हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 136 ☆ बस थोड़ी देर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बस थोड़ी देर में…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 136 ☆

बस थोड़ी देर में… 

हर कार्य को टालते जाना, अंतिम समय में तेजी से करते हुए झंझट निपटाने की आदत आपको लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही तोड़ कर रख देती है। जब अनुशासन और समय प्रबंधन का अभाव हो तो ऐसा होना तय समझिए। इसका एक और कारण समझ में आता है कि मानव का मूल स्वभाव नवीनता की खोज है। जब तक उसे कुछ नया सीखने नहीं मिलेगा वो ऐसे ही व्यवहार करेगा। आजकल तो गूगल में नवीन विचारों की भरमार है। बस प्रश्न पूछिए उत्तर हाजिर है। दिनभर व्यतीत करने के बाद जब डायरी में दिनचर्या का लेखा- जोखा लिखो तो समझ में आता है कि सार्थक कोई कार्य तो हुआ नहीं। बस यही क्रम वर्षों से चला आ रहा है, इसी अपराध बोध के साथ अगले दिन कुछ करेंगे यह सोचकर व्यक्ति चैन की नींद सो जाता है। यही किस्सा रोज एक नए बहाने के साथ चलता रहता है।

आजकल एक शब्द बहुत प्रचलित है, जिसे माइंड सेट कहा जाता है। मन से मनुष्य कहाँ से कहाँ चला जाता है, ये वो स्वयं भी नहीं जान पाता। जो चाहोगे वो मिलेगा ये केवल यू ट्यूब के थम्बनेल में नहीं लिखा होता है, ये तो से सदियों पहले लिखा जा चुका है –

जो इच्छा करिहों मन माहीं, राम कृपा ते दुर्लभ नहीं।

कोई इसे यूनिवर्स की शक्ति से जोड़ता है तो कोई माइंड पावर से। ॐ मंत्र में ब्रह्मांड को देखते ध्यान करने से सब कैसे मिलता है, ये भी विज्ञान की कसौटी पर परखा जा रहा है। मन दिन भर इसी उथल- पुथल भरे विचारों से ग्रसित होकर सोने जैसे समय को अनजाने ही व्यर्थ करता जा रहा है।

ज्यादा चिंतनशील लोग अपने कर्मों का स्वतः मूल्यांकन करते हुए अपनी गलतियाँ  ढूंढ़ते हैं फिर उदास होकर डिप्रेशन में जाने की तैयारी करते हैं, जो कर्म करेगा उससे ही गलतियाँ होगीं, कुछ जानी कुछ अनजानी। गलती करना  उतना गलत नहीं  जितना जान कर अनजान बनना और अपनी भूल को स्वीकार न करना होता है।  भूल को  सहजता से स्वीकार कर लेना, व भविष्य में इसका दुहराव न हो इस बात का ध्यान रखना है।

अक्सर देखने में आता है कि आदर्शवादी लोग जल्दी ही इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं वे छोटी से छोटी बातों के लिए खुद को जिम्मेदार मानकर अपना साहस खो भावनाओं में बहकर अपराधबोध का शिकार   हो जाते हैं।  यदि  उनके आस- पास का वातावरण सकारात्मक नहीं हुआ तो वे आसानी से टूटने लगते हैं।

अपने अपराध को स्वीकार करना  कोई सहज नहीं होता है पर  इतना  भी  मनोबल का टूटना उचित नहीं कि आप नव जीवन को स्वीकार ही न कर पाएँ।

जीवन में आप अकेले नहीं जिससे गलतियाँ हुई हैं या हो रही हैं या हो सकती हैं। ऐसी  परिस्थितियों में दृढ़ता पूर्वक अपने विचारों में  अड़िग  रहते हुए  ग़लती स्वीकार कर सहज हो जाइए जैसे कुछ हुआ ही नहीं। पुरानी यादों और बातों को छोड़ नये कार्यों में अपना शत- प्रतिशत   समर्पण दें और फिर कोई गलती हो तो सहजता से स्वीकार कर आगे बढ़े। मजे की बात कहीं हम गलती न कर दें इसलिए कोई कार्य करते ही नहीं और अनजाने में जीवन के मूल्यवान अवसरों को खो देते हैं।

इस संबंध में हमें प्रकृति से बहुत  कुछ सीखना  चाहिए जैसे-   पतझड़ की ऋतु के बाद वृक्ष उदास नहीं होता बल्कि नयी कोपलें पुनः प्रस्फुटित होने लगती हैं। परिस्थितियों पर काबू पाना ही बुद्धिमत्ता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि आस्तिक विचार धारा, अहंकार का त्याग, सत साहित्य, सत्संगति,सात्विक भोजन, गुरुजनों का आशीर्वाद,  सत्कर्म, नेक राह व माता- पिता की सेवा सकारात्मक  वातावरण निर्मित करते हैं। अच्छा लिखें अच्छा पढ़ें, परिणाम आशानुरूप होंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 197 ☆ व्यंग्य – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – बजट तो बजट ही है पिछले साल का है तो क्या हुआ ?–) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 197 ☆  

? व्यंग्य  – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? —?

बजट तो बजट ही है पिछले साल का हुआ तो क्या फर्क पड़ता है ?  न तो टैक्स पेयर आम जनता, न ही विपक्ष पर और न ही पत्रकार,  किसी को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री विधान सभा में आठ मिनट तक पिछले साल का बजट ही पढ़ते रहे. उन्हें अपनी गलती का स्वयं आभास तक नहीं हुआ. एक दूसरे मंत्री  जो बजट भाषण मिला रहे थे उन्होंने मुख्यमंत्री जी को उनकी गलती का ध्यान दिलाया, तब कहीं पिछले बरस के बजट भाषण का पन्ना बदला गया. इस तरह प्रमाणित हुआ कि प्राम्पटर बड़ा जरूरी होता है फिर वह स्टेज पर नाटक हो या विधानसभा. यूं विधान सभायें भी नाटक के स्टेज ही तो हैं जहां कलफ किये श्वेत कुर्ते पायजामों जैकेट में माननीय या प्योर सिल्क की हथकरघा पर बनी साड़ियां पहने महिला विधायक आम जनता का भला करने का अभिनय हैं.  दरअसल मुख्यमंत्री जी की इस गलती को बिलकुल तवज्जो नहीं दी जानी चाहिये उनको विपक्ष ही नहीं अपनी ही पार्टी के भितरघात से भी सरकार बचाने जैसे और भी ढ़ेर से काम होते हैं. वे केवल वित्त मंत्री थोड़े हैं जो बस बजट पर ध्यान देते.   वे पेड़ के पके आम की तरह परिपक्व नेता हैं उन्होने कई वित्त वर्ष देखते हुये अपने बाल सफेद किये हैं, उनके चेहरे की झुर्रियां उनकी परिपक्वता का बखान करती  हैं. वे कोई नये नवेले मंत्री थोड़े ही हैं जो शीशे के सामने खड़े होकर अकेले में बजट भाषण का रिहर्सल कर विधान सभा आते. उन्हें अच्छी तरह समझ है कि बजट पिछले साल का हो या नये साल का, अच्छा हो या बुरा, फर्क नहीं पड़ता.

