हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 8 – व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 8 – व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

आज व्यंग्य के परिदृश्य में व्यंग्य की प्रमुखता देखी जा सकती है. इसे व्यंग्य का सकारात्मक पक्ष उभर कर आता है. इसके व्यंग्य पीछे की लोकप्रियता है. वैसे तो व्यंग्य सदा से व्याप्त रहा है. यह अपने आक्रोश और सहमति जताने का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली हथियार है आक्रोश को व्यक्त करने के लिए साहित्य में अपने तौर-तरीके और अनेक विधा के माध्यम हैं. व्यंग्य कहानी में भी रहता है निबंध के माध्यम से भी बाहर आता है और कविता से भी. आक्रोश अपनी प्रकृति प्रवृत्ति के साथ व्यंग्य के रुप से बाहर आता रहा है. आज हम कह सकते हैं. आक्रोश ने अपने को व्यक्त करने के लिए भाषा और भंगिमा ईजाद की है. व्यंग्य के तेवर भाषा के मुकम्मल होने पर ही प्रभावी होते हैं. इतिहास के पन्नों को पलटें तो व्यंग्य  सीमित शब्दों के साथ कटाक्ष, तंज के रुप में बाहर दिखता है.इसके शब्दों की संख्या बहुत कम की रही, एक वाक्य से लेकर एक शब्द तक की. पर शब्दों अपने समय की चूलें हिला दी. इतिहास को ही बदलकर नया इतिहास को रच डाला. इस संदर्भ में महाभारत का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. जब द्रोपदी ने  दुर्योधन पर कटाक्ष कर दिया कि’ अंधे के बेटे अंधे ही होते हैं’ इस एक छोटे वाक्य ने अपने समय के परिदृश्य को बदलकर महाविनाश का महाभारत रच डाला. एक शब्द या छोटे वाक्य को हम आज के समय का व्यंग्य तो नहीं कह सकते हैं. साहित्य मैं व्यंग्य की एक अलग अवधारणा है जो अपने समय के दबे कुचले,शोषित वर्ग की विसंगतियों को केंद्र में रखकर समाज में व्याप्त पाखंड प्रपंच विद्रूपताओं ठकुरसुहाती, नैतिक मूल्यों के चित्रों को एक बड़े कैनवास पर उकेरती है. मोटे तौर इसकी शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चंद्र के साहित्य से मान सकते हैं. भारतेंदु ने अपने अराजक काल की राजनीतिक व्यवस्था को व्यंग्य के माध्यम से तीखे और रोचक ढंग से उजागर किया है. उस समय साहित्य की मूल भाषा पद्य थी. पर गद्य का आरंभ हो चुका था। भारतेंदु अपनी रचना’अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा. में व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते हुए कहते हैं

         ‘चूरन साहेब लोग जो खाता

          सारा हिंद हजम कर जाता.

भारतेंदु काल के बाद गद्य में बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त आदि व्यंग्यकारों ने अपने समय की अंग्रेजी व्यवस्था पर तीखे के प्रहार किए. ये रचनाएँ साहित्य जगत में बहुत लोकप्रिय हुई. स्वतंत्रता की बाद हरिशंकर परसाई व्यंग्य में एक नया फॉर्मेट लेकर आए. जिसमें समाज की विपद्रूपताएं मानवीय प्रपंच,पाखंड, प्रवृत्तियों को अपने आलेख का विषय बनाया. लोगों ने इसे बहुत शिद्दत के साथ हाथों हाथ लिया और पूरे दिल से प्रशंसा की. लोगों ने इसे पढ़कर कहा’बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा’. यह व्यंग्य ड्राइंग रूम में बैठकर पढ़ने वालों का ही नहीं वरन चाय की टपरे, ठेले,गुमटीओ आदि के भी लोग थे.लोगों को लगा लेखक हमारे बीच हमारे दुख दर्द हमारी कमियों की बात  हमारे पक्ष में कह रहा है.और विस्तार से कह रहा है. अपने शब्दों में कंजूसी नहीं वरत रहा है. परसाई की व्यंग्य की व्यापकता ने साहित्य का सिरमौर बना दिया और यह सबसे महत्वपूर्ण विधा बन गई. जिसे भी पाठक, पत्र-पत्रिकाओं से भरपूर प्रेम मिला.और अखबारों और पत्रिकाओं में इसे पूरे  सम्मान के साथ स्पेस दिया जाने लगा.अखबारों ने इसकी जरूरत को समझ लिया था. इसकी लोकप्रियता में इसका अन्य विधाओं से अलग फॉर्मेट ,शैली,भाषा की विस्तारता  आदि का महत्वपूर्ण रोल था. उस समय छोटा तो छोटा सा छोटा व्यंग्य 1500 से लेकर 3000 तब तक रहता था.इस विशालता से लेख की विषय वस्तु पूरी तरह से न्याय दिखता था इससे पाठक को पठन की निरंतरता के साथ  संतोष /संतुष्टि मिलती थी. परसाई जी की रचनाओं में ‘कंधे श्रवण कुमार के कंधे’, #विकलांग श्रद्धा का दौर,’ ‘वैष्णव की फिसलन’ ‘अकाल उत्सव:, :इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर:, ‘एक लड़की चार दीवाने’आदि ऐसी रचनाओं की लंबी फेहरिस्त है.जिससे व्यंग्य की अवधारणा,महत्व, बनावट, और कलेवर को पूरी तरह से समझा जा सकता है. इसी क्रम में शरद जोशी ने पुलिया पर बैठा आदमी ,जीप पर सवार इल्लियांँ, मुद्रिका रहस्य, अतृप्त आत्माओं की रेल यात्रा,सारी बहस से गुजर कर ,आदि की फुल लेंथ की रचनाएँं ने व्यंग्य को अपनी पूर्णता के साथ समृद्ध किया है. इसी प्रकार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी ने अपने समकालीनों के साथ कदमताल करते हुए अपने सृजन में व्यंग्य के फार्मेट को पूरा किया है. ‘धूप के धान’, ‘लैला मजनू से लेकर कबीर तक’,’ गरीब होने के फायदे’ आदि रचनाओं ने अपने व्यापक स्वरूप की सार्थकता प्रदान की. रचनाओं के स्वरूप के साथ पाठक को पढ़ने में संतुष्टि तो मिलती ही है और वह वैचारिक रूप से रूबरू भी होता है .

