हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 44 ☆ व्यंग्य – संशय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  सामजिक एवं प्रशासनिक प्रणाली पर काफी कुछ कहता एक  व्यंग्य   “संशय” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 44

☆ व्यंग्य – संशय ☆ 

सुंदरपुर अब बड़े कस्बे से छोटे शहर में तब्दील हो गया था। सुंदरपुर के सबसे बड़े अमीर सेठ मानिक लाल के यहां चोरी हो गई।  स्थानीय अखबार ने इस बड़ी चोरी में पुलिस के आदमी का हाथ होना बताया। रामदीन ने अखबार में सुबह-सुबह पढ़ा। पुलिस वालों में उत्सुकता हो गई कि बड़े सेठ के यहां किस पुलिस वाले ने लम्बा हाथ मार दिया। रामदीन की एक साल पहले ही पुलिस में नौकरी लगी थी, ईमानदार टाइप का भी था और डरपोंक, सीधा सादा। हालांकि रामदीन पोस्ट ग्रेजुएट था पर गरीबी रेखा के नीचे का आदमी था इसलिए सुंदरपुर थाने में उसे कुत्ता संभालने की ड्यूटी दी गई। जब कहीं चोरी होती तो रामदीन कुत्ते की चैन पकड़ कर कुत्ते के साथ भागता, दौड़ता, रुकता, कुत्ते के नखरे के अनुसार वह इमानदारी से ड्यूटी करता।

सेठ मानिक लाल के यहां की चोरी में लोग पुलिस वाले पर शक कर रहे थे तो वह थाने से कुत्ते को लेकर निकला। पीछे पीछे उसके बड़े साहब लोग जीप से चल रहे थे। दौड़ते – दौड़ते एक जगह वह पुलिस का काला कुत्ता रुक जाता है। रामदीन चारों ओर देखता है दूर दूर तक कहीं कोई नहीं दिखता पीछे से आते पुलिस के साहबों का कुनबा जरुर दिखता है। रामदीन चौकन्ना हो जाता है पास में एक कुतिया कूं कूं करती खड़ी दिखती है। कुत्ता सोचता है – क्या कमसिन कुतिया है? कुत्ते को देखकर कुतिया भी सोचती है – कितना बांका कुत्ता है।

रामदीन सचेत होकर कुत्ते को घसीटते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करता है परन्तु कुत्ता ड्यूटी के नियमों को ताक पर रखकर रामदीन को पीछे घसीटने लगता है और गुस्से में रामदीन के चक्कर लगा लगाकर भौंकने लगता है। रामदीन डर जाता है सोचता है बड़ी मुश्किल से तो नौकरी लगी थी और ये कुत्ता नाराज होकर अपनी ड्यूटी भूल गया है। कहां से बीच में ये कुतिया आ गई। रुक कर रामदीन को लगातार भोंकते कुत्ते को देखकर साहबों ने रामदीन को पकड़ कर हथकड़ी डाल दी। रामदीन बहुत रोया, गिड़गिड़ाता रहा कि सर चोरी नहीं की, ये कुत्ता आवेश में आकर मुझसे बदला ले रहा है। थोड़ी देर के लिए इसका दिमाग भटक गया था, ये चाहता था कि थोड़ी देर के लिए उसे छोड़ दिया जाय पर मैंने देशभक्ति और जनसेवा को आदर्श मानकर इसको अनुशासन का पाठ सिखाया इसीलिए ये नाराज होकर मुझ पर भौंकने लगा।

साहब ने एक न माना बोला –  कुत्ते ने आपको पकड़ा, आपके चारों ओर चक्कर लगा लगा कर भौंका, इसलिए “अवर डिसीजन इज फाइनल।”

दूसरे दिन अखबार में चोरी के इल्ज़ाम में रामदीन की कुत्ता पकडे़ शानदार तस्वीर छपी थी। अखबार की भविष्यवाणी सही थी….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 47 ☆ व्यंग्य – प्रेम और अर्थशास्त्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘प्रेम और अर्थशास्त्र’।  फ़िल्में देख कर  पैदा हुए सपनों का घर बनाने के लिए घर से भाग कर विवाह करने वाले युवक युवतियों  को जब प्रेम के पीछे छुपे अर्थशास्त्र से रूबरू होना पड़ता है ,तो  उनको डॉ परिहार जी का यह व्यंग्य अर्थशास्त्र के सारे सिद्धांत समझा देता है। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 47 ☆

☆ व्यंग्य – प्रेम और अर्थशास्त्र ☆

हेमलता का प्रेम उस स्टेज में था जिसमें चाँदनी, बरसात की फुहार, नदी का किनारा ही संपूर्ण ज़िन्दगी होते हैं। रोमांस की चूलें हिलना तब शुरू होती हैं जब उसमें राशन-पानी, बनिये का उधार, बच्चों की पढ़ाई प्रवेश करती है। तब तक सब हरा-हरा होता है।

हेमलता बार बार सुधीर से कहती थी, ‘तुम मेरे साथ शादी क्यों नहीं करते?अब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। हम मिलकर सुनहरी जिन्दगी की नींव डालेंगे।’

सुधीर के पाँव ज़मीन पर थे। वह कहता, ‘बाई, तू ठीक कहती है। मैं भी तेरे बिना नहीं रह सकता। लेकिन ज़िन्दगी सुनहरी सोने से होती है।  मैं अभी बेरोज़गार हूँ और बिना रोज़गार के तेरे पिता तेरा हाथ मेरे हाथ में देंगे नहीं। अभी शादी करके मैं तुझे खिलाऊँगा क्या?खाली प्रेम से तो पेट भरने वाला नहीं।’

हेमलता रूठ जाती, कहती, ‘तुम प्रेम के बीच में यह राशन-पानी लाकर सब मज़ा किरकिरा कर देते हो। मेरा प्रेम भूखे पेट ज़िन्दा रह सकता है। तुमने ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म देखी है?उसमें हीरो ने मज़दूरी करके अपने प्रेम को ज़िन्दा रखा था।’

सुधीर माथा ठोककर कहता, ‘बाई, फिल्मों की बातें झूठी होती हैं। उस हीरो ने फिल्मों से बाहर गरीबी देखी भी नहीं होगी। इसके अलावा आजकल जितनी मज़दूरी मिलती है उतने पर प्यार को ज़िन्दा नहीं रखा जा सकता।’

हेमलता शिकायत के स्वर में कहती, ‘तुम बहानेबाज़ हो। शादी न करने के बहाने ढूँढ़ते हो। मुझे प्यार नहीं करते।’

