हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ लिखी कागद कारे किए… ☆ श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड ☆

श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’

? व्यंग्य – लिखी कागद कारे किए… ? श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’ ? 

वो बहुत बड़े कवि थे, उनका क़द 6 फुट 3 इंच था। उनका क़द देखकर ही किसी ने सलाह दी थी कि गुरु तुम कविता लिखो एक दिन बड़े कवि हो जाओगे। यहाँ सलाह देने वाले की मंशा पर शक़ करना व्यर्थ है, क्योंकि गलती उसकी भी नहीं थी। दरअसल उसने डॉ. हरभजन लाल ‘अच्छन’ की प्रसिद्ध रचना ‘मृगछाला’ पढ़ रखी थी और समझता था कि ऊँचा क़द ही प्रसिद्धि का एक मात्र मानक है। और रहा सवाल सलाह का…तो सलाह का तो ऐसा है कि भारत में किसी को भी, कितनी ही मात्रा में दी जा सकती है। भारत में सलाह देना, सांस लेने जैसा सामान्य है, क्योंकि हम मानते हैं कि सांस ना लेने से भारतीय व्यक्ति की, और सलाह ना देने से भारतीय समाज की मृत्यु निश्चित है। इसलिए भारत में ये काम विशेष प्रायोरिटी पर व्यापक रूप से किया जाता है। वो तो भला हो भारत सरकार का कि ओजोन लेयर के छेद की तरह बढ़ती व्यापकता के बावजूद, उसने सांस लेने और सलाह देने को GST के दायरे से बाहर रखा है। जबकि IMF ने कहा है कि इस आर्थिक सुधार को किए बिना भारत की अर्थव्यवस्था पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकती। पर चूंकि IMF ने ये बात आदेश के रूप में कही थी, सलाह के रूप में नहीं, इसलिए हमने उसे मानने से इंकार कर दिया। क्योंकि हम सलाह सुनने के आदी हैं, आदेश नहीं…After all we are a strong nation. बहरहाल उन्हें आदेश नहीं, सलाह दी गई थी। और समस्या ये थी कि उन्होंने इस सलाह को गंभीरता से लिया, फलस्वरूप वो बड़े कवि हो गए। इतने बड़े..कि प्रागैतिहासिक काल के कवि सम्मेलनों के अंत में खींचे गए समूह चित्र में, आखिरी पंक्ति में खड़े होने पर भी उनके मुखमंडल का प्रकाश साफ़ देदीप्यमान होता था। समस्या बस एक थी कि कहा जाता है कि कवि के ऊँचे होने पर उसकी कविताएं अक़्सर नीची रह जाती हैं।

इस बात को अगर वैज्ञानिक दृष्टि से समझें, तो विज्ञान कहता है कि अधिक ऊँचाई पर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है, जिससे साँस लेने में परेशानी होती है, और कभी-कभी व्यक्ति मर भी सकता है। कविता के सम्बन्ध में भी विज्ञान का यही सिद्धांत लागू होता है। दरअसल साहित्य जगत में उनका क़द इतना ऊंचा हो गया था कि उनकी रचनाएं कभी उनके क़द की ऊंचाई को प्राप्त ही नहीं कर सकीं। उनकी रचनाएं बहुत प्रयास करने पर भी उनके उदर की ऊंचाई तक आते-आते ही दम तोड़ देती थीं। दिल और दिमाग के साथ उनका कनेक्शन हो ही नहीं पाता था। आख़िर बहुत वर्षों बाद वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब वो अपनी कविताओं की ऊँचाई अपने कमर की ऊँचाई तक ही सीमित रखेंगे। कवि सम्मेलन के आयोजकों ने इस विचार का खुलकर स्वागत किया, उनका कहना था कि एक समय में, एक म्यान में..एक ही तलवार रह सकती है। या तो कवि ऊँचा हो सकता है, या उसकी कविता…दोनों का समान रूप से ऊँचा होना असंभव है।