नया बजट पढ़ो या पुराना विपक्ष की प्रतिक्रिया नयी  कहां आती है ? नेता प्रतिपक्ष को तो यही कहना है कि बजट जन विरोधी है. पत्रकारों को हेड लाईन के लिये कोई बढ़िया सा शेर सुना दिया जाये तो उन्हें मसाला मिल ही  जाता है, तो वह तो हर बजट भाषण में होता ही है. रही बात जनता की तो उसे तो हर बजट में खरबूजे की तरह कटना ही है, चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर यह ज्यादा मायने नहीं रखता. बजट किसी साल का हो, नया हो, पुराना हो उसका कंटेंट स्वास्थ्य या महिला पत्रिकाओ जैसा ही होता है जो हमेशा प्रासंगिक बना रहता है. कभी शराब पर टैक्स बढ़ा दिया जाता है, कभी सिगरेट पर. कभी लिपस्टिक सस्ती हो जाती है कभी सिंदूर. गैस सिलेंडर, बिजली, डायरेक्ट टैक्स, इनडायरेक्ट टैक्स में अर्थशास्त्रियों को उलझा दिया जाता है, शाम को टी वी पर बहस करने के मुद्दे बन जाते हैं. जमीन पर ज्यादा कुछ बदलता नहीं.

कर्मचारियों से वादे करना होता है, बेरोजगारों को सपने दिखाने होते हैं. योजनायें जनहितैषी दिखनी चाहिये बस, होता तो वही है जो होना होता है. फिर एक अच्छे बजट में बंगलों पर होने वाले वास्तविक खर्चों का जिक्र थोड़े ही किया जाता है, वे सब तो अनुपूरक मांगों में बिना बहस मेजें ठोंककर स्वीकृत करवा लेना कुशल राजनीतिज्ञ को आना चाहिये.

मेरा मानना तो यह है कि बेकार ही हर सरकार अपना बजट खुद बनाकर समय व्यर्थ करती है. मेरा सुझाव है कि अब जमाना कम्प्यूटर का है, सरकारों को मुझ जैसे पेशेवर लेखको से स्टैंडर्ड बजट फार्मेट तैयार करवा लेना चाहिये. हम मौजू शेरो शायरी से लबरेज आकर्षक बजट भाषण तैयार कर देंगे, मंत्री जी को महज अपने राज्य का नाम बदलना होगा, वर्ष बदलना होगा फटाफट लाल लैपटाप में बोल्ड लैटर्स में बजट तैयार मिलेगा.  विपक्ष के लिये भी बजट पर प्रतिक्रियाओ के आप्शन्स लेखक रेडी कर देंगे, इस सब से माननीय जन प्रतिनिधियों का कीमती समय बचेगा और वे आम जनता के हित चिंतन में निरत, बजट के उनके हिस्से में आये रुपयों से  बेहतर मजे कर सकेंगे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 174 ☆ “टैगिंग की दुनिया…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी सोशल मीडिया की आभासी दुनिया पर आधारित व्यंग्य – टैगिंग की दुनिया)

☆ व्यंग्य # 174 ☆ “टैगिंग की दुनिया…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पिछले दिनों हमने एक व्यंग्य “ब” से बसंत, बजट और बीमा लिखा। अधिक से अधिक लोग पढ़ें इसलिए टेग करने का तरीका सीखा।  अभासी दुनिया के देखने में सुंदर, संस्कारवान, समझदार एक ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी को यह सोचकर टेग कर दिया कि वे व्यंग्य पढ़कर हमें व्यंग्य के बारे में कुछ सीख देंगे कुछ कमियां दूर करने के लिए मार्गदर्शन देंगे उनसे हमें कुछ सीखने मिलेगा चूंकि वे स्वयं व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य की अच्छी समझ रखते हैं। 

उन्होंने अपने कमेंट में टेग न करने की हिदायत दी हमने भी उनसे माफी मांग ली। बात आयी और गई पर उसके आगे के कमेंट को पढ़कर हम दंग रह गए कि एक और आभासी दुनिया के छत्तीसगढ़ी मित्र  जी ने टेग करते रहने का खुला आफर दे डाला। खुशी हुई। हालांकि टेग करने की आदत बुरी हो सकती है पर आशा से आसमान टिका है कुछ सीखने के उद्देश्य से टेग करने की मृगतृष्णा जागती है इसी उद्देश्य से हमने ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी को विश्वास के साथ टेग किया था। इस बाबद एक व्यंग्यकार ने सलाह दे डाली उन्होंने अपने कमेंट में लिखा, गुरु बनाने के लिए यदि आप किसी को टेग करते हैं तो उनसे पहले अनुमति ले लें। 

जब तक हमारे ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी का नया कमेंट आ गया – नये व्यंग्यकार जी एक गुजारिश है कृपया बिना पूछे टेंग न करें। 

हमने अपने कमेंट में लिखा – माफ करियेगा अब कभी भी टैग नहीं करेंगे चाहे आप कितने भी बड़े व्यंग्यकार बन जाएं, और लगे हाथ उन्हें धन्यवाद भी दे दिया। हमारे विनम्रता भरे कमेंट को पढ़कर दिल्ली के बहुचर्चित व्यंग्यकार ने लिखा – कृपया मुझे टैग किया करे सर…मेरा व्यक्तित्व सामाजिक रूप से इतना कठोर माना जाता है कि मैं खुद भी हतप्रभ हूँ कि ऐसा क्यों माना जाता रहा है… वैसे भी मैं थोड़ा बहुत समाजवादी / मार्क्सवादी हमेशा से रहा हूँ… अब निज़ी बौद्धिकता का वास्तविक जीवन में यथार्थ तो पाखंड से भरा हुआ रहता है… कम से कम अपने जीवन में तो मैं ऐसा मानता ही हूँ… तो मैं चाहता हूँ कि समाजवादी / समतावादी और एक समानांतर दुनिया में साझेपन के साथ होने की निजी और सामूहिक कुंठा को संवाद के इस तकनीकी माध्यम में टैग के द्वारा ही पूरा कर सकूं। एक और भी कारण है कि आपको मुझे टैग करना चाहिए कि, मुझे लोगों की तस्वीरें, उनके जीवन के उत्सव के रंग… उनकी मामूली बातें… उनका खिलंदड़पन… उनकी उदासी…सब कुछ मेरे महानतम संवेदन से बार-बार रूबरू होने के लिए विवश कर देती हैं… मैं दूसरे ढंग से मुक्तिबोध को महसूस कर पाता हूँ कि हर पत्थर में आत्मा अधीरा है, हर आत्मा में महाकाव्य पीड़ा है… कुछ इसी तरह है शायद…

