हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 146 ☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका कीhttps://www.e-abhivyakti.com/wp-admin/post.php?post=53412&action=edit# प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “श्रद्धा लभते ज्ञानम्…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 146 ☆

☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्

जब कोई वस्तु या व्यक्ति हमारी कल्पना के अनुरूप होता है, तो अनायास ही उसकी हम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं। मानव की यह प्रवृत्ति तब घातक सिद्ध होने लगती है,जब यह एक तरफा होकर, जुनून की हद तक बढ़ जाए, इस समय मनुष्य, विवेक से अंधा होकर सही गलत का फर्क भूल जाता है और मन में वांछित पाने की चाहत और बलवती हो जाती है।

वनवास के दौरान माता सीता भी स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षित हुईं जबकि वो ये जानती थीं कि ऐसा होना संभव नहीं है और तो और भगवान श्री राम भी उनकी इच्छा पूरी करने के लिए चल दिये। ये सब आकर्षण का माया जाल है जिसके प्रभाव से बड़े – बड़े संत महात्मा भी नहीं बच सके।

लगभग सभी जीव जंतु स्नेह की भाषा समझते हैं। खासकर मनुष्य जो ईश्वर की अनुपम कृति है वो हमेशा सुखद वातावरण ही चाहता है। ये बात अलग है कुछ लोग परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं तो वहीं कुछ संघर्ष कर विजेता के रूप में सबके प्रेरक बनते हैं। कहा जाता है- श्रद्धा लभते ज्ञानम्। सही है जब हमारी  सोच विकसित होगी तभी श्रद्धा, विश्वास और धैर्य पनपेंगे। क्या आपने कभी सोचा कि हममें से अधिकांश लोग सकारात्मक पोस्ट ही क्यों पढ़ते हैं व शेयर करते हैं ?

 कारण साफ है, हर व्यक्ति मानसिक सुकून चाहता है। जैसी संगत होगी वैसा ही हमारा स्वभाव बनने लगता है अतः केवल अच्छाई से जुड़ते हुए आगे बढ़ते चलें, परिणाम सुखद होगा।

अधिकतर लोग पैसे के लिए हाय- हाय करते दिखते हैं, पूरी उम्र बीत जाने के बाद भी वही ढाक के तीन पात। कारण साफ है कि आप ने अपने कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं किया अन्यथा आपको पैसे की तलाश में भटकना नहीं पड़ता।

यहाँ पर भी श्रद्धा आपकी सहेली बन आत्मविश्वास बढ़ाने का कार्य खूबसूरती से करेगी। अपने अंदर हुनर पैदा करें और उसे तराशने में पूरे मनोयोग से जुट जाएँ। देखते ही देखते कई राहें आपके सामने होगीं और कार्य से अधिक का परिणाम अवश्य मिलेगा। बस बोले नहीं कार्य करें क्योंकि कार्य जब बोलेंगे तभी शुभ फल मिलेंगे और कर्म ,धर्म व मर्म सभी आप के अनुसार चलने लग जायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 145 ☆ जीवन परिक्रमा पथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जीवन परिक्रमा पथ…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 145 ☆

☆ जीवन परिक्रमा पथ

बला या बलाएँ जो टाले नहीं टल रहीं हैं। बिना दिमाग के जब कोई कार्य किए जाते हैं तो उनके परिणाम न केवल करने वाले को वरन उनसे जुड़े लोगों को भी परेशान कर देते हैं। हैरानी की बात तो तब होती है जब बातचीत  के मुद्दे ढूंढने के चक्कर में हम गलतियों पर गलती करते जाते हैं। कहते हैं समय का पहिया गतिमान रहता है, जो इसके साथ कदमताल मिलाते हुए स्वयं को विकसित करता जाता है वो अपना दबदबा बना लेता है। जो भी कार्य करें उसमें आपकी पहचान सबसे अलग तभी होगी जब उसमें शतप्रतिशत परिश्रम लगाया जाएगा। जैसी करनी वैसी भरनी के अनेकों उदाहरण जगत में मिलते हैं किंतु हम सब इन बातों से बेखबर अपने पूर्वाग्रह को ही प्राथमिकता देते हैं। सही गलत को एक ही तराजू में रखने की गलती करने वालों को भगवान कभी माफ नहीं करते। सच के साथ स्वयं की शक्ति अपने आप जुड़ने लगती है जिससे राह और राही उसके साथ खड़े नजर आते हैं।

जीवन पथ पर चलते हुए हमें केंद्र बिंदु की ओर निहारने के साथ ही ये भी ध्यान रखना होगा कि जिस बिन्दु से हमने चलना प्रारंभ किया है, एक निर्धारित समय बाद पुनः यहीं आना होगा। बस हम कुछ कर सकते हैं तो वो यही होगा कि स्वयं को पहले की तुलना में श्रेष्ठ बना लें। हर दिन जब नया सीखते चलेंगे तो आने वाले पलों को सुखद होने से कोई नहीं रोक पायेगा।

