हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 31 ☆ व्यंग्य – नंगे हो तो नंगे दिखो भी ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नंगे हो तो नंगे दिखो भी”।) 

☆ शेष कुशल # 31☆

☆ व्यंग्य – “नंगे हो तो नंगे दिखो भी” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हम तो कहेंगे साहब कि ये हवाईजहाज़ बनाने वाली कंपनी की गलती है. इतने बड़े एयरक्राफ्ट के अन्दर खम्बे फिट करना भूल गई. अब किसी को एक पैर ऊपर करके हल्का होना हो तो वो आसमान में कहाँ जाए, बताईये भला ? फ्लाईट में बैठनेवाले सभी तो इंसा नहीं होते हैं ना, कुछ सूंघ कर करनेवाले भी होते हैं. धुत्त नशे में जो इंसा इंसा नहीं रहा उसके लिए क्या तो महिला और क्या तो खम्बा. करने को तो वे टायर पे भी कर सकते थे मगर आसमां में विमान के टायर बाहर नहीं होते सो अन्दर ही हल्का होना पड़ा.

बहरहाल, आसमां पर रहनेवाले आभिजात्य के लिए नीचे की पूरी दुनिया एक यूरीनल है, वे जब जैसे जहाँ चाहे यूरिनेट कर सकते हैं. वे ओरिजनलिटी में रहते हैं, नंगे हो तो नंगे दिखो भी. उन्होंने नंगापन दिखाया तो, आई मीन ज़िप खोल के जेनिटल्स दिखाए ना. अखबार में तो यही लिखा रहा. पूछने का मन किया किया कि बिना ज़िप खोले उनपे धार कैसे मारी जा सकती थी जो दादी नहीं तो माँ की उम्र की तो हैं ही. शराब तो बस तड़का लगाती है, असल नशा पद, पैसे, रसूख का होता है. एक तो फ्रिक्वेंट फ्लायर,  मल्टीनॅशनल कंपनी का वाईस प्रेसिडेंट,  करोड़ दो करोड़ का पैकेज तो रहा ही होगा, कमाल का पढ़ा लिखा मगर अंततः नंगा जो ठहरा. नंगे के नौ-ग्रह बलवान.  केबिन-क्रू को भी अपनी नौकरी प्यारी जो ठहरी. न एयर इंडिया सरकारी रही न उनकी नौकरियाँ. अब गई कि तब गई. तलवार की धार पर चलना है तो धार मारनेवाले कस्टमर को भी नाराज़ नहीं कर सकते. घुटना डॉलर की तरफ मुड़ता है. एविएशन का मार्किट है श्रीमान, यहाँ उपभोक्ता राजा होता है. राजा को नंगा तो कोई अबोध बालक ही कह सकता है, कप्तान पायलट की क्या बिसात ?

वो राजा ही नहीं ‘राजा बेटा’ भी है. पप्पा बचाव में उतर आए हैं. जितनी घिनौनी हरकत लाड़ले ने की उतना ही खूबसूरत दलीलें धृतराष्ट्र ने दी. अपन के बाऊजी होते तो इससे हज़ार गुना छोटी हरकत पे भी हवाई अड्डे से घर तक जुतियाते हुए लाते और थानेदार को बोलते कि दो डंडे तू भी लगा नालायक के, बिरादरी में नाक कटा दी. अभिजनों के  संसार में पैसा ही नाक है, माल हो ज़ेब में तो नाक तो टाईटेनियम की भी लग जाती है. होड़ सी लगी है – बेटा इत्ता नंगा तो बाप इत्ते पे और इत्ता. वैसे भी जो लोग सभ्यता  के चरम पर पहुँच जाते हैं वे कब आदिम दौर में प्रवेश कर जाते हैं पता ही नहीं चलता,  वल्कल वस्त्र से भी पूर्व की अवस्था में. उसी का मुज़ाहिरा पेश किया सुसु भैया ने. संभ्रांतजन उस सभ्य समाज की नुमाईंदगी करते हैं जो दीखते साथ में हैं मगर होते अकेले है. अकेले सहा दादी ने. पुरुष तो बहुत थे साथ में, कमी रही तो बस एक अदद मर्द की. एक ऐसे मर्द की जो टॉमी को लतियाकर भगा पाता.

