(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “गधे और हाथी की लड़ाई… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 311 ☆
व्यंग्य – गधे और हाथी की लड़ाई श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
अमेरिका में गधे और हाथी की रेस चल रही है। डेमोक्रेट्स का चुनाव चिन्ह गधा, और रिपब्लिकन का हाथी है।
चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है, मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि हरे गुलाबी नोट धीरे धीरे काले हो रहे हैं।
अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों में बिके। सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं। राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।
सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती। माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया , किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो किसी एफ एम से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है, सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया। लगता है अब क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं। सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट, नित नये दल बदल, इस्तीफे,के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं। हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।
रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से, रोष और तैश में बातें हो रहीं थी। चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को हार्स ट्रेडिंग कहना घोड़ो का सरासर अपमान है। घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है। चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी,टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई की घोड़े के साथ प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है। अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े, बादल, राजा, पवन, सारंगी, जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं। धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा। अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है। राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी, जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं। बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है। यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं। फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है, फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की। शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं। एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं। घोड़े अपने मालिक के प्रति सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है।
अपने वाक्जाल से जनता को उसूलो की बाते बताकर उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं। अंतर्आत्मा की आवाज वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे नितांत स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये शब्दों का इतना कुशल इस्तेमाल करते हैं कि हम लेखक शर्मा जाएं। भ्रष्टाचार या अन्य मजबूरी में नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं। पार्टी अदलते बदलते रहते हैं पर नेताजी टिके रहते हैं। गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा, आपका हुआ था। कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही तोड़ पाती। यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही हैं ! वो उल्लू होते हैं, और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं, वे रात रात जागते हैं, और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं। इसलिए गधे हाथी लड़ते रहें अपना नारा है, उल्लू जिंदाबाद।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘एक दिन ऐसा आयेगा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 262 ☆
☆ व्यंग्य ☆ एक दिन ऐसा आयेगा ☆
दफ्तर में एक टाइपिस्ट की ज़रूरत थी। अभी पोस्ट की मंज़ूरी नहीं आयी थी, इसलिए एक एडहॉक नियुक्ति करने का फैसला हुआ।
बंसगोपाल बाबू संकोच में सिमटते- सिकुड़ते साहब के पास पहुंचे, बोले, ‘सर, टाइपिस्ट की जगह के लिए अगर मेरे साले के नाम पर विचार हो जाए तो जनम जनम आपके गुन गाऊंगा।’
साहब पढ़े-लिखे, समझदार आदमी थे। बोले, ‘अगले जनम में तो आप तभी गुण गाएंगे जब आपको आदमी की योनि मिले। यह पक्का नहीं। इसलिए इसी जन्म की बात कीजिए। आपके साले साहब की टाइपिंग की स्पीड कैसी है?’
बंसगोपाल बाबू सिर खुजाते हुए बोले, ‘सर, अभी एक महीने से सीख रहा है। अभी तो थोड़ा धीमा है, लेकिन जल्दी फारवट हो जाएगा। दफ्तर में लग जाएगा तो सीख जाएगा।’
साहब बोले, ‘दफ्तर कोई टाइपिंग सिखाने वाला इंस्टिट्यूट नहीं है, बंसगोपाल बाबू। आप चाहें तो कल अपने साले साहब को ले आइए।मैं काम कराके देखूंगा, तभी फैसला करूंगा।’
दूसरे दिन साले साहब आ गये। साहब ने उनकी जांच की, फिर बोले, ‘बंसगोपाल बाबू, आपके साले साहब ज़्यादा देर टाइप करेंगे तो कंप्यूटर को सुधरने भेजना पड़ेगा। काफी वज़नदार हाथ मारते हैं। स्पीड बहुत धीमी है। अभी आप इनको घर पर ही रखिए। कुछ दिन रियाज़ करने के बाद देखेंगे।’
अशोक नाम के लड़के को रख लिया गया। कुछ दिन बंसगोपाल बाबू अशोक से नाराज़ रहे क्योंकि वह उनके साले की जगह छीन कर बैठा था, फिर धीरे-धीरे सामान्य हो गये।
अशोक अस्थायी था इसलिए दब कर रहता था। साहब जो भी काम बताते, बिना ना- नुकुर के कर देता। दूसरे बाबू पांच बजे तक अपने दराज़ों में ताले जड़कर चलते बनते, वह छः सात बजे तक खटर-पटर करता रहता। उसे साहब को खुश रखकर अपना भविष्य बनाना था।
साहब से तो कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन दूसरे सभी बाबू यह समझने लगे थे कि उसकी नियुक्ति विशेष तौर से उन्हीं की सेवार्थ हुई है। दफ्तर में एक और पुराने टाइपिस्ट बाबू सेवालाल थे। वे अपना तीन-चौथाई काम उसके सिर पर पटक देते थे। सिर्फ बहुत महत्वपूर्ण कागज़ों के लिए ही वे अब कंप्यूटर को अपनी उंगलियों का स्पर्श-सुख देते थे। उनका कहना था— ‘काम नहीं करोगे तो सीखोगे कैसे? खूब टाइप करोगे तभी तो रवानी आयेगी।’
पूरे दफ्तर की नज़र उस पर जमी रहती थी। वह फुरसत में दिखा नहीं कि किसी न किसी कोने से आवाज़ आ जाती थी— ‘भैये, जरा एक मिनट आना। ये फिगर चेक कर लेना। कहीं गलती न रह गयी हो।’ फिर खाली हुआ कि दूसरे कोने से आवाज़ आ जाती— ‘अरे ब्रदर, जरा आना तो। इन बिलों की एंट्री कर दो। वो शर्मा बाबू बुला रहे हैं। थोड़ा बैठ आऊं।’
उसके बगल वाले नन्दी बाबू तो बगुले की तरह उसकी मेज़ पर नज़र जमाये रहते थे। ज़रा खाली हुई नहीं कि अपना गट्ठा उसकी तरफ सरका देते। कहते, ‘जरा निपटाओ भैया, अपना तो सिर दर्द करने लगा।’
वह अपने काम से जब भी ऊपर नज़र उठाता, उसे कोई न कोई हाथ बुलाने के लिए हिलता नज़र आता। इसलिए वह अपना सिर कम उठाता था। सीधे देखने के बजाय वह कनखियों से ज़्यादा देखता था। काम इतना लाद दिया जाता कि वह लंच टाइम में भी लगा रहता। एक दो बाबू थे जो उस पर दया-दृष्टि रखते थे, लेकिन बाकी सब उसे लद्दू घोड़ा समझकर अपना काम उस पर पटके जा रहे थे।
कुछ लोग रोज़ दफ्तर से दस बीस शीट कागज़ घर ले जाने के आदी थे। वे भी उसी से मांगते। कहते, ‘घर में थोड़ा बहुत लिखा-पढ़ी का काम रहता है। दफ्तर में इतना कागज रहता है। पैसा खर्चने से क्या फायदा?’