दिमागी उथल- पुथल से कुछ नहीं होगा, कार्यों को शुरू कीजिए और तब तक करते रहें जब तक मंजिल आपके कदमों में न आ जाए। लक्ष्य को साधना कोई साधारण कार्य नहीं होता है। जो तय करें उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही सच्चे साधक का कार्य होता है।

पटाखे की लड़ी को फूटते हुए देखकर एक बात समझ में आती है कि एक साथ जुड़े हुए लोग एक जैसे परिणाम भोगते है। इसीलिए तो कहा गया है कि संगत सोच समझ के करें, आप जिनके संपर्क में रहेंगे वैसे बनते  चले जायेंगे।

आइए सकारात्मक विचारों के पोषक बनें, सर्वे भवन्तु सुखिनः की ओर अग्रसर होकर अच्छे लोगों का सानिध्य प्राप्त करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ चिंतन शिविर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य- “चिंतन शिविर।)  

? अभी अभी ⇒ चिंतन शिविर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

शिविर के वैसे तो कई अर्थ होते हैं, अस्थायी कैंप, डेरा, पड़ाव टैंट, छावनी, और अड्डा। कालांतर में छावनी, डेरा और अड्डा स्थायी हो जाते हैं। दिल्ली में डेरा काले खां भी स्थायी है और सराय रोहिल्ला भी। हमारे शहर में भी बहुत पुराना जूनी इंदौर गाड़ी अड्डा है। और छावनी की तो बस पूछिए ही मत ! अंग्रेज़ चले गए, छावनी छोड़ गए।

 जिस स्थान पर चिंतन किया जा सके, उसे चिंतन शिविर कहा जा सकता है। चिंतन हमारे नियमित जीवन का प्रमुख अंग है।  सुबह उठते ही सबसे पहले जो कर्म होता है, उसे नित्य कर्म कहते हैं। जो मुक्त चिंतन के आदी होते हैं, वे सदियों से खुले में शौच करते आ रहे हैं। युग बदलेगा, सोच बदलेगा।

युग भी बदला, शौच का तरीका भी बदला। शांतता, घर घर चिंतन शिविर, नई सोच, खुलकर शौच। बद्ध मल से कोई बुद्ध नहीं बनता।।

जो संबंध चिंतन का चिंतन शिविर से है, वही संबंध सोच का शौच से है। जिनका संकीर्ण सोच होता है, उन्हें कब्जियत होती है। उनके लिए दुनिया गोल नहीं, ईसबगोल है। जिन्हें अधिक फिक्र होती है, वे पहले फिक्र को धुएं में उड़ाते हैं, लेकिन फिर भी बात नहीं बनती। गुटका, चाय और डाबर का लाल मंजन, सब बेकार, महज मनोरंजन।

शौच, सोच का नहीं, कर्म का विषय है। सकारात्मक सोच का परिणाम भी सकारात्मक ही निकलता है। एक अच्छी शुरुआत से आधा काम हो जाता है।

A good start is half done. शेक्सपियर ने भी तो यही कहा है ; All is well that ends well.

अंत भला सो सब भला।।

कुछ लोगों के लिए यह चिंतन शिविर युद्ध शिविर से कम नहीं होता। हम तो जब भी शिविर में जाते थे, यही कहकर जाते थे, पाकिस्तान जा रहे हैं।

इधर सर्जिकल स्ट्राइक, उधर हमारी फतह। बड़ी कोफ़्त होती थी, जिस दिन युद्ध विराम की घोषणा हो जाती थी। सब करे कराए पर पानी फिर जाता था।

वाचनालय तो खैर वह पहले से ही था, जब अखबार घर में कहीं नज़र नहीं आता था, तो घर के सदस्य समझ जाते थे, जब तक कोई हल नहीं निकलेगा, अखबार बाहर नहीं आएगा। हमारा  चिंतन शिविर तो एक तरह का अध्ययन कक्ष ही बन गया था। घर पोच वाचनालय की तरह, जासूसी उपन्यास वहां आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। बस सस्पेंस के बाद क्लाइमैक्स का इंतजार रहता था।।

आजकल चिंतन शिविर अत्यधिक आधुनिक हो गए हैं। सृजन और विसर्जन दोनों का कार्य यहां बड़ी कुशलतापूर्वक संपन्न होता है। लेकिन जितना शौच को सुलभ बनाने की कोशिश की जा रही है, उतनी ही लोगों की सोच बिगड़ती जा रही है।

चिंतन शिविर का मुख्य उद्देश्य निरोगी काया और निर्मल मन ही तो है। केवल शौचालय ही नहीं, अपनी सोच भी बदलें। आपके विचारों से आपके चिंतन शिविर की बू नहीं, खुशबू आना चाहिए।

चिंतक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 208 ☆ व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 208 ☆  

? व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा ?