तो आप मुझे कृ पया टैग करें.. वैसे मैं नितांत दुकानदार किस्म का आदमी हूँ…मेरा पेशा ही दुकानदारी है… फिर भी मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मैं आपके व्यक्तित्व का अपनी किसी भी किस्म की दुकानदारी के लिए उपयोग नही करूँगा…

हमेशा टैग किये जाने की उम्मीद के साथ……

एक दूसरे जले कटे व्यंग्यकार ने जैसे ही ऊपर वाला कमेंट पढ़ा, उन्होंने तुरंत लिख मारा- 

खुले दिल का मालिक और उदार सोच का धनी मैं फलां अधपका व्यंग्यकार दिल से आपको सलाम करता हूं, आप हमें भी बेहिचक अपनी पोस्ट पे टैग किया कीजिये इससे लाभ हमें ही ये होगा कि हम खुद को टैग की पोस्टस् पर जल्दी नजर पड़ जाती है, रही बात ऐसी पोस्टस् को मिले भारी लाईक कमेंट के नोटिफिकेशन पे हमारी वॉल पर बजने से होती तथाकथित असुविधा (जमाने की नजर में) तो हमारे लिये खुशी और उत्सुकता का सबब होती है क्यूंकि उस हिट होती जा रही रचना से हमें भी अपनी कलम को निखारने के मंत्र मिलते रहते हैं और तो और पोस्ट के कमेंटस् में के रूप में हमें कई और अनजान कलमकारों की बेहतरीन कलम के नमूने भी पढ़ने को मिल जाते हैं।

लगातार आ रहे कमेंट्स को पढ़ते-पढ़ते हम थक गये थे, तब तक एक नया कमेंट प्रगट हुआ

‘अगली बार से हमें आपने टैग किया तो हम आक्षपके ऊपर कानूनी कार्यवाही करेंगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 135 ☆ आमंत्रण के बहाने ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आमंत्रण के बहाने। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 135 ☆

☆ आमंत्रण के बहाने 

मान- मनुहार के बीच रिश्तों को निभाने की परम्परा आजकल डिजिटल होती जा रही है, ये तो अच्छी बात है, किन्तु बोलते समय मन में क्या है, ये साफ पता चल जाता है। बुलाने की औपचारिकता भी निभानी है और सामने वाला आए भी न।

आप कल के कार्यक्रम में आ रहे हैं न?

सामने वाले ने कहा, देखिए कुछ घरेलू कार्य है, यदि समय पर पूरा हो गया तो अवश्य आएंगे।

बस फोन कट गया, अब दोनों अपने- अपने मन का करने के लिए स्वतंत्र हैं।

इसी तरह एक और बुलावा आता है आप सपरिवार आइयेगा।

चलो भाई एक साथ कई कार्य निपटाने हैं, बहुत दिनों से उनके यहाँ गए नहीं थे सो मिलना भी हो जाएगा। किन्तु यहाँ की स्थिति उससे भी उलट निकली, मेजबान को इतनी जल्दी थी कि जल्दी से अपने घर में आयोजित की गयी पार्टी को निपटाकर खुद दूसरे के घर मेहमान के रूप में पहुँच गए। अब आपका मेहमान यदि वर्किंग डे होने के कारण देर से पहुँचता है तो वो क्या करे ?आप तो बुलाने के लिए इतने उत्साहित थे कि मेजबानी का क्या धर्म होता है ये भी भूल गए।

ये सब तो नए युग के चलन का हिस्सा है क्योंकि अब क्या कहेंगे लोग सबसे बड़ा रोग इस वाक्य को हमने केवल मोटिवेशनल थीम तक ही लागू नहीं किया है, इसे अपनी सुविधानुसार हम जब चाहें इस्तेमाल करने लगे हैं। क्या ये सब आधुनिक होने की निशानी है या केवल आमंत्रित करने की औपचारिकता है ?

इन स्थितियों का सामना आजकल हर जगह देखने को मिल रहा है, संस्कार और नैतिकता को ताक में रखकर बस स्वयं पर केंद्रित होना अच्छी बात है,cकिन्तु सामान्य से शिष्टाचार को भी यदि निभाना न आए तो गूगल से ही सही मेजबान बनने से पहले सीखें अवश्य है।

इस सबमें मेहमानों को भी अपने धर्म का पालन करना अवश्य आना चाहिए, बिगड़ी बात को बनाने हेतु मुस्कुराते रहें, सकारात्मक होकर हर अवसर का आनन्द उठाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 196 ☆ व्यंग्य  – चले गए अंग्रेज पर — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – चले गए अंग्रेज पर —) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 196 ☆  

? व्यंग्य  – चले गए अंग्रेज पर —?

(प्रत्येक लेखक की प्रथम रचना लेखक के लिए अविस्मरणीय होती है। हमें आपकी प्रथम रचना साझा करने में अत्यंत प्रसन्नता होगी। आज हम व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की प्रथम व्यंग्य रचना आपसे साझा कर रहे हैं।)    

लार्ड मैकाले का भयंकर कहकहा, सुनकर मेरा सपना ‘टूटा नींद, खुली तो देखा कि जिसे मैंने लार्ड मैकाले का कहकहा समझा था वह शिक्षित बेरोजगार ‘गोपाल जो नौकरी न मिलने से पागल हो गया है, की भयानक हंसी है।

इलेक्ट्रीसिट बोर्ड की कृपा से पंखा बंद हो गया है। और स्वास्थ्य विभाग की कृपा से मच्छर मच्छरदानी में हैं। छिडकाव के लिए आया डी. डी. टी. कहां गया अधिकारियों की जेबों में और फाइलों में “मस्तिष्क ज्वर, पर पूर्ण नियंत्रण हो चुका क्योंकि हजारों रुपये खर्च हो गये।