बड़े बाबू का तरीका दूसरा था। अशोक काम में लगा रहता तो वे मिठास से कहते, ‘अशोक बाबू, कितना काम करोगे? थोड़ा घूम घाम आओ।’
वह जाने के लिए उठता तो वे अपनी जैकेट की जेब में हाथ डालते, कहते, ‘एक ज़र्दे वाला पान लेते आना।’
पान की फरमाइश करते वक्त वे अपना हाथ हमेशा जैकेट की जेब में डालते ज़रूर थे, पर सबको पता था कि वे पैसा कुर्ते की जेब में रखते थे। उनका हाथ जैकेट की जेब में तब तक घुसा रहता था जब तक अशोक ‘रहने दीजिए बड़े बाबू, मैं ले आऊंगा’ न कह देता। उसके यह कहते ही वे संकोच दिखाते हुए ‘अरे भाई’ कह कर हाथ को जैकेट के बंधन से मुक्त कर लेते।
दफ्तर के सयाने वक्त-वक्त पर अशोक को सीख देते थे— ‘देखो भैया, हम लोग दफ्तर के सीनियर आदमी हैं। जब पक्का अपॉइंटमेंट होगा तो साहब हम लोगों की राय लेंगे। हम लोगों की थोड़ी बहुत सेवा करते रहोगे तो आगे तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा। सेवा करो, मेवा खाओ। अभी तुम्हारी नयी उम्र है, ज्यादा काम से तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा। शरीर का क्या है? जैसा बना लो, वैसा बन जाएगा। आराम-तलब बन जाओगे तो आगे काम करना मुश्किल हो जाएगा और भविष्य भी खतरे में पड़ जाएगा।’
दफ्तर के बाबुओं में एक कवि भी थे— छोटेलाल ‘आहत’। वे दफ्तर के टाइम में भी कविताएं लिखते थे और दफ्तर में ही उन्हें टाइप कराते थे। पांच बजे के बाद वे अशोक से चिपक कर बैठ जाते, कहते, ‘गुरू, जरा फटाफट टंकित तो कर दो। जब संग्रह छपेगा तो कृतज्ञता- ज्ञापन में तुम्हारा नाम भी जाएगा।’ अशोक को उनकी कविताएं टाइप करके ही छुट्टी नहीं मिलती थी, उन्हें सुनना भी पड़ता था, जो टाइपिंग से ज़्यादा कष्टदायक काम था।
अशोक ने छः महीने इसी तरह हम्माली में काटे। अन्त में पक्की नियुक्ति का आदेश आ गया। इंटरव्यू हुए।
बंसगोपाल बाबू एक बार फिर साहब के सामने हाज़िर हुए, बोले, ‘सर, अब तो साले को रखने पर विचार कीजिएगा। घरवाली कहती है कि साहब से जरा सा काम भी नहीं करा सकते। घर में पोजीशन खराब होती है सर।’
साहब ने पूछा, ‘टाइपिंग में कोई तरक्की की उसने?’
बंसगोपाल बोले, ‘क्या तारीफ करूं, सर। अब तो एक मिनट में शीट निकाल कर फेंक देता है। एकदम फरचंट हो गया है। कंप्यूटर पानी की तरह चलता है, सर।’
फिर टेस्ट हुआ। अशोक की नौकरी नियमित हो गयी। बंसगोपाल बाबू फिर मायूस हुए। साहब से पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, ‘बंसगोपाल बाबू, आपके साले का कंप्यूटर पानी पर नहीं, बरफ के ढेलों पर चलता है। जब बरफ पिघल जाएगी तब सोचेंगे।’
नियमित होते ही अशोक का हाव- भाव बदल गया। आदमी को बिगड़ते भला कितनी देर लगती है? जब नन्दी बाबू ने अपना गट्ठा उसकी तरफ सरकाया तो उसने उसे वापस ढकेलते हुए कहा, ‘नन्दी बाबू, अपना गट्ठा संभालो। सिरदर्द के इलाज के लिए बाजार में बहुत सी दवाएं मिलती हैं।’
अब उसे कोई हाथ उठा कर बुलाता तो वह हाथ उठाकर ही निषेध कर देता। टाइम से काम बन्द करके लंच पर जाता और टाइम से लौटता। शाम को भी पांच बजे ही काम समेटना शुरू कर देता।
‘आहत’ जी कविताएं लेकर आते तो कहता, ‘जरा साहब से परमीशन ले लीजिए। पता चल जाएगा तो मेरी पेशी हो जाएगी।’ ‘आहत’ जी ने दुखी होकर कविताओं को हाथ से ही ‘फेयर’ करना शुरू कर दिया। यही जवाब उनको भी मिला जो दफ्तर को कागज़ की फ्री सप्लाई का डिपो समझते थे। उनके भी अच्छे दिनों का अन्त हुआ।
अब बड़े बाबू पान मंगाते तो अशोक तब तक उनके सामने खड़ा रहता जब तक उनका हाथ जैकेट से निकल कर कुर्ते में न चला जाता ।
एक दिन बड़े बाबू दुखी स्वर से साहब से बोले, ‘अब अशोक में पहले वाली बात नहीं रही सर।’
साहब ने पूछा, ‘क्या बात है? काम में गड़बड़ी करता है क्या?’
बड़े बाबू जल्दी से बोले, ‘नहीं नहीं, यह बात नहीं है सर। बस पहले से थोड़ा चालू हो गया है।’
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “क्रेडिट कार्ड के जाल में जेन ज़ेड मछली…” ।)
☆ शेष कुशल # 45 ☆
☆ व्यंग्य – “क्रेडिट कार्ड के जाल में जेन ज़ेड मछली…”– शांतिलाल जैन ☆
एक मछली और मर गई. – इसमें हैरत की कौनसी बात है!!
बात है श्रीमान. काया इंसान की, मगर काँटे में मछली की तरह फँस गई थी. जेन ज़ेड पीढ़ी का वय. महज़ साढ़े पच्चीस बरस की उम्र. अपने कमरे में, अपने ही पंखे से, अपनी ही बेडशीट का फंदा लगाकर, अपनी ही जान ले ली. कार्पोरेट मछुआरे के बिछाए आकर्षक लुभावने जाल में फँस गई थी वो. क्रेडिट कार्ड का जाल. प्लैटिनम एलिट कार्ड. नाम से ही अमीरी टपकाता. कार्ड प्लास्टिक का, तासीर लोहे की. मेग्नेटिक स्ट्रिप उसे खेंच रही थी. बाज़ार के समंदर की लहरें उसे जाल की तरफ धकेल रही थीं तो कैसे नहीं फँसती!! ‘ये क्रेडिट कार्ड हम खास आपके लिए लाए हैं.’ कोमल, मधुर, मखमली आवाज़ में की गई जादुई पेशकश ठुकरा पाना मुश्किल था. वो भी मना नहीं कर सकी थी. जाल में फँस ही गई.
जेन-ज़ेड मछली जब फँसी तो दम एक-दम से तोड़ा नहीं था. छटपटाती रही, तड़पती रही, पछताती रही मगर बच नहीं सकती थी. उसकी नींद काफूर हो चुकी थी और चैन सिरे से गायब. खरीदी का पहला महीना ख़त्म हुआ, मिनिमम ड्यूज चुकाया और बचे बेलेंस के साथ दन्न से आ धंसी कर्ज के दलदल में, फिर और धंसी, थोड़ा और धंसी. दलदल शनै-शनै गहराता जाता था. पहले अठारह, फिर चौबीस, फिर छत्तीस परसेंट ब्याज की गहराई में वो उतरती-धंसती चली गई. उसके आगे हाराकिरी करने की नौबत आन पड़ी.
कार्पोरेट मछुआरे ने जेन ज़ेड मछली को जादुई कालीन से उपभोग की दुनिया की सैर कराने का रोमांचक सपना दिखाया था. वो कब कालीन पर बैठ कर उड़ चली पता ही नहीं चला. आकर्षक खूबसूरत फ्रेंड के साथ सातवें आसमां की सैर पर पहुँची. यहाँ उसे आईफोन मिला, बाईक मिली, एसयूवी बुक की, होम थियेटर मिला, महंगे डिज़ाइंड अप्पैरल्स मिले, हॉलीडे होम मिला, लक्ज़री स्टे मिला, बिग बनयान मर्लोट का ड्रिंक और लज़ीज़ इंटरकॉन्टिनेंटल खाना. पूरे महीने मौज, मस्ती, फन अनलिमिटेड. मंत्रमुग्ध थी. उसे लगा कि कारूं के खजाने की चाबी उसकी ज़ेब में आ गई है. कहाँ समंदर में पड़ी रही अब तक, असली दुनिया तो यहाँ है, उपभोग के आसमान में. और, कमाल ये कि उसे कहीं कोई भुगतान नहीं करना पड़ा. बस बेचवाल की मशीन में कार्ड से चीरा लगाया और विलासिता की भव्य दुनिया में प्रवेश कर गई. महीना पूरा होने तक यहाँ एन्जॉय के सिवाय कुछ नहीं था. जो भी है बस एक यही पल है. पूरा आसमान तुम्हारा है बस ओटीपी सही से डालना. फिर एक दिन बैंक से स्टेटमेंट मिला और जादुई कालीन एक मज़बूत जाल में बदल गया. जेन-ज़ेड मछली पूरी तरह गिरफ्त में आ चुकी थी.
