हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 251 ⇒ अंगीठी, चूल्हा और अलाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “अंगीठी, चूल्हा और अलाव।)

?अभी अभी # 251 ⇒ अंगीठी, चूल्हा और अलाव… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भले ही आपको ठंड लगती रहे, फिर भी सबसे प्यारा मौसम ठंड का ही होता है। रात भर कंबल, रजाई में दुबके पड़े रहे, और सुबह होते ही आसपास गर्मी ही तलाशी जाती है। हर इंसान के पास गुलजार जैसा शब्द सामर्थ्य नहीं होता, कि उठते ही बीड़ी जला ले। फिर भी उसे चूल्हे की आग और गर्मागर्म चाय कॉफी से कोई परहेज नहीं होता। वैसे भी, जहां जिगर में बड़ी आग होती है, वहीं बीड़ी जलाई जाती है।

जब सूर्य देवता कोहरे और बादलों की ओट में छुपे रहते हैं, तब किसी जलती अंगीठी अथवा चूल्हे को तलाशा जाता है। चूल्हा लकड़ी मांगता है और अंगीठी कोयला। कुछ लोगों ने तो केवल कोयले का नाम ही सुना होगा। लकड़ी जली कोयला भयी, कितना आसान है न।

आजकल के बच्चों को कभी कोयले की टाल के भी दर्शन करवा दें, अगर संभव हो।।

वैसे उज्जवला गैस योजना ने घरों से सिगड़ी, चूल्हा और स्टोव्ह वैसे ही गायब कर रखा है। कहां से लाए गरीब आदमी घासलेट और सिगड़ी के लिए कोयले।

मेरे घर में आज भी केवल गैस का चूल्हा ही है, अंगीठी, सिगड़ी, और स्टोव्ह सब गए चूल्हे में। लेकिन गैस का चूल्हा हो, अथवा माइक्रोवेव, ये तापने के काम तो नहीं आ सकते ना। ऐसे में अंगीठी, चूल्हा अथवा अलाव ही काम आते हैं।

आजकल ठंड में भी रात की शादियां बड़े बड़े गार्डन और सुदूर रिसोर्ट में आयोजित की जाती है।

अब शादी में तो कम्बल ओढ़कर नहीं जा सकते।

ऐसी जगह तलाशी जाती है, जहां अलाव जल रहा हो। आग से चिपकने का मन करता है। आग, आगाह भी करती है, नेपथ्य में गीत भी बज रहा है, आपके पास जो आएगा, वो जल जाएगा। इतने में जलती आग से एक चिंगारी उछलती है, और आप छिटककर अलाव से थोड़ा दूर हो जाते हैं। फिर जब ठंडी हवा काटने लगती है, तो पुनः करीब आ जाते हैं।।

आजकल घरों में एयर कंडीशनर के अलावा रूम हीटर का उपयोग भी हो रहा है। नहाने के लिए तो गीजर है ही। कुछ ब्रिटिश काल के बंगलों में घरों के अंदर ही ड्रॉइंग रूम में एक फायर प्लेस भी होती थी, जो ठंड में पूरे कमरे को गर्म रखती थी। ऐसे मकानों में ऊपर बड़ी सी चिमनी की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी, ताकि धुआं बाहर निकल सके।

हमारे किचन में से लालटेन, चिमनी, चूल्हा, और अंगीठी भले ही गायब हो गए हों, लेकिन चिमनी का प्रवेश फिर से ही गया है। भूल जाइए रौशनदान और रात को जलने वाली चिमनी, आज धुआं और प्रदूषण चिमनी द्वारा ही बाहर फेंका जाता है।

शायद विज्ञान जल्द ही अंगीठी, चूल्हा और अलाव का भी विकल्प ढूंढ ले।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 178 ☆ मखमल के झूले पड़े… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मखमल के झूले पड़े। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 178 ☆

☆ मखमल के झूले पड़े…

भावनाओं को सीमा में नहीं बाँधा जा सकता, हर शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ होता है जिसको परिस्थितियों के अनुसार हम परिभाषित करते हैं। लाभ – हानि , सुख- दुख ये मुख्य कारक होते हैं; व्यक्ति के जीवन में एक के लिए जो अच्छा हो जरूरी नहीं वो दूसरे के लिए भी वैसा हो। काल और समय के अनुसार विचारों में परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

