हुए नीर

अंग अंग पर जलने के दाग़

पेट में जलती जन्मोंकी आग

बढ़ती मंहगाई बेहिसाब

रूखी रोटी संग प्याज

जब पानी पिकर

भूख मिटाई होगी

फिर उसने जो

धुन गुनगुनाई होगी

शायद वो कविता कहलाई होगी

 

जब सर पर ना हो किसी का साया

चिथड़ों में लिपटी हुई हो काया

गिद्ध सी घूरती हुई नज़रें

सुनती हर पल छींटों के कतरें

दूर कमाने गया है मालक

छाती से लिपटा हुआ है बालक

सुखे स्तन से दूध चूसता है

दूध ना आने पर वो रूसता है

उसका रूदन मां को रूलाता है

मां के नयनों से आंसू बहाता है

भूखें पेट बच्चे को, मां ने जो

लोरी सुनाकर सुलाई होगी

शायद वो कविता कहलाई होगी

 

उसकी लगन में

अपनी ही मगन में

घूमता हुआ फकीर

खैर मांगता जैसे कबीर

उसका अलख जगाते हुए

प्रित की ज्योति जलाते हुए

भेदभाव को मीटाकर

सबको अपने गले लगाकर

रंगता सबको उसके रंग में

लौ लगाता अंग अंग में

सब कर्मकांडों को तोड़कर

परमात्मा से हाथ जोड़कर

जो प्रार्थना उसने गाई होगी

शायद वो कविता कहलाई होगी/

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रतीक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘प्रतीक्षा…’।)

☆ कविता – प्रतीक्षा… ☆

करे प्रतीक्षा राधा तेरी,

 तेरी राह निहारे,

कब आओगे कान्हा,

कण कण तुझे पुकारे,

यमुना की लहरों ने अब,

चंचलता को छोड़ दिया,

वंशी वट की शाखों पर,

पुष्पों ने खिलना छोड़ दिया,

कुंज गली के लता पुष्प,

 सब तेरी बाट निहारे,

कब आओगे कान्हा…

बिलख बिलख कर,

सूख गई सबकी अखियां,

निधिवन में अब न जाएंगी

तुझसे बिछड़ी सखियां,

मौन हो गई तेरी बंसी

आकर उसे बजा रे,

कब आओगे कान्हा…

जब साथ नहीं देना था,

तो फिर क्यों आया था,

क्यों इतना नेह लगाया,

क्यों इतना तरसाया था,

जोड़ लिए जब सबसे नाते

इनको मत बिसरा रे,

कब आओगे कान्हा,

कण कण तुझे पुकारे.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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