वे सारे लोग झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है। अपनी उम्र सीनियर सिटीजन वाली हो चुकी है, पर वयस्क होते ही वोटिंग राइट्स के साथ उठा सवाल कि चूं चूं का मुरब्बा वाले मुहावरे का अर्थ, आखिर क्या होता है ? राज का राज ही रहा। बस यही लगा कि चूं चूं का मुरब्बा किसी बेहद भद्दे, बेमेल मिश्रण को कहते हैं . मसलन  कश्मीरी दम आलू में कोई कच्चा कद्दू मिला दे, या  रबड़ी-मलाई में प्याज-लहसुन का तड़का लगा दिया जाए, तो जो कुछ बनाता हो शायद वैसा होता होगा चूं चूं का मुरब्बा। शादी हुई तो जीवन का सारा भार रसोई शास्त्र ही नही हरफन मौला मैने तो पहले ही बता दिया था, या मैं तो जानती थी कि यही होगा जैसे जुमले जब तब उछालने में निपुण पत्नी से इस रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी जी ने भी मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूंचूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काट ले,नमक लगाकर चांदनी रात में दो रात तक सूखा ले। चीनी की चाशनी एक तार की तैयार कर चांदनी में सूखे चूंचूं डाल कर ऊपर से जीरा पाउडर डालें। फिर अगली आठ रातों को पुनः आठ आठ घंटे चांदनी रात में रखे।

आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने के लिए तैयार हो जाता है। रेसिपी मिल जाने के बाद से मेरी समस्या बदल गई अब मैं चूं चूं कहा से लाऊं, देश विदेश, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपशास्त्रों के अध्ययन, नौकरी की अफसरों के आदेशों, मातहतों  की फाइलों को पढ़ा समझा पर चूं चूं को समझ ही नही पाया।

थोड़े बहुत बाल सफेद भी हो गए हैं, मिली-जुली सरकारें देखी, चौदह के, उन्नीस के परिवर्तन देखे, अब पक्ष विपक्ष की चौबीस की तैयारी देख कर मन में संशय उभरता है कि जिस प्रकार उसूल की घरेलू गौरय्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है। कहीं कभी इतिहास में इसी तरह  सत्ता का स्वाद चखने के लिए राजाओं, बादशाहों की लड़ाइयों में उन शौकीन सियासतदानों ने कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो गई है। अस्तु अपनी खोज जारी है। आपको चूं चूं मिले तो जरूर बताइए, मेरे चूं चूं के मुरब्बे वाले यक्ष प्रश्न को अनुत्तर रहने से बचाने में मदद कीजिए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ व्यंग्य – जीवन बीमा पर जीएसटी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “जीवन बीमा पर जीएसटी”।)  

? अभी अभी ⇒ व्यंग्य – जीवन बीमा पर जीएसटी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आय, बचत और कर, यही एक नौकरपेशा व्यक्ति का धर्म है, ईमान है। न वह अपनी आय बढ़ा सकता, न ही बचत बढ़ा सकता, और न ही करभार से मुक्त हो सकता। वह देश की व्यवस्था में जुता हुआ एक बैल है, जिसकी आँख पर पट्टी पड़ी है। वह फिर भी एक अच्छे भविष्य के सपने देखता है। हर माह अपनी आय में से कुछ पैसे जीवन बीमा के लिए सुरक्षित छोड़ देता है।

हर माह एक सीमित वेतन ले जाने वाला वेतनभोगी मार्च के पहले से ही एनएससी और इन्शुरन्स में निवेश करना शुरू कर देता था। कुछ कमीशन एनएससी वाला एजेंट तो कुछ जीवन बीमा का एजेंट दे देता था। बड़ी खुशी होती थी, जब हाथ में पाँच सौ, हज़ार के कड़क नोट आ जाते थे।।

मेरी नौकरी को जुम्मे जुम्मे कुछ ही माह हुए थे, कि एक मित्र के भाई घर तशरीफ़ लाये। उनके साथ जीवन बीमा का प्लान भी था। बोले आपने एलआईसी की पॉलिसी ली ? मैं कुछ समझा नहीं ! मैंने जवाब दिया, अभी तक तो किसी ने नहीं दी। वे और खुश हुए, कोई बात नहीं, अब ले लीजिए। वे मुझे ज़िन्दगी का छोड़, मरने का गणित समझाने लगे। मुझे लगा यह इन्शुरन्स एजेंट नहीं, चित्रगुप्त के एजेंट हैं। मुझे मरने के फायदे समझा रहे हैं।