अन्त में प्रेमी ने हथियार फेंक दिये और दोनों ने चुपचाप शादी कर ली।

सुधीर ने एक दोस्त से बीस हज़ार रुपये उधार लिये और एक कमरा किराये पर ले लिया। दोनों के परिवारों ने उनका बायकाट कर दिया।

कुछ दिन खूब रंगीन हवा में तैरते बीते।  घूमना-घामना, सिनेमा देखना, होटल में खाना खाना। फिर ज्यों ज्यों पैसा समाप्ति की तरफ बढ़ने लगा, सुधीर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह दिन भर नौकरी के चक्कर में घूमता।

सिनेमा कम हुआ, सैर-सपाटे सिमट गये,होटल का खाना घट कर नाश्ते पर आ गया, फिर चाय से संतोष होने लगा।

फिर एक दिन घर में दूध आना बन्द हो गया। कारण पता चला तो हेमलता की हालत खराब हो गयी। रुआंसी होकर बोली, ‘चाय के बिना तो मैं मर जाऊँगी।’

सुधीर फिर कहीं से दस हज़ार रुपये लाया। फिर गाड़ी मंथर गति से चली।

एक दिन सुधीर की अनुपस्थिति में मकान-मालिक का कलूटा मुंशी घर में आ गया। तोंद खुजाते हुए बोला, ‘बाई, दो महीने का किराया चढ़ गया है। चुका दो। सेठ बहुत खराब आदमी है, सामान फिंकवा देगा।’

हेमलता की साँस ऊपर चढ़ गयी।

धीरे धीरे घर में कलह शुरू हुई। सुधीर नौकरी के चक्कर में शहर की ख़ाक छानकर आता और अपनी खीझ हेमलता पर उतारता। हेमलता उसे दोष देती। रोना धोना होता। फिर मान-मनौव्वल के बाद सुलह हो जाती। दूसरे दिन फिर वही नोंक-झोंक।

अब सुधीर की हालत देखकर हेमलता को लगता कि नौकरी से पहले शादी करना गलत हो गया। अर्थशास्त्र प्रेम का कचूमर निकालने पर तुल गया था।

इसी तरह रस सूखता रहा। ज़िन्दगी चारदीवारी तक सीमित रह गयी। अकेलापन, सुधीर का इंतज़ार, नमक-दाल की फिक्र। रोमांस पंख लगा कर उड़ गया।

फिर एक दिन सुधीर एक लिफाफा लेकर लौटा। खुशी से बोला, ‘मेरी नौकरी लग गयी। अभी पच्चीस हज़ार मिलेंगे।’

हेमलता खुश होकर बोली, ‘अब तो हमें दिक्कत नहीं रहेगी?’

‘न।’

‘हम सिनेमा देखने जा सकेंगे?’

‘ज़रूर।’

‘घूमने जा सकेंगे?’

‘बिलकुल।’

‘अब मकान-मालिक तो हमें तंग नहीं करेगा?’

‘नहीं।’

‘अब तुम मुझसे लड़ोगे तो नहीं?’

‘नहीं लड़ूँगा।’

खुशी से हेमलता की आँखों में आँसू आ गये। लेकिन लगा कि अर्थशास्त्र उनके रोमांस का कुछ हिस्सा काट ले गया है, जो अब वापस नहीं लौटेगा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 44 ☆ व्यंग्य – बे सिर पैर की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  व्यंग्य  बे सिर पैर की।  श्री विवेक जी ने  इस व्यंग्य का शीर्षक बे सिर पैर की  रखा है किन्तु, इसमें सर भी है और पैर भी है। हाँ , ढूंढना तो आपको ही पड़ेगा। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 44 ☆ 

☆ बे सिर पैर की

बे सिर पैर की बातें मतलब फिजूल बातें, बेमतलब की, निरर्थक बातें. बे सिर पैर की बातें करना भी कोई सरल कार्य नहीं होता. अक्सर शराब के नशे में धुत वे लोग जो दीन दुनियां, घर वार भूल जाते हैं, और जिन्हें केवल बार याद रह जाता है, कुछ पैग लगाकर, बड़े सलीके से  तार्किक बेसिर पैर की बातें करने में निपुण माने जाते हैं. उनके ग्रामोफोन की  सुई जहां अटक जाती है, मजाल है कि नशा उतरते तक कोई उनसे कोई तरीके की बात कर सके.  नेता जी लोगों में  भी बे सिर पैर की बाते करने का यह गुण थोड़ा बहुत पाया ही जाता है. अपनी बे सिर पैर की बातों में उलझाकर वे आपसे अपना मतलब सिद्ध करवा ही लेते हैं. यूं कई कहानीकार भी बे सिर पैर का कथानक बुनने के महारथी होते हैं. टी वी सीरियल्स में सास बहू की ज्यादातर स्क्रिप्ट विज्ञापनों और टी आर पी के बीच इस चकाचौंध और योग्यता से दिखाई जाती हैं कि उस बे सिर पैर की कहानी को एपीसोड दर एपीसोड जितना चाहो उतना बढ़ाया जा सकता है. बे सिर पैर का थाट लेकर ही इन दिनो लोकप्रिय हास्य रियल्टी शो ऐसा मशहूर हो रहा है कि लोग वीक एण्ड की और कपिल की सारे हफ्ते प्रतीक्षा करते हैं.

लेकिन इन दिनो जिस एक बे सिर पैर के वायरस ने सारी दुनियां को कारागार में बदल कर रख दिया है वह है करोना. दुनियां भर में हर कोई अपने घर पर लाकडाउन में रहने को मजबूर है. इस बे सिर पैर के, बेजान, प्रोटीन की खाल में लपटे डी एन ए से सुपर पावर्स तक डरी हुई हैं, पर जिनके दिमागो में धर्मांधता के नशे का खुमार हो वे चाहे मरकज में हो, पाकिस्तान में हों या दुनियां के किसी कोने में हों उन्हें इस करोना से कोई डर नही लग रहा. जिन्हें मानव जीवन के इस संघर्ष काल में भी इकानामी का ग्रोथ रेट दिखता हो, ऐसे सुपर पावर्स के बड़े बड़े हुक्मरान भी इस बेसिर पैर के करोना से  बिना डर इस समय को दुनियां में अपने प्रभुत्व जमाने के मौके के रूप में देख रहे हैं. मेरे जैसे  जो सिरे से, दिमाग से सोचते समझते हैं वे अपने ही बायें हाथ से दाहिने हाथ में सामान लेते हुये डर रहे हैं, और साबुन से हाथ धो रहे हैं. हर व्हाटसएप ऐसे पढ़ रहे हैं,मानो उसमें ही करोना के अंत का ज्ञान छिपा है. आप भी ऐसा ही एक व्हाट्सेपी मैसेज पढ़िये.