बहरहाल,  विमान के अन्दर खम्बों का इंतज़ाम किए जाने तक विमानन कंपनियों को चाहिए कि वे हर एग्जिट गेट के पास एक-एक पुराना टायर रख दे, उस प्रजाति का यात्री सूंघे और हल्का हो ले. दूसरे यात्रियों के कपड़े गीले न हों. विमान की आंतरिक दीवारों पर बाकी जगह लिखा हो – ‘यहाँ पेशाब करना मना है, पकड़े जाने पर पांच सौ रूपये जुर्माना’.

और हाँ, टेक-ऑफ से पहले एक जरूरी उद्घोषणा – “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, इस फ्लाईट में पुरुष सह-यात्री डायपर पहन कर नहीं आए हैं अतः महिला यात्री अपनी सीट के नीचे रखे रेनकोट पहन लें और उतरते समय कुर्सी की पेटी खोलने के संकेत होने तक पहने रहें. आपकी यात्रा सूखी और शुभ हो.”

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #175 ☆ व्यंग्य – एक अभिनव पुरस्कार-योजना ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मज़ेदार व्यंग्य  ‘एक अभिनव पुरस्कार-योजना’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 175 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक अभिनव पुरस्कार-योजना

नगर की नामी साहित्यिक संस्था ‘साहित्य संहार’ ने एक सनसनीखेज़ विज्ञप्ति ज़ारी की है जिससे नगर ही नहीं, पूरे देश के साहित्यकारों के बीच हड़कंप मचा है। संस्था एक अभिनव पुरस्कार योजना लेकर आयी है, जिसमें सबसे बड़ा सम्मान ‘साहित्य सूरमा’ का होगा।

संस्था ने अपनी विज्ञप्ति में लिखा कि हिन्दी साहित्य में अब तक पुरस्कारों और सम्मानों  के मामले में नासमझी और नाइंसाफी होती रही है। इसमें लेखक के वाक्चातुर्य को तवज्जो दी गयी और उसकी मेहनत को नकारा गया। ऐसा हुआ कि एक दो रचना लिखने वाला मशहूर हो गया और सौ दो-सौ लिखने वाले का कोई नामलेवा नहीं हुआ। कोई गुलेरी जी हुए जो एक कहानी के बल पर अर्श पर चढ़ गये और मोटे पोथे लिखने वाले टापते रह गये। ऐसे ही एक श्रीलाल शुक्ल हुए जो एक उपन्यास के बूते बहुत से सम्मान पा गये। हम चाहते हैं कि साहित्य में श्रम की प्रतिष्ठा हो और लेखन में पसीना बहाने वालों को महत्व मिले।

संस्था ने आगे लिखा कि इसी असमानता और नाइंसाफी को दूर करने के उद्देश्य से उसके द्वारा स्थापित होने वाला ‘साहित्य सूरमा’ सम्मान लेखक के चातुर्य पर नहीं, उसके कुल लेखन के वज़न पर आधारित होगा। इस पुरस्कार के लिए संस्था के कार्यालय के दरवाज़े पर वज़न तौलने वाली मशीनें लगायी जाएँगीं जहाँ लेखक अपना कुल उत्पाद प्रस्तुत करेंगे। सामग्री जिन थैलों या बोरों में लायी जाएगी उनकी बारीकी से जाँच होगी कि ऊपर पाँच दस किताबें या रजिस्टर डालकर नीचे वज़न बढ़ाने के लिए लोहा-लंगड़ न डाल दिया गया हो। दोषी पाये जाने वाले लेखकों को ब्लैक-लिस्ट किया जाएगा और भविष्य में भागीदारी से वंचित किया जाएगा। सामग्री पाँच अक्टूबर को संध्या पाँच बजे तक स्वीकार की जाएगी।

विज्ञप्ति ज़ारी होते ही साहित्यकारों के बीच भगदड़ मच गयी। सड़कें साहित्यकारों से सूनी हो गयीं। कॉफी-हाउसों में लेखकों की बैठकें  ग़ायब हो गयीं। सब लेखक अपने-अपने कमरों में बन्द होकर लेखन में पिल पड़े। मित्रों-संबंधियों के आने की मुमानियत हो गयी। अभी पाँच अक्टूबर को डेढ़ महीना बाकी है। इतने समय में दिन-रात मेहनत करके तीन चार किताबें लिखी जा सकती हैं।

