हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 66 ☆ आमने- सामने -1 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

आज से प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 66

☆ आमने-सामने  – 1 ☆ 

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय, गंगानगर – आपने अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर किया। बैंक की अफसरी की। आपकी अभिरूचि व्यंग्य लेखन, काव्य और नाट्य में है। आपको निरंतर ‘ई-अभिव्यक्ति’ में पढता रहता हूँ ।

आपके संकलन- डांस इंडिया डांस के आवरण पृष्ठ पर एक बिजूका खेत में खड़ा हुआ चित्रित है। कोने में एक किसान अग्नि पर कुछ पका रहा है। इसे देखकर रंगमंच की प्रतीति होती है।

इसके बरबक्स, मेरी जिज्ञासा ‘चुटका’ के बारे में जानने की है, तनिक बताइए ?

जय प्रकाश पाण्डेय – 

पंडित प्रभाशंकर उपाध्याय जी आपने प्रश्न के माध्यम से पन्द्रह साल पहले का जूनूनी प्रसंग छेड़ दिया,प्रश्न के उत्तर की गहराई में जाने के लिए आपको चुटका परमाणु बिजली घर की लम्बी दास्तान पढ़ना पड़ेगी। जो इस प्रकार है…………….

पन्द्रह साल पहले मैं स्टेट बैंक की नारायणगंज (जिला – मण्डला) म. प्र. में शाखा प्रबंधक था। बैंक रिकवरी के सिलसिले में बियाबान जंगलों के बीच बसे चुटका गांव में जाना हुआ था। आजीवन कुंआरी कलकल बहती नर्मदा के किनारे बसे छोटे से गांव चुटका में फैली गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता देखकर मन द्रवित हुआ । चुटका गांव की आंगन में रोटी सेंकती गरीब छोटी सी बालिका ने ऐसी प्रेरणा दी कि हमारे दिल दिमाग पर चुटका के लिए कुछ करने का भूत सवार हो गया। उस गरीब बेटी के एक वाक्य ने चुटका परमाणु बिजली घर बनाने के द्वार खोल दिए।

बैंक वसूली प्रयास ने इस करुण कहानी को जन्म दिया……..

आफिस से रोज पत्र मिल रहे थे ,……. रिकवरी हेतु भारी भरकम टार्गेट दिया गया था । कहते है – ” वसूली केम्प गाँव -गाँव में लगाएं, तहसीलदार के दस्तखत वाला वसूली नोटिस भेजें ….. कुर्की करवाएं ……और दिन -रात वसूली हेतु गाँव-गाँव के चक्कर लगाएं , … हर वीक वसूली के फिगर भेजें ,…. और ‘रिकवरी -प्रयास ‘ के नित -नए तरीके आजमाएँ ………. । बड़े साहब टूर में जब-जब आते है ….. तो कहते है -” तुम्हारे एरिया में २६ गाँव है , और रिकवरी फिगर २६ रूपये भी नहीं है , धमकी जैसे देते है ……. कुछ नहीं सुनते है , कहते है – की पूरे देश में सूखा है … पूरे देश में ओले पड़े है ….. पूरे देश में गरीबी है ……हर जगह बीमारी है पर हर तरफ से वसूली के अच्छे आंकड़े मिल रहे है और आप बहानेबाजी के आंकड़े पस्तुत कर रहे है, कह रहे है की आदिवासी इलाका है गरीबी खूब है ………….कुल मिलाकर आप लगता है कि प्रयास ही नहीं कर रहे है …….आखें तरेर कर न जाने क्या -क्या धमकी ……… ।

तो उसको समझ में यही आया की वसूली हेतु बहुत प्रेशर है और अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा …….. सो उसने चपरासी से वसूली से संबधित सभी रजिस्टर निकलवाये , ….. नोटिस बनवाये …कोटवारों और सरपंचों की बैठक बुलाकर बैंक की चिंता बताई । बैठक में शहर से मंगवाया हुआ रसीला-मीठा, कुरकुरे नमकीन, ‘फास्ट-फ़ूड’ आदि का भरपूर इंतजाम करवाया ताकि सरपंच एवम कोटवार खुश हो जाएँ … बैठक में उसने निवेदन किया की अपने इलाका का रिकवरी का फिगर बहुत ख़राब है कृपया मदद करवाएं, बैठक में दो पार्टी के सरपंच थे …आपसी -बहस ….थोड़ी खुचड़ और विरोध तो होना ही थ , सभी का कहना था की पूरे २६ गाँव जंगलों के पथरीले इलाके के आदिवासी गरीब गाँव है ,घर -घर में गरीबी पसरी है फसलों को ओलों की मर पडी है …मलेरिया बुखार ने गाँव-गाँव में डेरा डाल रखा है ,….. जान बचाने के चक्कर में सब पैसे डॉक्टर और दवाई की दुकान में जा रहा है ….ऐसे में किसान मजदूर कहाँ से पैसे लायें … चुनाव भी आस पास नहीं है कि चुनाव के बहाने इधर-उधर से पैसा मिले …….. सब ने खाया पिया और ”जय राम जी की ” कह के चल दिए और हम देखते ही रह गए ……. ।

दूसरे दिन उसने सोचा-सबने डट के खाया पिया है तो खाये पिए का कुछ तो असर होगा ,थोड़ी बहुत वसूली तो आयेगी …….. यदि हर गाँव से एक आदमी भी हर वीक आया तो महीने भर में करीब १०४ लोगों से वसूली तो आयेगी ऐसा सोचते हुए वह रोमांचित हो गया ….. उसने अपने आपको शाबासी दी ,और उत्साहित होकर उसने मोटर सायकिल निकाली और ”रिकवरी प्रयास ” हेतु वह चल पड़ा गाँव की ओर ………… जंगल के कंकड़ पत्थरों से टकराती ….. घाट-घाट कूदती फांदती … टेडी-मेढी पगडंडियों में भूलती – भटकती मोटर साईकिल किसी तरह पहुची एक गाँव तक ……… ।

सोचा कोई जाना पहचाना चेहरा दिखेगा तो रोब मारते हुए ”रिकवरी धमकी” दे मारूंगा, सो मोटर साईकिल रोक कर वह थोडा देर खड़ा रहा , फिर गली के ओर-छोर तक चक्कर लगाया …………. वसूली रजिस्टर निकलकर नाम पढ़े  ………… कुछ बुदबुदाया …….उसे साहब की याद आयी …..फिर गरीबी को उसने गालियाँ बकी………पलट कर फिर इधर-उधर देखा ……..कोई नहीं दिखा । गाँव की गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा और डरावनी खामोशी फैली पडी थी , कोई दूर दूर तक नहीं दिख रहा था , ………… ।

कोई नहीं दिखा तो सामने वाले घर में खांसते – खखारते हुए वह घुस गया ,अन्दर जा कर उसने देखा ….दस-बारह साल की लडकी आँगन के चूल्हे में रोटी पका रही है , रोटी पकाते निरीह …… अनगढ़ हाथ और अधपकी रोटी पर नजर पड़ते ही उसने ” धमकी ” स्टाइल में लडकी को दम दी ……. ऐ लडकी ! तुमने रोटी तवे पर एक ही तरफ सेंकी है , कच्ची रह जायेगी ? ……………. लडकी के हाथ रुक गए ,…पलट कर देखा , सहमी सहमी सी बोल उठी ………… बाबूजी रोटी दोनों तरफ सेंकती तो जल्दी पक जायेगी और जल्दी पक जायेगी तो ……. जल्दी पच जायेगी ….फिर और आटा कहाँ से पाएंगे …..?