एक वरिष्ठ कवि आयोजक ने इस बात पर विशेष बल दिया कि कवि के ऊँचा उठने के लिए कविता का नीचा होना ही इस युग की मांग है। ऊँची-ऊँची कविताओं का बोझ उठाए फिरने वाला कवि बौना ही रह जाता है। इसलिए साहित्य हित में हमें ये तय करना ही होगा कि अधिक महत्व किस चीज का है, कविता के ऊँचे होने का, या उसके जीवित रहने का..ऐसी ऊँचाई किस मतलब की जिसके लिए प्राण देने पड़ें। आख़िर गहराई भी कोई चीज है। इसलिए वर्तमान साहित्यकार ऊँचाई से अधिक गहराई को महत्व देते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय में ‘नंगा ही तो आया था, क्या घंटा लेकर जाएगा’ जैसे कालजयी, दार्शनिक गीतों को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस तरह के सरकारी प्रोत्साहन से भारतीय दर्शन और उसकी विराट दार्शनिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। और भारतीय दर्शन कहता है कि उठने की पहली शर्त है कि व्यक्ति के पास सामान कम से कम वज़न का हो। कवि के ऊँचा उठने के लिए उसकी रचनाओं का वज़न घटना अनिवार्य है। उन्होंने इस सुझाव का शब्दश: पालन किया और वे दिन-दूने और रात चौगुने ऊँचे उठते गए और उनकी रचनाएं वज़न घटते-घटते कुपोषण की हद तक पहुंच गईं। एक दिन वो अपनी ऐसी ही एक कुपोषित रचना को पढ़ रहे थे कि उन्हें इल्हाम हुआ कि उनकी रचना का वज़न इतना घट चुका है कि अब वो कुछ कह पाने में भी असमर्थ हो चुकी है। एक अनावश्यक चिंता ने उन्हें घेर लिया, और इसी चिंता के साथ वो अपने शहर के एक वरिष्ठ कवि से मिलने पहुँचे जिनका क़द उनसे भी ऊंचा था। उन्होंने अपनी रचनाओं के घटते वज़न की चिंता से वरिष्ठ कवि को अवगत कराया। सुनकर वो मुस्काए और एक बार को यूँ लगा कि लियोनार्दो-द-विंची ने मोनालिसा की वो रहस्यमय मुस्कान इन्हीं से प्रेरित होकर बनाई होगी। मुस्कान के लुप्त हो जाने पर वरिष्ठ कवि बोले, हर ऊँचे कवि के जीवन में एक दिन ऐसा आता ही है जब उसे ये चिंता आ घेरती है। मैं भी इस सबसे गुज़र चुका हूँ….’तुम भी गुज़र जाओगे’…तब ऊँचे कवि ने बहुत ऊँचे कवि से कहा आदरणीय ! मैं एक विकट समस्या से घिर गया हूँ। पहले तो मैं अपनी लिखी रचनाओं को थोड़ा-बहुत समझ भी लिया करता था, पर आज पहली बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी ही रचना को नहीं समझ सका। वो पुनः मुस्काए और बोले, ऊँचे कवि से बहुत ऊँचे कवि बनने की दिशा में ये तुम्हारा पहला कदम है। यूँही आगे बढ़ते रहो, एक दिन बहुत ऊँचे कवि बनोगे। ये जान लो कि कविता का समझ आ जाना ही उसके मामूली होने की पहली निशानी है। यदि तुम्हारी रचना को सुनकर नीचे बैठे श्रोता को ये लगने लगे कि ये तो मैं भी लिख सकता था तो तुम्हारा कवि होना बेकार है। कविता को अबूझ होना चाहिए। सहज और समझ आ जानी वाली कविता और प्रसाद में बँटने वाली पंजीरी में कोई फ़र्क नहीं होता.. बिना खाए भी उसका स्वाद बताया जा सकता है। कवि को सिर्फ़ कविता लिखने तक ही सीमित रहना चाहिए…उसे समझाने का काम हमारा नहीं है। जिसकी अटकी हो वो ख़ुद ये काम कर सकता है। तुम व्यस्त कवि हो तुम्हारे पास समय ही कहाँ है इन सब चिकल्सों में पड़ने का और फिर ये कहाँ लिखा है हर लिखी गई चीज़ का कोई मतलब भी होना चाहिए। इस आत्मज्ञान को पाकर वे धन्य हुए और उन्होंने बहुत ऊँचे कवि की चरण रज माथे से लगाई और घर लौट आए ।

आज वो स्वयं को अर्जुन की भांति समझ रहे थे, जिसे बीच युद्ध में गीता का ज्ञान मिला हो। आँखें मूंदकर उन्होंने बी.आर. चोपड़ा की महाभारत का दृश्य याद किया। कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धँसा है और वो अपना धनुष भूमि पर रखकर अपने रथ का पहिया निकाल रहा है। अर्जुन के लिए ये समय टी-ब्रेक का था पर अचानक कृष्ण बोल उठे..देख क्या रहे हो तीर चलाओ…पर वो तो निहत्था है, अर्जुन बोला। कृष्ण एक रहपटा खींच कर बोले ज़्यादा लंठई ना पेलो, जो कह रहे हैं सो करो..युद्ध में लॉजिक नहीं देखा जाता। दृश्य को याद करके वो अरुण गोविल जी की तरह मंद-मंद मुस्काए और उन्होंने अपने मन के ब्लैक बोर्ड पर डस्टर से ‘युद्ध’ को मिटा कर उसकी जगह ‘कविता’ लिख दिया।

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© श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’

shirishgontiya.blogspot.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 152 ☆ संघे शक्ति कलौयुगे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संघे शक्ति कलौयुगे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 152 ☆

☆ संघे शक्ति कलौयुगे…

देश में जब कोई न सुने तो विदेश चले जाना चाहिए। ऐसी मानसिकता कभी सफल नहीं होती क्योंकि  जिसके पास अपनों का साथ नहीं होता उसका पराए भी साथ नहीं देते हैं। हमारे यहाँ ऐसा कहा जाता है कि जब भी घर से निकलो खाकर निकलो नहीं तो उस दिन बाहर भी खाना नहीं मिलता।

ऐसा अब देखने में आ रहा है कि कहीं कोई पूछ परख नहीं बची है। बिना सिर पैर तथ्यों के साथ अपनी बात रखने का नतीजा ऐसा ही होता है। साथ मिलकर चलने की कला केवल चोर- चोर मैसेरे भाइयों में क्यों मिलती है? सद्विचारों से पोषित व्यक्ति क्यों एकजुट होने में इतना वक्त लगाते हैं। दरसल सारी लड़ाई की जड़ मुखिया बनना है; टीम का नेतृत्व करना होता है। बिना परिश्रम सब कुछ मिल जाए यही सोच कार्यों को बाधित करती हैं। सभी का नाम तो हो पर कार्य की जिम्मेदारी लेने से बचना,  निश्चित ही आपको आम से खास नहीं बनने देगा।