मार्च की आखिरी तारीख को एक तांत्रिक एक होटल में गया और  मैनेजर के पास जाकर बोला क्या रूम नंबर १३ खाली है?

मैनेजर ने उत्तर दिया हां, खाली है, आप वो रूम ले सकते हैं.तांत्रिक ने कमरा ले लिया और कमरे में जाते हुये मैनेजर से बोला  मुझे एक चाकू, एक काले  धागे की रील और एक पका हुआ संतरा कमरे में भिजवा दो. मैनेजर ने उत्तर दिया ठीक है, और कहा कि हां, मेरा कमरा आपके कमरे के ठीक सामने ही है,अगर आपको कोई दिक्कत हो तो आप मुझे आवाज दे सकते हैं. तांत्रिक बोला ठीक है,और वह कमरे में चला गया.आधी रात को तांत्रिक के कमरे से तेज चीखने चिल्लाने की और प्लेटो के टूटने की आवाज आने लगती है, इन आवाजों के कारण मैनेजर सो भी नही पाता और वो रात भर इस ख्याल से बैचेन रहता है कि आखिर उस कमरे में हो क्या रहा है? अगली सुबह जैसे ही मैनेजर तांत्रिक के कमरे में गया  उसे पता चला कि तांत्रिक होटल से चला गया है और कमरे में सब कुछ ठीक है, टेबल पर चाकू रखा हुआ है, मैनेजर ने सोचा कि जो उसने रात में सुना कहीं उसका मात्र वहम तो नही था. बात कहते एक साल बीत गया..एक साल बाद..मार्च की आखिरी तारीख को वही तांत्रिक फिर से उसी होटल में आया और रूम नंबर १३ के बारे में पूछा ? मैनेजर:- हां, रूम नम्बर १३ खाली है आप उसे ले सकते हैं,तांत्रिक :- ठीक है, मुझे एक चाकू, एक काले  धागे की रील और एक पका हुआ संतरा चाहिए होगा. मैनेजर:- जी, ठीक है.उस रात  मैनेजर सोया नही, वो जानना चाहता था कि आखिर रात में उस कमरे में होता क्या है? ज्यादा रात नही हुई थी तभी वही आवाजें फिर से आनी चालू हो गई और मैनेजर तेजी से तांत्रिक के कमरे के पास गया, चूंकि उसका और तांत्रिक का कमरा आमने-सामने था, इस लिए वहाँ पहुचने में उसे ज्यादा समय नही लगा. लेकिन दरवाजा लॉक था, यहाँ तक कि मैनेजर की वो मास्टर चाबी जिससे हर रूम खुल जाता था, वो भी उस रूम १३ में काम नही कर रही थी.

आवाजो से मैनेजर का सिर फटा जा रहा था, आखिर दरवाजा खुलने के इंतजार में वो दरवाजे के पास ही सो गया.अगली सुबह जब मैनेजर उठा तो उसने देखा कि कमरा खुला पड़ा है लेकिन तांत्रिक वहां नही है. वो जल्दी से मेन गेट की तरफ भागा, लेकिन दरबान ने बताया कि उसके आने से चंद मिनट पहले ही तांत्रिक जा चुका था. मैनेजर कसमसा कर रह गया, उसने निश्चय कर लिया कि  वो पता करके ही रहेगा कि आखिर ये तांत्रिक और रूम १३ का राज क्या है. मैनेजर हमेशा चौकस रहने लगा,जहां चाह वहां राह, आखिर एक दिन बाजार में मैनेजर को तांत्रिक दिख ही गया, वह भागता हुआ उसके पास पहुंचा. उसने तांत्रक से पूछा कि आखिर तुम रात को काले धागे, संतरे और चाकू से करते क्या हो?  चीखने की आवाजें कहां से आती हैं ? बताओ.?तांत्रिक ने कहा मैं तुम्हे ये राज बता दूंगा लेकिन अगले साल और शर्त यह है कि तुम ये राज किसी और को नही बताओगे. मैनेजर मान गया. पर इस साल लॉक डाउन के कारण तांत्रिक आ ही नही सका. अब मैनेजर को अगले मार्च की आखिरी तारीख का इंतजार है. लगता है तब तक इस बे सिर पैर की कहानी के राज  सुनने के लिए हम सबको सजग रहना होगा, सुरक्षित रहना होगा. परमात्मा करे कि हमारे वैज्ञानिक उससे बहुत पहले ही  बे सिर पैर के इस करोना वायरस का अंत कर दें वैक्सीन बनाकर.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ चप्पल का आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक समसामयिक सटीक  व्यंग्य  “चप्पल का आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से अपनी  मौलिक शैली में  न  रच डालते हों ।  इस व्यंग्य  पर मैं कुछ लिखूं यह मेरी क्षमता के बाहर है, किन्तु आपसे अवश्य अनुरोध है कि यदि आपने यह नहीं पढ़ा और इस पर लिखने को बाध्य नहीं हुए तो यह अवश्य ही विडम्बना होगी। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – चप्पल का आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ

नातिन को कहानी सुना रहा हूँ.

एक थी सिंड्रेला. अपनी सौतेली माँ की ज्यादतियों से दुखी रहती थी. एक दिन एक परी आई. उसने जादू से सिंड्रेला को सजा-धजा कर तैयार कर दिया और जादुई रथ से उसे राजमहल की दावत में भेज दिया. लौटते में सिंड्रेला का एक सेंडल महल में ही छूट गया. राजकुमार ने छूटे हुवे सेंडल के सहारे उसे ढूंढवाया. सैनिकों ने उसे ढूंढ कर राजकुमार के सामने हाज़िर किया. राजकुमार ने उससे शादी करके उसे रानी बना लिया.

‘लेकिन नानू, पाँव में सेंडल के बिना वो चली कैसे?’ जिन घरों में होती हैं बाथरूम, किचन और लॉन में जाने के अलग अलग चप्पलें, उन घरों के अबोध बच्चे पूछ ही लेते हैं ऐसे परेशान करनेवाले सवाल. पूछते पूछते नींद लग गयी है उसकी. न्यूज चैनल अब भी दिखा रहा है नंगे पाँव, पैदल घर-गाँव को जाती हुई अभागी लड़की. कहें कि अपन के देश की सिंड्रेला. सिस्टम के सौतेलेपन की मार हर तरफ से झेलती हुई. लॉकडाउन के शिकार, बेबस, लाचार बाबा के साथ निकली है.