वह अपराध बोध से भर गया …… ऑंखें नम होती देख उसने लडकी के हाथ में आटा खरीदने के लिए १००/- का नोट पकडाया … और मोटर सायकिल चालू कर वापस बैंक की तरफ चल पड़ा ……………..

रास्ते में नर्मदा के किनारे अलग अलग साइज के गढ्ढे खुदे दिखे तो जिज्ञासा हुई कि नर्मदा के किनारे ये गढ्ढे क्यों  ? गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि सन् 1983 में यहां एक उड़न खटोले से चार-पांच लोग उतरे थे गढ्ढे खुदवाये और गढ्ढों के भीतर से पानी मिट्टी और थोड़े पत्थर ले गए थे और जाते-जाते कह गए थे कि यहां आगे चलकर बिजली घर बनेगा। बात आयी और गई और सन् 2006 तक कुछ नहीं हुआ हमने शाखा लौटकर इन्टरनेट पर बहुत खोज की चुटका परमाणु बिजली घर के बारे में पर सन् 2005 तक कुछ जानकारी नहीं मिली। चुटका के लिए कुछ करने का हमारे अंदर जुनून सवार हो गया था जिला कार्यालय से छुटपुट जानकारी के आधार पर हमने सम्पादक के नाम पत्र लिखे जो हिन्दुस्तान टाइम्स, एमपी क्रोनिकल, नवभारत आदि में छपे। इन्टरनेट पर पत्र डाला सबने देखा सबसे ज्यादा पढ़ा गया….. लोग चौकन्ने हुए।

हमने नारायणगंज में “चुटका जागृति मंच” का निर्माण किया और इस नाम से इंटरनेट पर ब्लॉग बनाकर चुटका में बिजली घर बनाए जाने की मांग उठाई। चालीस गांव के लोगों से ऊर्जा विभाग को पोस्ट कार्ड लिख लिख भिजवाए। तीन हजार स्टिकर छपवाकर बसों ट्रेनों और सभी जगह के सार्वजनिक स्थलों पर लगवाए। चुटका में परमाणु घर बनाने की मांग सबंधी बच्चों की प्रभात फेरी लगवायी, म. प्र. के मुख्य मंत्री के नाम पंजीकृत डाक से पत्र भेजे। पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखे। इस प्रकार पांच साल ये विभिन्न प्रकार के अभियान चलाये गये।

जबलपुर विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ काकोड़कर आये तो चुटका जागृति मंच की ओर से उन्हें ज्ञापन सौंपा और व्यक्तिगत चर्चा की उन्होंने आश्वासन दिया तब उम्मीदें बढ़ीं। डॉ काकोड़कर ने बताया कि वे भी मध्यप्रदेश के गांव के निवासी हैं और इस योजना का पता कर कोशिश करेंगे कि उनके रिटायर होने के पहले बिजलीघर बनाने की सरकार घोषणा कर दे और वही हुआ लगातार हमारे प्रयास रंग लाये और मध्य भारत के प्रथम परमाणु बिजली घर को चुटका में बनाए जाने की घोषणा हुई।

मन में गुबार बनके उठा जुनून हवा में कुलांचे भर गया। सच्चे मन से किए गए प्रयासों को निश्चित सफलता मिलती है इसका ज्ञान हुआ। बाद में भले राजनैतिक पार्टियों के जनप्रतिनिधियों ने अपने अपने तरीके से श्रेय लेने की पब्लिसिटी करवाई पर ये भी शतप्रतिशत सही है कि जब इस अभियान का श्रीगणेश किया गया था तो इस योजना की जानकारी जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि को नहीं थी और जब हमने ये अभियान चलाया था तो ये लोग हंसी उड़ा रहे थे। पर चुटका के आंगन में कच्ची रोटी सेंकती वो सात-आठ साल की गरीब बेटी ने अपने एक वाक्य के उत्तर से ऐसी पीड़ा छोड़ दी थी कि जुनून बनकर चुटका में परमाणु बिजली घर बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ। वह चुटका जहां बिजली के तार नहीं पहुंचे थे आवागमन के कोई साधन नहीं थे, जहां कोई प्राण छोड़ देता था तो कफन का टुकड़ा लेने तीस मील पैदल जाना पड़ता था। मंथर गति से चुटका में परमाणु बिजली घर बनाने का कार्य चल रहा है। प्रत्येक गरीब के घर से एक व्यक्ति को रोजगार देने कहा गया है जमीनों के उचित दाम गरीबों के देने के वादे हुए हैं,जमीन के कंपनसेशन देने की कार्यवाही हो गई है। चुटका से बनी बिजली से मध्य भारत के जगमगाने की उम्मीदें पूरी होने की तैयारियां चल रहीं हैं।

धन्यवाद उपाध्याय जी, इस बहाने आपने पुरानी यादों को हमसे संस्मरण रूप में लिखवा लिया। आपकी गहराई से पड़ताल और अपडेट जानकारियों के लिए हम आश्चर्यचकित हैं।आदरणीय उपाध्याय जी आपके पास सूक्ष्म दृष्टि और तिरछी नजर है,आप चीजों को सही नाम से बुलाते हैं एवं सही ढंग से पकड़ते हैं। आपने अपने विस्तृत फलक लिए प्रश्न में बहुत सी चीजें सही पकड़ी है, बैंक की नौकरी करते हुए हमने पच्चीसों साल सामाजिक सेवा कार्यों से जुड़े रहे। लम्बे समय तक एसबीआई आरसेटी के डायरेक्टर के रूप में कार्य करते हुए नक्सल प्रभावित पिछड़े आदिवासी जिले के सुदूर अंचलों के ग़रीबी रेखा से नीचे के करीब 3500-4000 युवक युवतियों का हार्ड स्किल डेवलपमेंट एवं साफ्ट स्किल डेवलपमेंट करके उन्हें रोजगार से लगाकर एक अच्छे नागरिक बनने में सहयोग किया।देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच के मेनेजर रहते हुए म.प्र.के अनेक जिलों की 90 हजार गरीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत वित्त पोषित कर महिला सशक्तिकरण के लिए कार्य किया, ऐसे अनेक उल्लेखनीय कार्य की लंबी लिस्ट है,पर आपने चूंकि अपने प्रश्न के मार्फत छेड़ दिया इसीलिए थोड़ा सा लिखना पड़ा।