सफल व्यक्ति और उसके श्रम को लेने हेतु  कई लोग आगे आते हैं। उसे अपने साथ जोड़कर संगठन को मजबूत करने की सोच आसानी से पूरी नहीं हो सकती। हर व्यक्ति की अपनी निष्ठा होती है, जो किसी व्यक्ति,समाज,धर्म, जाति, संस्था, देश आदि के प्रति होती है। अब आप उसे अपने साथ मिलाने की कोशिश करेंगे तो वो परिणाम नहीं आएगा। क्या तेल और पानी कभी एक हो पाएंगे।

माना संगठन में शक्ति होती है , एक सोच वाले लोगों को समस्त मतभेदों को भुलाकर एक हो जाना चाहिए। घास की बनी हुई रस्सी से बलशाली जानवरों को भी बाँधा जा सकता है। यहाँ विचारों की रस्सी भले जुड़ जाए किन्तु शीर्ष पर कौन विराजित होगा ये तय नहीं हो सकता। अंधों में काना राजा जनमानस  को पसंद नहीं क्योंकि जब हमारे पास सूर्य की शक्ति है तो क्यों विपरीत हवा में जलती – बुझती लौ के स्थिर होने की उम्मीद में टकटकी लगा कर ताकते रहें।

अच्छे लोगों को एकता के साथ रहना होगा, जिसके विचारों में दम हो उसे मुखिया बनाकर सारी संस्थाओं को जोड़ते हुए अग्रसर हों।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 151 ☆ अकिंचन की शक्ति… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना अकिंचन की शक्ति। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 151 ☆

☆  अकिंचन की शक्ति…

लक्ष्य साधते हुए सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ते जाने के लिए दृढ़ निश्चयी होना बहुत आवश्यक होता है। अधिकांश लोग आया राम गया राम की तरह केवल समय पास करना जानते हैं। उन्हें कुछ करना- धरना नहीं रहता वो तो हो हल्ला करते हुए हल्ला बोल में शामिल होकर अपनी पहचान को बनाए रखने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। वैचारिक दृष्टिकोण के बिना जब कोई भी तथ्य प्रस्तुत करो तो वो प्रभावी नहीं होता है। आजकल एंकर भी मजे लेते हुए बात को जिस बिंदु से शुरू करते हैं उसी पर बिना निष्कर्ष निकाले समाप्त करना चाहते हैं, जिससे उनका नियमित कार्यक्रम सुचारू रूप से चलता रहे। एक मुद्दे पर एक दिन तो क्या एक वर्ष तक खींचा जा सकता है। घोषणा पत्र महज घोषणा बन कर रह जाए तभी तो सफलता है। नीतियों के साथ चलना कोई नयी बात नहीं होती किन्तु बिना सिर- पैर की बातों से भी अपने आपको चर्चा का बिंदु बनाए रखना कोई आसान कार्य नहीं है। माना एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। पर खोटे सिक्के का क्या किया जाए। इनसे जेब में खनखनाहट होगी या नहीं ये तो भुक्तभोगी ही बता सकता है।

ऐसे लोग जिनको साफ तौर पर कह दिया जाता है, जाओ यहाँ से…। अपना मुह बंद रखो, तुम्हें कोई सुनना नहीं चाहता। वही आगे चलकर खींचतान करते हुए नए- नए विचार रखते हैं जिन्हें अमलीजामा पहनाने वाला विजेता का ताज धारण कर लेता है।

भले ही बाल की खाल क्यों न निकालनी पड़े, बिना मतलब की बातों पर चर्चा होते रहनी चाहिए।लोगों को केवल मनोरंजन से मतलब रहता है। जब देश में पूछ परख कम हो तो विदेशों की यात्रा करें, वहाँ सब कुछ चलेगा, भाषा की भी कोई बाध्यता नहीं रहती, इसी बहाने आपको देश में मीडिया कव्हरेज मिलने लगती है। अब तो अधिकांश लोग धरना प्रदर्शन की जगह  सात समंदर पार जाकर ढूंढ रहे हैं।

खैर ये सब तो चलता रहेगा, अपना अस्तित्व किसी भी तरीके से बना रहे, इसका ध्यान अवश्य रखिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 215 ☆ व्यंग्य – भोजन वैविध्य… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भोजन वैविध्य

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 215 ☆  

? व्यंग्य – भोजन वैविध्य?

इस देश में लोग चारा खा चुके हैं. दो प्रतिशत कमीशन ने पुल, नहरे और बांध के टुकड़े खाने वाले इंजीनियर बनाए हैं । सर्कस में ट्यूब लाइट और कांच, आलपीन खाते मिल ही जाते हैं । रेलवे स्टेशन पर बच्चे नशे के लिए पंचर जोड़ने का सॉल्यूशन चाव से खाते हैं ।

मंत्री, अफसर बाबू रुपए खाते हैं ।

किसी सह भोज में लोगो की प्लेट देख लें, लगता ही नहीं की ये अपने खुद के पेट में खा रहे हैं, और पेट की कोई सीमा भी होती है ।

घर जाकर एसिडिटी से भले निपटना पड़े पर सहभोज का आनंद तो ओवर डोज से ही मिलता है। बाद में हाजमोला प्रायः लोगो को लेना होता होगा ऐसा मेरा अनुमान है। मेरे जैसे दाल रोटी खाने वाले भी रसगुल्ला तो 2 पीस ले ही लेते हैं।

पीने के भी उदाहरण तरह तरह के मिलते हैं । लोग पार्टियों में जबरदस्ती पिलाने को शिष्टाचार मानते हैं । पिएं और होश में रहें तो मजा नहीं आता । हर बरस जहरीले मद्य पान से सैकड़ों जानें जाती हैं । पुरानी शराब का सुरूर गज़ल लिखवा सकता है।

