हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक समसामयिक सटीक  व्यंग्य  “समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से अपनी  मौलिक शैली में  न  रच डालते हों ।  फिर वर्तमान परिस्थितियों में वर्क फ्रॉम होम से कई लोग खुश हैं तो कई नाखुश। आखिर नाखुश लोगों  की समस्याओं की भी विवेचना तो होनी ही चाहिए न, सो श्री शांतिलाल जी  ने वह विवेचना आपके लिए कर दी है। इस व्यंग्य को वर्क फ्रॉम होम के ब्रेक में पढ़ना भी वर्क फ्रॉम होम का हिस्सा है।  श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – ‘समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में’

“हद्द है यार, ऑफिस का काम कोई घर से कैसे कर सकता है? आप ही बताईये शांतिबाबू कोई तम्बाकू थूके तो कहाँ थूके?”

सच कहा चंद्राबाबू ने. डेस्क के दायीं ओर जैसा कोना घर में तो होता नहीं. फिर, सत्ताईस बरस की नौकरी में एक आदत सी पड़ जाती है. सिर के उप्पर जाले लगे हों, छत के टपकते पलस्तर से बचने के लिए कहीं कहीं काली बरसाती बांध दी गयी हो, मरा-मरा सा घूमता छत का पंखा हो, टूटे हत्थों वाली कुर्सियाँ हों, स्टाम्प पेड की इंक के धब्बों वाले टेबल-कवर हों, समोसा खाकर लाल चटनी के पोंछे गये हाथ वाले परदे हों, सरकारी योजना के ध्येय वाक्यों से पुती बदरंग दीवारें हों, फाईलों के पहाड़ हों, उन पर ढेर सी धूल, कुछ कुछ सीलन सी हो. दफ्तर जैसा माहौल मिले तब तो मन लगाकर काम करे आदमी.

दफ्तर के अहाते में विचरते देसी कुत्तों को वे रोजाना पार्ले-जी बिस्कुट डालते हैं. मोती तो आस लगाये उनकी टेबल के नीचे ही बैठा रहता है. बिस्किट की हसरत पाले हुये बार बार ऑफिस में घुसते पिल्लै चंदू की लात खाते रहते हैं. तो श्रीमान, परेशानी नंबर एक तो ये कि काम करने का ऐसा प्रेरक माहौल मिस कर रहे हैं चंद्राबाबू. दूसरे, बार बार थूकने गैलरी में आना पड़ता है.

“ये तो सही कहा आपने, लेकिन घर से काम करने में बहुत सी चीज़ों का आराम भी तो रहता है”. – अपनी गैलरी से ही मैंने कहा.

चंद्राबाबू ने ध्यान से पीछे देखा. वाइफ दिखी नहीं, तब भी स्वर थोड़ा धीमे ही करके बोले – “चाय की दिक्कत है, अपन को लगती तो कट है लेकिन होना छोटे छोटे इंटरवल में. इसको बनाने में कंटाला जो आता है”.

“आपके दफ्तर के बाकी कर्मचारी भी घर से ही काम कर रहे होंगे ना?”

“भोत भोले हैं आप शांतिबाबू, जो दफ्तर में ही दफ्तर का काम नहीं करते वे घर से दफ्तर का काम क्या करेंगे.”

वार्तालाप सुनकर, वर्मा साब भी बाहर आ गये. वे एक अन्य दफ्तर में अफसर हैं. वर्क फ्रॉम होम को लेकर दुखी वे भी कम नहीं हैं. उनके दफ्तर का रामदीन गाँव चला गया है. था तो दिन में चपरासगिरी कर लेता था और सुबह शाम घर के काम देख लेता था. कोरोना का कहर बजरिये रामदीन के मिसेज वर्मा पर टूट पड़ा है. समय की मार देखिये श्रीमान, आज धुली नाईटी पे प्रेस करके देनेवाला रामदीन है नहीं और नजला वर्मा साब पर गिरा है.

दूसरा, वर्मा साब भावना मैडम को बुरी तरह मिस कर रहे हैं. वाईफ की कर्कश जुबां के मराहिलों से गुजरते हुवे वे जब दफ्तर पहुँचते थे तो भावनाजी के बोल कानों में मिश्री घोलते प्रतीत होते थे. ये लॉकडाउन और ये बिछोह. मन आर्द्र हो उठा उनका. साढ़े ग्यारह तक आती है. तो क्या हुआ, उसे घर भी देखना पड़ता है. काम पूरा न भी कर पाये लेकिन वर्मा साब से बिहेव प्रॉपरली करती है. वैरी फ़ास्ट इन लाईफ – लंच में निकलती है तो बाज़ार जाकर सब्जी, किराना, पनीर-शनीर ले कर दो घंटे से कम में लौट आती है, फाल-पिको के लिये साड़ी डाल आती है, बच्चों का होमवर्क निपटा लेती है, शहनाज़ पर रुककर आई-ब्रो बनवा लेती है, पीहर में वाट्सअप चैट कर लेती है. तीन किटी ग्रुप में मेंबर है, दफ्तर से निकलकर जल्दी-जल्दी अटेंड करके साढ़े चार तक वापस भी आ जाती है. वेरी एक्टिव, वेरी एजाईल. हम आज ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहे हैं, वो बेचारी तो कब से ‘होम फ्रॉम वर्क’ कर रही है. फ़िज़ूल खर्ची नहीं करती – बच्चों के लिए पेन, पेन्सिल, शार्पनर ऑफिस से ले जाती है, कभी संकोच नहीं किया. मैडम है तो जिंदगी में रस है. ख्यालों पर ब्रेक लगा तो पान की तलब लगी. बाबा चटनी, किवाम, एक सौ बीस का मीठा पत्ता अभी कहाँ मिलेगा. दफ्तर में हों तो पप्पू चौरसिया ध्यान रख लेता है, शाम को घर के लिये भी बाँध देता है. ‘नास हो चीनियों का’ – बुदबुदाये और मजबूरी में पूछा – “चंद्रा, राजश्री रखे हो क्या?”

आठ बजे जननायक ने लॉकडाउन की घोषणा की और आठ पाँच पर चंद्राबाबू बनारसी की दुकान पर थे. थोक में राजश्री वोई रखता है. सौ वाला कार्टन उठा लाये. दूरदर्शिता से काम लिया तो आज सुख है. चंद्राबाबू ने साधकर वर्मासाब की गैलरी में दो फैंके. आपने सेवा का अवसर प्रदान किया, आभार आपका जैसे भाव मन में लाये और कृतज्ञ अनुभव किया. संकट की घड़ी में इंसान ही इंसान के काम आता है. बोले – ‘आप भी खाया करो शांतिबाबू, कोरोना का वायरस फेफड़े में उतरने से पहले तीन चार दिन तक गले में ही रहता है. तम्बाकू खाने से मर जाता है. इटली वाले ज्यादा मरे ही इसलिए – साले राजश्री नहीं खाते हैं ना’.

चंद्राबाबू यूं तो जननायक के समर्थक थे मगर इस बार खिन्न थे. जो लॉकडाउन की घोषणा एक दिन लेट की होती तो वे बुढार के दौरे पर निकल चुके होते. ससुराल है वहां. ठाठ से रहते, टीए के साथ-साथ डीए इक्कीस दिन का मिलता. होम इकॉनमी स्ट्रेस में चल रही है.

लॉकडाउन ने वर्मा साब और चंद्राबाबू दोनों की निजी अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाला है. घर से ही बिल तो निकाल दिये, कट बाकी है. सोशल डिस्टेंसिंग के बहाने ठेकेदार, वेंडर, सप्लायर मिलने में कन्नी काट रहे. घर का फिस्कल डेफिसिट बढ़ रहा है, परकेपिटा इनकम कम हो रही है. सत्ताईस साल में पहली बार मार्च की बेलेंसशीट रेड में जायेगी. घर से काम करते रहो तो साला कोई ओवरटाइम भी नहीं देगा. बड़े साब मोबाइल पर देर शाम को भी कोई काम बोल देते हैं. समस्या की जड़ तो बस दो – चाईनीज़ वायरस और चाईनीज़ मोबाइल. मन किया फेंक ही दें इसको. फिर ध्यान आया कि धनराज कांट्रेक्टर का दिया हुआ है तो क्या, है तो पैतीस हज़ार का.