क्या पूछा आपने श्रीमान कि मछली के कांटे में चारा कौनसा लगाया था ? कमाल करते हैं आप. बड़े, आकर्षक, लुभावने, रंगीन, पूरे पेज के विज्ञापन नहीं देखे आपने ? कॅशबैक का चारा. नो कास्ट ईएम्आई का चारा. डिसकाउंट का चारा, रिवार्ड पॉइंट्स का चारा, लॉयल्टी पॉइंट्स का चारा. एयरपोर्ट के लक्ज़री लाऊंज़ में फ्री इंट्री का चारा. होलीडेईंग में छूट की चारा. कैशबैक, रिवार्ड, लॉयल्टी पॉइंट्स के बदले मालदीव्स की मुफ्त सैर का चारा. नए नए टाईप के चारे. चारे का चस्का. चस्के के काँटे में फंसी जेन ज़ेड के पास छुड़ाकर निकल पाने की गैल न थी.
क़र्ज़ का दलदल गीला तो था मगर उसमें मछली के लायक पानी न था. कुछ था तो वसूली का तकादा था, डेलिंक्वेंट लिस्ट में नाम था, खराब सिबिल स्कोर था और रिकवरी एजेंट के बाउन्सर्स का डर था. फ्रेंड अन-फ्रेंड हो चुके थे. रिश्तेदारों ने असमर्थता व्यक्त कर दी थी. माता-पिता ने जीवनभर की कमाई दे दी तब भी क़र्ज़ चुक नहीं पा रहा था. तो क्या करती जेन-ज़ेड मछली. फंदा लगाकर झूल गई.
कुछ लिखकर गई क्या ? नहीं. लेकिन सुना है तूती जैसी आवाज़ में कुछ बोलकर रिकार्ड कर गई है जो बाज़ार के नक्कारखाने में सुनाई नहीं दे रहा है. सुन पा रहे हैं तो बस कार्पोरेट का अट्टहास, क्रेडिट कार्ड की ग्रोथ के आंकड़े, जीडीपी में योगदान, क्रेडिट कार्ड कंपनी के विस्तार की योजनाओं के ऐलान. जाल अभी और लम्बा फिंकेगा. बाज़ार की शार्क का आसान शिकार जेन ज़ेड मछलियाँ. भूख बढ़ती जाती है और जेन ज़ेड इसके लिए तैयार भी है. तो प्रतीक्षा कीजिए, फंदे पर लटके अगले शिकार की. हाँ, हैरानी मत जताईएगा, यह न्यू नार्मल है.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 26 – “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध”☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
कलियुग में अगर महाभारत होती, तो हस्तिनापुर की जगह “वॉट्सएप नगर” होता और कुरुक्षेत्र की जगह “ग्रुपचैट”। कौरवों और पांडवों के बीच की लड़ाई अब तलवार और तीर-कमान से नहीं, बल्कि स्मार्टफोन और डेटा पैक से लड़ी जाती।
कहानी कुछ यूं है कि हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र अपने मोबाइल से चिपके रहते हैं, पर उन्हें एक छोटी सी दिक्कत है – वो टेक्स्ट पढ़ नहीं सकते, क्योंकि आँखें कमजोर हो गई हैं। उनकी जगह उनका सचिव संजय हर मैसेज पढ़कर सुनाता है, चाहे वो मीम हो या कोई फ़ॉरवर्डेड जोक।
दुर्योधन अब अपने भाइयों के साथ वॉट्सएप पर एक ग्रुप बनाता है – “कौरव आर्मी”। इस ग्रुप में दिन-रात षड्यंत्र चलते हैं कि कैसे पांडवों को ‘ब्लॉक’ किया जाए। वहीं दूसरी ओर, पांडवों का एक ग्रुप है “धर्मराज पार्टी”, जिसमें युधिष्ठिर हर मैसेज को सत्यापन के बाद ही फ़ॉरवर्ड करते हैं। अर्जुन का स्टेटस हर दिन बदलता रहता है – कभी “वारियर मोड”, तो कभी “चिलिंग विद कृष्णा”।
भीष्म पितामह ग्रुप में बैठे निष्क्रिय हैं। वो कुछ बोलते नहीं, बस सब पढ़ते रहते हैं। उनका विश्वास है कि जब तक कोई उन्हें “मौन मोड” से बाहर नहीं बुलाएगा, तब तक वो सिर्फ़ दर्शक बने रहेंगे।
कृष्ण की भूमिका अब “ग्रुप एडमिन” की हो गई है। वो अर्जुन को गीता का उपदेश नहीं दे रहे, बल्कि उसे “डिलीट फॉर एवरीवन” और “म्यूट ग्रुप” जैसे फीचर्स समझा रहे हैं। अर्जुन थोड़े असमंजस में है – “हे केशव, मैं किसे ब्लॉक करूं? कौरवों को या अपने डेटा प्लान को?”
युद्ध शुरू होता है – नहीं, तलवार से नहीं, बल्कि “वायरल वीडियो” और “मीम वॉर” से। दोनों ओर से तेज़ी से मैसेज भेजे जाते हैं, कोई ‘ट्रेंडिंग’ करने में जुटा है, तो कोई ‘कमेंट सेक्शन’ में शांति स्थापित करने में। भीम को कोई चिंता नहीं, वो सिर्फ़ ‘फूड डिलीवरी’ ग्रुप में एक्टिव हैं और खाने के मेन्यू पर चर्चा कर रहे हैं।
आखिरकार, युद्ध का परिणाम यह निकलता है कि कौरवों का डेटा पैक खत्म हो जाता है और पांडवों को जीत मिलती है। पर असली सवाल यह है कि इस महायुद्ध के बाद कौन जीता? शायद मोबाइल कंपनियाँ, जिनकी कमाई इस “डिजिटल महाभारत” में सबसे ज्यादा हुई!
इस आधुनिक महाभारत का यही निष्कर्ष है – जहां पहले धनुष-बाण थे, अब इमोजी और वॉट्सएप स्टीकर्स हैं। और अंत में, धर्म की जीत नहीं, बल्कि ‘नेटवर्क कवरेज’ की जीत होती है!
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “इस दयार में तन्हा न वादियाँ बचीं हैं न फ़िज़ाएँ…” ।)
☆ शेष कुशल # 45 ☆
☆ व्यंग्य – “इस दयार में तन्हा न वादियाँ बचीं हैं न फ़िज़ाएँ…”– शांतिलाल जैन ☆
प्रिय अतिथि,
तुम मत आना हमारे शहर में.