नगर के जाने-माने कवि अच्छेलाल ‘वीरान’ इस समय अठारह घंटे कविता रच रहे हैं। उन्हें भोजन भी परिवार के लोग अपने हाथ से कराते हैं ताकि लिखने में खलल न पड़े। एक दिन बाथरूम से लौटते में चक्कर खाकर गिर गये। तब दो-तीन दिन तक बायें हाथ में ड्रिप लगी रही और दाहिने हाथ से लिखते रहे।

रोज़ सवेरे लेखकों के दरवाज़े पर प्रकाशकों की गाड़ियाँ आती हैं जो चौबीस घंटे के उत्पादन को समेट कर ले जाती हैं। समेटने वाले लेखक को आगाह करते जाते हैं कि प्रूफ्र-रीडिंग की उम्मीद न की जाए क्योंकि काम युद्ध-स्तर पर चल रहा है। छपने का काम लोकल ही हो रहा है क्योंकि बाहर भेजने का टाइम नहीं है।

जब लिखित सामग्री जमा करने की तारीख नज़दीक आने लगी तब नगर के नये लेखकों की ओर से संस्था के सम्मुख एक आवेदन प्रस्तुत किया गया जिसमें लिखा था कि समय कम होने के कारण हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी वे पुराने लिक्खाड़ों के बराबर नहीं आ सकेंगे। यह भी लिखा गया कि कई लेखक लिखते लिखते बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो गये हैं और वे  अपनी बेड पर ही लिख रहे हैं। अतः लेखकों की प्राणरक्षा की दृष्टि से लिखित सामग्री जमा करने की तारीख कम से कम छः माह बढ़ा दी जाए। तभी पुराने लिक्खाड़ों को टक्कर दी जा सकेगी और नाइंसाफी दूर हो सकेगी।

इस पर पुराने लेखकों की ओर से आपत्ति दर्ज करायी गयी कि जो लेखक कम लिख पाये वह उनके आलस्य और लापरवाही के कारण है। अतः सामग्री जमा करने की तिथि आगे बढ़ा कर आलस्य को पुरस्कृत न किया जाए।

संस्था ने नये लेखकों के आवेदन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए सामग्री जमा करने का काम फिलहाल स्थगित कर दिया है। अगली तिथि छः माह बाद घोषित की जाएगी। तब तक लेखक अपने लेखन-कोष को समृद्ध करने का काम ज़ारी रख सकते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 131 ☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “गीत – संगीत में बसी दुनिया। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 131 ☆

☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆ 

भाषा के महत्व को सभी पहचानते हैं। जब हम किसी ऐसे प्रदेश में हों जो अहिन्दी भाषी हो तो वहाँ अपनी बात चेहरे के भावों से या धुन के द्वारा बतानी होती है। आज भी हम बड़े शान से अंग्रेजी बोलते हुए स्वयं को इंटरनेशनल घोषित करना नहीं भूलते हैं। सोचिए जब कोई अन्य भाषा वाला हिंदी प्रदेशों में आता है तो उसे कैसे संवाद का हिस्सा बनाया जाए। इस सम्बंध में एक वाकया याद आ रहा है, उच्चवर्गीय पार्टी में सभी प्रदेशो से लोग आमंत्रित थे। सब तो भारतीय होने के नाते हिंदी को समझ रहे थे किंतु दक्षिण भारतीय लोग थोड़ा कम घुल मिल पा रहे थे, भाषा की समस्या उनसे जुड़ने में बाधक हो रही थी। इस बात को आर्केस्ट्रा वालों ने बहुत जल्दी भाँप लिया , बस फिर क्या था उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्मों का हिट संगीत  बजाना शुरू कर दिया। अब तो वो परिवार भी मुस्कुराने लगा, चेहरे पर संतृप्ति का भाव देखते ही उनको बुलाया गया कि वे इस गीत को स्वर दें, देखते ही देखते पूरी पार्टी थिरक उठी अब तो वहाँ ऐसा कोई नहीं बचा जो झूम न रहा हो।

इस सबसे एक बात तो तय है कि वास्तव में गीत- संगीत अपनी लय से हमें जोड़े रखता है। अर्थ समझ में भले न आये किन्तु ताल से ताल मिलाते हुए कदम थिरकने ही लगते हैं। पूरे विश्व को भारतीय फिल्में जोड़ रहीं हैं अपनी सम्प्रेषण क्षमता के कारण। हमें अपने कथ्यों पर भी नजर रखनी चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया हमें उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि सकारात्मकता से सब कुछ सम्भव है बस जुड़े रहिए कुछ सीखने के लिए। मन को पढ़ने की कला जिसको आ गयी उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 188 ☆ व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 188 ☆  

? व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार ?

