हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ अकादमी का भूत ☆ डॉ मधुकांत ☆

डॉ मधुकांत  

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ मधुकांत जी का हार्दिक स्वागत)

संक्षिप्त परिचय  

जन्म – 11अक्टूबर1949( सांपला-हरियाणा )

पुरस्कार, सम्मान – हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला से बाबू बालमुकुंद गुप्त साहित्य सम्मान तथा महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान (पांच लाख) महामहिम राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री हरियाणा द्वारा पुरस्कृत ।

प्रकाशित साहित्य (175पुस्तकें) – 09 उपन्यास, 13 कहानी – 28 लघुकथा-15 कविता, 42 –  बाल साहित्य, 34 अन्य, 34 संपादन।  रचनाओं पर शोध कार्य।

नाटक ‘युवा क्रांति के शोले’ महाराष्ट्र सरकार के 12वीं कक्षा की हिंदी पुस्तक युवक भारती में सम्मिलित।  रचनाओं का 27 भाषाओं में अनुवाद

संप्रति –सेवानिवृत्त अध्यापक, स्वतंत्र लेखन ,रक्तदान सेवा तथा हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंथा के नाटक अंक का संपादन।   प्रज्ञा साहित्यिक मंच के संरक्षक 

☆ व्यंग्य – अकादमी का भूत ☆ डॉ मधुकांत ☆

लाख जतन किए परंतु सब निष्फल। निदेशक महोदय से लेकर चपरासी तक कभी बैठक करते, कभी अकेले में चिंतन करते… समझने का प्रयत्न करते… परंतु सब समझ से परे…। समझ में आए या ना आए परंतु यह कैसे घोषणा कर दें कि साहित्य अकादमी के कार्यालय में भूत का साया है ।जो साहित्य समाज को दिशा प्रदान करता है वह अपने माथे पर अंधविश्वास का कलंक कैसे लगने दें ।

पहली -दूसरी घटना पर किसी ने विशेष ध्यान न दिया परंतु साक्षात को प्रमाण की क्या आवश्यकता। सुबह-सुबह साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की लिस्ट गायब हुई ।दूसरी लिस्ट निकाली गई तो सारे पुरस्कार उल्टे सीधे हो गए। मुख्यमंत्री के पी ए साहब का प्रतिदिन फोन आ जाता, ‘आज ही पुरस्कृत साहित्यकारों की लिस्ट भेजो ।चुनाव का बिगुल बजने वाला है ।इससे पूर्व पुरस्कारों की घोषणा हो जानी चाहिए…’। तीसरी लिस्ट तैयार की गई तो पी ए साहब दो दिन के लिए बाहर चले गए ।

अगले दिन सारा स्टाफ निदेशक लाल पांडे के ऑफिस में  जमा हो गया ।मेज पर रखी पुरस्कारों की लिस्ट पर समीप में लुढकी पड़ी स्याही की दवा ने भूत जैसा आतंकित चित्र बना दिया । पंखे के रेगुलेटर से अचानक सपार्किंग के साथ जोरदार चिंगारी निकली और पंखे की आवाज एकदम बढ़ गई। तेज हवा से कुर्सी का टॉवल उड़कर गायब हो गया। बाथरूम के अंदर से टप टप पानी गिरने की भयानक आवाज आने लगी। ऑफिस की कुंडी में लटकता हुआ ताला जोर-जोर से हिलने लगा…। सब देखकर लाल पांडे की चीख निकल गई। आवाज सुनकर उनकी सचिव कविता भागी आई ,सर यह किसी भूत-प्रेत का ही काम है…कुछ ना कुछ कराना पड़ेगा…।

 तो क्या करें एक तो दफ्तर में भूत, दूसरा मुख्यमंत्री का भूत… लाल पांडे घबरा गए । “चिंता क्या है सर, लिस्ट तो आपके कंप्यूटर में है एक और निकाल लीजिए ।मैं खुद जाकर दे आती हूं…” मैम कविता ने सुझाया ।

लाल पांडे जी अपनी उंगलियों को कंप्यूटर पर चलाने लगे। कंप्यूटर में फाइल गायब पाकर उनके माथे पर पसीना आ गया। कुर्सी के पीछे खड़ी मैम कविता भी यह देखकर भयभीत हो गई, “सर अब तो कुछ करना ही पड़ेगा। एक ओझा मेरी पहचान का है।”  “कुछ भी करो परंतु  यह समाचार प्रेस में नहीं जाना  चाहिए… पी ए साहब का फोन भी आने वाला होगा । घबराहट के कारण मेरे पेट में गुड गुड होने लगी है।मैं तो दो दिन की सिक- लीव लेकर मैं घर जा रहा हूं। कविता जी ,आप निर्णय तैयार करने वाले एक्सपर्ट की डिटेल लेकर अवॉर्ड की लिस्ट तैयार कर लेना… और हां वह ओझा वाला उपाय भी करले” ,समझाते हुए लाल पांडे ऑफिस से बाहर आ गए ।

दोपहर को कविता मैम का फोन आया ,”सर एक ओझा को कार्यालय में बुलाया है…।”

 “पहले यह बताओ पी ए साहब का फोन तो नहीं आया…?”

 “जी नहीं। मेरे रहते आप चिंता ना करें…”। 

“कविता जी पत्नी गुजर जाने के बाद आपका ही सहारा है, अब बताइए ओझा जी क्या कहते हैं?” दबी आवाज में कविता मैंम ने समझाया, “सर वह कहता है हमारे ऑफिस पर किसी असंतुष्ट, स्वर्गीय साहित्यकार के भूत का साया है…”। 

“कविता जी, इनसे ऐसा उपाय पूछो जिसका तुरंत प्रभाव पड़ जाए”। “मैंने पूछा है सर ओझा जी का कहना है कोई असंतुष्ट साहित्यकार ,जो जाने अनजाने पुरस्कार मिलने से वंचित रह गया हो और उसकी अकाल मृत्यु हो गई हो… उसकी पहचान करिए ,तब इलाज किया जा सकता है”।

“साहित्यकार… असंतुष्ट… अकालमृत्यु ,” बुदबुदाते हुए कई चेहरे उनकी आंखों में घूमने लगे। “कविता जी आप तो मुझसे भी पुरानी है ।आप ही कुछ रास्ता निकालिए, अन्यथा मैं तो लंबा बीमार पड़ जाऊंगा।” “आप चिंता ना करें सर ,मैं कुछ करती हूं” ।