तुम अकेले तो आते नहीं, पर्यटक के भेष में लाख की संख्या के औसत में रोज़ चले आते हो. तुम्हारे बूट के नीचे हमारे शहर की जमीन ही नहीं काँपती, शहरवासी भी काँपने लगते हैं. चलते तुम हो, हाँफने हम लगते हैं. तुम्हारे टेम्पो ट्रेवेलरों के काले धुएँ से सैर सपाटे के शहर के फेफड़ों में कजली जमने लगी है. कहते हैं दमा दम के साथ जाता है. जाता होगा मगर, आता तो पर्यटकों के साथ है. जिन्दगी किसी तरह इन्हेलर, नेबुलाईजर, डेरिफाइलीन के सहारे कट रही है. तुम्हारे वाहनों के शोर ने बुजुर्गों में बैचेनी और बच्चों में चिढ़चिढ़ापन बढ़ा दिया है. उनकी तीखी चुभती हेडलाइट्स ने जन-प्रतिनिधियों को अकल का अंधा बना दिया है. शहर में आती भीड़ के रेलों को वे विकास समझने भी लगे हैं, समझाने भी लगे हैं. तुम्हारे वाहनों की पींsss पाँsss पोंsss पोंsss ने जन-प्रतिनिधियों को बहरा कर दिया है. पर्यटन-विकास के नक्कारखाने में जन-कराह की तूती गुम हो गई है. जरूरी नहीं कि प्रलय भूकंप, तूफ़ान, बाढ़, भूस्खलन की शक्ल में ही आए, वो सैलानियों के सैलाब की सूरत में भी आ सकता है. हमारी मिन्नतें हैं अतिथि, तुम मत आना.
तुम्हारी गाड़ियों के काफिलों ने निस्तब्ध, नीरव, मंद गति वाले शहर को फ़ास्ट फॉरवर्ड मोड में ला दिया है. कभी शांत, सुन्दर, सौम्य रहा अध्येताओं, लेखकों, कलाकारों, ऋषियों, तपस्वियों का यह शहर अब रात में भी सो नहीं पाता, भारतीय रेल को सवारी रात में ही उतराने में मज़ा जो आता है. जहाँ तुम्हारी इनोवाएँ खड़ीं हैं वहाँ कुछ समय पहले हमारे आशियाने हुआ करते थे. उजाड़ दिए गए कि तुम्हारे लिए पार्किंग प्लाजा बनाया जा सके. तुम्हारी लैंड-रोवरों को निर्बाध गति देने के हेतु से चौड़ी की गई सड़क ने दोनों ओर के हमारे आब-ओ-दाने लील लिए हैं. नीड़ नष्ट कर दिए जाने का क्रंदन वातानुकूलित एसयूवी के अन्दर सुनाई नहीं देता. जेसीबी का दैत्य देखकर ही सिहरन पैदा होती है. और नया घर ? अब न अफोर्डेबल किराए पर मिल पा रहा है न खरीद पाने की हैसियत ही बची है. आसमान नीचे है, छत की कीमत उसके ऊपर. बेरिकेड्स की दीवारें जगह-जगह उग आई हैं. चीन की दीवार से बस एक इंच नीची इन दीवारों के उस ओर ही तो थे बाऊजी, मुँह में गंगाजल डलवाए बगैर चले गए. पास के मोहल्ले तक में न जाने पाने का दर्द किसी अभागे रहवासियों से पूछो. कभी निकला करते थे भगवन् अपनी आँखों से नगरवासियों का हाल जानने. तुम्हारी भीड़ के चलते अब वे मंदिर की चौखट से बाहर नहीं आ पा रहे, और हम हैं कि अन्दर नहीं जा पाते. बेबसी इधर भी है, बेबसी उधर भी. बेबसी अब और मत बढ़ाना. अतिथि, तुम मत आना.
सावधान, आगे पर्यटक सेल्फी ले रहे हैं. टू-व्हीलर में ब्रेक लगाईए और रुके रहिए. फोटो सेशन कब फिनिश होगा, कब हम दफ्तर पहुँच पाएंगे. खडूस बॉस का खौफ तुम क्या जानों अतिथि, आग उगलती निगाहों का सोचकर ही द्रव किडनी से तेज़ी से छूट जाने की मांग करने लगता है. यूरिनरी ब्लैडर फटना चाहता है और इस भीड़ में सड़क किनारे हलके हो पाना संभव नहीं. रिक्शे अपन के दाम में मिलते नहीं. लोकल सवारी को ऑटोवाले हेय दृष्टि से देखते हैं. उन्हें सिर्फ तुम्हारी दरकार होती है. चोरी के बेर मीठे लगते हैं कमीशन के बेर उससे अधिक मीठे. होटल में चेक-इन करा करा कर मीठे बेर का चस्का लग गया है. चारों ओर उग आए होटलों, सरायों, धर्मशालाओं, गेस्ट हाउसों के जंगलों में कोर-सिटी में भटक गई है. फिर, हमारे बच्चे कम पढ़े-लिखे हों, बड़े होकर तुम्हारा रिक्शा खींचे ऐसा कोई पाप तो उन्होंने किया नहीं है. तुम बड़ी संख्या में आते हो उनके स्कूलों की छुट्टी हो जाती है. हमारे बच्चों पर तरस खाना अतिथि, तुम मत आना.
हम जानते हैं तुम रुकनेवाले नहीं हो, आओगे और पुण्य कमाकर चले जाओगे. हम तुम्हारा छोड़ा कचरा बीनते रह जाएँगे. पुण्य सलिला तुम्हें पवित्र कर देगी और तुम उसे गंदला, इस कदर कि सदानीरा स्वयं के नीर का स्वयं आचमन नहीं कर पाए. तुम तो अपना परलोक सुधारकर निकल जाओगे अतिथि, हम अपने इहलोक का क्या करें!! तुम्हारी भीड़ में मोक्षदायिनी का मोक्ष गुम हो गया है. तुम क्या आए पीछे पीछे शहर में जेबकतरे, उचक्के, लुच्चे, उठाईगिरे चले आए हैं. इनसे बचाना अतिथि, तुम मत आना.