फटी फटी सी फ्रॉक, रूखे-सूखे बिखरे बाल, जूओं की काट से सिर खुजाती, मैल की परत सी जमी है हाथ पाँव पर, गीजे आँखों में, पपड़ियाये होंठ, आंसुओं की धार से बनी लकीर गालों पर पढ़ी जा सकती है. सुबह से दो बार पिट चुकी है. वो रोटी जो सूख कर टोस्टनुमा कड़क हो चुकी है वही मांग रही है. बाबा कह रहे हैं कि ख़त्म हो गयी है तो भी जिद पाले बैठी है. सिस्टम ने चहेती संतानों को बाय-एयर एवेक्युएट करा लिया है. और, सौतेली सिंड्रेला ? तीन दिन से चल ही रही है. कभी किसी ट्रक वाले ने बैठा लिया तो कभी किसी टैंकर के उपर. थोड़ी-थोड़ी देर बाबा के कंधे पर, ज्यादातर तो बस पैदल ही. रबर की चप्पल थी पाँव में, टूट गयी है. अब सड़क और पगतलियों के बीच फूटे छालों से एक परत सी बन गई है. दर्द आदत बनता जा रहा है. छाले में घुस आता है कंकर, चीख निकल आती है. बाबा हाथ खींच खींच कर चलाते ही जा रहे हैं. पैर के छालों पर भारी जिजीविषा. मोटर दिखती है तो दौड़ा के ले जाते हैं बाबा उस ओर. मोटर है कि रुकती नहीं. दौड़ते दौड़ते गिर जाता है बाबा के सर से गिरस्ती का पोटला.

ओ परी, क्या तुम भूल गयी हो अपनी सिंड्रेला को ? तुम आज उतरतीं आकाश से और पूछतीं – ‘सिंड्रेला, मेरी बच्ची, क्या चाहिए तुम्हें?’ कहती – ‘टूटी चप्पल में दो बिरंजी ठोक दे कोई या टांका भर लगा दे’. न डिझाईनर गाउन, न ओरिओ विद फ्रूटपंच केक, न लूडो किंग या सब-वे सर्फ़र खेलने के लिये स्मार्टफोन, न मोटू पतलू से निंजा हथौड़ी के कार्टून तक का किड्स पैक. उसे न राजकुमार चाहिये न भूला हुआ वो सैंडल जिसने राजशाही के दौर में तकदीर बदल कर रख दी थी. तकदीर में पहनने लायक चप्पल हो जाये बस इतना पर्याप्त है. छोटी छोटी आँखें, उससे भी छोटे सपने.

ओ परी, तुम एक बार आ क्यों नहीं जाती मदद को. देखो सिंड्रेला चलते चलते बीच सड़क में आ जाती है. ऑडी-शेवरले के मालिकों की गालियां खाकर फिर सड़क के बांयीं ओर हो जाती है. मौत चुनना न उसके हाथ में है न उसके बाबा के. वो कैसे भी मर सकते हैं एक्सीडेंट से, भूख से, या यूं ही लगातार चलते चलते. मरने से पहले तक घर-गाँव में कम से कम नमक रोटी तो मिल जायेगी, सो चल रहे हैं बाप-बेटी. सिस्टम उन्हें कोरोना से मरने नहीं देगा. कोरोना से मरेंगे तो कहेंगे मरने को मर गये, दस को और इन्फेक्ट कर गये. सो चल रहे हैं बांयी तरफ, लेफ्ट राईट की बहस से असम्पृक्त, किसी तरह जिन्दा रहने के अलावा किसी और आईडियोलॉजी के बारे में जानते भी नहीं.

चलते चलते अब बाबा भी थक कर बैठ गये हैं जमीन पर. आकाश की ओर तक रही है सिंड्रेला. चप्पल आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ. कितनी परियां विचर रही हैं आकाश में. परियां पीडीएस की, नरेगा की, जन-धन की, डीबीटी की, नीति आयोग की, एनजीओ की, यूनिसेफ की, डब्ल्यूएचओ की, लिबरलाइजेशन की, ग्लोबलाइजेशन की. कितनी सारी परियां मगर सिंड्रेला के लिये कोई नीचे उतर नहीं रहीं. उतरेगी भी तो सिंड्रेला तक पहुंचेगी ? पता नहीं.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43 ☆माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक समसामयिक और काफी कुछ कहती एक माइक्रो व्यंग्य   “आ गले लग जा” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43

☆ माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ 

विनीत टाकीज में ‘आ गले लग जा’ फिल्म देखकर बाहर निकले थे तो दस पैसे में “आ गले लग जा” के गाने लिए थे। गाने का गुटका बेचने वाला चिल्ला चिल्ला कर परेशान हो रहा था कि ‘दस पैसे में आ गले लग जा “पर कोई इतने सस्ते में गले लगने तैयार नहीं हुआ था। पर हाय री दुनिया…….. गजब हो गया एक जमाने में गले लग जाने से करोड़ों के वारे न्यारे हो जाते हैं। संसद हाल में एक क्लीनसेव एक दाढ़ी वाले से तपाक से गले मिले थे तो सबको खूब मज़ा आया था। अब देखो कोरोना की कारस्तानी कि इंसान को इंसान से गले मिलने पर जान लेने पर उतारू हो जाता है। इस प्रकार हाथ मिलाने और गले मिलने की परम्परा खतम कर दी इस निर्जीव वायरस ने।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 46 ☆ व्यंग्य – विभीषण के वंशज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘विभीषण के वंशज’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है  इन पात्रों को कहीं तो देखा है । ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 46 ☆

☆ व्यंग्य – विभीषण के वंशज ☆

 

उस दिन श्रीमती जी पड़ोस के गप-सेशन से लौटकर गद्गद स्वर में कहने लगीं, ‘देखिए न, पड़ोस वाले भाई साहब ने अपने पूरे घर में खुद पेन्ट किया है।बहुत बढ़िया रंग आया है।’

सुनकर मेरे मन की कली मुरझा गयी।जब मेरे पुरुष भाई गलत उदाहरण पेश करके और गलत परंपराएं डालकर अन्य पुरुषों के लिए काँटे बोते हैं तो फिर क्या कहा जाए।।

मेरे एक मित्र गुप्ता जी हैं, पाक-कला में निपुण, कपड़ों की कटाई-सिलाई में माहिर, घर के हर छोटे बड़े काम में दखल रखने वाले।घर में नाना प्रकार के व्यंजन बनाते हैं, अचार-मुरब्बे के बारे में विस्तृत निर्देश देते हैं और घर में कोई भी यंत्र गड़बड़ होने पर तुरन्त औज़ार लेकर दौड़ पड़ते हैं।और मैं उनकी नादानी पर कुढ़ता हूँ।सब के घरों में कैसा पलीता लगाते हैं ये।मैं पूछता हूँ अव्वल तो इन्होंने शादी क्यों की, और शादी की तो मेरे पड़ोस में रहने क्यों आये?

