हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 88 ☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 88 ☆

☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा

यह दिन की तरह साफ है कि भारत में पतियों की ग्रहदशा गड़बड़ चल रही है। टीवी पर हर दूसरे दिन किसी न किसी पति की फजीहत पत्नी के हाथों हो रही है—वही पत्नी जिसके लिए पति ‘प्रान पियारे’ और ‘प्रान अधार’ हुआ करता था। अब प्रान अधार प्रान बचाते फिर रहे हैं और प्रानपियारी उन्हें पछया रही है। और इन टीवी वालों को भी कोई काम नहीं, कैमरा लटकाये पत्नियों की बगल में दौड़ रहे हैं। घोर कलियुग! महापातक! निश्चय ही ऐसी पत्नियों के साथ ये टीवी वाले भी नर्क के भागी बनेंगे। सबसे खराब बात यह है कि पतियों की पिटाई टीवी पर बार बार दिखायी जाती है, जैसे कि टीवी की सुई वहीं अटक गयी हो। सबेरे सबेरे टीवी खोलते ही कोई न कोई पति पिटता मिल जाता है। निश्चय ही यह स्थिति भारतीय पतियों के मनोबल के लिए घातक है।

एक पति की उनकी पत्नी ने कैमरे के सामने जी भर कर पिटाई की। एक और पति चौराहे पर पत्नी और उसके रिश्तेदारों द्वारा लात जूतों से सम्मानित हुए। एक पत्नी उस वक्त शादी के स्टेज पर पहुँच गयीं जब पतिदेव सज-सँवर कर दूसरी पत्नी के साथ वरमाला की तैयारी में थे। इस घटना में पति के साथ भावी सौत का भी पर्याप्त सम्मान हुआ। एक मोहतरमा अपने पति द्वारा छद्म नाम से की गयी शादी के बाद आयोजित दावत में पहुँच गयीं। वहाँ पतिदेव पर तो कुर्सियाँ फेंकी ही गयीं, वहाँ पधारे मेहमानों की भी अच्छी आवभगत हुई। इसी सिलसिले में एक ऐसे पतिदेव की भी हड्डियाँ टूटीं जो चार बच्चों के बाप होने के बावजूद चुपचाप दूसरी शादी रचा रहे थे।

दरअसल जब से टीवी आया है तब से भारतीय संस्कृति की चूलें हिलने लगी हैं। पहले पति सौत वौत ले आता था तो पत्नी बिलखती हुई गंगा जी का रुख़ करती थी, अब वह सबसे पहले टीवी वालों को ढूँढ़ती है। बेचारा पति बीवी से तो निपट लेता था, लेकिन इन टीवी वालों से कैसे निपटे? ये तो साधु-सन्तों को भी काले धन को सफेद करते दिखा रहे हैं। कोई वर दहेज माँगने पर जेल के सींखचों के पीछे पहुँच जाए तो वहाँ भी टीवी वाले फोटू उतारने पहुँच जाते हैं ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आवे, जबकि सर्वविदित है कि दहेज हमारी सदियों की पाली- पोसी परंपरा है। टीवी ऐसे ही चीरहरण करता रहा तो हमारी संस्कृति की महानता खतरे में पड़ सकती है।

हमारे देश में हमेशा से पति का दर्जा परमेश्वर का रहा है। पत्नियाँ तीजा और करवाचौथ के व्रत रखती रहीं ताकि पतिदेव स्वस्थ प्रसन्न रहें और पत्नी का सुहाग अजर अमर रहे। मैंने एक पत्रिका में पढ़ा था कि एक समय पत्नियाँ पति के पैर के अँगूठे को धोकर जो जल प्राप्त होता था उसी को पीती थीं,और यदि पतिदेव कुछ समय के लिए घर से बाहर जाते थे तो अँगूठा धो धो कर घड़े भर लेती थीं ताकि पतिदेव की अनुपस्थिति में अन्य जल न पीना पड़े। लेख में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अँगूठा धुलवाने से पहले पतिदेव पाँव धोते थे या नहीं। फिल्मों में पत्नियाँ गाती थीं—‘कौन जाए मथुरा, कौन जाए काशी, इन तीर्थों से मुझे क्या काम है; मेरे घर में ही हैं भगवान मेरे, उनके चरणों में मेरे चारों धाम हैं।’

लेकिन अब पत्नियों ने पता नहीं कौन सा चश्मा पहन लिया है कि उन्हें पति में परमेश्वर के बजाय मामूली आदमी नज़र आने लगा है। अर्श से फर्श पर उतरने के बाद बेचारा पति परेशान है क्योंकि वह इस नयी हैसियत से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है।

मेरी मति में पतियों की इस दुर्दशा का कारण स्त्री-शिक्षा का बढ़ना और स्त्री का स्वावलम्बी होना है। पहले स्त्री अल्पशिक्षित होती थी और इस कारण पूरी तरह से पति पर निर्भर होती थी। वह उतनी ही किताबें पढ़ती थी जो पति को परमेश्वर सिद्ध करती थीं और जो उसे सिर्फ चिट्ठी- पत्री के काबिल बनाती थीं। अब स्त्रियाँ दुनिया भर की ऊटपटाँग किताबें पढ़ने लगी हैं और बड़ी बड़ी कुर्सियों पर बैठने लगी हैं। उन्हें पता चल गया है कि संविधान और कानून ने उन्हें बहुत से अधिकार दिये हैं। इस मामले में स्त्रियों को बरगलाने में टीवी ने खूब विध्वंसकारी भूमिका निभायी है। अब कम पढ़ी-लिखी पत्नी भी जानती है कि पतिदेव की टाँग कैसे पकड़ी जा सकती है। नतीजा यह कि पति की हैसियत दो कौड़ी की हो गयी है।

फिर भी पत्नियों को पति के बहकने पर गुस्सा करने से पहले हमारे इतिहास पर विचार करना चाहिए। पुरुषों में दांपत्य के राजमार्ग से बहकने भटकने की प्रवृत्ति हमेशा रही है और स्त्री सदियों से इसे अपनी नियति मानकर सन्तोष करती रही है। एकनिष्ठ होने की अपेक्षा पत्नियों से ही रही है, पतियों से नहीं। धर्मग्रंथों में पतिव्रताओं की महिमा खूब गायी गयी, लेकिन जो पति एकनिष्ठ रहे उनका नाम कोई नहीं लेता। राजाओं नवाबों के रनिवास और हरम पत्नियों से इतने भरे रहे कि पतिदेव अपनी पत्नियों और सन्तानों को पहचान नहीं पाते थे, लेकिन पत्नी बहकी तो गयी काम से। ‘साहब बीवी गुलाम’ के बाबू लोग रोज़ गजरा लपेटकर कोठों की सैर करते थे, लेकिन छोटी बहू ने भूतनाथ से कुछ मन की बात कर ली तो तत्काल उसकी ज़िन्दगी का फैसला हो गया।