वे थोड़े आहत हुए। देखिये ! हमें आपकी बीवी बच्चों की फिक्र है। ( तब मेरी शादी नहीं हुई थी ! ) उन्हें अपना टारगेट पूरा करना था। मैंने कहा, काम की बात कीजिये। कोई भी सस्ती सी पॉलिसी दे दीजिये, और वे बेचारे उस ज़माने में एक छोटी सी पॉलिसी मुझे देकर चले गए, जिसका प्रीमियम कुछ 18.29 पैसे मेरी तनख्वाह में से कटना शुरू हो गया।।

उम्र के इस आखरी पड़ाव में फिर मुझे एक जीवन बीमा की पॉलिसी लेनी पड़ी। मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब एक लाख पॉलिसी पर मुझे 18% जीएसटी भी चुकाना पड़ा। जीते जी भरिए मरने का टैक्स, अगर आपको बचाना इनकम टैक्स।

एक राजा हरिश्चन्द्र हुए थे, जो अपनी पत्नी से कफ़न पर टैक्स लेते थे, और एक यह सतयुगी हरिश्चन्द्र की सरकार है जो जीवन बीमा पर भी जीएसटी लेती है। कुछ भी खरीदो, ज़िन्दगी या मौत !

दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा। जीवन बीमा  है अगर, जीएसटी तो देना ही पड़ेगा।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #188 ☆ व्यंग्य – कथा पुल के उद्घाटन की ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य ‘कथा पुल के उद्घाटन की ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 188 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कथा पुल के उद्घाटन की

पुल उद्घाटन के लिए तैयार है। सबेरे से ही गहमागहमी है। पूरे पुल को फूलों की झालरों से सजाया गया है। सरकारी अमला पुलिस की बड़ी संख्या के साथ हाज़िर है। उद्घाटन मंत्री जी के कर-कमलों से होना है।

पुल का भूमि-पूजन चार पाँच साल पहले तब की सत्ताधारी और अब की विरोधी पार्टी ने किया था। तब पुल की लागत सात सौ करोड़ आँकी गयी थी, अब बढ़कर तेरह सौ करोड़ हो गयी। अब विरोधी पार्टी वाले वहाँ इकट्ठे होकर हल्ला मचा रहे हैं। उनका कहना है कि पुल की शुरुआत उन्होंने की थी, इसलिए उसका उद्घाटन उन्हीं के कर-कमलों से होना चाहिए। सत्ताधारी पार्टी का जवाब है कि उद्घाटन का अधिकार योजना को पूरा करने वालों का होता है, भूमि- पूजन करके भाग जाने वालों का नहीं। पुलिस हल्ला मचाने वालों से निपटने में लगी है।

मंत्री जी आ गये हैं और गहमागहमी बढ़ गयी है। बहुत से तमाशबीन इकट्ठा हो गये हैं। मीडिया वाले फोटोग्राफरों के साथ आ गये हैं। उनके बिना कोई कार्यक्रम संभव नहीं।
लेकिन उद्घाटन से ऐन पहले कुछ पेंच फँस गया है। बड़े इंजीनियर साहब ने पुल के बीच में, ऊपर, फीता काटने का इन्तज़ाम किया है, लेकिन मंत्री जी ने ऊपर चढ़ने से इनकार कर दिया है। आदेश हुआ है कि फीता नीचे ही बाँधा जाए और उद्घाटन नीचे ही हो। वजह यह कि मंत्री जी के साथ सौ दो-सौ समर्थक पुल के ऊपर जाएँगे। कई पुल उद्घाटन से पहले या उद्घाटन के कुछ ही दिन के बाद बैठ गये, इसलिए मंत्री जी ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहते। उनका कहना है कि उन्हें अभी बहुत दिन तक जनता की सेवा करना है, उनका जीवन कीमती है, इसलिए वे पुल पर चढ़ने का जोखिम नहीं उठाएंगे। परिणामतः तालियों और जयजयकार के बीच नीचे ही उद्घाटन का कार्यक्रम संपन्न हो गया।

मंत्री जी के पास भीड़ में एक मसखरा घुस आया है। हँस कर मंत्री जी से कहता है, ‘मंत्री जी, कुतुब मीनार और लाल किला पाँच सौ साल से कैसे खड़े हैं? उन पर तो रोज हजारों लोग चढ़ते उतरते हैं। ‘ मंत्री जी कोई जवाब नहीं देते। एक पुलिस वाला मसखरे को पीछे ढकेल देता है।

मंत्री जी की खुशामद करने के इच्छुक एक अधिकारी कहते हैं, ‘सर,आपका डेसीज़न बिलकुल सही है। एब्सोल्यूटली राइट। वी शुड नॉट टेक अननेसेसरी रिस्क। ‘