अन्य भाई इसको पढ़कर आत्मप्रशंसा न मानें, ऐसा निवेदन है।

क्रमशः ……..  2

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 69 ☆ व्यंग्य – शोकसभा में सियासतदान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर व्यंग्य रचना  ‘शोकसभा में सियासतदान’।  डॉ परिहार जी ने आखिर यह  पढ़ ही लिया कि मन और  जुबान में ज्यादा दूरी नहीं होती। विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 69 ☆

☆ व्यंग्य – शोकसभा में सियासतदान

बाबू भाई तेहत्तर साल की पकी उम्र तक इस असार संसार को रौंद और खौंद कर विदा हुए थे, उन्हीं का शान्ति-पाठ आयोजित था। बाबू भाई परिवार को खूब माल-मत्ता देकर गये थे। उनके पुण्य-प्रताप से परिवार के सभी सदस्य आगे और कमाई बटोरने की स्थिति में पहुँच गये थे, इसलिए सभी के मन में दिवंगत के प्रति अपार श्रद्धा और ओठों पर दुआएं थीं। सब यही चाहते थे कि बाबू भाई की पवित्र आत्मा को परमात्मा के चरणों में स्थान मिले और वे आगे उस तरह के फसादों में न पड़ें जैसे वे ज़िन्दगी भर करते रहे थे।

शान्ति-पाठ में बाबू भाई के नाते- रिश्तेदार,बंधु-बांधव इकट्ठे थे। जो इस दुनिया को अपना ‘परमानेंट हेडक्वार्टर’ समझे हुए थे वे भी आज मजबूरन जीवन की क्षणभंगुरता का उपदेश सुनने को उपस्थित थे। सभा में आचार्य जी के अलावा सभी वक्ताओं के भाषणों का लुब्बो- लुवाब यही था कि संसार माया है, शरीर नश्वर है, एक दिन सब नष्ट हो जाने वाला है, इसलिए संसार से मन हटा कर प्रभु में लौ लगाना ही समझदारी की बात है। सब ये बातें रोज रोज टीवी पर और शोकसभाओं में सुन सुन कर भूलते रहते थे, लेकिन आज इस तरह गंभीर होकर बैठे थे जैसे सभा से उठते ही सब छोड़-छाड़ कर हिमालय की किसी कन्दरा में जा बैठेंगे। कई वक्ताओं का हिन्दी- ज्ञान शोचनीय था। वे बार बार ‘आचार्य जी’ को ‘अचार जी’ कह कर संबोधित कर रहे थे।

सभा खत्म होने को थी कि अचानक कक्ष में राजनीति की गंध फैल गयी। सब ने सूँघ कर इधर उधर देखा। कुछ समझ में नहीं आया।  ‘अचार जी’ पिछले दरवाजे की तरफ देखकर कुछ अस्थिर हो रहे थे। सब ने उधर नज़रें घुमायीं। देखा, शहर के खुर्राट राजनीतिज्ञ पोपट भाई चेहरे पर भारी गंभीरता ओढ़े दरवाजे पर जूते उतार रहे थे। सब का मन बिगड़ गया। अब यहाँ भी पाखंड फैलेगा। लेकिन जो पोपट भाई के कृपाकांक्षी थे वे प्रसन्न और सक्रिय हुए और उन्हें सादर अगली पंक्ति में ले आये।

पोपट भाई हिसाब से शान्ति-पाठ की समाप्ति के वक्त आये थे ताकि उनका वक्तव्य भी हो जाए और फालतू बैठना भी न पड़े।

जल्दी ही उन्हें माइक पर बुलाया गया। बोलने को खड़े हुए तो आधे मिनट आँखें बन्द किए मौन खड़े रहे, मुँह से बोल नहीं फूटा। फिर ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः’ से भाषण शुरू किया।

बोले—‘भाइयो और बहनो, लोगों को यह भरम है कि राजनीतिज्ञ जहाँ जाता है वहाँ राजनीति ही बोलता है, लेकिन मैं आपका यह भरम दूर करना चाहता हूँ। मैं यहाँ राजनीति करने नहीं, स्वर्गीय बाबू भाई को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देने आया हूँ। बाबू भाई एक महान आत्मा  थे, उनके संसार छोड़ने से हमारे नगर की अपूरणीय क्षति हुई है। उनके ऊपर बहुत आरोप लगते थे, कई केस भी उन पर चले, लेकिन वे सभी राजनीति से प्रेरित थे। बाबू भाई एक महान समाजसेवी और देशभक्त थे।

‘लोगों का यह सोचना बिलकुल गलत है कि राजनीतिज्ञ जहाँ भी जाता है वहाँ राजनीति के मतलब से जाता है और राजनीति की बात करता है। मैं तो यहाँ बाबू भाई को अपनी श्रद्धांजलि देने आया हूँ।  मैं यहाँ खड़े होकर कह सकता था कि मेरी पार्टी ने जनता की बड़ी सेवा की, जनता के लिए बहुत काम किया,लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि यह वक्त उन सब बातों का नहीं है। अभी तो हमें बाबू भाई की आत्मा की शान्ति के लिए परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करनी है।

‘कोई राजनीतिज्ञ ऐसा मूरख नहीं होता कि श्रद्धांजलि-सभा में राजनीति की बातें करने लगे। ऐसी बेवकूफी विरोधी पार्टी वाले ही कर सकते हैं। हम कभी नहीं कर सकते। हर जगह एक ही राग अलापना और मौके की नज़ाकत को न समझना मूर्खों का काम है। हमसे ऐसी गलती कभी नहीं हो सकती। मैं चाहता तो कह सकता था कि पहले गाँवों में चौबीस घंटे में चार घंटे बिजली मिलती थी, अब हमारी पार्टी के शासन में छः घंटे मिलती है। पहले सड़कें इतनी खराब थीं कि रोज आठ-दस एक्सीडेंट होते थे, अब मुश्किल से तीन- चार होते हैं। दो साल पहले रिश्वतखोरी के अठारह सौ मामले दर्ज हुए थे, इस साल यह संख्या घट कर बारह सौ पर आ गयी है। कुछ लोग कहते हैं कि इस की वजह यह है कि रोकने और पकड़ने वाले भी भ्रष्ट हो गये हैं, लेकिन ये सब बरगलाने वाली बातें हैं।

‘मैं यह भी कह सकता था कि हमने सरकारी स्कूलों की छतों के सारे टपके बन्द करा दिये हैं,अब उनमें एक बूँद पानी भी नहीं टपकता। इस मरम्मत पर हमने इस शहर में ही दस करोड़ रुपये खर्च किये हैं। इस खर्च को लेकर भी विरोधी हमारी आलोचना करते हैं, लेकिन हम विचलित होने वाले नहीं। हम हर स्कूल को टपकामुक्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। स्कूलों की इमारतों की खस्ता हालत की जानकारी हमें है और जान-माल का कोई नुकसान होने से पहले कार्यवाही करने का निश्चय हमने कर लिया है। फिलहाल हमने सारी क्लासें स्कूल बिल्डिंग से बाहर मैदान में लगाने के आदेश दे दिये हैं। इससे विद्यार्थियों को खुली हवा में पढ़ने-लिखने का मौका मिलेगा, जो उनके स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है।