तुम्हारे आगमन ने अभिसार के एकांत उजाड़ने का अपराध किया है अतिथि. कुछ अंतरंग पल प्रियतमा के संग सुकून से गुजार सकें ऐसी सारी जगहें लील गए हो तुम. शब्-ए-मालवा का पुरसुकूं अहसास रफ्ता रफ्ता काफूर हो गया है. इस दयार में तन्हा न वादियाँ बचीं हैं न फ़िज़ाएँ. वे शहर खुशनसीब होते हैं जो पर्यटन के नक़्शे पर नहीं होते. ये सवाल बेमानी हो चला है अतिथि कि तुम कब जाओगे? अब तो तुमसे आगे और न आने की मिन्नतें बचीं हैं. हम पर मेहर होगी अतिथि, तुम मत आना.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना लॉगिन और लॉगाऊट ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 25 – लॉगिन और लॉगाऊट ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
रामस्वरूप के आंगन में पहले हमेशा चहल-पहल हुआ करती थी, लेकिन अब वह दौर भी बीत चुका था। 70 साल का रामस्वरूप, जो कभी बुद्धिजीवी कहलाता था, अब आंगन में चौकी पर बैठकर आसमान निहार रहा था। उसके पास उसका 25 साल का पोता गोपाल मोबाइल में आंखें गड़ाए बैठा था, उसकी उंगलियां तेजी से स्क्रीन पर चल रही थीं, मानो उंगलियों में ही पूरी दुनिया समा गई हो। इस बीच श्यामलाल, रामस्वरूप का पुराना दोस्त, कुर्सी खींचकर बगल में बैठ गया। दोनों दोस्त एक ही जमाने के थे, साथ-साथ जवानी बिताई और अब साथ-साथ बुढ़ापे का बोझ ढो रहे थे।
रामस्वरूप ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “अरे भाई, ये दुनिया कहां जा रही है? हमारे जमाने में आदमी काम करता था, अब तो मोबाइल सब काम कर रहा है। इंसान खत्म हो रहा है, सब कुछ डिजिटल हो गया है।” श्यामलाल हंस पड़ा और मजाकिया लहजे में बोला, “अरे यार! अब सब कुछ ‘वायरलेस’ हो गया है। अब आदमी के पास ताकत नहीं, डेटा पैक की मोल-तोल है। जितना बड़ा डेटा पैक, उतनी बड़ी जिंदगी।” रामस्वरूप उसकी बातों को गंभीरता से सुन रहा था और पास बैठे गोपाल ने मोबाइल से नजरें उठाकर बोला, “दादा, आप लोग पुराने जमाने की बातें करते हो। अब सब डिजिटल हो गया है, असली जिंदगी तो ऑनलाइन चलती है।”
रामस्वरूप ने हल्की हंसी दबाते हुए कहा, “हां, अब आदमी का दिल नहीं, ‘वाइ-फाइ’ धड़कता है। पहले लोग मिलते थे, अब ‘ब्लूटूथ’ से जुड़ते हैं।” गोपाल ने सिर हिलाया, जैसे वह इन बातों को सुनकर बोर हो गया हो। तभी मालती, जो अंदर से बर्तन उठा रही थी, बातों में शामिल हो गई। उसने कहा, “रामस्वरूप, लड़के की बात समझो। अब जमाना बदल गया है। अब सब कुछ ‘इंस्टेंट’ हो गया है। पहले चिट्ठियां लिखी जाती थीं, अब ‘वॉट्सऐप’ पर बात होती है। उंगली हिलाओ, और काम हो जाता है।”
श्यामलाल ने ठहाका मारते हुए कहा, “बिल्कुल सही! अब दिल नहीं टूटते, नेटवर्क टूटते हैं। प्यार ‘डेटा पैक’ पर चलता है और रिश्ते ‘वायरलेस’ हो गए हैं।” रामस्वरूप ने सिर हिलाया और गहरी सांस लेते हुए कहा, “पहले प्यार इंतजार करता था, अब ‘ब्लॉक’ करता है। पहले लोग असलियत में मिलते थे, अब चाय पर बातें नहीं, ‘फ्री डेटा’ पर जिंदगी कटती है। आदमी के पास प्यार के लिए वक्त नहीं है, पर ‘नेटफ्लिक्स’ के लिए जरूर है।”
गोपाल ने फिर से मोबाइल से नजर हटाकर जवाब दिया, “दादा, अब लोग ‘ऑफलाइन’ ही नहीं होते। अब ‘ऑफलाइन’ होने का मतलब है कि आप दुनिया से गायब हो गए।” रामस्वरूप ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां, अब आदमी ‘ऑफलाइन’ होते ही जंगल में खो जाता है। पहले जंगल थे, अब डिजिटल जाल है, जिसमें आदमी फंसता है।” श्यामलाल ने फिर से मजाक में कहा, “सच में, अब आदमी की जिंदगी ‘लॉगइन’ और ‘लॉगआउट’ के बीच ही रह गई है।”
रामस्वरूप ने गोपाल की तरफ देखा, जो एक बार फिर मोबाइल में डूब चुका था। उसने गोपाल से मोबाइल छीनते हुए कहा, “सुन बेटा, तुम लोग डिजिटल हो गए हो, लेकिन याद रखना, जब ये डिजिटल दुनिया टूटेगी, तब असली जिंदगी का एहसास होगा। उस दिन न डेटा पैक काम आएगा, न ‘लाइक’। असली खुशी तब होगी, जब तुम असलियत में किसी को छू सकोगे, महसूस कर सकोगे।” श्यामलाल ने रामस्वरूप की बात का समर्थन करते हुए कहा, “बिल्कुल यार, अब आदमी की खुशी ‘फिल्टर’ और ‘स्पैम’ के बीच कहीं खो गई है। जिंदगी एक ‘स्क्रीनशॉट’ बनकर रह गई है, जिसे कोई देखता भी नहीं।”
रामस्वरूप और श्यामलाल हंसते रहे, जबकि गोपाल फिर से मोबाइल में खो गया। मालती चाय लेकर आई, लेकिन किसी को उसे पीने की फुर्सत नहीं थी।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 260 ☆
☆ व्यंग्य ☆ जीवन और भोजन ☆
भोजन सभी जीवो के लिए ज़रूरी है। वन्य पशुओं में भोजन के लिए दिन रात मारकाट चलती है। चौबीस घंटे जीवन संकट में रहता है। मनुष्य भी भोजन से पोषक तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। समझदार कहते हैं कि बिना भोजन के आदमी का जीवन 35-40 दिन से आगे चलना मुश्किल है।
शुरू में आदमी गुफावासी था और भोजन के लिए उसे बाहर निकल कर पशुओं का शिकार करना पड़ता था। लेकिन वह अक्सर खुद भेड़ियों का शिकार हो जाता था, जो उस पर हमला करके तुरन्त उसका पेट फाड़ देते थे। यानी भोजन की तलाश में प्राण ही दांव पर लग जाते थे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ में इन स्थितियों का विशद वर्णन मिलता है।
आग का अविष्कार हुआ तो आदमी की ज़िन्दगी कुछ आसान हुई। हिंस्र पशुओं को आग से डरा कर दूर रखा जा सका और भोजन को पका कर कोमल और सुरक्षित बनाया जा सका। दांतों को कसरत और नुकसान से राहत मिली। इसके बाद धातुओं के अविष्कार से भोजन को काटना- छांटना सरल हुआ। कृषि और पशुपालन के साथ आदमी के जीवन में स्थिरता आयी और ख़ानाबदोशी में विराम लगा।
सामन्तों और राजाओं के उदय के साथ प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं को प्रसन्न करने के इरादे से यज्ञ शुरू हुए और इसके साथ पुरोहितों की भूमिका महत्वपूर्ण हुई। पुण्य कमाने के लिए ब्राह्मणों और अन्य नगरवासियों के भोज की व्यवस्था शुरू हुई। आनन्द और शोक के अवसर पर भोज देने के लिए नियम बने। हाल तक बड़े लोगों के शादी-ब्याह में पूरे गांव की पंगत होती थी। सड़क के किनारे ही आसन और पत्तल बिछ जाते थे। पानी के लिए लोग अपना-अपना लोटा या गिलास लेकर आते। रसूखदार लोगों के साथ उनके सेवक लोटा-गिलास लेकर चलते थे। जिन बिगड़े रईसों के पास सेवक नहीं होते थे वे किसी साधारण आदमी को उनका लोटा-गिलास लेकर चलने के लिए राज़ी करके अपनी इज़्ज़त बचाते थे।
धर्म के अनुसार तेरहीं पर भोज देना भी अनिवार्य था, अत: कई बार मृतक की तेरहीं के साथ जीवितों की भी तेरहीं हो जाती थी। आदमी अब इन कर्मकांडों से मुक्ति के लिए छटपटाता है, लेकिन समाज का दबाव और अदृश्य का भय उसे मुक्ति से दूर रखता है।
धर्म और जाति आये तो ‘रोटी-बेटी’ का परहेज़ भी आया। जिन्हें नीची जाति कहा जाता है उनकी उप-जातियों में भी रोटी-बेटी के संबंध में अड़चन आती है। विडंबना यह है कि मुफ्त में मिली श्रेष्ठता पर लोग गर्व करते हैं। अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के कारण ये परहेज़ टूट रहे हैं, लेकिन उन्हें पोसने और पुष्ट करने वाली शक्तियां भी पूरी तरह सक्रिय हैं।
जल्दी ही आदमी की समझ में आ गया कि भोजन महज़ पेट भरने की चीज़ नहीं है। उससे पुण्य प्राप्ति के अतिरिक्त बहुत से काम साधे जा सकते हैं। अब संबंध बनाने और बढ़ाने के लिए भोजन का उपयोग किया जाने लगा। लोगों को भरोसा है कि जो नमक खाएगा वह नमक का ऋण ज़रूर चुकाएगा। राणा प्रताप के राजा मानसिंह से संबंध इसलिए दरक गये थे क्योंकि उन्होंने मानसिंह के साथ भोजन पर बैठने से इनकार कर दिया था।