वे मंत्री जी के चेहरे की तरफ देख कर फिर कहते हैं, ‘सर,ये पाँच सौ साल से खड़ी इमारतें हमारे लिए प्राब्लम बनी हुई हैं। इनकी वजह से हमें बार बार शर्मिन्दा होना पड़ता है। सर, अगर हमारे पुल और सड़कें सौ साल तक चलेंगीं तो एम्प्लायमेंट जेनरेशन कैसे होगा और नयी पीढ़ी को काम कैसे मिलेगा? इसलिए मेरा तो सुझाव है, सर, कि इन पुरानी इमारतों को फौरन डिमॉलिश कर दिया जाए, उन पर फौरन बुलडोज़र चला दिया जाए। सर, इस मामले में आप कुछ कोशिश करें तो नेक्स्ट जेनरेशन आपकी बहुत थैंकफुल होगी।’    

मंत्री जी ने सहमति में सिर हिलाया।   

उद्घाटन के बाद पुल जनता के हितार्थ खुल गया है। अधिकारी ध्वनि-विस्तारक पर बार- बार घोषणा कर रहे हैं कि अब जनता आवे और पुल के इस्तेमाल का सुख पावे। लेकिन पुल पर सन्नाटा है। लोग दूर से टुकुर-टुकुर देख रहे हैं। कोई पुल पर पाँव नहीं धरता।

अधिकारियों में सुगबुगाहट फैल गयी—‘भरोसा नहीं है। दे डोन्ट बिलीव अस। ‘

एक अधिकारी ने पुलिस के अफसर से पूछा, ‘क्या हम पुल पर पुलिस फोर्स का मार्च करा सकते हैं? इट विल हैव अ गुड एफेक्ट। ‘

जवाब मिला, ‘नो सर,इट इज़ नॉट एडवाइज़ेबिल। फोर्स कदम मिला कर चलेगी तो पूरी फोर्स का वज़न एक साथ पुल पर पड़ेगा। इट इज़ रिस्की। ‘

अधिकारियों में फिर फुसफुसाहट है। फिर एक सीनियर अधिकारी एक युवा अधिकारी के कान में कोई मंत्र देता है और युवा अधिकारी अपना स्कूटर उठाकर निकल जाता है। बाद में पता चलता है कि उसका लक्ष्य वह चौराहा था जहाँ रोज़ मज़दूर मज़दूरी की तलाश में घंटों बैठे रहते थे। थोड़ी ही देर में वहाँ एक ट्रक में तीस चालीस मज़दूर आ गये, जिन्हें अधिकारियों ने पुल पर दौड़ा दिया। वे खुशी खुशी, बेफिक्र, पुल पर दौड़ गये। उनकी देखा-देखी कुछ और लोग अपनी हिचक को छोड़कर पुल पर चढ़ गये। फिर जनता की आवाजाही शुरू हो गयी।

इस तरह पुल पर लगा ग्रहण हटा और उसे जनता-जनार्दन के द्वारा अंगीकार किया गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 144 ☆ चेतना की शक्ति… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चेतना की शक्ति…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 144 ☆

☆ चेतना की शक्ति ☆

हमको अपनी अप लाइन को मजबूत रखना चाहिए। डाउन लाइन बदलती रहेगी क्योंकि उसके अंदर स्थायित्व का अभाव होता है। थोड़े से मानसिक दबाब को वो आत्मसम्मान का मुद्दा बनाकर कार्य छोड़ देते हैं, जबकि ऊपरी स्तर पर बैठे पदाधिकारी समस्याओं को चैलेंज मानकर उनका हल ढूढ़ते हैं।

चेतना के स्तर को बढ़ाने के लिए अच्छी संगत होनी चाहिए। संगत की रंगत तो जग जाहिर है। सत्संग से अच्छा वातावरण निर्मित होता है। वैचारिक रूप से समृद्ध व्यक्ति निरन्तर अपने कार्यों में जुटे रहते हैं। हमारे आसपास आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो सुखीराम का मंत्र अपनाते हुए जीवन व्यतीत करते जा रहे हैं। सुखीराम जी का मूलमंत्र यही था कि आराम से कार्य करो। अब समस्या ये थी कि काम कैसे हो…? जहाँ आराम मिला वहाँ आलस आ धमकता बस कार्य में बाधा आती जाती है।  एक व्यक्ति जो नियमित रूप से कुछ न कुछ करता रहेगा वो अवश्य ही मंजिल को पा लेगा लेकिन जो शुरुआत जोर – शोर से करेगा फिर राह बदल कर दूसरी दिशा में चल देगा वो कैसे विजेता बन सकता है।