‘आप तो जानते ही हैं कि हमारा प्रदेश उद्योगों की दृष्टि से बहुत पिछड़ा है,यहाँ बहुत गरीबी और बेरोजगारी है। उद्योगों को बढ़ाने और गरीबी बेरोजगारी को दूर करने के तरीकों का अध्ययन करने के लिए हमारे सारे विधायक अमेरिका और इंगलैंड की तीन महीने की यात्रा पर जा रहे हैं। हमें विश्वास है कि उसके बाद यहाँ उद्योगों की भारी बढ़ोत्तरी होगी और गरीबी बेरोजगारी जड़ से खत्म हो जाएगी। मेरी नौजवान भाइयों से अपील है कि जैसे इतने दिन धीरज रखा, थोड़े दिन और रखें। सब्र का फल मीठा होता है।

‘लेकिन जैसा कि मैंने कहा, यह मौका ये सब बातें कहने का नहीं है। अभी चुनाव सिर पर है और मैं आपसे कह सकता था कि आप लोग एकजुट होकर हमारी पार्टी को वोट दें और विरोधी पार्टियों को धूल चटायें, लेकिन अभी मैं यह सब नहीं कहूँगा। अभी तो वक्त बाबू भाई की महान आत्मा को श्रद्धांजलि देने का है। ओम शान्तिः शान्तिः। ‘

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #76 ☆ व्यंग्य – कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 76 ☆

☆ व्यंग्य – कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन ☆

कंफ्यूजन का मजा ही अलग होता है. तभी तो लखनऊ में नबाब साहब ने भूल भुलैया बनवाई थी. आज भी लोग टिकिट लेकर वहां जाते हैं और खुद के गुम होने का लुत्फ उठाते हैं. हुआ यों था कि लखनऊ में भयंकर अकाल पड़ा, पूरा अवध दाने दाने का मोहताज हो गया. लोग मदद मांगने नवाब के पास गये. वजीरो ने सलाह दी कि खजाने में जमा राशि गरीबो में बाँट दी जाये. मगर नवाब साहब का मानना था की खैरात में धन बांटने से लोगो को हराम का खाने की आदत पड़ जाएगी. इसलिए उन्होंने रोजगार देने के लिए एक इमारत का निर्माण करवाया जिसको बाद में बड़ा इमामबाड़ा नाम दिया गया. इमामबाड़े में असफी मस्जिद, बावड़ी और भूलभुलैया है. दिल्ली में भी भूल भुलैया है , जो लोकप्रिय पर्यटन स्थल है. कई बाग बगीचों में भी इसी तर्ज पर ऐसी पौध  वीथिकायें बनाई गई हैं जहां गुम होने के लिये प्रेमी जोडे दूर दूर से वहां घूमने चले आते हैं.

दरअसल कंफ्यूजन में मजे लेने का कौशल हम सब बचपन से ही सीख जाते हैं. कोई भी बाल पत्रिका उठा लें एक सिरे पर बिल्ली और दूसरे सिरे पर चूहे का एक क्विज  मिल ही जायेगा , बीच में खूब लम्बा घुमावदार ऊपर नीचे चक्कर वाला , पूरे पेज पर पसरा हुआ रास्ता होगा. बिना कलम उठाये बच्चे को बिल्ली के लिये चूहे तक पहुंचने का शार्टेस्ट रास्ता ढ़ूंढ़ना होता है. खेलने वाला बच्चा कंफ्यूज हो जाता है, किसी ऐसे दो राहे के चक्रव्यू में उलझ जाता है कि चूहे तक पहुंचने से पहले ही डेड एंड आ जाता  है.

कंफ्यूजन में यदि ग्लैमर का फ्यूजन हो जाये, तो क्या कहने. चिंकी मिन्की, एक से कपड़ो में बिल्कुल एक सी कद काठी ,समान आवाज वाली, एक सी सजी संवरी हू बहू दिखने वाली जुड़वा बहने हैं. यू ट्यूब से लेकर स्टेज शो तक उनके रोचक कंफ्यूजन ने धमाल मचा रखा है. कौन चिंकि और कौन मिंकी यह शायद वे स्वयं भी भूल जाती हों. पर उनकी प्रस्तुतियों में मजा बहुत आता है. कनफ्यूज दर्शक कभी इसको देखता है कभी उसको, उलझ कर रह जाता है , जैसे मिरर इमेज हो. पुरानी फिल्मो में जिन्होने सीता और गीता या राम और श्याम देखी हो वे जानते है कि हमारे डायरेक्टर डबल रोल से जुडवा भाई बहनो के कनफ्यूजन में रोमांच , हास्य और मनोरंजन सब ढ़ूंढ़ निकालते की क्षमता रखते हैं.

कंफ्यूजन सबको होता है , जब साहित्यकार को कंफ्यूजन होता है तो वे  संदेह अलंकार रच डालते हैं. जैसे कि “नारी बिच सारी है कि सारी बिच नारी है”. कवि भूषण को यह कंफ्यूजन तब हुआ था , जब वे भगवान कृष्ण के द्रोपदी की साड़ी अंतहीन कर उनकी लाज बचाने के प्रसंग का वर्णन कर रहे थे.

यूं इस देश में जनता महज कंफ्यूज दर्शक ही तो है. पक्ष विपक्ष चिंकी मिंकी की तरह सत्ता के ग्लेमर से जनता को कनफ्युजियाय हुये हैं. हर चुनावी शो में जनता बस डेड एंड तक ही पहुंच पाती है. इस एंड पर बिल्ली दूध डकार जाती है , उस एंड पर चूहे मजे में देश कुतरते रहते हैं. सत्ता और जनता के बीच का सारा रास्ता बड़ा घुमावदार है. आम आदमी ता उम्र इन भ्रम के गलियारों में भटकता रह जाता है. सत्ता का अंतहीन सुख नेता बिना थके खींचते रहते हैं. जनता साड़ी की तरह खिंचती , लिपटती रह जाती है. अदालतो में न्याय के लिये भटकता आदमी कानून की किताबों के ककहरे ,काले कोट और जज के कटघरे में सालों जीत की आशा में कनफ्यूज्ड बना रहता है.