विश्व में वैश्वीकरण के प्रभाव ने साहित्य को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने बाजारवाद को पैर पसारने का पूरा अवसर प्रदान किया. बाजार कब हमारे घर, द्वार, मन, मस्तिक में प्रवेश कर गया कि हमें पता ही नहीं चला. बाजार  धीरे-धीरे साहित्य की जगह पर अपना कब्जा जमाने लगा  अखबार, पत्र पत्रिकाओं में कहानी कविता की जगह सिकुड़ गई कहीं गई .कहीं कहीं तो विलोपित  हो गई. पर व्यंग्य की लोकप्रियता, उसके सामाजिक और मानवीय सरोकार, जनपक्षधरता,ने उसको अखबार पत्र-पत्रिकाओं में बनाए रखा. फिर बाजार के प्रभाव के चलने अधिकांश पत्र पत्रिकाओ ने इन व्यंग्य स्तंभों को अपनी-अपनी शब्द सीमाओं को समेट दिया है.जिससे सिकुड़ कर रह गया. इसकी शक्ल सूरत बीमार आदमी के समान दिखने लगी है .व्यंग्य के स्वस्थ स्वरूप की अवधारणा जो हमारी अवचेतन मन में बनी हुई है वह खंडित होने लगी. उसका जो अलिखित सर्वमान्य फार्मेट है .जो अपने कथा, मित्थ फेंटेसी ,निबंध, संवाद शैली आदि के माध्यम से आता था और अपने विषय वस्तु को खुलेपन और विस्तार के साथ पाठक के समक्ष रखता था वह विलोपित सा हो गया है.अब व्यंग्य अपने आकार और गुण धर्म के साथ बौना सा दिखने लगा है. वे अपने आकार का आभास देते हैं, पर होते नहीं हैं,शिल्प का सौन्दर्य सिमटकर रह गया है. व्यंग्य जिसे हम उसकी प्रहारक, प्रभावित, और पठनीय क्षमता से जानते हैं, उसमें धुधंलापन और क्षीणता आ गई है. अब रचना पढ़ना शुरू करते खतम हो जाती है. एक झटका सा लगता है. कुछ छूटा छूटा महसूस होता है.सीमित शब्दों की अधिकांश दिलोदिमाग को तरंगित करने में असमर्थ सी लगती हैं. ऐसा लगता है कि कुछ पढ़ा ही नहीं.. प्रश्न उठता है लेखक कुछ और कहना चाहता है पर कह नहीं पाया. ऐसी रचनाएँ अमूमन आप रोज देखते होगे. उदाहरण स्वरूप, कुछ नाम जैसे ही,’बैठक चयन समिति की’,’साहब काम से गए हैं.’ ‘ये कुर्सी का कसूर है’, ‘नहीं नहीं कभी नहीं#, ‘गर्त प्रधान सड़क करि कथा’,’नेता और अभिनेता ‘आदि सैकड़ों रचनाएँ में विस्तार होने से विशालता का सागर छलकता,पर वह सिमट कर एक आंचलिक नदी का रुप लेकर रह गया. जो नदी तो कहलाती है. पर नदी की विशालता के सौन्दर्य रुप से वंचित हो गई है. इस कारण पाठक के समक्ष बोनी रचना बन कर रह जाती है.व्यंग्य की साहित्य सर्वमान्य भूमिका है पर ऐसी रचनाएँ अपने दायित्व का निर्वाह करने में शिथिल महसूस हो रही हैं.

 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 73 ☆ रिकॉर्डस की होड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “रिकॉर्डस की होड़”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 73 – रिकॉर्डस की होड़

बड़े जोड़ तोड़ से सिक्का फिट किया कि अब की बार तो विश्व रिकार्ड बनाना ही है। इसके लिए गूगल महाराज के द्वारे जा खड़े हुए। सुनते हैं उनके दरबार से कोई खाली नहीं जाता है। सो कैसे विश्व रिकार्ड बने इसके लिए सर्च करना शुरू कर दिया।

सब कुछ अच्छा चल रहा था पर भाषा की दिक्कत आ गयी। अब अंतरराष्ट्रीय कार्य करेंगे तो भाषा अंग्रेजी होगी। गिटिर पिटर करना तो सरल है पर सही अर्थ समझते हुए फॉर्म भरना कठिन होता है। लोगों की टीम बनाकर इसको भी सहज बना लिया गया। लक्ष्य बड़ा था सो परिश्रम भी उसी अनुपात में किया जाना था। कुछ लोग थोड़ी दूर तक साथ चले फिर अलग हो गए, ऐसा आखिरी क्षणों तक चलता रहा। पर आने जाने से कुछ नहीं होता जब ठाना है तो कार्य करके ही रहेंगे। लोगों की जरूरत तो पड़ती ही सो खोजबीन चालू थी। बड़े- बड़े वादे किए गए। पोस्टरों की चकाचौंध ने सबको भरमाया, गीत, कहानी, गजलों से होते हुए एक से एक प्रस्तुतियाँ होने वाली थीं किन्तु वही कम में ज्यादा के आनंद ने सभी को लोभ पिपासू बना दिया था। मेरा नाम उसके नाम से कम हो रहा है, मेरी फोटो हाइलाइट नहीं हुई, मेरा संचालन श्रेष्ठ है उसके बाद भी मुझे कम महत्व मिला बस इसी जद्दोजहद में मूल उद्देश्य से सभी प्रतिभागी भटकने लगे। कोई किसी लय में, कोई किसी राग में सुर अलापे जा रहा था। बस सबमें एक ही बात एक थी वो अपने नाम की चाह और चाह।

इसी तरह जिसके हाथ माइक लगा उसने अपना बखान चालू कर दिया। कहते हैं कि माइक और बाइक तब तक इस्तेमाल न करें जब तक स्वयं पर पूरा नियंत्रण न हो। बस कार्यक्रम रूपी बाइक चल पड़ी अपने लक्ष्य की ओर, बीच में कहीं रास्ता भूलते तो कोई न कोई बता देता। थोड़ा देर सवेर अवश्य होती रही किन्तु सवार नहीं रुके चलते रहे। वैसे भी जिंदगी चलने का नाम है।

ये चाह भी चाहत से बढ़ते हुए कभी न खत्म वाले इंतजार की तरह बढ़ती ही जा रही है। लालसा का रोग जिसे हुआ समझो उसको भगवान भी नहीं बचा सकते हैं। मेरा तेरा ने सबको जोड़ा जरूर है बस लंबे समय तक वही लोग बंध पाए जो आपस में किसी न किसी कारण से निर्भर थे।

जब तक एक दूसरे के प्रति परस्पर निर्भरता नहीं  होगी तब तक अभिन्नता संभव नहीं। यहाँ मछली  और पानी के साथ को समझिए कि किस तरह पानी से दूर होते ही वो प्राण त्याग देती है। ये  त्याग नहीं मजबूरी है  चूँकि  उसकी साँस  जल में घुली हुई ऑक्सीजन से ही चल सकती है,  इस तरह से प्रकृति ने उसे जल पर निर्भर कर दिया है।

ईश्वर ने सभी के लिए कुछ न कुछ तय करके  रखा है जिसे स्वीकार करना हमारा नैतिक दायित्व है। अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करने पर ही उन्नति संभव है।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #110 ☆ व्यंग्य – गुल्लू भाई का रिटायरमेंट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘गुल्लू भाई का रिटायरमेंट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 110 ☆

☆ व्यंग्य – गुल्लू भाई का रिटायरमेंट

गुल्लू भाई पैंतीस साल की आरामतलबी और कामचोरी के बाद दफ्तर से बाइज्ज़त रिटायर हो गये।विदाई की पार्टी में उनके साथियों ने उन्हें बेहद ईमानदार और कर्तव्यपरायण घोषित किया। पार्टी के बाद वे गुल्लू भाई को घर तक छोड़ कर आखिरी सलाम कर गये और उन्हें आगे के लिए ‘भाभी जी’ के हवाले कर गये।

रिटायरमेंट के पहले गुल्लू भाई अपने साथियों से कहा करते थे, ‘बहुत नौकरी कर ली।अब घर में आराम से रहेंगे और भगवान का भजन करेंगे।’ सो अब वे घर में होलटाइमर बनकर पधार गये। वैसे उन्होंने नौकरी की अवधि में वास्तव में कितनी नौकरी की थी यह वे ही बेहतर जानते थे।

कहते हैं गुल्लू भाई की सफल नौकरी का राज़ उनके एक कोट में छिपा है। गुल्लू भाई अपनी कुर्सी की पीठ पर एक पुराना कोट स्थायी रूप से टाँगे रहते थे। जब भी कोई अफसर उधर आकर पूछता, ‘ये कहाँ हैं?’ तो उनके वफादार साथी जवाब देते, ‘यहीं बगल के कमरे में गये हैं। वह देखिए, कोट टँगा है।’ इस तरह उस चमत्कारी कोट और साथियों की वफादारी के बूते गुल्लू भाई ने हँसते खेलते नौकरी की वैतरणी पार कर ली। रिटायर होते वक्त उन्होंने वह कोट अपने एक साथी को दान कर दिया ताकि वह उसके जीवन को भी सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करे और आपदाओं से बचाए।