इसलिए भारत सरकार से मेरी दरख्वास्त है कि पतियों की पिटाई टीवी पर दिखाने पर तत्काल रोक लगायी जाए और इस संबंध में ज़रूरी कानून बनाया जाए ताकि पतियों की हैसियत और उनके मनोबल मेंं और गिरावट न हो। इसके साथ ही पतियों के खराब ग्रहों की शान्ति के लिए कुछ अनुष्ठान वगैरः भी कराया जाए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 56 ☆ कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 56 – कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…

साधना किसी की भी हो परन्तु आराधना तो मेरी ही होनी चाहिए। इसी को आदर्श वाक्य बनाकर लेखचन्द्र जी सदैव की तरह अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। जो कुछ करेगा, उसे बहुत कुछ मिलेगा, ये राग अलापते हुए वे निरंतर एक से बड़े एक फैसले धड़ाधड़ लेते जा रहे हैं। और उनके अनुयायी, रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय के रास्ते पर चलते हुए हर आदेशों को प्रेम भाव से स्वीकारते जा रहें हैं। भई विश्वास हो तो ऐसा कि आँख, कान, मुँह बंद कर भी किया जा सके। हो भी क्यों न उनके आज तक के सभी निर्णय सफल हुए हैं,ये बात अलग है कि इस सफलता के पीछे मूलभूत आधार स्तम्भों की भक्ति सह शक्ति कार्य कर रही है।

यहाँ फिर से कार्य आ धमका, आराम हराम होता है, अतः कुछ तो करना ही है सो क्यों न सार्थक किया जाए, जिससे सभी के मुँह में घी -शक्कर  हो। इतिहास गवाह है, जब- जब सबके हित में कार्य किया गया है तो अवश्य ही उम्मीद से ज्यादा लाभ कार्य शुरू करने वाले को हुआ है।

पल में तोला, पल में माशा, अपनी खुशी का रिमोट किसी के भी हाथों में देकर हम लोग नेतृत्व करने का विचार रखते हैं। अरे भई जब हमारा स्वयं पर ही नियंत्रण नहीं है तो दूसरों पर कैसे होगा। हमारा व्यवहार तो इस बात पर निर्भर करता है कि सामने वाले ने हमारे साथ कैसा आचरण किया है। इसी कड़ी में एक चर्चा और निकल पड़ी कि ऐसे लोग जो हर दल में शामिल होकर केवल मलाई खाकर ही अपना गुजर बसर चैन पूर्वक करते चले आ रहें हैं, जब वे कुछ करते हैं तो कैसे -कैसे बखेड़े खड़े हो जाते हैं। एक आयोजन में सभी दल के लोग आमंत्रित थे। एक ही आमंत्रण पत्र सारे दलों के व्हाट्सएप  पर सबके पास पहुँच गया। पार्टी में भाँति- भाँति के लोगों से खूब रौनक जमीं। सारे लोग दलगत राजनीति भूलकर एक दूसरे से गले मिलते हुए एक ही मेज पर बैठकर रसगुल्ले,चमचम उड़ा रहे थे।

इस मेल मिलाप से प्रेरित हो सारे मीडिया कर्मी भी एकजुट होकर, एक जैसी रिपोर्ट बनाकर ही प्रसारित करेंगे ये फैसला मन ही मन ले बैठे। अब तो वे एक साथ सारी बातों को समेटने लगे। अगले दिन जब खबर छपी तो इधर के नाम उधर, उधर के नाम इधर छप चुके थे। अब तो  हड़कंप मच गया। सारे दलों के मुखिया भयभीत हो अकस्मात अपने – अपने पार्टी कार्यालयों में मीटिंग करते दिखे, उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं होने वाला है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कभी गलत हो ही नहीं सकता,आखिर आँखों देखी ही तो कहते हैं, लिखते व दिखाते हैं। मन ही मन बैचैन होकर वे लोग अंततः किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कहीं से कोई ऑडियो वायरल होने की खबर, तो कहीं से लार टपकाते लोग दिखाई देने लगे। ये कहीं शब्द तो एकजुटता पर भारी होता हुआ प्रतीत होने लगा, तभी मुस्कुराते हुए अनुभवीलाल जी कहने लगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, जितना तोड़ा उतना जोड़ा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 87 ☆ व्यंग्य – गाँव चलने का! ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘गाँव चलने का!‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 87 ☆

☆ व्यंग्य – गाँव चलने का!

‘ग्रैब एंड ग्रैब इंटरनेशनल’ के मैनेजिंग डायरेक्टर मिस्टर विलियम कनिंग इंडिया में अपने ऑफिस में बैठे बाल नोंच रहे हैं। उनके आसपास चेहरे पर भारी ‘कंसर्न’ ओढ़े उनका स्टाफ बैठा है।

मिस्टर कनिंग दुखी स्वर में कहते हैं, ‘आप लोक कुच्च नईं करेंगा। ऐसई हाट पे हाट रखके बैठा रहेगा। टाइम इज़ रनिंग आउट। इंडिया का सेवेन्टी परसेंट लोक गाँव में रैटा। ए डेको,ए पेपर में लिका है कि गाँव में बिलियंस आफ रुपीज़ का मार्केट हय। फ्रिज का मार्केट हय, टीवी का मार्केट हय,बाइक का मार्केट हय, शैम्पू का मार्केट हय, वाशिंग मैशिन का मार्केट हय। लेकिन आप लोक कुच्च नईं करेंगा। डूसरा कंपनी गाँव का पूरा मार्केट कैप्चर कर लेगा एंड वी विल बी लेफ्ट विथ दिस।’

वे अपने दोनों अंगूठे हिलाते हैं।

इंडिया में उनके मार्केटिंग चीफ मिस्टर डी. डैस कहते हैं, ‘बट सर, इंडियन विलेजेज़ में ‘पेनिट्रेट’ करना ईज़ी नहीं है। इनफ्रास्ट्रक्चर इज़ वेरी पुअर एंड पीपुल डोंट हैव दैट काइंड ऑफ इनकम।’

मिस्टर डी. डैस का असली नाम धरमदास है। मिस्टर कनिंग उनकी बात पर हाथ उठाकर कहते हैं, ‘नो,नो! यू डोंट हैव द विल। विल अउर डेटरमिनेशन हय टो यू कैन एचीव एनीथिंग। राइट एटीट्यूड होने चाइए। दैट मेक्स ऑल द डिफरेंस।’

डैस साहब चुप्पी साध जाते हैं। अपने को नालायक कैसे साबित करें? साहब की नज़र में अपनी काबिलियत साबित करने के लिए मुट्ठी उठाकर जोश से कहते हैं, ‘सर,यू आर हंड्रेड परसेंट राइट। वी शैल अचीव। टु द विलेजेज़! टु द विलेजेज़!’