चिंकी मिंकी सा कनफ्यूजन देश ही नही दुनियां में सर्वव्याप्त है. दुनियां भ्रम में है कि पाकिस्तान में सरकार जनता की है या मिलिट्री की. वहां की मिलिट्री इस भ्रम में है कि सरकार उसकी है या चीन की और जमाना भ्रम में है कि कोरोना वायरस चीन ने जानबूझकर फैलाया या यह प्राकृतिक विपदा के रूप में फैल गया. इस और उस वैक्सीन के समाचारो के कनफ्यूजन में मुंह नाक ढ़ांके हुये लगभग बंद जिंदगी में दिन हफ्ते महीने निकलते जा रहे हैं. अपनी दुआ है कि अब यह आंख मिचौली बंद हो, वैक्सीन आ जाये जिससे कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन चिंकी मिंकी शो लाइव देखा जा सके.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 37 ☆ अनोखा साथ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अनोखा साथ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 37 – अनोखा साथ ☆

रेड़ियो में गाना बज रहा था कजरा मोहब्बत वाला अँखियों में ऐसा डाला कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरे कुर्बान ।

अरे भई कजरे और गजरे पर ही जान दे दोगे तो बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथहिं गावा का क्या होगा। चलिए कोई बात नहीं, काजल की महिमा ही ऐसी है काजल की कोठरी से भला कोई बच कर निकल पाया है, जो आप निकल पाते ।

काले रंग की महिमा का बखान तो कोई कर ही नहीं सकता, धन भी जब तक काला न हो तब तक कोई व्यक्ति, संस्था या देश प्रसिद्ध पाता ही नहीं।आजकल केवल नाम से काम नहीं चलता उसमें विशेषण जोड़ना ही पड़ता है बदनाम बद उपसर्ग के सौंदर्य से अर्थ व महिमा दोनों ही निखर जाते हैं। अरे हाँ एक बात तो भूल ही गयी काजल और कलंक का जनम -जनम का साथ है। काजल फैला और कालिख लगी अर्थात कलंक लगना निश्चित है, उस समय कोई भी साथ नहीं देता। तब याद आती है परमेश्वर की, धन तो पहले ही विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रहा होता है, अब इसके साथ-साथ लोग भी झट से विदेश को प्रस्थान करने लगे हैं।

शादी से लेकर बर्बादी तक का सफर विदेश में ही पूरा होता है। भारत में तो केवल कुर्सी की चाह ही पूरी हो सकती है। यहाँ इतनी छूट है कि जिसके पास जितना काजल उसे उतना ही लोकप्रिय बना दिया जाता है। काजल से सौंदर्य बढ़ता है ये तो सुना था पर यकीन अब होता जा रहा है। इतना महत्वपूर्ण शृंगार है ये कि जब आँखों में इसे कोई बसा लेता है तो उसके अंदर सबको घायल करने की क्षमता अनायास ही विकसित हो जाती है। पूरा जनमानस उसका फॉलोअर बन जाता है। उसके नाम से किसी का भी काम -तमाम होने में देर नहीं लगती ।

काजल और उसकी कालिख़ का कर्ज़ छोड़ कर हम सबसे मुख मोड़ कर कहाँ सुकून मिलेगा, कुछ नहीं तो अपना फर्ज़ निभाइये काजल पर क्या- क्या नहीं लिखा गया इसे सोलह शृंगार में भी स्थान मिला है। सूरदास की काली कमरी चढ़े न दूजो रंग। इन सबका मान रखिए और देखिए तो क्या-क्या काजल से किया जा सकता है –

नैन सजाया काजल से
नजर उतारी काजल से
सच्ची कोशिश अगर हुई तो
भाग जगेगा काजल से…..

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 75 ☆ व्यंग्य – बिजली बैरन भई ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य बिजली बैरन भई।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 74 ☆

☆ व्यंग्य – बिजली बैरन भई

ज्यादा नहीं कोई पचास सौ बरस पुरानी बात है, तब आज की तरह घर-घर बिजली नहीं थी, कितना आनंद था। उन दिनों डिनर नहीं होता था, ब्यारी होती थी। शाम होते ही लोग घरों में लौट आते थे। संध्या पूजन वगैरह करते थे, खाना खाते थे। गांव – चौपाल में लोक गीत, रामायण भजन आदि गाये जाते थे। ढबरी,लालटेन या बहुत हुआ तो पैट्रोमैक्स के प्रकाश में सारे आयोजन होते थे।

दिया बत्ती करते ही लोग जय राम जी की करते थे। राजा महाराओं के यहां झाड़ फानूस से रोशनी जरूर होती थी।  और उसमें नाच गाने का रास रंग होता था, महफिलें सजती थी।  लोग मच्छरदानी लगा कर चैन की नींद लेते थे और भोर भये मुर्गे की बांग के साथ उठ जाते थे, बिस्तर गोल और खटिया आड़ी कर दी जाती थी।

फिर आई ये बैरन बिजली, जिसने सारी जीवन शैली ही बदल कर रख दी। अब तो जैसे दिन वैसी रात। रात होती ही नहीं, तो तामसी वृत्तियां दिन पर हावी होती जा रही है। शुरू-शुरू में तो बिजली केवल रोशनी के लिए ही उपयोग में आती थी,फिर उसका उपयोग सुख साधनों को चलाने में होने लगा, ठंडक के लिये घड़े की

जगह  फ्रीज ने ले  ली।  वाटर हीटर, रूम हीटर उपलब्ध हो गए। धोबी की जगह वाश मशीन आ गई ।  जनता के लिये शील अश्लील चैनल लिये चौबीसो घंटे चलने वाला टीवी वगैरह हाजिर है। कम्प्यूटर युग है। घड़ी में रोज सुबह चाबी देनी पड़ती थी, वह बात तो आज के बच्चे जानते भी नहीं आज जीवन के लिये हवा पानी सूरज की रोशनी की तरह बिजली अनिवार्य बन चुकी है। कुछ राजनेताओं ने खुले हाथों बिजली लुटाई, और उसी सब का दुष्परिणाम है कि आज बिजली बैरन बन गई है।

बिजली है, और उसके चाहने वाले ज्यादा, परिणाम यह है कि वह चाहे जब चली जाती है, और हम अनायास अपंग से बन जाते हैं, सारे काम रूक जाते हैं, इन दिनों बिजली से ज्यादा तेज झटका लगता है- बिजली का बिल देखकर। जिस तरह पुलिसवालों को लेकर लोकोक्तियॉं प्रचलन में है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी है न दुश्मनी। ठीक उसी तरह जल्दी ही बिजली विभाग के लोगों के लिए भी कहावतें बन गई हैं।

बिजली के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इसे कहीं भरकर नहीं रखा जा सकता, जैसे पानी को टंकी में रखा जा सकता है। किंतु समय ने इसका भी समाधान खोज निकाला है, और जल्दी ही पावर कार्डस हमारे सामने आ जायेंगे। तब इन पावर कार्ड्स के जरिये, बिजली का पेमेंट हो सकेगा, वही कल के प्रति आश्वस्ति के लिये लोग ठीक उसी तरह ढेरों पावर कार्ड खरीद कर बटोर सकेंगे

जैसे आज कई गैस सिलेंडर रखे जाते है। सोचिये ब्लैकनेस को दूर करने वाली बिजली को भी ब्लैक करने का तरीका ढूंढ निकालने वाले ऐसे प्रतिभावान  का हमें किस तरह सम्मान करना चाहिए।

बिजली को नाप जोख को लेकर इलैक्ट्रोनिक मीटर की खरीद और उनके लगाये जाने तक, घर-घर से लेकर विधानसभा तक, खूब धमाके हुये। दो कदम आगे, एक कदम पीछे की खूब कदम ताल हुई और जारी है। सौभाग्य योजना कई के लिए दुर्भाग्य बन रही है, बिल वसूली टेढ़ी खीर होती जा रही है,  बिजली के वोट में बदलने के गुर नेता जी सीख गए हैं। निजीकरण के नाम पर बिजली घर सारा, इंफ्रास्ट्रक्चर बेच वंशी बजाने के  मूड में सरकार है। कर्मचारियों की आवाज आ रही है। बिजली बैरन भई। ग्रिड फेल हो रहा है, बेहाल जनता चिल्ला रही है बिजली बैरन भई

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 13 ☆ व्यंग्य ☆ आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 13 ☆

☆ व्यंग्य – आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो 

नमस्ते ट्रम्प सर,

आपको हम भारतीय लोग बेहद पसंद करते हैं यह तो पता था, मगर क्यों, यह अब जाकर समझ में आया. इन्कम टैक्स की चोरी के मामले में आप तो बिलकुल हमारे जैसे निकले. सेम-टू-सेम. बल्कि हमारे भी गुरू निकले !! क्या जिगरा पाया है सर, पिछले अठारह साल में से ग्यारह साल तो धेलाभर टैक्स नहीं चुकाया. 2016 में चुकाया भी तो बस सात सौ पचास डॉलर, बोले तो मात्र पचपन हज़ार रुपये. इत्ता तो हमारे यहाँ लोअर क्लास बाबू की सेलेरी से कट जाता है. बहरहाल, खबर छपी तो आपका रिएक्शन आया ‘ये फेक न्यूज है’. सेम-टू-सेम हमारे जननायकों टाईप. लगा कि वाशिंगटन में भी हमारा अपना कोई राजनेता है जो अभी बस ट्वीट करने ही वाला है – ‘अपन तो बाबा-फ़कीर आदमी है, न इन्कम जानते हैं न टैक्स. सेवा कर रहे हैं देश की.’

बहरहाल, सोने जैसे बाल हैं आपके, सर. हम तो इन पर बहुत पहले से फ़िदा हैं मगर राज तो न्यूयार्क टाईम्स ने खोला. कंपनी खर्चे में डेबिट डाल के सत्तर हज़ार डॉलर तो आपने अपने बाल सवांरने पर खर्च किये, बोले तो पचास लाख रूपये. इत्ते में तो इंडिया में नया माथा प्लांट कर दें कॉस्मेटिक सर्जन्स. वैसे ईमानदारी से आपके सरतराश ने तो आपसे ज्यादा ही चुकाया होगा टैक्स. छोटे लोग ऐसी हिम्मत कहाँ कर पाते हैं. आदमी एक बार जमीर से गिरे तो वो अपने मातहतों के जमीर से भी नीचे गिर जाता है.

कसम से ट्रंप सर, कल को खुदा न ख्वास्ता आप चुनाव हार जाएँ तो घबराना मत – इंडिया में लड़ लेना. ऐसी क्वालिटी वाले नेताओं को हम सर-माथे पर बैठा के रखते हैं. हारते वे ही हैं जो ईमानदारी से टैक्स चुकाते हैं. बल्कि, आप तो सोचो मत, इंडिया आ ही जाओ सर. कुछ हम आपसे सीखेंगे, कुछ आप हमसे सीखना. माल कहाँ छुपाना है – टाईलेट की टाईल्स के पीछे, गद्दे में कॉटन के बीच, दीवार में ठुकी टोंटियों में, घर में लगी ठाकुरजी की प्रतिमा के नीचे. ट्रंप हाउस ऐसा बनवा देंगे कि इन्कम टैक्स ऑफिसर्स का बाप भी माल नहीं सूंघ पायेगा. और वैसे भी आपके घर छापा पड़ने की संभावना नहीं रहेगी. वो तो अपन के यहाँ तभी पड़ता है जब आप विपक्ष में हों और सत्तापक्ष में पाले गये दोस्तों से आपकी जुगाड़ कम हो गई हो. मंतर ये कि रहें तो सत्ता में, ना रहें तो भी सभी दलों में अपने मोहरे बिठाकर रखियेगा, तब कुछ ना बिगड़ेगा.

जब आयें तो पांच-सात एकड़ की खेती खरीद लीजियेगा. हमारे जननायक इत्ती खेती में तो करोड़ों की इन्कम दिखा लेते हैं. प्रोग्रेसिव कृषक जो ठहरे. कृषि वैज्ञानिक हैरान हैं कि बंजर जमीन में करोड़ों के सेब फल कैसे उग आते हैं. कहते हैं – ‘भाग्‍यवाले का खेत भूत जोतता है’. अपन के जननायक कमाते राजनीति में हैं, दिखाते खेती में हैं, इन्वेस्ट करते हैं शेल कंपनियों में, लांड्रिंग करते हैं शेयर बाज़ार में. उनका न कुछ बेनामी होता है और न कुछ आय से अधिक. देश सेवा का शुल्क मान कर रख लेते हैं मनी-मनी. एजेंसियां कहती हैं पनामा, सेशल्स या लिचटेंस्टीन टैक्स हेवन कंट्रीज हैं, वे गलत हैं. आदमी में थोड़ा सा रसूख और ढ़ेर सारी बेशर्मी हो तो कर बचाने का स्वर्ग अमेरिका भी है और इंडिया तो है ही.

इंडिया में इतना सब होते हुवे भी जब से आपके बारे में पढ़ा है – एक बड़ा वर्ग डिप्रेशन में चला गया है. उनको लगता है कि उनके ऊँट पहाड़ के नीचे आ गये हैं. उन्हें बचाने का उपाय ये है कि आप एक किताब लिखें – ‘रैपिडेक्स – आयकर बचाने के एक सौ एक शर्तिया नुस्खे’. बेस्ट सेलर वहाँ भी, यहाँ भी.

और अंत में, ये अपन के शर्ट की कॉलर ऊँची करके चलने के पल हैं. आखिर, अपन आप से ज्यादा इन्कम टैक्स जो चुकाते हैं ट्रंप सर. नहीं क्या ?

