हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 84 ☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘पापी आत्माओं का दुख‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 84 ☆

☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख

आजकल नरक में भारी भीड़भाड़ और धक्कमधक्का है। तिल धरने की जगह नहीं है। जहाँ देखें, मर्त्यलोक से आयी आत्माओं की भीड़ ठाठें मार रही है। यमराज परेशान हैं। भीड़ को सँभालना मुश्किल हो रहा है।’ लॉ एण्ड ऑर्डर’ की समस्या हो गयी है। ख़ास वजह यह है कि मर्त्यलोक से आयी हुई पच्चानवे प्रतिशत आत्माएं नरक पहुँच रही हैं। स्वर्ग वाली लाइन में मुश्किल से दो चार लोग खड़े दिखायी देते हैं। नरक की भीड़ रोज़ बढ़ती है। मर्त्यलोक में अब पापी ही ज़्यादा बचे हैं, पुण्यवान उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। मंत्री, अफसर, कर्मचारी, व्यापारी, पंडे, महन्त, सब लाइन में लगे हैं। नरक के कर्मचारी काम बढ़ता देख क्षुब्ध हैं। उनमें असन्तोष फैलने की संभावना बन रही है।

नरक में संख्यावृद्धि का एक कारण यह भी है कि पहले ईमानदार आदमी अन्त तक ईमानदार रहता था। अब ईमानदार का ईमान चार छः साल में डगमगाने लगता है। ईमानदार आदमी की घर में भी इतनी लानत-मलामत होती है कि वह बीच में ‘कन्वर्ट’ हो जाता है। कई पुण्यवान लोग रिटायरमेंट के कगार पर आकर पलटी मार जाते हैं और अन्त में कोई लम्बा हाथ मारकर समाधि-धारण की अवस्था में आ जाते हैं।

न में खड़ी कुछ ऊँचे अफसरों की आत्माएं भारी कष्ट में हैं। उनकी शिकायत है कि उन्हें ऐसे मामूली क्लर्कों और व्यापारियों की आत्माओं के साथ एक ही लाइन में खड़ा कर दिया गया है जिनसे उन्होंने कभी सीधे मुँह बात नहीं की। उनके ख़याल से यह उनकी बेइज्ज़ती है। लेकिन वहाँ उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अलबत्ता उनकी बात सुनकर कुछ क्लर्क कह रहे हैं कि ओहदे में वे भले ही कम रहे हों, लेकिन कमाई के मामले में वे अफसरों से कभी पीछे नहीं रहे।

नरक की लाइन में कुछ ऐसी आत्माएं भी हैं जिन्हें ज़िन्दगी भर सदाचारी और स्वर्ग का अधिकारी समझा जाता रहा। उन्हें कुछ आत्माएँ नसीहत दे रही हैं कि ज़रूर कुछ गड़बड़ हुई है `और वे आगे बढ़कर अपने रिकॉर्ड की जाँच करवा लें। लेकिन सब तथाकथित सदाचारी ठंडी आहें भरते, मुँह लटकाये खड़े हैं। कहते हैं, ‘अब रिकॉर्ड देख कर क्या करेंगे?जब महाराज जुधिष्ठिर नरक भोगने से नहीं बचे, तो हमारी क्या हस्ती। जो प्रारब्ध में लिखा है, झेलेंगे।’  उन्हें पता है कि रिकॉर्ड खुलवाने से मामला गड़बड़ हो जाएगा। यहाँ सब की कारगुज़ारियों की पक्की ‘मानिटरिंग’ होती है।

खड़े खड़े ऊबकर अनेक आत्माएँ अलग अलग गोल बनाकर बैठ गयी है और मन बहलाने के लिए गाने बजाने में लग गयी हैं। कहीं से ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ की धुन उठ रही है तो कहीं से ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो’ की। एक अफसर की आत्मा अलग बैठी दुखी स्वर में गुनगुना रही है—‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया।’

नरक का दंडविधान भी शुरू हो गया है। पापियों को अपने किये की सज़ा मिल रही है। यमराज के गण पूरी निष्ठा से अपने काम में लगे हैं।

लेकिन कुछ आत्माएँ इस सबसे तटस्थ, व्याकुल घूम रही हैं। ये कुछ नेता-टाइप आत्माएँ हैं जो किसी बात को लेकर व्यथित हैं। वे जुगाड़ में हैं कि किसी तरह यमराज तक उनकी बात पहुँच जाए और उनसे बात करने का मौका मिल जाए। बड़ी कोशिश के बाद अन्ततः उन्हें सफलता मिल गयी और यमराज तक खबर पहुँच गयी कि पन्द्रह बीस आत्माएँ अपनी ख़ास व्यथा उनके सामने रखना चाहती हैं।

यमराज आत्माओं की बात सुनने को राज़ी हो गये। बारह पन्द्रह दुखी आत्माएँ उनके सामने हाज़िर हुईं। एक आत्मा, जो किसी राजनीतिज्ञ की थी, बोली, ‘प्रभु, हम अपनी व्यथा आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हुए हैं। जैसा कि आपके रिकॉर्ड से स्पष्ट है, हमने ज़िन्दगी भर पाप करके खूब दौलत बटोरी और उसी की सज़ा भोग रहे हैं। लेकिन हमारा हृदय यह देखकर विदीर्ण हुआ जा रहा है कि जिस दौलत के लिए हम पापी बने और नरक की सज़ा पायी, उसी दौलत के बल पर हमारे सपूत ऐश कर रहे हैं और गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। प्रभु, यह कैसा अन्याय है कि जिस दौलत के लिए हमें सज़ा मिली उसी का हमारे वंशधर सुख लूट रहे हैं। हम यह कैसे बर्दाश्त करें?’

एक आत्मा मर्त्यलोक की ओर इशारा करके बोली, ‘देखिए, देखिए, अभी हमें रुख्सत हुए महीना भर भी नहीं हुआ और हमारे बड़े सपूत पेरिस पहुँचकर वहाँ नाइट क्लब में बिराजे हैं। सामने मँहगी दारू का जाम रखा है। और उधर हमारे दूसरे नंबर के सपूत फाइवस्टार होटल में दोस्तों के साथ बोतल खोले बैठे हैं। तीसरा जो है वह कोई ड्रग लेकर अपने बिस्तर पर बेहोश पड़ा है। प्रभु, क्या इसीलिए हमने पाप करके दौलत कमायी थी?’

यमराज ने लाचारी में सिर हिलाया, कहा, ‘हे पापी आत्माओ,हम इसमें क्या कर सकते हैं?आपकी दौलत का अन्ततः यही हश्र होना था। जब आपके वंशज यहाँ आएंगे तब उनका भी खाता देखा जाएगा। उन्हें भी उनके कर्मों का परिणाम भोगना होगा।’

नेताजी बोले, ‘प्रभु, हम एक विशेष निवेदन करने आये हैं। हमारा निवेदन यह है कि चूँकि हमारी सारी दौलत हमारी कमायी है इसलिए उसका ट्रांसफर यहीं एक बैंक बनाकर कर दिया जाए। अब तो मर्त्यलोक में भी आसानी से मनी ट्रांसफर हो जाता है।’

यमराज हँसे,बोले, ‘यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। फिर यहाँ आपकी मुद्रा का कोई उपयोग नहीं है।’

नेताजी बोले, ‘उपयोग भले ही न हो, लेकिन हमारी आँख के सामने तो रहेगी। कम से कम दूसरे उसे उड़ायेंगे तो नहीं।’

यमराज बोले, ‘यदि आपको अपनी दौलत अपने वंशजों को नहीं देनी थी तो उसे किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति या संस्था को दान कर देते।’

नेताजी ने लम्बी आह भरी,बोले, ‘यह मुश्किल था। ज़िन्दगी भर की पाप की कमाई किसी को देने में हमारा कलेजा न फट जाता?’