दूसरे दिन दो गाड़ियां भारत के एक नज़दीकी गाँव की तरफ दौड़ रही हैं। पूरा स्टाफ जोश में है। गाँव को फतह करना है। इट इज़ नथिंग लैस दैन ए वार।

गाड़ियां धूल उड़ातीं गाँव में घुसती हैं। कनिंग साहब उतर कर चेहरे और कपड़ों की धूल झाड़ते हैं।  ‘टु हैल विथ दीज़ विलेजेज़। इटना ढूल काँ से आ जाटा है?’ फिर मुस्करा कर कहते हैं, ‘एनी वे, इट इज़ पार्ट ऑफ द गेम। लेट अस प्रोसीड ऑन अवर मिशन।’

वे उतरकर स्टाफ के साथ गाँव की गलियों में घूमते हैं। गाँव के लोग उन्हें देखकर उत्सुकता से बाहर निकल आये हैं। थोड़ी ही देर में चिलकती धूप में साहब का चेहरा लाल टमाटर हो जाता है। पसीना सिर और चेहरे से बह कर शर्ट को गीला करता है, लेकिन साहब ओंठ फैलाकर लगातार मुस्कराते हैं। हाथ उठाकर गाँव वालों को ‘नमस्टे’ कहते हैं,बच्चों के गाल थपकते हैं। एकाध बच्चे को गोद में उठाने की सोचते हैं, लेकिन अपने कपड़ों का खयाल करके इरादा छोड़ देते हैं।

नीम के एक पेड़ के नीचे उनके लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ और मूढ़े रख दिये जाते हैं और साहब मन ही मन ‘थैंक गॉड’ कह कर बैठ जाते हैं। अपने ऊपर नीम के पेड़ को देखकर गाँववालों से कहते हैं, ‘ए नीम ट्री अमारा एनिमी हय, डुश्मन हय। इसके वजा से गाँव का लोक टूथपेस्ट नईं करटा। डाटुन (दातुन) करटा। आप लोक ब्रश और पेस्ट करने का। अम आपको फ्री टूथपेस्ट डेगा। नीम इज़ अनहाइजिनिक,गंडा (गंदा) हय। इसका डाटुन नईं करने का।’

फिर लड़कियों की तरफ देखकर कहते हैं, ‘अम अबी सब लरकियों अउर लेडीज़ को फ्री शैम्पू पाउच डेगा। उसको इस्टेमाल करने का। बाल में मिट्टी उट्टी नईं लगाने का। मिट्टी बउट गंडा होटा। अबी इंडिया शाइनिंग है टो गाँव का लेडीज़ का बाल बी शाइनिंग होने को मांगटा।’

पास ही एक आदमी साइकिल थामे साहब की बात सुन रहा है। साहब उससे कहते हैं, ‘ए साइकिल नईं चलाने का। थ्रो इट अवे। मोटरबाइक करीडने का। उस पर वाइफ को बैटाकर फादर इन लॉ के गर जाएंगा टो फादर इन लॉ खुस होएंगा। नो बाइसिकिल।’

आदमी दाँत निकाल कर पूछता है, ‘पेट्रोल के पैसे कौन देगा?’

साहब हँस कर जवाब देते हैं, ‘फादर इन लॉ डेगा।’ फिर छाती पर हाथ रखकर कहते हैं, ‘अम डेगा। अम इराक से लाकर डेगा। इराक को काये को ‘कांकर’ किया?’

फिर साहब लड़कियों को लक्ष्य करके कहते हैं, ‘अम सब गाँव में ब्यूटी-पार्लर कुलवाएगा। सब लरकी अउर लेडीज़ एवरी वीक ब्यूटी ट्रीटमेंट लेगा। फिर सब गाँव में ब्यूटी कॉन्टेस्ट कराएगा। गाँव का लरकी मिस इंडिया बनेगा, मिस वर्ल्ड बनेगा, मिस यूनिवर्स बनेगा। अम इंडियन विलेजेज़ में रेवोल्यूशन लाएगा।’

फिर गाँववालों से कहते हैं, ‘अबी अम आप लोक को फ्रिज डेगा,टीवी डेगा। फ्रिज का पानी पीने का, आइसक्रीम काने का। मिट्टी का बर्टन का पानी नईं पीने का। वो अनहाइजिनिक होटा। अम आपको वाशिंग मैशीन बी डेगा। हाट (हाथ) से कपरा नईं ढोने का। लेडीज़ का हाट कराब होटा।’

एक आदमी पूछता है, ‘साहब, इनके लिए पैसा कहाँ से आएगा?’

साहब हाथ उठाकर कहते हैं, ‘अम बैंक आफिसर्स को लाएगा। वो आपको कर्जा डेगा। नो प्राब्लम। फिकर नईं करने का।’

वही आदमी पूछता है, ‘करजा कैसे चुकेगा साहब?’

साहब जवाब देते हैं, ‘कोई प्राब्लम नईं। जब कर्जा होएंगा टो उसको पे करने के वास्टे आप जाडा काम करेगा। अबी आप आराम करटा, फिर आप आराम नईं करेगा। जाडा काम करेगा टो  जाडा पइसा बी आएगा। नो प्राब्लम।’

साहब डैस साहब से कहते हैं, ‘मिस्टर डैस, सबका डिमांड नोट करिए। सब कुच करीडने का। कल्चर्ड बनने का।’

डैस साहब उत्साह से गाँववालों की डिमांड नोट करते हैं। कनिंग साहब गाड़ी से सॉफ्ट ड्रिंक की पंद्रह बीस बोतलें मंगवाते हैं, गाँववालों में बँटवाते हैं। कहते हैं, ‘शरबट उरबट नईं पीने का। एई पीने का। कल्चर्ड बनने का। लाइक दिस, सर उटा के पियो।’

फिर साहब जाने के लिए उठते हैं, गाँव वालों की तरफ हाथ हिलाकर कहते हैं, ‘अम बैंकर को लेकर जल्डी आएगा। रेवोल्यूशन होएंगा। फिकर नईं करने का। गाँव को बडलने का।’

साहब गाड़ी में बैठ जाते हैं। चलने को होते हैं कि एक गाँववाला खिड़की में सिर डाल देता है। कहता है, ‘साहब! फिरिज और टीवी खरीद कर क्या करेंगे? बिजली तो आधे दिन रहती नहीं। आती जाती रहती है।’

साहब हँस कर जवाब देते हैं, ‘सो व्हाट?आप टो फ्रिज अउर टीवी करीडो। जब करजा चरेगा टो आप गवमेंट से बिजली के लिए लराई करेगा। लरेगा टो बिजली जरूर मिलेगा। टीवी अउर फ्रिज जरूर करीडने का। फिकर नईं करने का। ओके?’

साहब हाथ हिलाते चले जाते हैं और सवाल करनेवाला भकुआ सा उनकी तरफ देखता रह जाता है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 55 ☆ हीला हवाली ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हीला हवाली”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 55 – हीला हवाली

अक्सर लोग परिचर्चा की दिशा बदलने हेतु एक नया राग ही छेड़ देते हैं। बात किसी भी विषय पर चल रही हो पर उसे  अपनी ओर मोड़ने की कला तो कोई गिरधारी लाल जी से सीखे। सारी योजना धरी की धरी रह जाती है, जैसे ही उनका प्रवेश हुआ कार्य विराम ही समझो। नयी योजना लिए हरदम यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं, उनके पास खुद का कुछ भी नहीं होता बस दूसरे पर निर्भर रहकर एक झटके से सब कुछ हड़पने में उन्हें महारत हासिल होती है।

पहले की बात और थी जब लोग रिश्तों, उम्र व अनुभवों का लिहाज करते थे, परंतु जब से जीवन के हर पहलुओं पर तकनीकी घुसपैठ हुई है, तब से अनावश्यक की भावनाओं पर मानो अंकुश लग गया हो। किसी के  प्रोत्साहन की बात पर तो सभी लोग सहमत होते हैं लेकिन जैसे ही ये कार्य उनके जिम्मे आता है, तो तुरंत ही सर्वेसर्वा बनकर लोगों को बड़ी तेजी से धक्का मारते नजर आते हैं। कारण पूछने पर हमेशा की तरह हीला हवाली से भरे एक ही तरह के उत्तरों की झड़ी लगा देते हैं। अब बेचारा मन इस तरह के अनुभवी उत्तरों के तैयार ही नहीं होता है, सो एक ही झटके में सारा मनोबल छूमंतर हो जाता है और गिरधारी लाल जी मन ही मुस्कुराते हुए सब कुछ लील जाने का जश्न मनाने लगते हैं। जिसने आयोजन का खर्चा किया वो चुपचाप लीलाधर की लीला देखता रह जाता है।

किसी के तीर से किसी का शिकार बस अनजान बनकर लाभ लेते रहो। ये सब सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा था तभी खैराती लाल जी अपनी लार टपकाते हुए आ धमके। कहने लगे क्या चल रहा है,कोई मुझे भी तो बताएँ, आखिर मैं यहाँ का सबसे पुराना सदस्य हूँ। तभी चकमक लाल जी ने मौका देखकर अपना राग भी अलाप ही दिया, क्या करें? जो भी तय करो, तो ये गिरधारी लाल जी हड़प लेते हैं। अरे आपके पास भी तो अपनी टीम है वहीं माथा पच्ची कीजिए यहाँ हमारी योजनाओं पर पानी फेरने हेतु काहे पधार जाते हैं। आप की बातों पर यहाँ कोई  ध्यान नहीं देता,तो काहे ज्ञान बघार रहें हैं।

कुटिलता भरी मुस्कान के साथ गिरधारी लाल जी ने एक बार चकमक लाल जी की ओर व एक बार खैराती लाल जी की ओर देखकर गंभीर मुद्रा बनाते हुए कहा, आजकल तो भलाई का जमाना ही नहीं रहा। सब चकाचौंध में डूब कर भाषा का सत्यानाश कर रहे हैं। अरे भाई जब सब कुछ मैं मुफ्त में ही कर देता हूँ तो आप लोग काहे इधर-उधर भटकते हुए अपना धन और श्रम दोनों व्यर्थ करते हैं। जाइये चैन की बंशी बजाते हुए अपने अधिकारों हेतु आंदोलन करिए आखिर कर्तव्यों की पूर्ति हेतु आपका बड़ा भाई जोर -शोर से लगा हुआ है। सारी मेहनत हमारी टीम कर रही है, आप तो बसुधैव कुटुंबकम का पालन कर अपने साथ देश -विदेश के लोगों को जोड़िए और इसे अंतरराष्ट्रीय रूप देकर भव्य बनाइए।

चर्चा का इतना खूबसूरत अंत तो आप ही कर सकते हैं, चकमक लाल जी ने खिसियानी मुद्रा बनाते हुए अपने कदम बढ़ा बाहर की ओर बढ़ा लिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 83 ☆ व्यंग्य – “खटिया का बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  “खटिया का बजट”। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 83

☆ व्यंग्य – “खटिया का बजट” ☆

जनता का बजट है, जनता के लिए बजट है,पर सरकार कह रही है कि ये फलांने साब का लोकलुभावन बजट है।खूब सारे चेहरों को बजट के बहाने साब की चमचागिरी करने का चैनल मौका दे रहे हैं।विपक्ष अपना धर्म निभा रहा है ताकि जनता को पता चले कि विपक्ष भी होता है। गंगू किसान आन्दोलन से लौटा है, दो दिन का भूखा प्यासा खटिया पर लेटकर एक चैनल में बजट देख रहा है, चमकते माॅल में बजट बाजार लिखा है, पीछे से दुकानदार निकल निकल कर हंस रहे हैं, सजी धजी लिपिस्टिक लगी एंकर चिल्ला रही है, बजट में गांव की आत्मा दिख रही है, माॅल के कुछ लोग तालियां बजा रहे हैं।

गंगू का भूखा पेट गुड़गुड़ाहट पैदा कर रहा है, गैस बन रही है, माॅल में जो दिख रहा उसे देखना मजबूरी है। एकदम से चैनल पलटी मार कर इधर लंच के दौरान बजट पर चर्चा पर आकर रुकता है, पार्टी के बड़े पेट वाले और कुछ बिगड़े बिकाऊ पत्रकार भी बैठे हैं, लाल परिधान में लाल लाल ओंठ वाली बजट के बारे में बता रही है, सबके सामने थालियां सज गयीं हैं, थाली में बारह तेरह कटोरियां बैंठी हैं, दो दुबले-पतले खाना परोसने वाले मास्क लगाकर खाना परोस रहे हैं, इतने सारे बड़े पेट वाले बिना मास्क लगाए, स्वादिष्ट व्यंजन सूंघ रहे हैं, बजट पर चर्चा चल रही है, कुछ लोग खाने के साथ बजट खाने पर उतारू हैं। कोरोना दूर खड़ा हंस रहा है। भूखा प्यासा गंगू जीभ चाटते हुए सब देख रहा है। साब बार बार प्रगट होकर कहते हैं  बजट की आत्मा में गांव है और गांव के किसान के लिए बजट है। गंगू करवट लेने लगता है और खटिया की पाटी टूट जाती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 86 ☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘घिस्सू भाई की लात‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 86 ☆

☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात

दरवाज़े की घंटी बजी। देखा, संतोस भाई थे। संतोष भाई अपने को ‘संतोस’ कहते थे, इसलिए वे संतोस ही हो गये थे। मैंने देखा संतोस भाई का चेहरा पके टमाटर सा लाल-लाल हो रहा था। मुँह लटका हुआ था। लगता था मुँह को लिये-दिये ज़मीन पर गिर पड़ेंगे।

संतोस भाई भीतर आकर कुर्सी पर ढेर हो गये। मैंने चिन्तित होकर पूछा, ‘क्या हुआ?’

वे बड़ी देर तक चेहरे पर हथेलियाँ रगड़ते रहे। संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘कुछ नहीं।’

मैंने कहा, ‘तुम्हारी हालत तो कुछ और कह रही है।’

वे थोड़ी देर ज़मीन की तरफ देखते रहे, फिर बोले, ‘क्या कहें? कहने लायक हो तो बतायें।’

मैंने कहा, ‘बोलो। जी हल्का हो जाएगा।’

वे कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले, ‘आज साले घिसुआ ने जबरदस्त इंसल्ट कर दी।’

मेरे कान खड़े हुए, पूछा, ‘घिस्सू भाई ने? कैसी इंसल्ट कर दी?’

संतोस भाई रुआँसे हो गये, बड़ी मुश्किल से बोले, ‘लात मारी।’

मैंने साश्चर्य पूछा, ‘तुम्हें?’

वे रुँधे गले से बोले, ‘हाँ।’

मैंने पूछा, ‘कहाँ?’

वे थोड़ी देर मौन रहकर आर्त स्वर में बोले, ‘पिछवाड़े।’

मैंने कहा, ‘यह तो भारी बेइज्जती की बात हो गयी। कैसे हुआ?’

संतोस भाई थोड़ा प्रकृतिस्थ होकर बोले, ‘क्या बतायें कैसे हुआ। हम दोनों ‘नसे’ में थे। वह भाभी की तारीफ कर रहा था और मैं सुन रहा था। सुनते सुनते मेरे मुँह से निकल गया कि गुरू कुछ भी कहो, तुम भाभी के चपरासी जैसे लगते हो। बस फिर मुझे पता ही नहीं चला कि वह उठ कर कब मेरे पीछे पहुँच गया। जब लात पड़ी तभी समझ में आया। मैं मसनद पर बैठा था। मुँह के बल गद्दे पर गिरा। पीछे से वह बोला, ‘हरामजादे, औकात में रह’।’

मैंने अफसोस ज़ाहिर किया, कहा, ‘मामला गंभीर हो गया।’

वैसे बात ज़्यादा चिन्ता की नहीं थी क्योंकि संतोस भाई घिस्सू भाई के प्रधान चमचे के रूप में नगर-विख्यात थे। रोज़ ही उनका दारू-पानी दरबार में होता था और इज़्ज़त में इज़ाफे या कमी का सिलसिला भी चलता रहता था। लेकिन अभी संतोस भाई गुस्से में थे।

मैंने पूछा, ‘क्या करोगे?’

वे नथुने फुलाकर बोले, ‘मैंने तो भीम की तरह उस आदमी की जंघा तोड़ने का प्रण ले लिया है। जिस टाँग से उसने मेरी इज्जत पर प्रहार किया है उसमें मल्टीपल फ्रैक्चर पैदा किये बिना मैं चैन से नहीं बैठने वाला।’

संतोस भाई का ग़म हल्का करने के लिए उन्हें चाय पिलायी। एक घंटा तक घिस्सू भाई को कोसने और उनकी टाँग तोड़ने का प्रण कई बार दुहराने के बाद वे बड़ी मुश्किल से विदा हुए।

फिर आठ दस दिन तक संतोस भाई के दर्शन नहीं हुए। करीब दस दिन बाद नन्दू के चाय के खोखे पर चाय सुड़कते टकराये। मैंने हाल-चाल पूछा तो बोले, ‘आनन्द है।’

मैंने पूछा, ‘फिर घिस्सू भाई से मिले क्या?’

उन्होंने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम कहो। मैं भला उस कुचाली के पास क्यों जाऊँ?’

मैंने विनोद में पूछा, ‘टाँग तोड़ने का प्रण अभी याद है कि भूल गये?’

वे भवें चढ़ाकर बोले, ‘भूल गये? कैसे भूल गये? इतनी बड़ी इंसल्ट को कोई भूल सकता है क्या?’

फिर वे थोड़े मौन के बाद बोले, ‘वैसे मैं उस दिन की घटना को दूसरे ढंग से ले रहा हूँ। आप किसी की गाली से इसीलिए अपमानित महसूस करते हैं क्योंकि उस गाली को ग्रहण कर लेते हैं। यदि आप गाली को स्वीकार ही न करें तो कैसा अपमान? दूसरे ने गाली दी, लेकिन हमने ली ही नहीं, तो?’

मैंने कहा, ‘लेकिन यह तो लात का मामला है। ठोस लात पड़ी है। उसे कैसे नामंज़ूर करोगे?’

संतोस भाई का मुँह उतर गया, बोले, ‘ठीक कह रहे हो। लात को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है?’

वे चिन्ता में डूब गये और मैं उन्हें विचारमग्न छोड़ चलता बना।

चार छः दिन बाद वे फिर आ गये। दो तीन मिनट इधर उधर की बातें करने के बाद मेरी आँखों में आँखें डालकर बोले, ‘का रहीम हरि कौ गयो जो भृगु मारी लात। क्या समझे?’

मैंने कहा, ‘समझ गया प्रभु। अब समझने को क्या बाकी रह गया है?’

वे बोले, ‘बड़़े को ‘छमासील’ होना चाहिए। टुच्चई करना छोटों का काम है। ठीक कहा न?’

मैंने कहा, ‘बिलकुल दुरुस्त कहा।  तुमसे यही उम्मीद थी।’

वे मुस्कुराये। ज़ाहिर था कि वे पदाघात वाली घटना पर धूल डालने के मूड में आ गये थे।

फिर एक रात संतोस भाई आंधी की तरह मेरे घर में घुस आये। बोले, ‘माफ करना गुरू! वो घिस्सू भाई वाली बात में तुमने हमें बहुत ‘मिसगाइड’ किया। हमें बहुत बरगलाया। हम इतने दिन से बराबर सोच रहे थे कि आखिर हमारे हितचिन्तक घिस्सू भाई ने हमें लात क्यों मारी। सोचते सोचते आज दोपहर को अचानक मेरी समझ में आया। घिस्सू भाई ने पीछे से मुझे लात मारी और मैं आगे जाकर गिरा। दरअसल घिस्सू भाई ने लात मारकर मुझे ‘सन्देस’ दिया कि मैं आगे बढ़ूँ। बड़़े लोग ऐसे ही बिना बोले ‘सन्देस’ देते हैं। समझने के लिए अकल चाहिए। तुमने कई पहुँचे  हुए साधुओं को देखा होगा जो लोगों को गालियाँ देते हैं या मारने को दौड़ते हैं। वे इसी तरह लोगों का कल्याण करते हैं। घिस्सू भाई ने भी यही किया, लेकिन तुमने मुझे सही अर्थ ग्रहण नहीं करने दिया। मैं वापस अपने परम ‘हितैसी’ घिस्सू भाई की ‘सरन’ में जा रहा हूँ, लेकिन तुमको चेतावनी देकर जा रहा हूँ कि आगे किसी दोस्त के साथ ऐसी घात मत करना।’

वे मेरी तरफ चेतावनी की उँगली उठाकर आँधी की तरह ही बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 54 ☆ हाशिए पर…☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हाशिए पर…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 54 – हाशिए पर…

एक दिन पहले मैंने सुझाव देते हुए सहयोग की अपील की  और अगले ही दिन मुस्कुराते हुए कहा आप से बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता अब इसे आप संभालें। जब डिब्बे में घुन का ही राज्य हो तो अनाज अपने आप ही पिस जायेगा। गेंहू के साथ घुन भी पिसता है,ये तो तब होगा जब गेंहू चक्की में पिसने हेतु जाए। पर यदि अनाजों में घुन लगा हो तो क्या होगा ?

आकर्षक रंग रोगन से युक्त डिब्बा है ही इतना सुंदर कि कोई ये देखता भी नहीं कि इसमें कीड़े तो नहीं पड़े हैं। बस सुंदरता पर मोहित हो भर दिया सारा अनाज, अब न तो रोते बन रहा है न हँसते। धीरे – धीरे बिना चक्की के सारा अनाज बुरादे में बदलता जा रहा है। वो कहते हैं न कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। सो सकारात्मक सोच लेकर बढ़ते रहो। जो लोग सचेत नहीं होंगे उनका नुकसान तो बनता ही है। जब कुछ मिटेगा तभी तो नए का सृजन होगा। नए का दौर चलते ही रहना चाहिए वैसे भी रुका हुआ जल, पुरानी सोच व एक ही व्यक्ति इन सबको समय के साथ बदलना तो चाहिए। बदलाव तो उन्नति का चिन्ह है।

सबको बदलते हुए व्यक्ति ये भूल जाता है कि आज नहीं तो कल वो भी समय के तराजू में तौला जाने वाला है। क्या करें समय और बाँट किसी के सगे नहीं होते। ये तो वही दिखाते हैं जितना असली वज़न होता है।अब व्यवहार का क्या है ? ये तो कभी असली  कभी नकली मुखौटा पहन कर सबको धोखा देने में माहिर होता है। कई बार देखकर सब कुछ अनदेखा करना ही पड़ता है। शांति और सामंजस्य की कीमत चुकाना कोई आसान कार्य नहीं होता है इसके लिए तिल – तिल कर जलना होगा।

जलना और जलाना इन्हीं दो शास्त्रों पर तो पूरी दुनिया टिकी हुई है। बस कुछ न कुछ करते रहिए, क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। जब कर्म करेंगे तो कभी न कभी फल मिलेगा ही। हो सकता है सूद सहित मिले। वैसे भी गीता का गान तो यही कहता है कि फल की इच्छा न रखें। महँगाई और कीटनाशकों का प्रभाव फलों भी पड़ रहा है सो  फलों को खाकर ताकत आयेगी ये कहना भी आसान नहीं है।

चक्कर पर चक्कर चलाते हुए वे सबको घनचक्कर बना रहे हैं और एक हम हैं जो पृथ्वी गोल है ये मानकर ही हर बार अपनी धुरी पर घूमते हुए जहाँ से चले थे वहीं पहुँच कर अपना पुनर्मूल्यांकन करते नजर आते हैं। और हर बार स्वयं से प्रण करते हैं कि इस बार चौगुनी तेजी से कुछ नया कर गुजरेंगे। बस इसी जद्दोजहद में उम्र तमाम हुई जा रही है। जब कदम बढ़ते हैं, तभी न जाने कहाँ से हाशिया आ जाता है और हम स्वयं को हाशिए पर खड़ा पाते हैं। पर क्या करें, हम तो ठहरे भगवतगीता के अनुयायी सो कृष्ण मार्ग पर चलते हुए आज नहीं तो कल चक्रव्यूह भेद कर ही दम लेंगे और विजयी भव के साथ अपना परचम फहराते हुए कुछ नया कर गुजरेंगे।

जैसे ही कोई नया कार्य शुरू हुआ कि झट से कोई न कोई शिकारी बाज की तरह टपक पड़ता है, अब कार्य पर ध्यान दें या शिकारियों पर। खैर वही घिसा पिटा राग अलापते हुए उसी दौड़ में फिर से शामिल हो गए। जोड़- तोड़ में तो उनकी मास्टरी है। जहाँ उनको स्नेह से बुलाया नहीं कि  सारी योजना चौपट, फिर वही अपना रंग फैलाते हुए हर समय सबको अपने रंग में रंगने की अचूक कोशिश करने लगते हैं। यहाँ भी वही पृथ्वी गोल है का किस्सा, जिन नीतियों को कोई पसंद नहीं करता है, उसे फिर से चलाने लगे। अब क्या किया जाए चुपचाप देखते रहो क्योंकि जैसे ही सक्रियता बढ़ाई, सबके चहेते बनने की कोशिशें की, तभी पुनः हाशिए पर धकेलने हेतु कोई न कोई नयी योजना द्वार पर दस्तक देते हुए कह उठेगी आप लोग जागरूक बन कर चिंतन करें। स्वयं के साथ- साथ सबको जगाएँ।

कितना भी प्रयास करो हाशिए पर आना ही होगा,ये बात अलग है कि यदि पूरी ताकत से कोशिश की जाए तो हाशिए पर आप की जगह आपको हाशिए पर पहुँचाने वाला हो सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 82 ☆ व्यंग्य – “ब से बजट और बसंत” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  “”ब से बजट और बसंत”“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 82

☆ व्यंग्य – “ब से बजट और बसंत”  ☆

बजट के बाद ‘बसंत’ इधर से उधर  भागमभाग मचाए हुए है

पीली सरसों के खेतों से लेकर अमराई तक दौड़ रहा है जब पूछा – कि क्यों दौड़ रहा है ? तो कहता है – लोकतंत्र के खातिर दौड़ चल रही है। लुढ़को बाई चिंतित है कि सड़कों पर नुकीली कीलों की फसल लगी है , और ये बसंत है कि लगातार दौड़ रहा है, इस बार के बजट में स्टील सेक्टर पर जोर इसीलिए दिया गया था कि बजट के बाद सड़कों पर  स्टील की नुकीली कीलें लगाने के काम से स्टील उद्योग में उछाल आयेगा।

लुढ़कोबाई परेशान है कि बेचारा बसंत भूखा प्यासा दौड़ रहा है। लुढ़कोबाई की चिंता जायज है, उसे लगता है कहीं नुकीली चीजों से बेटा घायल न हो जाए, इसीलिए ज्यादा चिंता कर रही है। लुढ़कोबाई के पास दो बीघा जमीन है इसलिए बसंत भी अपने आपको किसान कहलाने पर गर्व करता है, पर उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसान के भाग्य में बजट के बाद ये नुकीली कीलें ठोंकी जाएंगी।

लुढ़कोबाई की छोटी सी किराना दुकान भी है उसी के सहारे भूख मिटाने का जुगाड़ बनता है। लुढ़कोबाई के दो बेटे हैं एक का नाम ‘बसंत ‘है और दूसरा है’ विकास ‘..

बजट में विकास ही विकास का बड़बोलापन है इसलिए लोग कहते हैं कि विकास  पागल हो गया है लोग वोट को विकास से जोड़ देते हैं,पर ये बसंत को क्या हो गया है कि लोकतंत्र की चिंता में खाना पानी छोड़ के सरसों के खेतों से लेकर जंगल के महुआ के पेड़ों तक इधर से उधर भाग रहा है।  रास्ते भर नुकीली कीलें लगीं हैं पर इसे डर भी नहीं लगता। बसंती बयार चल रही है।

पेट के लिए सूखी रोटी और सोने के लिए थिगड़े वाली कथरी ही लुढ़कोबाई का लोकतंत्र है पर ये बसंत है कि उसे लोकतंत्र पसंद है जबकि ‘विकास ‘ वोट के चक्कर में घूमता है। विकास और बजट नाम ही ऐसे हैं जिसमें कुछ खास तरह का आकर्षण होता है।खपरेवाली किराना दुकान से नून – तेल लेने आने वाला गंगू अक्सर बेचारे बसंत को पूछता रहता है वो भी लोकतंत्र और बसंत के लिए चिंतित रहता है।

लुढ़कोबाई की दुकान में जीएसटी वाले साहेब आये हैं कह रहे हैं कि “लोकतंत्र में बसंत” लाने के लिए जीएसटी अनिवार्य है। लुढ़कोबाई परेशान है साहब से पूछ रही है – साहब जे “लोकतंत्र” क्या बला है ?…

साहब की आंखें नम हैं नम आंखों में नमक मिला जीएसटी का पानी है आंखों का नमक मिला पानी जब बह के मुंह में घुसने लगा तो साहब का मुंह खुल गया – सुनो लुढ़कोबाई ये लोकतंत्र मंहगी और समय बर्बाद करने वाली खूबी का नाम है भ्रमित करने का एक तरीका है, चुनावी भाषण में यह कहने की चीज है कि लोकतंत्र में लुढ़कोबाई सत्ता की मालकिन है।

लोकतंत्र में बसंत लाने के लिए लुढ़कोबाई एक अदने से बूथ तक चलके और एक अदने सी ईवीएम मशीन की बटन दबाके’ सेवक ‘पैदा करती है और सेवक अचानक सत्ता का शासक बन जाता है फिर उसके लोकतंत्र और बजट में बसंत आ जाता है। यही लोकतंत्र है।

लुढ़कोबाई डरते हुए हुए कह रही है – साहब हमारे बसंत को समझा दो वो बेचारा सरसों के खेतों और जंगल के महुआ में लोकतंत्र को ढूंढ़ रहा है भूखा प्यासा दौड़ता रहता है।

—सुनो लुढ़कोबाई ! इस बार के बजट में सबका बसंत लुढ़क गया है, सब लोग चिंता में है कि पिछले साल की सारी संपत्ति अमीरों के पास कैसे चली गई,  कोरोना आया तो अमीरों की संपत्ति बेहिसाब बढ़ी, और बाबा ने कह दिया आपदा में अवसर का कमाल है। भयानक आर्थिक असमानता से लोकतंत्र भी परेशान हो गया है और भ्रष्टाचार और ‘विकास” का दबदबा बढ़ गया है।

बसंती बयार चल रही है और विकास कंटीले तार की बाड़ और नुकीली कीलें देखकर खुश हो रहा है, गांव भर के लोग  विकास को चिढ़ा र‌हें हैं ये चिढ़ चिढ़कर और पगला रहा है । लुढ़को बाई लोगों से बार बार पूंछ रही है कि हमारे लुढ़के विकास को ठीक करने का कछु उपाय हो तो बताओ ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 85 ☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘सुख का बँटवारा ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 85 ☆

☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा 

समझदार लोग कह गये हैं कि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुख बाँटने से हल्का होता है। लेकिन आज के ज़माने में अक्सर होता यह है कि दुख बाँटने से बढ़ जाता है और सुख इतने लोगों को दुखी कर देता है कि उसकी लज्जत जाती रहती है।

उस दिन मैं अपने जैसे चार पांच ठलुओं के साथ बैठा निन्दा-रस में स्नान कर रहा था। हमारा निन्दा का स्तर हमेशा राष्ट्रीय होता है। मुहल्ला स्तर की निन्दा से हम कभी संतुष्ट नहीं हुए जैसे कि कुछ निम्नस्तरीय लोग हो जाते हैं। दो तीन घंटे की भरपूर परनिन्दा के बाद हम लोग नयी स्फूर्ति और जीवन के प्रति नयी आस्था लेकर उठते थे। उसके बाद पूरा दिन उत्साह और उमंग में कट जाता था।

उस दिन हम सुख के सागर में गोते लगा रहे थे कि अचानक त्यागी जी आ गये। वे भी हमारी मंडली के सदस्य थे, लेकिन उस दिन लेट हो गये थे। यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि आम तौर से परनिन्दा की संजीवनी की एक बूँद भी ज़ाया करना हमें बर्दाश्त नहीं होता।

त्यागी जी आकर निर्विकार और उदासीन भाव से बैठ गये। देखकर हमारा माथा ठनका। उनके निर्विकार दिखने का मतलब था कि कुछ था जो हमें बताने के लिए वे लालायित थे, और लालायित होने का मतलब था कि बात खुशी की थी। इसीलिए उनका भाव देखकर हमारा दिल बैठने लगा। निन्दा-रस बेमज़ा हो गया और, ज़बरदस्ती कुछ बोलते, हम तिरछी नज़रों से त्यागी जी को और सीधी नज़रों से एक दूसरे को देखने लगे।

उधर त्यागी जी हमारे पास से उठकर गुलाब की क्यारियों के पास खड़े होकर फूलों को देखने लगे थे। सालों से वे मेरे घर आते रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी गुलाब और गोभी में फर्क नहीं किया था। आज वे जहांगीर की तरह गुलाब सूँघ रहे थे और काँटे हमारे दिल में चुभ रहे थे।

अन्त में वे हमारे पास आकर बैठ गये। उनकी मुद्रा देखकर हमें विश्वास हो गया कि वे कोई खुशी का हृदयविदारक समाचार सुनायेंगे।  थोड़ी देर बाद वे लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘गाड़ी उठा ही ली।’

हमें धक्का लगा, लेकिन हम पूरे दुखी नहीं हुए क्योंकि ‘गाड़ी’ शब्द में बैलगाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक समाहित होती है।

हमने धड़कते दिल से पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’

वे हमारी बात को अनसुना करके बोले, ‘लड़के बहुत दिन से पीछे पड़े थे। अब तक हम टालते रहे। आखिरकार कल उठा ही लाये।’

हमें लगा यह आदमी हमारी जान लेने पर तुला है। हमने फिर पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’

वे उदासीन भाव से बोले, ‘मारुती वैन।’

सुनकर हम सभी हृदयाघात की स्थिति में आ गये। सबके चेहरे का खून निचुड़ गया। शरीर में जान न रही।

हमारी मंडली के भाई रामजलन बची खुची उम्मीद से मिनमिना कर बोले, ‘सेकंड हैंड ली होगी।’

त्यागी जी हिकारत के भाव से बोले, ‘अपन सेकंड फेकंड हैंड में बिस्वास नहीं करते। आज गाड़ी खरीदी, कल मिस्त्री के दरवाजे खड़े हैं। अपन तो ब्रांड न्यू खरीदते हैं। लाख पचास हजार ज्यादा लग जाएं, लेकिन साल दो साल निस्चिंत भाव से गाड़ी तो चलायें।’

सुनकर रामजलन बेहोश हो गये। मैंने जल्दी से पानी के छींटे मारे तब वे दुबारा ज़िन्दा हुए। लेकिन वहाँ से उठकर भीतर पलंग पर लेट गये। बोले, ‘तबियत गड़बड़ है।’

बाहर हमारी निन्दा-मंडली के शनीचर भाई और मनहूस भाई फर्श में नज़रें गड़ाये ऐसे खामोश बैठे थे जैसे घर में गमी हो गयी हो। बड़ी देर बाद शनीचर भाई नज़रें उठाकर त्यागी जी से बोले, ‘बैंक से लोन लिया होगा।’

त्यागी जी हाथ उठाकर बोले, ‘अरे नहीं भइया! अपन लोन-फोन के चक्कर में नहीं पड़ते। अपन ने तो पूरे पैसे डीलर के मुँह पर मारे और गाड़ी उठा लाये।’

सुनकर शनीचर भाई चित्त हो गये और हम उन्हें भी लाद-फाँदकर पलंग पर लिटा आये। चिन्ता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसा अक्सर होता रहता था।

मनहूस भाई ज़मीन में नज़र गड़ाये गड़ाये मुझसे धीरे से बोले, ‘हम कुछ नहीं पूछेंगे। हम दूसरे के घर में बेहोश नहीं होना चाहते।’

त्यागी जी उमंग में बोले, ‘भाई, हमने सोचा कि अपने घर में खुसी आयी है तो दोस्तों को बताना चाहिए। खुसी बाँटने से बढ़ती है। हम खुस हैं तो दोस्तों को भी खुस होना चाहिए।’

मुनमुन भाई खुशी की खबर सुनकर अखबार के पीछे मुँह छिपाये बैठे थे। त्यागी जी की बात सुनकर अखबार थोड़ा नीचे करके मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक कहा आपने। हम सबको बड़ी खुशी हुई।’

त्यागी जी बोले, ‘हम यह सोच कर आये थे कि कल नयी गाड़ी में कहीं पिकनिक पर चलेंगे। पिकनिक भी हो जाएगी और गाड़ी का उदघाटन भी हो जाएगा।’

मनहूस भाई भारी आँखें उठाकर बोले, ‘अभी एकाध हफ्ता तो रहने दीजिए, त्यागी जी। रामजलन भाई और शनीचर भाई की हालत तो आप देख ही रहे हैं। अपनी तबियत भी सबेरे से गिरी गिरी है। एकाध हफ्ते में सब धूल झाड़कर खड़े हो जाएंगे। फिर तो पिकनिक होना ही है।’

त्यागी जी प्रसन्न भाव से बोले, ‘जैसी पंचों की मर्जी।’

उस दिन का सत्यानाश हो चुका था। थोड़ी देर में त्यागी जी चले गये और उनके जाने के बाद सभी दोस्त भारी कदमों से विदा हुए। दुनिया अचानक बदसूरत हो गयी थी और हर चेहरे से चिढ़ लग रही थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 53 ☆ अमरबेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “अमरबेल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 52 – अमरबेल ☆

एक – एक कर सीढ़ियों को मिटाते जाना और आगे बढ़ना बहुत अच्छा होता है। पर कभी नीचे आना पड़े तो कैसे आयेंगे पता नहीं। खैर जो होता है उसमें अच्छाई छुपी होती है, ऊपर बैठा व्यक्ति ये सोचता ही नहीं कि वो जमीन से उठकर ही ऊपर गया है।

वक्त के घाव तो समय के साथ -साथ भर जाते हैं किंतु निशान समय की कीमत को समझाने के लिए समय- समय पर प्रश्न करते ही रहते हैं। अक्सर भूल – चूक की उदासीनता में झूलता हुआ मनुष्य ऐसे- ऐसे निर्णय कर बैठता है, जो उसके नीचे से आधार ही खींच सकते हैं। जिम्मेदारी के बोझ के तले दबा हुआ व्यक्ति क्या कुछ करना नहीं चाहता पर होता वही है जो ईश्वर की इच्छा होती है।

जब दिमाग़ बिल्कुल शून्य हो जाए तो क्या करना चाहिए? कुछ न कुछ करते रहना ही सफलता की ओर पहला कदम होता है। जब बाधाएँ आती हैं, तभी तो चट्टानों को काट कर प्रपात बनते हैं; जिससे न केवल जल की राह व स्वरूप बदलता है वरन गतिविधि भी परिवर्तित होकर नया इतिहास रच देती है। कुछ रचने की बात हो तो सत्य का दामन थामकर ही चलना चाहिए क्योंकि कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते हैं। खैर झूठ के सहारे ही तो व्यक्ति अमरबेल की तरह फैलता जाता है ये बात अलग है कि शुरुआत सच से होती है जो धीरे- धीरे झूठ तक पहुँच जाती है। लोग इसे अच्छी निगाहों से नहीं देखते हैं। ये एक परजीवी बेल है जो जिस वृक्ष पर फैल जाती है उसे सुखा देती है। किंतु इसके अनगिनत लाभ भी होते हैं जो मानव के लिए लगातार फायदेमंद सिद्ध हो रहे हैं।

शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने, गठिया रोग, कैन्सर, किडनी, लिवर, दिल, खुजली, डायबिटीज, आँखों में सूजन, मानसिक विकार आदि रोगों को मिटाकर इससे लाभान्वित हो सकते हैं। ये खुद भी अमर है साथ ही इसका उपयोग करने वाले भी इससे लाभ उठाते हैं ये बात अलग है कि जो इसे सहारा दे उसे सुखा कर निर्जीव करती जाती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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