परिभाषा वही सार्थक होती है जो दूरदर्शिता के आधार पर निर्धारित हो, इसी तरह कोई भी रचना जब भविष्य को ध्यान में रख वर्तमान की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है तो वो लोगों को अपने साथ जोड़ने लगती है तब उसमें निहित संदेश व मर्म लोगों को समझ आने लगता है।

केवल मनोरंजन हेतु जो भी साहित्य लिखा व पढ़ा जाता है उससे हमारे व्यक्तित्व विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु जब हम ऐसे लेखन से जुड़ते हैं जो कालजयी हो तो वो आश्चर्यजनक रूप से आपके स्वभाव को बदलने लगता है और जो संदेश उस सृजन में समाहित होता है आप कब उसके हिस्से बन जाते हो पता ही नहीं चलता अतः अच्छा पढ़े, विचार करें फिर लिखें तो अपने आप ही सारे शब्द व विचार परिभाषित होने लगेंगे।

यही बात जीवन के संदर्भ में समझी जा सकती है, निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिना शाखा के बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आँकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है , सच पूछे तो वास्तविक आंनद भी तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले। हम सब सौभाग्यशाली हैं, 500 वर्षों की तपस्या रंग ला रही है, भावनात्मक जीत का प्रतीक राम जन्मभूमि स्थान पुनः जगमगाने लगेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 253 ☆ व्यंग्य – मौसम ठंड का ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक व्यंग्य – मौसम ठंड का)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 253 ☆

? व्यंग्य – मौसम ठंड का ?

मौसम के बदलाव के साथ, हवाएं सुस्त और शीतल हो जाती हैं। सुबह सूरज को भी अपनी ड्यूटी पर निकलने के लिए कोहरे की रजाई हटानी होती है। ऑपरेशनल कारणों से बिना बताए हवाई जहाज लेट होने लगते हैं। द्रुत गति की ट्रेन मंद रफ्तार से चलने को बाध्य हो जाती हैं। कम्बल बांटने वाली समाज सेवी संस्थाओं को फोटो खिंचाने के अवसर मिल जाते हैं। स्थानीय प्रशासन अलाव के लिये जलाऊ लकड़ी खरीदने के टेंडर लगाने लगता है। पुराने कपड़ों को बांटकर मेरे जैसे लोग गरीबों के मसीहा होने के आत्म दंभ से भर जाते हैं। श्रीमती जी के किचन में ज्वार, बाजरे, मक्के की रोटी बनने लगती है। स्वीट्स शाप पर गुड़ के मेथी वाले लड्डू और गाजर का हलुआ मिलने लगता है। गीजर और रूम हीटर के चलते बिजली का बिल शूट होने लगता है।

मित्रों के मन में कुछ पार्टी शार्टी, पिकनिक विकनिक हो जाये वाले ख्यालों की बौछार बरसने लगती है। रजाई से बाहर निकलने को शरीर तैयार नहीं होता। बाथरूम से बिना नहाये ही बस कपड़े बदल कर निकल आना अच्छा लगता है। धूप की तपिश, पत्नी के तानों सी सुहानी लगने लगे। जब ऐसे सिमटम्स नजर आने लगें तो समझ जाइये कि ठंड का मौसम अपने शबाब पर है। ऐसे सीजन में  पुरानी शर्ट के ऊपर नई स्वेटर डालकर आप कांफिडेंस से आफिस जा सकते हैं। शादी ब्याह में बरसों से रखा सूट और टाई पहनने के सुअवसर भी ठंड के मौसम में मिल जाते हैं। ठंड की शादियों में एक अनोखा दृश्य भी देखने मिल जाते जो किंचित जेंडर बायस्ड लगता है। जब शीतलहर से जनता का हाल बेहाल हो तब भी  शादियों में महिलाओ को खुले गले के ब्लाउज के संग रेशमी साडी में रात रात भर सक्रिय देखा जा सकता है।

दरअसल फेसबुक डी पी के लिये, फोटो और फैशन के दम पर उनका बाडी थर्मोस्टेट बिगडा बिगडा नजर आता है। सुबह की कोहरे वाली सर्द हवा, कभी हल्की फुल्की बारिश और यदि कहीं ओले भी गिर गये तो गर्मी के मौसम में जिस नैनीताल मसूरी के लिये हजारों खर्च करके दूर पहाड पर जाना होता है, वह परिवेश स्वयं आपके घर चला आता है। अपनी तो गुजारिश है कि ऐसे बढ़िया ठंड के मौसम में रिश्तों को गर्म बनाये रखें और मूंगफली को काजू समझकर खायें, बस।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 223 ☆ व्यंग्य – लेखक का सन्ताप ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – लेखक का सन्ताप। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 223 ☆

☆ व्यंग्य – लेखक का सन्ताप

[1]

आदरणीय तुलाराम जी,

सादर प्रणाम।

मैं पिछले चालीस साल से कलम का मजदूर बना हुआ हूँ। अब तक सात उपन्यास और तेइस कहानी संग्रह निकल चुके हैं। मेरे लेखन के प्रसंशकों की अच्छी खासी संख्या है। लेकिन मैं इसे ऊपर वाले की कृपा मानता हूँ, वर्ना मेरे जैसे आदमी की औकात ही क्या है।

आप प्रतिष्ठित समीक्षक हैं। बहुत लोगों से  आपकी समीक्षा की तारीफ सुनी है। मेरे मित्र कहते हैं की आपकी समीक्षा लेखकों के लिए बहुत फायदेमन्द होती है।

मैं अपना सद्यप्रकाशित उपन्यास ‘ऊँट और पहाड़’ आपकी सेवा में समीक्षा के लिए भेज रहा हूँ। मेरे मित्रों की राय में यह बहुत उच्च कोटि का उपन्यास है। कुछ मित्र इसे दास्तायवस्की के ‘कारामाजोव ब्रदर्स’ की टक्कर का मानते हैं। अब आप निर्णय करें की वह किस स्तर का है। मैं आपकी समीक्षा तीन-चार अच्छी पत्रिकाओं में छपवा दूँगा। मेरे कई संपादकों से प्रेम-संबंध हैं, इसलिए दिक्कत नहीं होगी। समीक्षा जल्दी कर देंगे तो आपका आभारी हूँगा।

आपका

छेदीलाल ‘इंकलाबी’

[2]

प्रिय तुलाराम जी,

कल आपकी लिखी समीक्षा मिली। पढ़ कर बहुत निराशा हुई। आपने मेरे बहुचर्चित और लोकप्रिय उपन्यास को बचकानी और दिशाहीन बताया है जिससे मुझे गहरा आघात लगा है। अब मेरी समझ में आ गया कि लोग झूठमूठ ही आपकी तारीफ करते हैं, आप में तो निरक्षर आदमी के बराबर भी समझ नहीं है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप जैसा अनाड़ी आदमी समीक्षा का महत्वपूर्ण काम कैसे कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है  कि आप समीक्षा करने के बजाय भाड़ झोंकते हैं। मैं आपके खिलाफ अभियान चलाऊँगा।

आपने लिखा है कि मेरी भाषा कमजोर है। आपने लिखा है कि मैंने कई जगह ‘स्थिति’ को ‘स्तिथि’, ‘प्रवृत्ति’ को ‘प्रवर्ती’, ‘प्रशंसा’ को ‘प्रसंशा’  और ‘तरन्नुम’ को ‘तरुन्नम’ लिखा है जो मेरी भाषा की अनभिज्ञता को दिखाता है। आपने यह भी लिखा है कि मैं ‘कि’ के स्थान पर ‘की’ लिखता हूँ जो बड़ी गलती है। यह सब फालतू मीन-मेख निकालने की बात है। भाषा की छोटी-मोटी गलतियाँ निकलने से कोई किताब बेकार नहीं हो जाती।

जाहिर हुआ कि आप मेरे प्रति दुर्भाव रखते हैं और किसी ने आपको मेरे खिलाफ भड़काया है। वर्ना आप मेरे स्तर के लेखक की किताब को इस तरह खारिज न करते।

आपकी लिखी समीक्षा मैंने डस्टबिन में डाल दी है। अब किसी दूसरे समझदार समीक्षक से लिखवाऊँगा। अभी साहित्य में समझदार समीक्षकों की कमी नहीं है।

भवदीय,

छेदीलाल ‘इंकलाबी’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 177 ☆ दाता भाग्यविधाता से क्या पाते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “दाता भाग्यविधाता से क्या पाते…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 177 ☆

☆ दाता भाग्यविधाता से क्या पाते… ☆

जब कोई कार्य आपको दिया जाय तो समय नहीं है का बहाना बनाकर टाल देने की कला आपको कुछ कदम पीछे कर देती है। ऐसे पिछड़ते – पिछड़ते आप लुप्त हो जाते हैं। नियमितता का गुण आपको विजेता बनाता है पर ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं।