आशय यह की खाने पीने की विविधता अजीबो गरीब है ।

कोई मांसाहारी हैं तो कोई शाकाहारी, कोई केवल अंडे खाने वाला सामिष भोजन लेता है तो कोई मंगलवार, शनिवार छोड़कर बाकी दिन नानवेज खा सकता है। नानवेज न खाने वाले भी डंके की चोट पर नानवेज चुटकुले सुनते सुनाते हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 190 ☆ “सोशल पर अवतरण दिवस…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य  – सोशल पर अवतरण दिवस)

☆ व्यंग्य — “सोशल पर अवतरण दिवस…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अच्छे दिन आने वाले हैं ऐसा सोचकर कितना अच्छा लगता है। दुःख, परेशानियां, मुसीबतों के बीच जब खूब सारे लोग बधाईयां और शुभकामनाएं देने लगते हैं तो अच्छा तो लगता है,वो दिन अच्छा लगता है ये दिन झूठ मूठ का भले हो।साल भर में दो चार बार अच्छे दिन लाने को लिए आजकल सोशल मीडिया बड़ा साथ दे रहा है। आजकल अच्छे दिन का अहसास कराने के लिए अपन झूठ-मूठ के लिए फोटो लगाकर अपना अवतरण दिवस या जन्मदिन की घोषणा कर देते हैं ये बात अलग है कि लोग इस झटके को हैप्पी बनाने के लिए हैप्पी बर्डे का नाम दे देते हैं, जैसे आज मेरा सरकारी जन्मदिन है और अगर इस दुनिया में किसी नकली चीज़ पर भी सरकारी मुहर लग जाए तो वही असली हो जाती है।

मेरा जन्मदिन मेरे बच्चों के अलावा किसी को याद नहीं रहता। घरवाली अक्सर इग्नोर करती है,पर बच्चे मुझे याद दिला देते हैं, फिर भी मै भी भूलने की कोशिश करता हूं। मोबाइल में खामखां केक और लड्डुओं का इतना ढेर लग जाता है कि अगर सब सजा दूं तो लोग घर को मिष्ठान भंडार समझ लें। मुश्किल ये कि आप इन्हें न खा सकते हैं और न पड़ोसी के यहां भिजवा सकते हैं। सबके सब मोबाइल से बाहर निकलते ही नहीं है। जब बहुत दिन हो जाते हैं तो फिर मन में कुलबुलाहट होने लगती है और अचानक दादी असली वाले जन्मदिन की याद दिला देती है मैं सोचता हूं अभी चार महीने पहले तो झूठ मूठ की इतनी बधाई और शुभकामनाएं बटोरीं थीं फिर पोल न खुल जाए पर मौसी उधर देहरादून से फेसबुक में हैप्पी बर्डे की पोस्ट डाल देती है फिर दिन भर बधाई और शुभकामनाओं का तांता लग जाता है हालांकि कि कुछ लोग फोन पर कटाक्ष करने लगते हैं कि यार बताओ कि तुम साल में कितने बार पैदा हुए हो…. अब आप ही बताओ कि बहुत लोगों को यदि अलग माह में मेरा हैप्पी बर्डे मनाने को इच्छा है तो किसी को मैं रोक सकता हूं कई बार तो ऐसा भी होता है कि मगरमच्छ जैसे निष्क्रिय रहने वाले समूह सदस्य भी जन्मदिन का मैसेज पढ़कर तुरंत  तैयार शुदा बधाई प्रेषित करने में देरी नहीं करते , तुरंत फारवर्ड वाला रेडीमेड मैसेज भेज देते हैं, फिर मुझे एक एक सदस्य को अलग अलग धन्यवाद प्रेषित करना ही पड़ता है,डर लगता है कि यदि धन्यवाद नहीं दिया तो सामने वाला नाराज होकर अगली बार  बधाई और शुभकामनाएं न भेजे। समूह के कुछ सदस्य तो समूह के अलावा अलग से भी बधाई का मैसेज भेज देते हैं, अब आप ही बताओ कि मैं अपनी इज्जत कैसे बचाऊं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #194 ☆ व्यंग्य – साहित्यिक ‘ब्यौहार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहित्यिक ‘ब्यौहार’’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 194 ☆

☆ व्यंग्य ☆  साहित्यिक ‘ब्यौहार’

शीतल बाबू परेशान हैं। चार दिन से उनके पुराने मित्र बनवारी बाबू उनका फोन नहीं उठा रहे हैं। वे बार-बार लगाते हैं, लेकिन उधर से कोई तत्काल काट देता है। पहले रोज़ दोनों मित्रों की बातचीत होती थी। अब बात के लाले पड़ रहे हैं। बनवारी बाबू इतने पास भी नहीं रहते कि दौड़ कर पहुँच जाया जाए। चार-पाँच किलोमीटर दूर रहते हैं।

लाचार शीतल बाबू ने पत्नी के मोबाइल से फोन लगाया। उधर से बनवारी बाबू की आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘हैलो, कौन?’

शीतल बाबू बोले, ‘मैं शीतल। कहाँ हो भैया? फोन लगा लगा कर परेशान हैं।’

उधर से रूखा जवाब आया, ‘यहीं हैं। कहाँ जाएँगे?’

शीतल बाबू बोले, ‘क्या बात है? फोन क्यों बार-बार कट रहा है?’

जवाब मिला, ‘आप हमसे ब्यौहार ही नहीं रखना चाहते हैं तो बात करके क्या करेंगे?’