लाल पांडे जी को आज अनुभव हुआ  कि औरतों में पुरुष से अधिक हौसला होता है । मोबाइल बंद होने के बाद घर और ऑफिस दोनों में चिंतन -मनन होने लगा।          

एक घंटे बाद मैम कविता ने फोन आया ,”सर मुझे याद आता है कई वर्ष पहले हमने कहानी प्रतियोगिता कराई थी। जिसमें तीन निर्णायक थे। विशेषज्ञों के निर्णय से अलग हमने राजनीतिक दबाव के कारण अलग निर्णय घोषित करना पड़ा था। हमारे ऑफिस के एक सस्पेंड चपरासी ने विशेषज्ञों वाला सही निर्णय चोरी करके अखबार में भेज दिया ।तब अकादमी की खूब फजीहत हुई थी । निर्णायक मंडल ने जिस लेखक का नाम प्रथम घोषित किया था, समाचार पत्र में पढ़कर उनको सदमा बैठ गया और कुछ ही दिनों बाद  हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई थी ।ओझा जी कहते हैं शत-प्रतिशत यह वही व्यक्ति है इसी साहित्यकार की मुक्ति के लिए ओझा जी ने उपाय बताया है कि पुरस्कार की राशि उसकी पत्नी को भेज दें और ₹5000 ओझा जी ने अपनी फीस भी बताई है ।” 

“कर दो कविता जी तुरंत कर दो किसी प्रकार उस भूत से पिंड छुड़वाइए ,,,,ग्यारह और पांच सोलह हजार की बात है ,मैं किसी फंड में एडजस्ट करा दूंगा।”

“ठीक है सर, मैं कुछ करती हूं ।”

सायं चार बजे कविता मैम का घबराया हुआ फोन आया ,”सर पी ए साहब ने अवॉर्ड की लिस्ट मंगवाई ।मैंने आनाकानी की तो कहने लगे मैं आपके ऑफिस में आ रहा हूं । सर, आप को भी  बुलाने के लिए कहा है…।”

“अरे कविता जी आपने कहा नहीं मुझे दस्त लगे हैं। देखो, कविता जी जैसे तैसे आप संभाल लीजिए, मैं आपको दशरथ वाला एक  वचन देता हूं…आप कभी भी उसे मांग लेना…।”

 “ठीक है सर, मैं कुछ करती हूं परंतु आप अकादमी के महामहिम है ।अपने वचन को अच्छे से याद रखना।”

 रात को कविता जी ने फोन करके विस्तार से विवरण दिया। “सर, मैंने पी ए जी को सब कुछ बता दिया ।उन्हें भी यकीन हो गया कि अकादमी में कोई भूत का साया है। उन्होंने भी तुरंत समाधान करने को कहा है। आपके तुरंत स्वस्थ होने की कामना भी की है। सर, अब तो आपके दस्तों की ट्रेन को लाल झंडी दिखाई दे गई होगी … परंतु मेरा वचन याद रखना।” “वेरी गुड कविता और दिवंगत लेखक की पुरस्कार राशि का क्या किया ?”

“सर, रामचरण को भेज रखा है।”

अगले दिन लाल पांडे जी उत्साह पूर्वक अकादमी  भवन में आए ।उनके आते ही सब उनके ऑफिस में जमा हो गए। रामचरण ने उत्साह पूर्वक बताया, “सर लेखक की पत्नी भी स्वर्ग सिधार  गई थी। ओझा जी से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि पुरस्कार की माला बनाकर उनकी मजार पर चढ़ा दो। इधर मैं उन की शांति के लिए पाठ आरंभ करता हूं… हां सुबह सुबह मेरी दक्षिणा अवश्य भिजवा देना। इसलिए सर जी मैं ओझा जी की दक्षिणा देकर अभी अभी यहां आया हूं ।”

“शाबाश रामचरण,” निदेशक महोदय निश्चिंत से हो गए। 

तभी पी ए साहब का फोन आ गया। कांपते हाथों से निदेशक महोदय ने फोन उठाया। “थैंक्यू लाल पांडे जी, आपने ऑफिस खुलने से पहले ही अवॉर्ड की लिस्ट मुख्यमंत्री की टेबल पर रखवा दी… थैंक यू अगेन…।”

 ‘यह किसी कर्मचारी का कार्य है या ओझा का चमत्कार’-आश्चर्य और खुशी के कारण निदेशक महोदय का मुंह खुला का खुला रह गया । उनके चारों ओर खड़े कर्मचारी कुछ भी समझ न पाए कि हमारे निदेशक महोदय को अचानक यह क्या हो गया है।

© डॉ मधुकांत 

सम्पर्क – 211 एल, मॉडल टाउन, डबल पार्क, रोहतक ,हरियाणा 124001

मो 9896667714  ईमेल [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 146 ☆ जंगल का कानून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  – “जंगल का कानून”।)  

☆ व्यंग्य # 146 ☆ जंगल का कानून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

बड़े बड़े पेट  एवं मोटे-मोटे हाथ पांव वाले मांसाहारी नेताओं और अमीरों की कुदृष्टि से परेशान होकर जंगल के सारे शेरों ने अपनी आपातकालीन बैठक में सोशल मीडिया और टीवी चैनल में टाइगर जाति पर की जा रही ऊटपटांग बयानबाजी पर निंदा प्रस्ताव रखा। शेर शांत है, शेर का मुंह खुला है, शेर के दांत दिख रहे हैं, शेर अब दहाड़ने लगा है, शेर अब पहले जैसा नहीं रहा, पहले वाले शेर में अलग बात थी… जैसी बातों से मीडिया मार्केट गरम है, और टीवी चैनल वाले अच्छी कमाई कर रहे हैं अपनी टीआरपी बढ़ा रहे हैं।  बैठक में एक शेरनी ने आरोप लगाया कि ये हाथ मटकाने वाले लोग बेवजह तंग करने पर उतारू हैं, कुछ मांसाहारी बड़े लोग  भोली-भाली विदेशी शेरनी को बुरी नजर से देखते हैं और अंट संट कमेंट्स करते हैं सोशल मीडिया में ऐसी घटनाएं दिनों दिन बढ़ रही हैं। 

शेरों के मुखिया ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि  पहले जैसी इंसानियत नहीं रही, अब बात बात में बतड़ंग हो जाता है, टीवी चैनल की डिबेट में ये लोग जानवरों जैसे लड़ते हैं, और हमारी टाइगर कौम को एक विचारधारा से जोड़ कर कुछ भी कहते हैं….शेर का मुंह चाहे खुला हो या अधखुला, शांत हो या खूंखार, बन्द मुह से चबाता हो, चाहे बिना चबाए गुटक जाता हो। शेर के ऊपर आप राजनीति करने वाले कौन होते हो। शेर  शेर है चाहे वो ख़ुश रहे, चाहे अवसादग्रस्त, शांत रहें या उग्र। तुम लोग कौन होते हो  जो चाहते हो कि  उसका चेहरा भी वैसा दिखना  चाहिए जैसा हम कल्पना करते है, सोचते है। शेर को शेर ही रहने दो यार।

कितना मुह खोलना है, कि बन्द रखना है,बोलना है कि नही, दहाड़ना है या मुह मोड़ना है, मुह दिखाना है या मुह छिपाना, दाँत निपोरना या जीभ दिखाना ये सब आप इंसान से करा सकते है जंगल के राजा से नही…. समझे कि नहीं।

इन सब कारणों से जंगल के राजा ने नया कानून प्रस्तावित किया है कि जब भी जंगल में टाइगर देखने ऐसे मांसाहारी और राजनीति करने वाले लोग आयेंगे तो कोई भी शेर शेरनी इनको दर्शन नहीं देगा, और धोखे से देखने की कोशिश की तो गुर्रा कर उन्हें डरायेंगे। जानवर का मांस खाना अच्छी बात नहीं है। और शराब पीकर मांस खाते हुए ये लोग बहुत बुरी बुरी बात करते हैं जिससे जंगल की हवा प्रदूषित होती है। ये सब दो चार दिन को ऐश करने यहां आते हैं और जंगल का वातावरण खराब कर जाते हैं। मीटिंग के अंत में निंदा प्रस्ताव में कहा गया कि मांसाहारी और ऊंटपटांग राजनीति करने वालों  से शेर जाति घृणा करती है और जंगल बचाने की अपील करती है। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ अरे ओ सांबा! ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆

श्री विनय माधव गोखले

🤣  हास्य-व्यंग्य 😁

☆ अरे ओ सांबा! ☆  श्री विनय माधव गोखले ☆ 

अरे ओ सांबा!

(हाथ में साडी लेके टहलते हुए पूछता है…)

सरदार: कितनी औरते थी?

सेल्समन: दो थी सरदार।

सरदार: गधे के बच्चों! वे दो थी और तुम चार! फिर भी बेच नही पाये! बैठे हैं खाली हाथ… क्या समझकर बैठे थे की सरदार बहुत खुस होगा… बोनस देगा क्यूं?? अरे ओ सांबा, कितनी साडियाँ रखी है हमने दुकान के अंदर?

सांबा: पूरी एक हजार…

सरदार: सुना तुमने, पूरी एक हजार!! और ये इतनी सुंदर साडियाँ इसलिये हैं की यहां से पचास-पचास कोस दूर गाँव में जब बेटी रात को साडी के लिये रोती है, तो माँ उसे कहती है –

“मत रो बेटी, मत रो। मत रो, कल गब्बर सिंग की दुकान से ही खरीद लायेंगे।”

और ये चार नालायक… ये गब्बरसिंग का नाम पूरा मिट्टी में मिलाई दिये। इसकी सजा मिलेगी, बराबर मिलेगी!!😡

सरदार एक सेल्समन से पूछता है- कितनी साडियाँ हैं इस ढेर के अंदर??

Salesman: आँ…?

सरदार: कितनी साडियाँ हैं इस ढेर के अंदर??

Salesman: पचास…सरदार!

सरदार: पचास साडी और आदमी चार। बहुत नाइन्साफी है ये।

© विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #148 ☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब की किरकिट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 148 ☆

☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट

विमल नया नया दफ्तर में भर्ती हुआ है। जोश है, कुछ करने की कुलबुलाहट होती है। अभी उसकी ज़िंदगी का ‘दफ्तरीकरण’ होना शुरू नहीं हुआ है।

दफ्तर में नये साल की पार्टी थी। तभी विमल ने बड़े साहब के सामने प्रस्ताव रख दिया, ‘सर, क्यों न इतवार को दफ्तर के लोगों का एक क्रिकेट मैच हो जाए।’

बड़े साहब को भी कुछ अच्छा लगा। उन्होंने मंजूरी दे दी। विमल ने दौड़-भाग करके क्रिकेट का सामान इकट्ठा कर लिया। दफ्तर के बड़े बाबू अग्रवाल जी ने सुना तो माथा ठोंका, बोले, ‘इन नये नये लौंडों के आने से यही तो गड़बड़ होती है।अब दफ्तर वाले ‘किरकिट’ खेलेंगे। एक इतवार मिलता था घर की सब्जी भाजी लाने के लिए, वह भी गया। खेलो किरकिट।’

गुजराती क्लब के मैदान में इंतज़ाम हुआ। दर्शकों के लिए कुर्सियाँ लगायी गयीं। साहबों की मेम साहबें उन पर आकर विराजीं। लंच का इंतज़ाम किया गया।

दो टीमें बनीं। एक के कप्तान बड़े साहब, दूसरी के छोटे साहब। खेल शुरू हुआ। जैसे बल्लेबाज़, ऐसे ही गेंदबाज़। जो कभी पहले खेलते भी रहे थे उनकी उँगलियाँ अब कलम पकड़ने की ही अभ्यस्त रह गयी थीं। गेंदबाज़ों की गेंद विकेटों से कई फुट दूर से निकल जाती। बल्ला बढ़ाने पर भी गेंद छूने को न मिलती। कभी टप्पा खाकर ऐसे उछलती कि खेलने वाले को अपना चश्मा सँभालना मुश्किल हो जाता। सबको खेल से ज़्यादा अपने हाथ-पाँव बचाने की फिक्र थी। मनोरंजन के पीछे हाथ-पाँव टूटें और दफ्तर से छुट्टी लेना पड़े तो हो गया खेल। चश्मा टूट जाए तो एक हज़ार रुपये की दच्च पड़े।

बड़े साहब खेलने आये तो सब ने तालियाँ बजायीं। छोटी अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब के पास तारीफ करने के लिए सिमट आयीं।

छोटे साहब ने गेंद सँभाली। बहुत सँभल कर गेंद फेंकना शुरू किया, कि न साहब को लगे, न विकेटों को। बड़े साहब हर बार हवा में बल्ला घुमा देते। कभी बल्ला गेंद में लग जाता तो सब फील्डर तालियाँ बजाते, कहते, ‘वाह साहब, क्या बढ़िया शॉट लगाया है।’ अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब से कहतीं, ‘कितना अच्छा खेल रहे हैं। जरूर नई उमर में खूब खेलते रहे होंगे।’ तारीफ करने की होड़ लगी थी। सबने कम से कम एक वाक्य बोला। चुप रहें तो घर लौटने पर पति की लताड़ सुननी पड़े।

श्रीमती वर्मा बोलीं, ‘जब अभी इतना अच्छा खेलते हैं तो नई उमर में तो चैंपियन रहे होंगे।’

बड़ी मेम साहब खुश होकर बोलीं, ‘मेरे को नईं मालूम।’

एक गेंद पर बड़े साहब ने बल्ला घुमाया। संयोग से बल्ला गेंद में लग गया और गेंद चौधरी बाबू की तरफ भागी। चौधरी बाबू ने रोकने का अभिनय करते हुए उसे एक लात लगायी और गेंद चार रन की बाउंड्री की तरफ दौड़ी। बाउंड्री पार करने से पहले ही अंपायर बने बख्शी बाबू ने बाउंड्री का इशारा दे दिया। खूब जोरों की तालियाँ बजीं।।

चौधरी बाबू प्रमुदित होकर बोले, ‘कमाल का शॉट लगाया साहब।’ बख्शी बाबू भी चौका देखकर बहुत खुश थे।

बड़े बाबू ‘किरकिट विरकिट’ भूलकर लंच के इंतज़ाम में लगे थे। भीतर से उन्हें बड़ा संताप था कि दफ्तर के लौंडों ने उनका इतवार खराब कर दिया था। जब साहब के किसी शॉट पर तालियाँ बजतीं तो वे भी घूम कर ताली बजाकर ‘वाह’ बोलते और फिर वापस अपने काम में लग जाते।

बड़े साहब आधे घंटे से जमे थे। उनका आउट होना मुश्किल था क्योंकि कोई उन्हें आउट करना ही नहीं चाहता था।

तभी छोटे साहब ने एक तरफ से गेंद फेंकने का काम विमल को दिया।

विमल बड़े साहब के अभी तक आउट न होने पर कसमसा रहा था। नौकरी की ड्यूटी के अनेक पहलू अभी तक उसकी समझ में नहीं आये थे।

छोटे साहब ने उसे गेंद देते हुए कहा, ‘ठीक से फेंकना।’

विमल बड़े साहब को आउट करके अपना कौशल दिखाना चाहता था। अफसर- पत्नियों पर प्रभाव डालने की भी कुछ ललक थी। उसने धीमी लेकिन सीधी गेंद फेंकी।

पहली गेंद तो विकेटों के ऊपर से निकल गयी, दूसरी ने सब गिल्लियाँ बिखेर दीं। लेकिन अंपायर बख्शी बाबू ने गिल्लियाँ उड़ते ही हाथ उठाकर कहा, ‘नो बॉल।’

विमल कुछ नहीं बोला। अगली गेंद में फिर गिल्लियाँ साफ। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ विमल बोला, ‘पहले ही कहना चाहिए था।’ बख्शी बाबू बोले, ‘पहले ही कहा था।’

अगली गेंद फिर गिल्लियाँ ले गयी। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ लेकिन बड़े साहब को कुछ शर्म लगी। बल्ला ले कर चल दिये, बोले, ‘नहीं भई, हम आउट हो गये।’

सबको लगा कि खेल का मज़ा ही ख़त्म हो गया। जब बड़े साहब ही मैदान से हट गये तो खेल का मज़ा ही क्या रहा? साहब गये तो जैसे खेल की जान निकाल ले गये।

बड़े बाबू काम छोड़कर दौड़े दौड़े विमल के बाद आये, बोले, ‘तुम अजीब बेवकूफ हो। साहब को आउट करके धर दिया। टेढ़ी-मेढ़ी गेंदें नहीं फेंक सकते थे?’

विमल बोला, ‘मैं तो ‘रूल्स’ के हिसाब से ही खेल रहा था।’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, ‘किरकिट’ के रूल्स तो बहुत जानते हो, अब कुछ नौकरी के रूल्स भी समझ लो, नहीं तो कभी तुम्हारी गिल्लियाँ ऐसी साफ होंगीं कि दुबारा जमाना मुश्किल हो जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 107 ☆ टीम वर्क: मिले जो कड़ी- कड़ी ☆  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “टीम वर्क: मिले जो कड़ी- कड़ी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 107 ☆

☆ टीम वर्क: मिले जो कड़ी- कड़ी ☆ 

सबको साथ लेकर चलने का कौशल जिसको आ गया उसे सब कुछ आ जायेगा। जोड़- तोड़ को साधते हुए जीवन जीने की कला में ही सच्चा आनन्द है। कोई न कोई कार्य होते रहना चाहिए। किसी भी कीमत पर जीतना है। बस इसी मूल मन्त्र के साथ कभी इसको हटाना कभी उसको। बहार और पतझड़ दोनों ही जीवन के हिस्से हैं। वक्त बदलता है; कहते हैं जब वक्त की मार पड़ती है तो अच्छे- अच्छे भी सीधे हो जाते हैं।

उसूलों से समझौता न करने की कीमत चुकानी ही पड़ती है। जिसने दर्द के साथ जीना सीख लिया  वो तो चुपचाप रह जाता है किंतु जब विरोधियों के स्वर मुखरित होते हैं तो कड़ी से कड़ी जुड़ते देर नहीं लगती।एक जैसी विचारधारा के लोग   आगे आकर नवल सोच को अंजाम देते हैं। मिलकर चलना अच्छा है पर कितनी दूरी तय करेंगे ये सबसे बड़ी बात है। जहाँ मन से मन मिलते हैं वहाँ रहना तो आसान होता है परंतु लक्ष्य की साधना कितनी होगी इसका उत्तर अनुत्तरित ही रह जाता है। बंधन सदैव सुखकारी हों ऐसा नहीं कहा जा सकता है, कभी – कभी सिरदर्द बनकर बैचेन करने लगते हैं।

साझा कार्यक्रम ही जुड़ने की वजह बनता है। जो आज साथ है वो कल भी रहेगा ऐसा नहीं कहा जा सकता है। आवश्यकता ही हमें एक पटरी पर लाकर खड़ा करती है। वैचारिक मतभेद कब मनभेद  में बदल जाएंगे पता ही नहीं चलता। उम्मीदें किसी से भी उतनी करो जितनी निभाई जा सकें। बिना मतलब के झगड़े से कोई फायदा नहीं। लोकतंत्र में सही अर्थों में संख्या बल के महत्व का पता चलता है। कई बार तो निर्दलीय प्रत्याशी ही तुरुप का इक्का साबित हो जाता है। यहाँ भी आकर्षण का सिद्धांत लागू होने लगता है।

गिनती को पूरा करने हेतु जरूरत व नियमों को बदला जा सकता है। शायद इसीलिए आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जा सकता है।  फूँक- फूँक कर कदम रखते हुए चलने से लम्बी दूरी तय करने में असुविधा होती है। जब तक रिस्क न लिया जाए तब तक विजेता का ताज नहीं मिलता है। चाहें कितनी बार गिरें किन्तु जीत का ताज पहनते ही सारा अपमान और  दर्द छूमंतर हो जाता है। अब तो बस लक्ष्य भेदी गूँज कानों में सुनाई देने लगती है। हिप- हिप हुर्रे कहते हुए अगले लक्ष्य की ओर रुख करना ही सफल लोगों का फलसफा है।

 ©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #147 ☆ व्यंग्य – तालाब को गंदा करने वाली मछली ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘तालाब को गंदा करने वाली मछली’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 147 ☆

☆ व्यंग्य – तालाब को गंदा करने वाली मछली

शहर के साहित्यिक-जगत में आनंद मंगल है। हर दूसरे चौथे विमोचन, सम्मान, अभिनंदन, लोकार्पण, गोष्ठियाँ होती रहती हैं क्योंकि ज़्यादातर लेखकों की नज़र में यही लेखन की उपलब्धियाँ हैं, भले ही उनका लिखा कोई पढ़े या न पढ़े। गोष्ठी में प्रशंसा हो जाती है तो लेखक का मन एकाध हफ्ता हरा भरा रहता है। लेखक- बिरादरी के लोग एक दूसरे की भरपूर तारीफ करना अपनी ड्यूटी समझते हैं क्योंकि आलोचना लेखक के कोमल मन को दुखी करती है, जो पाप से कम नहीं होता। कोई सिरफिरा रचना की ख़ामियाँ गिना दे तो ज़िन्दगी भर की दुश्मनी हो जाती है। इसलिए एक दूसरे की पीठ खुजाने का काम चलता रहता है।

इस सुकून और सुख भरे वातावरण में नगर के जाने-माने कवि अनोखेलाल ‘उदासीन’ काँटा बने हुए हैं। ‘उदासीन’ जी महाकवि निराला जैसे ही निराले हैं। नगर की साहित्यिक फ़िज़ाँ में वे खपते नहीं। साहित्यिक बिरादरी में वे सनकी माने जाते हैं। सम्मान-अभिनंदन से दूर भागते हैं, प्रशंसा से बिदकते हैं, विमोचन-लोकार्पण को ढोंग और नौटंकी मानते हैं। गोष्ठियों में खरी खरी आलोचना कर देते हैं और लेखक को नाराज़ कर देते हैं। कहते हैं, ‘साहित्यिक कार्यक्रम भटैती और ठकुरसुहाती के लिए नहीं होते। लेखक में आलोचना बर्दाश्त करने का माद्दा होना चाहिए।’ इसीलिए जिस सभा में वे पहुँच जाते हैं वहाँ उपस्थित लेखकों के मुँँह का ज़ायका बिगड़ जाता है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है। समझदार लेखक उन्हें अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करना ‘भूल’ जाते हैं।

हर गोष्ठी में ‘उदासीन’ जी के खिलाफ शिकायतों का दफ्तर खुल ही जाता है। पिछली गोष्ठी में कवि गिरधारीलाल ‘निर्मोही’ बोले, ‘बहुत बेकार आदमी है यह। मैं कुछ दिन पहले अपनी पंद्रह-बीस कविताएँ दे आया था। सोचा था पढ़ कर तारीफ करेगा। तीन दिन बाद गया तो कविताएँ मेरी तरफ है फेंक दीं। बोला, छठवीं क्लास के बच्चे जैसी कविताएँ लिखते हो और कवि बनने चले हो। अब बताइए, मैं तीस साल से कविताएँ लिख रहा हूँ और किसी ने ऐसी बात नहीं कही। मेरी कविताओं पर तीन छात्र पीएचडी की डिग्री पा चुके हैं और यह आदमी मेरी कविताओं को रद्दी की टोकरी में डाल रहा है।’

एक और कवि मुकुंदी लाल ‘निराश’ बोले, ‘अरे भैया, एक संस्था इनके पास सम्मान का प्रस्ताव लेकर आयी तो पूछने लगे मेरा सम्मान क्यों करना चाहते हो, मेरी कौन सी कविताएँ पढ़ी है, उनमें क्या अच्छा लगा? बेचारे प्रस्ताव करने वाले भाग खड़े हुए। अब बताइए, सम्मान का कोई कारण होता है क्या?’

गोष्ठी में उपस्थित साहित्यकारों ने इस स्थिति को गंभीर और शहर के साहित्यिक वातावरण के लिए नुकसानदेह बताया। ‘उदासीन’ जी के आचरण से दुखी सभी साहित्यकारों ने नगर के सबसे सयाने कवि छैलबिहारी ‘दद्दा’ से अनुरोध किया कि चूँकि अब पानी सर से ऊपर चढ़ चुका है, अतः वे अपने सयानेपन का उपयोग करके ‘उदासीन’ जी को सुधारने की कोशिश करें। उन्हें ज़िम्मेदारी दी गयी कि वे ‘उदासीन’ जी का ‘ब्रेनवाश’ करने का प्रयत्न करें और उन्हें समझायें कि वे चंदन-अभिनंदन से छड़कने-बिदकने के बजाय उसे अंगीकार करने की आदत डालें। दूसरे शब्दों में, वे एक असामान्य साहित्यकार की बजाय एक ‘नॉर्मल’ साहित्यकार बन जाएं। यह सुझाव भी दिया गया कि नये लेखकों को ‘उदासीन’ जी की सोहबत से बचाया जाए क्योंकि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 106 ☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  योग्य और उपयोगी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 106 ☆

☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

चलिए इस कार्य को मैं कर देती हूँ मुस्कुराते हुए रीना ने कहा।

अरे भई प्रिंटिंग का कार्य कोई सहज नहीं होता। आपको इसके स्किल पर कार्य करना होगा। स्वयं में कोई न कोई ऐसी विशेषता हो कि लोग आपको याद करें समझाते हुए संपादक महोदय ने कहा।

मैं रचनाओं को एकत्रित करुँगी। संयोजक के रूप में मुझे शामिल कर लीजिए।

देखिए आजकल वन मैन आर्मी का जमाना है। जब हमको ऐसे लोग मिल रहे हैं तो आपके ऊपर समय क्यों व्यर्थ करें।

हाँ ये बात तो है। अब इस पर चिंतन मनन करुँगी। क्या ऐसा हम सबके साथ भी होता है। अगर होता है तो उपयोगी बनें। माना कि उपयोगिता अहंकार को बढ़ावा देती है।अपने आपको सर्वे सर्वा  समझने की भूल करते हुए व्यक्ति कब अहंकार रूपी कार में सवार होकर निकल पड़ता है पता ही नहीं चलता। अपने रुतबे के चक्कर में कड़वे वचन, झूठ की चादर, मंगल को अमंगल करने की कोशिश इसी उधेड़बुन में उलझे हुए जीवन व्यतीत होने लगता है। सब से चिल्ला कर बोलना , खुद को साहब मान कर चिल्लाने से ज्यादा प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से भले ही सामने वाला अछूता रह जाए किन्तु अड़ोसी- पड़ोसी का ध्यानाकर्षण अवश्य हो जाता है।

अपने नाम का गुणगान सुनने की लत; नशे से भी खतरनाक होती है। जिसने भी सत्य समझाने का प्रयास किया वही दुश्मन की श्रेणी में आ खड़ा होता है। उसे दूर करने की इच्छा मन में आते ही आदेश जारी करके अलग- थलग कर दिया जाता है।

बेचारे घनश्याम जी दिन भर माथा पच्ची करते रहते हैं। कोई भी ढंग का कार्य उन्हें नहीं आता बस कार्य को फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते किन्तु अधिकारी उनके इसी गुण के कायल हैं। रायता फैलाने से ज्यादा विज्ञापन होता है। कोई बात नहीं बस नाम हमारा हो, यही इच्छा मौन साधने को बलवती करती है। अपनी खोल में बैठ कर मूक दर्शक बनें रहना और जैसे ही मौका मिला कुछ भी लिखा और पोस्टर लेकर हाजिर। हाजिर जबावी में तो तेनालीराम व बीरबाल का नाम था किंतु यहाँ तो हुजूर सब कुछ खुद करते हुए देखे जा सकते हैं।

सच कहूँ तो ऐसी व्यवस्था से ही कार्यालय चलते हैं। आपसी सामंजस्य तभी होता है जब माँग और पूर्ति बनी रहे। एक दूसरे को आगे बढ़ाते हुए चलते जाना  ही जीत का मूल मंत्र होता है।

जो कुछ करेगा उसे जीत का सेहरा अवश्य मिलेगा। बस रस्सी की तरह पत्थर पर निशान बनाने को आतुर होना पड़ेगा। हर जगह लोग कर्म के पुजारी बन रहे हैं। कुछ लगातार स्वयं को अपडेट कर रहे हैं तो कुछ भूतकाल में जीते हुए डाउनग्रेड हो रहे हैं। अब आपके ऊपर है कि आप किस तरह की जीवनशैली के आदी हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 28 ☆ अपरान्ह तीन से पाँच बजे तक ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “अपरान्ह तीन से पाँच बजे तक”। ) 

☆ शेष कुशल # 28 ☆

☆ व्यंग्य – “अपरान्ह तीन से पाँच बजे तक” – शांतिलाल जैन ☆ 

“यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे खराब समय था”

इन पंक्तियों के लेखक ब्रिटिश उपन्यासकार चार्ल्स डिकन्स कभी भारत आए थे या नहीं मुझे पक्के से पता नहीं मगर पक्का-पक्का अनुमान लगा सकता हूँ कि वे भारत आए ही होंगे और उज्जैन भी। दोपहर में दाल-बाफले-लड्डू सूतने के बाद तीन बजे के आसपास उन्होने ये पंक्तियाँ लिखीं होंगी। पेंच फंस गया होगा – इधर चेतना पर खुमारी तारी हो रही है उधर आयोजक साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता करवाने के लिए लेने आए हैं। कैच-22 सिचुएशन। आयोजक तुम्हें सोने नहीं देंगे और चढ़ती नींद तुम्हें वहाँ जाने नहीं देगी डिकन्स।  

भारतवर्ष में तीन बजे का समय सबसे अच्छा और सबसे खराब समय माना गया है। अच्छा तो इस कदर कि आपको बिस्तर तकिये की जरूरत नहीं होती, नाईट सूट भी नहीं पहनना पड़ता. झपकी सूट-बूट में भी ले सकते हैं. कहीं भी ले सकते हैं, दफ्तर की कुर्सी पर, सोफ़े पर, दुकान में, चलती बस की सीट पर बैठे बैठे, यहाँ तक कि दोनों ओर की सीटों के बीच ऊपर लगी रेलिंग पकड़ कर खड़े खड़े खर्राटे वाली नींद ले सकते हैं. नींद का वो क्षण स्वर्णिम क्षण होता है जब चलती बस में आपका सर गर्दन से झोल खाकर सहयात्री की खोपड़ी से बार-बार टकराता है. तराना-माकड़ोन बस में ही नहीं दिल्ली-चेन्नाई फ्लाईट में भी टकराता है. बहरहाल, खोपड़ी उसकी गरम हो आपको क्या, आप तो गच्च नींद के मजे लीजिये. सावधानी रखिएगा, सहयात्री “शी” हो तो सैंडिल पड़ने के पूरे चांस होते हैं.

भारत में क्रिकेट अंग्रेज़ लाए. आने से पहले डिकन्स ने उनको समझा दिया होगा कि टेस्ट क्रिकेट में टी-टाईम का प्रावधान जरूर रखना. मिड ऑफ पर खड़ा फील्डर बेचारा झपकी ले कि कैच पकड़े.

दोपहर की नींद समाजवादी होती है, वो संसद से सड़क तक, मंत्री से लेकर मजदूर तक, सबको आती है और जो जहां है वहीं आ जाती है.  मंत्रीजी विधायिका में सो जाते हैं, कहते हैं गहन विचार प्रक्रिया में डूबे हैं. ऐसी ही गहन विचार प्रक्रिया से बाहर आकर राजू टी स्टॉल की गोल्डन कट चाय की चुस्कियाँ लेते हुवे डिकन्स ने सोचा होगा “यह सबसे अच्छा समय था”, मगर जब ध्यान आया होगा कि नींद के चक्कर में ट्रेन छूटने का समय हो गया है तब लिखा होगा – “यह सबसे खराब समय था”।

तीन से पाँच की नींद इस कदर मोहपाश में जकड़ लेती है कि प्रियतमा का कॉल भी उठाने का मन नहीं करता। अभी गहरी नींद लगी ही है कि कोरियर ने घंटी बाजा दी है। वो सुपुर्दगी के दस्तखत आपसे ही चाहता है। बाल नोंच लेते हैं आप। अंकलजी ने तो गेट पर लिखवा रखा है – ‘कृपया तीन से पाँच के बीच घंटी न बजाएँ’।

तीन बजे जब मम्मी गहरी नींद में होती है तब कान्हा फ्रीज़ में से आईसक्रीम, चॉकलेट, गुलाबजामुन चुरा कर खा सकता है, मोबाइल पर गेम खेल सकता है, कार्टून नेटवर्क देख सकता है, दरवज्जा धीरे से ठेलकर बाहर जा सकता है। प्रार्थना करता है हे भगवान ! मम्मी पाँच बजे से पहले उठ न जाए वरना कूट देगी। बच्चों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय होता है, नौकरीपेशा आदमी के लिए सबसे खराब। खासकर तब जब कान्फ्रेंस में पोस्ट-लंच सत्र में लंबा, उबाऊ, बोझिल भाषण चल रहा हो, आपकी गर्दन बार बार आगे की ओर झोल खा रही हो, वक्ता सीजीएम रैंक का हो और वो बार बार आपको ही नोटिस कर रहा हो। कोढ़ में खाज ये कि उसी साल आपका प्रमोशन ड्यू है। सीआर बिगड़ने का डर आपको सोने नहीं देता और लेविश-लंच आपको जागने नहीं देता। ये आपके लिए सबसे अच्छा समय होता है, ये आपके लिए सबसे खराब समय होता है।

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #146 ☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उदर-रोग आख्यान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 146 ☆

☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान

सेवा में सविनय निवेदन है कि मैं पेट का ऐतिहासिक मरीज हूँ। मर्ज़ अब इतना पुराना हो गया है कि मेरे व्यक्तिगत इतिहास में लाख टटोलने पर भी इसकी जड़ें नहीं मिलतीं। अब तक इस रोग के नाना रूपों और आयामों में से गुज़र चुका हूँ।

पेट का रोग संसार में सबसे ज़्यादा व्यापक है। शायद इसका कारण यह है कि अल्लाह ने भोजन करने का काम तो हमारे हाथ में दिया है लेकिन आगे के सारे विभाग अपने हाथ में ले रखे हैं। काश कोई ऐसा बटन होता जिसे दबाते ही भोजन अपने आप पच जाता और शरीर का सारा कारोबार ठीक से चलता रहता। कमबख्त पेट की गाड़ी ऐसी होती है जो एक बार पटरी से उतरी सो उतरी। फिर आप पेट के मरीज़ होने का गर्व करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।

एक विद्वान ने कहा है कि जिसे हम अक्सर आत्मा का रोग समझ लेते हैं वह वास्तव में पेट का मर्ज़ होता है। जो लोग दार्शनिक या कवि जैसे खोये खोये बैठे रहते हैं यदि उनकी दार्शनिकता की तह में प्रवेश किया जाए तो कई लोग पेट के रोग से ग्रस्त मिलेंगे। इसीलिए दार्शनिकों और कवियों की पूरी जाँच होना चाहिए ताकि पता लगे कि कितने ‘जेनुइन’ कवि हैं और कितनों का कवित्व ‘मर्ज़े मैदा’ से पैदा हुआ है।

पेट का मरीज़ मेहमान के रूप में बहुत ख़तरनाक होता है। वह जिस घर में अतिथि बनता है वहाँ भूचाल पैदा कर देता है। उसे तली चीज़ नहीं चाहिए, धुली हुई दाल नहीं चाहिए, नींबू चाहिए, काला नमक चाहिए, दही चाहिए, अदरक चाहिए। ‘बिटिया, शाम को तो मैं खिचड़ी खाऊँगा। ईसबगोल की भूसी हो तो थोड़ी सी देना और ज़रा पानी गर्म कर देना।’ ऐसा मेहमान मेज़बान को कभी पूरब की तरफ दौड़ाता है, कभी पच्छिम की तरफ। ऐसी चीजें तलाशना पड़ती हैं जिनका नाम सुनकर दूकानदार हमारा मुँह देखता रह जाता है। घर के बाथरूम पर मेहमान का पूरा कब्ज़ा होता है। वे दो बार, चार बार, छः बार, जितने बार चाहें वहाँ आते जाते रहते हैं। कई लोग जो आठ बजे घुसते हैं तो फिर दस बजे तक पुनः दर्शन नहीं देते।

पेट का मरीज़ अपने साथ दुनिया भर का सरंजाम लेकर चलता है— नाना प्रकार के चूर्ण, लहसुन वटी, चित्रकादि वटी, द्राक्षासव, और जाने कितने टोटके। दवाइयों के हजारों कारखाने पेट के रोगियों के लिए चलते हैं। पेट के रोगी का बिगड़ा हुआ पेट बहुत से पेट पालता है।

पेट के रोगी के साथ मुश्किल यह होती है कि उसकी दुनिया अपने पेट तक ही सीमित रहती है। वह हर चार घंटे पर अपने पेट के स्वास्थ्य का बुलेटिन ज़ारी करता है। जिस दिन उसका पेट ठीक रहता है वह दिन उसके लिए स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य होता है। जब बाकी सब लोग अफगानिस्तान और ईरान की समस्या की बातें करते हैं तब वह बैठा अपना पेट बजाता है।

पेट का रोगी बड़ा चिड़चिड़ा, बदमिजाज़ और शक्की हो जाता है। इसलिए पेट के रोगी को कभी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं बैठाना चाहिए। ऐसा आदमी जज बन जाए तो रोज़ दो चार को फाँसी पर लटका दे, अफसर बन जाए तो रोज़ दो चार को डिसमिस करे, और किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाए तो ज़रा सी बात पर जंग का नगाड़ा बजवा दे। घर और पड़ोस के लोग पेट के रोगी से त्रस्त रहते हैं क्योंकि वह हर बात पर काटने को दौड़ता है। उसका चेहरा बारहों महीने मनहूस बना रहता है।

पेट के रोग का यह वृतांत एक किस्से के साथ समाप्त करूँगा। एक दिन जब डॉक्टर के दवाखाने से पेट की दवा लेकर चला तो एक रोगी महोदय मेरे पीछे लग गये। वे स्वास्थ्य की जर्जरता  में मुझसे बीस थे।

उन्होंने मुझसे पूछा, ‘आप पेट के रोगी हैं?’