भोजन का उपयोग रोब-दाब के लिए भी होता है। पैसे वाले ब्याह-शादी में भोजन में इतनी विविधता रखते हैं कि आमंत्रितों की आंखें चौंधया जाती हैं । व्यंजनों के दर्शन करते ही मन अघा जाता है।
राजनीतिक पार्टियों ने भी राजनीति के लिए भोजन का महत्व समझ लिया है। इसीलिए 80 करोड़ लोगों को प्रति माह 5 किलो अनाज मुफ्त प्राप्त हो रहा है। कई राज्यों में सस्ते भोजनालय खोले जा रहे हैं।
एक नयी प्रवृत्ति यह पैदा हुई है कि बड़े-बड़े नेता गरीबों के घर में बैठकर भोजन करने लगे हैं। इस बहाने गरीब के घर की सफाई और रंगाई- पुताई हो जाती है। कई बार भोजन होटलों से मंगवा लिया जाता है, गरीब के घर में सिर्फ बैठकर फोटो खिंचाने का काम होता है। जनता अपने नेताओं के इस ढोंग को देखकर अपना भाग्य सराहती है।
कवि ‘धूमिल’ की प्रसिद्ध कविता के अनुसार रोटी बेलने वालों और रोटी खाने वालों के बरक्स एक और वर्ग है जो रोटी से खेलता है। यह तीसरा वर्ग कौन है, इस प्रश्न का जवाब संसद से भी नहीं मिलता।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हैदराबादी कुर्सी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 24 – हैदराबादी कुर्सी☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
अरे भाई, अपने शहर हैदराबाद की बात ही निराली है। यहाँ की गली-गली में जो बयार बहती है, वो क्या कहें! अब देखिए, दिल्ली में कभी कोई तैमूर, तो कभी चंगेज खाँ आए, वहाँ से लेकर यहां तक बड़े-बड़े लोग आए, लूट कर चले गए। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात सब उठा ले गए, लेकिन हमारे हैदराबाद का वो ‘सिंहासन’, मतलब यहाँ के कल्चर का कोई जवाब नहीं मिला उनको। वो सिंहासन जो कि रिवायत और इज़्ज़त का हिस्सा था, वो यहाँ की हवा में ही रचा-बसा है।
अब बात करें सिंहासन की, तो आजकल वो कुर्सी बन गया है। पहले राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते थे, और शेर की तरह दहाड़ते थे, अब ये कुर्सी वाले भी कम नहीं हैं। कुर्सी पर बैठते ही बंदा खुद को असली शेर समझने लगता है। कुर्सी का अंग्रेजी नाम ‘चेयर’ है, जो अंग्रेजों की देन है। वैसे, उन्होंने हमें रंगरेज बना दिया, हर चीज़ में अपने रंग भर दिए। अब ये ‘चेयर’ असल में ‘चीयर’ से निकला है, जो उनके दोस्त-चमचों ने कुर्सी पर बैठने वाले पहले हिन्दुस्तानी को चियर-चियर करके इतना चीयर किया कि वो चेयर हो गया।
अब भाई, हम भी एक रिसर्च करने लगे थे, टॉपिक था ‘सिंहासन से कुर्सी तक – एक नज़र’। इसके लिए हमने किसी प्रोफेसर को गाइड नहीं बनाया, सीधे हमारे शहर के एक मंत्री साहब को गाइड बना लिया। उनकी एक खासियत थी – जब तक मंत्री रहे, उनका मुँह हमेशा टेढ़ा रहता था। सीधे मुँह बात कभी की ही नहीं। मुँह से सीधे शब्द भी निकलते थे, तो टेढ़े हो जाते थे। जैसे ही कुर्सी छूट गई, मुँह एकदम सीधा हो गया। फिर सोचा कि भाई, गलती मंत्री जी की नहीं, बल्कि कुर्सी की है।
एक दिन हम मेगनीफाइंग ग्लास लेकर मंत्री जी की कुर्सी का मुआयना करने लगे। वहाँ हमें छोटे-छोटे खटमल जैसे जीव मिले, जो सिर्फ वीआईपी लोगों की कुर्सियों में पनपते हैं। ये जीव, मंत्री साहब के साथ उनके बंगले तक चले आते थे और वहाँ जाकर अपनी जनसंख्या बढ़ा लेते थे। ये जीव परिवार नियोजन के सख्त खिलाफ थे। जो भी इन कुर्सियों पर ज्यादा समय तक बैठता, उसका मुँह भी टेढ़ा हो जाता। वजह ये कि ये जीव कुर्सीधारी के खून में से जनसेवा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, और काम के प्रति निष्ठा के कीटाणु चूस लेते हैं, और बदले में अहंकार, चालाकी, और वाक् पटुता के कीटाणु भर देते हैं। कुछ ही दिनों में कुर्सीधारी में बदलाव दिखने लगता है, और उसे इन जीवों से कटवाने का ऐसा नशा हो जाता है कि बिना इनके काटे एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल हो जाता है।
अब हमारे हैदराबाद में एक बड़े ही नेक जनसेवक हैं। सोते-जागते जनसेवा करना उनकी आदत है। कांधे पर झोला लटकाए, और झोले में हर किस्म की चीजें ठूंसे हुए, बिना किसी स्वार्थ के लोगों की मदद करते हैं। उनकी निःस्वार्थ सेवा को देखते हुए शहर के कुछ बड़े लोग सोचने लगे कि इन्हें विधानसभा में होना चाहिए ताकि ये और अच्छी तरह से सेवा कर सकें। सो 67 में उन्हें जबरदस्ती एमएलए बना दिया गया। कुछ दिन कुर्सी पर बैठने के बाद ये जनसेवक भी कुर्सी के जीवों के असर में आ गए। अब हाल ये है कि कुर्सी के बिना उनका नशा पूरा ही नहीं होता। एक साथ तीन-तीन कुर्सियों पर बैठे रहते हैं, और हमेशा ऐसी कुर्सी की तलाश में रहते हैं जिसमें ज्यादा जीव बसते हों। सुना है कि एक खास मंत्रालय की कुर्सी में ये जीव भर-भर के होते हैं, तो अब जनाब उसी कुर्सी के पीछे पागलों की तरह दौड़ते फिर रहे हैं।
इससे सेठ लोग बहुत समझदार होते हैं। उन्हें पता है कि कुर्सी का नशा नुकसानदेह होता है। इसलिए उनकी दुकानों में कुर्सियों की जगह तख्त होते हैं, और उन पर मोटे गद्दे और तकिए रखते हैं। सेठ हमेशा सीधे मुँह बातें करता है, दाँत निपोरे रहता है, और इतनी दीनता दिखाता है कि तोंद के नीचे उसका सिर ही नहीं दिखता।
तो भाई, हैदराबाद की कुर्सी का मिजाज ऐसा है कि उस पर बैठते ही आदमी को अपने अहम का पूरा एहसास हो जाता है। ये कुर्सी धर्म, जाति, सब में बराबर है। चाहे कोई भी धर्म मानने वाला हो, कुर्सी उसे अपनाने में एक पल भी नहीं लगाती। आखिर, कुर्सी के जोड़ों में जो जीव बसे हैं, वो जानते हैं कि खून तो हर धर्म का लाल ही होता है, और उन्हें हर धर्म के लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, और जनसेवा का खून चाहिए, जिससे वे खुद को तंदुरुस्त रख सकें।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 259 ☆
☆ व्यंग्य ☆ मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान ☆
मिट्ठू बाबू रात को आठ बजे के बाद ‘एन. ए.’ यानी अनुपलब्ध हो जाते हैं। आठ बजे के बाद वे भोजन की ‘तैयारी’ में लग जाते हैं, अर्थात क्षुधा जागृत करने के लिए जो तरल पदार्थ वे नियम से लेते हैं, उसे लेकर इत्मीनान की मुद्रा में बैठ जाते हैं। पत्नी को स्थायी निर्देश प्राप्त है कि आठ बजे के बाद कोई अपरिचित आये तो कह दिया जाए कि वे नहीं हैं, और अगर कोई परिचित हो तो सीधे उनके कमरे में भेज दिया जाए। एक बार पेय पदार्थ सामने आ जाने के बाद आसन छोड़ने से रस भंग हो जाता है।
मिट्ठू बाबू मुझ पर कृपालु हैं। सीधे उनके कमरे तक पहुंचने का स्थायी परमिट मुझे प्राप्त है। मुझे देखकर वे प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें दुख बस यही रहता है कि मैं मदिरा-सेवन में उनका साथ नहीं देता। बस, बैठा बैठा मूंगफली के दाने या नमकीन टूंगता रहता हूं। उन्हें सुख यही रहता है कि मैं तन्मयता से उनकी बात सुनता रहता हूं। मदिरा- प्रेमी को उसकी बकवास सुनने के लिए कोई धैर्यवान श्रोता मिल जाए तो उसका मज़ा दुगुना हो जाता है।
मिट्ठू बाबू के सामने रखी अंग्रेजी शराब की बोतल को देखकर मैं कहता हूं , ‘मिट्ठू बाबू , यह तो बड़ी मंहगी होगी।’
मिट्ठू बाबू लापरवाही से जवाब देते हैं, ‘ज्यादा मंहगी नहीं है। दो सौ की है।’
मेरी आंखें कपार पर चढ़ जाती हैं। विस्मय से कहता हूं, ‘दो सौ रुपये ?’