Late और latest में केवल st का ही अंतर होता है किंतु एक देरी को दर्शाता है तो दूसरा नवीनता को दोनों परस्पर विरोधी अर्थ रखते हुए भी words में समानता रखते हैं अर्थात केवल सच्चे मन से कार्य करते रहें अवश्य ही सब कुछ मुट्ठी में होगा। प्राकृतिक परिवेश से जुड़े हुए लोग  आसानी से समस्याओं को हल करते जाते हैं, उनके साथ ब्रह्मांड की शक्ति जो जुड़ जाती है। यही कारण है कि हम प्रकृतिमयी वातावरण से जुड़कर प्रसन्न होते हैं।

अभी भी समय है चेत जाइये और कुछ न कुछ सार्थक करें, ठग बंधन से अच्छा ऐसा गठबंधन होना चाहिए जो शिखर पर स्थापित होने का दम खम रखता हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ आचरण की शुद्धता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “आचरण की शुद्धता।)  

? अभी अभी ⇒ आचरण की शुद्धता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आचरण की शुद्धता और चरित्र की पवित्रता ऐसे मानवीय मूल्य हैं, जिनकी अपेक्षा हम हर इंसान में करते हैं। हम स्वयं इस कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं, शायद हमारे अलावा यह और कोई नहीं जानता।

हमारी बोलचाल, चाल ढाल, रहन सहन और हावभाव के अलावा बुद्धि के प्रयोग का भी इन मूल्यों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। हमें अच्छे लोग आकर्षित करते हैं और बुरे लोग हमारी प्राथमिकता में नहीं आते। यानी हमारी अपेक्षा, पसंद और प्राथमिकता तो सर्वश्रेष्ठ की रहती है, लेकिन हमारा अपने खुद की स्थिति के बारे में हमारा आकलन हमारे अलावा कौन कर सकता है। ।

अपनी थाली में अधिक घी डालने से आपको कौन रोक सकता है। अगर आप ही परीक्षार्थी और आप ही परीक्षक हों, तो अंधा रेवड़ी आखिर किसको बांटेगा। एक सुनार सोने की शुद्धता को तो कसौटी पर परख सकता है, लेकिन उसमें खुद में कितनी खोट है, यह उसे कौन बताएगा।

शायद इसीलिए हमारी नैतिक मान्यताओं के मानदंड व्यवहारिक धरातल पर सही नहीं उतर पाते। हम व्यवहार में अच्छा दिखने की कोशिश तो जरूर करते हैं, लेकिन हमारे मन में खोट होता है। हमें दूसरों के दोष तो बहुत जल्दी नजर आ जाएंगे, लेकिन खुद के नहीं आते। झूठी तारीफ और प्रशंसा के धरातल पर जिस महल का निर्माण किया जाता है, उसकी बुनियाद बड़ी कमजोर नज़र आती है। ।

हम नैतिकता और आदर्श के महल तो खड़े कर लेते हैं, लेकिन उनमें वह गरिमा और दिव्यता नहीं होती, जो इस धरती को स्वर्ग बना दे। स्वार्थ, अहंकार और लोभ के मटेरियल से बना महल भले ही हमें भव्य नज़र आए, लेकिन अंदर से यह खोखला ही होता है।

चरित्र और आदर्श के जितने नालंदा, गुरुकुल और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय आज हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और अध्यात्म आज अपनी पराकाष्ठा पर है। इतने मठ, मंदिर, आश्रम, जगतगुरु, महामंडलेश्वर, समाज सुधारक और सोने में सुहागा, मोटिवेशनल स्पीकर्स। कितनी पारमार्थिक संस्थाएं, कितने एन जी ओ, रोटरी और लायंस और सबके पास पुण्य और परमार्थ का लाइसेंस। ।

और बेचारा आम आदमी वहीं का वहीं। उसके आदर्श आज भी राम, कृष्ण, बजरंग बली और भोलेनाथ हैं। उसका दुख शायद रुद्राक्ष से मिट जाए या किसी सिद्ध पुरुष की पर्ची से। महल और झोपड़ी, आदर्श और यथार्थ तो यही दर्शाते हैं कि हमारी कथनी और करनी में बहुत अंतर है।

आज कबीर हमारे लिए प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वह हमसे सवाल करता है, हमें खरी खोटी सुनाता है, हमें अपने अंदर झांकने के लिए मजबूर कर देता है। चादर में पांव अब नहीं समाते। हमें चादर बड़ी करनी ही पड़ती है। बड़ा मकान, बड़ी गाड़ी, आवश्यकता बढ़ी !