रिटायरमेंट के बाद गुल्लू भाई का नित्य का कार्यक्रम बदल गया था। पहले वे सात बजे उठते थे और नहा-धो कर दफ्तर की तैयारी में लग जाते थे। अब वे छः बजे उठकर घूमने निकल जाते थे और सात बजे वापस आकर फिर बिस्तर पर लंबे हो जाते थे। फिर नौ बजे तक उनकी नाक का ऑर्केस्ट्रा बजता रहता था।

उनकी पत्नी सात बजे उठ जाती थी। वे उनका नासिका-राग सुनकर कुढ़ कर कहतीं, ‘यह क्या नौ बजे तक अजगर की तरह पड़े रहते हो। जब सबेरे उठ ही जाते हो तो नहा धो कर भगवान का भजन-पूजन करना चाहिए। रिटायरमेंट क्या दिन भर खटिया तोड़ने के लिए होता है? घर में झाड़ू-पोंछा करना मुश्किल हो जाता है।’

गुल्लू भाई अपराध भाव से कहते, ‘अरे भाई, रिटायरमेंट के बाद टाइम काटने का नया कार्यक्रम बनाना पड़ता है, वर्ना टाइम कैसे कटेगा?’

पत्नी जवाब देती, ‘टाइम काटने का मतलब यह थोड़इ है कि सारे टाइम लंबे पड़े रहो। बैठकर और खड़े होकर भी टाइम काटा जा सकता है।’

रिटायरमेंट के बाद शाम को गुल्लू भाई के घर पर उन्हीं जैसे ठलुआ दोस्तों का जमावड़ा होने लगा। ताश की बाज़ी जमने लगी। पहले यह बाज़ी दफ्तर में जमती थी। बीच में दो तीन बार चाय की फरमाइश होती। एक डेढ़ महीने तक यह स्वागत-सत्कार चला, फिर घर में भृकुटियाँ तनने लगीं। दोस्तों के चले जाने पर गुल्लू भाई को सुनने को मिलता,  ‘रिटायरमेंट के बाद हमारा घर ठलुओं का अड्डा बन गया है। अपना यह रोज का कार्यक्रम बदल बदल कर रखा करो। दूसरों की बीवियों को भी सेवा-सत्कार का मौका दिया करो। अब चाय एक बार ही मिलेगी। और पीना हो तो महफिल खतम होने के बाद दोस्तों के साथ चौराहे पर पी लिया करो।’

रिटायरमेंट के बाद गुल्लू भाई शाम को सब्ज़ी खरीदने टहलते हुए चौराहे चले जाते। उन्हें भ्रम था कि उन्हें सब्ज़ियों के गुण और उनके भाव की अच्छी समझ है। लेकिन लौटने पर उन्हें सुनने को मिलता, ‘यह कड़ी भिंडी और सड़ी तोरई कहाँ से उठा लाये? घर में सब्ज़ीवाली आती है, उससे खरीद लेंगे। आपको तकलीफ करने की ज़रूरत नहीं है।’

चूँकि अब गुल्लू भाई किसी स्थायी मुसीबत की तरह दिन भर घर में ही हाज़िर रहते हैं, इसलिए उन्होंने घर की हर गड़बड़ी को दुरुस्त करने का बीड़ा उठा लिया है। वे प्रेत की तरह दिन भर घर में इधर उधर मंडराते रहते हैं और जहाँ भी लाइट या पंखा फालतू चालू दिख जाता है वहाँ स्विच ऑफ करने के बाद दोषी से जवाब तलब करने बैठ जाते हैं। ऐसे ही दिन भर में घर में घूम कर वे स्विचों के साथ खटर-पटर करते रहते हैं।

गुल्लू भाई अब सूँघते हुए किचिन में भी पहुँच जाते हैं। रोटियों के डिब्बे में झाँक कर झल्लाते हैं, ‘ये इतनी रोटियाँ क्यों बना लेती हो? रोज इतनी बासी रोटियाँ वेस्ट होती हैं। हिसाब से बनाया करो।’

पत्नी भी चिढ़ कर जवाब देती हैं, ‘आप घर के सब सदस्यों की रोटी की माँग इकट्ठी करके मुझे रोज बता दिया करो। उससे ज्यादा रोटियाँ नहीं बनायी जाएँगीं। फिर कम पड़ें तो मेरा दिमाग मत खाना।’

गुल्लू भाई मौन धारण करके खिसक जाते हैं।

अब वे घर में अनुशासन- अधिकारी भी बन गये हैं। लड़के-लड़कियाँ देर से घर लौटें तो वे कमर पर हाथ रखकर, नाराज़, टहलने लगते हैं। लड़कियों पर ख़ास नज़र रहती है। मोबाइल पर बार बार पूछते हैं कि कहाँ हैं और कितनी देर में लौटेंगीं। मोबाइल पर ही चिल्लाना शुरू कर देते हैं।

नतीजा यह कि एक दिन बेटे बेटियों ने बैठकर उन्हें समझा दिया, ‘पापाजी, आप तो जिन्दगी भर दफ्तर में बैठे रहे और दफ्तर के बाहर दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी। आप नयी हवा को समझो। हम अपना भला-बुरा समझते हैं। आपको फालतू परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। और हाँ, हमारे दोस्तों के सामने हम पर चिल्लाया मत करिए। हमारी भी कुछ इज्ज़त है।’ उस दिन से गुल्लू भाई काफी शान्त हो गये।

एक दिन सोचते सोचते गुल्लू भाई पत्नी से बोले, ‘देखो भाई, मेरी तो पूरी जिन्दगी दफ्तर की चारदीवारी में कट गयी। घर और बाहर की दुनिया को कुछ समझा ही नहीं। चलो एकाध महीने के लिए तीर्थयात्रा पर हो आते हैं। फिर लौट कर नये हालात के साथ ‘एडजस्ट’ करेंगे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 7 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य को प्रभावित करने वाले मूल कारक ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – व्यंग्य को प्रभावित करने वाले मूल कारक

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 7 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य को प्रभावित करने वाले मूल कारक ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

अर्थशास्त्र का मूल सिद्धांत है “जब उत्पादन जरुरत से अधिक हो जाता है तब उसके मूल्य गिर जाते हैं”. साथ में यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब सामान की गुणवत्ता गिर जाती है तब भी उसके मूल्य गिर जाते हैं. इसके साथ एक और चीज जोड़ी जा सकती है, जब किसी कीमती चीज का नकली सामान आ जाता है तब भी वह सामान सस्ता मिलने लगता है. और हम असल नकल की पहचान करना भूल जाते हैं. यह सिर्फ अर्थ शास्त्र में ही लागू नहीं होता है वरन जहां जीवन है. जहाँ जीवन से जुड़ी चीजें हैं.जीवन से जुड़ा बाजार है. बाजार से जुड़ा नफा नुकसान का गणित है. वहाँ भी यह सिद्धांत लागू हो जाता है. जब भी नफा नुकसान जुड़ता है. वहांँ मानवीय कमजोरियां घर कर जाती है. नई नई विसंगतियां, विकृतियां पैदा हो जाती हैं. यह सब सिर्फ जीवन और समाज में ही नहीं होता है वरन दूसरे क्षेत्र, यथा समाजशास्त्र, राजनीति, कला  साहित्य में पैदा हो जाती हैं. फिर साहित्य और साहित्यकार कैसे अछूता रह सकता है. साहित्य की बात करेंगे तो काफी विस्तार हो जाएगा.