मिट्ठू बाबू हंस कर जवाब देते हैं, ‘और नहीं तो क्या दो सौ पैसे? अरिस्टोक्रैट है।’
थोड़ी देर में नशे के असर में मिट्ठू बाबू नाना प्रकार का मुख बनाते हुए कहते हैं, ‘भाई देखो, कमाई जैसी हो वैसी खर्च करना चाहिए। दफ्तर में मैं किसी से कुछ मांगता नहीं। लोग अपने आप जेब में रकम खोंसते जाते हैं। शाम तक हजार दो हजार इकट्ठे हो ही जाते हैं। अब भैया, अपन मानते हैं कि इस तरह की कमाई ज्यादा दिन टिकती नहीं, इसलिए इसको तुरत फुरत खर्च करना चाहिए। बस मस्त रहो और मौज करो। दुनिया की ऐसी तैसी।’
मैं उनमें से हूं जिनकी ऐसी तैसी हो रही है, इसलिए श्रद्धा भाव से बैठा उनका भाषण सुनता रहता हूं।
मैं मिट्ठू बाबू से पूछता हूं, ‘मिट्ठू बाबू, यह एक बोतल आपको कितने दिन खटाती है?’
मिट्ठू बाबू झूमते हुए कहते हैं, ‘अकेले को दो दिन, और कोई यार मिल गया तो एक ही दिन में खलास।’
मैं भकुआ सा कहता हूं, ‘यानी सौ रुपये रोज?’
मिट्ठू बाबू मुंह पर चिड़चिड़ाहट का भाव लाकर कहते हैं, ‘यार, हिसाब किताब की बातें करके मजा खराब मत करो। जिन्दगी मौज- मस्ती के लिए है। मौज-मस्ती के बिना पैसा किस काम का? मैं पैसे को मिट्टी से ज्यादा नहीं समझता।’
उनका दर्शन मेरे काम का नहीं है क्योंकि अपने हाथ बिल्कुल साफ रहते हैं। पैसा नाम की जो मिट्टी है वह इतनी देर हाथ में रुकती ही नहीं कि हाथ गन्दा हो।
मिट्ठू बाबू गर्दन एक तरफ लटका कर, आंखें मींचे कहते हैं, ‘देखो भई, जिन्दगी चार दिन की है। साथ कुछ नहीं जाना। इसलिए पैसा जोड़कर क्या करना है? सकल पदारथ हैं जग माहीं। संसार की वस्तुओं का भोग करना चाहिए और बेफिक्र होकर रहना चाहिए।’
ऐसा तत्वज्ञान मैं कई बार इसी तरह के लोगों से प्राप्त कर चुका हूं जिनकी जेब में ऊपरी कमाई के दो चार हजार रुपये रोज अपने आप चले आते हैं। ऐसे लोग बड़े तत्वज्ञानी होते हैं क्योंकि वे सांसारिक चिन्ताओं से ऊपर उठ जाते हैं। उनके प्रवचन सुनने के लिए बच जाते हैं मुझ जैसे मूढ़ लोग जिनकी ऊपरी कमाई नहीं होती।
सामने रंगीन टीवी चालू रहता है। मैं कहता हूं, ‘मिट्ठू बाबू ,यह देखो, सीरिया में कैसी मार-काट मची है।’
मिट्ठू बाबू मुश्किल से अपनी आंखें खोलते हैं, एक नज़र टीवी पर डालकर ठंडी सांस भरकर कहते हैं, ‘कैसा जीना और कैसा मरना। जीवन खुद माया है। दूसरों के लिए दुखी होने से कोई फायदा नहीं।’
मैं उन्हें चैन से बैठने नहीं देता। एक मिनट बाद ही कहता हूं, ‘यै बर्मा वाले आपस में ही एक दूसरे को मार रहे हैं।’
मिट्ठू बाबू फिर मुश्किल से आंखें खोल कर कहते हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस बिधि हाथ।’
मुश्किल यह होती है कि मैं नशे में नहीं होता, इसलिए ज़मीन की बातें ही करता हूं। थोड़ी देर बाद फिर कहता हूं , ‘अपने देश की हालत कम खराब नहीं है, मिट्ठू बाबू। उड़ीसा में भुखमरी के मारे लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं।’
मिट्ठू बाबू का शान्त मुखड़ा विकृत हो जाता है। रिमोट उठा कर टीवी बन्द कर देते हैं, फिर कहते हैं, ‘भैया, लगता है तुम मेरा नशा उतारने की सोच कर आये हो। अपन टीवी मनोरंजन के लिए देखते हैं, रोने के लिए नहीं। दुनिया में किस-किस के लिए रोयें? बोर करके हमारी शाम खराब मत करो। इसीलिए कहता हूं कि थोड़ी सी ले लिया करो, इन आलतू-फालतू बातों की तरफ ध्यान ही नहीं जाएगा।’
मैं कहता हूं, ‘मिट्ठू बाबू ,लेने लगूंगा तो बीवी झाड़ू मार कर घर से निकाल देगी।’
मिट्ठू बाबू नशे में ‘ही ही’ हंसते हैं। कहते हैं, ‘तुम रहे भोंदू के भोंदू। जरा मेरा जलवा देखो।’
फिर रौब से चिल्लाते हैं, ‘कहां हो जी?’
उनकी पत्नी अवतरित होती हैं। मिट्ठू बाबू लटपटाती आवाज़ में डपटते हैं, ‘जरा आकर देख नहीं सकतीं क्या? ये घंटे भर से बैठे हैं। चाय नहीं भेज सकतीं?’