व्यंग्यकार भी आखिरकार समाज का ही हिस्सा होता है, वह रोबोट की तरह नियमो में बंधा आदर्श लेखन मात्र नही कर सकता। वह पूर्वाग्रहों से मुक्त कैसे हो? स्त्री, विद्रूप शरीर, अपनी आदतों के चलते जातियां विशेष जैसे सरदार जी या सिंधी, कंजूसी के चलते महाराष्ट्रीयन आदि पर व्यंग्य किए जाते थे, किंतु समय ने परिवर्तन किए हैं, इन इंगित लोगों में भी और व्यंग्यकार की मानसिकता पर भी, अब इन पर हास्य कम हो रहे हैं, होने भी नहीं चाहिए। अब अष्टाव्रक को देख सभा मखौल उड़ाने की जगह संवेदना के भाव रखने लगी है, जो सर्वथा सही है।

किंतु आतंक के लिए पाकिस्तान या सामान की कम गुणवत्ता के लिए चीन जैसे नए समीकरण नई विसंगतियां उठ खड़ी हुई हैं। इन पर चोट करने से शायद व्यंग्यकार को आनंद मिलता है। तो वह इन जैसे विषयों पर स्वान्तः सुख के साथ साथ पाठको के लिए लिख रहा है।

इसे हम सामाजिक समरसता के विरुद्ध कह जरूर सकते हैं किंतु व्यंग्यकार का काम ही उन मुद्दों को कुरेदना  है जो आम आदमी को चोट करते हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #174 ☆ व्यंग्य – फर्ज़ बनाम इश्क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य  ‘फर्ज़ बनाम इश्क’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 174 ☆

☆ व्यंग्य ☆ फर्ज़ बनाम इश्क

हाल में एक सनसनीख़ेज़ ख़बर पढ़ी कि बांग्लादेश की सीमा पर ड्यूटी पर तैनात सीमा सुरक्षा बल की स्निफ़र कुतिया ने तीन बच्चों या पिल्लों को जन्म दे दिया।  सनसनीख़ेज़ इसलिए कि ड्यूटी पर तैनात कुतियों को गर्भ धारण करने की इजाज़त नहीं होती।इसकी वजह यह है कि गर्भ धारण के काल में कुतियों की सूँघने की क्षमता क्षीण हो जाती है। ड्यूटी के दौरान उनके आचरण के ऊपर सख़्त निगरानी रखी जाती है और वे तभी बच्चे पैदा कर  सकती हैं जब विभाग का पशु-चिकित्सक इजाज़त दे। अब यह समझना मुश्किल हो रहा है कि इतनी चौकसी के बावजूद कुतिया ने अपने ‘हैंडलर्स’ की नज़र बचाकर अपना प्रेमी कैसे तलाश लिया। ज़ाहिर है कि कुतिया ने फर्ज़ के ऊपर इश्क को तरजीह दी, जो अक्षम्य अपराध है।इस मामले में कोर्ट ऑफ़ इनक्वायरी बैठा दी गयी है। कुतिया को ड्यूटी पर इश्क फरमाने की जो भी सज़ा मिले, उसके ‘हैंडलर्स’ की जान निश्चित ही साँसत में होगी।

अभी बच्चों के पिता के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। मेरी चिन्ता यह है कि चूँकि यह लव-स्टोरी बांग्लादेश की सीमा पर घटित हुई है, कहीं ऐसा न हो कि देश के सयानों के द्वारा इसमें भी लव-जिहाद का कोण ढूँढ़ लिया जाए।ऐसा हुआ तो हमारे न्यूज़ चैनलों की पौ-बारह हो जाएगी। उन्हें दिन भर मुर्गे लड़ाने के लिए मसाला और वसीला बिना मेहनत के मिल जाएगा। उम्मीद है इस घटना का भारत-बांग्लादेश रिश्तों पर असर नहीं होगा।