इस बीच वर्मा साब के घर की डोअर बेल बजी. कुड़ाकुड़ाये मन में. दफ्तर में ठाठ से बेल बजाते हैं, यहाँ बेल सुननी पड़ती है. उन्होंने एक बार इधर-उधर देखा. मेरे अलावा कोई बाहर था नहीं. मेरी परवाह उन्होंने की नहीं. राजश्री थूका और बोले – ‘शाम को बात करते हैं’. आदमी पढ़ा-लिखा ओहदेदार हो तो थूकने में कांफिडेंस आ ही जाता है. वे अन्दर चले गये.

मैं कभी उन खाली गैलरियों को, कभी सड़क पर पड़े थूक को देख रहा हूँ. वर्क फ्रॉम होम कराने की इतनी कीमत तो देश को चुकानी ही पड़ेगी.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 44 ☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘उसूल वाला आदमी ’  निश्चित ही  आपको कार्यालयों में कार्यरत उसूलों वाली कई लोगों के चरित्र को उघाड़ कर रख देगा । मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  ऐसे कई उसूल वाले लोगों के चरित्र को उजागर कर दिया है ।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 44 ☆

☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆

 

उस दफ्तर में घुसते ही एक खास गंध आती है। सच तो यह है कि ज़्यादातर दफ्तरों से यह गंध आती है। अहाते में घुसते ही वहाँ घूमते कर्मचारी आँखें सिकोड़कर मुझे नापने-तौलने लगते हैं। सबकी आँखों में एक तराजू टंगा है, आदमी की हैसियत की नाप-तौल करने वाला।

मैदान के कोने से एक आदमी मेरी तरफ बढ़ता है। उसकी आँखों में चालाकी और लोभ की पर्त है जिसके पार उसके भीतर के आदमी को खोज पाना मुश्किल है। मेरे पास आकर झूठी विनम्रता से पूछता है, ‘मेरे लायक सेवा, हुज़ूर?’

मैं पूछता हूँ, ‘आप क्या करते हैं?’

वह हाथ फैलाकर कहता है, ‘बस जनसेवा करता हूँ हुज़ूर। कमिश्नर से लेकर मामूली कारिन्दे तक कोई काम हो, मुझे मौका दीजिए। महीनों का काम घंटों में कराता हूँ। दरअसल दुनिया का कोई काम मुश्किल नहीं है। दिक्कत यह है कि लोग सही रास्ता अख्तियार नहीं करते।’

मैं समझ गया कि वह दलाल था। ग्राहक से लेकर बड़ा टुकड़ा  ऊपर पहुँचाता था और छोटा टुकड़ा अपने पेट में डालता था,या शायद छोटा टुकड़ा ऊपर पहुँचाता था और बड़ा टुकड़ा खुद गटक जाता था।

वह बड़ी उम्मीद से मुझे देख रहा था। मैंने कहा, ‘मुझे नौरंगी बाबू से मिलना है। ‘

नौरंगी बाबू का नाम सुनते ही उसके चेहरे की चमक किसी फ्यूज़्ड बल्ब की तरह बुझ गयी। कुछ निराशा के स्वर में बोला, ‘ऊपर चले जाइए हुज़ूर। नौरंगी बाबू उसूल वाले आदमी हैं। उनके काम में कोई दखल नहीं देता। सीधे उन्हीं से मिल लीजिए। काम ज़रूर हो जाएगा।’

वह मुझसे निराश होकर किसी दूसरे ग्राहक की खोज में निकल गया और मैं सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

नौरंगी बाबू मेरे लिए अपरिचित नहीं थे। सलाम-दुआ का रिश्ता था, लेकिन उनसे दफ्तर में मिलने के सौभाग्य से मैं अभी तक वंचित था।

नौरंगी बाबू को ढूँढ़ने में दिक्कत नहीं हुई। वे कई मेज़ों के पार अपनी कुर्सी पर आसीन थे। बीच वाली मेज़ों के लोगों ने उम्मीद की नज़रों से मेरी तरफ देखा और मुझे आगे बढ़ते देख नज़रें झुका लीं। नौरंगी बाबू ने मुझे दूर से चश्मे के ऊपर से देखा और फिर वापस फाइल पर निगाहें टिका दीं। जब बिलकुल नज़दीक पहुँच गया तब फिर आँखें उठाकर देखा और हँसकर नमस्कार किया।

मुझे बैठाने के बाद वे स्नेह-पगे स्वर में बोले, ‘कैसे तकलीफ की?’

मैंने अपना काम बताया तो वे बोले, ‘हाँ,आपकी फाइल मेरे पास है। मैं उम्मीद भी कर रहा था कि आप किसी दिन पधारेंगे। ‘

उन्होंने कागज़ों के ढेर से मेरी फाइल का अन्वेषण किया और उसकी धूल झाड़कर उसे उलटा पलटा।

मैंने पूछा, ‘तो कब तक काम हो जाएगा?’

नौरंगी बाबू बोले, ‘अरे, जब हमारे पास है तो काम तो हो गया समझो। ‘

फिर वे कुछ क्षण मौन रहकर बोले, ‘दरअसल मैं एक धर्मसंकट में फंस गया था। इसीलिए आपकी फाइल रुक गयी।’

मैंने पूछा, ‘कैसा धर्मसंकट?’

नौरंगी बाबू बोले, ‘धर्मसंकट ऐसा है भइया, कि पहले मैं अपने परिचितों दोस्तों की सेवा बिना किसी लालच के कर देता था और अपरिचितों से अपने पेट के लिए कुछ दक्षिणा ले लेता था। लेकिन इस भेदभाव की नीति के कारण मुझे कई बार नीचा देखना पड़ा, कई बार लोगों की बातें सुननी पड़ीं। एक से लें और दूसरे से न लें,यह तो अन्याय वाली बात हो गयी न?तो मैंने उसूल बना लिया कि सबसे समान व्यवहार करना, चाहे अपनी आत्मा को कितना भी कष्ट क्यों न हो। दोस्तों से लेने में आत्मा को कष्ट तो होगा न?’

मैंने सहमति में सिर हिलाया तो वे बोले, ‘अब मेरे उसूल की रक्षा करना आप लोगों का काम है। आप लोग नाराज़ हो जाओगे तो हमारा उसूल कैसे निभेगा?’

फिर वे कुछ याद करते हुए बोले, ‘मेरे परिचित एक विभाग के इंस्पेक्टर थे। पक्के उसूल वाले। सबके साथ एक सा व्यवहार। एक बार एक आदमी से दो सौ में सौदा हुआ। वह आदमी आया और उनकी मुट्ठी में पैसे दबाकर चला गया। इंस्पेक्टर साहब ने मुट्ठी खोलकर गिने तो पाँच रुपये कम थे। तुरन्त स्कूटर पर भागे और आदमी को दूर चौराहे पर पकड़ा। दस बातें सुनायीं और वहीं पाँच रुपये वसूल किये। ऐसे होते हैं उसूल वाले लोग। ‘

वे फिर बोले, ‘पहले हम अपने उसूल में कच्चे थे। कभी कभी लोगों को माफ कर देते थे। फिर एक दिन हमने राजा हरिश्चन्द्र की कथा पढ़ी कि उन्होंने कैसे उसूल की खातिर अपनी पत्नी से आधा कफन मांग लिया था। तब से हमने सोच लिया कि उसूल से रंचमात्र नहीं डिगना है। राजा हरिश्चन्द्र मेरे आदर्श हैं। ‘

वे थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘एक बार मेरे गुरूजी आये थे। उन्होंने मुझे कॉलेज में पढ़ाया था। मैंने उन्हें भी अपना उसूल बताया और चरण छूकर आशीर्वाद माँगा कि अपने उसूल पर डटा रहूँ। गुरूजी उस दिन गये तो आज  तक लौटकर नहीं आये। उनकी फाइल मेरे पास पड़ी है। समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। ‘

मैंने पूछा, ‘तो मेरे काम में क्या करना है?’

वे बोले, ‘करना क्या है?काम तो आपका जैसे हो ही गया। बस दो लाइन का नोट देना है। वही उसूल वाला मामला आड़े आ रहा है। आप दोस्त को भेंट मानकर सौ रुपये दे जाइए। मेरे उसूल की रक्षा हो जाएगी और आपका काम हो जाएगा। ‘

वे फिर बोले, ‘दरअसल अब उसूल के मामले में इतना पक्का हो गया हूँ कि सगे बाप और भाई के मामले में भी उसूल नहीं छोड़ता। अब सोचिए कितनी तकलीफ भोगता हूँ। ‘

मैंने उठकर कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। ‘

नौरंगी बाबू हाथ जोड़कर बोले, ‘ज़रूर आइए। ‘

वे मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आये। दरवाज़े पर बोले, ‘काम की चिन्ता मत कीजिएगा। काम तो समझिए हो ही गया। वह उसूल वाला मामला न होता तो कोई दिक्कत ही नहीं थी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 12 ☆ वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 12 ☆

☆ वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र

 

अजी  दो -चार लाइनें क्या लिख लीं खुद को अखिल भारतीय साहित्यकार ही घोषित कर दिया । देश तो क्या विदेशों में भी आपके चर्चे हो रहे हैं अब तो मिलना ही पड़ेगा भाई साहब से ।

जय श्री कृष्णा भाई साहब ।

एक बात पूछनी थी, आपको  शहर में तो देखा ही नहीं कविता करते हुए आप कब  महान कवि घोषित हो गए, आज दूरदर्शन पर आपका काव्यपाठ देखा , क्या  गज़ब की शैली है कौन सी विधा में आपने पढ़ा ये तो संचालक भी  नहीं समझ पाए और तो और ऑडियंस भी आपके हाव- भाव को देखकर मौन हो गयी फिर कुछ देर बाद ऐसी ताली बजी कि कैमरामैन का कैमरा भी गिर  गया ।

हाँ भाई साहब एक बात तो और पूछनी है कि आपको जल्द ही लाल किले  में भी बुलाया जायेगा  ऐसा मैंने पढ़ा है, आपका नामांकन भी  राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए  हुआ है ।

कुछ हमें भी गुरु मंत्र दें आजकल काम धंधा मन्दा चल रहा है सोचता हूँ मैं भी कुछ लिखने लगूँ वैसे मेरे पड़ोसी और दोस्त दोनों को मेरी शायरी बहुत पसंद आतीं हैं ।

बहुत देर से  तुम्हारी बड़बड़ सुन रहा हूँ वो तो मेरी घरवाली के गाँव के हो तो इतना  बर्दाश्त कर लिया वरना …..

आप चाहें तो  मेरा बेड़ा पार हो सकता  है आज से आप मेरे गुरुदेव हैं कृपा कीजिए ।

अरे नादान बालक  इतना तो समझों  कि ये मौके व पुरस्कार सब सेटिंग का कमाल है लक्ष्मी  एक हाथ  से दो दूजे हाथ से पुरस्कार लो,  दो चार अच्छी- अच्छी कविताएँ  और ग़ज़ल पढ़ो  फिर बिना  दिमाग  लगाए पंक्तियों को जोड़-तोड़ दो ।

कुछ नया तैयार हो जायेगा  जिसको कॉपीराइट © करवा लो ।

समझ गया गुरुदेव ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक सटीक  व्यंग्य   “कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से  अपनी  मौलिक शैली में  रच डालते हैं। हम और आप  उस पात्र को  मात्र परिहास का पात्र समझ कर भूल जाते  हैं। फिर मालवी भाषा की मिठास को तो श्री शांतिलाल जी  की कलम से पढ़ने का  आनंद ही कुछ और है। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई

ये पहलीबार नहीं है जब किसी घटना के लिये उन्होंने कलयुग को जिम्मेदार माना हो. उनकी नज़र में मृत्युलोक में जितने कष्ट, तकलीफें, बुराइयाँ और परेशानियाँ हैं उसकी एक मात्र वजह कलयुग का होना है. यहाँ तक कि बवासीर की अपनी कष्टसाध्य होती जा रही बीमारी के लिये भी वे यही कहते सुने जाते हैं – ‘कलजुग है तो भुगतना तो पड़ेगाई’.

आज खास बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा है कि – ‘कलयुग में वायरस से हम लड़ नहीं सकते हैं.’ अपनी मान्यता को एक ऊंची आसंदी से समर्थन मिल जाने से वे इस समय सातवें आसमान पर हैं. ‘मैं तो सुरू दिन से बता रा हूँ’. सुबह से सैंतीस लोगों से कह चुके हैं. इस समय, अड़तीसवाँ मैं उनकी ग्रिप हूँ और कलयुग को शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ.

वे नागवार गुजरनेवाली हर घटना को कलयुग से जोड़ लेते हैं. बोले – ‘सांतिबाबू, कलजुग में कोरी के छोरे कलेट्टर बन रये हैं, बाम्भनों को चपरासी की नौकरी नई मिल रई’. अक्सर, हमने उन्हें दूधवाले से उलझते देखा है. कहते हैं – ‘जमानों कैसो आ गओ, कोकाकोला सुद्ध मिल रई, मगर दूध एकदम असुद्ध. जे कलजुग के ग्वालन यदुवंस को बदनाम कर रये’. एक बार वे अतिसार के शिकार हुये. बोले – ‘खानपान की चीजें असुद्ध मिल रई कलजुग में. दस्त तो लगेंगे ही. तुमने सुनी है कब्बी, के सतजुग में किसी को दस्त लगे हों? नई ना’.

उनके अनुसार हमारे पूर्वजों ने चार हज़ार सात सौ बारह वर्ष पूर्व घोषणा कर दी थी कि कलयुग में आर्यावर्त के उत्तर में स्थित एक देश कोरोना नामक विषाणु उत्पन्न करेगा जिससे समूची मानवता के लिये खतरा बनेगा. वे भूत के ज्ञाता हैं, वर्तमान बताते ही हैं और भविष्य बताने में तो मास्टरी है ही उनकी. बोले – ‘नगर में महामारी हमरी गलियन से ही फैलेगी, नालियाँ इतनी गन्दीभरी पड़ी हैं’. उनका ये अदम्य विश्वास है कि सतयुग में यहीं इन्हीं गलियों में दूध की धाराएँ बहा करतीं थीं जो कालांतर में गन्दी नालियों में परिवर्तित हो गई हैं. जैसे जैसे कलयुग बढ़ेगा नालियाँ और ज्यादा चोक होने लगेंगी. मुन्सीपाल्टी कछु ना कर पायगी. कुछ दिनों पूर्व, मोहल्ले में हुए एक विजातीय विवाह पर उनकी प्रतिक्रिया थी – ‘उच्चकुल की कन्यायें निम्नकुल में ब्याह रहीं हैं. समझ लो भैया के घोर कलजुग आवे वारो है’. ए जर्नी फ्रॉम सिंपल कलयुग टू घोर कलयुग!

कभी-कभी वे आकाश की ओर देखकर बुदबुदाते हैं – ‘हे प्रभु, अब कलजुग की और लीलाएं देखने से पेलेई उठा ले’. हालाँकि, वे आना नहीं चाहते. जब भी थोड़ा सा बीमार होते हैं तब घरवालों के पीछे पड़ जाते कि उनको आईसीयू में ही भर्ती कराया जाये. यमदूत को जनरल वार्ड से आत्मा ले जाने में ज्यादा आसानी रहती है, आईसीयू में सिक्युरिटी गार्ड घुसने नहीं देता, शायद तो इसीलिये.

रज्जूबाबू उनके सुपुत्र हैं. बहुत सम्मान बहुत करते हैं पिता का, इतना कि वे आगे बैठे हों तो रज्जूबाबू पीछे के दुआर से निकल जाते हैं. आज असावधानी से सामने पड़ गये. उन्होंने बैट-मेन के पीले प्रिंट वाली काली टी-शर्ट पहन रखी थी. वे बोले – ‘काए रज्जूबाबू, सीधे चीन से चले आ रये का? देख रये हो सांतिबाबू, कलजुग में इनकी अक्कल मारी जा रई. दुनिया चमगादड़ से भाग रई है और जे हैं के उसी की कमीज़ पेन के निकल रये. अब इने कौन समझाये कि ये कलजुग है, कोरोना चमगादड़ खाने से ही नहीं होत, पहनने से भी हो जात है’.

मौका मुनसिब जानकार मैं धीरे से सटकने लगा. वे ऊँची आवाज़ में बोले – ‘मूं पे कपड़ा लपेट के जईयो सांतिबाबू, कलजुग चलरा है. कब कौनों असुरी सक्ति कोरोना के जीव पकड़ के आपकी नाक में घुसेड़ देहैं, कौन जाने’.

निकल गया हूँ और कन्फ्यूज्ड हूँ – कलयुग पीछे की ओर छोड़ आया हूँ या उसी की तरफ भाग रहा हूँ.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 43 ☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘बुद्ध और केशवदास’  निश्चित ही  युवावस्था की अगली अवस्था में  पदार्पण कर रहे या पदार्पण कर चुके /चुकी पीढ़ी  को बार बार आइना देखने को मजबूर कर देगा। मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  कई लोगों की दुखती राग पर हाथ धर दिया है।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 43 ☆

☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆

यह ‘जुबावस्था’ जो होती है, महाठगिनी होती है। भगवान बुद्ध ने इसी बात को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने घर छोड़कर सन्यास ले लिया। लेकिन जो लोग बुद्ध की तरह कुछ सीखते नहीं, वे युवावस्था को ही पकड़ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। जवानी बरजोर घोड़ी की तरह उन्हें छोड़कर भागी जाती है और वे उसे पकड़ रखने के चक्कर में उसके साथ घसिटते जाते हैं। बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत झड़ जाते हैं, खाल ढीली हो जाती है, लेकिन सींग कटाकर बछड़ों में नाम लिखाने की ललक कम नहीं होती।

कुछ लोग जवानी को सलामत रखने के लिए बाल रंग लेते हैं। कल तक मामला खिचड़ी था, आज कृष्ण-क्रांति हो गयी। लेकिन राज़ छिपता नहीं। रंगे बाल अपना राज़ खुद ही खोल देते हैं। कभी कोई खूँटी सफेद रह जाती है, कभी मेंहदी का सा लाल लाल रंग दिखने लगता है। और फिर बाल एकदम काले हो भी गये तो बाकी चेहरे मोहरे का क्या करोगे? चेहरे पर ये जो झुर्रियां हैं, या आँखों के नीचे की झाईं, या गड्ढों में घुसती अँखियाँ। किसे किसे सँभालोगे? कहाँ कहाँ हाथ लगाओगे?

और फिर इस सब छद्म में कितनी मेहनत लगती है, कितना छिपाव-दुराव करना पड़ता है? कोई कुँवारी कन्या या कुँवारे सुपुत्र यह सब करें तो समझ में आता है, लेकिन यहाँ तो वे भी रंगे-चंगे नज़र आते हैं जिनके बेटों के बाल खिचड़ी हो गए।

‘आहत’ जी लेखक हैं और मेरे परिचित हैं। उनके लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छपते हैं, लेकिन जब लेख के साथ उनका चित्र छपता है तो पहचानना मुश्किल हो जाता है। ‘आहत’ जी के केश सफेद हैं, घनत्व कम हो चुका है। यहाँ वहाँ से चाँद झाँकती है। चेहरा भी उसी के हिसाब से है, लेकिन जो तस्वीर छपी है वह किसी जवान पट्ठे की है, जिसका चेहरा जवान और बाल काले हैं। पहचानने में देर लगती है, लेकिन चेहरे के कुछ सुपरिचित निशानों से पहचान लेता हूँ। आँखें वही हैं, नाक का घुमाव भी वही है। ज़ाहिर है तस्वीर कम से कम दस साल पुरानी है। बुढ़ापे की तस्वीर छपाने में शर्म आती है।

एक और परिचित की तस्वीर अखबार में देखता हूँ। उन्हें विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली है। उपाधि के लिए काम करते करते नौकरी के पन्द्रह-बीस साल गुज़र गये। बुढ़ापा दस्तक देने लगा। लेकिन उपलब्धि हुई तो फोटो तो छपाना ही है। इसलिए फोटो उस वक्त की छपा ली जब एम.ए. पास किया था। मित्र-परिचित हँसें तो हँसें, जो लोग नहीं जानते वे तो कम से कम उन्हें पट्ठा समझें।

एक परिचित का बालों से विछोह हो चुका है।खोपड़ी का आकार-प्रकार दिन की तरह साफ हो गया है। लेकिन जब भी फोटो छपता है, सिर पर काले घुंघराले बाल होते हैं। ज़ाहिर है, यह भी पुराने एलबम का योगदान है।

बुढ़ापे में यह सब करने की ललक क्यों होती है? क्या जवानी का भ्रम पैदा करके किसी कन्या को रिझाना है? यदि भ्रमवश कोई कन्या अनुरक्त होकर आपके दरवाज़े पर आ ही गयी तो आपका असली रूप देखकर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? इसके अलावा, जवानी का भ्रम फैलाते वक्त उस महिला का खयाल कर लेना भी उचित होगा जो आपकी संतानों की अम्माँ कहलाती है। आपकी फोटो को ही आपका असली रूप मान लिया जाए तो उस सयानी महिला का परिचय आप किस रूप में देंगे?

मेरे खयाल में ये सब कवि केशवदास के चेले-चाँटे हैं। उम्र निकल गयी, लेकिन उसे मानने को तैयार नहीं। रंगाई-पुताई में लगे हैं, जैसे कि पोतने से खस्ताहाल इमारत नयी हो जाएगी। अरे भई, शालीनता से बुढ़ापे को स्वीकार कर लो। हर उम्र की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। लेकिन जवानी के लिए ही हाहाकार करते रहोगे तो न इधर के रहोगे, न उधर के। बुड्ढों से तुम बिदकोगे और जवान तुमसे बिदकेंगे। अंगरेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार था। उसने कहा था, ‘आओ, मेरे साथ बूढ़े हो। ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक्त अभी आने को है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 39 ☆ जिसकी चिंता है, वह जनता कहां है ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  विचारणीय समसामयिक व्यंग्य   “ जिसकी  चिंता है, वह जनता कहाँ है !”।  यह वास्तव में  लोकतंत्र के ठगे हुए  ‘मतदाता ‘के पर्यायवाची  ‘जनता ‘ पर व्यंग्य है।  सुना है कोई दल बदल नाम का कानून भी होता है ! श्री विवेक रंजन जी  को इस  सार्थक एवं विचारणीय  व्यंग्य के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 39 ☆ 

☆ जिसकी चिंता है, वह जनता कहां है ! ☆

विधायक दर दर भटक रहे हैं, इस प्रदेश से उस प्रदेश पांच सितारा रिसार्ट में, घर परिवार से दूर मारे मारे फिर रहे हैं. सब कुछ बस जनता की चिंता में है. मान मनौअल चल रहा है. कोई भी मानने को तैयार ही नही है, न राज्यपाल, न विधानसभा के अध्यक्ष, न मुख्यमंत्री, न ही विपक्ष. सब अड़े हुये हैं. सबको बस जनता की चिंता है. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहा है. विशेष वायुयानों से मंत्री संत्री एड्वोकेटस भागमभाग में लगे हुये हैं. पत्रकार अलग परेशान हैं एक साथ कई कई जगहों से लाईव कवरेज करना पड़ता है जनता के लिये. कोई भी सहिष्णुता का वह पाठ सुनने को तैयार ही नही है, जिसकी बदौलत महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस को थोड़ी आंख क्या दिखाई वे पंडित नेहरू के पक्ष में जीत कर भी अध्यक्षता छोड़ चुप लगा कर बैठ गये थे. या सरदार पटेल ने सबके उनके पक्ष में होते हुये भी महात्मा गांधी की बात मानकर प्रधान मंत्री पद से अपनी उम्मीदवारी ही वापस ले ली थी. हमारे माननीय तो जिन्हा और नेहरू की तरह अड़े खड़े हैं. किसी को भी मानता न देख, जनता के जनता के द्वारा जनता के लिए सरकार के मूलाधार वोटर रामभरोसे ने सोचा क्यों न उस जनता को ही मना लिया जाये जिसकी चिंता में सारी आफत आई हुई है.

जनता की खोज में सबसे पहले रामभरोसे सीधे राजधानी जा पहुंचा. उसने अपनी समस्या टी वी चैनल “जनता की आवाज” के  एक खोजी संवाददाता को बताई.   रामभरोसे ने पूछा, भाई साहब मैं हमेशा आपका चैनल देखता रहता हूं मुझे बतलायें जनता कहां है ? उसने रामभरोसे को ऊपर से नीचे तक घूरा,उसकी अनुभवी नजरो ने  उसमें टी आर पी तलाश की, जब उसे  ज्यादा टीआरपी नजर नही आई तो वह मुंह बिचका कर चलता बना. जनता मिल ही नहीं रही थी. ढ़ूंढ़ते भटकते हलाकान होते रामभरोसे को भूख लग आई थी, उसकी नजर सामने  होटल पर पड़ी, देखा ऊपर बोर्ड लगा था “जनता होटल”. खुशी से वह गदगद हो गया, उसने सोचा चलो वहीं भोजन करेंगे और जनता से मिलकर उसे मना लेंगे. जनता जरूर एडजस्ट कर लेगी और माननीयो का मान रह जायेगा, खतरे में पड़ा संविधान भी बच जावेगा. रामभरोसे होटल के भीतर लपका, बाहर ही भट्टी थी, जिस पर पूरी पारदर्शिता से तंदूरी रोटी पकाई जा रही थी,सब्जी फ्राई हो रही थी, और  दाल में तड़का लगाया जा रहा था. बाजू में  जनता होटल का पहलवाननुमा मालिक अपने कैश बाक्स को संभाले जमा हुआ था. टेबल पर आसीन होते ही कंधे पर गमछा डाले छोटू पानी के गिलास लिये प्रगट हुआ. रामभरोसे ने तंदूरी रोटी और दाल फ्राई का आर्डर दिया.पेट पूजा कर बिल देते हुये, होटल के मालिक से अपनी व्यथा बतलाई और पूछा भाई साहब जनता है कहां, जिसकी चिंता में सरकार ही अस्थिर हो गई है. पहलवान ने  दो सौ के नोट से भोजन का बिल काटा और बचे हुये बीस रुपये लौटाते हुये रामभरोसे को अजीबोगरीब तरीके से देखा, फिर पूछा मतलब ?  अपनी बात दोहराते हुये उसने जनता को मनाने के लिये फिर से  जनता का पता पूछा. पहलवान हंसा. तभी एक अखबार का पत्रकार वहां आ पहुंचा, जनता होटल के मालिक ने अपनी जान छुड़ाते हुये रामभरोसे को उस पत्रकार के हवाले किया और कहा कि ये “हर खबर जनता की ”  दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं, आप इनसे जनता का पता पूछ लीजिये. रामभरोसे ने भगवान को धन्यवाद दिया कि अब जब हर खबर जनता की के संपादक ही मिल गये हैं तब तो निश्चित ही जनता मिल ही जावेगी. किंतु संपादक जी ने गोल मोल बातें की, चाय पी और ” शेष अगले अंक में ” की तरह उठकर चलते बने.

रामभरोसे जनता के न मिलने से परेशान हो गया. उसे एक टेंट में चल रहे प्रवचन सुनाई दिये, गुरू जी भजन करवा रहे थे और लोग भक्ति भाव से झूम रहे थे. रामभरोसे को लगा गुरू जी बहुत ज्ञानी हैं वे अवश्य ही जनता को जानते होंगे. अतः वह वहां जा पहुंचा. कीर्तन खत्म हुआ, गुरूजी अपनी भगवा कार में रवाना होने को ही थे कि रामभरोसे सामने आ पहुंचा, और उसने गुरू जी को अपनी समस्या बताई, गुरूजी ने कार में बैठते हुये जबाब दिया “बेटा तू ही तो जनता है”. गुरूजी तो निकल लिये पर रामभरोसे सोच में पड़ा हुआ है, यदि मैं जनता हूं तो मुझे तो संविधान से कोई शिकायत नही है, अरे मैं तो वह चौपाई गुनगुनाता ही रहता हूं ” कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न होईहें रानी “, कर्ज माफी हो न हो, कौन थानेदार हो, कौन कलेक्टर हो, मुआवजा मिले न मिले, मैं तो सब कुछ एडजस्ट कर ही रहा हूं फिर मेरे नाम पर यह फसाद  क्यों ? रामभरोसे ने एक फिल्म देखी थी जिसमें हीरो का डबल रोल था एक गरीब, सहनशील तो दूसरा मक्कार, धोखेबाज, फरेबी.रामभरोसे को कुछ कुछ समझ आ रहा है कि जरूर यह कोई और ही जनता है जिसके लिए सारे डबल रोल का खेल चल रहा है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 11 ☆ समस्याओं का बाजार ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “समस्याओं का बाजार।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 11 ☆

☆ समस्याओं का बाजार

मौसम चाहें कोई भी समस्याओं का रोना कभी खत्म नहीं होता। ये एक ऐसा खुला बाजार है जहाँ मॉल  कल्चर का दौर चल रहा है। इसे बिडंवना ही कहेंगे  कि कोई इस बात से परेशान है कि तन कैसे ढका जाए तो वहीं कोई इस बात को लेकर माथापच्ची कर रहा है कि कौन सी ड्रेस पहन कर पार्टी की शान बना जाए।  एक से एक परिधान बाजार में उपलब्ध हैं बस दुकान में जाइये। चेंजिंग रूम तो मानो आपके इंतजार में पलक पाँवड़े बिछा कर बैठा है। आजकल लोग एक ड्रेस भी  ठोक बजा कर लेते हैं। जब 100% पसंद आयी तभी अन्यथा दूसरी दुकान का रास्ता पकड़ लेते हैं। वैसे भी शहर में तरह – तरह के मॉल हैं जहाँ आकर्षक योजनाओं का अंबार लगा हुआ रहता है। कहीं एक के साथ एक फ्री की योजना तो कहीं अच्छी ख़रीददारी पर  डिस्काउंट कूपन, जो अगली खरीददारी में सहायक होगा,  तो कहीं आपके खाते में पॉइंट जुड़ रहे हैं जो भविष्य के लिए हैं। कहते हैं हर दिन एक सा नहीं होता सो पैसे वाले लोग जमकर खरीदारी करते हैं ताकि जब वक्त बदले तो पॉइंट सुरक्षित रहें। एक प्रकार से एफ डी ही समझिए ऐसा मैं नहीं कह रही ये तो मॉल वाली सेल्स गर्ल ने बताया है;  जिसके काउंटर पर सबसे अधिक सेल होती है। हो भी क्यों न उसे मार्केटिंग का सबसे बढ़िया तजुर्बा है, हमेशा मीठी वाणी बोलना, सुंदर ड्रेसअप व आकर्षक व्यक्तित्व की मल्लिका जो ठहरी । मेरी दीदी ने मुझे फोन करके बताया कि उनको “एक बैग पसंद आया जिसकी कीमत 10,000 थी पर सेल्सगर्ल  ने जल्दी- जल्दी मुझे समझाया कि आप तो हमारी नियमित ग्राहक हैं  दिखाइए आपके पास तो बहुत से पॉइंट होंगे, उसने गणना की तो मेरे 8 हजार रुपये के पॉइंट थे बस 2 हजार ही देने पड़े। अब  मेरे तो मानो पंख लग गए इतना सुंदर पर्स मेरे पास वो भी इतनी कम राशि देने के बाद।”

ऐसे ही बहुत से किस्से हैं जब समस्याओं का बाजार अपने चरम पर होता है। अभी तक  ऐसा लगता था मानो ये समस्या केवल कमजोर, पीड़ित, शोषित, दलित व अल्पसंख्यक की वपौती है पर जब गहरायी में झाँका तो समझ में आया कि यहाँ भी आभिजात्य वर्ग का ही कब्जा है। उनके पास तो इतनी समस्याएँ हैं कि उनको न दिन को चैन न रात को आराम। बिना नींद की गोली नींद ही नहीं आती। सूरज बाबा के दर्शन तो मानो दुर्लभ ही हो चुके हैं।  एक बात समझ में नहीं आती कि वैसे ही जीवन में बहुत आपाधापी है इस पर भी हम ऐसी – ऐसी समस्याओं से लड़े जा रहे हैं जहाँ यदि चाहें तो बच सकते हैं। क्या जरूरत है कि आईने में निहार- निहार कर ही ड्रेस ली जाए क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जो आपको आरामदायक हो, देखने में अच्छी हो, और अंग प्रदर्शन पर जोर न देती हो ऐसा चयन किया जाय; क्या जरूरत है इतनी मारा- मारी के बाद भी हम भारतीय संस्कृति को भुलाते हुए पश्चिम सभ्यता की ओर बढ़ें जबकि वे हमारी सनातन संस्कृति से जुड़ रहे हैं।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 10 ☆ ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 10 ☆

☆ ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे

ऊँट किस करवट बैठेगा ये कोई नहीं जानता पर तुक्का लगाने में सभी उस्ताद होते हैं। आखिर बैठने के लिए उचित धरातल भी होना चाहिए अन्यथा गिरने का भय रहता है। जैसे -जैसे हम बुद्धिजीवी होते जा रहे हैं वैसे- वैसे हमें अपनी जमीन मजबूत करने की फिक्र कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है। आखिर  बैठना कौन नहीं चाहता पर हम ऊँट थोड़ी ही हैं जो हमें रेतीली माटी नसीब हो और अलटते – पलटते रहें। हमें तो बस कुर्सी रख सकें इतनी ही जगह चाहिए। और हाँ कुछ ऐसे लोग भी चाहिए जो इस कुर्सी की रक्षा कर सकें भले ही साम दाम दंड भेद क्यों न अपनाना पड़ जाए। कुर्सी की एक विशेषता ये भी है कि ये समय – समय पर अपना भार बदलती रहती है। इस पर गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी लगता है। ग्रहों के बदलते ही इसका भार बदल जाता है। वैसे तो बदलाव हमेशा ही सुखद मौसम लाता है। देखिए न पतझड़ के मौसम में  भी बासंती रंग, तरह- के फूल, सेमल, टेसू, पलाश सभी अपने जोर पर जाते हैं। आम्र बौर  की छटा व सुगंध तो मनभावन होती ही है । बस यही बदलाव तो कोयल को चाहिए, इसी मौसम में तो वो अपना राग गुनगुनाने लगती है। अरे ऊँट की चिंता करते- करते  कहा कोयल पर अटक गये। बस ये अपने धरातल की खोज जो न करवाये वो थोड़ा है। पुराने समय से ही ऊँट पर कई मुहावरे चर्चा में हैं। जहाँ  मात्रा या संख्या बल घटा,  बस समझ लो ऊँट के मुख में जीरा जैसे ही अल्पसंख्यक समस्या जोर पकड़ने लगती है। अरे ये संख्याबल की इतनी  हिमाकत केवल लोकतंत्र की वजह से ही है क्योंकि यहाँ गुणवत्ता नहीं संख्या पर जोर दिया जाता है। जैसे ही जोड़- तोड़ का गणित अनुभवी गणितज्ञ के पास पहुँचा बस गुणा भाग भी दौड़ पड़ते हैं पाठशाला की ओर। मौज मस्ती आखिर कितने दिनों तक चलेगी  परीक्षार्थियों को परीक्षा तो देनी ही होगी। रिजल्ट चाहें कुछ भी हो पुनर्जीवन तो मेहनत करने वाले को मिलेगा ही। सबको पता है कि अंत काल में केवल सत्कर्म ही साथ जाते हैं फिर भी जर, जोरू, जमीन की खोज में मन भटकता ही रहता है। मजे की बात इतना बड़ा प्राणी जो रेगिस्तान का जहाज कहलाता है उसकी चोरी भी लोग चोरी छुपे करने की हिमाकत करते हैं। इसी को बघेली में कहा जाता है ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे  अर्थात झुक – झुक कर। खैर देखते हैं कि क्या – क्या नहीं होता ; आखिरकार मार्च का महीना तो सदैव से ही परीक्षा का समय रहा है। इस समय हिन्दू नववर्ष का आगमन होता है, साल भर जो लेखा – जोखा व अध्ययन किया है उसका परीक्षण भी होता है। उसके बाद देवी-  देवताओं  से मान मनौती की जाती है ताकि परिणाम सुखद हो।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ व्यंग्य / कविता ☆ एक मिनट की देरी से / एक सर्द रात की रेल यात्रा ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध।  आज प्रस्तुत है  एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य  / कविता  ” एक मिनट की देरी से  / कविता “. इस रचना के माध्यम से   डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर ‘ जी  ने  रेलानुभव व्यंग्य एवं कविता के साथ अपनी मौलिक शैली में बड़ी बेबाकी से  किया है। ) 

 ☆ व्यंग्य / कविता – एक मिनट की देरी से / एक सर्द रात की रेल यात्रा ☆

अभी-अभी वर्तमान में बहुमूल्य शिक्षा की काशी कहे जाने वाले (केवल शिक्षा के कारोबारियों/ माफियाओं द्वारा) कोटा जंक्शन के प्रतीक्षालय में बैठा हुआ सुखद आश्चर्य से भर उठा हूँ। एक उद्घोषणा हुई है कि एक ट्रेन( इन्दौर जोधपुर एक्सप्रेस )पूरे एक मिनट की देरी से चल रही है और उसके लिए उद्घोषिका को खेद भी है।अभी कान चौकन्ने हैं कि कहीं घंटे को मिनट तो नहीं बोला गया है या फिर मैंने ही गलत तो नहीं सुन लिया है।

जिस दिन की प्रतीक्षा थी आखिर वह दिन आ ही गया कि जब रेलवे ने भी समय की कीमत पहचानी।यह लिखते-लिखते वही स्वर पुन:कानों तक आंशिक परिवर्तन के साथ पहुँच रहा है कि वही ट्रेन पूरे सात मिनट लेट हो चुकी है।दूसरी उद्घोषणा से मिनट और घंटे में भ्रम की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी है।

अब आश्वस्त हूँ कि विद्याबालन वाली यह बात कि ‘जहाँ सोच वहाँ शौचालय’ के बाद से आए सोच में परिवर्तन के कारण जैसे हर ग्रामीण के घर में शौचालय हो गया है और वे घर में ही उत्पादन और निष्पादन सब कुछ कर पाने में सक्षम हुए हैं।बस जुत्ताई-बुआई केलिए  ही बाहर जाना पड़ता है।अब सोच बदला है वह भी किसी खूबसूरत अदाकारा के  कहने से  तो क्या नहीं  संभव  है!कल को रोबोट और रिमोट से फसल बो भी   जाएगी और कट के घर भी  आ जाएगी।वैसे ही बिना ड्राइवर के हर ट्रेन समय पर चलेगी।