हम सिर्फ साहित्य की महत्वपूर्ण और वर्तमान समय की लोकप्रिय विधा व्यंग्य के बारे में ही  बात करेंगे. व्यंग्य और व्यंग्यकार के बारे में कबीर से लेकर परसाई तक यह अवधारणा है कि व्यंग्य और व्यंग्यकार बिना लाभ हानि पर विचार कर बेधड़क होकर विसंगति, विकृति, पाखंड, कमजोर पक्ष में अपनी बात रखता है. परसाई जी के समय तक इस अवधारणा का ग्राफ लगभग सौ फीसदी ठीक रहा. पर आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी विकास,बाजारवाद के प्रभाव ने इस अवधारणा को ध्वस्त कर दिया है. बाजार के प्रभाव ने लेखक को कब जकड़ लिया है. उसे पता ही नहीं चला और वह अपना लेखकीय दायित्व भूलने लगा. अब अधिकांश लेखकों का मकसद दिखावा प्रचार, और प्रदर्शन हो गया. अब उसका सृजन बाजार का माल बनके रह गया है. उसे यह महसूस हो गया है कि ‘जो दिखता है वह बिकता है’ और आज जो बिक रहा है वहीं दिख रहा है. अतः व्यंग्य और व्यंग्यकार बाजार के हिस्से हो गए हैं. अखबार, पत्रिका, संपादक जो डिमांड कर रहे हैं. लेखक उसे माल की भाँति सप्लाई कर रहा है. थोड़ा बहुत भी इधर उधर होता है संपादक कतरबौ़ंत करने में हिचक/देर नहीं करता है. पर यह चिंतनीय बात है कि लेखक चुप है. पर सब लेखक चुप नहीं रहते हैं. वे आवाज उठाते हैं. वे रचना भेजना बंद कर देते हैं, या फिर अपनी शर्तों पर रचना भेजते हैं. पर इनकी संख्या बहुत कम है. व्यंग्य की लोकप्रियता कल्पनातीत बढ़ी है इसकी लोकप्रियता से आकर्षित होकर अन्य विधा के लेखक भी व्यंग्य लिखने में हाथ आजमाने लगे हैं. व्यंग्य में छपने का स्पेस अधिक है. अधिकांश लघु पत्रिकाएं गंभीर प्रकृति की होती हैं. वे कहानी कविता निबंध आदि को तो छापती हैं पर व्यंग्य को गंभीरता से नहीं लेती है. और व्यंग्य छापने से परहेज करती हैं.., बड़े घराने की संकीर्ण प्रवृत्ति की पत्रिकाएं व्यंग्य तो छापती हैं. पर जो लेखक बिक रहा है, उसे छापती है. यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि व्यंग्य के मामलों अखबारों में लोकतंत्र है. अधिकांश अखबार लगभग रोजाना व्यंग्य छाप रहे हैं. वहांँ पर सबको समान अवसर है. बस उनकी रीति नीति के अनुकूल हो. और व्यंग्यकार को अनुकूल होने में देर नहीं लगती है  सब कुछ स्वीकार्य है, बस छापो. इस कारण व्यंग्यकारों की बाढ़ आ गई है और बाढ़ में कूड़ा करकट कचरा सब कुछ बहता है. इस दृश्य को सामने रखकर देखते हैं तो परसाई और शरद जोशी के समय के व्यंग्य की प्रकृति और प्रभाव  स्मरण आ जाता है तब हम पाते है कि उससे आज के समय के व्यंग्य में काफी कुछ बदलाव आ गया है. अब तो व्यंग्यकार कमजोर दबे कुचले वर्ग की कमजोरियों पर भी व्यंग्य लिखने लगा है. और कह रहा है. यह है व्यंग्य. व्यंग्य के लेखन का मकसद ही दबे कुचले कमजोर, पीड़ित के पक्ष में और पाखंड प्रपंच, विसंगतियों, विकृतियों के विरोध से ही शुरु होता है. आज के अनेक लेखक व्यंग्य की अवधारणा, मकसद, को ध्वस्त कर अपनी पीठ थपथपा रहे है. अपने और अपने आका को खुश कर रहे है. इस खुश करने की प्रवृत्ति ने व्यंग्य में अराजकता का माहौल बना दिया है. कोई तीन सौ शब्दों का व्यंग्य लिख रहा है, कोई पाँच सौ से लेकर हजार शब्दों के आसपास लिख रहा है. तो कोई फुल लेंथ अर्थात हजार शब्दों से ऊपर. अनेक विसंगतियों को रपट, सपाट, या विवरण लिख रहा है और कह रहा है यह है व्यंग्य. प्रकाशित होने पर उसे सर्वमान्य मान लेता है और अपनी धारणा को पुख्ता समझ उसे स्थापित करने में लग जाता है. अपितु ऐसा होता नहीं है.इस कारण व्यंग्य के बारे हर कोई अपनी स्थापना को सही ठहराने में लगा है. वह जो लिख रहा है या जिसे वह व्यंग्य कह रहा है वही व्यंग्य है और शेष…… उसके बारे में वह न कहना चाहता और नही कुछ सुनना. क्योंकि उसे दूसरे की रचना पढ़ने और न समझने की फुरसत है. आज लेखक अपने को सामाजिक, साहित्यिक जिम्मेदारी से मुक्त समझता है. वह सिर्फ दो लोगों के प्रतिबद्ध है. पहला, सम्पादक की पसंद क्या है ? बस उसे उसी का ध्यान रखना है. उसे व्यंग्य के जरूरी तत्व मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों से परहेज सा लगता है. और दूसरा अपने/स्वयं से. वर्तमान समय में अपने व्यक्त करने के लिए अनेक विकल्प है. वह अपने बीच में किसी प्रकार की बाधा नहीं चाहता है.उसके पास प्रिंट मीडिया के अलावा फेसबुक, वाट्सएप, यूट्यूब, ट्विटर, ब्लॉग आदि अनेक पटल है जहाँ पर वह अपने आप को बिना किसी अवरोध के अपने अनुरुप पाता है. ऐसी स्थिति में जब आपके बीच छन्ना, बीनना गायब हो जाता है. तब कचरा मिला माल सामने दिखता है. व्यंग्य में यह सब कुछ हो रहा है. व्यंग्य भी बाजार में तब्दील होता जा रहा है.

नये लोग व्यंग्य की व्यापकता, प्राथमिकता प्रचार को देख कर इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं. कुछ लोग तो इसे कैरियर की तरह ले रहे हैं. जबकि वे व्यंग्य की प्रकृति, प्रवृत्ति, प्रभाव, से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. पर व्यंग्य लिख रहे हैं. परसाई जी कहते हैं कि उन्होंने कभी भी मनोरंजन के लिए नहीं लिखा है. पर आज के अधिकांश लेखक मनोरंजन के लिए लिख रहे है.

आज का लेखन मानवीय मूल्य सामाजिक सरोकार,से दूर हो गया है. पाखंड, प्रपंच ,भ्रष्टाचार, धार्मिक अंधविश्वास, ठकुरसुहाती,आदि विषय पुराने जमाने के लगते हैं. आधुनिकता के चक्कर में जीवन से जुड़ी विसंगतियां भी उसे रास नहीं आती है.राजनैतिक और सामाजिक मूल्यों में गिरते ग्राफ पर लिखने से उसे खतरा अधिक दिखता है और लाभ न के बराबर. उसे साहित्य भी बाजार के समान दिखने लगा है. अतः वह नफा नुकसान को देखकर सृजन करता है. कुछ इसी प्रकार अनेक कारक है. जो व्यंग्य की मूल प्रवृत्ति में भटकाव लाते हैं और व्यंग्य की संरचना, स्वभाव को प्रभावित कर रहे हैं.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 72 ☆ चक्कर बनाम घनचक्कर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चक्कर बनाम घनचक्कर”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 72 – चक्कर बनाम घनचक्कर

अक्सर ऐसा क्यों होता है कि कम बुद्धि वाले लोगों को ही अपने आसपास रखा जाता है।  बिना दिमाग लगाए जी हुजूरी करते हुए ये चलते जाते हैं। वहीं बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो शांति बनाए रखने के चक्कर में घनचक्कर बनना पसंद करते हैं।  जो हुक्म मेरे आका की तरह जिनी बनकर पूरा जीवन बिताना पसंद है पर सही का साथ देने की हिम्मत जुटाने में वर्षों लग जाते हैं।  जिम्मेदारी से भागने पर कुछ नहीं मिलता केवल दूसरे के सपनों को पूरा करना पड़ता है।

सपने देखने चाहिए पर शेख चिल्ली की तरह नहीं।  जिसने लक्ष्य बनाया उसे पूरा किया व दूसरे लोगों को काम पर लगाकर उन्हें नियंत्रित किया नाम व फोटो शीर्ष पर अपनी रखी।  जाहिर सी बात है जिसके हाथ में डोर होगी वही तो पतंगों को उड़ायेगा।  पतंग उड़ती है ,डोर व हवा उसमें सहयोग देते हैं।  आसमान में उड़ते हुए मन को हर्षित करना ये सब कुछ होता है।  पर कब ढील देना है कब खींचना है ये तो उड़ाने वाले कि इच्छा पर निर्भर होता है।  

इंद्रधनुषी रंगों से सजे हुए आकाश को निहारते हुए सहसा मन कल्पनाओं में गोते लगाने लगा कि काश ऐसा हो जाए कि सारी पतंगे मेरे नियंत्रण में हो इसमें माझा भले ही काँच की परत चढ़ा न होकर प्लास्टिक का हो किन्तु डोरी सफेद और मजबूत कॉटन की ही होनी चाहिए जिसे खींचने पर हाथ कटने का भय न हो।  किसी को वश में करने हेतु क्या- क्या नहीं करना पड़ता है।  पहले तो पेंच लड़ेगा फिर जीत अपनी हो इसके लिए साम दाम दण्ड भेद सभी का प्रयोग करते हुए ठुनकी देना और अंत में काइ पो छे कहते हुए उछल कूद मचाना।

अरे भई इस तरह के दाँव – पेंच तो आजमाने ही पड़ते हैं।  समय के साथ कलाकारी करते हुए आगे बढ़ते जाना ही लक्ष्य साधक का परम लक्ष्य होता है।  एक- एक सीढ़ी चढ़ते हुए स्वयं को हल्का करते जाना, पुराने बोझों को छोड़कर नयी उमंग को साथ लेकर उड़ते हुए पंछी जैसे चहकना और साँझ ढले घर वापस लौटना।  साधना और लगन के दम पर ही ऐसे कार्य होते हैं।  केंद्र पर नजर और भावनाओं पर अंकुश ही आपको दूसरों पर नियंत्रण रखने की  श्रेष्ठता दे सकता है।  निरन्तर अभ्यास से क्या कुछ नहीं हो सकता है।  एक धागा इतनी बड़ी पतंग न केवल उड़ा सकता है बल्कि उससे दूसरों की पतंगे काट भी सकता है।  बस नियंत्रण सटीक होना चाहिए।  ढील पर नजर रखते हुए हवा के रुख को पहचान कर बदलाव करना पड़ता है।  सही भी है जैसी बयार चले वैसे ही बदल जाना गुणी जनों का प्रथम लक्षण होता है।  और तो और कुर्सी का निर्धारण करने में भी हवा हवाई सिद्ध होते देखी जा सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #109 ☆ व्यंग्य – ‘दर्दे-दिल और दर्दे-दाँत – (उर्फ़ मजनूँ के ख़त प्यारी लैला के नाम)’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘दर्दे-दिल और दर्दे-दाँत – (उर्फ़ मजनूँ के ख़त प्यारी लैला के नाम)’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 109 ☆

☆ व्यंग्य – दर्दे-दिल और दर्दे-दाँत – (उर्फ़ मजनूँ के ख़त प्यारी लैला के नाम)

[1]

जान से भी प्यारी लैला,

आपके पाक इश्क में पूरी तरह डूबा ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ। ज़िन्दगी का और कोई मकसद नहीं है। न दिन को चैन है, न रात को नींद। रात और दिन का फर्क भी आपके इश्क में जाता रहा। किसी वीराने में पड़ा इश्क में सुध-बुध खोये रहता हूँ। खाना-पीना हराम हो गया है। लुकमा मुँह में डालता हूँ तो हलक़ से नीचे नहीं उतरता। लिबास की फिक्र नहीं, ग़ुस्ल किये महीनों हुए। बदन सूख कर काँटा हो रहा है, जैसे जिस्म और रूह का फर्क ख़त्म हो जाएगा। बस दर्द की एक लहर है जो सारे वजूद में चौबीस घंटे दौड़ती रहती है। यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ? आपके तसव्वुर में होश-हवास खोये रहता हूँ। आपका दीदार मिले तो दिल को सुकून आये। लोग सरेआम मुझे लैला का दीवाना कहते हैं। ग़नीमत है कि अभी पत्थर नहीं मारते।

तीन बार शहर कोतवाल ने बुला कर बैठा लिया, फिर मेरी हालत पर तरस खाकर छोड़ दिया। पहली बार पूछने लगे, ‘क्या काम करते हो?’ मैंने बताया कि मैं फिलहाल रोज़गारे-इश्क में मसरूफ हूँ तो हँसने लगे। चन्द दीनार देकर बोले, ‘मियाँ, लो, खाना खा लेना। सिर्फ इश्क से पेट नहीं भरेगा।’ ये नासमझ दुनियावाले इश्क की अज़मत को क्या समझें। कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को। इन नादानों को कौन समझाये कि इश्क क्या शय है। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किये जा रहा हूँ मैं। अब तो लैला ही मेरा ईमान, लैला ही मेरा ख़ुदा है। लैला नहीं तो मैं भी नहीं। दुनिया की ऊँची ऊँची दीवारें तोड़कर और अपने आशिक की ज़िन्दगी की ख़ातिर सारा जहाँ छोड़कर तशरीफ़ ले आयें। अब ये दर्द और बर्दाश्त नहीं होता। किसी शायर ने फरमाया है, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना। लेकिन मेरा दर्द तो पता नहीं कब दवा बनेगा। फिलहाल तो दर्द ही दर्द है।

अब कमज़ोरी की वजह से लिखा नहीं जा रहा है। जिस्म में जान नहीं बची। हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

                              आपकी ज़ुल्फों का असीर,
                                         क़ैस

                          
[2]

जान से अजीज़ लैला,

आपको पिछला ख़त रवाना करने के बाद बड़ी मुसीबत में मुब्तिला हो गया। मैं दिन-रात आपके इश्क के दर्द में ही खोया, दीन-दुनिया से बेसुध था कि एक दिन लगा कि कोई और दर्द मेरे जिस्म में सर उठा रहा है। पहले तो मैं उसे भी दर्दे- इश्क समझा, फिर समझ में आया कि यह कोई और, घटिया किस्म का दर्द है। जल्दी ही समझ में आ गया कि यह दर्द मेरे एक दाँत से उठ रहा है। देखते देखते यह हकीर सा दर्द मेरे दर्दे-इश्क पर हावी हो गया।

चन्द लमहों में मैं इस दर्द की गिरफ्त में दीन-दुनिया को भूल गया। इश्क की डोर भी हाथ से छूट गयी। हालत यह हुई कि आपका तसव्वुर करूँ तो आपकी सूरत भी ठीक से याद न आये। हाथ दिल पर रखूँ तो दिल की बजाय दाँत पर पहुँच जाए। मुझे ख़ासी शर्म आयी कि इश्क की अज़ीम बुलन्दियों से गिरकर कहाँ इस नामुराद दाँत के दर्द में फँस गया। लेकिन मेरे होशोहवास गुम थे। बाल नोंचने के सिवा कोई सूरत नज़र नहीं आती थी।

बेबस दौड़ा दौड़ा हकीम साहब के पास गया। वे मेरी हालत देखकर हँसकर बोले, ‘मियाँ, यह दाँत का दर्द है जिसके सामने बड़े बड़े दर्द —दर्दे-दिल, दर्दे-जिगर, दर्दे-गुर्दा—सब पानी भरते हैं। इसमें फायदा यह है कि जब तक यह दर्द रहेगा तब तक आपका दर्दे-इश्क दबा रहेगा। बड़ा दर्द छोटे दर्द को बरतरफ कर देता है। ‘फिर एक तेल दिया, कहा, ‘इसे लगाओ। धीरे धीरे आराम हो जाएगा।’ उसे लगाने से दर्द कुछ कम हुआ है, लेकिन इतना नहीं कि दर्दे-इश्क उसकी जगह ले सके। कुछ वक्त लगेगा।

लेकिन इसमें शक नहीं कि इस दर्दे-दाँत ने मेरे वजूद को हिला डाला। ख़ुदा बचाये इस दर्द से।

लेकिन आप फिक्र मत करना। मेरा दर्दे- इश्क जल्दी ही पूरे जुनून पर होगा।

                                      आपका शैदाई
                                             क़ैस

[3]

मेरी ज़िन्दगी का मक़सद लैला,

मेरा पिछला ख़त मिला होगा। मैं इस वक्त बेहद शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ कि मैं कुछ वक्त के लिए एक निहायत घटिया किस्म के दर्द में फँसकर इश्क की मक़बूलियत को भूल गया था। लेकिन वह दर्द कंबख़्त इतना जानलेवा था कि उसने मेरे होश फ़ाख़्ता कर दिये थे। यूँ समझिए कि उसने मुझे अर्श से उठाकर दुनिया के सख़्त और बेरहम फर्श पर ला पटका। ख़ैर जो भी हो, वह ज़ालिम दर्द अब करीब करीब दम तोड़ चुका है और मेरा पुराना दर्दे-इश्क फिर धीरे धीरे सर उठा रहा है। मुझे पूरा यकीन है कि दो चार दिन में मेरा दर्दे-इश्क पूरे जुनून में आकर पहले की तरह छलाँगें भरने लगेगा और मैं फिर अपने पुराने दर्द की आग़ोश में गुम हो जाऊँगा। फिर मैं हूँगा और आप।  बीच में न दुनिया होगी, न दर्दे-दाँत।

लेकिन फिर भी मेरे ज़ेहन में यह ख़ौफ़ हमेशा तारी रहेगा कि यह मरदूद दर्दे-दाँत कहीं फिर ज़िन्दा होकर मेरे इश्क की पुरसुकून इमारत को नेस्तनाबूद न कर दे।

                              आपके इश्क में गिरफ्तार
                                          क़ैस

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य ,साहित्य की वह महत्वपूर्ण विधा है.जो मानवीय और सामाजिक सरोकारों से सबसे अधिक नजदीक महसूस की जाती है. व्यंग्य ही समाज में व्याप्त विसंगतियांँ, विडंबनाएँ पाखंड, प्रपंच, अवसरवादिता, ठकुरसुहाती अंधविश्वास आदि विकृतियों, कमियों को उजागर करने में सक्षम विधा है। वैसे साहित्य में कहानी, उपन्यास और कविता आदि अन्य विधा भी उक्त विकृतियों को अनावृत करती है, किंतु उसका प्रभाव समुचित ढंग से समाज में नहीं दिखता, जितना कि व्यंग्य विधा के माध्यम से. इसके पीछे व्यंग्य का फॉर्मेट, भाषा,शिल्प और विषय है. जो उसको मुकम्मल रूप से  जिम्मेदार ठहराता हैं. व्यंग्य की प्रकृति अपनी बुनाव, बनाव से सीधे-सीधे जनमानस पर प्रभाव डालता हैं. समाज और राजनीति में व्याप्त विसंगतियाँ  समाज में घुन की तरह काम करती हैं. यदि  समय रहते इसे उजागर ना किया जाए तो वह समाज में नासूर बन जाती हैं. कभी-कभी यह भी देखा गया है. कि अनेक व्यक्तियों में पाई जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी समाज की नैतिकता चाल-ढाल रहन सहन जीवन शैली आदि को प्रभावित करती है. यह प्रवृत्तियाँ  सामाजिक, मानवीय पतन की ओर सीधे-सीधे संकेत करती हैं. यहाँ एक बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत कमजोरियाँ भी हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं. इन प्रवृत्तियों का मानवीय और सामाजिक जीवन में परोक्ष रूप से तो नहीं पर अपरोक्ष रुप से प्रभाव गहन होता है. इसे कमतर नहीं आँका जा सकता है. पूर्व के व्यंग्यकारों ने तो प्रवृत्तियों पर धड़ल्ले से लिखा है. उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए समकालीन व्यंग्यकार भी प्रवृत्तियों पर प्रमुखता से लिख रहे हैं. यह प्रवृत्ति मूलक लेखन ने व्यंग्य को नई दिशा देने का काम किया है. प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य ने पाठक को चकित तो किया है और चमत्कृत भी. इस प्रकार की लेखन ने बरसात के प्रारंभिक दिनों की झड़ी से भींगी मिट्टी की सौगंध का अनुभव दिया है. यह प्रवृत्ति निंदा की हो सकती है. ठकुर सुहाती की हो सकती है. अन्याय, प्रपंच के पक्ष में चुप रहने की भी हो सकती है. इस प्रकार की प्रवृत्ति अन्याय प्रपंच निंदा आदि करने वालों से अधिक खतरनाक होती है. इनके पक्ष में चुप रहना .इन को प्रोत्साहित करने के समान होता है. इससे उन शक्तियों को बल मिलता है और वे बल पाकर अधिक दमदार होकर समाज को ऋणात्मक रुप से  प्रभावित करती है. अगर प्रारंभ में ही इन विकृति जन्य  प्रवृत्तियों को कुचल दिया जाए तो समाज और मनुष्य को बचाने में अधिक कारगर हुआ जा सकता हैं. इस कारण  प्रवृति पर बहुतायत से व्यंग्य लिखा जा रहा है पाठक इसे पसंद भी कर रहे हैं. इसका लाभ यह दिख रहा है कि पाठक विकृतियों से अपने को बचाकर भी रखना चाह रहे है.

प्रवृत्ति में व्यंग्य लेखन कब से प्रारंभ हुआ. यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है. पर हरिशंकर परसाई ने प्रचुर मात्रा में लिखा और इस प्रकार के व्यंग्य को सामाजिक संदर्भ में जोड़कर देखने का नया आयाम दिया. इसमें पाठक की भी रूचि बढ़ी. पत्र-पत्रिकाओं ने इसे हाथों हाथ लिया है .पाठक और पत्र-पत्रिकाओं में इस नई दृष्टि को आधारशिला के समान गंभीरता से लिया. जो प्रवृत्ति पर लेखन के लिए सहायक सिद्ध हुई. इस कारण अधिकांश व्यंग्य लेखकों ने अन्य विषयों की अपेक्षा इसे सहज सरल और प्रभावशाली माना. इसे प्रवृत्ति मूलक लेखन का प्रभाव ही कहा जा सकता है. हरिशंकर परसाई जी की चर्चित रचना “पवित्रता का दौरा “से अच्छे से समझ सकते हैं. वे लिखते हैं..

‘इधर ही मोहल्ले में सिनेमा बनने वाला था तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया. शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ  शरीफ स्त्रियां रहती हैं. और यहाँ सिनेमा बन रहा है. गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरतें सिनेमा देखने गुंडों के बीच में जाएँ. मुहल्ले में एक आदमी कहता है. उससे मिलने की एक स्त्री आती है. एक सज्जन कहने लगे – ‘यह शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ  यह सब नहीं होना चाहिए. देखिए फलां के पास एक स्त्री आती है.’ मैंने कहा – ‘साहब शरीफों का मुहल्ला है. तभी तो वह स्त्री पुरुष मित्र से मिलने की बेखटके आती है. वह क्या गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती है.’

इस शरीफ दिखने दिखाने का ढोंग करने वाले व्यक्ति सब जगह मिल जाएंगे. जो सदा दूसरों से बेहतर दिखने का नाटक करते हैं. यहाँ पर प्रवृत्ति अनावश्यक रूप से द्वेष पैदा करती है. इस प्रवृत्ति वाले हर जगह अड़ंगा दिखाते मिल जाएंगे. शरद जोशी की एक अद्भुत रचना है ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’, शासकीय कार्यालयों में खुशामदी प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग्य है. वैयक्तिक प्रवृत्ति पर प्रभावशाली व्यंग्य है. यह सीधे-सीधे मानवीय प्रवृति पर चोट करता है इस प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य से समाज प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होता है, पर खुशामदी प्रवृत्ति शासकीय व्यक्ति या अफसरों के निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करने में सक्षम होती है. जिसका प्रभाव बाद में समाज में परिलक्षित होता देख सकते है. आरंभ में प्रवृत्तियां प्रत्यक्ष रूप में समाज को प्रभावित करने वाली नहीं दिखती है. पर शनैः शनैः इसका प्रभाव ऋणात्मक रूप से सामने आ जाता है. शरद जोशी की इस रचना ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं.’ में वे लिखते हैं

वे सचिवालय के तबादलों की ताजी खबरें सुनाते दुकान में घुस गए

सोमवार को फाइल बगल में दाबे  छोटा अफसर बड़े अफसर के कक्ष में घुसा और ‘गुड मॉर्निंग’ करने के बाद बोला- कल की पिक्चर कैसी रही! सर.

बड़ा अफसर एक मिनट गंभीर रहा. सोचता रहा क्या कहें फिर उसने कंधे उचकाए और बोल’ इट वाज ए नाइस मूवी’! ऑफ कोर्स !

दोपहर को छोटे अफसर ने अगासे को बताया कि बड़े साहब को पिक्चर पसंद आई. वह कह रहे थे कि’ इट वाज ए नाइस मूवी’

दोपहर बाद एकाएक सभी लोग ‘हु इज अफ्रेड आफ वर्जिनिया वूल्फ’ की तारीफ करने लगे .

क्यों भाई! कल की पिक्चर कैसी लगी. ‘इट वाज ए नाइस मूवी’ जवाब मिला

यह अफसरों में खुशामदी का बढ़िया उदाहरण है. यह ठकुरसुहाती की प्रवृत्ति अफसरों के निर्णय को प्रभावित करती है. जिससे अपरोक्ष रूप से समाज प्रभावित होता है. आज यह प्रवृत्ति  राजनीति क्षेत्र में बहुत आसानी से देखी जाती है. राजीव गांधी के समय में यह कहा जाता था कि वे काकस से घिरे रहते थे.

प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य वैयक्तिक होते हैं पर उनका शिल्प और भाषा की संरचना ऐसा होती है कि वे सर्व सामान्य से दिखने लगती हैं. आजकल प्रवृति मूलक व्यंग्य रचनाओं में एक विसंगति उभर कर आ गई है. रचना वैयक्तिक व्यंग्य की होती  है. आजकल प्रवृत्ति लिखे जा रहे व्यंग्य में व्यक्तिगत विसंगतियां अधिक है.जिन्हें लेखक प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य कह रहा है. जबकि वह किसी व्यक्ति को केंद्र में लिखी गई हैं. कभी-कभी अनायास यह संयोग जुड़ जाता है कि व्यक्तिगत प्रवृत्तियां भी अनेक लोगों में संयोगवश  मिल जाती है.जिन्हें भी प्रवृति वाला व्यंग्य कह जाते हैं. जबकि वे व्यंग्य व्यक्तिगत खुन्नस वाले होते है. जो पढ़ने में रोचक लग सकते हैं. पर पाठक पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है जबकि प्रवृत्तिजनक व्यंग्य में सावधानी रखना जरूरी होता है. इस तरह का व्यंग्य का विषय/प्रवृत्ति  सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में दिखने वाला होना चाहिए. अनेक व्यक्तियों की कुछ आदतें ऐसी होती हैं जो अन्यत्र नहीं दिखती हैं. तब इस पर लिखा व्यंग्य वैयक्तिक हो जाएगा. पर परसाई जी की अनेक रचनाएं व्यक्तिगत परिपेक्ष में लिखी रचनाएं हैं. पर उनका प्रस्तुतिकरण आम प्रवृत्ति का रूप ले लिया है. उनकी एक रचना ‘वैष्णव की फिसलन’  वैयक्तिक प्रवृत्ति की रचना है.एक व्यक्ति की प्रवृत्ति पर लिखी गई है आज जब उसे हम पढ़ते हैं तो लगता है कि यह अनेक लोगों में अलग-अलग ढंग से देखी जा सकती है. यहाँ पर वैयक्तिक प्रवृत्ति समान्य  व्यक्ति में परिणित हो गई है. यह व्यंग्यकार और व्यंग्य का कौशल है जो उसे सर्वजन हिताय बना दे. प्रवृत्ति पर लिखा लेखन मूल रूप से समाज और मानवीय जीवन में पनप रही प्रवृत्ति/विकृति को उजागर कर मनुष्य और मनुष्यता को बेहतर करने का पहला कदम है.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 118 ☆ ए टी एम से पाँच रुपैया बारह आना का विथड्रावल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ए टी एम से पाँच रुपैया बारह आना का विथड्रावल । इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 118 ☆

? व्यंग्य – ए टी एम से पाँच रुपैया बारह आना का विथड्रावल ?

आपको पता है गर्मियो में घूमने लायक जगह कौन सी होती हैं ? जिनके पास अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड और एयरपोर्ट लाउंज में एंट्री के लिये वीसा पास हो, उन पासपोर्ट व दस वर्षो के यू एस वीजा या शेनजेंग वीजा धारको के लिये  स्विटजरलैंड वगैरह उत्तम होते हैं.  जिन सरकारी अफसरान को लंबी छुट्टी जाने पर मीटर बंद होने और लाइन अटैच किये जाने का भय हो उनके लिये कैजुएल लीव में मसूरी देहरादून या लेह लद्दाख से काम चल सकता है.  हवाई सफर से जुड़े पर्यटन स्थलो के चुनाव करने से लाभ यह मिलता है कि वीक एंड के साथ दो तीन दिन की छुट्टी से ही काम चलाया जा सकता है. 

पर जो भारत के आम नागरिक हैं, अंत्योदय की सरकारी योजना के लाभार्थी हैं,  उनके लिये गर्मियो में घूमने जाने का सबसे अच्छे स्थान होते हैं शहर के शापिंग माल जहाँ बिना खरीददारी किये यहाँ वहाँ मटरगश्ती की जा सकती है,  प्राईवेट बैंक के बड़े बड़े हाल जहाँ भले ही खुद का खाता न हो,  खाता हो तो  भले ही उसमें रुपये न हों आप लोन लेने से लेकर बीमा करवाने या और कुछ नही तो कोई फार्म लेने के बहाने वहां थोड़ा समय तो गर्मी का अहसास ठंडक के साथ कर ही सकते हैं. 

जब ये दोनो भ्रमण स्थल भी अपर्याप्त लगें तो छै बाई छै का बिल्कुल निजी पर्यटन केंद्र होता है आपके पास का किसी भी बैंक का  ए टी एम. यदि अकारण वहां बार बार जाने से गार्ड आपको घूरने लगे तो एक से दूसरे दूसरे से तीसरे एटीएम इसीलिये बने हुये हैं. हाथ में एक झूठा सच्चा जीरो बैलेंस वाले एकाउंट का कार्ड  भी भारत की आम जनता को गर्मियो में राहत का सबब बन सकता है. मुझे तो लगता है हमारे सुदूर दर्शी प्रधान सेवक जी ने इसी लिये जन जन के खाते गर्मियो से बहुत पहले ही खुलवा दिये थे.