यमराज बोले, ‘अब धन-संपत्ति को भूल जाइए। सब माया है। अन्त में धन संपत्ति किसी के काम नहीं आती। इतना तो अब आप समझ ही गये होंगे।’

नेताजी और दुखी होकर बोले, ‘हमारे निवेदन को इतनी सरलता से मत टालिए, प्रभु। हम सचमुच बहुत संतप्त हैं। यदि आप हमारे पैसे को यहाँ नहीं मँगवा सकते तो हमारा सुझाव है कि जिस प्रकार सत्यनारायण की कथा का प्रसाद ग्रहण न करने के कारण साधु बानिया की सारी संपत्ति लता-पत्र में बदल गयी थी, उसी तरह हमारी सारी संपत्ति भी लता-पत्र में बदल दें। वह हमारे काम भले ही न आये, कम से कम हमारे सुपुत्र बिगड़ने से बच जाएंगे।’

यमराज हँसकर बोले, ‘हम आपकी बात पर विचार करेंगे। फिलहाल आपकी दंड- प्रक्रिया का दूसरा सत्र शुरू हो गया है। कृपया वहाँ पधारें और अपने पापों का प्रायश्चित करें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 52 ☆ फूटा ढोल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “फूटा ढोल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 52 – फूटा ढोल ☆

कालूराम का फट गया ढोल, बीच बजरिया खुल गयी पोल… खूब जोर शोर से यह गाना बज रहा था। सभी मदिरा के नशे में मदमस्त होकर अपनी ही धुन में झूमे जा रहे थे कि सहसा कुछ चिटकने की आवाज कानों में गूँज उठी। ये स्वर इतना विषैला था कि ढोल वाले के हाथ जहाँ के तहाँ ऐसे जमें मानो बर्फीले इलाके में अचानक बर्फबारी शुरू हो गयी हो।

ऐसा दृश्य दिन के तीसरे या चतुर्थ प्रहर में हो तो एक बार मन स्वीकार कर लेता है किंतु जब पहले और दूसरे प्रहर में ये सब घटित हो तो मन वितृष्णा से भर ही जाता है। बिना सोची समझी योजना के ऐसे कार्य हो ही नहीं सकते हैं। खैर जब व्यक्ति शब्दों की गलत व्याख्या पर उतर आए तब ऐसा होना लाजिमी ही होता है। गणतंत्र के नाम पर देशहितों को ताक पर रखकर हंगामा करना, जिससे मानवता शर्मशार होती हो, ये सब किसी भी रूप में जायज नहीं हो सकता है।

तमाशा मचाने हेतु बहुत से अवसर ढूंढे जा सकते थे, किंतु जब सारा विश्व भारत की ओर उम्मीद लगाए हो तब ऐसा परिदृश्य उकेरना किसी के हित में नहीं हो सकता है। शायद ऐसे ही समय के लिए लिखा गया था कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं , मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। सब कुछ बदलिए पर तरीका सही हो तभी परिणाम सुखद होते हैं। पर कहते हैं न कि, विनाश काले विपरीत बुद्धि …सो ऐसा ही यहाँ भी घटित हो गया।

कुरीतियों का परचम इतने जोर से फहराया कि इससे सारी हदें पार कर दीं। जहाँ – तहाँ , बदनीयती ही झलकने लगी। सारे रंग तिरंगे की ओर देखकर उससे पूछ रहे थे कि तुम्हें आसमान में स्थापित करने हेतु कितनों ने सीने पर हँसते – हँसते गोलियाँ खायीं हैं, और आज ये क्या हो गया ?

अपनी जायज नाजायज सभी माँगों को क्या तुम्हारे माध्यम से ही पूरा किया जावेगा। अभी भी समय है सभी रंग एकजुट होकर मातृभूमि के साथ खड़ें हो और तिरंगे को सलाम करते हुए गौरवान्वित हों।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 80 ☆ व्यंग्य कविता – आटा, डाटा और टाटा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  कविता “आटा, डाटा और टाटा“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 80

☆ व्यंग्य कविता – आटा, डाटा और टाटा☆

देखिए एक रोटी का आटा

गरीब का,

जियो जी भर कर दे रही डाटा

अमीर का,

देखिए हो रहा है ये घाटा

जनता का,

देखिए कर रहे हैं आंटा-सांटा

नेताओं का,

देखिए हर दम मिले चांटा

बाबाओं का,

देखिए मंत्री कर रहे हैं टाटा

हर काम का,

देखिए हो रहा है ये घाटा

अपने देश का,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 83 ☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 83 ☆

☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी

बैंक के वरिष्ठ क्लर्क लफड़े बाबू के यहाँ सबेरे से ही गहमागहमी है। बरामदे में आठ दस कुर्सियाँ डाल दी गयी हैं। दोस्त-रिश्तेदार सहानुभूति जताने और लफड़े बाबू के डिपार्टमेंट को कोसने के लिए बारी बारी से आकर उन पर बैठ रहे हैं। बीच में चेहरे पर भारी शिकायत का भाव लिये खुद लफड़े बाबू विराजमान हैं।

वजह यह थी कि लफड़े बाबू पिछले दिन बैंक में पैसों की हेराफेरी करने के मामले में सस्पेंड कर दिये गये थे। कुछ खातों में बरसों से जमाकर्ताओं के लाखों रुपये पड़े थे जिन्हें निकालने कोई नहीं आ रहा था। लफड़े बाबू से पैसों का यह दुरुपयोग नहीं देखा गया, सो उन्होंने अपने बीस पचीस साल के अनुभव का सदुपयोग करते हुए उस पैसे को निकाल लिया और उसे प्रत्यक्ष रूप से अपने विकास में और परोक्ष रूप से देश के विकास में लगा दिया। यह काम धीरे धीरे तीन चार साल में संपन्न हुआ, लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया और लफड़े बाबू खामखां सस्पेंड हो गये।

अब लफड़े बाबू हर आने वाले के सामने कैफ़ियत दे रहे थे—-‘ज़माना खराब है। सही काम का गलत नतीजा निकलता है। ठीक है, हमने हेराफेरी की। लेकिन हमारी नीयत और हमारा इरादा तो देखिए। लाखों रुपये बेमतलब खाते में पड़े हैं। कोई धनी-धोरी नहीं। हमने सोचा इस बेकार पड़े पैसे को किसी काम में लगा दिया जाए तो क्या गलत किया?आखिर उससे चार आदमियों को धंधा रोजगार मिला। उनका भला हुआ। बताइए क्या गलत किया?’