एक और मित्र थे।बड़े नफ़ासत वाले।बासमती चावल और बढ़िया घी के शौकीन।चाय और भोजन बनाने में माहिर।कपड़े धोयें तो ऐसा लगे कि साबुन का विज्ञापन है।घर की सफाई पर बहुत ध्यान देने वाले।भाग्य से वे दिल्ली चले गये और उनके दुर्गुणों का दुष्प्रभाव ज़्यादा नहीं फैल पाया।

कुछ नये विवाहित पति आरंभ में शेखी मारने के लिए घर के कई काम करते हैं। ‘देखो, मैं कैसी बढ़िया चाय बनाता हूँ’, ‘देखो, मैं कैसी बढ़िया सब्ज़ी बनाता हूँ।’ समझदार पत्नियाँ इस स्थिति का लाभ उठाकर अपना रास्ता चुन लेती हैं।फिर जब श्रीमान कहते हैं, ‘भई चाय बनाओ’, तब श्रीमती जी जवाब देती हैं, ‘आप ही बनाइए।आपसे अच्छी मैं नहीं बना सकती।’ परिणाम यह होता है कि शेखी में की गयी भूल के कारण कई पतियों की परिवार के रसोइया, टेलर या अन्य पदों पर स्थायी नियुक्ति हो जाती है।फिर आप उनसे मिलने जाएंगे तो अक्सर वे कंधे पर झाड़न डाले रसोईघर से प्रकट होंगे।

मेरे एक वकील मित्र भी कुछ ऐसे ही चक्कर में फंसे हैं।एक दिन उन्होंने बड़े प्यार से पत्नी से कहा, ‘भई, ज़रा अमरूद काटो हम लोगों के लिए’, और पत्नी ने लौटती डाक से उत्तर दे दिया, ‘आप ही काटिए, आप बहुत अच्छा काटते हैं।’ मित्र का मुँह उतर गया।मैंने सोचा, ज़रूर इन्होंने कभी पत्नी के सामने अमरूद काटने का ‘दुरुस्त नमूना’ पेश किया होगा और अब उसका फल भोग रहे हैं।

हमारे एक और साथी हैं, मेरे हिसाब से आदर्श पुरुष।बैडमिन्टन खेलने के शौकीन हैं।जब उनका विवाह हुआ था तब परिवार-नियोजन का दौर-दौरा नहीं था, इसलिए परिवार भरा-पूरा है।शाम को जब वे बैडमिन्टन का रैकेट उठाते हैं तो पत्नी कहती है, ‘ज़रा छोटे बच्चे को संभालिए तो कुछ काम कर लूँ।’ वे दो चार मिनट रुकते हैं, फिर मौका मिलते ही सटक लेते हैं।मुझे बताते हैं, ‘जब लौट कर आता हूँ तब सब काम ठीक मिलता है।यह कहना बकवास है कि हमारे सहयोग के बिना घर का काम रुक जाएगा।’

एक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था कि मूरख बने रहना ही सबसे ज़्यादा फायदेमन्द है।रास्ते में मोटर पंक्चर हो जाए तो तब तक इन्तज़ार कीजिए जब तक कोई मोटरवाला पास आकर न रुके।जब वह उतर कर आये उस वक्त पहिये पर अनाड़ीपन के दो चार हाथ मारिए और पसीना-पसीना हो जाइए।वह आकर आपको देखेगा, फिर उसका ज्ञान-गर्व जागेगा।वह आपसे कहेगा, ‘हटिए एक तरफ, आप तो बिलकुल अनाड़ी हैं।’ आप चुपचाप अलग हो जाइए और जब वह आपका पहिया बदले तब हैरत से उसके कंधे के ऊपर से झाँकते रहिए।जब वह पहिया बदल कर हाथ झाड़े तब आश्चर्य और प्रशंसा के भाव से मुँह खोले उसकी ओर देखिए, या बुदबुदाइए, ‘कमाल है!’ वह मुस्कराता हुआ अपनी कार में बैठकर रवाना हो जाएगा और आप सीटी बजाते हुए अपनी कार में प्रवेश कीजिए।वह भी खुश,आप भी खुश।

घर में कभी श्रीमती जी चाय बनाने को कहें तो ऐसी बनाइए कि उन्हें तुरन्त दूसरी चाय बनानी पड़े और अगली बार आपसे कहने से पहले छः बार सोचना पड़े।आपने अच्छी वस्तु तैयार करके दी और समझिए कि आपका बेड़ा ग़र्क हुआ।

तो भाइयो, सबसे ज़्यादा सुख और आराम भकुआ बने रहने में है।आराम से बैठे रहिए और देखिए कि संसार का काम आपके योगदान के बिना कैसे बाकायदा चलता है।इस संबंध में मेरी गुज़ारिश है कि पुरुष वर्ग में जो विभीषण बनकर मेरे जैसों की लंका ढाने की कोशिश करते हैं उन्हें सभ्य समाज से दूर किसी अलग कॉलोनी में बसाया जाए ताकि संक्रमण न फैले और मेरे जैसों की गृहस्थी की तन्दुरुस्ती सलामत रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 43 ☆ करोना का रोना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 43 ☆ 

☆ करोना का रोना 

हमारे पडोस में चीनू जी रहते थे, एक बार उनके घर में एक सांप घुस आया था. श्रीमती चीनू  ने सांप देखा और बदहवास जोर से चिल्लाईं. उनकी चीख सुनकर हम पडोसी उनके घर भागे. सांप गार्डेन से लगे कमरे में सरक कर आ गया था. त्वरित बुद्धि का प्रयोग कर मैंने उस कमरे के तीनो दरवाजे खींचकर बंद कर दिये. यह देखा कि किसी दरवाजे में कहीं कोई सेंध तो नही है. फिर गार्डेन की तरफ की खिड़की से देखते हुये सांप पर नजर रखने के काम पर चीनू जी को पहरे में लगा दिया.  चूंकि हमारी कालोनी ठेठ खेतों के बीच थी,इसलिये जब तब  घरों में सांप निकलते रहते थे. अतः एक मित्र के पास सांप पकड़ने वाले का नम्बर भी था, उन्होंने तुरंत फोन करके उसे बुला लिया. सांप पकड़ने वाले के आने में देर हो रही थी, तब तक मिसेज चीनू हम सब के लिये चाय बना लाईं. कुछ देर में  सांप पकड़ने वाला आ ही गया, और घंटे दो घंटे की मशक्कत के बाद सांप पकड़ लिया गया. सब लोगों ने चैन की सांस ली.

पत्नी जी को करोना के देश में घुस आने वाली वर्तमान समस्या सरल तरीके से समझाने के लिये मैं उन्हें बता रहा था कि चीनू जी के घर सांप घुस आने वाली घटना की सिमली थोड़े बृहद स्वरूप में की जा सकती है. जिस तरह हमने चीनू जी के  ड्राइंग रूम के सारे दरवाजे बंद कर दिये थे, जिससे सांप जहां है उसी  कमरे में ही सीमित रहे, वहां से बाहर न निकल सके, उसी तरह देश के जिन क्षेत्रो में करोना जा छिपा है, उन हिस्सों को सील किये जाने को ही कम्पलीट लॉकडाउन कहा जा सकता है. सांप पकड़ने वाले की तुलना करोना से निपटने वाली हमारी चिकित्सकीय टीम से की जा सकती है. हां थोड़ा अंतर यह है कि चीनू जी के घर पर घुसा सांप तो दिखता था यह करोना खुली आंखो दिखता नही है. बिटिया ने हस्तक्षेप किया अरे पापा आप भी कैसी सिमली कर रहे हैं, सांप तो जीव होता है, जबकि करोना कोई जीव नही विषाणु है,वायरस मतलब प्रोटीन के कवर में डी एन ए मात्र है. मैं बेटी के जूलाजिकल ज्ञान पर गर्व करता इससे पहले पत्नी ने हस्तक्षेप किया. अरे आप भी क्या बात कर रहे हैं, आस्तीन में छिपे सांप तो देश में डाक्टर्स और करोना वारियर्स पर पथराव कर रहे हैं, थूक रहे हैं. टी वी की गरमा गरम बहसों में करोना की चिंता कई रूपों में हो रही है. किसी प्रवक्ता की चिंता जनवादी है, तो किसी समूचे चैनल को ही राष्ट्रवादी चिंता है. किसी पार्टी को न्यायवादी चिंता सता रही है. तो किसी जमात की चिंता धर्मवादी चिंता है. अपने जैसे विश्ववादी, बुद्धिवादी चिंता कर के खुश हैं. नेता जी वोट वाली, प्रचारवादी प्रभुत्व वाली,पक्ष विपक्ष की निंदा वाली चिंता किये जा रहे हैं. चिकित्सकीय चिंता वैज्ञानिको की शोधात्मक चिंता है. प्रशासनिक चिंता ने धारा १४४ और कर्फ्यू के बीच लॉकडाउन की एक नई अलिखित धारा बना दी है. कोई बतलायेगा कि अपने देश में लोगों को उनके हित के लिये भी लाठी से क्यों हकालना पड़ता है ? एक पंडाल में दो, ढ़ाई हजार  लोगों के इकट्ठा होकर कोई धार्मिक समारोह करने से बेहतर नहीं है क्या कि एक देश में 135 करोड़ लोग करोना के खात्मे के मिशन से एकजुट होवें और बिना निराशा के  बंद रहकर नई जिंदगी के रास्ते खोलने में सरकार व समाज की मदद करें. सब कुछ विलोम हो गया है. सोशल डिस्टेंसिग के चलते पत्नी छै बाई छै के पलंग के एक छोर पर सो रही है तो पति दूसरे छोर पर. सारी दुनियां में एक साथ जीवन की चिंता के सम्मुख इकानामी की चिंता बहुत गौंण हो गई है. मैं तो रोज कमाने खाने वाले गरीब की दृष्टि से यह सोच रहा हूं कि छोटे कस्बे गांवों  जहाँ संक्रमण शून्य है, वहां का आंतरिक लॉक डाउन समाप्त किया जा सकता है,  हां वहां से अन्य नगरों को आवागमन शत प्रतिशत प्रतिबंधित रखा जावे. करोना के निवारण के बाद  सहयोग के विश्व विधान का सूत्रपात हो, क्योंकि करोना ने हमें बता दिया है कि बड़े बड़े परमाणु बम और सेनायें एक वायरस को रोक नही पातीं, उसे रोकने के लिये सामुदायिक समभाव परस्पर सद्भावना और उत्साह जरूरी होता है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 14 ☆ जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें …..।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 14 ☆

☆ जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें …..

सब कुछ तुरंत हो ये सोच बिना सोचे काम करने पर मजबूर करती है । जल्दी का काम शैतान का होता है इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर सुखीराम जी पचास बसंत पूरे कर चुके हैं । उनके खाते में यदि कोई उपलब्धि है तो बस वो उम्मीद का टोकरा ;  जिसे सिर पर लादे सकारात्मक भाव से ये कहते हुए घूम रहे हैं कि जब घूरे के दिन फिरते हैं तो मेरे क्यों नहीं फिरेंगे ?

मजे की बात ये है कि ऐसे लोग बड़े भावुक होते हैं सो सुखीराम जी भी इनसे अलग कैसे हो सकते थे । भावुक लोगों के पास कुछ हो न हो रिश्तेदारों की फौज बड़ी  लम्बी होती है , जो समय-समय पर सलाह देने का कार्य करती है । जिस सलाह को बहुमत मिला समझो वो आचरण में लागू हो गयी । एक के पीछे एक चलने की परंपरा आदि काल से ही निर्बाध रूप से चलती चली जा रही है । कोई न कोई इसका अगुआ बन भेड़चाल का पालन अवश्य करता और कराता है । इस चाल का फायदा ये होता है कि चाल- चलन पर प्रश्न उठाने वाला कोई बचता ही नहीं ,सभी पंक्तिबद्ध होकर  चलते जाते हैं अनंत को खोजते हुए । इसका परिणाम क्या होगा इससे किसी को कोई लेना – देना नहीं रहता उन्हें तो बस पीछा करना रहता है ।

इनकी अगली विशेषता ये होती है कि बातें करने में इनका कोई सानी नहीं होता । हवाई किले बनाना तो इनके बाएँ हाथ का कार्य होता है । और इसका प्रयोग ताउम्र बाखूबी करते हैं । मददगार का ठप्पा लगाकर न जाने कितने लोगों की मदद स्वयं लेकर अपने आपको आगे बढ़ाते रहने की कला में तो मानो पी एच डी ही हासिल की होती है । प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि संसार के सबसे सुखी व्यक्ति का रिकार्ड इनके ही नाम होगा परन्तु शीघ्र ही कार्यव्यवहार सारी पोल पट्टी खोल कर रख देता है ।

जब तक सुखीराम जी की इच्छापूर्ति होती रहती है तब तक इस धरती में उन्हें स्वर्ग नजर आता है जैसे ही  बाधा खड़ी हुई तो  नर्क का बेड़ागर्क करते हुए बड़ी खूबसूरती से बच निकलते हैं । इन्हें तो बस सुख की रोटी ही तोड़नी है बाकी लोग भाड़ में जाएँ या कहीं और इनसे कोई लेना देना नहीं रहता । स्वार्थसिद्धि का गुणगान गाते हुए सुखीराम जी जीवन के सुख अनवरत भोगते ही जा रहे हैं ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 13 ☆ पहली पसन्द ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “पहली पसंद*।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 13 ☆