शीतल बाबू घबराकर बोले, ‘कैसा ब्यौहार? कौन से ब्यौहार की बात कर रहे हो?’

बनवारी बाबू बोले, ‘ऐसा ब्यौहार कि पिछले एक साल में हमने फेसबुक पर 1730 पोस्ट मय फोटो के डाली, लेकिन आपने सिर्फ 1460 में ही लाइक या कमेंट दिया। आपने साल भर में 246 पोस्ट डाली, उसमें से हमने 223 में लाइक या कमेंट दिया। हम तो आपका नाम देखते ही लाइक का बटन दबा देते हैं, पढ़ें चाहे न पढ़ें। अब आप ऐसा ब्यौहार रखेंगे तो कैसे चलेगा? शादी-ब्याह के ब्यौहार की तरह फेसबुक में भी ब्यौहार रखना पड़ता है, तभी संबंध चल सकते हैं।’

शीतल बाबू रिरिया कर बोले, ‘गलती हो गई भैया। कई बार पोस्ट दिखायी नहीं पड़ती।’

जवाब मिला, ‘देखोगे तो सब दिखायी पड़ेगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ। खोजोगे तो सब मिल जाएगा।’

शीतल बाबू पश्चाताप के स्वर में बोले, ‘आगे खयाल रखूँगा, भैया। अब चूक नहीं होगी।’

बनवारी बाबू का स्वर मुलायम हो गया। बोले, ‘भैया, लगता है आप लाइक और कमेंट का महत्व और असर नहीं समझते। फेसबुक में लिखने वालों के लिए लाइक और अनुकूल कमेंट के डोज़ संजीवनी से कम नहीं होते। आलोचना और उपेक्षा के मारे हुए लेखक को ये अवसाद और हार्ट अटैक से बचाते हैं। ये वैसे ही काम करते हैं जैसे हार्ट अटैक से बचने के लिए सॉर्बिट्रेट और एस्पिरिन काम करते हैं। सुना है कि मेडिकल काउंसिल लाइक और कमेंट को मैटीरिया-मेडिका यानी औषधियों की सूची में शामिल करने की सोच रही है। ये फेसबुक-लेखक के लिए वेंटिलेटर से ज़्यादा ऑक्सीजन देने वाले हैं।’

बनवारी बाबू आगे बोले, ‘भैया, लाइक और कमेंट की अहमियत समझो। जिस भाग्यशाली लेखक को भरपूर लाइक्स और आल्हादकारी कमेंट्स मिलते हैं वह हमेशा प्रसन्न और उत्साहित बना रहता है। उसका स्वास्थ्य उत्तम  रहता है और अनिद्रा का रोग उसे कभी नहीं सताता। ब्लड प्रेशर और नाड़ी की गति दुरुस्त रहते हैं और पाचन क्रिया बढ़िया काम करती है। उसे दुनिया हमेशा खूबसूरत नज़र आती है। जीवन और जगत में आस्था बनी रहती है। उसके परिवार में हमेशा सुख-शान्ति रहती है। प्राणिमात्र के लिए उसके मन में प्रेम का भाव उमड़ता है।

‘इसके विपरीत लाइक और  अनुकूल कमेंट से वंचित लेखक बार-बार डिप्रेशन, अनिद्रा और निराशा का शिकार होता है। जीवन और जगत से उसकी आस्था उठ जाती है। परिवार में कलह होती है। मित्रों-रिश्तेदारों से संबंधों में उसकी रुचि जाती रहती है। ऐसा लेखक राह चलते लोगों से रार लेता है। उसे सारे समय व्यर्थता-बोध घेरे रहता है।

‘इसलिए भैया, लाइक और कमेंट देने में चूक को मित्र के साथ घात समझो। आजकल संबंधों को ठंडा करने में यही चीज़ सबसे बड़ा कारण बनती है। संबंधों को पुख्ता रखना है तो मुक्तहस्त से लाइक और कमेंट देने में कभी चूक मत करना, वर्ना पचीसों साल के बनाये संबंध  एक मिनट में ध्वस्त हो जाएँगे।’

शीतल बाबू यह प्रवचन सुनकर भीगे स्वर में बोले, ‘समझ गया, भैया। आगे सब काम छोड़कर पहले आप को लाइक और कमेंट दूँगा। पीछे जो हुआ उसे मेरी नासमझी मान कर भूल जाएँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 150 ☆ क्यों दाता बनें विधाता…? ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “क्यों दाता बनें विधाता…?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 150 ☆

☆  क्यों दाता बनें विधाता…?

प्रचार- प्रसार के माध्यमों से लोक लुभावन सपने दिखाना तो एक हद तक सही हो सकता है, किंतु मुफ्त में सारी सुविधाओं को देने से कामचोरी की आदत पड़ जाती है। जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, अशक्त हैं उन्हें मजबूत करने के प्रयास हों। पर जाति, धर्म, अल्पसंख्यक के नाम पर समाज को विभाजित करके सुविधाओं का आरक्षण देना समाज को जड़ से कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम साबित हो रहा है।

जब राष्ट्रवाद की परिकल्पना साकार होती है तो व्यक्ति हर प्रश्नों से ऊपर उठकर अपना कर्तव्य निभाने की ओर चल देता है। हर वर्ग ने जाति, धर्म, अमीरी- गरीबी से ऊपर उठ केवल देश हित को सर्वोपरि माना है। कहा भी गया है – जननी जन्मभूमिश्चय स्वर्गादपि  गरियसी  अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है।