सामने बैठे शुभचिन्तक सहमति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू दुख और शिकायत के भाव से कहते हैं, ‘पचीस साल की सर्विस पर एक मिनट में पानी फेर दिया। ठीक है, आप एक्शन लीजिए, लेकिन आदमी की पोज़ीशन और उसकी सीनियरिटी पर भी गौर कीजिए। गधे घोड़े सब बराबर कर दिये। आज आखिर मेरी क्या इज्ज़त रह गयी स्टाफ के सामने? अखबार वालों को देखिए, वे अलग मज़ा लेने में लगे हैं।’

शुभचिन्तक फिर सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘ठीक कहते हैं। बहुत गलत हुआ। बड़ा अन्याय है। ‘

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘डिपार्टमेंट वालों को भी क्या दोष दें। ये जो सब कायदे कानून हैं, सब बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं। आदमी का कसूर देखा और छपी छपाई सज़ा दे दी। अब ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया तो ये नियम कायदे भी बदलना चाहिए। अगर आदमी हेराफेरी कर रहा है तो यह देखना चाहिए कि उसका इरादा और उद्देश क्या है। अगर इरादा अच्छा है तो सज़ा की क्या तुक है? लेकिन सब लकीर के फकीर हैं, पढ़े-लिखे मूरख। इनको कैसे समझाया जाए? हमारी सारी पोज़ीशन एक मिनट में धो कर धर दी।

‘डिपार्टमेंट कहता तो हम एक मिनट में सारा पैसा लौटा देते। जब कर नहीं तो डर काहे का? लेकिन कुछ समझना-पूछना ही नहीं है तो हम क्या करें भई?’
हमदर्द फिर सहानुभूति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू फिर दुखी हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सब कुछ ऐसा बढ़िया चल रहा था। खामखां लोगों ने परेशानी पैदा कर दी। यह सब कारस्तानी उस मिचके बाबू की है।’
हमदर्द पूछते हैं, ‘कौन मिचके बाबू?’

लफड़े बाबू जवाब देते हैं, ‘है एक। चश्मे के पीछे आँखें मिचकाता रहता है, इसलिए सब मिचके बाबू कहते हैं। अपने को बड़ा ईमानदार समझता है। जब देखो तब फाइलों में घुसा रहता है। एक फाइल से निकलेगा, दूसरी में घुस जाएगा। उसी की करतूत है। उसी ने फाइलों में घुसकर हमें फँसाया है।’

शुभचिन्तक कहते हैं, ‘बड़ा गड़बड़ आदमी है। आपको बेमतलब चक्कर में डाल दिया।’

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘बड़ा घटिया आदमी है। इसी ने भिंगे बाबू को भी फँसाया था। बेचारे आठ-दस साल से धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा पैसा खा रहे थे। किसी को हवा नहीं थी, लेकिन इसने सूँघ लिया और सीधे-सादे आदमी का कैरियर चौपट कर दिया। बेचारे को जेल हो गयी। अंधेर है।’

शुभचिन्तक फिर अपनी सहमति जताते हैं।

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘इस आदमी को ठीक ज़रूर करूँगा। साले का हुलिया बिगाड़ दूँगा। ज़रा इस मामले से बरी हो जाऊँ फिर देखता हूँ। बना बनाया कैरियर बिगाड़ दिया।’

शुभचिन्तक विदा लेने के लिए खड़े होते हैं। हाथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘यह आपकी परीक्षा की घड़ी है, लफड़े बाबू। आप इससे तप कर, सोना बनकर निकलेंगे, ऐसा हमारा पक्का विश्वास है।’

लफड़े बाबू भी हाथ जोड़ते हैं, कहते हैं, ‘हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद। इस परीक्षा से मैं निश्चय ही तप कर, बेहतर बन कर निकलूँगा। आप देखना, इससे मेरी पर्सनैलिटी में और निखार आएगा। जो होता है, अच्छे के लिए होता है। अपनी नीयत ठीक रखना चाहिए।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 51 ☆ आशीर्वाद बना रहे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “आशीर्वाद बना रहे”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 51 – आशीर्वाद बना रहे☆

व्याधि, उपाधि ,समाधि इन सबको अंगीकार कर जब व्यक्ति सफलता के मद में डूबता उतराता है तभी कहीं से ये आवाज सुनाई पड़ती है।

अपनी योग्यता को बढ़ाते हुए ही तुम्हें नंबर वन बनने की आवश्यकता है। यदि नींव का पत्थर चिल्ला-चिल्ला कर ये कहे कि मेरे ऊपर ही बिल्डिंग के सारे माले का भार है परंतु ऊपरी माले के लोग मुझे पहचानते भी नहीं  तो इसका क्या उत्तर होगा ?

जाहिर सी बात है कि समय के साथ -साथ एक -एक पायदान छूटते ही जाते हैं। कई बार बता कर सम्मान पूर्वक अलग किया जाता है तो कई बार धोखे से, पर परिणाम वही रहता है। सफलता की सीढ़ियाँ होती ही ऐसी हैं, जहाँ येन केन प्रकारेण धक्का देते हुए ही लोग आगे बढ़ते हैं और अंत में जब ठोकर लगती है तब एक ही झटके में मुँह के बल नीचे आ गिरते हैं और इस समय एकदम अकेले होकर नींव की ओर देखते हैं। पर बेरुखी झेलते हुए नींव के पत्थर इस घटना को भी मूक दर्शक बन कर झेल जाते हैं।

हर कदम पर साए की तरह साथ – साथ चलते रहे, बिना कुछ कहे; हर सही गलत के न केवल साक्षी बनें वरन साथ भी दिया। फिर भी हमें लगातार उपेक्षित किया गया आखिर क्यों ? अब जो भी होगा वो तुम्हें अकेले झेलना होगा। नींव के पत्थरों ने मन ही मन फैसला करते हुए कहा।

उसने भी हाथ को जमीन में टेक कर उठते हुए कहा अभी भी मैं युवा हूँ। नए सिरे से पुनः सबको जोड़कर  सफलता के शीर्ष पर विराजित होऊँगा।

नींव ने कहा जरूर, जो परिश्रमी होता है उसे सब कुछ मिलता है , थोड़ा धैर्य रखो और सबको लेकर आगे बढ़ो।

अरे दादा , सबके सहयोग से ही बढ़ता हूँ , पर जो अनावश्यक हुज्जत करके, टांग खींचते हैं उन्हें छोड़ता जाता हूँ क्योंकि मेरे पास इतना समय नहीं है कि उनको समझाता रहूँ। वैसे भी शीर्ष पर स्थापित होना और वहाँ बने रहना कोई आसान नहीं होता।

जो भी एकाग्रता से मेहनत करेगा उसे अवश्य ही ऊपर स्थान मिलेगा। चुनौतियों का सामना करिए, ऊपर वाला उसी की परीक्षा लेता है जिसे वो कुछ देना चाहता है।

सो तो है। अबकी बार नई रणनीति से कार्य करूँगा। जो साथ चले चलता रहे , जितना सहयोग करना हो करे , जहाँ छोड़ कर जाना हो जाए। अपनी ऊर्जा बस लक्ष्य प्राप्ति की ओर ही लगाना है।

यही तो खूबी है तुम्हारी, तभी तो एक – एक कर निरन्तर बढ़ते जा रहे हो। नेतृत्व करने हेतु हृदय को विशाल करना पड़ता है। तेरा तुझको अर्पण करते हुए चलने से ही लोग जुड़ते हैं।

सो तो है। बस आधारभूत स्तम्भ बनें रहें, फिर चाहें जितने माले तैयार करते चलो कोई समस्या नहीं आती है।

रेत और सीमेंट का सही जोड़ हो और पानी की तराई भी भरपूर हो,   तभी दीवालों में मजबूती रहेगी। अन्यथा दरार पड़ते देर नहीं लगती है। पहले माले में नेह रूपी जल सींचा गया था जिससे सारे झटके सहते चले गए पर अबकी बार भगवान ही बचाए।

खैर ये सब तो जीवन का हिस्सा है। बड़ों का आशीष बना रहे और क्या चाहिए।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 17 ☆ व्यंग्य ☆ ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 17 ☆

☆ व्यंग्य – ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆

आर्यावर्त का नागरिक श्रीमान, रिश्वत देकर दुखी नहीं है – रिश्वत देकर भी काम नहीं होने से दुखी है. उस दिन दादू मुझे भी अपने साथ ले गया, दफ्तर में सीन कुछ इस तरह था.