पत्नी दबे स्वर में ‘अभी लाती हूं ‘ कहकर विदा हो जाती हैं।
मिट्ठू बाबू ओंठ फैला कर कहते हैं, ‘देखा? मजाल है जो कोई चूं कर ले। घर में शेर की तरह रहना चाहिए।’
मैं मिट्ठू बाबू को उनकी मर्दानगी के लिए दाद देता हूं।
कुछ ऐसा हुआ कि दो-तीन महीने मिट्ठू बाबू से भेंट नहीं कर पाया। इस बीच सुना कि दफ्तर में उनकी शिकायतें हुईं जिसके फलस्वरूप उन्हें ऐसे सूखे विभाग में स्थानान्तरित कर दिया गया जहां उल्लुओं और चमगादड़ों का साम्राज्य है। पान भी अपनी गांठ से खाना पड़ता है। सुना कि मिट्ठू बाबू भारी कष्टों से गुज़र रहे हैं।
एक दिन उनके घर पहुंचा तो वे मातमी मुद्रा में सिर लटकाये बैठे थे। बोतल गायब थी। पहले मलूकदास की तत्वज्ञानी मुद्रा में पांव कुर्सी पर धरे बैठते थे। आज पांव ठोस ज़मीन पर थे और चेहरा विशुद्ध दुनियादार जैसा था।
मैंने पूछा, ‘क्या हाल है?’
उन्होंने मरी आवाज़ में उत्तर दिया, ‘हाल क्या बतायें! किसी ने झूठी शिकायत कर दी और मुझे पटक दिया सड़ियल विभाग में। मेरा तो दुनिया पर से भरोसा ही उठ गया।’
मैंने कहा, ‘फिकर मत करो, मिट्ठू बाबू। सब ठीक हो जाएगा। बोतल कहां गयी?’
मिट्ठू बाबू बोले, ‘अरे भैया, बोतल दो सौ की आती है। इतने पैसे कहां से लाएं? कभी ले भी आते हैं तो दाम याद आते ही आधा नशा उतर जाता है। बीवी अलग खाने को दौड़ती है। बोतल देखते ही चंडी बन जाती है।’
मैंने कहा, ‘क्या बात करते हो यार! तुम्हारा रौब-दाब कहां गया?’
मिट्ठू बाबू आह भर कर बोले, ‘ऊपरी आमदनी खत्म होते ही रौब-दाब की कमर टूट गयी। जो आदमी गिरस्ती न चला सके उसका रौब-दाब कैसा? जो देखो वही चार बातें सुना कर जाता है।’
फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘बाजार का यह हाल है कि गेहूं पच्चीस रुपये किलो बिक रहा है।’
मैंने कहा, ‘यह भाव तो कई साल से चल रहा है।’
वे बोले, ‘मुझे पता नहीं था। किराने वाले के यहां से आ जाता था, मैं भाव-ताव देखता ही नहीं था। बीवी को पैसे दे देता था। अब बहुत दिन बाद भाव-ताव देख रहा हूं तो तबीयत बहुत परेशान रहती है।’
मैं चलने को उठा तो वे बोले, ‘रुको। तुम्हारे साथ मन्दिर तक चलता हूं। आजकल नियम से मन्दिर जाता हूं। सोचता हूं अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे।’
तभी भीतर से उनकी पत्नी निकलीं। तेज स्वर में बोलीं, ‘कहां जा रहे हो?’
मिट्ठू बाबू मिमिया कर बोले, ‘बस यहीं मन्दिर तक। अभी आता हूं।’
वे उसी स्वर में बोलीं, ‘कहीं इधर-उधर बोतल खोलकर मत बैठ जाना, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा।’
मिट्ठू बाबू कानों को हाथ लगाकर बोले, ‘अरे राम राम। कैसी बातें कर रही हो। बोतल के लिए पैसे किसके पास हैं? बस मैं अभी गया और अभी आया।’
पत्नी मुड़कर भीतर चली गयीं और वे चेहरे पर बड़ी बेचारगी का भाव लिये मेरे साथ बाहर आ गये।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 23 – चबूतरी का चक्कर☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
अरे भाई, किस्सा ऐसा है कि गाँव का चौधरी हमेशा अपनी चाल में बड़े गुमान से रहता था। उसका तो बस ये मानना था कि जो वो कहे, वही सही। एक दिन चौधरी अपने चौपाल पे बैठा था, गाल पे हाथ धरे, जब एकाएक गाँव में हड़कंप मच गया। खबर आई कि चौधरी ने जो नई बनाई थी बड़ी-बड़ी चबूतरी (गाँव की बैठकें), वो सब धड़ाम से गिर गई।
एक चेला दौड़ता-भागता चौधरी के पास पहुंचा। बोला, “चौधरी साब, आपने जो चबूतरी बनवाई थी, वो सब गिर गई।”
चौधरी की आँखें फैल गईं, “के कह सै रे?”
“हाँ चौधरी साब, बिलकुल सही कह रह्या हूँ, चबूतरी टूट कर जमीन पे बिखरी पड़ी हैं।”
चौधरी जो हमेशा दूसरों पे धौंस जमाने का आदी था, अब खुद पे आई तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उसने चेला को घूरते हुए कहा, “के तू झूठ बोल रा सै? झूठी बात निकली तो तेरा बंटाधार हो जाएगा!”
चेला ने सिर झुकाए हुए कहा, “चौधरी साब, अगर मेरी बात झूठ निकली, तो मुझे आप गाँव के चौराहे पे उल्टा लटका देना।”
चौधरी एक पल के लिए सोच में पड़ गया। खुद भी तो ऐसे ही डायलॉग मारने का शौक रखता था। पर इस बार मामला सच्चा था। उसने फिर चेले से पूछा, “तू अपनी आँखों से देखी सै ये बात?”
चेला बोला, “हाँ जी चौधरी साब। कोई चबूतरी की दीवार ढह गई सै, किसी की छत नीचे आ गिरी सै, और एक तो पूरी की पूरी चबूतरी मिट्टी में मिल गई सै।”
चौधरी का मुँह सूख गया। उसने जल्दी से गाँव के ठेकेदार को बुलाया और चबूतरियों के गिरने की जांच के आदेश दे दिए।
ठेकेदार ने तुरंत एक कमेटी बना दी, जिसमें मिस्त्री से लेकर मजदूर तक सबको डाल दिया। मिस्त्री ने कहा, “किस बात का रोना कर रा सै भाई? चबूतरियां तो पक्की थी, बस मिट्टी थोड़ी कमजोर थी। चबूतरी फिर से बनवा देंगे, जब तक साँस है, तब तक चबूतरी बनेगी।”
आखिरकार, जांच की रिपोर्ट भी आ गई। जांच कमेटी ने माना कि चबूतरियां तो ठीक थी, पर जमीन ने धोखा दे दिया। असली कसूर तो जमीन का सै, चबूतरी बनाने वाले निर्दोष हैं। और जो पैसा लगाया गया था, वो तो बिल्कुल जायज था। कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ। और ये भी हो सकता सै कि विरोधी पार्टी ने ही जमीन को कमज़ोर कर दिया हो।
रिपोर्ट पढ़कर चौधरी मियां खुश हो गया, क्योंकि वो जानता था कि ऐसी ही रिपोर्ट आएगी। अगर भ्रष्टाचार का पता चलता, तो उसका नाम मिट्टी में मिल जाता।
अगले दिन चौधरी ने पूरे गाँव में ऐलान करवा दिया कि चबूतरियां गिरने का असली गुनहगार जमीन है। उसने जमीन को दुरुस्त करने के आदेश दिए और नए चबूतरी बनाने का काम शुरू करा दिया। अब ठेकेदार और मिस्त्री फिर से हाथों में नया काम देख कर खुश हो गए। नई चबूतरियों के लिए फिर से गाँव का खजाना खुल गया।
और भाई, चौधरी की चालें भले ही तिरछी हों, पर उसकी किस्मत हमेशा सीधी रही। इस खेल में सबकी चाँदी हो गई, बस गाँव वालों की मुश्किलें फिर वहीँ की वहीँ रह गईं।