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।

हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ सबका मार्गदर्शन करती हैं। क्या अच्छा नहीं होगा कि सत्ता को पाने के लिए दाता बना भाग्य विधाता की सोच से ऊपर उठकर हम कार्य करें। जनमानस को सचेत होकर अपने दायित्वों का निर्वाहन करना होगा तभी बिड़गी चाल पर नियंत्रण रखा जा सकेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 47 ⇒ व्यंग्य – पाठक होने का सुख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “पाठक होने का सुख।)  

? अभी अभी # 47 ⇒ पाठक होने का सुख? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो पढ़ सकता है, उसे पाठक होने से कोई नहीं रोक सकता! लिखने की बात अलग है। लिखने से कोई लेखक नहीं बन जाता। जवानी की कविता और प्रेम पत्र ने कईयों को कुमार विश्वास और कन्हैयालाल नंदन बना दिया है।

एक लेखक की लेखनी का श्री गणेश, संपादक के नाम पत्र से भी हो सकता है। कुछ लेखक और अखबार वाले उन लोगों से संपादक के नाम पत्र लिखवाते भी हैं, जिनको छपास का रोग होता है। लिखते लिखते एक दिन ये लेखक हो ही जाते हैं। ।

एक पाठक को इन सब मुश्किलों से नहीं गुजरना पड़ता। वह एक अख़बार का नियमित पाठक भी हो सकता है और किसी गुलशन नंदा का गंभीर पाठक भी। इब्ने सफी बी.ए. को पढ़ने के लिए, बी.ए.करना कतई ज़रूरी नहीं। सुरेन्द्र मोहन पाठक को एक बड़ा लेखक, पाठकों ने ही बनाया है, आलोचकों ने नहीं।

एक लेखक का अस्तित्व सुधि पाठक ही होता है। हर पाठक लेखक की नज़रों में एक सुधि पाठक ही होता है। जब कोई पाठक अपनी सुध बुध खोकर, किसी लेखक की बुराई कर बैठता है तो वह पाठक से आलोचक बन बैठता है। बिना फिल्म देखे समीक्षा लिखना और बिना कोई पुस्तक पढ़े आलोचना करना किसी सिद्धहस्त के बूते का ही काम है, नौसिखिए इन करतबों से दूर ही रहें तो बेहतर है। ।

मैं पोथी पढ़ पढ़ पंडित तो नहीं बन पाया, पुस्तक पढ़ पढ़, केवल पाठक ही बन पाया! कभी ढंग से प्रेम पत्र नहीं लिख पाया, इसलिए कवि नहीं बन पाया। झूठ के प्रयोग लिखे नहीं जाते, सच उगला नहीं जाता, इसलिए आत्मकथा का हर पन्ना कोरा ही रह जाता। जो कुछ काग़ज़ पर लिखता, कहीं छप नहीं पाता, इसलिए एक मशहूर लेखक बनने से वंचित रह गया।

भला हो इस मुख पोथी का, जिसने सभी पोथियों को काला अक्षर भैंस बराबर सिद्ध कर दिया, और मुझे रातों रात पाठक से स्वयंभू लेखक बना दिया। स्वयंभू लेखक वह होता है, जो स्वयं अपनी ही रचना पढ़कर उसकी तारीफ करता है।

ऐसे स्वयंभू लेखक स्वांतः सुखाय रचना करते हैं, और अपनी रचना दूसरों को सुना सुनाकर दुखी करते रहते हैं। ।

साहित्य और पाठक में एक सुखद दूरी होती है, जो दोनों को, एक दूसरे की दृष्टि में महान बनाए रखती है। जैसे जैसे पाठक और लेखक करीब आते जाते हैं, पोल खुलने लगती है, पाठक, पाठक नहीं रहता, लेखक, लेखक नहीं रहता।

कहां का बड़ा लेखक ? मुझसे दस साल पहले पांच सौ रुपए उधार ले गया, अभी तक नहीं लौटाए, सब लेखक साले ऐसे ही होते हैं। न जेब में कौड़ी, न कपड़ों में केरेक्टर।

मुझे पाठक होने का वास्तविक सुख फेसबुक पर ही नसीब हुआ। किसी लेखक की रचना की तारीफ करना हो, तो उसे पत्र लिखो, फिर जवाब का इंतजार करो। उसकी रचना पढ़ ली, यही क्या कम है। कमलेश्वर को एक पोस्ट कार्ड लिखा था, जब वे सारिका के संपादक थे, पोस्ट कार्ड पर औपचारिक जवाब भी आया था। फोन का उपयोग आज भी मैं किसी लेखक की तारीफ करने के लिए नहीं करता। अब तो फेसबुक पर लाइव चैटिंग होती है। जो गंभीर किस्म के लेखक है, वे आज भी फेसबुक से परहेज़ करते हैं। वे इतने अनौपचारिक नहीं बन सकते, इससे उनके लेखन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। आडंबर लेखन को अधिक गंभीर बनाता है। ।

मोहब्ब्त की राहों पे चलना संभल के! एक पाठक को अपने पाठक काल में लेखक बनने के इतने अवसर मिलते हैं, कि उसका ईमान डोल जाता है। हाथ कलम थामने से परहेज़ नहीं कर पाते, पन्ने स्याही के लिए तरस जाते हैं, और एक अच्छा भला पाठक लेखक की जमात में शामिल हो ही जाता है। लेखकों के बीच बोलचाल की भाषा में, फेसबुक पर, उनके साथ, उठ बैठकर, मीरा की तरह वह भी एक पाठक की लोक लाज तज, लेखक बन ही बैठता है।