“गज्जूबाबू, आपने ही थर्टी थाउजन्ड की कही थी. अब पाँच और किस बात के ? पहली बार में आपने जित्ते की कही उत्ते पूरे अडवांस में गिन दिये हैं हम.”

“अरे तो तो कौन सा एहसान कर दिया यार ? काम के बदले में ही तो दिये हो ना. लाइसेन्स फिरी में बनते हैं क्या ? सत्तर टका तो साहब को ही शेयर करना पड़ता है. बाँटने-चुटने के बाद हमारे पास बचेगा क्या..” – वे ‘बाबाजी का कुछ’ जैसा बोलना चाह रहे थे मगर रुक गये.

“हमने आपसे मोल-भाव तो करा नहीं, कि आदरणीय गजेंद्र भाई साब दो हजार कम ले लीजिये, प्लीज……जो अपने कही सोई तो हमने करी, अब आप आँखे तरेर रहे हो ?”

“अरे तो दफ्तर में जिस काम का जो कायदा बना है सो ही तो लिया है. रेट उपरवालों ने बढ़ा दिये तो क्या मैं अपनी जेब से भुगतूंगा?”

सारी हील-हुज्जत दफ्तर में, वर्किंग-डे में, गज्जूबाबू की डेस्क पर ही चल रही थी. ब्रॉड-डे लाईट में ब्लैक डील. मीटर भर के रेडियस में बैठे सहकर्मी और कुछ आगंतुक सुन तो पा रहे थे मगर असंपृक्त थे, मानों कि आसपास कुछ भी असामान्य नहीं घट रहा है. नियम कायदे से गज्जूबाबू सही हैं और नैतिक रूप से दादू. ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा.

“पर जुबान की भी कोई वेलू होती है गज्जूबाबू.”

“तुम कुँवर गजेंद्रप्रताप सिंह की जुबान को चैलेंज करोई मती” – तमतमा गये वे – “जो गज्जूबाबू ने ठेकेदारों की कुंडलियाँ बांचनी शुरू की ना तो सबकी जुबान को फ़ालिज मार जायेगा.”

“नाराज़ मत होईये आप. इस बार थर्टी में कर दीजिए, अगली बार बढ़ाकर ले लेना.”

“यार तुम ऐसा करो, वापस ले जाओ एडवांस, हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. यहाँ दस लोग लाईन लगाकर पैसे देने को तैयार खड़े हैं, और तुमसे ज्यादा देने को तैयार हैं.”

मैंने धीरे से समझाया – “दादू, देश में पूरे एक सौ तीस करोड़ लोग रिश्वत दे कर काम कराने का मन बना चुके हैं. कॉम्पटीशन लगी पड़ी है, कौन ज्यादा देकर काम करा ले जाता है. इसी काम के कैलाश मानके चालीस देने को तैयार है, कह रहा था एक बार एंट्री मिल जाये बस.”

“ठीक है गज्जूबाबू. नाराज़ मत होईये, पाँच और दिये देते हैं, आप तो लायसेंस निकलवा दीजिये.”

“नहीं, अब हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. वो तो तुम ठहरे मनख हमारे गाँव-दुआर के, सो तुम्हें लिफ्ट दे दी…….वरना कमी है क्या काम करानेवालों की. तुम तो अपना एडवांस वापस ले जाओ.” – कहकर वे जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने की एक्शन करने लगे, मानो कि लौटा ही देंगे एडवांस.

“गुस्सा मत करिये भाई साब, गाँव-दुआर के लानेई रिक्वेस्ट करी आपसे.” – दादू ने मानिकचंद का पाउच खोलकर ऑफर किया जो स्वीकार कर लिया गया. भरे मुँह से कुछ देर और ज़ोर करवाया गज्जू बाबू ने, फिर डेस्क के नीचे की डस्टबिन में गुटका और गुस्सा दोनों थूक कर पूरे पाँच जेब के हवाले किये. टेबल के नीचे से नहीं, न ही बाहर चाय के ठेले पर कोडवर्ड के साथ. ग्राउंड जीरो पर ही.

हम इस सुकून के साथ बाहर निकले कि रिश्वत के एरियर भुगतान भी कर दिया है, अब तो शायद काम हो ही जाये. निकलते निकलते मैंने कहा – “दादू आप लक्की हो, बक़ौल ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘द इंडिया करप्शन सर्वे 2019’ के आप देश के उन 51 फीसदी लोगों में शुमार हो जो जिन्होने बीते एक बरस में रिश्वत देने का काम किया है. अब ये जो बचे 49 फीसदी लोग हैं ना, ये भी देना तो चाहते थे बस गज्जू बाबूओं तक पहुँच नहीं पाये.”

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और सीसीटीवी ? कमाल करते हैं आप – देश और दफ्तर दोनों के खराब पड़े हैं.

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शांतिलाल जैन.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79 ☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य “कोहरे की करामत“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79

☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत☆

मत कहो आकाश में कोहरा घना है…. क्यों न कहें भाई। कोहरे ने दिक्कत दे कर रखी है। ऐसा कोहरा तो कभी नहीं देखा।

गांव की सर्द कोहरे वाली सुबह में बाबू फूंक फूंक कर चाय पी रहा था और उधर गांव भर में हल्ला मच गया कि कोहरे के चक्कर में गंगू की बहू बदल गई। पांच-छै दिन पहले शादी के बाद बिदा हुई थी।शादी के नेंग- ढेंग निपटने के बाद बाबू को थोड़ा चैन आया था। कड़ाके की ठंड में अभी चार रात बीती थी, और पांचवें दिन सुबह सुबह शर्माते हुए गंगू ने ये बात बतायी कि बहू गैर जात की है, बाबू सुनके दंग रह गया ….. बाबू को याद आया कोहरे के चक्कर में सब गाड़ियां बीस – बाईस घंटे लेट चल रहीं थीं और कई तो रद्द हो गई थीं। स्टेशन पर धकापेल भीड़ और आठ – दस बरातों के बराती थे उस दिन…….