आजू बाजू इतने सारे एटीएम लाइन से देखता हूं तो मैं प्रायः सोचता हूं कि जब किसी भी एटीएम पर किसी भी बैंक का कार्ड चल सकता है तो हर बैंक अपने अलग एटीएम क्यो लगाते हैं ? मेरी यह धारणा पक्की हो जाती है कि जरूर ये गरीबो को गर्मियो की छुट्टियां बिताने के लिये ही बनाये जाते हैं. वैसे एटीएम की उपस्थिति से बाजार,  हवाई अड्डे,  रेल्वे स्टेशन का लुक चकाचक हो जाता है,  कस्बा स्मार्ट सा लगने लगता है. यह बाई प्राडक्ट के रूप में देखा जा सकता है. एटीएम टाईप के मशीनी  बूथ से दूध,  कोल्डड्रिंक,  टिकिट,  जाने क्या क्या निकल रहा है इन दिनो जगह जगह. दरअसल एटीएम टाईप की मशीनें हमें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाती हैं वे स्वालंब की झलक दिखलाती हैं. और कवि ने कहा है “स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष”  

यूं आन लाइन शापिंग के युवा समय में वैसे भी एटीएम शो पीस बनते जा रहे हैं. एटीएम आजकल कैश न होने का रोना रोने के महत्वपूर्ण काम भी आ रहे हैं. राजनीति करने ,  टीवी चैनलो पर हाट डिस्कशन के लिये,  कार्टून बनाने और व्यंग्य लिखने जैसे क्रियेटिव काम भी एटीएम के जरिये संपन्न हो पा रहे हैं.  

मैं तो रुपयो के इंफ्लेशन से बड़ा खुश हूं,  जो लोग पैट्रोल की कीमतें जता जता कर सरकार को कोसते हैं मेरा उनसे और तमाम अर्थशास्त्रियो से एक सवाल है,  यदि रुपया १९५८ के मजबूत स्तर पर आज तक बना होता तो बेचारा ए टी एम पाँच रुपैया बारह आने का विथड्रावल कैसे  देता ? वो तो भला हो पांच साला चुनावो का हर बार मंहगाई बढ़ती गई और आज शान से एटीएम २००० के गुलाबी नोट उगल सकता है,  क्या हुआ जो आजकल थोड़ी बहुत किल्लत है चुनावो में यदि एक वोट की कीमत एक दो हजार का नोट अनुमानित है तो यह हमारे लोकतंत्र की बुरी कीमत तो नही है,  गरीब वोटर की इस छोटी सी  मदद के लिये मुझे तो थोड़े दिनो बिना ड्रावल किये इस एटीएम से उस एटीएम भागना मंजूर है, एटीएम एटीएम की  ठंडक के अहसास के साथ. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 71 ☆ उलझनों के बीच सुलझन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उलझनों के बीच सुलझन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 71 – उलझनों के बीच सुलझन

स्कूल खुलते ही सभी आक्रोशित दिख रहे हैं; एक तरफ बच्चे जो इतने दिनों से अपने अनुसार जीवन जी रहे थे उन्हें गुस्सा आ रहा है तो दूसरी तरफ शिक्षक भी धैर्य खो चुके हैं। जल्दी से अपनी पकड़ मजबूत करने हेतु उल्टे – सीधे निर्णय लेकर बच्चों व अभिवावकों पर नियंत्रण रखने की कोशिश कर रहे हैं। अक्सर ऐसा होता है बिना समय की नब्ज को पहचाने हम अधीरता के वशीभूत निर्णय कर लेते हैं, जो अप्रिय लगते हैं।

दो बच्चों के बीच हाथापाई हुई और कटघरे में आसपास बैठे सारे लोग आ गए।आनन- फानन में प्राचार्या ने बच्चों के स्कूल आने पर प्रतिबंध लगा दिया अब तो सारे अविभावक भी जोश में आकर अपने अधिकारों की माँग पर अड़ गए। एक साथ कई बैठकें रखी गयीं। औपचारिक बातचीत होने के अलावा कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकल रहा था। सभी मानसिक उलझनों के बीच कुछ अच्छा ढूंढने की कोशिश में और उलझते जा रहे थे। अंत में ये तय हुआ कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है, लोग अपनी- अपनी जगह सही हैं; बस इतने दिनों बाद मिल रहे हैं इसलिए एक दूसरे को समझने में थोड़ा वक्त लगेगा।

जाने- अनजाने लोगों द्वारा जब ऐसा होता है तो स्थिति भयावय हो जाती है। कार्यक्षेत्रों में ऐसा होना कोई नई बात नहीं है। भय बिनु होय न प्रीत को चरितार्थ करते हुए भय का सहारा लेकर समय- समय पर लोग अपने उल्लू सीधे करते हुए नज़र आते हैं। इससे टेढ़े- मेढ़े विचारों का जन्म होता और कलह का वातावरण निर्मित हो जाता है। ऐसी तमाम उलझनों से सुलझते हुए जीना कोई आसान कार्य नहीं होता है। बड़े- बड़े गुनी लोग भी आसानी से इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं।

आजकल छोटी सी बात को बड़ा तूल देते हुए हफ्ते भर मीडिया वाले जिसका राग अलापते हैं अंत में उसे ही सिरे से खारिज करते हुए कह देते हैं ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था ये तो महज सोची समझी चाल थी जो सत्ता दल अपने पक्ष में करने हेतु कर रहा है। वहीं सुस्त विपक्ष भी अचानक से होश में आता है और आनन- फानन में अपने प्रवक्ता द्वारा कहलवाने लगता है हम लोगों का इसमें कोई हाथ नहीं ये तो गोदी मीडिया है। अपने पक्ष में आरोपी ही प्रायोजित साक्षात्कार करवाते हैं और माइंड चेंजिंग गेम की तरह सब कुछ मूक दर्शकों के ऊपर छोड़कर मामले को रफा – दफा कर देते हैं।

कोई भी मुद्दा हो खत्म राजनीति पर ही होता है। जब कोई रास्ता नहीं दिखता तो समस्या का राजनीतिकरण करके मामले को सलटा दिया जाता है। आश्चर्य तो तब होता है कि देश की हर घटना कैसे इससे जुड़ी होती है। क्या जन सेवक ही सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अरे भई जनतंत्र है जनता को ही जिम्मेदारी लेना सीखना होगा तभी उलझनों के बीच सुलझन निकल सकेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 105 ☆ मरघट यात्रा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य ‘मरघट यात्रा).   

☆ व्यंग्य # 105 ☆ मरघट यात्रा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मैं मर चुका था, काफी देर हो चुकी थी। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और सबको देखता रह गया …. तब भी लोगों ने सोचा कहीं डाक्टर तो नहीं मर गया। 

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं,इतने देर से मैं मरा पड़ा हूं और लोग-बाग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता, गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, बहाने बनाता रहा, शरीर फैलता रहा, वजन कम नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको उधार दिया था उनमें से तीन किसी प्रकार कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। बाकी तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी। किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी भाग खड़े हुए।

तब मैंने भी सोचा कि चार दोस्तों के कंधों पर जब पांचवा सवार होता है तो वे उसे मरघट पहुंचा के ही दम लेते हैं, इसलिए उठकर बैठ जाना ही अच्छा है, और मैं उठकर बैठ गया तो सब भूत भूत चिल्लाते हुए भाग गए…….

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर कोई मानने तैयार नहीं है क्योंकि इन दिनों लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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