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 68 ☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक यथार्थवादी व्यंग्य  ‘छगनभाई और फेसबुक’।  आज सोशल साइट्स ने लोगों की दुनिया ही बदल डाली।  लाइक और कमेंट की पतवार के सहारे कई लोगों की नैया सोशल साइट्स में तैर rahi है। थोड़ी सी अड़चन आई और नाव डूबे या ना डूबे मन जरूर डूब जाता है। विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 68 ☆

☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक

छगनभाई फेसबुक के कीड़े हैं। दिन रात फेसबुक में डूबे रहते हैं। फेसबुक में अपनी एक अलग दुनिया बसा ली है। उसी में रमे रहते हैं। अब बाहरी दुनिया की बेरुखी की ज़्यादा परवाह नहीं रही। फेसबुक पर ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ लेते-देते रहते हैं। उसी में मगन रहते हैं।

छगनभाई साहित्य की सभी विधाओं में दखल रखते हैं। कविता, कहानी, निबंध, गज़ल, चुटकुले, कुछ भी ठोकते रहते हैं और दोस्तों की तारीफ और ‘वाह वाह’ पाकर निहाल होते रहते हैं। जो ‘लाइक’ नहीं देते उन्हें दोस्तों की लिस्ट से खारिज करते रहते हैं।

उस दिन सबेरे सबेरे छगनभाई बाहर निकले। मौसम सुहाना था। बिजली के तारों पर बैठीं चिड़ियां चहचहा रही थीं। सूरज का लाल गोला सामने उभर रहा था। छगनभाई के मन में कविता फूटी। तत्काल वापस लौट कर तख्त पर आसन जमाया और एक चौबीस लाइन की कविता ठोक दी। उसके बाद फटाफट उसे फेसबुक पर ठेल दिया और फिर चातक की तरह टकटकी लगाकर बैठ गये कि ‘लाइक’और ‘कमेंट’ की बूंदें गिरें और उनकी बेचैन आत्मा को सुकून मिले।

समय गुज़रता गया और मोबाइल चुप्पी साधे रहा। न कोई ‘लाइक’,न ‘कमेंट’। छगनभाई कोई भी टोन आने पर उम्मीद में मोबाइल में झांकते और वहां फैले वीराने को देखकर मायूस हो जाते। धीरे धीरे दोपहर हो गयी। कहीं से कोई हलचल नहीं। छगनभाई का भरोसा दुनिया से उठने लगा। दुनिया बेरौनक, बेरंग, बेवफा लगने लगी।

जब शाम तक कोई सन्देश नहीं आया तो छगनभाई का धीरज छूट गया। एक घनिष्ठ मित्र जनार्दन जी को फोन लगाया। पूछा, ‘क्या हालचाल है?’

जवाब मिला, ‘सब बढ़िया है गुरू। आप सुनाओ। ‘

छगनभाई बोले, ‘कहां हो अभी?’

जनार्दन जी बोले, ‘ग्वारीघाट आया था। नर्मदा जी में डुबकी लगा कर निकला हूँ। चित्त प्रसन्न हो गया। ‘

छगनभाई बोले, ‘एक कविता फेसबुक पर डाली है। देख लेना। ‘

उधर से जवाब मिला, ‘घर पहुंचकर देखूंगा भैया। मैं तो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े ही ‘लाइक’ या ‘बढ़िया’ ठोक देता हूँ। आखिरकार दोस्त किस दिन काम आएंगे?’

छगनभाई चुप हो गये। चैन नहीं पड़ा तो एक और मित्र शीतल जी को फोन लगाया। पूछा, ‘फेसबुक पर मेरी कविता देखी क्या?’

शीतल जी दबी ज़बान से बोले, ‘अभी एक प्रवचन में बैठा हूँ। घर पहुँचकर पढ़ूँगा। ‘

छगनभाई कुढ़ गये। हताश पलंग पर लेट गये। लग रहा था दुनिया में सब व्यर्थ है, कोई आदमी भरोसे के लायक नहीं।

घर में उनके साले साहब आये हुए थे। पत्नी से छोटे। बोले, ‘जीजाजी, उठिए। सिनेमा देख आते हैं। अच्छी फिल्म लगी है। टिकट मेरे जिम्मे। ‘

छगनभाई भुनकर बोले, ‘ये फिल्म-विल्म सब फालतू लोगों के काम हैं। मुझे कोई फिल्म नहीं देखना। तुम अपनी दीदी को लेकर चले जाओ। ‘

पत्नी नाराज़ होकर बोली, ‘आपको नहीं जाना तो विक्की को क्यों डाँट रहे हैं?आपका मिजाज़ समझना बड़ा मुश्किल है। पता नहीं कब देवता चढ़ जाएं। ‘

छगनभाई में पत्नी से टकराने का साहस नहीं था। मुँह को चादर से ढक कर पड़े रहे।

तभी मोबाइल की टोन बजी। छगनभाई ने चादर हटाकर उसमें झाँका। एक फेसबुक मित्र ने उनकी कविता की भरपूर प्रशंसा की थी और उन्हें शब्दों का चितेरा और अद्भुत प्रतिभा-संपन्न बताया था। पढ़ कर छगनभाई की तबियत बाग-बाग हो गयी। सबेरे से जमकर बैठा अवसाद पल भर में छँट गया। दुनिया सुहानी और भरोसे के लायक लगने लगी।

उसके पीछे पीछे एक और पोस्ट आयी। उसमें भी छगनभाई की कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी थी और उन्हें आला दर्जे का कवि सिद्ध किया गया था।

छगनभाई चादर फेंककर पलंग से उठ बैठे। विक्की के कंधे को बाँह में लपेट कर बोले, ‘मैं तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था। फिल्म देखने ज़रूर चलूँगा और टिकट भी मैं ही खरीदूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी ☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघु व्यंग्य कथा   “लाखों में एक”.  )

☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक

वे व्यंग्यात्मा हैं, वे व्यंग्य ओढ़ते, बिछाते हैं तथा दिन रात व्यंग्य की ही जुगाली करते हैं । वे  हमारे पास आये तो हमने उनसे सहज भाव से पूछ लिया कि ‘अब तक 75 ‘(व्यंग्य संकलन),  ‘सदी के 100  व्यंग्यकार’ (व्यंग्य संकलन)’ एवं ‘131 श्रेष्ठ व्यंग्यकार ‘ (व्यंग्य संकलन) प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन इनमें आप शामिल नहीं हैं ऐसा क्यों ?

उन्होंने (मन ही मन खिसियाते हुए ) कहा -‘अभी तो संख्या 131 पर ही पहुंची है, और आपको तो मालूम ही है कि हम 100, पांच सौ, या हजार में एक नहीं हैं, हम तो लाखों में एक हैं ।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 36 ☆ भागमभाग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “भागमभाग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 36 – भागमभाग ☆

कुर्सी दौड़ का आयोजन चल रहा था। एक आनर सौ बीमार का दृश्य। आयोजक भी बहुत होशियार अपनी कुर्सी तो फिक्स करके बैठ गए बाकी सब को संगीत की धुन पर दौड़ा दिया। जो प्रतिभागी उनकी ओर विश्वास की दृष्टि से देखता, उसी की कुर्सी छिन जाती।  खेल शुरू हो गया। हर राउंड में, एक कुर्सी कम हो जाती , कुर्सी छोड़ कर  जाने वाला कातर निगाह से देखता और मन ही मन बड़बड़ाते हुए चला जाता। देखते ही देखते बस तीन लोग बचे अब तो समझ में ही नहीं आ रहा था कौन जीतेगा। बस आयोजक ही पूर्ण आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे।  अन्य दो प्रतिभागियों ने उनकी कुर्सी की जाँच करवाने के लिए कहा तो वो तैयार ही न हुए।

दूर बैठे वो सभी लोग जो अभी तक इस दौड़ में शामिल थे आ धमके और आयोजक को पूरी ताकत से हटाने लगे पर वो तो अपनी कुर्सी से हिल ही नहीं रहे थे।