मेरी चिन्ता की ख़ास वजह यह है कि यह जुमला इंसानों पर कई बार चिपकाया जा चुका है, इसलिए अब पशु-पक्षियों का नंबर लगने की पूरी संभावना है। इस सिलसिले में मुझे कथाकार पुन्नी सिंह की मार्मिक कहानी ‘काफ़िर तोता’ याद आती है। तोता जिस परिवार में रहता है उसके सदस्य उसे अपने धर्म के अनुसार मंत्र आदि सिखाते हैं।कुछ समय बाद वह परिवार तोते को वहीं छोड़कर अन्यत्र चला जाता है और घर में दूसरे समुदाय का परिवार आ जाता है। बेचारा पक्षी इस परिवर्तन का मतलब नहीं समझ पाता और वह वही दुहराता है जो उसे सिखाया गया है। नतीजतन उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। मतलब यह कि निरीह पशु-पक्षियों को भी आदमी के पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों से अपनी जान बचा पाना मुश्किल है।

मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टिटवाल का कुत्ता’ भी याद आती है। कुत्ता सीमा पर तैनात हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी फौजों के बीच भोजन के लालच में दौड़ता रहता है और अंततः दोनों  की आपसी घृणा का शिकार होकर मारा जाता है। एक सिपाही टिप्पणी करता है, ‘अब कुत्तों को भी या तो हिन्दुस्तानी होना पड़ेगा या पाकिस्तानी।’ संदेश साफ है, जो बँटेंगे नहीं वे मारे जाएंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 130 ☆ स्नेह की ताकत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “स्नेह की ताकत। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 130 ☆

☆ स्नेह की ताकत ☆ 

वैसे तो हर दिन अपने आप में नया होता है किन्तु एक विशेष दिन का निर्धारण करना ही चाहिए, जो उसकी पहचान बनें। अभी हम लोग कैलेंडर नववर्ष को मना रहे हैं। इस समय अपने संकल्प को फलीभूत करने हेतु बहुत से वायदे करते हैं। जहाँ कुछ लोग समय के साथ चलकर इसे पूर्ण करते हैं तो वहीं अधिकांश लोग इसे केवल डायरी तक ही रख पाते हैं। खैर जितने कदम चलें, चलिए अवश्य क्योंकि आपकी यात्रा व्यर्थ नहीं जाएगी। उचित समय पर परिणाम मिलेगा। इस दौरान लोगों का स्नेह आपको शक्ति व संबल प्रदान करेगा।

प्रकृति में उसी व्यक्ति या वस्तु का अस्तित्व बना रहेगा जो समाज के लिए उपयोगी हो, समय के साथ अनुकूलन व परिवर्तन की कला में सुघड़ता हो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मुझे जो मिलना चाहिए वो नहीं मिला या मुझे लोग पसंद नहीं करते ।एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचने के दौरान आपको विभिन्न जलवायु, खानपान, वेशभूषा के लोगों का सानिध्य रहेगा। सबको समझने के लिए जुड़ाव होना बहुत जरूरी है।

यदि ऐसी परिस्थितियों का सामना आपको भी करना पड़ रहा है तो अभी  भी समय है अपना मूल्यांकन करें, ऐसे कार्यों को सीखें जो समाजोपयोगी हों, निःस्वार्थ भाव से किये गए कार्यों से अवश्य ही एक न एक दिन आप लोगों की दुआओं व दिल में अपनी जगह बना पायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर, विचारणीय एवं चिंतनीय  व्यंग्य – “महासुख का राज रजाई”)

☆ व्यंग्य # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में रजाई… वाह रजाई… हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा। इस प्रकार अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत की है पर गुजरात के चुनाव ने सबको डरा दिया है जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी। खैर जो भी होगा देखा जाएगा अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #173 ☆ व्यंग्य – बुलडोज़र-क्रान्ति ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘बुलडोज़र-क्रान्ति ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 173 ☆

☆ व्यंग्य ☆ बुलडोज़र-क्रान्ति

अरसे से शिकायत सुनते आये कि हमारे देश में न्याय व्यवस्था कच्छप गति से चलती है, कि न्याय के नाम पर तारीख पर तारीख मिलती है, कि दादा के लगाये मुकदमे का फैसला पोता ही सुन पाता है। न्यायालयों में ‘पेंडिंग’ लाखों मुकदमों की संख्या गाहे-बगाहे गिनायी जाती है।