☆ पहली पसंद

आदि काल से ही राजाओं के दरबार में चाटुकारों का बाहुल्य रहा है । जिस तरह एक कुशल सेनापति सेना को संभाल सकता हैं , योग्य मंत्री राज्य को सुचारू रूप से संचालित कर उसके आय- व्यय का ब्यौरा रख , कोष हमेशा भरा रखता है, इसी तरह भाट हमेशा राजा की वंशावली का गुणगान  सर्वत्र करता है । अब बात आती चाटुकार की;  ये तो सबसे जरूरी होते हैं ।  सच कहूँ तो जिस प्रकार उत्प्रेरक, रासायनिक पदार्थों की क्रियाशीलता को बढ़ाते हैं, एपीटाइजर भूख को बढ़ाते हैं ठीक वैसे ही राजा को क्रियाशील बनाने हेतु चाटुकार कार्य करते हैं ।

मानव का मूल स्वभाव है कि जब कोई प्रशंसा करता है तो मानो पंख ही लग जाते हैं । चाटुकार एक ऐसा पद है जिसकी कोई नियुक्ति नहीं होती फिर भी सबकी नियुक्तियों में उसका ही हाथ होता है । नीति निर्माताओं की पहली पसंद यही होते हैं क्योंकि इनके पास विशाल जनमत होता है । यदि दरबार को सजाना, सँवारना है तो  दरबारी होने ही चाहिए और वो भी विश्वास पात्र । इन सबको जोड़ने का कार्य चाटुकार से बेहतर कौन करेगा । राय देने में तो इनको इतनी महारत हासिल होती है कि लगता है बस ये पूरी दुनिया केवल और केवल  इन्होंने ही बनाई है ।

कोई भी राजा बनें चाटुकार तो हर हालत में खुश रहते हैं ।  चाटुकारों की उपयोगिता इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि बहुत से ऐसे लोग भी होते हैं जो सत्यवादी बनने की होड़ में कुछ ज्यादा ही जोड़- तोड़ कर बैठते हैं और फिर औंधे मुख गिरते हुए  बचाओ – बचाओ की गुहार लगाते हैं । कुछ लोग तो इतने जिद्दी होते हैं कि  बस सत्य का ही राग अलापेंगे न समय देखते हैं न व्यक्ति । ऐसे कठिन समय में यदि कोई जीवन दायक बन कर उभरता है तो वो चाटुकार ही होता है;   जिसे चाहो न चाहो चाहना ही पड़ता है ।

जीवन का ये भी एक कड़वा सत्य ही है कि हर व्यक्ति  कहता है कि आप मेरे दोष बताइये किन्तु जैसे ही सत्य  निंदा की पोषाक पहन कर सामने आया कि – बिन पानी बिन साबुना निर्मल करे सुहाय की निर्मलता  कोसो दूर चली जाती है । आप खुद ही सोचिए कि निंदा में अगर रस होता तो व्याकरण में रस की श्रंखला में वात्सल्य को तो दसवां रस मानने हेतु वैयाकरण  राजी हुए किन्तु निंदा रस को क्यों नहीं माना ।

कारण साफ है करनी और कथनी में अंतर होता है । जब तक निंदा दूसरे की करनी हो वो भी पीठ पीछे तभी तक इसमें रस उतपन्न होता है । व्यक्ति के सामने करने पर रौद्र व वीभत्स के संयोग रस की उतपत्ति हो जाती है ।

आज तक का इतिहास उठा कर देख लीजिए किसी भी शासक ने निंदक को अपनी कार्यकारिणी में नहीं रखा , हाँ इतना जरूर है कि चाहें कोई भी काल रहा हो यहाँ तक कि गुलामी के दौर में भी बस आगे बढ़े हैं तो केवल चाटुकार ही । बढ़ना ही जीवन है तो क्यों न इस गति को बरकरार रखते हुए चिंतन करें कि हम किस ओर जा रहे हैं ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक समसामयिक सटीक  व्यंग्य  “समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से अपनी  मौलिक शैली में  न  रच डालते हों ।  फिर वर्तमान परिस्थितियों में वर्क फ्रॉम होम से कई लोग खुश हैं तो कई नाखुश। आखिर नाखुश लोगों  की समस्याओं की भी विवेचना तो होनी ही चाहिए न, सो श्री शांतिलाल जी  ने वह विवेचना आपके लिए कर दी है। इस व्यंग्य को वर्क फ्रॉम होम के ब्रेक में पढ़ना भी वर्क फ्रॉम होम का हिस्सा है।  श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – ‘समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में’

“हद्द है यार, ऑफिस का काम कोई घर से कैसे कर सकता है? आप ही बताईये शांतिबाबू कोई तम्बाकू थूके तो कहाँ थूके?”

सच कहा चंद्राबाबू ने. डेस्क के दायीं ओर जैसा कोना घर में तो होता नहीं. फिर, सत्ताईस बरस की नौकरी में एक आदत सी पड़ जाती है. सिर के उप्पर जाले लगे हों, छत के टपकते पलस्तर से बचने के लिए कहीं कहीं काली बरसाती बांध दी गयी हो, मरा-मरा सा घूमता छत का पंखा हो, टूटे हत्थों वाली कुर्सियाँ हों, स्टाम्प पेड की इंक के धब्बों वाले टेबल-कवर हों, समोसा खाकर लाल चटनी के पोंछे गये हाथ वाले परदे हों, सरकारी योजना के ध्येय वाक्यों से पुती बदरंग दीवारें हों, फाईलों के पहाड़ हों, उन पर ढेर सी धूल, कुछ कुछ सीलन सी हो. दफ्तर जैसा माहौल मिले तब तो मन लगाकर काम करे आदमी.

दफ्तर के अहाते में विचरते देसी कुत्तों को वे रोजाना पार्ले-जी बिस्कुट डालते हैं. मोती तो आस लगाये उनकी टेबल के नीचे ही बैठा रहता है. बिस्किट की हसरत पाले हुये बार बार ऑफिस में घुसते पिल्लै चंदू की लात खाते रहते हैं. तो श्रीमान, परेशानी नंबर एक तो ये कि काम करने का ऐसा प्रेरक माहौल मिस कर रहे हैं चंद्राबाबू. दूसरे, बार बार थूकने गैलरी में आना पड़ता है.