काजल की कोठरी में दाग तो लगेगा ही, कब तक मैली चादर का रोना रोते रहेंगे। ।

लोग खुद तो सुधरने को तैयार नहीं और हमें निंदक नियरे राखने की सलाह दे रहे हैं। हम ऐसे परामर्शदाताओं की घोर निंदा करते हैं। हम रजिस्टर्ड आय.एस.आई. मार्का दूध से धुले इंसान हैं, खोट कहीं आप में ही है।

आप सुधरे, जग सुधरा..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ अंतिम चौराहा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी ⇒ अंतिम चौराहा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

चार दिल चार राहें जहां मिले उसे चौराहा कहते हैं।

मैं तो चला, जिधर चले रस्ता! मैं चलूं, वहां तक तो ठीक, लेकिन क्या कहीं रास्ता भी चलता है। कबीर के अनुसार, अगर चलती को गाड़ी कहा जा सकता है, तो रास्ता भी चल सकता है और जब रास्ता चलेगा तो वह भी घिस घिसकर रास्ते से, रस्ता हो जाएगा।

चौराहे को चौरस्ता भी कहते हैं। कहीं कहीं तो इसे चौमुहानी भी कहते हैं। रास्तों की तरह, गलियां भी होती हैं, ठाकुर शिवप्रसाद सिंह की गली, आगे मुड़ती है, और वहीं कहीं बंद गली का आखरी मकान धर्मवीर भारती का है।।

इंसान का क्या है, जिंदगी में कभी दोराहे पर खड़ा है तो कभी चौराहे पर। होने को तो खैर तिराहा भी होता है, लेकिन न जाने मेरे शहर के गांधी स्टेच्यू को लोग रीगल चौराहा क्यूं कहते हैं, जब कि यहां तो तीन ही रास्ते हैं। हां, यह भी सही है कि एक रास्ता स्वयं रीगल थिएटर भी था, लेकिन समय ने वह रास्ता भी बंद कर दिया।

थिएटर तो सारे बंद हुए, मैं अब फिल्म देखने कहां जाऊं।

जिस चौराहे से चार राहें निकलती हैं, उन्हें आप चौराहे की भुजा भी कह सकते हैं। हम तो जब भी श्रीनाथ जी के दर्शन के लिए नाथद्वारा जाते हैं, काकरौली, चारभुजा जी और एकलिंग जी होते हुए झीलों की नगरी उदयपुर अवश्य जाते हैं। जहां सहेलियों की बाड़ी हो, वहां तो भूल भुलैया होगी ही।

यह अंक चार हमें एक चौराहे पर लाकर खड़ा कर देता है जहां हमें जयपुर की बड़ी चौपड़ और छोटी चौपड़ याद आ जाती है। बही खाते वाले चोपड़ा जी कब फिल्मों में आ गए, और यश कमा गए कुछ पता ही नहीं चला।।

अगर आपसे पूछा जाए, आपके शहर में कितने चौराहे हैं, तो शायद आप गिन नहीं पाएं।इसीलिए इन चौराहों का नाम दे दिया जाता है। कहीं चौक तो कहीं चौराहा। हमने अगर एक चौराहे का नाम जेलरोड रख दिया तो दूसरे का चिमनबाग चौराहा। चिमनबाग तो आज चमन हो गया, लेकिन हमारे भाइयों ने उस चौराहे का नाम ही बदलकर चिकमंगलूर चौराहा कर दिया। वैसे भी किसी विकलांग को दिव्यांग बनने में कहां ज्यादा वक्त लगता है।

हमारे शहर के प्रमुख  चौराहों में अगर पलासिया चौराहा है तो गिटार चौराहा भी। जहां रोबोट लगा है, वह रोबोट चौराहा और जहां आज लेंटर्न होटल नहीं है, वहां भी लैंटर्न चौराहा है। सांवेर रोड पर अगर मरी माता चौराहा है तो रेडिसन होटल पर रेडिसन चौराहा। कुछ चौराहों पर भुजाएं जरा जरूरत से ज्यादा ही फड़फड़ाती हैं, रीजनल पार्क के आसपास तो इतनी राहें हैं कि राही, राह भी भटक जाए।।

इन सब चौराहों के बीच, पंचकुइया रोड पर एक अंतिम चौराहा भी है, क्योंकि वहां से आखरी रास्ता मुक्ति धाम की ओर ही जाता है। लेकिन यह जीव माया में नहीं उलझता ! वह जानता है , कोई ना संग मरे। बस थोड़ा श्मशान वैराग्य, शोक सभा और उठावने के बाद शाम को छप्पन दुकान।

क्या भरोसा कब जिंदगी की शाम आ जाए, कौन सा चौराहा हमारा अंतिम चौराहा हो जाए ! लेकिन हमने तो चौराहों को पार करना सीख लिया है। ट्रैफिक का सिपाही भले ही सीटी बजाता रहे, सिग्नल लाल लाल आंखें दिखलाता रहे, कोई मार्ग अवरोधक हमारी जिंदगी की गाड़ी को इतनी आसानी से नहीं रोक सकता।।

ऊपर भले ही चित्रगुप्त गणेश चोपड़ा भंडार खोले हमारे खाते बही की जांच करते रहें, हम स्वयंसेवक अपनी लाठी स्वयं साथ लेकर आएंगे। चित्रगुप्त के खातों की भी सरकार जांच करवा रही है। सब डिजिटल, ऑनलाइन और पारदर्शी हो रहा है। ईश्वर की मर्जी जैसा डायलॉग अब नहीं चलेगा।

