☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 191 ☆
☆ व्यंग्य ☆ मुहल्ले का सूरमा ☆
बल्लू को हमारे मुहल्ले का दादा कह सकते हैं। काम-धंधा कुछ नहीं। दो चार उसी जैसे दोस्त मिल गए हैं, उन्हीं के साथ सारे दिन इधर- उधर डोलता रहता है। अक्सर चौराहे पर हा हा हू हू करता नज़र आता है। कभी सड़क के किनारे दोस्तों के साथ बैठा ताश खेलता है। शाम के बाद आप देखें तो बल्लू और उसके साथी आपको नशे में सड़क के किनारे किसी गिट्टी के ढेर पर पड़े भी मिल सकते हैं।
पता नहीं क्यों मेरे प्रति बल्लू की बड़ी भक्ति है। वह अक्सर मुझे अपने आचरण की सफाई देता रहता है— ‘बड़े भैया, पुरखों ने खूब कमा कर रखा है। दो तीन मकान हैं, जमीन जायदाद है। बाप कमा रहा है, भाई कमा रहे हैं। तो कोई इस कमाई को बराबर करने वाला भी चाहिए। यह काम हम कर रहे हैं। सभी कमाने लगें तो कैसे काम चलेगा?’
और वह खी खी कर हँसने लगता है।
वह इधर-उधर छीन-झपट भी करता है। मुहल्ले के दुकानदारों को आंँखें दिखा कर नशा-पानी के लिए पच्चीस पचास रुपये झटक लेता है। दुकान वाले उसके और उसके साथियों के रंग-ढंग देखकर ज़्यादा झंझट नहीं करते। मुहल्ले में आने वाले सब्जी वालों से भी वह जब तब दस बीस रुपये ऐंठ लेता है।
बल्लू मुझे हँसकर बताता है, ‘क्या करें बड़े भैया, घरवालों पर ज्यादा बोझ डालना ठीक नहीं। थोड़ा बहुत अपने बूते से भी पैदा करना चाहिए। यह दुकानदार सब को लूटते हैं। अगर हम इन्हें थोड़ा सा लूट लेते हैं तो क्या बुरा है?’
बल्लू अक्सर चौराहे पर किसी से उलझता रहता है। दो-चार दिन में उसके साथियों की किसी न किसी से झंझट या थोड़ी बहुत मारपीट होती रहती है। अक्सर चौराहे पर मजमा लग जाता है। बल्लू ऐसे मौकों पर अपनी पूरी शूरवीरता दिखाता है। लाठियाँ, साइकिल की चेनें और चाकू हवा में लहराते हैं, लेकिन अक्सर वे चलते नहीं।
बल्लू में एक और खराब आदत है, आते जाते लोगों को परेशान करने की। चौराहे पर वह किसी को भी रोक कर उसे तंग करता है। कोई धोती वाला देहाती हुआ तो उसकी धोती की लाँग खींच देता है। कभी किसी की बुश्शर्ट उतरवा कर अपने पास रख लेता है। किसी को रोककर उससे घंटों ऊलजलूल सवाल करना और फिर ताली पीट-पीटकर ठहाका लगाना उसका प्रिय खेल है। आसपास रहने वाले उसकी इस हरकत पर भौंहें चढ़ाते हैं, लेकिन उनकी सफेदपोशी उन्हें बल्लू और उसके साथियों से उलझने नहीं देती।
मैं समझाता हूँ तो बल्लू कहता है, ‘अरे बड़े भैया, थोड़ा सा मनोरंजन ही तो करते हैं, वह भी आप लोगों को बुरा लगता है। कौन किसी की जान लेते हैं। आप लोगों से हमारा थोड़ा सा भी सुख देखा नहीं जाता।’
एक दिन दुर्भाग्य से बल्लू ने मनोहर को पकड़ लिया। मनोहर दिमाग से कुछ कमज़ोर है। बगल की डेरी में वह दूध लेने जाता है। एक शाम बल्लू ने उसे रोक लिया और घंटे भर तक उसे बहुत परेशान किया। मनोहर चीखता- चिल्लाता रहा, लेकिन बल्लू ने उसे घंटे भर तक नहीं छोड़ा। उसके थोड़ी देर बाद ही चौराहे पर मजमा लग गया। पता चला कि मनोहर का बड़ा भाई झगड़ा करने आया था। काफी देर तक गरम बातचीत होती रही, लेकिन बल्लू के साथियों की उपस्थिति के कारण उसी का पलड़ा भारी रहा। मनोहर का भाई स्थिति को अपने पक्ष में न देख कर लौट गया।
इस घटना के दो दिन बाद ही रात को बल्लू के घर पर आक्रमण हुआ। पन्द्रह बीस लोग थे, लाठियों और दूसरे हथियारों से लैस। बड़ी देर तक लाठियाँ पटकने की और गन्दी गालियों की आवाज़ें आती रहीं। सौभाग्य से बल्लू बाबू उस वक्त अपने दोस्तों के साथ कहीं मटरगश्ती कर रहे थे, इसलिए उस वक्त वे हमलावरों के हाथ नहीं पड़े। लगभग आधे घंटे तक लाठियाँ पटक कर वे लौट गये।