उफ! मैं तो सिहर उठता हूं रात का यह स्वप्न सोचकर, मैं शायद किसी डाक्टर की शिकायत लेकर सिविल सर्जन से मिलने अस्पताल गया था, वहां शायद हैजा विरोधी अभियान चल रहा था। मुझे जबदस्ती टीका लगा दिया जाता है मिलावट का परिणाम हो या ‘आरक्षित सीट’ से बने डाक्टर साहब की कृपा पर मैं बेहोश होकर गिर पड़ता हूँ,  इधर “पिछड़े वर्ग” के “स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी वर्ग के ये डाक्टर साहब मुझे मृत घोषित कर देते हैं। जब मुझे सफेद चादर से लपेट दिया जाता है, तो मैं चिल्लाना चाहता हूँ की मैं जिंदा हूँ, पर मैं मृत होने का नाटक ही करना अच्छा समझता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूं कि यह सरकारी अस्पताल है यहां जो निर्णय एक बार हो जाते है। वो इतनी आसानी से बदलते नहीं।

तो साहब मैं यमपुरी पहुंच जाता हूँ, वहां पहुंचते ही किसी फट्टा छाप सिनेमा टाकीज के गेट कीपर की तरह के दादा दरबान मुझे भीतर घुसने से रोकते हैं “अभी तो तुम्हारी मौत का आर्डर ही नहीं निकला।” पर मुझे तो यम लोक की सैर करनी थी, रोब गालिब करते हुए मैने कहा क्या एम. बी. बी. एस. डाक्टर से भी ज्यादा होशियार हो? देखो सरकारी अस्पताल के रजिस्टर में मैं मर चुका था। इसका उपयुक्त प्रभाव पड़ा और मैं यमपुरी में प्रवेश पा गया। सहमा सा मैं आग बढ़ा ही था कि सामने से एक अफसर किस्म का अंग्रेज भूत, मुंह में सिंगार थामें आता दिखा। मैंने अपने एडवांस होने का परिचय दिया- हाय। उसने गर्म जोशी, से कर-मर्दन किया, ग्लेड टू मीट यू, माई सेल्फ लार्ड मैकाले। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक  देखा, पर तब तक वह मुझे सामने वाले कैफेटोरिया में ‘टी’ आफर कर चुका था और बरबस मैं उसके साथ टेबल की ओर बढ़ा। चाय ‘सिप’ करते हुए उन्होंने कहा कि वह बहुत दिनों से किसी इण्डियन की तलाश में है और वह जानना चाहते हैं, कि क्या वहां उनकी बाबू बनाने वाली शिक्षा प्रणाली ही चल रही है,  क्या अभी भी उसी तरह शिक्षा के नाम पर बस डिग्री धारी ही पैदा हो रहे हैं?

फिर उन्होंने पूछा कि क्या भारतीय अब भी मुस्कराकर अंग्रेजी बोलने में अपना गौरव समझते हैं? बात-बात पर सॉरी कहे बिना सोसाइटी आदमी को अर्वाचीन आदम को समझती है।  मुझे इन सवालों के सच्चे सकारात्मर उत्तर देने में बड़ी घुटन महसूस हो रही थी, इसलिये मैंने कहा – “पर मैकाले साहब अब आप भी सुन लीजिये कि हम आपकी इस अंग्रेजीयत के और ज्यादा गुलाम नही रहेंगे। हमारे नेता अफसर जल्दी से जल्दी हिंदी लाने का प्रयास कर रहे हैं।”

मैं कुछ और कहता इससे पहले ही मैकाले फिर बोल उठा – “क्यों भूलता है कि तुम अंग्रेजियत की गुलामी नहीं छोड़ सकता। हमने जो अंग्रेजी नाम रखा, बिल्डिंग,  कालेज, रोड का वो तक तो तुम नही बदल सके आज तक, इंडिया गेट से, गेट वे आफ इंडिया तक।”

(रचना तिथि : 21/9/ 1980, जन्म तिथि : 28/7/59)

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित माइक्रो व्यंग्य – “दास्ताने दर्द)

☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

दास्ताने दर्द…

डाक्टर, अस्पताल, दवाई और ठगी, लुटाई शब्दों के गठबंधन ने सांस लेना दूभर कर दिया है दूरदराज गांव के अपढ़ गरीब डाक्टर, अस्पताल और दवाओं से त्रस्त हैं। पेट खोलकर पैसे का तकाजा करना। लाश को कई दिनों तक वेंटिलेटर में रखकर बिल बढाना, बिल जमा होने पर ही लाश देना ऐसे अनगिनत कितने हादसों की लम्बी कतार है। एक गांव के गरीब मरीज के वेदनामय स्वर को हम इस व्यंग्यकथा के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो एक गांव के गरीब मरीज की दर्द भरी दास्तान है।

“गांव के गरीब मरीज के हंसते हुए वेदनामय स्वर”

दुनिया रंगमंच जैसी है, खूब अभिनय भी कराती है, रुलाती भी है…. खुद पर शाबासी भी दे देती है। किस पर विश्वास कर लें।