“ये तो सही कहा आपने, लेकिन घर से काम करने में बहुत सी चीज़ों का आराम भी तो रहता है”. – अपनी गैलरी से ही मैंने कहा.

चंद्राबाबू ने ध्यान से पीछे देखा. वाइफ दिखी नहीं, तब भी स्वर थोड़ा धीमे ही करके बोले – “चाय की दिक्कत है, अपन को लगती तो कट है लेकिन होना छोटे छोटे इंटरवल में. इसको बनाने में कंटाला जो आता है”.

“आपके दफ्तर के बाकी कर्मचारी भी घर से ही काम कर रहे होंगे ना?”

“भोत भोले हैं आप शांतिबाबू, जो दफ्तर में ही दफ्तर का काम नहीं करते वे घर से दफ्तर का काम क्या करेंगे.”

वार्तालाप सुनकर, वर्मा साब भी बाहर आ गये. वे एक अन्य दफ्तर में अफसर हैं. वर्क फ्रॉम होम को लेकर दुखी वे भी कम नहीं हैं. उनके दफ्तर का रामदीन गाँव चला गया है. था तो दिन में चपरासगिरी कर लेता था और सुबह शाम घर के काम देख लेता था. कोरोना का कहर बजरिये रामदीन के मिसेज वर्मा पर टूट पड़ा है. समय की मार देखिये श्रीमान, आज धुली नाईटी पे प्रेस करके देनेवाला रामदीन है नहीं और नजला वर्मा साब पर गिरा है.

दूसरा, वर्मा साब भावना मैडम को बुरी तरह मिस कर रहे हैं. वाईफ की कर्कश जुबां के मराहिलों से गुजरते हुवे वे जब दफ्तर पहुँचते थे तो भावनाजी के बोल कानों में मिश्री घोलते प्रतीत होते थे. ये लॉकडाउन और ये बिछोह. मन आर्द्र हो उठा उनका. साढ़े ग्यारह तक आती है. तो क्या हुआ, उसे घर भी देखना पड़ता है. काम पूरा न भी कर पाये लेकिन वर्मा साब से बिहेव प्रॉपरली करती है. वैरी फ़ास्ट इन लाईफ – लंच में निकलती है तो बाज़ार जाकर सब्जी, किराना, पनीर-शनीर ले कर दो घंटे से कम में लौट आती है, फाल-पिको के लिये साड़ी डाल आती है, बच्चों का होमवर्क निपटा लेती है, शहनाज़ पर रुककर आई-ब्रो बनवा लेती है, पीहर में वाट्सअप चैट कर लेती है. तीन किटी ग्रुप में मेंबर है, दफ्तर से निकलकर जल्दी-जल्दी अटेंड करके साढ़े चार तक वापस भी आ जाती है. वेरी एक्टिव, वेरी एजाईल. हम आज ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहे हैं, वो बेचारी तो कब से ‘होम फ्रॉम वर्क’ कर रही है. फ़िज़ूल खर्ची नहीं करती – बच्चों के लिए पेन, पेन्सिल, शार्पनर ऑफिस से ले जाती है, कभी संकोच नहीं किया. मैडम है तो जिंदगी में रस है. ख्यालों पर ब्रेक लगा तो पान की तलब लगी. बाबा चटनी, किवाम, एक सौ बीस का मीठा पत्ता अभी कहाँ मिलेगा. दफ्तर में हों तो पप्पू चौरसिया ध्यान रख लेता है, शाम को घर के लिये भी बाँध देता है. ‘नास हो चीनियों का’ – बुदबुदाये और मजबूरी में पूछा – “चंद्रा, राजश्री रखे हो क्या?”

आठ बजे जननायक ने लॉकडाउन की घोषणा की और आठ पाँच पर चंद्राबाबू बनारसी की दुकान पर थे. थोक में राजश्री वोई रखता है. सौ वाला कार्टन उठा लाये. दूरदर्शिता से काम लिया तो आज सुख है. चंद्राबाबू ने साधकर वर्मासाब की गैलरी में दो फैंके. आपने सेवा का अवसर प्रदान किया, आभार आपका जैसे भाव मन में लाये और कृतज्ञ अनुभव किया. संकट की घड़ी में इंसान ही इंसान के काम आता है. बोले – ‘आप भी खाया करो शांतिबाबू, कोरोना का वायरस फेफड़े में उतरने से पहले तीन चार दिन तक गले में ही रहता है. तम्बाकू खाने से मर जाता है. इटली वाले ज्यादा मरे ही इसलिए – साले राजश्री नहीं खाते हैं ना’.

चंद्राबाबू यूं तो जननायक के समर्थक थे मगर इस बार खिन्न थे. जो लॉकडाउन की घोषणा एक दिन लेट की होती तो वे बुढार के दौरे पर निकल चुके होते. ससुराल है वहां. ठाठ से रहते, टीए के साथ-साथ डीए इक्कीस दिन का मिलता. होम इकॉनमी स्ट्रेस में चल रही है.

लॉकडाउन ने वर्मा साब और चंद्राबाबू दोनों की निजी अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाला है. घर से ही बिल तो निकाल दिये, कट बाकी है. सोशल डिस्टेंसिंग के बहाने ठेकेदार, वेंडर, सप्लायर मिलने में कन्नी काट रहे. घर का फिस्कल डेफिसिट बढ़ रहा है, परकेपिटा इनकम कम हो रही है. सत्ताईस साल में पहली बार मार्च की बेलेंसशीट रेड में जायेगी. घर से काम करते रहो तो साला कोई ओवरटाइम भी नहीं देगा. बड़े साब मोबाइल पर देर शाम को भी कोई काम बोल देते हैं. समस्या की जड़ तो बस दो – चाईनीज़ वायरस और चाईनीज़ मोबाइल. मन किया फेंक ही दें इसको. फिर ध्यान आया कि धनराज कांट्रेक्टर का दिया हुआ है तो क्या, है तो पैतीस हज़ार का.

इस बीच वर्मा साब के घर की डोअर बेल बजी. कुड़ाकुड़ाये मन में. दफ्तर में ठाठ से बेल बजाते हैं, यहाँ बेल सुननी पड़ती है. उन्होंने एक बार इधर-उधर देखा. मेरे अलावा कोई बाहर था नहीं. मेरी परवाह उन्होंने की नहीं. राजश्री थूका और बोले – ‘शाम को बात करते हैं’. आदमी पढ़ा-लिखा ओहदेदार हो तो थूकने में कांफिडेंस आ ही जाता है. वे अन्दर चले गये.

मैं कभी उन खाली गैलरियों को, कभी सड़क पर पड़े थूक को देख रहा हूँ. वर्क फ्रॉम होम कराने की इतनी कीमत तो देश को चुकानी ही पड़ेगी.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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