लेकिन अब लगता है कि हमारे पुराने दर्द की दवा मिल गयी है। कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा कभी जनता को पेनिसिलिन की खोज के समय हुआ होगा। अब न्याय की गाड़ी बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलेगी। ठीक भी है, जब देश में विकास छलाँगें ले रहा हो तो न्याय-व्यवस्था क्यों पीछे रहे? उसे भी वायु-वेग से दौड़ाने का नुस्खा प्राप्त हो गया है। इसीलिए उत्तर-प्रदेश के बाद कई राज्य-सरकारें इस तुरन्त फल देने वाली व्यवस्था को अपना रही हैं।

देश की न्याय व्यवस्था को रफ्तार देने वाले उपकरण का नाम बुलडोज़र है। अब बुलडोज़र देश के भारी-भरकम न्याय-तंत्र की जगह पर बैठेगा। मज़े की बात यह है कि बुलडोज़र हमारे समाज में कोई नयी चीज़ नहीं है। वह पचासों साल से मिट्टी या मकानों को खोदने या तोड़ने के छोटे-मोटे काम करता रहा है, लेकिन उसकी असली उपयोगिता हाल ही में ज़ाहिर हुई है। यानी ‘कँखरी लड़का, गाँव गुहार’ वाली बात हो गयी। न्याय-व्यवस्था का शर्तिया उपचार हमारे सामने था और हम उसे सुधारने के लिए सालों से मगजपच्ची करते रहे।

हम यह देखकर चमत्कृत हैं कि बुलडोज़र न्याय के मामले में सालों का काम कुछ घंटों में निपटाता है। आरोपी कहीं नारा लगाता है या पत्थर फेंकता है और उसकी गिरफ्तारी के  साथ बुलडोज़र उसके घर को ध्वस्त करने दौड़ पड़ता है। आरोपी को पहचानने, उसकी सफाई सुनने, उसकी सज़ा का निर्धारण— सब काम कुछ देर में एक ही कमरे में फटाफट हो जाता है, और फिर सज़ा मिलने में उतनी ही देर लगती है जितनी बुलडोज़र को गंतव्य तक पहुँचने में लगती है। इस तरह के न्याय को ‘कंगारू जस्टिस’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें न्याय सामान्य गति से चलने के बजाय कंगारू की तरह छलाँगें भरता है। मुग़लों, अंग्रेज़ों और रियासतों के ज़माने में ऐसी ही व्यवस्था लागू थी।

बुलडोज़र से टूटने वाले घर में आरोपी के अलावा और सदस्य भी रहते होंगे जिनमें बूढ़ों से लेकर महिलाएँ और बच्चे तक हो सकते हैं, लेकिन बुलडोज़र न्याय देने में कोई रू-रियायत नहीं बरतता। कुछ घंटों में सबके सर से छत ग़ायब हो जाती है और असीम, तारों-जड़ा आकाश नुमायाँ हो जाता है। ठंड या बारिश का मौसम हुआ तो स्थिति और भी दारुण हो सकती है। कोई एतराज़ करे तो मकान को अतिक्रमण बता दिया जाता है और एक-दो दिन पहले ज़ारी हुआ नोटिस भी प्रस्तुत कर दिया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि अधिकारियों को अतिक्रमण का पता अचानक तभी चलता है जब आरोपी पर उपद्रव का आरोप लगता है। बुलडोज़र की इस धमाचौकड़ी को देखकर मेरा दोस्त मन्नू बहुत भयभीत है। कहीं भी बुलडोज़र देखकर वह आँख मूँदकर उसे प्रणाम करता है, कहता है, ‘ ये हमारे नये देवता हैं। इन्हें खुश रखना ज़रूरी है। जिस दिन ये नाराज़ हो जाएँगे उस दिन दिन में तारे दिख जाएँगे।’

उत्तर प्रदेश में एक व्यापारी के घर पर बुलडोज़र इसलिए चल गया क्योंकि अधिकारी महोदय ने व्यापारी से कुछ सामान ख़रीदा था और व्यापारी भुगतान माँग रहा था।