सूरज आज भी निकला है। हवाएं बह रहीं हैं तेज… बेशर्म के हजारों फूल खिलखिलाकर हंस रहे हैं। नदिया के किनारे काले पत्थर में बैठकर नहाने – धोने की बात सोचते – सोचते फिर पेट में दर्द का इतिहास उखड़ गया है। गांव के नाड़ी वैद्य को दिखाया था तो पेट पकड़ कर बोले थे – शीत वात पित्त का लफड़ा है तुम्हारे पेट में तीनों इकठ्ठे होकर राजनीति कर रहे हैं आपस में दलबदल कर रहे हैं जब पित्त दलबदल कर शीत बन जाता है तो वात पेट में मरोड़ लाता है। दो महीने चूर्ण खाना, दो जनेऊ पहन लेना फिर चुनाव के बाद देखते हैं। बड़ी गजब बात है कि गांव के लिए डॉक्टर बनाए जाते हैं और गांव में कोई पढ़ा लिखा डाक्टर आने तैयार नहीं होता। सुना है कि कहीं जुगाड़ नहीं बैठा तो एक कोटे वाली डाक्टरनी पिछले हफ्ते आयी है गांव। सो हम नहाए भी खूब और धोए भी खूब फिर डाक्टरनी बाई को दिखाने चल दिए, डाक्टरनी ने दो पाइप दोनों कान में डाले और चिटी धप्प जैसी चीज पेट में रख दी… गुदगुदी हुई तो डाक्टरनी बोली – “पांव भारी हैं…. जुड़वे लग रहे हैं। गांव भर में हवा फैल गई कि हमारे पांव भारी हैं, गांव की महिलाएं गर्म भजिया और खट्टी चटनी खिलाकर पुण्य कमाने के चक्कर में थीं। पड़ोसन ने खट्टे आम टोकनी भर भिजवा दिये। हम कहीं मुंह दिखाने काबिल नहीं रहे तुरंत जनेऊ उतार के फेंक दिया। घरवाली भी शक की निगाह से देखने लगी…. एक तो पेट में दर्द और ऊपर से लांछन पे लांछन…. ।तंग आ गये पैर तरफ नजर डाली तो पैरों में खूब सारी सूजन और अब सचमुच पैर भारी लगने लगे। पत्नी बोली – चलो पास के शहर में दिखा लेते हैं, हो सकता है कि डाक्टरनी झूठ बोल रही हो क्योंकि आजकल झूठ बोलने का फैशन बढ़ गया है, कुछ मालूम नहीं तो झूठ बोल कर टाल दो…. झूठ की अपनी महत्ता अपनी उपयोगिता और अपना इतिहास है यूं तो झूठ का ‘विकास’ मानव सभ्यता के साथ हुआ पर इन दिनों झूठ – झटका और विकास का बोलबाला है। वे “झूठ बोले कौआ काटे….” वाला गाना सुनकर खूब झूठ बोलते हैं झटके मारते हैं पर कौआ उनको नहीं काटता इसलिए वे फेंकू उस्ताद कहलाते हैं। झूठे अच्छे दिन आने वाले हैं। बड़ा गजब है झूठ बोलने वाला होशियारी और दिलेरी से सफेद झूठ बोलता है और सुनने वाला उसे पूरी सच्चाई से सुनकर मान लेता है…… पत्नी लगातार बड़बड़ाये जा रही है। पत्नी जब बड़बड़ा रही हो तो बीच में बोलने से फटाके जैसे फट पड़ती है इसलिए उस समय चुप रहने से सुरक्षा बनी रहती है सो हमने चुप रहना ज्यादा ठीक समझा, चुप रहने का भी इतिहास है जनेऊ कान में लगाने से चुप रहने की कला सीख सकते हैं।

चुपचाप कपड़े – लत्ते रखके बस में बैठ गए, शहर पहुंचे तो डॉक्टर बोला – पैर में सूजन मतलब किडनी में गड़बड़ी…… तुरत-फुरत डाक्टर ने कहीं फोन लगाया “किडनी आ गई है”। भर्ती किया सब टेस्ट कराए आपरेशन कर दिया हम का जाने कि आजकल किडनी की चोरी भी होत है। कुछ दिन में छुट्टी हुई बोला – दो महीने बाद दिखाना। दो महीने बाद गये तो पैरों की सूजन और बढ़ गई है डाक्टर बोला – दिल का मामला है हार्ट वाले को दिखाओ, हमने अपना काम कर लिया है।

हार्ट वाला डाक्टर बोला – ‘ब्लॉकेज ही ब्लॉकेज हैं’ तभी तो पैर भारी लग रहे हैं पैरों में भरपूर सूजन है, एंजियोगराफी, एंजियोप्लास्टी और न जाने क्या क्या करके पत्नी के गहने और घर बिकवा दिया, बोला – जी है तो जहान् है…… ।पत्नी फिर बड़बड़ाने लगी – ये सब झूठे हैं, ठगने के बहाने डराते हैं, साले सब परजीवी हैं, गरीबों पर दया नहीं करते, एक किडनी चुरा ली, अब दिल चुराने में लगे हैं, कोई पांव भारी हैं कहता है कोई दिल की नाली चोक की बात करता है,………. हमने फिर पत्नी को टोंका – भागवान थोड़ा चुप रहो डाक्टर सुन लेगा तो बिल बढ़ा देगा…… बिल बढ़ने के नाम पर पत्नी थोड़ा चुप हो गई।

आठ महीने बीत गए थे कुछ हो नहीं रहा था नौवें महीने की शुरुआत हो चुकी थी पेट में उथल-पुथल मची गई, पीड़ा का इतिहास पर्वत बन रहा था पेट और पांव की सूजन इतिहास बनाने के लिए दोंदरा मचा रही है।

कोई ने कहा – बराट को दिखाओ पुराना डाक्टर है मर्ज पकड़ लेता है, सो एक दिन बराट के दवाखाने चले गए। डाक्टर ने लिटाया और पूछा – कैसा लगता है ?

हमें गुस्सा आ गया हम बोले – “का कैसो लगत है” सब डाक्टर परजीवी जैसे लगते हैं, कभी पत्नी भी परजीवी लगती है बच्चे होते तो वे भी परजीवी लगते, सब कुछ परजीवी लगता है कभी पड़ोसी तो कभी मेहमान भी परजीवी लगते हैं। कभी कभी लगता है एक भारत माता है और उसकी आंतों में बड़े बड़े परजीवी मंत्री, नेता अफसर, डाक्टर सब चिपक कर खून चूस रहे हैं फिर कभी लगता है कि 140 करोड़ आबादी अच्छे दिन ले के आओ कह के चिल्ला रही है और उनकी आवाज दबाने हर क्षेत्र में नये-नये परजीवी पैदा हो रहे हैं जिन्होंने देश को भाषा धर्म और जाति के आधार पर बांट रखा है कुछ परजीवी बनकर कुर्सियों में चिपके हैं और भ्रष्टाचार फैला रहे हैं…….
ज्यादा मुंह चलता देख डाक्टर ने ऐसा पेट दबाया कि हमारा मुंह बंद हो गया……….

डाक्टर बोला – जिन परजीवियों की बात कर रहे हो सब तो तुम्हारे पेट में भरे हैं बहुत से जुड़वा भरे हैं। सुन के हम डर गये, बड़ी मुश्किल है कि हमने कुछ किया ही नहीं तो इतने सारे कहां से भर गये, घबराके भागने लगे तो डाक्टर ने पकड़ लिया…. ढाढस बंधाया बोला – “आपरेशन नहीं करुंगा…. गोली से निकाल दूंगा।

हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था सो हम अब हर बात पर हां… हां करते हुए बैठ गए।

डाक्टर ने तीन गोली एक साथ खिलाई। रात भर सोये, सुबह रेल पटरी के किनारे खुले में शौच करने बैठे तो भलभला के निकलने चालू हो गये….