आजकल फेसबुक पर जो भी आता है, वह लेखक बनने के लिए ही आता है। अगर यह इसी तरह चलता रहा, तो लेखकों के लिए पाठक ढूंढ़ना मुश्किल हो जाएगा। पुस्तक मेला ही देख लीजिए। वहां पाठक के अलावा सब कुछ मिलेगा। अब समय आ गया है, पाठकों की घटती संख्या को लेकर गंभीर होने की।

अभी कुछ समय पहले अमेज़न पर एक किताब उन्नीस रुपए में बिक गई। अब कहां से लाएं पाठक! शीघ्र ही लेखकों की तरह पाठकों के लिए भी पुरस्कार घोषित करना पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि आजीवन ब्रह्मचारी तो कई मिल जाएं, आजीवन पाठक एक भी ना मिले।।

मुझे भी डर है, मैं भी कहीं लेखक न बन जाऊं, तेरी संगति में ओ लेखक देवता! रब मुझे बुरी नज़र से बचाए, मेरे अंदर के पाठक की इन सृजन रिपुओं से रक्षा करे। आमीन!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #193 ☆ व्यंग्य – मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 193 ☆

☆ व्यंग्य ☆  मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम

मल्लू ने मकान बनवाया। इंजीनियर साहब ने कहा बीस लाख में तुम्हें मकान में घुसा देंगे, लेकिन मल्लू पच्चीस लाख से ज़्यादा से उतर गया। बैंक के कर्ज़ के अलावा और कई लोगों का कर्ज़ चढ़ गया। कई गलियों से मल्लू का निकलना बन्द हो गया।

आदमी की यह प्रकृति होती है कि किराये का मकान जैसा भी सड़ा- बुसा हो, उसमें वह बीसों साल बिना शिकायत के रह लेता है, लेकिन अपना मकान बनाते ही उसकी सारी हसरतें जाग जाती हैं। अपने ख्वाबों को पूरा करने का चक्कर शुरू हो जाता है और फिर सलाहकारों की भी लाइन लग जाती है। नतीजा यह होता है कि मकान बनाने वालों को लंबा चूना लगता है। मकान चमकाने के चक्कर में चेहरे की रौनक ख़त्म हो जाती है। मकान तो तीस साल में खंडहर होता है, आदमी पाँच साल में खंडहर हो जाता है।

मल्लू के इंजीनियर साहब ने नक्शा बनाया। मल्लू ने नक्शा देखा तो इंजीनियर साहब से पूछा, ‘यह इतना बड़ा कमरा किसलिए है?’

इंजीनियर साहब ने मल्लू को समझाया, ‘यह ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम है।’

मल्लू बोला, ‘मतलब?’

‘मतलब यह कि यह बैठक भी है और खाने का कमरा भी।’

मल्लू ने पूछा, ‘बैठक और खाने का कमरा एक साथ मिलाने से क्या फायदा?’

इंजीनियर साहब ने परेशानी में सिर खुजाया, फिर बोले ‘आजकल यही फैशन है।’

मल्लू आसानी से समझने वाले आदमी नहीं थे। बोले, ‘फैशन तो ठीक है, लेकिन इनको मिलाने की ज़रूरत क्या है?’

इंजीनियर साहब खिसियानी हँसी हँसे, बोले, ‘इस तरह आपको एक बड़ा हॉल मिल जाएगा तो वक्त ज़रूरत पर काम आएगा।’

मल्लू बोले, ‘बड़े हॉल की क्या ज़रूरत पड़ेगी?’

इंजीनियर साहब अब पस्त हो रहे थे। बोले, ‘कभी फंक्शन के काम आएगा, शादी ब्याह वगैरह में।’

मल्लू बोले, ‘मेरी शादी तो हो गयी। नट्टू अभी आठ साल का है। उसकी शादी में सत्रह अट्ठारह साल लगेंगे। किसकी शादी होनी है?’

इंजीनियर साहब हार गये, बोले, ‘अरे तो कभी हम लोगों को बुलाकर ही जश्न मना लीजिएगा।’

बल्लू की समझ में नहीं आया, लेकिन इंजीनियर साहब की ज़िद के चलते ड्रॉइंग कम डाइनिंग रूम बन गया। अब कमरे में एक तरफ मल्लू का पुराना सोफा था और दूसरी तरफ उनकी पुरानी डाइनिंग-टेबिल। नये घर में पुराना सोफा और पुरानी डाइनिंग-टेबिल वैसे भी आँखों में गड़ते थे। डाइनिंग-टेबिल की छः कुर्सियों में से दो की टाँगें टूट गयी थीं और नट्टू ने उनके विकेट बना लिये थे।

मकान बनाने के बाद मल्लू ने महसूस किया ड्रॉइंग-रूम और डाइनिंग-रूम एक साथ रखने के लिए घर में बहुत सी चीजे़ं दुरुस्त होनी चाहिए। जो लोग बैठक में बैठते थे वे डाइनिंग-टेबिल की टीम-टाम भी देखते थे।

नट्टू पूरी टेबिल पर और ज़मीन पर खाना गिरा देता था। मल्लू अक्सर खाना खाते वक्त कुर्सी पर पालथी मार लेता था। अब बाहर किसी की आहट सुनायी पड़ते ही उसकी टाँगें  अपने आप नीचे आ जाती थीं। उसकी बीवी उसकी इस आदत को लेकर अक्सर उसकी लानत- मलामत करती रहती थी।