घर टूटने के बाद आरोपी के लिए अपनी फरियाद लेकर अदालत जाने का रास्ता खुला रहता है, लेकिन इसका मतलब अदालत और वकीलों पर कई हज़ार का खर्च और कई साल तक अदालतों के चक्कर लगाना होता है। यानी घर टूटने से टूटा व्यक्ति न्याय की चक्की में फँस कर और टूट जाता है।

देश में बहुत से लोग इस नयी न्याय- व्यवस्था से बहुत खुश हैं क्योंकि बुलडोज़र ‘उन’ पर चल रहा है, हम पर नहीं। जिस दिन हम पर चलने की नौबत आएगी उस दिन देखेंगे। 

परसाई जी की रचना ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ में मातादीन कहते हैं, ‘पुलिस को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराधी को पकड़ा और वहीं सज़ा दे दी। अदालत में जाने का झंझट नहीं।’

इसमें शक नहीं कि नयी व्यवस्था के पूरी तरह लागू होने से अरबों रुपयों की बचत होगी। सारी अदालतें गायब हो जाएँगीं और वकीलों को काला कोट उतारकर कोई दूसरा कोट पहनना पड़ेगा। अदालतों में कार्यरत लाखों कर्मचारियों की छुट्टी हो जाएगी। ग़रज़ यह कि नयी व्यवस्था हमारे हुक्मरानों के लिए ‘कम कीमत, बालानशीं’ साबित होने वाली है। पहले कंप्यूटर और मोबाइल ने बहुतों की नौकरियाँ और धंधे खाये, अब वही काम बुलडोज़र करेगा।

एक पढ़ी-लिखी महिला ने हाल में फेसबुक पर लिखा कि अपनी प्रेमिका के 35 टुकड़े करने वाले आरोपी पर मुकदमा चलाने की बजाय उसका तत्काल एनकाउंटर कर दिया जाना चाहिए। यह नयी न्याय-व्यवस्था का एक और आयाम हो सकता है। वैसे भी हमारे देश में कई एनकाउंटर हो चुके हैं और कई पुलिस-अधिकारी ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के रूप में विख्यात हो चुके हैं। बुलडोज़र के साथ एनकाउंटर का सहयोग ‘मणि-कांचन योग’ हो सकता है। कुछ साल पहले हैदराबाद की एक महिला डॉक्टर की हत्या के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल एनकाउंटर में निपटा दिया था। तब जनता ने संबंधित अधिकारियों-सिपाहियों पर खूब प्यार बरसाया था। बाद में पता चला कि संबंधित सभी पुलिसवाले हत्या के जुर्म में नप गये।

हम विश्वगुरु हैं, दुनिया को ज्ञान देते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि बुलडोज़र के उपयोग का नया आयाम जो हमने खोजा है, उसकी जानकारी अन्य देशों को दें ताकि वे भी अपने यहाँ यह चमत्कारी, तुरत फल देने वाली न्याय-प्रणाली लागू कर सकें।

ताज़ा खबर यह है कि उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में एक ससुर साहब ने दामाद को दहेज में कार की जगह बुलडोज़र दिया है ताकि आमदनी का पुख्ता ज़रिया बन सके। शायद उन्हें भरोसा होगा कि कोई और नहीं तो सरकार तो बुलडोज़र को किराये पर ले ही लेगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 129 ☆ जान – पहचान ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 129 ☆

☆ जान – पहचान ☆ 

कितनी बार कहा, मुझे आनन्द नहीं खुशी चाहिए। बस इसी खुशी के मोह में अधिकांश लोग घर में रहकर,आरामदायक स्थिति में ख्याली पुलाव पकाते रह जाते हैं। जब अपनी गलती अहसास होता है तो बोरिया बिस्तर समेट कर चल देते हैं। घर को त्यागना अर्थात आराम को छोड़ना; परिक्रमा का मार्ग जहाँ अहंकार का त्याग कर प्रकृति प्रदत्त दिव्य शक्तियों से जोड़ता है वहीं पैदल चलना आपको साहसी बनाने के साथ- साथ श्रेष्ठ चिंतक भी बनाता है। राह में जो मिले उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना, जगह- जगह का भोजन, पानी, लोग, संस्कृति सबको आत्मसात करते हुए लक्ष्य तक पहुँचने में जो समय लगता है, उसे व्यर्थ नहीं कहा जा सकता है। जब आप सीखने की चाहत को लेकर आगे बढ़ते हैं तो मंजिल पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं रहती। हर पल को जीना अपने आप में स्वयं को पहचानने जैसा होने लगता है। जिसने खुद को जाना उसने सारे जगत को जान लिया।