साल के 365 दिन बस एक लक्ष्य को साधते हुए दिनचर्या को व्यवस्थित करने की कला जिसमें हो वो भीड़ में सबसे अलग दिखता है। बिना परिश्रम कोई भी मूल्यवान वस्तु मिल तो सकती है पर हमेशा के लिए नहीं। भाग्य केवल लालसा जाग्रत करने का कार्य करता है जबकि मेहनत से मंजिल मिलती है।

जो व्यक्ति लक्ष्य का निर्धारण कर सत्य राहों पर निःस्वार्थ कार्य करता है वो सभी के लिए उपयोगी  होता है। सच्ची सोच वाले लोग दृढ़ निश्चय के साथ एक – एक करके कार्यों को पूरा करते जाते हैं। सबकी सहभागिता का ध्यान रखते हुए एक सूत्र में पिरोने का भाव उनको मंजिल तक पहुँचाता है। घोषणा तो बहुत लोग करते हैं पर गुणवान वही होता है जो अपने नेतृत्व के लिए जाना जाए।

अक्सर देखने में आता है कि तोड़फोड़ की प्रवृत्ति वाले लोगों में दोस्ती जल्दी होती है, संख्या बल का फायदा उठाते हुए वे समाज विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने लगते हैं।

अभी भी समय है जागिए और जगाइए राष्ट्रहित के विचारों का संवर्द्धन आपको सबकी नजरों में ऊपर उठाएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 176 ☆ सोता हुआ सागर जगा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “हिम के कणों से पूर्ण मानो…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 176 ☆

☆ सोता हुआ सागर जगा ☆

शुभ होता देख कर चिंतित होने वाले लोग आनन-फानन में अपना गुट बना लेते हैं और स्वयं को एक दूसरे का शुभ चिंतक बताते हैं। कथनी और करनी में भेद रखते हुए मोटिवेशनल स्पीच देना जबकि आत्म मंथन की जरूरत खुद को होती है पर मजबूरी जो न कराए वो थोड़ा है। मनभेद हो या मतभेद; भेद विचारों में जब-जब होगा कोई न कोई समस्या खड़ी करेगा। वैसे सच्चा लीडर समस्याओं में ही समाधान ढूँढ़ता है। कहा भी गया है कि वो जीवन ही क्या जिसमें समस्या न हो, इसे झेलकर ही व्यक्ति नयी खोजें करता आ रहा है।

आजकल प्रेरक व्यक्तित्व की बाढ़ सी आ गयी है, जिसे देखो अपना मोटिवेशनल चैनल बनाकर मिलियन सब्सक्राइबर की होड़ में लगा हुआ है। भले ही भोले भाले लोगों को बुद्धू क्यों न बनाना पड़े।

ऐसे बे सिर पैर के विचारकों पर पाबंदी लगनी चाहिए। अक्सर युवाओं को चमक-दमक व शार्टकट रास्ता प्रेरित कर जाता है जिसका नुकसान पूरा परिवार /समाज उठाता है। ऐसा व्यक्तव्य जिसका असर जनमानस पर पड़ता उसे प्रमाणिकता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। भले ही डिजिटल मंच क्यों न हो इसकी जबावदेही प्रस्तुत करने वाले को लेनी ही होगी।

एक और चलन जोरों से चल पड़ा है कि धर्म ग्रन्थों की व्याख्या लोग अपनी सुविधानुसार करने लगे हैं, संस्कृत के श्लोकों को व्यवसायिक तरीके से जिस भी तथ्य के साथ चाहें जोड़ते चलो कोई रोक टोक नहीं है बस मोटिवेशनल लगना चाहिए। किस संदर्भ में क्या उपयोगी होगा इसकी चिंता किसी को नहीं है, जोर-शोर से भीड़-भाड़ को आकर्षित करने की कला आनी चाहिए।

 खैर अति का अंत होता है, सो लोग जागरूक होकर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर होने वाले स्कैम के खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 248 ☆ व्यंग्य – शरद जोशी और लघु व्यंग्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – शरद जोशी और लघु व्यंग्य)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 248 ☆

? व्यंग्य – शरद जोशी और लघु व्यंग्य ?