भड़भड़ा के गाड़ी आ गई थी तो जनरल बोगी में रेलमपेल भीड़ के रेले में घूंघट काढ़े तीन चार बहूएं भीड़ में फंस गई और गाड़ी चल दी…दौड़ कर गंगू बहू को पकड़ के शौचालय के पास बैठा दिया और खुद शर्माते हुए बाबू के पास बैठ गया । गांव की बारात और गांव की बहू। चार पांच स्टेशन के बाद गंगू की बारात उतर गई। क्या करे कोई यात्रियों और बारातियों की बेहिसाब भीड़ थी उस दिन…………

बाबू के काटो तो खून नहीं अपने आप को समझाया । खैर, अब क्या किया जा सकता है भगवान तो जोड़ी बनाकर भेजता है। अग्नि को साक्षी मानकर फैरे हुए थे 14 वचन हुए थे , हाय रे निर्लज्ज कोहरा तुमने ये क्या कर दिया….। अब क्या हो सकता है चार रात भी गुजर गईं…. हार कर बाबू घूंघट और कोहरे की कलाबाजी को कोसता रहा। गांव वालों ने कहा बेचारा गंगू भोला भाला है शादी के पहले गंगू को लड़की दिखाई नहीं गई, नाऊ और पंडित ने देखी रही अच्छा घर देख के जल्दबाजी में शादी हो गई गंगू की गलती नहीं है गंगू की हंसी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। गंगू निर्दोष है।

थोड़ा सा कुहरा छटा तो सबने सलाह दी कि शहर के थाने में सारी बातें बता देनी उचित रहेगी…. सो बाबू गंगू को लेकर शहर तरफ चल दिए। थाने पहुंच कर सब हालचाल बताए तो पुलिस वाले ने गंगू को बहू चोरी के जुर्म में बंद कर दिया। बाबू ने ईमानदारी से बहुत सफाई दी कि कोहरे के कारण और सब ट्रेनों के लेट होने से ऐसा धोखा अनजाने में हुआ,  उस समय कोहरा और ठंड इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। पुलिस वाला एक न माना कई धाराएं लगा दीं। बाबू बड़बड़ाया ईमानदारी का जमाना नहीं रह गया जे कोहरे ने अच्छी दिक्कत दे दी और नये लफड़ेबाजी में फंस गए, ऊपर से कई लाख के सोना चांदी पहने असली बहू भी न जाने कहाँ चली गई।

कोहरे के कुहासे में एक सिपाही बाबू को एक किनारे ले जाकर जेब के सब पैसे छुड़ा लिये। बाबू को फिर से पूछताछ के लिए इस बार थानेदार ने अपने चेम्बर में बुलाया।

इस तरफ अंगीठी में आग तापते कई सिपाही बतखाव लगाए थे कोहरा और ठंड के साथ सरकार को गालियां बक रहे थे। कोहरे की मार से सैकड़ों ट्रेनों के लेट होने की चर्चा चल रही थी रेल वाले सुपर फास्ट का पैसा लेकर गाड़ी पैदल जैसी चला रहे हैं हजारों बेरोजगार लड़के-लड़कियां इन्टरव्यू देने से चूक रहे थे, शादी विवाह के मुहूर्त निकल रहे थे, कोहरे से हजारों एक्सीडेंट से बहुत मर रहे थे और थाने में ज्यादा केस आने से काम बढ़ रहा था…. बाबू चुपचाप खड़ा सुन रहा था और गंगू अंगीठी की आग देखकर सुहागरात और रजाई की याद कर रहा था। बाबू से नहीं रहा गया तो दहाड़ मार के रोने लगा…… एक सिपाही ने उठकर बाबू को दो डण्डे लगाए और चिल्ला कर बोला – कोहरे की मार से सूरज तक नहीं बच पा रहा है और तुम कोहरे का बहाना करके अपराध से बचना चाहते हो, अपराधी और निर्दोष का अभी सवाल नहीं है फंसता वही है जो मौके पर हाथ आ जाए और ठंड में बड़े साहब का खुश होना जरूरी है हमें तुम्हारी परेशानी से मतलब नहीं है हमें तो साहब की खुशी से मतलब है। बाबू कुकर के चुपचाप बैठ गया।

शाम हो चुकी थी कोहरा और गहरा गया था, थानेदार मूंछों में ताव देकर खुश हो रहा था।  थानेदार ने सिपाही को आदेश दिया – भले रात को कितना कुहरा फैल जाए पर बहू को बयान देने के लिए बंगले में उपस्थित कराया जाय………..

कोहरा सिर्फ कोहरा नहीं होता, कोहरा जब किल्लत बन जाता है तो बहुत कुछ हो जाता है। बाबू कोहरे को लगातार कोसे जा रहा है और बड़बड़ाते हुए कह रहा है ये साला कोहरा तो हमारे लिए थानेदार बन गया। और थानेदार कोहरे और ठंड में रजाई के सपने देख रहा था बहू को बंगले में कोहरा और ठंड के साथ बुलवाने का बहाना कर रहा है। बयान देने के बहाने बहू को थानेदार के बंगले पहुंचाया गया। बाबू चुपचाप देखता रहा, गंगू मार खाने के डर से कुछ नहीं बोला …. बहुत देर बाद एक सिपाही से बाबू बोला – गरीबों का भगवान भी साथ नहीं देता, ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता रे………..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 82 ☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘चला-चली का खेला ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 82 ☆

☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला

नगर की जानी-मानी सांस्कृतिक संस्था ‘हंगामा’ ने सुराचार्य का संगीत कार्यक्रम आयोजित किया। ‘सांस्कृतिक’ शब्द बड़ा व्यापक है। उसमें घटिया से लेकर बढ़िया तक सब कार्यक्रम खप जाते हैं। ‘हंगामा’ सचमुच हंगामा ही था। उसके सदस्य बड़े उत्सव-प्रेमी थे। हास्य व्यंग्य के कवि-सम्मेलन से लेकर जादू प्रदर्शन, संगीत, सब चलता था। कुछ हो जाए,पोस्टर लग जाएं, अखबारों में सदस्यों के नाम और फोटो -वोटो छप जाएं तो सदस्यों को लगता था कि जीवन सार्थक हो गया।

सुराचार्य जी के पोस्टर नगर में जगह जगह लगे। टिकिट रखे गए सौ रुपये, दो सौ रुपये और पाँच सौ रुपये। फटेहाल संगीत-प्रेमियों ने रेट देखा तो ठंडी साँस भरी। वैसे भी ज्यादातर टिकिट बिक गये क्योंकि संगीत-प्रेमियों की कमी भले ही हो,मालदारों की कमी नहीं है। पाँच सौ रुपये का टिकिट खरीद कर ठप्पे से कार्यक्रम में जाने का मज़ा ही और है। मंहगा टिकिट खरीदने से कल्चर्ड होने का प्रमाणपत्र मिलता है, फिर भले ही कुर्सी पर बैठे ऊँघते रहो और मालकौस को भैरवी समझते रहो। पाँच सौ रुपये वाली सीट से दो सौ और सौ रुपये वाली सीटों पर बैठे लोग अधम लगते हैं। उनसे भी अधम वे होते हैं जिनकी ऐसे कार्यक्रम में घुसने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।

तो धन इकट्ठा हो गया और सुराचार्य जी पधार गये। रात को कार्यक्रम हुआ। टिकिटों के खरीदार ऐसे सजे-धजे आये जैसे किसी बरात में जा रहे हों। मैं भी अपनी हैसियत के खिलाफ पाँच सौ रुपये वाली सीट पर डटा था। वजह यह थी कि पत्रकार होने के नाते आयोजकों ने ससम्मान बुलाया था, इस उम्मीद पर कि फोकट में  पाँच सौ रुपये की सीट का आनंद लेकर अखबार में कार्यक्रम की जयजयकार करूँगा।

सुराचार्य जी रेशमी कुर्ते-पायजामे में थे। ऊपर से शाल। भव्य लग रहे थे। हारमोनियम के सुर छेड़कर उन्होंने दो तीन हल्की फुल्की गज़लें सुनायीं। उसके बाद शुरू किया ‘दो दिन का जग में मेला, सब चला चली का खेला। ‘

थोड़ी देर में वातावरण विषादमय हो गया। लोग भावविभोर हो रहे थे। सबके सिर दाहिने-बायें ऐसे घूम रहे थे जैसे चाबी वाले बबुओं के घूमते हैं। सुराचार्य जी सबमें श्मशान-वैराग्य जगा रहे थे।

मेरे बगल में बैठे एक अधेड़ सज्जन आँखें मूँदे इस तरह सिर हिला रहे थे जैसे उन पर हाल आने वाला हो। थोड़ी देर बाद वे आँखें खोलकर मेरी तरफ देखकर बड़े दुखी भाव से बोले,’सच है जी। संसार सब झूठा है। आदमी की जिंदगी पानी का बुलबुला है। पल में फूट जायेगा जी। सब बेकार है। ‘

फिर वे और दुखी भाव से बोले,’मैंने भी बोत गल्त तरीके से पैसा कमाया जी। आतमा को बेच दिया। बोतों को रिश्वत खिलायी। बोतों को धोखा दिया। बोत झूठ बोला। आज बड़ा पछतावा हो रहा है। ‘

उन्होंने कानों को हाथ लगाया। मैं घबराया कि अब वे जीवन भर का संचित तत्व ज्ञान मुझे देंगे। कहीं भाग भी नहीं सकता था क्योंकि आसपास कोई सीट खाली नहीं दिखी। सौभाग्य से वे फिर आँखें मूँद कर पश्चाताप में डूब गये।

सुराचार्य जी अब भी ‘चला चली का खेला’ की रट लगाये थे ओर वातावरण ऐसा भारी हो रहा था कि हर एक के ऊपर मनों और टनों के हिसाब से बैठ रहा था। सब श्रोता आँखें बंद किये ठंडी सांसें भर रहे थे। मुझे लग रहा था कि आज इनमें से आधे खुदकुशी कर लेंगे और बाकी कल सबेरे कमंडल लेकर हिमालय की तरफ निकल जायेंगे। मेरी समझ में इतने लोग समाज से खारिज हो गये थे।

थोड़ी देर में ‘चला चली का खेला’ खत्म हुआ और सुराचार्य जी ने एक खासी रोमांटिक गज़ल छेड़ दी,जिसमें नायिका से कहा गया था कि उसका चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल हैं इसलिए वही एकमात्र धनवान है, बाकी सब कंगाल हैं। मुझे याद नहीं कि चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल बताये गये थे या सोने जैसा रंग और चाँदी जैसे बाल। बहरहाल अब उसाँसें बंद हो गयीं थीं और लोग फिर से चैतन्य होकर दिमाग से श्मशान की भस्म झाड़ रहे थे।

मेरी बगल वाले सज्जन उठकर खड़े हो गये। अब वे एकदम प्रफुल्लित, चतुर और चौकस दिख रहे थे।

मैंने पूछा,’कहाँ चले जी?’

वे बोले, ‘दुकान पर छोटे लड़के को बैठा आया हूँ जी। थोड़ा चालू है। मौका मिल जाता है तो चालीस पचास रुपये दबा लेता है। आधा प्रोग्राम देख लिया तो समझिए ढाई सौ रुपये तो वसूल हो गये। बाकी आधे धंधे के नुकसान खाते में डाल देंगे। ‘

थोड़ी देर बाद कार्यक्रम खत्म हुआ। मैं स्टेज के भीतर गया तो वहाँ आयोजक करम पर हाथ धरे बैठे थे। मैंने उनकी मिजाज़पुरसी की तो एक बिफरकर बोला, ‘सुराचार्य पूरे चालीस हजार की माँग कर रहा है। टस से मस नहीं हो रहा है। बात ज़रूर चालीस की हुई थी लेकिन इतना पैसा इकट्ठा नहीं हुआ। पैंतीस हजार दे दिये। घंटे भर से हाथ जोड़ रहे हैं लेकिन दो हजार भी छोड़ने को तैयार नहीं है। ‘

दूसरा आयोजक दाँत पीस कर बोला, ‘हमको चला चली का खेला सुनाता है और खुद चालीस हजार पर अड़ा हुआ है। चला चली का खेला है तो पैसे क्या छाती पर रख कर ले जायेगा?’

मेरे पास उनके लिए सांत्वना के शब्द नहीं थे। सुराचार्य जी अब भी तख्त पर जमे आग्नेय दृष्टि से आयोजकों को भस्म कर रहे थे।

इतने में कुछ और खलबली मची। पता चला, एक्साइज वाले आ गये हैं और आयोजकों की धरपकड़ हो रही है। मामला मनोरंजन-कर की चोरी का बन गया था। अब आयोजक गश खाने की हालत में आ गये थे और सुराचार्य जी पहलू बदलकर भागते भूत की लंगोटी स्वीकार करने की मुद्रा में आयोजकों को बुलावे पर बुलावे भेज रहे थे। लेकिन अब आयोजकों के पास उनकी बात पर कान देने का वक्त नहीं था।

कुल मिलाकर वातावरण खासा दुनियादारी का हो गया था और ‘चला चली का खेला’ वाले मूड की चिन्दी भी अब वहाँ ढूँढ़े नहीं मिल सकती थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 50 ☆ अक्ल से पैदल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अक्ल से पैदल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 50 – अक्ल से पैदल ☆

क्या किया जाए जब सारे अल्पज्ञानी मिलकर अपने -अपने ज्ञान  के अंश को संयोजित कर कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हों ?

कभी- कभी तो लगता है, कि इसमें बुराई ही क्या है  ?

ये सच है, कार्य किसी के लिए नहीं रुकता, चाहे वो कोई भी क्यों न हो । यही तो खूबी है मनुष्य की, वो जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चरैवेति – चरैवेति के पथ पर अग्रसर हो अपने कार्यों को निरन्तर अंजाम देता जा रहा है । इसी कड़ी में यदि मौके पर चौका लगाते हुए लोग भी, गंगा नहा लें तो क्या उन्हें कोई रोक सकता है ? अरे ,रोकें भी क्यों? आखिर जनतंत्र है । भीड़ का जमाना है । जितने हाथ उतने साथ; सभी मिलकर सभाओं की रौनक बनाते हैं । कोई भी सभा हो, वहाँ गाँवों से ट्रालियों में भरकर लोग लाए जाते हैं । उन्हें जिस दल का गमछा मिला उसे लपेटा और बैठ गए; पंडालों में बिछी दरी पर । समय पर चाय नाश्ता व भोजन, बस अब क्या चाहिए ? पूरा परिवार जन बच्चे से ऐसे ही सभी आंदोलनों में शामिल होता रहता है । मजे की बात तो ये की है कि पहले सड़क पर आना खराब समझा जाता था परंतु अब तो सत्याग्रह के नाम पर सड़कों को घेर कर ही आंदोलनकारी अपने आप को गांधी समर्थक मानते हैं ।