कहते हैं, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ते हुए  विनम्रता से सब कुछ पाया जा सकता है। सत्संग, रंग, संग, कुसंग, प्रसंग, अंग, प्रत्यंग, जंग, भंग, उमंग, तरंग, बेढंग ये सब केवल तुकांत नहीं है, जीवन की शैली है, जिसे समझने हेतु पथ पर चलना ही पड़ता है।

जिसने सहजता के साथ आगे बढ़ने को अपना लिया वो देर- सवेर सही शिखर पर विराजित अवश्य होगा। स्वयं को समझने का सबसे बड़ा लाभ ये होता है कि जीतने हारने के बीच का फर्क मिट जाता है बस व्यक्ति समाज कल्याण में ही सर्वस्व लुटा देने की चाहत रखता है। सबको जोड़ते हुए आगे बढ़ते रहें, टीमवर्क का रिजल्ट आशानुरूप से भी अधिक होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 61 – जंगल में दंगल… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  “जंगल में दंगल …“।)   

☆ व्यंग्य # 62 – जंगल में दंगल – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जंगल में राजा शेर की मर्जी से वाट्सएप ग्रुप तो शुरु हो गया पर कुछ दिन सिर्फ राज़ा की रिकार्डेड दहाड़ की ही एकमात्र पोस्ट आती रही जिस पर चहेते और उपकृत पशु वाह वाह करते रहे. कुछ कमेंट्स की बानगी देखिये: आवाज़ हो तो ऐसी, सुनते ही हो जाय सबकी  ऐसी तैसी. पर जब ये ज्यादा चला नहीं तो सदस्यों की अरुचि को देखते हुये राजा शेर ने फिर से बैठक बुलाई और ग्रुप  में सबका साथ सबका मनोरंजन के सिद्धांत पर सहभागिता की अपेक्षा की.

ग्रुप का थीम वाक्य चुनने की प्रक्रिया में “Fittest will survive” सिलेक्ट किया गया.

जो शिकार होने के लिये ही पैदा हुये थे, उन्होंने दबी ज़ुबान से विरोध किया तो शेर ने समझाया कि अगर फिटेस्ट शिकार हो तो उसकी जीवन रूपी बैटरी लंबी चलेगी. अनफिट होने पर शेर को भी भूखे मरना पड़ जाता है. जंगल प्राकृतिक नियमों से चलते हैं और यहां रिटायरमेंट प्लान नहीं होते.

“जब तक सांस तब तक आस” जैसी कहावत सिर्फ मानव जीवन में संभव है. यहां कोई मसीहा नहीं होता न ही कोई अवतरित किताब जो जीवन जीने के नियम कानून कायदे बनाये. जंगल वो दुनिया है जो पाप पुण्य से परे है. यहां भोजन के लिये हिंसा एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जो शिकार बन गया वो स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म की कल्पनाओं से परे अपनी कहानी उसी वक्त खत्म कर जाता है. न तो अस्थि विसर्जन, न पिंडदान, न ही तेरहवीं और न ही वार्षिक श्राद्ध.

लोगों को, सॉरी पशु पक्षियों को ये बात अपील कर गई और फिर कुछ सदस्यों ने आगे बढ़कर अपना रोल निर्धारित कर लिये. सुबह की गुडमार्निंग कड़कनाथ उर्फ मुर्ग मुसल्लम करने लगे. संगीत से ग्रुप को सज़ाने का काम मिस कोयल कुमारी और मि. पपीहा निभाने लगे. गिद्ध और चील समुदाय अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से दूसरे ग्रुप्स में चल रहे मैसेज को कॉपी पेस्ट करने लगे. कुत्तों ने पॉप संगीत के नाम पर भौंकना चाहा पर शेर की घुड़की से पीछे हट गये. इस तरह ये ग्रुप चलने लगा और जंगल की आवाज के शीर्षक का फायदा उठाते हुये सदस्यों की अभिव्यक्तियां भी सामने आने लगीं जिनका जवाब कभी एडमिन लोमड़ सिंह और कभी सरपरस्त राजा देने लगे जिसकी बानगी अगली किश्त में सामने आयेगी।

कहानी जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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