लघु व्यंग्य से आशय यही होता है कि उसका विस्तार अधिक न हो, किंतु न्यूनतम शब्दों में व्यापक कथ्य संप्रेषित किया गया हो। क्षणिकाओ में यही लघु व्यंग्य कविता के स्वरूप में तो लघुकथाओ के ट्विस्ट में गद्यात्मक रूप में पत्र पत्रिकाओ में बाक्स मैटर के रूप में खूब पढ़ने मिलता है। व्यंग्य लेखों में अनेक पैराग्राफ स्वयं में स्वतंत्र लघु व्यंग्य होते हैं। कुछ व्यंग्यकार स्तंभ की मांग के अनुसार घटना विशेष पर टिप्पणियों में लघु व्यंग्य रचना में स्वयं को समेट लेते हैं। इसे व्यंग्य आलोचना में वन लाइनर, पंच, हाफ लाइनर आदि के टाइटिल दिये जाते हैं। छोटे व्यंग्य लेख जिनमें प्रस्तावना, विस्तार तथा कथ्य के शिक्षाप्रद कटाक्ष के साथ लेख का अंत होता है, भी लघु व्यंग्य की श्रेणि में रखे जा सकते है।

शरद जोशी के समकाल में लघु व्यंग्य जैसी कोई श्रेणि अलग से नहीं की गई थी, यद्यपि सरोजनी प्रीतम उन दिनों कादम्बनी में अपनी क्षणिकाओ में लघु व्यंग्य के प्रहार नियमित रूप से करती दिख रही थीं।

आज शरद जोशी के साहितय का पुनरावलोकन लघु व्यंग्य के माप दण्ड पर करें तो हम पाते हैं कि उनके स्तंभ प्रतिदिन में तात्कालीन सामयिक घटनाओ पर अनेक लघु व्यंग्य उन्होने किये थे। उनकी  पुस्तक यथा संभव में १०० व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं, जिनमें से अनेक अंश स्वतंत्र लघु व्यंग्य कहे जा सकते हैं।

शरद जी के चर्चित व्यंग्य लेखों में से एक रेल दुर्घटनाओ पर है जिसमें वे लिखते हैं “भारतीय रेल हमें मृत्यु का दर्शन समझाती है और अक्सर पटरी से उतरकर उसकी महत्ता का भी अनुभव करा देती है. कोई नहीं कह सकता कि रेल में चढ़ने के बाद वह कहां उतरेगा स्टेशन पर, अस्पताल में या श्मशान में ” अपने आप में यह लघुता में किया गया बड़ा कटाक्ष है।

इसी तरह उनके समय से आज तक भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, उन्होने लिखा “हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे”,  अतिथि तुम कब जाओगे, जीप पर सवार इल्लियां आदि शीर्षक स्वयं में ही लघु व्यंग्य हैं। आपातकाल के दौरान पंचतंत्र की कथाओ के अवलंबन उनकी लिखी लघुकथायें गहरे कटाक्ष करती हैं “शेर की गुफा में न्याय” ऐसी ही एक लघुव्यंग्य कथा है।

नेताओं पर व्यंग्य करते हुए शरद लिखते हैं, ‘उनका नमस्कार एक कांटा है, जो वे बार-बार वोटरों के तालाब में डालते हैं और मछलियां फंसाते हैं. भ्रष्टाचार की व्यापकता पर वे लिखते हैं ‘सारे संसार की स्याही और सारी जमीन का कागज भी भ्रष्टाचार का भारतीय महाकाव्य लिखने को अपर्याप्त है। वे लेखन में प्रसिद्धि का शाश्वत सूत्र बता गये हैं “जो लिखेगा सो दिखेगा, जो दिखेगा सो बिकेगा-यही जीवन का मूल मंत्र है “। हम पाते हैं कि वर्तमान लेखन में यह दिखने की होड़ व्यापक होती जा रही है। किताबों की उम्र बहुत कम रह गई है, क्योकि किताबें छप तो बहुत रही हैं पर उनमें जो कंटेंट है वह स्तरीय नहीं रह गया है।  लघु कटाक्ष में बड़े प्रहार बात कर सकने की क्षमता  ही लघु व्यंग्य है, जो शरद जी की लेखनी में यत्र तत्र सर्वत्र दिखता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 175 ☆ हिम के कणों से पूर्ण मानो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हिम के कणों से पूर्ण मानो…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 175 ☆