धीरे – धीरे ही सही लोग सड़कों पर उतरने को अपना गौरव मानने लगे हैं । चकाजाम तो पहले भी किया जाता रहा है किंतु इक्कीसवीं सदी के सोपान पर चढ़ते हुए हम सड़कों को ही जाम करने लगे हैं । ठीक भी है जब चंद्रमा और मंगलग्रह के वासी होने की इच्छा युवा दिलों में हो तो ऐसा होना लाजमी ही है ।  अब हम लोग हर चीज का उपयोग करते हैं, तो सड़कों का भी ऐसा ही उपयोग करेंगे । भले ही हमारा बसेरा आसमान में हो किन्तु हड़ताल धरती पर ही करेंगे क्योंकि वो तो हमारी माता है और माँ का साथ कोई कैसे छोड़ सकता है ? कभी- कभी तो लगता है ; ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि सच्चा लोकतंत्र तो गाँवों में बसता है । राजनैतिक या धार्मिक कोई भी आयोजन हो सुनने वाले वही लोग होते हैं, जो एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की खूबी रखते हों । ये सब देखते हुए वास्तव में लगता है कि लोकतंत्र कैसे भीड़तंत्र में बदल जाता है और हम लोग असहाय होकर देखते रह जाते हैं ।  लोग बस इधर से उधर तफरी करते हुए घूमते रहते हैं , जहाँ कुछ नया दिखा वहीं की राह पकड़ कर चल देते हैं ।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।

बस इसी दोहे को अपना गुरु मानकर घर से निकल पड़ो और जहाँ आंदोलन हो रहा हो वहाँ जमकर बैठ जाओ । याद रखो कि पहला  कार्य सभी लोग नोटिस करते हैं अतः उसे विशेष रूप से ध्यानपूर्वक करें । जब आपका नाम ऐसे आयोजनों में लिख जाए तो चैन की बंशी बजाते हुए अपनी धूनी रमा लीजिए । यदि उद्बोधनों से आपका नाम छूटने लगे तो समझ लीजिए की आपको अपने ऊपर कार्य करने की जरूरत है । तब पुनः जोर- शोर से कैमरे के सामने आकर हमारी माँगें पूरी करो… का नारा लगाने लगें, भले ही माँग क्या है इसकी जानकारी आपको न हो । क्योंकि प्रश्न पूछने वाले भी प्रायोजित ही होते हैं , ऐसे आयोजनों में उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो अक्ल से पैदल होकर वैसे ही प्रश्नों को पूछें जैसे आयोजक चाहता हो ।

सड़क और ग्यारह नंबर की बस का रिश्ता बहुत गहरा होता है । इनके लिए विशेष रूप से फुटपाथ का निर्माण किया जाता है जहाँ ये आराम से अपना एकछत्र राज्य मानते हुए विचरण कर सकते हैं तो बस ; आंनद लीजिए और दूसरों को भी दीजिए । जो हो रहा है होने दीजिए ।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 81 ☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘बेख़ुदी के लमहे। चित्रकार, कलाकार और ऐसे ही मिलते जुलते पेशे के लोगों की बेखुदी के लमहों के भी क्या कहने? डॉ परिहार सर के लेखनी के जादू ने तो ऐसे पात्र का सजीव शब्दचित्र ही खींच कर रख दिया। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 81 ☆

☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे

तुफ़ैल भाई हमारे शहर के एकमात्र बाकायदा मान्यता-प्राप्त चित्रकार हैं। बाथरूम पेन्टर तो बहुत से होंगे, उनसे हमें क्या लेना-देना।  बाथरूम में मोर नाचा,किसने देखा?

तुफ़ैल भाई अपनी हरकतों की वजह से अक्सर चर्चा में रहते हैं। उनके पास एक छोटी सी कार है जिसे उन्होंने चलता-फिरता कैन्वास बना रखा है। कार पर सब तरफ पेन्टिंग बनी है,जिसमें से कहीं आदमी की आँख, कहीं घोड़े का थूथन, कहीं बैल के सींग नज़र आते हैं। कार में कैन्वास, ब्रश और पेन्ट लादे वे पूरे शहर में घूमते रहते हैं और जहाँ मन होता है वहाँ ब्रश पेन्ट निकालकर शुरू हो जाते हैं। चौराहों पर खड़ी कई गायों की चमड़ी को वे समृद्ध, सुन्दर और मूल्यवान बना चुके हैं। कभी शास्त्री पुल पर कैन्वास टिकाकर पेन्टिंग शुरू कर देते हैं और ट्रैफिक गड़बड़ा जाता है।

तुफ़ैल भाई पक्के कलाकार हैं। जूते वे पहनते नहीं, क्योंकि जूते पहनने से काम बढ़ता है और ध्यान बँटता है। इतना क्या कम है कि कपड़े पहने रहते हैं। एक बार उसमें भी गड़बड़ हो गया। एक पान की दूकान पर पान खाने उतरे तो पता चला कुर्ता तो पहन आये, पायजामा घर में ही छूट गया। लोगों ने वापस उन्हें कार में बन्द कर दिया और एक आदमी को दौड़ा कर घर से पायजामा मंगवाया। अपने शहर के भद्र समाज को वे ऐसे ही संकट में डालते रहते थे।

तुफ़ैल भाई धूम्रपान को रचनाशीलता का ज़रूरी हिस्सा मानते हैं लेकिन वे सिगरेट की बजाय बीड़ी पसन्द करते हैं। उनका मत है कि बीड़ी ज़मीन की चीज़ है, जनता के पास पहुँचने में मददगार होती है।

एक बार वे भारी लफड़े में पड़ गये थे।  अपना कैन्वास-कूची लेकर वे एक भद्र परिवार की विवाहित युवती के पीछे पड़ गये थे। उनका कहना था कि उक्त नारी का सौन्दर्य ‘परफेक्ट’ है और इसलिए कलाकार होने के नाते इच्छानुसार उससे बातचीत करने और उसका चित्र बनाने का उन्हें हक है। मुश्किल यह है कि अभी हमारा समाज कलाकारों की अभीष्ट कद्रदानी नहीं जानता। युवती के परिवार के कुछ मूर्ख युवकों ने तुफ़ैल भाई पर हमला बोल दिया। लड़ाई में उनके चार कैन्वास, छः ब्रश और बायें हाथ की हड्डी काम आयी। वह तो अच्छा हुआ कि उनका दाहिना हाथ बच गया, अन्यथा कला जगत की भारी क्षति हो जाती।

कुछ दिन बाद मैंने अपने घर की मरम्मत कराके उसकी रंगाई-पुताई करायी। घर की सूरत निखर आयी तो घर के लोगों का मन बना कि उसमें एक दो पेन्टिंग टाँगी जाएं। जब आदमी का धन -पक्ष मज़बूत हो जाता है तो उसका ध्यान कला-पक्ष की तरफ जाता है ताकि दुनिया को लगे कि उसके पास माल के अलावा तहज़ीब और नफ़ासत भी है।

हुसेन और रज़ा को टाँगने की अपनी हैसियत नहीं थी, इसलिए तय हुआ कि फ़िलहाल तुफ़ैल भाई को टाँगकर काम चलाया जाए। ‘तुफ़ैल’ नाम भी कुछ ऐसा था कि कमज़ोर नज़र वाला उसे ‘हुसैन’ समझ सकता था। ज़्यादातर लोग पेन्टर का नाम देखकर ही यह निर्णय ले पाते हैं कि पेन्टिंग महत्वपूर्ण है या नहीं।