दूसरे दिन सबेरे मैंने देखा कि बल्लू पागलों की तरह अपने घर के सामने घूम रहा था। उसके साथी भी व्यस्तता से उसके आसपास चल- फिर रहे थे। थोड़ी देर बाद वह मेरे घर आ गया। सोफे पर बैठ कर वह उसके हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकने लगा। दाँत पीसकर बोला, ‘बड़े भैया, हमारी बड़ी इंसल्ट हो गई। अरे, हमारे घर कोई हमें मारने आये और बिना हाथ-पाँव तुड़ाये वापस चला जाए? अरे, हम उस वक्त घर में क्यों न हुए! हमारी बड़ी किरकिरी हो गयी, बड़े भैया।’
वह मिसमिसा मिसमिसा कर अपने बाल नोचता था और सोफे के हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकता था। फिर बोला, ‘अब आप हमारा भी जोर देखना, बड़े भैया। मैंने भी उनके हाथ पाँव न तोड़ दिये तो मेरा नाम बल्लू उस्ताद नहीं।’ कहते हुए उसने अपनी छोटी सी मूँछ पर हाथ फेरा।
बल्लू तो अपनी योजना ही बनाते रह गये और दो-तीन दिन बाद रात को फिर उनके घर पर जोरदार हमला हुआ। उस रात बल्लू बाबू अपने तीन चार साथियों के साथ घर पर ही थे। उनके पास भी कुछ अस्त्र-शस्त्र थे, लेकिन जब उन्होंने हमलावरों की संख्या और उनके तेवर देखे तब वे जान बचाने के लिए पीछे की दीवार फाँद कर भागे। बल्लू बाबू भी भागे, लेकिन भागते भागते भी हमलावरों ने उनके पृष्ठ भाग पर एक लाठी समर्पित कर दी ताकि सनद रहे और सावन- भादों कसकती रहे। भागते हुए बल्लू बाबू को सुनाई पड़ा— ‘बेटा, भाग कर कहाँ जाओगे? हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’
अगले सबेरे बल्लू के घर के सामने सन्नाटा था। दो दिन तक बल्लू मुझे कहीं नहीं दिखा। तीसरे सबेरे देखा वह बगल में एक दरी लपेटे आ रहा था, जैसे कहीं से सो कर आ रहा हो। उसके बाद वह मुहल्ले में घूमता दिखा, लेकिन वह एक अलवान सिर पर ओढ़े, बिलकुल चुपचाप चलता था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। सिर पर चादर का घूँघट सा डाले वह सिर झुकाए सड़क के किनारे-किनारे एक शान्तिप्रिय नागरिक की तरह चलता था। उसके सारे दोस्त गायब हो गये थे।
एक दिन वह उसी तरह चादर ओढ़े धीरे-धीरे चलता हुआ मेरे कमरे में आकर बैठ गया। बढ़ी हुई दाढ़ी और चादर में वह पहचान में नहीं आता था।
बैठकर वह थोड़ी देर सिर झुकाये सोचता रहा, फिर धीरे-धीरे बोला, ‘बड़े भैया, सुना है वे लोग फिर कुछ गड़बड़ करने की योजना बना रहे हैं। लेकिन अपन ने सोच लिया है कि अपन को कुछ नहीं करना। अपन हमेशा शान्ति से रहते आये हैं, अपन शान्ति से ही रहेंगे।’
फिर थोड़ा रुक कर बोला, ‘बड़े भैया, आप तो जानते ही हैं मैं शुरू से बहुत सीधा-सादा लड़का रहा हूँ। वह तो संगत खराब मिल गयी, इसलिए थोड़ा बहक गया था। लेकिन अब अपन ने सोच लिया, खराब लड़कों को पास भी नहीं फटकने देना। बस आप लोगों की संगत करूँगा और आराम से रहूँगा।’
वह रुक कर फिर बोला, ‘बड़े भैया, अपन को झंझट बिल्कुल पसन्द नहीं, इसलिए हमने रात को घर में सोना ही छोड़ दिया। कहीं भी इधर उधर सो जाते हैं। अरे, जब हमीं नहीं मिलेंगे तब किस से मारपीट होगी? झगड़े की जड़ ही खतम कर दो।’
फिर वह मेरे मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘बड़े भैया, हम आपके पास इसलिए आये हैं कि आप मनोहर के भाई से मिलकर मेरी सुलह- सफाई करा दो। वह आपकी बात मान लेगा। अब जो हो गया सो हो गया। थोड़ी बहुत गलती तो इंसान से हो ही जाती है। आप अभी जाकर बात कर लो तो बड़ी कृपा हो। उस दिन से अपना मन किसी काम में नहीं लगता। मैं यहीं आपका इन्तजार करूँगा।’
मैं मध्यस्थता करने के लिए राजी हो गया। कपड़े बदल कर जब मैं सीढ़ियाँ उतरा तब वह ऊपर से लगातार मुझसे बोले जा रहा था—‘बड़े भैया, यह काम जरूर होना चाहिए। वह माफी माँगने को कहेंगे तो अपन माफी भी माँग लेंगे। मुहल्ले वालों से माफी माँगने में अपनी कोई इज्जत नहीं जाती। लेकिन यह काम जरूर होना चाहिए। आपका ही आसरा है।’
वह ऊपर से टकटकी लगाये मुझे देखता रहा और मैं हाथ हिला कर आगे बढ़ गया।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार