हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 227 – “बैठे ठाले – ‘कौआ महासंघ की मीटिंग के मिनिट’” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पितृपक्ष में एक विचारणीय व्यंग्य  “बैठे ठाले – ‘कौआ महासंघ की मीटिंग के मिनिट’” ।)

☆ व्यंग्य जैसा # 227 – “बैठे ठाले – ‘कौआ महासंघ की मीटिंग के मिनिट’☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

पितृपक्ष के पहले ‘अखिल भारतीय कौआ महासंघ’ की गंभीर मीटिंग सम्पन्न हुई, जिसमें १७ तारीख से चालू होने वाले  पितृपक्ष पर बहुत से ऐजेण्डों पर बातचीत हुई, महासंघ के महासचिव ने बताया कि कोई भी देश या समाज कितना भी विकसित या शिक्षित कहा जाए किन्तु यह सच है कि बिना अपनी आदिम परम्पराओं, विश्वास और आस्था के नही रह सकता। पूर्णरूपेण नास्तिक और भौतिकवादी रहने के अपने खतरे हैं। इस साल पितृ पक्ष 17 सितम्बर से आरंभ हो गया है, अखिल भारतीय कौआ महासंघ’ के डर से शासन ने 14 तारीख से 17 तारीख तक छुट्टी की घोषणा भी कर दी है ये हमारे महासंघ की विशेष उपलब्धि है। ऐसा मत सोचना कि ये पितृपक्ष सिर्फ हमारे भारत में ही मनाया जाता है, अमेरिका और अन्य देशों में ३१ अक्टूबर को इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है। हेलोवीन पश्चिमी देशों का पितृपक्ष कहा जा सकता है। इस दिन आत्माओं को संतुष्ट करने उनकी कुदृष्टि से बचने उनको खुश रखने के लिए जो त्यौहार मनाया जाता है उसका नाम है हेलोवीन! कद्दू, कुम्हड़े या कुष्मांड का उस दिन अनेक प्रकार का व्यंजन बनाना, कद्दू के भूतिया डरावने चेहरे बनाकर पहनना ये सब हेलोवीन में होता है। आप सब बोर हो रहे हैं, इसलिए कुछ तुकबंदी भरी कविता सुनाना जरूरी लग रहा है। हमारे हितचिंतक बनारस के साहित्यकार सूर्य प्रकाश मिश्र जी को हम कौवा महासंघ की ओर से बधाई देना चाहते हैं उनका लिखा कौवा पुराण बहुत लोकप्रिय हुआ है, कौवा पुराण की कुछ पंक्तियां सुनिए…

“सूखे का मौसम रहे चाहे आये बाढ़ 

कागचन्द जी को खुदा देता छप्पर फाड़ 

देता छप्पर फाड़ बन गये हातिमताई 

काग संगठन चला रहे हैं कौवा भाई 

खास ख्याल रखते हैं हर नंगे भूखे का 

इन्तजार करते रहते पानी -सूखे का”

‘कौवा महासंघ’ के महासचिव के रूप में मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि कौवे अब हंस की चाल चलने की गलती नहीं करते। वे जान गए हैं कि हंसो को आजकल कोई नहीं पूछता इसलिए वे अपनी ही चाल चल रहे हैं। एक और कहावत ‘कौआ कान ले गया’ आये दिन हम सब मीडिया और इन्टरनेट पर चरितार्थ होते देखते हैं। मसला कुछ भी हो सकता है, कोई वीडियो, कोई खबर या किसी फिल्म की विषयवस्तु। ख़बर चलती है कौआ कान ले गया और पब्लिक अपना कान चेेेक करने के बजाय डंंडा लेकर कौए को ढूंढने निकल पड़ती है। मनुष्य की ये आदत बिल्कुल गलत है, कौवा महासंघ’ इस प्रवृत्ति की निंदा करता है। कौवा महासंघ की सागर जिला ईकाई ने शिकायत दर्ज कराई है कि आजकल महिलाएं हम कौवों का नाम लेकर अपने पति को धमकी देतीं हैं और आंगन में नाचते हुए कहतीं हैं…

“झूठ बोले कौआ काटे,

काले कौए से डरियो

मैं मायके चली जाऊंगी 

तुम देखते रहिओ “

भीड़ में पीछे से इंदौर के कौवे की आवाज आई, यदि झूठ बोलने वाले को कौआ काटता है तो नेता लोगों को अभी तक कोई कौवे ने क्यों नहीं काटा ? राम के नाम से वोट मांगकर लोग मंत्री बन जाते हैं फिर  स्वयं प्रभु राम ने बाण मारकर हमें काना क्यों बना दिया ? संघ के महासचिव ने अपने दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया – देखिए इंदौर वाले भैया आपकी बात से हम सहमत हैं, पर हम कौवों को गर्व करना चाहिए कि प्रभु राम जी ने काना बनाकर हमें अमर कर दिया। कौवा जिसे आमतौर पर कोई देखना भी पसंद नहीं करता दुनिया के टाॅप टेन बुद्धिमान पशु-पक्षियों में गिना जाता है। बच्चों को सिखाया जाता है- काक चेष्टा, बको ध्यानम… ‘काक चेष्टा’ यानि कौए की तरह कोशिश, प्रयास करने वाला। मतलब ध्यान और लक्ष्य केन्द्रित।  

भाईयो और बहनों…आपको लग रहा है कि मैं बहुत देर से कांव कांव कर रहा हूं, इसलिए ये माइक हम महासंघ के अध्यक्ष के हवाले कर रहा हूं, आप शांति बनाए रखें और वायदा करें कि इस बार पितृपक्ष में घर में बनाए बेस्वाद भोजन न करें, इस बार हमारा स्विगी, और जोमेटो से बहुत तगड़ा एग्रीमेंट हो गया है कि सब जगह के कौवे स्विगी, जोमोटो से मंगाएं गये भोजन का स्वाद लेंगे, और इस बाबत चित्रगुप्त जी को भी सूचना दी जा चुकी है कि वे सब पितर जरूर पधारें जिनकी बहुओं ने जीवन भर बेमन से बेस्वाद खाना खिलाया था, इस बार बढ़िया गर्मागर्म जोमेटो वाले सुस्वाद खाना सप्लाई करने वाले हैं…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 22 – अगला फर्जी बाबा कौन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 22 – अगला फर्जी बाबा कौन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

धूप जोरां की पड़ री थी, और नन्दू खाट पे पैर लटकाए पंखी के नीचे बिड़ी सुलगावण लाग रहा था। गांव की चहल-पहल तो न रई पर खबरां में हर रोज़ कुछ ना कुछ नया गुल खिला ही रहा था। आज कल खबरे देख-सुन के आदमी सोच में पड़ जा सै कि के हो रे है। पहले तो इया आलम था कि बस खेत-खलियाण की बातें, अब तो गांव के लौंडे तक पॉलिटिक्स की गुत्थी सुलझावण की बातां करै।

आज नन्दू का ध्यान एक नए तरह की लुगाई पे अटका सै – फर्जी बाबा। गांव में तो सुण्या सै कि बाबा सच्चा और ज्ञान का पिटारा होवै, पर आज कल हर नुक्कड़ पे फर्जी बाबे मिलैं। अबके ही अखबार में देख्या, “गांव में नया बाबा प्रकट, तीन दिन में चमत्कार दिखाएगा।” तावड़े राम, चमत्कार देखण की भी कोई फ़ीस लगेगी। नन्दू हंसण लाग गया, “हां भाई, पैसा फेंको और आशीर्वाद लो।”

अबके गांव में भी बाबागिरी का कारोबार बढ़ता जा रया सै। नन्दू ने बताया, “पिछली हफ्ते अपने ही काका, जिनने कभी मंदिर का रस्ता न देख्या, वो अब बाबा बनग्या। बोले, ‘मुझे भगवान का आशीर्वाद मिला सै, सब दुख दूर कर दूंगा।'”

काका ने क्या किया? वो पहले बगड़वा में दुकान करदा था, पर कर्जा हो गया। लुगाई छोड़ गई, फिर काका ने सोचा बाबा बन लेता हूँ, बाबा की चोंगी लगा, भव्य दरबार सजाया। गांव के लोग भी लाइन लगाके बैठण लाग गए। सब चाहते थे चमत्कार। जो आदमी खुद की जिंदगी में कुछ न कर पाया, अब दूसर्यां की जिंदगी सुधारण चला। बस बाबा का जलवा चालू हो गया।

गांव के लोग भी एकदम अंधभक्त। कोई बाल बच्चा ठीक करावण आया, तो कोई नौकरी की बात लेके। और बाबा के पास हर सवाल का जवाब। ऊपर से अंधेरे में दीपक जला के बाबा जी बोले, “बस, मेरे चरणों में बैठ जा, सब ठीक होगा।” और असली चमत्कार तो यारा ये सै कि बाबे के पास जेब खाली होवै और भक्तां के जेब का माल धीरे-धीरे उसकी थैली में चल्या आवै।

गांव के हाकिम तक बाबे की शरण में आगए। ताऊ बोला, “बेटा जी, ईमानदारी से तो कुछ होवै न सै, बाबे के आशीर्वाद से सब कुछ हो जागा।” और उधर से नेता जी, बाबे के साथ तस्वीरा खिंचवा रहे थे। सोचो भाई, बाबे का आशीर्वाद लिया, अब अगला चुनाव पक्का।

अब तो नेतागिरी भी बाबागिरी से चलती सै। बाबा जी बोले, “मैं देखता हूं, आज कल नेता भी मेरे आशीर्वाद के बिना कुछ न कर पावैं। सबकी डोर मेरे हाथ में सै।” बाबा जी के भक्त झट से बोले, “बिलकुल जी, आपकी लीला अपरम्पार सै।”

नन्दू तो बस अपना सिर धुनता रया। “अरे भाई, सबको सबकुछ दिख रया सै, पर कोई आंख खोलण को तैयार न सै।”

फिर गांव में फर्जी बाबे की चर्चा और जोर पकड़ गई। कोई बोला, “बाबा जी ने गंगाजल छिड़क के खेतों में पानी बरसाया सै,” तो कोई बोला, “बाबा ने मेरी बीमार गाय को ठीक कर दिया।” नन्दू तो सोच में पड़ गया, “अरे भाई, बाबे ने तो डॉक्टरों की नौकरी ही खा ली।”

इतने में गांव में नए बाबे का आगमन होया, और उसने गांव के बीचों बीच अखाड़ा बना दिया। अजीब लटके-झटके। हुक्का पीते-पीते बाबा जी बोले, “मैं ध्यान लगाऊं, और सब दुख दूर करूं।” लोग लाइन में खड़े हो गए – सिरदर्द ठीक कराणा हो, या नोकरी लगवाणा हो। बाबा के पास हर समस्या का हल था।

पर एक दिन अजब बात होई। बाबे का असली चेहरा तब सामने आया जब उसने गांव की चौधरी की जमीन पे हाथ मारा। चौधरी ने बोले, “अबे बाबा, तूं भगवान सै तो सब कुछ तेरे नाम करे देऊँ क्या?” बाबा हड़बड़ा के बोला, “नहीं चौधरी जी, आप गलती समझे।”

पर गांव वाले अब जाग गए। चौधरी जी के पास जाके बोले, “सारा खेल बाबे का सै। अबके देख लेंगे।” और गांव वालों ने एकजुट होके बाबे को दौड़ा दिया।

बाबा जो दिन रात चमत्कार दिखावण की बात करदा था, अब सरपट भाग रया था। गांव के बुजुर्ग हंसण लागे, “देखा बेटा, असली चमत्कार तो यो सै कि जूठा फर्जी बाबा अब लुगाई की तरह घर बैठ के चूल्हा फूंकता मिलेगा।”

और नन्दू ने बिड़ी का आखरी कश खींचते हुए कहा, “अबके समझ में आ गया कि बाबागिरी और नेतागिरी में ज़्यादा फर्क न सै। बस लोग आंख मूंद के यकीन कर लेते सै। आज का जमाना ही ऐसा हो गया सै।”

गांव में फर्जी बाबे का खेल खत्म हो गया, पर नन्दू के मन में एक सवाल बाकी रह गया – “कहीं अगला फर्जी बाबा कौन होगा?”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #186 – व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 186 ☆

☆ व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग ‘फेसबुक’ का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्रपत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर ‘फेसबुक’ पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है मगर उसकी चर्चा ‘फेसबुक’ पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पेस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज 5 से 7 घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है।

कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वह छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकना उन्हें नहीं आता है। वे ‘फेसबुक’ से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है।जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा ‘फेसबुक’ पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में ‘फेसबुक’ पर बने रहते हैं। ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है जितनी रचना छप जाती है। उसे ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘फेसबुक’ के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह ‘फेसबुक’ पर अपना ‘फेस’ चमकाते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना महंगाई भगाओ अभियान।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गजबपुरिया देश की सरकार महंगाई जैसी महामारी से त्रस्त थी। उन्होंने कटौती स्थली के मस्तकलाल देश की सरकार से मदद मांगी। मस्तकलाल देश का हाल तो वही है, जहाँ तोंद बाहर निकाले बाबाओं और पुजारियों की एक टीम हर काम की एक्सपर्ट होती है। गजबपुरिया सरकार ने लिखा, “हमने सुना है कि आपके यहाँ टोटके और तंत्र-मंत्र से महामारी भगाई जाती है। हमारे यहाँ मौत का आँकड़ा आपके देश की धार्मिक किताबों में दी गई कहानियों जितना बढ़ रहा है। हमारा धैर्य आपके देश की लोकतंत्र जितना कम हो गया है।”

मस्तकलाल देश की सरकार ने मदद देने की हामी भर दी। वहां के बाबा और तांत्रिकों की टीम ने अपनी ‘धार्मिक दवाइयों’ के बंडल तैयार करने का आदेश दिया। ये दवाइयाँ गंगा जल, गोबर, गोमूत्र और कुछ विशेष मंत्रों से बनाई गई थीं। जैसे ही इन दवाइयों को पता चला कि इन्हें गजबपुरिया भेजा जाना है, वे सारे बंडल से भागने लगे। एक नेत्री ने कहा, “हमें वहाँ क्यों भेजा जा रहा है? हम तो यहीं की जनता का मानसिक शोषण करने में व्यस्त थे।”

बाबा लोग तो पहले ही किसी घने जंगल में अपनी कुटिया बनाकर गायब हो गए थे। दवाइयों के थोक और फुटकर विक्रेताओं ने भी अपनी-अपनी दुकानें बंद कर ली और भूमिगत हो गए। आखिरकार, मस्तकलाल सरकार ने सख्ती से इन्हें पकड़ा और बंडल में पैक किया।

एक अधिकारी ने पूछा, “यहां क्या चल रहा है?” एक साधु ने उत्तर दिया, “हम देख रहे हैं कि हम अपनी दवाइयों से दूसरे देश में भी हमारा उल्लू सीधा कर सकते हैं या नहीं।” अधिकारी ने कहा, “यहाँ उल्लू नहीं बल्कि धर्म का कारोबार चल रहा है, समझे?”

मस्तकलाल देश की सरकार ने भारी मशक्कत से उन दवाइयों के बंडल बनाए और उन्हें एक विशेष विमान में लादकर गजबपुरिया भेजा। गजबपुरिया में, मेडिकल विशेषज्ञ और सुरक्षा एजेंसियां सतर्क थीं। विमान के लैंड करते ही, एक बंडल उतारते समय ही मजदूर आपस में लड़ने लगे। गालियों का आदान-प्रदान होने लगा, जाति-धर्म की बातों पर बवाल मच गया।

मेडिकल विशेषज्ञ ने तुरंत सबको सतर्क किया और दुग्गल साहब को फोन कर सारी स्थिति बताई। उन्होंने कहा, “देखो, ये दवाइयाँ हैं। इनका उपयोग महंगाई को मिटाने की जगह नफरत और अंधविश्वास का वायरस फैलाने में उपयोग में लाया जा सकता है। यदि यह फैल गया तो अगले पाँच साल तक आपका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता है। ये वायरस लोगों को मानसिक गुलाम बना देता है।”

दुग्गल साहब ने कहा, “इन्हें तुरंत हमारे गुर्गों के बीच भेजो और मस्तकलाल देश की इस अद्भुत सद्भावना को धन्यवाद कहना।” एक बड़ा सा स्टिकर “ये दवाई केवल धार्मिक मूर्खों के लिए है” लिखकर उस विमान की सारी दवाई अंधभक्तों के बीच बटवा दी गई।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ झूठ बोले मीडिया काटे ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष ☆

श्री नवेन्दु उन्मेष

☆ व्यंग्य  ☆ झूठ बोले मीडिया काटे ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

पहले झूठ बोलने पर कौआ काटता था। इसी लिए फिल्म में गीत भी लिखा गया कि झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो। लेकिन अब शहर से कौए गायब हो चुके हैं। कौआ अब विलुप्त प्राणी होता हुआ नजर आ रहा है। अब जो नया प्राणी पैदा हो गया है उसे कहते हैं मीडिया। पहले कहावत थी कि जहां न जाये रवि वहां जाये कवि। लेकिन अब ऐसी बात नहीं रही। अब जहां कवि, कौआ और रवि नही पहुंच पाते वहां मीडिया पहुंच जाता है। अब मीडिया की भी नयी-नयी जमात पैदा हो गयी है। पहले मीडिया का मतलब आकाशवाणी या अखबार हुआ करते थे। इसके बाद पीढ़ियां बदली तो न्यूज चैनल और मनोरंजन चैनलों का दौर आ गया। पहले चैनलों के पत्रकार माइक लेकर शहर में घूमा करते थे। अब तो घर-घर में यूटयूब चैनल के पत्रकार हो गये हैं जिन्हें अन्य मीडिया वाले मीडियाकर्मी मानने से इनकार करते हैं। कहीं-कहीं तो प्रशासन भी यूटयूबर्स को मीडियाकर्मी के रूप में स्वीकार करने से इनकार करता है। इन सबके बावजूद कई यूटयूबर्स के चैनल देखने वालों की संख्या लाखों-करोड़ों में हैं।

अब तो गोदी मीडिया की भी एक अलग जमात खड़ी हो गयी है। ऐसी मीडिया के बारे में कहा जाता है कि यह सत्ता की गोद में सोती और जागती है। इस मीडिया के लोग के झूठ को सच बताने का काम बखूबी करना जानते हैं। इसे चारण संस्कृति भी कहा जाता है। राजा-महाराजाओं के जमाने में दरबारी कवि-लेखक होते थे जो राजा की चारण में गीत लिखकर जनता के बीच उनके अच्छे या झूठे कार्यो को इसके माध्यम से पहुंचाते थे। इससे चारण कवियों को लाभ यह होता था कि उन्हें अच्छी तनख्वाह मिलती थी। कहा जा सकता है कि चारण संस्कृति का ही नया नाम गोदी मीडिया है।

पहले जब पत्नी पति से रूठ जाती थी तो गाना गाती थी कि मैं मैके चली जाउंगी तुम देखते रहियो। अब बीवियां धमकी दे रही हैं कि मैं पाकिस्तान चली जाउंगी और वहां के वादियों में नाच-नाचकर तुम्हें दिखाउंगी। तुम देखते रहियों। तब तुम्हारे पास मीडिया वाले माइक लेकर आयेंगे। तब तुम्हें पता चलेगा कि बीवी का महत्व क्या है।

तरह-तरह के मीडिया के आने से मियां बीवी के झगड़े भी बढ़े हैं। छोटे-मोटे झगड़ों पर भी बीवियां मीडिया को बुलाने की धमकी देने लगी हैं। मीडिया भी ऐसा है कि एक माइक और एक मोबाइल फोन लेकर घर पर आ धमकता है और पूछता है कि तुम्हारा पति से क्यों नहीं पटता है। पति से प्रश्न करता है कि तुम अपनी पत्नी से कितना प्यार करते हो। यह सब देखकर लगता है कि मीडिया अब पति-पत्नी को प्यार करना सिखा रहा है।

पहले तो भारी भरकम कैमरा लेकर मीडिया कर्मी आते थे तो लगता था कि मीडिया वाले आ गये हैं। लेकिन अब तो घर में पति के पास भी अलग तरह की मीडिया है तो पत्नी के पास भी अलग तरह की मीडिया है। पति पत्नी के कृत्यों को मोबाइल पर रिकार्ड करके उसका पोल खोल रहा है तो पत्नी पति के कृत्यों को उजागर कर रही है। मीडिया के विशेषज्ञों से पूछिये तो कहेंगे यह मीडिया की बढ़ती हुई ताकत है जो पति-पत्नी के संबंधों को भी लोगों के बीच ला रहा है। मेरी सलाह है कि ऐसे पति-पत्नी को संभल कर रहना चाहिए।

नेताओं और दलों के बीच झगड़े बढ़ाने का काम भी मीडिया कर रहा है। अगर एक नेता ने दूसरे नेता के बारे में कुछ कह दिया तो तुरंत दूसरे नेता के घर पर मीडिया वाले पहुंच जायेंगे और पहले वाले नेता के कथन को उसके समक्ष रखकर पूछेंगे इसमें सच्चाई क्या है। अब पहले वाला नेता फंसा। मतलब साफ हैं झूठ बोले तो मीडिया काटे। मीडिया का काम है काटना। वह चाहे न्यूज की फसल काटे या गोदी मीडिया की तरह नेताओं या दलों की गोद में बैठे और इतराये कि यह देखो मुझे फलां नेता या दल का समर्थन प्राप्त है। तुम मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। इसे कहते हैं सैया भये कोतवाल तो अब डर काहे का।

© श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005 (झारखंड) मो  -9334966328

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 45 ☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ।)

☆ शेष कुशल # 45 ☆

☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” – शांतिलाल जैन 

दुःखी मन से स्मृति शेष लिखने बैठा हूँ. पत्रकारिता के अवसान की घटना सामान्य नहीं है. अभी समाज को उसकी जरूरत थी, दुःखद है कि वह अब हमारे बीच नहीं रही.

यूँ तो आर्यावर्त में लगभग दो सौ साल का जीवन जिया था उसने लेकिन उसके असमय चले जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति कर पाना मुश्किल है. हालाँकि कुछ सिरफिरे और जिद्दी पत्रकार टाईप लोग यू ट्यूब और इन्टरनेट पर उसकी याद को जिलाए रखने की कोशिश कर रहे हैं मगर वे इन्फ्लुएंस नहीं कर पा रहे. और जो इन्फ्लुएंसर हैं उन्होंने उसका पुनर्जन्म नहीं होने देने की सुपारी ले रखी है. उसने आर्यावर्त में, कलकत्ता में, 1826 में जन्म लिया मगर दम तोड़ा नई दिल्ली के बहादुरशाह ज़फर मार्ग की प्रेसों में, मंडी हाउसों में, नॉएडा के स्टूडियोज़ में.

बीमार थी. दो तीन दशकों से. पिछले एक दशक में कुछ ज्यादा सीरियस हो गई थी. डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स की पैथ लैब से जाँच करवाई. रिपोर्ट में फ्रीडम का लेवल 180 आया. ये जानलेवा मानक से काफी ऊपर था और बढ़ता ही जा रहा था. फॉरेन तक के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया. पेशेंट के तौर पर वह बिलकुल कोऑपरेट नहीं कर रही थी. टॉक्सिक्स अन्दर ही अन्दर बढ़ते जा रहे थे. निज़ाम ने ईलाज के जो इंतज़ामात किए उससे दाल और पतली होती चली गई. समझ में नहीं आया कि निज़ाम तबीयत ठीक करने में लगा है कि बिगाड़ने में.

बहरहाल, सिम्पटम्स तो बहुत समय पहले से उभरने लगे थे. पाठकों की अखबारों में, समाचार चैनलों में घटती रूचि, छीजता भरोसा, समाचारों की शक्ल में परोसे गए विज्ञापन, खरीदे गए न्यूज स्पेस के गोल गोल लाल चकते पूरे शरीर पर उभर आए थे. लग रहा था कि अब ये बचेगी नहीं. शरीर अलग पीला पड़ता जा रहा था. यलो जर्नालिज्म डायग्नोस हुआ. दुलीचंद बैद से चूने के पानी में संपादकों के हाथ धुलवाए, संवाददाताओं को सलीम मियाँ से झड़वाया, फोटो जर्नलिस्ट को तेजाजी महाराज की पाँच जात्रा करवाई, मगर कोई फायदा नहीं हुआ. हेपेटाईटिस वायरस के पॉलिटिकल वेरियंट ने उसका लीवर इतना खराब कर दिया था कि होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी कोई पैथी काम नहीं आई. एडिटर्स गिल्ड के मंदिर में ले गए, मन्नत मानी, न्यूज ब्रॉडकास्टर एंड डिजिटल एसोसिएशन के दरबार में ले गए वहाँ भी कृपा नहीं बरसी. कोई मंदिर, ओटला, मज़ार, बाबाजी का दरबार नहीं छोड़ा जहाँ ले नहीं गए. बिगड़ती सेहत का असर उसके दिमाग पर भी आ गया था. फिर उसे हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे. रात नौ बजते ही वो जोर जोर से चिल्लाने लगती. प्राईम टाईम में बेसिरपैर के सवाल पूछती, आधे सच्चे आधे झूठे फेक्ट्स रखने लगती. कभी कभी पैनलिस्टों से गाली गलौच पर उतर आती. लोगों का मानना था कि उस पर निज़ाम की प्रेत-छाया है. किसी ने बताया प्रेस परिषद् के ओटले पे ले जाओ. बाबाजी कोड़े मार कर ऊपरी हवा का ईलाज करते हैं. ले गए साहब, वहाँ भी कुछ नहीं हुआ. प्रेस परिषद् के पास कोड़ा था ही नहीं, ‘कंडेम’ करने का परचा लिख कर उनने घर भेज दिया.

एक बार उसको दिमाग के डॉक्टर को भी दिखाया. मनोचिकित्सक. उसने बताया कि वो डर गई है. जब निज़ाम ने कुछ को अन्दर किया, कुछ के विज्ञापन रोक दिए, कुछ के मोबाइल, लैपटॉप जब्त किए तो किसी किसी को जहन्नुम का रास्ता दिखाया तब फियर सायकोसिस का शिकार हो गई. इस कदर कि उसने ‘फेक्ट’ और ‘फेक’ में अपने विवेक का इस्तेमाल करना छोड़ दिया, पॉवरफुल का ‘फेक’ भी ‘फेक्ट’नुमा आने लगा और पॉवरलेस का ‘फेक्ट’ भी ‘फेक’ की शक्ल में.  मुझे याद है एक बार आईसीयू में थोड़ा सा एकांत पाकर उसने कहा था कि वह ईमानदार काम करना चाहती है मगर कर नहीं पा रही. थोड़ी ईमानदार कोशिश की, ‘गोंजो पत्रकारिता’ करने से इंकार कर दिया तो उसे हैक, प्रेस्टीट्यूट और न जाने क्या क्या कहा गया. बड़ा सदमा तब लगा जब उसे कंटेंट राइटर, कंटेंट मैनेजर कहा गया. शायद यही उसके डीप-डिप्रेशन में जाने की वजह रही होगी.

जितने मुँह उतनी बातें साहब. कोई कोई कहते कि रोज़मर्रा की खुराक की जिम्मेदारी बदलने से उसकी सेहत बिगड़ी. कभी उसे खाना-खुराक स्वतंत्र मिडिया हाऊस दिया करते थे, फिर यह जिम्मा कार्पोरेट्स से होते हुए कांग्लोमरेट्स तक आ गया. उसके बाद से उसकी सेहत तेज़ी से बिगड़ी. खाना-खुराक में कमी और प्रॉफिट लाने के दबाव में वह बीमार होती चली गई. गांधी, अंबेडकर, नेहरू के शुरू किए गए अखबारों से मिला खून कब का पानी हो चुका था. गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी तक बहुत कुछ ठीक चला. कष्ट तो उसने जीवनभर सहे मगर दम नहीं तोड़ा था. इमरजेंसी में मौत के मुँह में जाकर वापस आ गई. लेकिन इस बार बीमार पड़ी तो ऐसी कि संभली ही नहीं. एक समय वह इतनी तंदुरुस्त, हौंसलामंद और साहसी थी कि अकबर इलाहाबादी के बोल ने नारे की शक्ल अख्तियार कर ली – ‘जब तोप हो मुकबिल तो अख़बार निकालो.’ बीते दिनों दुर्बलता इतनी आ गई थी कि मामूली से नेता-प्रवक्ता ‘टॉय-गन’ की आवाज़ से डरा लेते. एक दो बार उसने पीठ में दर्द की शिकायत की तो आकाओं ने उसकी रीढ़ की हड्डी ही निकलवा दी. दरबार में रेंग-रेंग कर चलते चलते उसकी ठुड्डी, कोहनी, घुटनों, पर घाव पड़ गए थे, उसमें पेड-न्यूज का मवाद रिसने लगा था. एक बार वो रेंगने की मुद्रा में आई तो फिर खड़ी कभी नहीं हो पाई.

अन्दर की बात तो ये साहब कि उसको नशे लत लग गई थी. प्रॉफिट के नशे में रहने के लिए उसने टीआरपी नाम का ड्रग लेना शुरू कर दिया था. एडिक्ट हो गई थी. वो चौबीस घंटे टीआरपी की तलाश में रहती. थोड़ा भी नशा उतरा कि फिर जोर जोर से चिल्लाने लगती, वायलेंट हो जाती, हाथ पैर मारने लगती, पुड़िया खरीदने के लिए नैतिक अनैतिक कुछ नहीं देखती. नशा खरीदने के लिए उसने अपनी कलम तक गिरवी रख दी. पैथोलॉजिस्ट ने कहा कि टीआरपी के नशे की लत से उसका मस्तिष्क गल गया है. तो मरना तो था ही. मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर हो चुकने के बाद भारी मन से उसे मृत घोषित करना पड़ा.

उसके अवसान की वजह एक रही हो या एक से ज्यादा, सच तो यह है कि वह अब हमारे बीच नहीं हैं. दो शताब्दी पूर्व आर्यावर्त के नभ पर जिस ‘उदंत मार्तण्ड’ का उदय हुआ था वह अब अस्त हो गया है. हमारी सेहत का दारोमदार उसके स्वास्थ्य पर टिका था. पता नहीं लोकतान्त्रिक समाज के तौर पर उसके बिना हम स्वस्थ कैसे रह पाएँगे? उसे विनम्र श्रद्धांजलि.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 20 – भ्रष्टाचार की माया ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना भ्रष्टाचार की माया)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 20 – भ्रष्टाचार की माया ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

भ्रष्टाचार, एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही किसी भी सामान्य नागरिक के चेहरे पर ताज़गी से भरी मुस्कान आ जाती है। ये कोई साधारण गुनाह नहीं है, यह तो भारतीय राजनीति का सबसे प्रिय खेल है। जैसे चाय में बिना चीनी के मज़ा नहीं आता, वैसे ही राजनीति में बिना भ्रष्टाचार के चुनावी सरगर्मी अधूरी रहती है।

आप सोच सकते हैं कि भ्रष्टाचार का मतलब केवल चंद लोगों का पैसा उड़ाना है। लेकिन वास्तव में यह एक कला है, जिसमें हमारी सरकारें, बाबू और नेता एक साथ नृत्य करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार और हमारी संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। यह एक ऐसा रिश्तेदार है, जिसका नाम लिए बिना शादी का कोई मुहूर्त ही नहीं पड़ता।

सुबह-सुबह जब कोई आम नागरिक अपने घर से बाहर निकलता है, तो उसे एहसास होता है कि उसके पास कई विकल्प हैं: भीड़ में धकेलना, ट्रैफिक में फंसना, और सबसे बढ़कर, एक भ्रष्ट अधिकारी से सामना करना। अब अधिकारीजी तो जैसे भगवान की असीम शक्ति के साथ यह बताते हैं कि उनकी दुआ से ही आपकी फाइल चल सकती है।

अधिकारी का चेहरा देखने में तो ऐसा लगता है जैसे उन्होंने हर मुसीबत की चाय पी रखी है। जब आप उनसे मुलाकात करते हैं, तो उनका पहला सवाल होता है, “भाई, थोड़ा सा मुझे दें, फिर देखो कैसे फाइल चलती है!” यह सुनकर आप सोचते हैं कि सच में, भ्रष्टाचार एक खेल है, और अधिकारीजी इसके सबसे बड़े खिलाड़ी हैं।

लेकिन भ्रष्टाचार केवल अधिकारीजनों तक ही सीमित नहीं है। नेताओं की महत्ता तो किसी कवि द्वारा लिखे गए स्तुति गीतों से भी अधिक है। चुनावों के समय, नेता जी अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाते हैं और जनता के बीच या तो बम फेंकते हैं या फिर शुद्ध भ्रष्टाचार का लेबल चस्पा कर देते हैं। उनका मानना है कि चुनाव में जीतने के लिए दिमाग से काम लेना जरूरी है और यह दिमाग तभी चल सकता है जब जेब में कुछ ‘सुखद’ हो।

यहाँ तक कि हमारे समाज में रोटी, कपड़ा और मकान का उद्देश्य भी भ्रष्टाचार पर आधारित हो गया है। आप रोटी खरीदने जाते हैं, तो दुकानदार बताता है, “भाईये, यह रोटी तो हज़ार की है, पर अगर आप मुझे कुछ ‘खास’ दे दें, तो यह सस्ती हो जाएगी!” अब उस समय आपको समझ आता है कि भ्रष्टाचार तो पकवान बनाने का एक मुख्य ingredient है।

हमारी बिरदियाँ भी भ्रष्टाचार को लेकर बड़े चौकस हैं। हर साल जब गणतंत्र दिवस आता है, तो शहरों में तिरंगा फड़कता है और दफ्तरों में रिश्वत का एक नया रंग चढ़ता है। यह ऐसा लगता है जैसे हर एक सरकारी दफ्तर में तिरंगा लहराने के साथ-साथ ब्रश के साथ भ्रष्टाचार के नए रंग भी भूरे से नीले में बदलने लगते हैं।

भ्रष्टाचार के इस महासागर में, आम नागरिक तैराकी का कोई हुनर नहीं रखता। वे केवल एक ही काम करते हैं: एक अदृश्य रक्षक की प्रतीक्षा करना, जो भ्रष्टाचार को खत्म कर देने का आश्वासन देता है। लेकिन ध्यान दें, असली उपाय तो यही है कि स्थिति को स्वीकार करें और उसकी सराहना करें।

आखिरकार, भ्रष्टाचार केवल एक मुद्दा नहीं है; यह एक फीलिंग है, एक अनुभव है, जिसे हंसी में बदलकर जीना ही सबसे सही तरीका है। हमारी संस्कृति तो इसी पर आधारित है; इसलिए जब भी भ्रष्टाचार का जिक्र हो, सभी को हंसते-हंसते रुदन करना चाहिए। कारण साफ है: यह एक ऐसा शिल्प है, जिसमें हम सब, चाहे हामी भरें या न भरें, हर दिन नर्तकी की तरह झूमते हैं।

तो चलिए, इस वैभव की महफिल में शामिल होते हैं, और स्वच्छता की बातें करने वालों को हंसकर कहते हैं, “भ्रष्टाचार चलने दो, यह हैं तो अपने विकास का हिस्सा!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 256 ☆ व्यंग्य – भाग्यवादी होने के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम और विचारणीय  व्यंग्य – ‘भाग्यवादी होने के फायदे‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भाग्यवादी होने के फायदे 

हमारे देश के ज़्यादातर लोग भाग्यवादी हैं— भाग्य, किस्मत, नसीब, नियति, मुकद्दर, फ़ेट या डेस्टिनी पर भरोसा करने वाले। सभी धर्म के सन्तों ने भी यही कहा है कि इंसान के जीवन में सब कुछ पूर्व-नियत है, प्री-डेस्टाइन्ड। इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है, सब कुछ पहले से लिख दिया गया है। ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुइहै वहि जो  राम रचि राखा’, ‘विधि का लिखा को मेटनहारा’, ‘विधना ने जो लिख दिया छठी  रैन के अंक, राई घटै ना  तिल बढ़ै रहु रे जीव निश्शंक’, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सब  के दाता राम’, ‘राम भरोसे जो रहें, परबत पै हरियांयं’, ‘जिसने चोंच दी है, वही चुग्गा देगा’, ‘देख  परायी चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।’

दरअसल भाग्यवादी होने के कई फायदे होते हैं। भाग्यवादी दुनिया में चल रहे बखेड़ों से परेशान नहीं होता क्योंकि उसके अनुसार सब कुछ वही हो रहा है जो पहले से लिख दिया गया है। उसे ब्लड-प्रेशर की बीमारी नहीं होती, दुनिया की हलचलों के बीच वह चैन की नींद सोता है। बड़ी से बड़ी घटना के बीच वह शान्त, स्थितप्रज्ञ बना रहता है। उसे न यूक्रेन की चिन्ता सताती है, न गज़ा की। जो मरे वे इतनी ही उम्र लेकर आये थे, जो बच गये उन्हें अभी और जीने का वरदान मिला है। रेल दुर्घटना में मरने वालों के हिस्से में भी इतनी ही उम्र आयी थी।

हमारे समाज में भाग्यवादिता बहुत उपयोगी रही है। जीवन में असफल होने पर असफलता को भाग्य के खाते में डालकर चैन से बैठा जा सकता है। कुछ समय पहले तक लड़कियों का भाग्य माता-पिता के हाथ में रहता था। पढ़ाया तो पढ़ाया, अन्यथा पराये धन पर कौन पैसा बरबाद करे? बड़े होने पर लड़की को, बिना उसकी सहमति लिये, किसी भी एंगे-भेंगे, जुआड़ी, शराबी लड़के से ब्याह दिया जाता था और लड़की इसे अपना भाग्य मानकर गऊ की तरह पतिगृह चली जाती थी। मतलब  यह कि भाग्य के हस्तक्षेप से गृहक्लेश की संभावना कम हो जाती थी।

हमारे देश में जाति-प्रथा है जिसमें आदमी जन्म लेते ही ‘ऑटोमेटिकली’ ऊंचा या नीचा हो जाता है। जो नीचे जन्म लेते हैं उनका सारा जीवन संघर्ष करते और अपमान झेलते ही बीतता है।

समाज में उनका कोई सम्मानजनक स्थान नहीं बनता। परसाई जी  ने अपनी रचना ‘जिसकी छोड़ भागी’ में लिखा, ‘सदियों से यह समाज लिखी पर चल रहा है। लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां मैला ढो रही हैं और लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां ऐशो आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई।’ ऐसे में अपने जीवन को अपना भाग्य मानकर ही ढाढ़स मिल सकता है।

रियासतों के ज़माने में रियाया की स्थिति दयनीय होती थी। राजा साहब के तो दर्शन ही दुर्लभ होते थे, रियाया के लिए उनके दर्शन की इच्छा करना गुस्ताखी से काम नहीं होती थी। उनके मुसाहिब ही मनमाना शासन चलाते थे। रियाया पर हर तरह  के ज़ुल्म होते थे, सुनवाई कहीं नहीं। ऐसे में रियाया के लिए सब कुछ भाग्य के खाते में डाल देना ही एकमात्र उपाय बचता था। भाग्यवादिता ही दुर्दशा के बीच कुछ संबल देती थी।

राजाओं को निष्कंटक शासन करने योग्य बनाने के लिए पुनर्जन्म का सिद्धान्त आया जिसमें पुरोहितों और चर्च का सहयोग मिला। रियाया को बताया गया कि उनकी दुर्दशा उनके पूर्व जन्म के कर्मों के कारण है और उनका अगला जन्म तभी सुधरेगा जब वे अच्छे, आज्ञाकारी नागरिक बने रहें। इस स्थिति  ने रियाया को और भाग्यवादी बनाया।

मज़े की बात यह है कि भाग्य पर भरोसे के बाद भी आदमी अनिष्ट और ‘होनी’ को टालने के लिए दौड़ता रहता है। बाबाओं, ओझाओं, गुनियों, तांत्रिकों, ज्योतिषियों, वास्तु-शास्त्रियों के यहां भीड़ लगती है। भविष्य को जानने के लिए ताश के पत्तों, अंकों, मुखाकृति अध्ययन, कप या गिलास में छोड़ी हुई कॉफी-चाय या शराब की जांच-पड़ताल जैसे अनेक टोटकों को अपनाया जाता है। बहुत से लोग उंगलियों में नाना रत्नों से जड़ी अंगूठियां पहनते हैं। कुछ लोग बायें हाथ की उंगलियों में भी अंगूठियां पहनते हैं जिसे देखकर मुझे सिहरन होती है। शायद वे उन्हें टॉयलेट जाते समय उतार देते होंगे। कहने का मतलब यह है कि आदमी को भाग्य पर यकीन तो है, लेकिन वह दुर्भाग्य को टालने में दिन-रात लगा रहता है।

सत्य यह है कि दुनिया भाग्य के नहीं, श्रम और प्रयास के भरोसे चलती है। दुनिया के सारे अविष्कार प्रयास और मेहनत से हुए हैं। भाग्यवादिता शान्ति तो दे सकती है, लेकिन जीवन के कांटे दूर नहीं कर सकती। दशरथ  मांझी भाग्य के भरोसे बैठे रहते तो पत्नी के लिए पहाड़ काटकर रास्ता न बनाते। बकौल परसाई जी, ‘भाग्य कुछ नहीं है। यह झूठा विश्वास है। सार्थक श्रम पर विश्वास किया जा सकता है।’

अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने मार्के की बात लिखी है— ‘भविष्य को इंगित करने का सबसे अच्छा तरीका उसका निर्माण करना है।’ अर्थात, हमारा प्रयास भविष्य को खोजने के बजाय उसे निर्मित करने में होना चाहिए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धर्मपत्नी पर व्यंग्य।)

?अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य? श्री प्रदीप शर्मा ?

वैधानिक चेतावनी – पति पत्नी के बीच हँसी मजाक और नोक झोंक आम है, लेकिन पत्नी की हँसी अथवा उसका मजाक उड़ाना गलत है। अपनी धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखने के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

हंसना सेहत के लिए अच्छा है। कोई एक हास्य कवि पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा हैं, जो खुद गंभीर होकर अपनी ही घराड़ी, यानी घर वाली की हंसी उड़ाते हैं, और श्रोताओं से दाद बटोरते हैं। काका हाथरसी ने भी अधिकतर हास्य के कारतूस काकी पर ही छोड़े हैं। इन दोनों की पत्नियों को आपने कार्टून के रूप में ही देखा होगा, कभी पत्नी के रूप में नहीं। हम इसे हास्य बोध नहीं मानते। हां, कभी एक डा.सरोजनी प्रीतम हुआ करती थी, जिनकी हंसिकाएं भी अधिकतर महिलाओं पर ही केंद्रित होती थी और पुरुषों पर कम।

व्यंग्य एक गंभीर विधा है और इसका उपयोग पति पत्नी के नाजुक संबंधों पर नहीं किया जा सकता। विसंगति पर तो व्यंग्य लिखा जा सकता है, लेकिन जो धर्मपत्नी अथवा जीवन संगिनी है, उस पर व्यंग्य लिखना, ना केवल टेढ़ी खीर है, अपितु बड़ी हिम्मत का काम है।।

जिस तरह डायन भी एक घर छोड़ देती है, हर व्यंग्यकार अपनी धर्मपत्नी को छोड़ आन गांव पर व्यंग्य लिख सकता है। उसकी व्यंग्य दृष्टि राजनीति, धर्म, भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही और समाज और विश्व में होने वाली सभी घटनाओं पर पड़ सकती है, लेकिन उसकी पास की दृष्टि जवाब दे जाती है, जब उसकी धर्मपत्नी पास होती है।

और तो और कुछ ऐसे व्यंग्यकार जिन्होंने गृहस्थी का स्वाद ही नहीं चखा, वे भी इस मामले में फूंक फूंक कर कदम रखते हैं।

उनकी तर्क की खान और उनके व्यंग्य बाणों में इतनी ताकत कहां, जो अपनी कलम की धार किसी के घरेलू मामले की ओर भी कर दे।।

अव्वल तो पति की मात्रा ही छोटी होती है, और पत्नी की बड़ी। वजन में भी अक्सर पत्नियां, पति की तुलना में भारी ही होती है।

पति अगर हॉफ तो पत्नी बैटर हॉफ। वैसे आम तौर पर तो हास्य कवि ही मोटे देखे गए हैं, व्यंग्यकार तो बस, किसी तरह ठीकठाक ही होते हैं। अगर कहीं गलती से पत्नी दुबली और वे मोटे निकल गए, तो व्यंग्य की सुई भी पति की ओर ही घूम जाती है।

वैसे हम अगर शब्द बाण और व्यंग्य बाणों की चर्चा करें, तो पत्नी के शब्द अचूक रामबाण होते हैं, जिसके आगे कोई भी धुरंधर धनुर्धर, व्यंग्यकार, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग शरणागत हो जाता है। पत्नी द्वारा निष्काम व्यंग्य की गीता का श्रवण पाठ सुनने के बाद ही, पति कलम उठाता है। धर्मपत्नी पर केवल प्रेम वर्षा ही संभव है, व्यंग्य बाण के लिए पूरा जगत पड़ा है।।

धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखना अंगारों पर फूंक फूंक कर कदम रखने से भी अधिक जोखम भरा काम है। जब घर में चूल्हा नहीं जलता तब धर्मपत्नी अपने व्यंग्यकार पति की छपी रचनाएं जला जलाकर चाय गर्म करती है। बड़ी अलबेली होती है, व्यंग्यकार के घर की सरकार। यह एक ऐसी सरकार होती है, जो सिर्फ तारीफ और प्रशंसा के बल पर ही चलती है। यहां व्यंग्य सिर्फ चूल्हा जलाने के ही काम आता है।

कभी कभी गंगा उल्टी भी बहने लगती है, जब ऊंट पहाड़ के नीचे आता है, और घर की पत्नी ही व्यंग्य में डूबी कलम उठा लेती है। तब पतिदेव को घर गृहस्थी के सभी काम दफ्तर के काम की तरह ही करने पड़ते हैं। क्योंकि सैंया कोतवाल नहीं, यहां सजनी व्यंग्यकार जो हो जाती है। पत्नी तो रूठकर मायके जा सकती है, पति तो बेचारा सिर्फ दफ्तर ही जा सकता है।।

व्यंग्यकार की कलम और धर्मपत्नी की जुबां के बीच जब भी युद्ध हुआ है, कलम हमेशा नतमस्तक हुई है। वास्तव में कुछ ना कहने की छटपटाहट ही तो व्यंग्य को जन्म देती है। कालिदास हो अथवा तुलसीदास, सबकी महानता के पीछे उनकी पत्नी का ही तो हाथ है।

आदमी संत, सन्यासी अथवा एक अच्छा व्यंग्यकार यूं ही नहीं बन जाता। जब हर सफल व्यक्ति के पीछे एक महिला का हाथ होता है, तो क्या एक व्यंग्यकार की सफलता का श्रेय उसकी पत्नी नहीं ले सकती। पत्नी की जली कटी सुनने के बाद जो व्यंग्य में पैनापन आता है, वह देखते ही बनता है। धर्मपत्नी की तारीफ से बड़ा कोई व्यंग्य नहीं। जो व्यंग्यकार अपनी बीवी से करे प्यार, वह उसकी तारीफ से कब करे इंकार।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ तोहफा दो तो ऐसा दो… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ तोहफा दो तो ऐसा दो… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

तोहफा दो तो ऐसा दो

… कि दिल गार्डन गार्डन हो जाये।किसी भी “पालतू तोते” से पूछेंगे तो यही जवाब मिलेगा।अगर पूछें कि किताब का तोहफा कैसा रहेगा, तो वह “हरी मिर्च” खाने लगेगा।किताबें पढ़ने के लिये होती हैं कहेंगे तो वह तोतापंती पर उतर आयेगा–नादां!किताबें देखने के लिये होती हैं जैसे अखबार।

सब कुछ उल्टा पुल्टा होते देखकर तोते ने बरबस “जसपाल भट्टी” की याद दिला दी।

साहित्यकार होने के नाते साहित्य जगत में किताबों के ओहदे की छानबीन जरूरी है। “सौजन्य प्रतियों” का हश्र किसी से छिपा नहीं है। पाने वाला भुरभुरी नज़र से छूकर शेल्फ में अनंतकाल के लिये “नज़रबंद” कर देता है। न वो “प्रेयसी “होती है न “पत्नी”। या फिर भड़कीली पैकिंग के साथ अगले की ओर सरका दी जाती है। वह भी यही करता है। महाजनो येन गतः स पंथाः।

सवाल इसलिए भी मौजूं है, क्योंकि सुनते हैं एक उपमुख्य मंत्री ने कहा है कि जनता जनार्दन, मंत्रियों को तोहफे में सिर्फ किताबें और कलम ही प्रदान करें। वे “फिलाॅसफर किंग “की धारणा को बल दे रहे हैं। फूलों का क्या है- वे क्षणजीवी हैं। श्रीफल की चटनी कब तक खायेंगे। ठंडी में गर्मी का एहसास दिलानेवाली शालें  बदन पर लादे कब तक घूमेंगे।

लगता है लेखक पाठक बिरादरी में विचरण करनेवाला विचार मंत्रीजी ने “हाइजैक” कर लिया। समस्त भाषाओं में रचित किताबों के कान खड़े हो गये। उनकी चिन्ता वाजिब थी। क्या पता मंत्री कलंत्री, किताबों के साथ जाने कैसा सलूक करें। लिहाजा उन्होंने विमर्श के लिये एक आपातकालीन गोष्ठी आयोजित की।

“अंग्रेजी-किताब” ने कहा– हमें, पठनीयता का संकट नहीं है। लगभग दो तिहाई दुनिया अंग्रेजी जानती है।और फिर विक्रम सेठ, शशि थरूर,अरुंधति, रस्किन बांड, रूश्दी, नायपाॅल, और चेतन भगत की किताबें हाथों हाथ बिक जाती हैं। सभी पाना चाहते हैं। जनता टनों के हिसाब से खैरात में हमें नहीं बाँटती।

“हिन्दी-किताब”  लाल पीली होकर बोली- तुमने तो ऐसा हमला किया कि सवाल ही गायब हो गये। ऑफेन्स इज़ द बेस्ट डिफेंस। यहां पठनीयता के संकट पर नहीं मंत्रीजी के विचार पर मंथन हो रहा है। महान मंत्रीजी अपनी भाषा में शपथ तक नहीं पढ़ पाते वो अंग्रेजी किताबें पढ़ेंगे। उनपर नज़र डालने की जहमत तक न उठायेंगे।

—-वे चाहे जो करें। पोस्टमार्टम करें या बेच दें। उनकी मर्जी।

—–कैसी मर्जी। किताबों का घोर अपमान। किताबों के लिये जंगल कटते हैं। स्याही खर्च होती है। लेखक दिल की ढिबरी जलाकर उजाला करता है फिर लिखता है।मंत्रियों को पढ़ना होगा।

—-उन्हें रिबन काटने, लंबी लंबी फेंकने और घूमा घूमी से फुर्सत मिले तब ना।

—-“प्रादेशिक भाषा की किताबें “अब तक “साइलेंट मोड” में पड़ी थीं। अकस्मात उनमें हलचल होने लगी। वे बोलीं–हमारी हालत तो तुम सबसे ज्यादा खस्ता है।

अंग्रेजी ने उन्हें तुच्छ नज़र से देखा।

हिन्दी- किताब ने चर्चा को पटरी पर लाने के लिये कहा–भैंस के आगे बीन बजाना, साँप को दूध पिलाना, जैसे मुहावरे हमने इसी दिन के लिये सहेजे हैं।

प्रादेशिक किताब बोली– हम क्यों चिन्ता में घुलकर सींक हुये जा रहे हैं। हमने सुना– वो कहते हैं “न पढ़ेंगे न पढ़ने देंगे।” जनता भारी मात्रा में किताबें भेंट करेगी तो हो सकता है उन्हें “साइलोज” बनाने पड़ें। न बना पाये तो दीमकें खा खाकर बुद्धिजीवी बन जायेंगी।

हिन्दी किताब ने कहा– अरे कुछ कलम पर भी तो बोलो।मंत्रियों को चवन्नी छाप कलम तो कोई देगा नहीं। सोने की होगी या हीरे जड़े होंगे। मंत्री इन्हें बाँटने से रहे।

——गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुये “कोरी किताब” ने  ध्यानपूर्वक सारे प्वाइंट्स नोट किये और इस नतीजे पर पहुंची कि– मंत्रीजी को” टेलीप्राॅम्प्टर” भेंट किये जायें। और पेनों (कलम) को राष्ट्र हित में बेच देना चाहिए।

सभी की सहमति पाकर कोरी -किताब ने अपनी सिफारिशें उप मुख्य मंत्रीजी तक पहुंचा दीं।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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