तुफ़ैल भाई के घर पहुँचा तो पाया कि गेट से लेकर दीवारें तक उनकी कला के नमूनों से सजी हैं। बरामदे में उनका एक चेला गन्दा कुर्ता पहने बेतरह दाढ़ी खुजा रहा था। लगता था किसी भी क्षण उसकी दाढ़ी से पाँच दस जूँ टपक पड़ेंगे।

मैंने उससे कहा कि मैं तुफ़ैल भाई से मिलना चाहता हूँ तो वह दाढ़ी खुजाने के आनन्दातिरेक में आँखें बन्द करके बोला, ‘नामुमकिन’।

मैंने वजह पूछी तो वह हाथ को विराम देकर बोला, ‘उस्ताद आजकल एक महान पेन्टिंग की तैयारी में डूबे हैं। दिन रात उसी के बारे मे सोचते रहते हैं। हर पेन्टिंग के पहले यही हालत हो जाती है। न खाते-पीते हैं, न सोते हैं। एकदम बेख़ुदी की हालत है। दीन-दुनिया का होश नहीं है। जब तक पेन्टिंग पूरी नहीं हो जाती, ऐसा ही जुनून सवार रहेगा। ‘

फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर बोला, ‘इस बार जो पेन्टिंग बनेगी वह पिकासो की ‘गुएर्निका’ को पीछे छोड़ देगी। आप देखना, दुनिया भर के पेन्टर उस्ताद को सलाम करने दौड़े आएंगे। ‘

मैंने प्रभावित होकर कहा, ‘मुझे उस्ताद की एक दो पेन्टिंग खरीदनी हैं। ‘

वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोला, ‘अभी तो भूल जाइए। उस्ताद की इजाज़त के बिना पेन्टिंग मिलेगी नहीं, और उस्ताद को अभी इस दुनिया में वापस लौटा लाना बहुत मुश्किल है। ‘

फिर वह मुझसे बोला, ‘आइए, आपको उस्ताद की हालत दिखाते हैं। ‘

मैं उसके पीछे हो लिया। एक खिड़की के पास रुककर इशारा करते हुए वह बोला, ‘देखिए। ‘

मैंने खिड़की से झाँका।  अन्दर कमरे में तख्त पर तुफ़ैल भाई ऐसे चित्त पड़े थे जैसे दीन-दुनिया से पूरा रिश्ता ही टूट गया हो। मैंने घबराकर चेले से पूछा, ‘तबियत तो ठीक है?’

वह फिर दाढ़ी खुजाते हुए हँस कर बोला, ‘फिकर की बात नहीं है। ऐसा तो होता ही रहता है। लेकिन परेशानी बहुत होती है। अभी कल उस्ताद के लिए चाय लाकर रखी। थोड़ी देर में देखा कि चाय ज्यों की त्यों रखी है और कूची धोने वाला कप खाली हो गया है। क्या कीजिएगा। कलाकारों के साथ यही मुश्किल सामने आती है। ‘

मैंने मायूस होकर कहा, ‘ठीक है। बाद में आ जाऊँगा। ‘

इतने में तख्त से एक कमज़ोर आवाज़ आयी, ‘कौन है, शेख़ू?’

चेला चमत्कृत होकर बोला, ‘ये सिंह साहब आये हैं, उस्ताद। पेन्टिंग देखना चाहते हैं। ‘

तुफ़ैल भाई उसी तरह आँखें बन्द किये बोले, ‘चाबियाँ लेकर दिखा दे। ‘

चेला एक कील से चाबियाँ उतारकर मुझे एक कमरे में ले गया। वहाँ सैकड़ों पेन्टिंग अलग अलग दीवारों से टिकी थीं। वह इशारा करके बोला, ‘देख लीजिए। ‘

मैंने पेन्टिंग उलट पलट कर देखीं। कुछ समझ में नहीं आया। चेला एक हाथ कमर पर रखे दाढ़ी खुजाता खड़ा था। शर्मिन्दगी से बचने के लिए मैंने ढेर में से दो पेन्टिंग निकाल लीं। चेले से कहा, ‘ये दोनों मुझे पसन्द हैं। ‘

चेला निर्विकार भाव से बोला, ‘उस्ताद से पूछना पड़ेगा। ‘

हम फिर झरोखे पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई उसी तरह बेजान पड़े थे। चेला बोला, ‘वो आदिवासियों वाली दो पेन्टिंग लेना चाहते हैं।

तुफ़ैल भाई के ओठों में जुम्बिश हुई। आवाज़ आयी, ‘बीस हज़ार ले ले। ‘

मैंने कुछ शर्मिन्दगी के भाव से कहा, ‘तुफ़ैल भाई, मुझे पाँच छः हज़ार से ज़्यादा की गुंजाइश नहीं है। ‘

लाश में से आवाज़ आयी, ‘मुरमुरा ख़रीदने निकले हैं क्या?’

मैं लज्जित होकर चुप हो गया। तख्त से फिर आवाज़ आयी, ‘पन्द्रह हज़ार दे जाइए। ‘

मैंने कहा, ‘चलता हूँ तुफ़ैल भाई। ख़ामख़ाँ आपको तक़लीफ़ दी। ‘

मैं दरवाज़े से बाहर निकला ही था कि चेले ने पीछे से आवाज़ दी। हम फिर खिड़की पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई के शरीर से फिर आवाज़ आयी, ‘दस हज़ार से कम नहीं होगा। वैसे बाज़ार में पचास पचास रुपये वाली भी मिलती हैं। ‘

चेला अपने गुरू को सुनाकर बोला, ‘आपको ये मिट्टी मोल पड़ रही हैं। आर्ट का मोल करना सीखिए, जनाब। एक दिन यही दो पेन्टिंग आपको करोड़पति बना देंगीं। ‘

मैंने कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। अभी इजाज़त चाहता हूँ। ‘

तुफ़ैल भाई के मुर्दा जिस्म से फिर आवाज़ आयी, ‘नगद ले ले। ‘

चेले ने छः हज़ार लेकर मुझे दोनों पेन्टिंग एक अखबार में लपेट कर दे दीं।

चलते वक्त मैंने खिड़की के सामने रुककर तुफ़ैल भाई के शरीर को संबोधन करके कहा, ‘चलता हूँ , तुफ़ैल भाई। बहुत बहुत शुक्रिया। ‘

जिस्म से कोई आवाज़ नहीं आयी। पीछे से चेला बोला, ‘किससे बात कर रहे हैं?’

मैंने कहा, ‘तुफ़ैल भाई से। ‘

वह बोला, ‘अब तुफ़ैल भाई कहाँ हैं? वे तो वापस बेख़ुदी की हालत में चले गये हैं। इस वक्त वे इस रोज़गारी दुनिया से ऊपर कला की दुनिया में हैं। आपसे अब उनकी बात नयी पेन्टिंग पूरी होने के बाद ही हो पाएगी। आप ख़ामख़ाँ अपना वक्त ज़ाया कर रहे हैं। ‘

मैं कला की उन दोनों अमूल्य कृतियों को बगल में दबाकर बाहर आ गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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