किसी ने कहा फेविकोल का जोड़ है, हटेगा नहीं , कुर्सी ही तोड़ दो, तो न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी।

तोड़- फोड़ शुरू हो गयी। एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप की झड़ी लग चुकी थी तभी  समझाइश लाल जी देवदूत के समान आ पहुँचे। अब तो सबकी निगाहें उनकी ओर ही लगी हुई थी।

उन्होंने सर्वप्रथम कुर्सी दौड़ के आयोजक को धन्यवाद देते हुए कहा आप सचमुच बधाई के पात्र हैं , जो सबको इस तरह से जोड़ कर रखे हुए हैं। अपने भावों को व्यक्त करने का ये सशक्त माध्यम है।  मन की बात अगर मन में रह जाए,  तो ये किसी भी काल में उचित नहीं रहा है। हम सब लोग चाय पर चर्चा करते हुए इस समस्या का निराकरण भी कर लेंगे।

चाय की चुस्कियों के साथ जब – जब चर्चा होती है , तब- तब बात केवल नाश्ते पर ही रुक जाती है। क्योंकि चाय और नाश्ते का चोली दामन का साथ जो ठहरा।

खैर निष्कर्ष वही ढाक के तीन पात, जिसको इस आयोजन में भाग लेना हो वो रुके अन्यथा द्वारा खुले है। जो नियमों के अनुसार नहीं चलेगा वो जा सकता है।

अगले महीने पुनः प्रथम रविवार को कुर्सी दौड़ की प्रतियोगिता होगी जो भी जुड़ना चाहे जुड़ सकता है , बस आयोजक के नियमों को मानना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 12 ☆ व्यंग्य ☆ गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  समसामयिक विषय पर व्यंग्य  “गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 12 ☆

☆ व्यंग्य – गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है 

अब यह तो पता नहीं कि ये सरकारों के सुशासन का ही परिणाम है या नारी सशक्तीकरण आंदोलनों की सफलता, मगर जो भी हो, एक अच्छी बात यह है कि बलात्कार करना आसान सा अपराध नहीं रह गया है. इतना तो हो ही गया है कि अकेले रेप करने की हिम्मत अब कम ही लोग कर पाते हैं. सामूहिक रूप से गैंग बना कर करना पड़ता है. एक से भले दो, दो से भले चार. पैन इंडिया – नोयडा, बैतूल, बेटमा, जयपुर, बलरामपुर, मुंबई, कोलकत्ता, चंडीगढ़. नई सभ्यता, नये समाज का नया नार्म है – गैंग रेप. नया चलन, नई फैशन. एक आरोपी से मैंने पूछा – “गैंग कैसे बनाते हैं आप ? मेरा मतलब है मिनिमम कितने आदमी रखते हैं ?”

“चार तो होना ही चाहिये. चार में, कम से कम, एक दो लड़के सांसदो के, विधायकों के, पार्षदों के, सरपंच के भांजे, भतीजे रख लेते हैं. मंत्रीजी का लड़का हो तो सोने में सुहागा.”

“टाइमिंग का भी ध्यान रखना पड़ता होगा आपको ?”

“बिल्कुल. हमसे कुछ केसेस में टाइमिंग की ही मिस्टेक हुई. जब संसद का सत्र चल रहा हो, विधान सभा चल रही हो या किसी सूबे में चुनाव नजदीक हों, तब नहीं करना चाहिये. मामला ज्यादा तूल पकड़ लेता है. समूची बहस पीड़िता से हट कर इस बात पर आ टिकती है कि उसकी जाति-समाज के वोट कितने प्रतिशत हैं ? पीड़िता दलित है कि महादलित ? दलित है तो जाटव है कि गैर जाटव ? रेप से सूबे की सरकार पर क्या असर पड़ेगा ? सोशल इंजिनियरिंग दरक गयी तो सूबेदार फिर से सत्ता में आ पायेगा कि नहीं ? सामूहिक बलात्कार कैसे सूबे की सरकार के लिए कैसे राजनीतिक चुनौती बन सकता है ? रेप हमारे लिये एक प्रोजेक्ट है तो सियासतदानों के लिये सुपर-प्रोजेक्ट. इसीलिये सोचते हैं आगे से इस पीरियड में ‘नो-गैंगरेप-डेज’ डिक्लेयर कर देंगे.”

“गैंगरेप में बड़ी बाधा क्या है ?”

“मीडिया से परेशानी है. शहरों में, शहरों के आसपास मीडिया हाइपर-एक्टिव है. हमारे छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स भी हाइप का शिकार हो जाते हैं. इसीलिये हमें दूर गांवो में अन्दर जाना पड़ता है. शिकार नाबालिग हो, आदिवासी हो, गरीब हो, ठेठ गांव के पास बाजरे जुआर के खेत में हो तो केसेस लाइट में नहीं आ पाते. जो पीड़िताएँ दिल्ली नहीं ले जाईं जाती उनके केस में बवाल इतना नहीं कटता.”

“रेप कर चुकने के बाद खर्चा तो लगता होगा ना.”

“ओह वेरी मच. बाद में ही ज्यादा लगता है. लीगल एक्सपेंसेस  भारी पड़ते हैं. अस्पताल, पोस्ट-मार्टम, पुलिस, वकील, गवाह, कोर्ट- कचहरी,  मुंशी,  मोहर्रिर. सब जगह पैसा तो लगता ही है, फीस कम रिश्वतें ज्यादा. मीडिया जितना ज्यादा कवर करता है पैसा उतना ज्यादा लगता है. लेकिन, जैसा मैंने आपको बताया कि व्यापारी, उद्योगपति, अफसर, किसी बड़े बल्लम का बेटा साथ में हो तो फिनांस मैनेज हो जाता है.”

“कभी शर्म लगती है आपको ?”

“हमारी छोड़िये सर, किसे लगती है अब ? सियासत की दुनियां में हम शर्म के विषय नहीं रह गये है.”

“तब भी अपराधी कहाने से डर तो लगता होगा ?”

“किसने कहा हम अपराधी हैं. हम या तो ठाकुर हैं या ब्राह्मण हैं या दलित हैं या महादलित हैं. जाति अपराध पर भारी पड़ती है सर. पॉवर पोजीशन में अपनी जाति का आदमी बैठा हो तो नंगा नाच सकते हैं आप. कोई टेंशन नहीं है.”

“पुलिस वालों को नहीं रखते हैं टीम में ?”

“नहीं, वे अपनी खुद की गैंग बनाकर थाने में ही कर लेते हैं. हमारे साथ नहीं आते.”

“आगे की योजना क्या है ?”

वे सिर्फ मुस्कराये और थैंक्यू कह कर चले गये. जल्दी में हैं. गैंग के बाकी सदस्य इंतज़ार कर रहे होंगे उनका, एक दो प्रोजेक्ट्स प्लान कर लिये हैं उन्होंने. आखिर दुनिया की आधी आबादी उनके लिये एक शिकार है और जीवनावधि छोटी. कब पूरे होंगे उनके सारे प्रोजेक्ट्स!!!

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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