पहले दो निकले आधे निकले और फंस गए तो हमने खींच के निकाला, फिर दो और निकल आए, दो – दो करते निकलते रहे, हम खींचतान करके निकालते रहे। लाईन लगा के निकलते रहे। इतिहास रच डाला। फिर हमने सबको धोया – पोंछा और पत्नी को दिखाया…. पत्नी की जीभ निकल आयी बोली – अरे…. ये तो पटार हैं पटार पेट में पाया जाने वाला एक्स्ट्रा लार्ज परजीवी कृमि है परजीवी बनके चूस डाला। पांव भारी करके बदनामी करायी, इनके चक्कर में किडनी चोरी हुई, दिल का दिवाला निकल गया।
जाओ नाली में फेंक दो इनको…….. ।

पेट से निकले पटारों को देख देख कर अंदर से बड़ी आत्मीयता और ममता फूट रही है क्यों न फूटे…. नौ महीने से पेट में पले बढ़े हैं नौ महीनों से इन्होंने भी भूख प्यास, सुख दुख सब कुछ मेरे साथ सहा है, और पेट में ही रहे आये इधर उधर भगे नहीं, इन्होंने नयी-नयी देशभक्ति जैसी निभाई चूसते भले रहे पर आधार को लिंक करने की मांग नहीं उठाई। जीव हत्या का पाप डाक्टर को लगेगा पर हमें इन पर दया आ रही है ये जो लम्बे लम्बे तंदुरुस्त से पड़े हैं। इन बेचारों ने डाक्टरों के इतिहास के काले पन्ने पढ़ने का मौका दे दिया। पटार महराज ने हमें इतिहास लिखना सिखा दिया।

गिला किसी से नहीं……. शिकायत किसी से नहीं…. दर्द अपनी जगह था पर अपना अपना इतिहास में हमारे पटार महराज का इतिहास निखालिस कहलाएगा, हालांकि इतिहास विवाद का विषय बनता जा रहा है इन दिनों, इतिहास से राजनीति गरमा जाती है, इतिहास से दंगा फसाद का डर हो गया इन दिनों। नाक कटने का डर….. गला काटने के फरमान। इतिहास पर फतवे……. राम… राम ।खेल खतरनाक हो रहा है पर गीता पर हाथ रखकर हम कह रहे हैं कि पटार प्रकरण इतिहास सत्य है और सत्य के अलावा कुछ नहीं है और न ही इस इतिहास में कोई खतरे हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #178 ☆ व्यंग्य – बल्लू की परेशानी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य ‘बल्लू की परेशानी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 178 ☆

☆ व्यंग्य ☆ बल्लू की परेशानी

बल्लू कई दिन से ग़ायब है। पहले रोज़ कॉफी-हाउस में पहुँचकर दो-तीन घंटे बहस-मुबाहिसे  में बिताना उसका प्रिय शग़ल था। अब वह गूलर का फूल हो गया है और हम उसे तलाशते फिरते हैं।

धीरज चुका तो हम उसके घर पहुँच गये। बुलाने पर निकलकर ड्राइंग-रूम में आया। अचानक ग़ायब हो जाने का कारण पूछने पर उँगलियाँ मरोड़ता धीरे-धीरे बोला, ‘तबियत ठीक नहीं रहती। डिप्रेशन का असर है।’

मैंने पूछा, ‘हे भाई, तू सर्व प्रकार से सुख में है, फिर डिप्रेशन की वजह क्या है?’

बल्लू बोला, ‘भाई, मैं बहुत दिनों से जुमला-वायरस से परेशान हूँ जो मुझे कोरोना वायरस से भी ज़्यादा डराता है। ये वायरस बार-बार हमला करता है। एक जुमला जाता है तो दूसरा उसकी जगह खड़ा हो जाता है। चैन से रहने नहीं देता।’

मैंने पूछा, ‘भाई, तू कौन से जुमलों की बात करता है जो तेरे लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं?’

बल्लू बोला, ‘पता तो तुम सभी को है, लेकिन तुम लोग फिक्र नहीं करते। मैं कुछ ज़्यादा सोचता हूँ, इसलिए ज़्यादा परेशान होता हूँ।

‘जुमले अब टिड्डियों जैसे हमला कर रहे हैं। पहले जब कुछ लेखकों-कवियों ने अपने पुरस्कार लौटाये तो ‘अवार्ड वापसी गैंग’ का जुमला आया। मैंने उसकी फिक्र नहीं की क्योंकि अपने पास तो लौटाने को कोई पुरस्कार था ही नहीं। इसके बाद जे.एन.यू. वाला ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का जुमला आया। उससे भी अपन को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि अपन को जे.एन.यू. से क्या लेना देना? लेकिन जब ‘देशद्रोही’ वाला जुमला आया तो अपन को डर लगा क्योंकि देशद्रोही की कोई मुकम्मल परिभाषा नहीं थी। किसी को भी इस में लपेट लेना मुश्किल नहीं था।

‘फिर ‘बुद्धिजीवी’, ‘लिबरल’ और ‘स्यूडो सेकुलर’ यानी ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ जैसे जुमले आये। मैंने तत्काल अपने को बुद्धिजीवी कहना बन्द किया और बुद्धिजीवियों की सोहबत में उठना-बैठना बन्द कर दिया। ‘लिबरल’ के ठप्पे से बचने के लिए पोंगापंथी और अंधविश्वास पर टिप्पणी करना बन्द कर दिया, और ‘स्यूडो सेकुलर’ की चिप्पी से बचने के लिए दूसरे धर्मों की तारीफ करने से परहेज़ करने लगा।

‘इसके बाद एक जुमला ‘अर्बन नक्सल’ आया जो काफी ख़तरनाक था। इससे बचने के लिए अपन ने समाज-सेवा और आदिवासी-कल्याण जैसे मंसूबे अपने दिमाग़ से निकाल फेंके।

‘फिर नयी परेशानी तब हुई जब एक मंत्री ने गद्दारों को गोली मारने का नारा लगवाया। मुझे डर इसलिए लगा क्योंकि ‘गद्दार’ की कोई ‘डेफिनीशन’ ज़ारी नहीं हुई। यह स्पष्ट नहीं किया गया कि डेफिनीशन ऊपर से आएगी या गोली मारने वाले अपने हिसाब से गद्दारों को चिन्हित करेंगे। आदमी को विरोधी विचारों वाले सब गद्दार ही लगते हैं।