हिम के कणों से पूर्ण मानो… ☆

सामान्य रूप से हम अपने जीवन का कोई न कोई उद्देश्य निर्धारित करते हैं। इसे लक्ष्य से जोड़कर सफलता प्राप्ति हेतु सतत प्रयत्नशील रहते हैं। ऐसे में किसी गुरु का वरदहस्त सिर पर हो तो मंजिल सुलभ हो जाती है। फिर लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में भटकन नहीं होती। एक सफल मार्गदर्शक लक्ष्य प्राप्ति हेतु समय-समय पर ढाल बनकर मदद करता है और शीघ्र ही व्यक्ति विजेता के रूप में उभरता है।

त्रेता युग में भगवान श्री कृष्ण पांडवो के मार्गदर्शक थे जिसके कारण उन्हें विजय मिली जबकि कौरवों के पास बड़े- बड़े योद्धा होने के बाद भी हार का सामना करना पड़ा क्योंकि वहाँ उनका मार्गदर्शन शकुनि की बदनियती कर रही थी।

एक और प्रसंग – अर्जुन को गुरु द्रोण का मार्गदर्शन व आशीर्वाद मिला तो वो एक विजेता के रूप में मान्य हुआ जबकि एकलव्य और कर्ण ज्यादा योग्य धनुर्धर होने के बाद भी बिना गुरुकृपा के वो स्थान नहीं पा सके।

हर व्यक्ति यही चाहता कि सबंधो को निभाने की जिम्मेदारी दूसरे की ही हो , कोई भी स्वयं पहल नहीं करता। इसका सबसे बड़ा कारण है कि जो हमारे लिए उपयोगी होता है उसके शब्द हमें मिश्री की भाँति लगते हैं जबकि जिससे कोई काम की उम्मीद न हो उसे मख्खी की तरह निकाल फेकने में एक पल भी नहीं लगाता।

खैर ये तो सदियों से चला आ रहा है इसके लिए बजाय किसी को दोष देने कहीं अधिक बेहतर है कि आप उपयोगी बनें तभी आपकी सार्थकता है आखिर घर में भी पड़ा हुआ अनुपयोगी समान स्टोर रूम की भेंट चढ़ जाता है और कुछ दिनों बाद कबाड़ के रूप में बेच दिया जाता है।

ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जहाँ लक्ष्य प्राप्ति में मार्गदर्शक ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 247 ☆ व्यंग्य – मीटिंग के लाभ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – मीटिंग के लाभ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 247 ☆

? व्यंग्य – मीटिंग के लाभ ?

मीटिंग से, कुछ भी गोपनीय नहीं रहता। कौन बली का बकरा बना। किसको फटकार पड़ी। किसकी प्रोग्रेस अच्छी है। किससे बड़े साहब खुश हैं, वगैरह वगैरह, सारी बाते, स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान के रूप में सरेआम होती हैं।

इन दिनों हर छोटे बड़े शहर में एक अदद सिटी चैनल भी टी.वी. मीडिया का अंग बन गया है। इन युवा पत्रकारों को भी टी.वी. कैमरा थामें किसी भी मीटिंग में गाहे बगाहें कवरेज करते देखा जा सकता है। इस प्रक्रिया से मीटिंग में हिस्सेदारी करते लोग, श्रेष्ठता का अनुभव करते हैं। वे अपने बीबी बच्चों को बता और जता सकते हैं, कि आखिर कितनी मशक्कत से वे नौकरी कर रहे हैं। प्रायः मीटिंग अटेंड करते रहने के और भी अनेकों लाभ हैं। आपकी जान पहचान अपने बाजू में बैठे अधिकारी से हो जाती है । आप उसके साथ मिलकर सुर में सुर मिला कर बड़े साहब की बुराई कर सकते हैं और इस तरह आपके संपर्क तथा लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता रहता है। जब कभी आपको व्यक्तिगत व्यस्तता से कार्यालय से गायब रहना हो, आप आफिस में, या घर पर मीटिंग में जाने का सीधा बहाना बना सकते हैं । कोई आप पर जरा भी शक नहीं करता। जब मिनिट्स आफ मीटिंग सरक्यूलेट हों, और उसमें आपकी सहभागिता प्रदर्षित करता कोई कमेंट आपके नाम के साथ आ जावे तो उसे रेखांकित कर अपने मातहतों को बताना न भूलें, इससे आपके सबर्डिनेट्स का हौसला बढ़ता है, और वे नई ऊर्जा के साथ अगली मीटिंग के लिये लम्बी चौड़ी तालिका में, आंकड़ों की फसल बोने लगते हैं।