इस संदर्भ में की गई हिंदी व अंग्रेजी की उद्घोषणा को मिला लें तो कुल छह उद् घोषणाएँ हो चुकी हैं और सभी में हमें हुई असुविधा के लिए खेद व्यक्त किया गया है।

लगे हाथ एक और सुखद सूचना कि हमारी देहरादून से कोटा वाली ट्रेन बिफोर टाइम (पूरा आधा घन्टा पहले) ही कोटा जंक्शन पर लग गई थी।मैंने एहतियातन दो टिकट कर रखे थे(भारतीय रेल संबंधी अपनीभ्रांत धारणा वश)एक एसी और एक स्लीपर(बस कुछ समय कमी और कुछ  आलस बस  सामान्य टिकट लेना ही शेष था।) और दोनों कन्फर्म होकर हमारे संदेश पिटक से झाँक-झाँक कर हमें मुँह चिढ़ा रहे हैं।मैं उनके अंतर्निहित अर्थ भी समझ रहा हूँ कि,’और न कर भरोसा भारतीय रेल पर।अगर यही पाप करता रहा तो आगे भी भोगेगा।’

अभी-अभी उसी ट्रेन 12465 इन्दौर-जोधपुर एक्सप्रेस की उद् घोषणा हुई है कि वह अब भी सात मिनट की ही देरी से चल रही है और इस विश्वास के साथ हुई है कि कुछ कसर रहेगी तो शर्म के मारे शेष दूरी हांफ – हूँफ कर   दौड़ के कवर कर लेगी।

अब वह यानी12465 संयान(ट्रेन)ठीक12:39 पर )अपने स्थानक(प्लेटफॉर्म)क्रमांक1पर लग चुकी है।अब तो पूरा भरोसा हो चला है कि जैसे-जैसे स्टेशनों की पटरियों के अंतराल से मल दूर हो रहा है वैसे-वैसे हमारा रेल की स्वच्छता के प्रति विश्वास भी बढ़ रहा है।यही समय के लिए भी लागू होगा।लेकिन मुझे चिंता इस बात की है कि यदि कहीं भारतीय रेल जनरल बोगियों के प्रति भी जाग गई तो मेरी उस कविता का क्या होगा जो किसी सर्द रात के जनरल डिब्बे की यात्रा- सहचरी रही है।

अब मैं इस रेल कथा काअपनी उसी रेलानुभव वाली कविता के साथ यह कहते हुए उद्यापन करना चाहूँगा कि जैसे रेल के ‘दिन बहुरे’ सब विभागों के बहुरें।अब बिना किसी देरी और खेद व्यक्त किए वह कविता (इस घोषणा के बाद जिसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है) बेज़रूरत आप पर लाद रहा हूँ-

 ☆  एक सर्द रात की रेल यात्रा   

एक सर्द रात की रेलयात्रा

करते हुए

भीड़ का सुख भोगा

परस्पर सटे तन

सुख दे रहे थे

मेरी तरह और भी दस-पांच

(बैठने की जगह

पाए लोग)

स्वर्ग में थे

बाकी टेढ़ी-मेढ़ी मुंडियों के साथ

लार की कर्मनाशा बहाते

स्वर्ग-नर्क के बीच

झूला झूल रहे थे

अचानक लगा कि

लोग अपने स्वभाव के प्रतिकूल

जागरूक हो गए हैं

और

मारकाट में फँसकर

जैसे भाग रहे हों बदहवास

नींद ऐसे टूटी कि जैसे

अभी-अभी हमारी नींद पर से ही

गुज़री हो

मालगाड़ी धड़धड़ाते हुए

हम सुपरफास्ट में बैठे-बैठे

उबासी ले रहे हैं

आखिरकार

झाँक ही लेते हैं मुण्डी लटकाकर

उत्सुकतावश

लोग बताते हैं

‘मालगाड़ी के गुज़रने से

पूरे एक घंटे पहले से

खड़ी है

जस की तस,ठस की ठस

निकम्मी मनहूस

हाँ,

बीच-बीच में गैस छोड़ कर

अपने ज़िंदा रहने का सबूत

ज़रूर दे देती है

कुर्सियों पर लदी

चौराहों पर अलाव तापती

मुर्दहिया पुलिस की तरह

तन-मन से जर्जर

बूढ़ों की तरह

ठंडी आह भी भर लेती है

यदा-कदा

ऐसे में,

ठहरी हुई ज़िंदगी से भी

सर्द लगती है

अपनी यह सवारी गाड़ी

सड़ही सुपरफास्ट?

या तो माल बहुत मँहगा हो गया है

या फिर,

इंसान इतना सस्ता

कि

चाहे जहाँ मर खप जाए

कोई नहीं लेता खबर

उसके सड़ने से पहले

ज़िंदा हो तब भी

जब चाहो,जहाँ चाहो

उसे रोक लो,उतार दो, धकिया दो,

मौका लगे थपड़िया दो

कभी-कभी बिना बेल्ट,

बिल्ले और डंडे के भी

बंदूक तो बहुत बड़ी चीज़ होती है

आम आदमी तो सींक से

और,

कभी-कभी तो छींक से भी

काँप उठता है

शायद सब व्यवस्थापक

यह भाँप गये हैं कि-

इनमें से कोई उठापटक करेगा भी तो

अपनी ही बर्थ या सीट

या ठसाठस भरे जनरल कोच की

गैलरी से लेकर-

शौचालय तक,

अपना ही साथ छोड़ रही

दाईं या बाईं टाँग पर

काँख-कूँख के खड़ा रहेगा

या लद्द से बैठ जाएगा

या फिर,

अपनी ही टाँगों की

अदला-बदली कर लेगा

या यह भी हो सकता है कि

गंदे रूमाल से नाक साँद

साँस लेने के बहाने

उतर कर बैठ जाए

बगल वाली पटरी पर,

मूँगफली के साथ समय को फोड़े

बीड़ी सुलगाए, पुड़िया फ़ाड़

मसाला फ़ाँके, तंबाकू पीटे,

सिग्नल झाँके

(नज़र की कमजोरी के कारण)

तड़ाक से उठे

फिर सट्ट से बैठ जाए

यों ही हज़ारों हज़ार कान

तरसतें रहें हार्न को

पर,

गुरुत्त्वाकर्षण से चिपकी रहे पहिया

पटरी से

गर्द-गुबार भरे

दो-चार कानों पर

नही रेंगे जूँ तो नही ही रेंगे

पहले भी

इसी तरह चलती रही है

हमारी व्यवस्था की रेलगाड़ी

अपने चमचमाते पहियों की

कर्णकटु खिर्र-खिर्र के साथ.