‘अब ‘सनातनी’ और ‘गैर-सनातनी’ वाले जुमले हवा में तैर रहे हैं और मैं ‘सनातनी’ का मतलब समझने के लिए किताबों से मगजमारी कर रहा हूँ।

‘कुल मिलाकर मैं बहुत परेशान हूँ और बार-बार डिप्रेशन का शिकार होता हूँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #177 ☆ व्यंग्य – पाँव छुआने वाले सर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य पाँव छुआने वाले सर । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 177 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पाँव छुआने वाले सर

सक्सेना सर शहर के नामी स्कूल से रिटायर हुए। उनके स्कूल का प्रताप ऐसा कि शहर के अलावा आसपास के कस्बों के लड़के प्रवेश के लिए पहले वहीं लाइन लगाते रहे। इसीलिए सक्सेना सर के चेलों की संख्या हज़ारों में है। हर दफ्तर में उनके दो चार चेले मिल जाते हैं। सक्सेना सर कभी बाज़ार जाते हैं तो न जाने कहाँ से प्रकट होकर दस बीस सिर उनके चरणों में झुक जाते हैं। कभी रेलवे स्टेशन जाते हैं तो वहाँ भी भीड़ से टूटकर पाँच दस सिर उनके चरणों को टटोलने लगते हैं। उनके नाती-पोते कहते हैं, ‘दादा जी, आपको तो चुनाव में खड़े होना चाहिए। आपको बिना माँगे हज़ारों वोट मिल जाएँगे।’ सुनकर सक्सेना सर का चेहरा गर्व से दीप्त हो जाता है।

उनकी कॉलोनी में भी उनका बड़ा मान- सम्मान है। कॉलोनी के युवक-युवतियाँ उनके सामने आते हैं तो आँखें झुका लेते हैं। किसी नेता को कॉलोनी में आमंत्रित किया जाता है तो सक्सेना सर को उनके बगल में बैठाया जाता है। अक्सर नेताजी भी सक्सेना सर के शिष्य निकलते हैं।
सक्सेना सर की लोकप्रियता देखते हुए कॉलोनी वासियों ने उन्हें कॉलोनी की कल्याण- समिति का अध्यक्ष बना दिया है। काम-धाम तो दूसरे करते हैं, उन्हें इसलिए चुना गया है ताकि कॉलोनी अधिकारियों के अनावश्यक हस्तक्षेप और खींचतान से बची रहे। कॉलोनी वासियों के लिए वे तुरुप का पत्ता हैं जो उस वक्त काम आता है जब दूसरे उपाय फेल हो जाते हैं।

कॉलोनी वालों के कुछ ज़रूरी काम नगर-विकास के दफ्तर में अटके हैं। कॉलोनी के सभी प्लॉट लीज़ पर हैं। उन्हें फ्रीहोल्ड कराने की मंज़ूरी ऊपर से आ चुकी है। अब दफ्तरी कार्यवाही बाकी है, जिसके लिए कॉलोनी वासी दफ्तर के चक्कर लगा रहे हैं। किसी न किसी बहाने मामला टाला जा रहा है और कॉलोनी वासी परेशान हैं।

लाचार कॉलोनी वालों ने सक्सेना सर का दामन थामा। उन से निवेदन किया गया कि संबंधित दफ्तर चलकर प्रमुख अधिकारी को दर्शन दें और कॉलोनी वालों की समस्या उनके सामने रखें। सक्सेना सर मान गये और एक दिन सक्सेना सर को दूल्हे की तरह आगे करके दस बारह लोगों की बरात दफ्तर पहुँच गयी।

सक्सेना सर दफ्तर के बरामदे में पहुँचे तो वहाँ उन्हें देखकर लोगों के कदम ठमकने लगे। गर्दनें उनकी तरफ मुड़ने लगीं। थोड़ी ही देर में उनके भूतपूर्व शिष्य अपने-अपने कमरों से निकलकर आने लगे। थोड़ी देर में उनके चरन, स्पर्श के लिए झुके हुए नरमुंडों में छिप गये। सक्सेना सर गर्व से अपने साथ आये लोगों की तरफ देखते रहे।

दफ्तर के प्रमुख अधिकारी भी दौड़ते हुए आ गये। बोले, ‘कैसे पधारे सर? फोन कर दिया होता। आपको कष्ट करने की क्या ज़रूरत थी?’

सक्सेना सर ससम्मान चेंबर में ले जाए गये, जहाँ पूरी मंडली के सामने चाय पेश की गयी। मंडली सक्सेना सर को मिल रहे सम्मान से गद्गद थी।

लोगों ने अपनी समस्या प्रमुख अधिकारी जी के सामने रखी। अधिकारी ने संबंधित लिपिक झुन्नी बाबू को बुलाकर कैफियत ली, फिर सर से बोले, ‘मैं दो-तीन दिन में फोन से खबर दूँगा। आप चिन्ता न करें। हमारे रहते आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।’

सर खुश खुश लौट आये। उनकी मंडली के पाँव ज़मीन पर नहीं थे। सक्सेना सर का जलवा ही अलग है! काम हुआ ही समझो।

दो-तीन दिन की जगह हफ्ते से ऊपर हो गया, लेकिन दफ्तर से कोई फोन नहीं आया। लोग बेचैन होने लगे। एक बार फिर सक्सेना सर से अनुरोध किया गया। एक बार फिर सक्सेना सर बरात लेकर दफ्तर पहुँचे। एक बार फिर दफ्तर के शिष्य उनके चरणों में झुके, लेकिन इस बार प्रमुख अधिकारी जी बाहर नहीं निकले।

सक्सेना सर उनके चेंबर में घुसे तो वे रूमाल से मुँह पोंछने लगे। झुन्नी बाबू को तलब किया गया। वे आये और मिनमिनाते हुए साहब को कोई दिक्कत बताते रहे, जो मंडली की समझ में नहीं आयी। साहब सक्सेना सर से मुखातिब हुए,बोले, ‘आप फिकर न करें। मैं दो-तीन दिन में पक्का देख लूँगा। अभी कुछ बिज़ी हो गया था। मैं फोन करूँगा। आप निश्चिंत रहें।’

बरात फिर लौट आयी। फिर आठ दस दिन गुज़र गये, लेकिन उस तरफ सन्नाटा ही रहा। कोई फोन नहीं आया। कॉलोनी वाले फिर छटपटाने लगे। एक दो लोग कहीं से झुन्नी बाबू का फोन नंबर ले आये। डरते डरते फोन लगाया। झिझकते हुए पूछा, ‘झुन्नी बाबू, हम लोग सक्सेना सर के साथ आये थे। हमारे लीज़ वाले मामले का क्या हुआ?’