घर में टेबिल-मैनर्स की क्लासें चलने लगी थीं। मल्लू की बीवी उसे बताती कि खाना खाते वक्त उसके मुँह से ‘चपड़-चपड़’ आवाज़ निकलती थी। नट्टू को भी डाँट-डाँट कर खाने का ढंग सिखाया जाता। ड्रॉइंग-रूम डाइनिंग-रूम पर सवार हो गया था।

खाने के बर्तन नट्टू ने पटक-पटक कर चपटे कर दिये थे। अब उन बर्तनों में खाते शर्म आती थी क्योंकि कभी भी कोई अतिथि प्रकट हो जाता था। अगर कोई अतिथि महोदय भोजन के समय आकर बैठक लगा लेते तो भोजन तब तक मुल्तवी रहता जब तक वे विदा न हो जाते। घर में डोंगे नहीं थे। अब उन्हें खरीदने की ज़रूरत महसूस हुई।

खाने के स्तर को लेकर चिन्ता होने लगी। जब घर में सिर्फ खिचड़ी या दाल-रोटी बनती तो चिन्ता लगी रहती कि कोई मेहमान देखने के लिए न आ जाए। फ्रिज की ज़रूरत भी महसूस होने लगी ताकि डाइनिंग-रूम कुछ रोबदार बन सके। लेकिन मकान के कर्ज़ ने मल्लू की कमर तोड़ रखी थी। वैसे भी मल्लू और उसकी बीवी के संस्कार मध्यवर्गीय थे। सामने कोई मेहमान आ कर बैठ जाता तो निवाला उनके हलक में अटकने लगता। इसीलिए जब खाना खाते वक्त कोई मेहमान आ जाता तो दोनों प्लेटें उठाकर भीतर की तरफ भागते। मेहमान भीतर घुसता तो उसे डाइनिंग-टेबिल खाली मिलती। फिर जब तक मल्लू मेहमान से बात करता तब तक उसकी बीवी भीतर पलंग पर बैठकर खाना खाती।जब वह खाना खा चुकती तो वह बाहर आकर मेहमान से बातें करती और मल्लू भीतर बैठकर भोजन करता।

अन्ततः मल्लू आपने डाइनिंग-कम- ड्रॉइंग रूम से तंग आ गया। इस विषय पर मियाँ-बीवी की कॉन्फ्रेंस हुई। यह तय हुआ कि हज़ार दो हज़ार रुपये खर्च करके ड्रॉइंग-रूम और डाइनिंग-रूम के बीच पर्दा डाल दिया जाए। पर्दा ज़रूर कुछ ढंग का हो क्योंकि मेहमान डाइनिंग-टेबिल की जगह अब पर्दे की जाँच-पड़ताल करेगा।

एक शुभ दिन पर्दा खरीद कर ड्रॉइंग- रूम और डाइनिंग-रूम के बीच बँटवारा कर दिया गया और मल्लू को अपनी परेशानियों से निजात मिली। अब मल्लू फिर आराम से कुर्सी पर पालथी मारकर खाना खा सकता था। नट्टू पर पड़ने वाली डाँट भी कम हो गयी। अब मल्लू का डाइनिंग-रूम उसके ड्रॉइंग-रूम के आतंक से मुक्त हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 213 ☆ व्यंग्य – भाई भतीजा वाद… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  – भाई भतीजा वाद

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 212 ☆  

? व्यंग्य भाई भतीजा वाद?

अंधेर नगरी इन दिनों बड़ी रोशन है। दरअसल अंधेर नगरी में बढ़ रही अंधेरगर्दी को देखते हुए नए चौपट राजा का चुनाव आसन्न हैं। इसलिए नेताजी ए सी कमरे में मुलायम बिस्तर पर भी अलट पलट रहे हैं, उन्हे बैचेनी हो रही है, नींद उड़ी हुई है। वे अपनी जीत सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं। पत्नी ने करवट बदलते पति का मन पढ़ते हुए पूछा, एक बात सुझाऊं? हमेशा पत्नी को उपेक्षित कर देने वाले चौपट राजा बोले, बोलो। पत्नी ने कहा आप न उन्ही की शरण में जाओ जिनका तकिया कलाम जपते रहते हो बात बात पर।

मतलब? राजा ने पूछा।

दर असल चौपट राजा का तकिया कलाम ही था “बहन _ _ “।

सारी महिलाओं को बहन बनाकर “नारी की बराबरी ” नाम से कोई योजना घोषित कर डालिए, अव्वल तो आधी आबादी के वोट पक्के हो जायेंगे, महिला हितैषी नेता के रूप में आपकी पहचान बनेगी वो अलग। घर की महिलाएं आपकी समर्थक होंगी तो उनके कहे में पति और बच्चे भी आपको ही वोट देंगे।

चौपट राजा पत्नी की राजनैतिक समझ का लोहा मान गए, खुशी से पत्नी को बांहों में भरते हुए बोले वाह बहन _ _। दूसरे ही दिन जनसभा में नेता जी महिलाओ को “प्यारी बहन” बनाने का उद्घोष कर रहे थे। पीछे लगा बैनर तेज हवा में फड़फड़ा रहा था, जिस पर लिखा था हम परिवारवाद के खिलाफ हैं, देश में भाई भतीजा वाद, परिवार वाद नहीं चलेगा। चौपट राजा जनता से नए रिश्ते गढ़ रहे थे। पैतृक संपत्ति को लेकर उनकी सगी बहन का कानूनी नोटिस उनकी कार के डैश बोर्ड में पडा था।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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