जिसकी लाठी उसकी भैंस। यमराज को दूसरा वाहन तलाशना पड़ेगा। चित्रगुप्त को आईटी सेक्टर के लिए शिक्षित लोगों को ऊपर भी जॉब देने होंगे, और वह भी फाइव डे वीक और आकर्षक पैकेज के साथ।उसके बाद ही हमारी अंतिम चौराहे से रवानगी होगी। स्वर्ग में बर्थ नहीं, एक नया जॉब, एक नया चैलेंज।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ मुंह में पानी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुंह में पानी।)  

? अभी अभी ⇒ मुंह में पानी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गर्मी का मौसम है, सबको प्यास लगती है, गला सबका सूखता है। मुंह में इधर पानी गया, उधर हमारी प्यास बुझी। पानी और प्यास का चोली दामन का रिश्ता है।

 दुनिया की प्यास बुझाने वाले कुएं को भी हमने गर्मी में सूखते देखा है। प्यास कुएं को भी लगती है, उसका भी गला सूखता है। वहीं बारिश में यही कुआ मुंह तक लबालब भरा रहता है। जल है तो तृप्ति है, गर्मी है तो प्यास है। ।

होता है, अक्सर होता है ! प्यास नहीं, फिर भी हमारे मुंह में पानी आता है, जब कहीं असली घी की जलेबी बनाई जा रही हो। कभी किसी ऐसी नमकीन की दुकान के पास से गुजरकर देखें, जहां गर्मागर्म ताजी सेंव बन रही हो। खुशबू पहले नाक में प्रवेश करती है, और तुरंत पानी मुंह में आता है।

कहते हैं, हमारे शरीर में कई ग्रंथियां होती हैं, उनमें से एक ग्रंथि स्वाद की भी होती है। मुंह में पानी आना तो ठीक, लेकिन अगर मुंह से लार टपकने लगे, तो यह तो बहुत ही गलत है। लेकिन यह लार भी अनुभवजन्य है, महसूस की जा सकती है। फिर भी ताड़ने वाले ताड़ ही लेते हैं, जो कयामत की नजर रखते हैं। ।

लार टपकने की ग्रंथि को आप लालच की ग्रंथि भी कह सकते हैं। फिल्म जॉनी मेरा नाम में पद्मा खन्ना के डांस पर केवल प्रेमनाथ ने ही लार नहीं टपकाई थी। हमें तो भाई साहब, बहुत शर्म आई थी।

वैसे लार का क्या है, आजकल के बच्चे तो पिज़्जा, बर्गर और पास्ता देखकर ही लार टपकाना शुरू कर देते हैं।

लार टपकाने का एक और विकृत स्वरूप होता है, जिसे हवस कहते हैं। हमने लोगों को सिर्फ लार टपकाते ही नहीं, महिलाओं को इस तरह घूरते देखा है, मानो कुछ देर में उनकी आंखें ही टपक पड़ेंगी। ।

काश कोई ऐसा समर्थ योगी सन्यासी होता, जो इनको टपकाने के बजाय इनकी खराब नीयत को ही टपका देता। लेकिन आजकल के योगी इनको टपकाने के लिए खुद भी भाईगिरी पर उतर आते हैं और हमारे सनातन प्रेमी इनमें अपने आदर्श महामना चाणक्य के दर्शन करते हैं जिनका सिद्धान्त होता है, शठे शाठ्यम् समाचरेत्। इनका बाहुबलियों को टपकाना आजकल एनकाउंटर कहलाता है।

एक ग्रंथि भय की भी होती है। उसमें गला नहीं, मुंह सूखता है। रात को कोई डरावना सपना देखा, डर के मारे पसीना पसीना हो गए, घबराहट बेचैनी से मुंह सूख गया, हड़बड़ाहट में नींद खुल गई। गटागट पानी पीया, तब जाकर थोड़ा स्वस्थ हुए। ।

जैसे जैसे गर्मी बढ़ेगी, प्यास भी बढ़ेगी। फलों में रस होता है। संतरा, मौसंबी, तरबूज, खरबूजा, कच्ची कैरी का पना और फलों का राजा आम भी दस्तक दे ही रहा है। शरीर में तरावट बनी रहे।

मुंह में पानी का तो क्या है, कहीं बाजार में मस्तानी लस्सी का बोर्ड देखा, तो मुंह में पानी आया। लेकिन अगर लस्सी स्वादिष्ट नहीं निकली, तो सब मजा किरकिरा हो जाता है। क्या करें, रसना है ही ऐसी। जो इसका गुलाम हुआ, उसकी ऐसी की तैसी। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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