उस तरफ से थोड़ी देर सन्नाटा रहा। फिर झुन्नी बाबू बोले, ‘भैया, काम कराना हो तो सही रास्ते से चलो। सक्सेना सर के साथ आओगे तो उनके सामने मन की बात कैसे होगी? सब लोग पाँव ही छूते रहेंगे, आगे कुछ नहीं होगा। इसलिए जिसका काम है वह आकर बात करे। काम कराना हो तो अब सक्सेना सर को लेकर मत आना।’

तब से कॉलोनी के लोग सक्सेना सर से कन्नी काटते फिर रहे हैं। वे सामने आते दिखते हैं तो लोग दाहिने बायें से निकल जाते हैं। वे तीसरी बार भी उस दफ्तर में जाने को तैयार हैं, लेकिन उन्हें ले जाने वाले ग़ायब हैं। सुना है कि लोग मन की बात करने के लिए अलग-अलग झुन्नी बाबू के पास पहुँचने लगे हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 133 ☆ भाषा का विज्ञान ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना भाषा का विज्ञान। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ भाषा का विज्ञान 

मन की बात को समझने हेतु नयनों को पढ़ना जरूरी होता है। दिमाग में क्या चल रहा है, इसे माइंडरीडर आसानी से बता देते हैं। मौन जब मुखरित होता है तो अनकहा भी सुनाई देने लगता है। जरा सोचिए सुनने- सुनाने से क्या होगा? आपको समाधान की ओर जाना चाहिए। हम आसानी से दूसरों के मन को समझ लेते हैं, किंतु कहीं वो कुछ माँगने न लगे इसलिए जान बूझ कर अनजान बनने का नाटक करते हैं।

अब सोचिए कि क्या जरूरत है सब के विचारों को पढ़ने की? हम स्वयं को समझे बिना सब को ज्ञान बाँटने चल देते हैं। देखा- अनदेखा सब कुछ नजर अंदाज करते हुए व्यर्थ का गाल बजाने लगते हैं। हर तर्क विज्ञान की कसौटी पर कसा जा सकता है बस प्रयोगशाला कैसी होगी इसका ध्यान जरूर रखना चाहिए।

मन के भावों को शब्दों से व्यक्त करना उतना आसान नहीं होता जितना हाव- भाव को देखकर समझना सरल होता है। हर चेहरा मुस्कराए इसके लिए एक ही उपाय लागू नहीं किया जा सकता है। जैसे हर मर्ज की दवा  अलग- अलग होती है, वैसे ही मनोभाव आवश्यकता अनुसार बदलते रहते हैं। जिसको जिस तरीके से समझ में आए वैसा समझाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।

धर्म की कसौटी पर खुद को परखना बहुत सरल होता है, क्योंकि जब से समझ शुरू होती है, हम कोई न कोई विचारधारा के साथ जुड़ते चले जाते हैं। श्रद्धा और विश्वास के सहारे अपने सभी कार्यों को प्रार्थना द्वारा आसानी से पूर्ण करते जाते हैं। बस यहीं से हमारी आस्था धार्मिक विचारों के प्रति सुदृढ़ होती जाती है। क्या फर्क पड़ता है कि हम किस तरह से स्वयं को विकसित कर पाते हैं? जो भी हमें मानसिक सुकून दे उस भाषा को पढ़ना, समझना आना ये भी तो एक कला है। सच्चाई के साथ जुड़कर सर्वमंगल का भाव रखते हुए कार्यों को करते कराते रहें एक न एक दिन सत्य सब को समझ में आएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 132 ☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सबको साथ लेकर चलना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ 

फूलों के साथ खुशबू, रंग, शेड्स व काँटे रहते हैं। सबका अपना- अपना महत्व होता है। क्या आपने महसूस किया कि जीवन भी इसी तरह होता है जिसमें सभी को शामिल करते हुए चलना पड़ता है। इस सबमें समझौते का विशेष योगदान होता है। जो अपने आपको निखारने में लगा हुआ हो उसे केवल सुख  की चाहत नहीं होनी चाहिए, दुख तो सुख के साथ आएगा ही। हम सबमें संतुष्टि का अभाव होता है, जिसके चलते सफलता और शीर्ष  दोनों चाहिए। प्रतिद्वंद्वी हो लेकिन कमजोर। ताकतवर से दूरी बनकर चलते हुए कहीं न कहीं हम स्वयं को निरीह करते चले जाते हैं। इस तरह कब हम दौड़ से बाहर हो गए पता ही नहीं चलता।

हाँ एक बात जरूर है, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति दबाब नहीं सह पाते, दूसरों की तारीफ व उपलब्धियों से आहत होकर अपना रास्ता बदल देते हैं। जहाँ के लिए निकले हैं वहाँ तो पहुँचिए। कमजोर मन की यही निशानी है कि वो दूसरों द्वारा संचालित होता है। यदि आप उच्च पद पर विराजित हैं तो सहना आना चाहिए। आग सी तपिश, धूप की तेजी यदि नहीं होगी तो कोई भी आसानी से उल्लू बनाकर चलता बनेगा।

चलने से याद आया जो रास्ते पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ बनेगा क्योंकि धूल में बहुत ताकत है। धरती मैया का आशीर्वाद समझ कर इसे स्वीकार कीजिए और आगे बढ़ते रहिए। जब सोच सही होगी तो साथी मिलने लगेंगे। आसानी से जो कुछ मिलता है उसमें भले ही चमक दमक हो किन्तु लोगों को उसमें कोई जुड़ाव नहीं दिखता है। जब मन ये तय कर लेता है कि प्रतिदिन इतनी दूरी तो तय करनी ही है, तो असम्भव कुछ नहीं रह जाता। सारा दिमाग का खेल है। किसी को परास्त करना हो तो उसके दिमाग व मनोभावों से खेलिए, यदि उसमें लक्ष्य के प्रति लगन का भाव नहीं होगा तो वो आपसे दूरी बना लेगा। हम जब तक आरामदायक स्थिति से दूर नहीं होंगे तब तक आशानुरूप परिणाम नहीं मिलेंगे।

तरक्की पाने हेतु लोग अपना गाँव, शहर, प्रदेश व देश तक छोड़ देते हैं। बाहर रहकर पहचान बनाना कोई आसान कार्य नहीं होता है। जिसमें जो गुण होता है वो उसे तराश कर आगे बढ़ने लगता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि समय का उपयोग करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको सजाते- सँवारते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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