मेरे ‘हाँ’ कहने पर उन्होंने पूछा, ‘कितने पुराने रोगी हैं?’

जब मैंने पंद्रह वर्ष का अनुभव बताया तो वे प्रसन्न हो गये। उन्होंने बड़े जोश में मुझसे हाथ मिलाया। बोले, ‘मैं भी अठारह वर्ष की हैसियत का पेट का रोगी हूँ। मेरा नाम बी.के. वर्मा है।’

मैंने प्रसन्नता ज़ाहिर की तो वे बोले, ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। दरअसल हमने इस शहर में ‘एक उदर रोगी संघ’ बनाया है। उसकी मीटिंग इतवार को शाम को होती है। मैं चाहता हूँ कि आप भी इसमें शामिल हों।’

इतवार की शाम उनके बताये पते पर पहुँचा। वह घर उनके संघ के अध्यक्ष का था जो पैंतालीस वर्ष की हैसियत के उदर रोगी थे।वहाँ अलग अलग अनुभव वाले लगभग पच्चीस उदर रोगी एकत्रित थे। उन्होंने बड़े जोश से मेरा स्वागत किया, जैसे उन्हें ‘बढ़त देख निज गोत’ खुशी हुई हो।

उस सभा में पेट के रोगों के कई आयामों की चर्चा हुई। कई नई औषधियों का ब्यौरा दिया गया। वहाँ उदर रोग के मामले में ‘सीनियर’ ‘जूनियर’ का भेद स्पष्ट दिखायी दे रहा था। जो जितना सीनियर था वह उतने ही गर्व में तना था।

उस दिन के बाद मैं उदर-रोगी संघ की मीटिंग में नहीं गया। करीब पंद्रह दिन बाद दरवाज़ा खटका तो देखा वर्मा जी थे। वे बोले, ‘आप उस दिन के बाद नहीं आये?’

मैंने उत्तर सोच रखा था। कहा, ‘क्या बताऊँ वर्मा जी। अबकी बार मैंने जो दवा ली है उससे मेरा उदर रोग काफी ठीक हो गया है। इसीलिए मैं आपके संंघ के लिए सही पात्र नहीं रह गया।’

वर्मा जी का मुँह उतर गया। वे बोले, ‘तो आपका रोग ठीक हो गया?’

मैंने कहा, ‘हाँ, लगता तो कुछ ऐसा ही है।’

वे बोले, ‘इतनी जल्दी कैसे ठीक हो सकता है?’

मैंने कहा, ‘मुझे अफसोस है। लेकिन बात सही है।’

वर्मा जी बड़ा मायूस चेहरा लिये हुए मुड़े और मेरे घर और मेरी ज़िंदगी से बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 105 ☆ कोशिशों की कशिश ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “कोशिशों की कशिश”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 105 ☆

☆ कोशिशों की कशिश ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

संवेदना की वेदना को सहकर सफ़लता का शीर्ष तो मिलता है पर सुकून चला जाता है  लेकिन फिर भी हम दौड़े  जा रहे हैं एक ऐसे पथ पर जहाँ के आदि अंत का पता नहीं। अपनी फोटो को अखबारों में देखकर जो सुकून मिलता है क्या उसे किसी पैरामीटर में नापा जा सकता है। अखबारों की कटिंग इकठ्ठा करते हुए पूरी उम्र बीत गयी किन्तु आज तक मोटिवेशनल कॉलम लिखने को नहीं मिला  और मिलेगा भी नहीं क्योंकि जब तक विजेता का टैग आपके पास नहीं होगा तब तक कोई पाठक वर्ग आपको भाव नहीं देगा।

माना अच्छा लिखना और पढ़ना जरूरी होता किन्तु प्रचार- प्रसार की भी अपनी उपयोगिता होती है। कड़वा बोलकर जो आपकी उन्नति का मार्ग बनाता  वो सच्चा गुरु होता है, बिना दक्षिणा लिए आपको जीवन का पाठ पढ़ा देते हैं। ऐसे कर्मयोगी समय- समय पर राह में शूल  की तरह चुभते हैं  , ये आप पर है कि आप उसे फूल के रक्षक के रूप में देखते हैं या काँटे की चुभन को ज्यादा प्राथमिकता देकर विकास का मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं।

बातों ही बातों में रवि , कवि,  अनुभवी से भी बलवान मतलबी निकला  जो अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकता है,  कुछ भी सह सकता है  पर सफलता का स्वाद नहीं भूल सकता।

बहुत ही  सच्ची और अच्छी बात जिसने भी ये लिखा अवश्य ही वो ज्ञानी विज्ञानी है। ध्यान से चिन्तन करें तो पायेंगे कि जैसी हमारी मनोदशा होती है वैसे ही शब्दों के भाव हमें दिखने लगते हैं यदि मन प्रसन्न है तो सामने वाला जो भी बोलेगा हमें मीठा ही लगेगा किन्तु यदि मन अप्रसन्न है तो सीधी बात भी उल्टी लगती है और बात का बतंगड़ बन झगड़ा शुरू हो  जाता है।मजे की बात जब जेब में पैसे की गर्मी हो तो वाणी अंगारे उगलने से नहीं चूकती है। बस सारी हकीकत सामने आते हुए समझौते को नकार कर केवल अपने सिक्के को चलाने का जुनून सिर पर सवार हो जाता है। लगातार कार्य करते रहें तो अवश्य ही मील का पत्थर बना जा सकता है। केवल थोड़े दिनों की चमक में गुम होने से आशानुरूप परिणाम नहीं मिलते। जो भी करें करते रहें। जब समाज के हितों की बात होगी तो राह और राही दोनों मिलने लगेंगे। बस सबको साथ लेकर आगे चलें, लीडर का गुण आगे बढ़ते हुए सारी जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेकर महत्वपूर्ण निर्णयों पर एक सुर से आवाज उठाना होता है।

अंततः यही कहा जा सकता है कि धैर्य रखें, हमेशा सकारात्मक चिन्तन करें। सफ़लता स्थायी नहीं होती अतः कर्म करते रहें  और  तन मन धन से समर्पित हो  सबके  मार्ग को सहज बनावे। आप कर्ता नहीं हैं केवल कर्मयोगी हैं कर्ता मानने की भूल ही आपको अवसाद के  मार्ग तक पहुँचा देने में सक्षम है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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