इन दिनों लैपटाप का जमाना है। जो युवा अधिकारी मीटिंग में अपने साथ पी पी टी प्रेजेन्टेशन ले जावें, वे बड़ी आसानी से सबके लिए आकर्षण और उत्सुकता का केन्द्र बनते हैं। रंग बिरंगे बार चाटर्स के जरिये, डिजीटल फोटो और नक्शो के माध्यम से आप प्रगति के आंकड़े सजा सकते हैं, और बास की शाबासी पा सकते हैं । काम हो या न हो, साफ-सफाई और प्रस्तुति के अंक पूरे के पूरे, पाने का नायाब नुस्खा मीटिंग ही है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

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मोब 7000375798

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 246 ☆ व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 246 ☆

? व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश ?

वोट डालने के लिये हमें प्रेरित करने कहा गया था कि लोकतंत्र में उंगली उठाने का हक तभी है जब उंगली पर वोटिंग वाली काली स्याही लगी हो। हमने भी नाखून के साथ आगे बढ़ती अपनी काली स्याही का निरीक्षण किया। इससे पहले कि वह निशान गुम हो जाये हमने उंगली उठाने का निर्णय लिया। उंगली उठाने से प्रसिद्धि मिलती है। अतः एक उंगली उठाने पर तीन स्वयं अपनी ओर उठती उंगलियों की परवाह किये बगैर हम उंगली उठाने के लिये मुद्दा तलाशने लगे। पहले सोचा मंहगाई को, बेरोजगारी को, लड़कियों की सुरक्षा को, सिनीयर सिटिजन्स की उपेक्षा को मुद्दा बनाये या फिर उंगली उठायें कि जो अंत्योदय की बातें करते हैं उनकी अलमारियों में करोड़ों भरे मिलते हैं। पर अगले ही पल विचार आया कि ये सब तो घिसे पिटे मुद्दे हैं, जब जो विपक्ष में होता है, इन्हीं मुद्दों पर तो सरकार को घेरता है। हमें किसी नये मौलिक मुद्दे की तलाश थी। अंततोगत्वा हमारे सद्यः चुने हुये जन प्रतिनिधियों ने ही हमारी मदद की। हमने यह कहते हुये उंगली उठा दी कि जो लोकतंत्र के नाम पर वोट मांगते हैं वे खुद अपना नेता हाईकमान की हिटलर शाही से चुनते हैं।

मुद्दा मिल जाने के बाद अब हमारी अगली समस्या थी कि आखिर उंगली कैसे उठाये ? उंगली उठायें भी और किसी को खंरोंच भी न आये तो ऐसी उंगली उठाने का कोई औचित्य नहीं था। सामान्य आदमी की ऐसी बेबसी पर हमें बड़ी कोफ्त हुई। सोचा इसी बेबसी को मुद्दा बनायेंगे कभी। पत्नी ने हमें बैचेन देखा तो कारण जान सलाह दी कि एक ट्वीट कर के अपना मुद्दा उछाल दो। हमें यह सलाह जंच गई। हमने फटाफट ट्वीट तो किया ही साथ ही पत्र संपादक के नाम लिखकर उंगली उठा दी।

हमारी उंगली पूरी तरह से उठ भी न पायी थी कि हमारा मेल मिलते ही मित्र संपादक जी का फोन ही आ गया। वे बोले अरे भाई हाईकमान तो हाईकमान होता है पक्ष वालों का हो या विपक्ष का, वह इत्मिनान से अपने निर्णय लेता है। हाईकमान को अपनी सरकार बनवाने की आतुरता तो बहुत होती है, पर जब जीत कर भी सरकार बनाने का दावा नहीं कर पा रहे हों तो उंगली उठाने के बजाय उनकी मजबूरी समझो। कैंडीडेट में सारी योग्यता तो हैं पर वह उस जाति का नही है जो होनी चाहिये। हाईकमान उहापोह में होता है कि जिसे उसने चुनने का मन बनाया है वह स्त्री भी होता तो और बेहतर होता। आखिर  जाति, जेंडर, क्षेत्र सब कुछ साधना होता है क्योंकि लोकतंत्र में जनाकांक्षा पूरी करना ही हाईकमान का परम लक्ष्य होता है। हमें ज्ञान प्राप्त हुआ और हम उंगली उठाने की जगह उंगली चटकाते चैनल बदलने के लिये टी वी का रिमोट दबाने लगे।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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