लेकिन,

फिर भी नहीं पालते झंझट

लोग,

नहीं उलझते अपने शुकून से

यहाँ तक कि

व्यवस्था भी नहीं चाहती छेड़ना

किसी के शुकून को।

 

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 38 ☆ व्यंग्य – थोड़े में थोड़ी सी बात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका हास्य का पुट लिए  एक व्यंग्य   थोड़े में थोड़ी सी बात। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 38

☆ व्यंग्य – थोड़े में थोड़ी सी बात ☆ 

गंगू बचपन से ही थोड़ा संकोची रहा है। संकोची होने से थोड़े-बहुत के चक्कर में फंस गया, हर बात में थोड़ा – थोड़ी जैसे शब्द उसकी जीभ में सवार रहते , इसीलिए शादी के समय भी लड़की वाले थोड़ा रुक जाओ थोड़ा और पता कर लें का चक्कर चला के शादी में देर करते रहे, हालांकि हर जगह बात बात में थोड़ा – थोड़ा, थोड़ी – थोड़ी की आदत वाले खूब मिल जाते हैं पर गंगू का थोड़ी सी बात को अलग अंदाज में कहने का स्टाइल थोड़ा अलग तरह का रहता है।

रेल, बस की भीड़ में कोई थोड़ी सी जगह बैठने को मांगता तो गंगू उसको थोड़ी सी जगह जरुर देता, भले सामने वाला थोड़ी सी जगह पाकर पसरता जाता और गंगू संकोच में कुकरता जाता। जब चुनाव होते तो नेता जी थोड़ा सा हाथ जोड़कर गंगू से कहते – इस बार थोड़ी सी वोट देकर हमारे हाथ थोड़ा मजबूत करिये तो गंगू खुश होकर दिल खोलकर पूरी वोट दे देता। घरवाली को इस थोड़े – थोड़े में थोड़ी बात रास नहीं आती थी जब गंगू दाल में थोड़ा नमक डालने को कहता तो घरवाली थोड़ा थोड़ा करके खूब सारा नमक डाल देती इसलिए गंगू थोड़ा सहनशील भी हो गया था।

इन दिनों कोरोना के डर से गंगू थोड़ा परेशान है उसने घरवाली को भी कोरोना से थोड़ा डरा दिया है इसीलिए आजकल घरवाली गंगू को सलाह देने लगी है कि

“थोड़ी थोड़ी पिया करो….”

थोड़ी थोड़ी पीने के चक्कर में गंगू आजकल भरपेट पीकर कोरोना को भुलाना चाहता है। खूब डटकर पीकर जब घरवाली को तंग करने लगता है तो घरवाली कहती है….

….. “थोड़ा.. सा… ठहरो

करतीं हूं तुमसे वादा

पूरा होगा तुम्हारा इरादा

मैं सारी की सारी तुम्हारी

थोड़ा सा रहम करो……

ऐन टाइम में ये थोड़ा – थोड़ी का चक्कर गंगू का सिर दर्द भी बन जाता है। वो थोड़ा देर ठहरने को कहती है और थोड़ा सा बहाना बनाकर बाथरूम में घुस जाती है, लौटकर आती है तो मोबाइल की घंटी बजने लगती है फिर थोड़ा थोड़ा कहते लम्बी बातचीत में लग जाती है।

अभी उस दिन घर में सत्यनारायण की कथा हो रही थी तो घरवाली थोड़े में कथा सुनने के मूड में थी सजी-संवरी तो ऐसी थी कि कोई भी पिघल जाय। जब कथा पूरी हुई तो शिष्टाचारवश गंगू ने पंडित जी से पूछा कि चाय तो लेंगे न ? तो फट से पंडित जी ने कहा – थोड़ी सी चल जाएगी……

गंगू ये थोड़े के चक्कर में परेशान है थोड़े में यदि विनम्रता है तो उधर से संशय और अंहकार भी झांकता है। “थोड़ी सी चल जाएगी” इसमें भी एक अजीब तरह की अदा का बोध होता है….. खैर, पंडित जी को लोटा भर चाय दी गई और प्लेट में डाल डालकर वो पूरी गटक गए….. तब लगा कि थोड़े में बड़ा कमाल है। पंडित जी से भोजन के लिए जब भी कहो तो डायबिटीज का बहाना मारने लगेंगे, पेट फूलने का बहाना बनाएंगे, जब थोड़ा सा खा लेने का निवेदन करो तो गरमागरम 20-25 पूड़ी और बटका भर खीर ठूंस ठूंस कर भर लेंगे। तब लगता है कि थोड़े शब्द में बड़ा जादू है।

कोरोना की बात चली तो कहने लगे थोड़ा अपना हाथ दिखाइये, गंगू ने तुरंत बोतल की अल्कोहल से हाथ धोया और बोतल में थोड़ा मुंह लगाया फिर पंडित जी के सामने थोड़ा सा हाथ रख दिया। पंडित जी ने हाथ देखकर कहा – “क्या आप व्यंग्य लिखते हैं ?”

बरबस गंगू के मुख से निकल गया – हां, थोड़ा बहुत लिख लेता हूं। पंडित जी ने थोड़ा हाथ दबाया बोले – “थोड़ा नहीं बहुत लिखते हो।” इस थोड़े में विनम्रता कम अहंकार ज्यादा टपक गया। पंडित जी को थोड़ा बुरा भी लग गया तो बात को थोड़ा उलटकर बोले – “अभी भी आपके हाथ में थोड़ी थोड़ी प्यार की रेखाएं फैली दिख रहीं हैं, लगता है कि – थोड़ा सा प्यार हुआ था थोड़ा सा बाकी……”

सुनकर घरवाली की भृगुटी थोड़ी तन गई, तुरंत अपना हाथ तान के पंडित जी के सामने धर दिया। पंडित जी ने प्रेम से हाथ पकड़ कर कहा –

“बड़ी वफा से निभाई तुमने,

इनकी थोड़ी सी बेवफाई…”

गंगू ने अपना हाथ खींच लिया उसे

‘थोड़ा है थोड़े की जरूरत है’…. वाली याचना के साथ ‘बड़ी वफा से निभाई तुमने हमारी थोड़ी सी बेवफाई’ सरीखी कातरता दिखी तो घरवाली ने पंडित जी से शिकायत कर दी कि – कोरोना से बचाव के लिए इनको थोड़ी सी पीने की सलाह दी तो ये शराबी का किरदार भी निभाने लगे। झट से पंडित जी ने घरवाली की हथेली दबाकर जीवन रेखा का जायजा लिया। कोरोना का डर बताकर ढाढस दिया कि आपकी जीवन रेखा काफी मजबूत है पर हसबैंड की जीवन रेखा थोड़ा कमजोर और लिजलिजी है, सुनकर घरवाली को काफी सुकून मिला। थोड़ी देर में पंडित जी को हाथ देखने में मज़ा आने लगा बोले – कुछ चीजें इशारों पर बताऊंगा तो थोड़ा ज़्यादा समझना। गंगू के काटो तो खून नहीं बोला – पंडित जी थोड़ा थोड़ा तो हमको भी समझ में आ रहा है। उसी समय टीवी चैनल में टाफी चाकलेट बनाने वाली कंपनी का विज्ञापन आने लगा.. “थोड़ा मीठा हो जाए”……

घरवाली को याद आया फ्रिज में मीठा रखा है तुरंत गंगू को आदेश दिया – “सुनो जी, थोड़ा पंडित जी के लिए मीठा लेकर आइये।”  न चाहते हुए भी गंगू ने फ्रिज खोला और गंजी भर रसगुल्ला पंडित जी के सामने रख दिया। घरवाली ने देखा तो डांट पिला दी बोली – “तुम्हें थोड़ी शरम नहीं आती क्या? पूरा का पूरा गंज धर दिया सामने….. तुम्हारे मां बाप ने ऐटीकेट मैनर नहीं सिखाये कि मेहमान को मीठा कैसे दिया जाता है, पंडित जी थोड़ा थोड़ा पसंद करते हैं।”

गंगू थोड़ा सहम गया, पंडित जी से थोड़ा चिढ़ होने लगी….. मन ही मन में सोचने लगा कि अब बुढ़ापे में क्या किया जा सकता है, बचपन में पढाई में थोड़ा और ध्यान दे देते तो थोड़ी अच्छी घरवाली मिलती। ये तो थोड़ी सी बात में लघुता में प्रभुता तलाश लेती है भला हो कोरोना का अच्छे समय आया है।

गंगू का मन भले थोड़ा सा खराब हो गया था पर पंडित जी थोड़े-थोड़े देर में गपागप रसगुल्ले गटक रहे थे और घरवाली थोड़ा और भविष्य जानने के चक्कर में दूसरा हाथ धोकर खड़ी थी और गंगू से कह रही थी कि थोड़ी देर में अपनी बात खत्म करके फिर खाना परसेगी, पर गंगू जानता है कि थोड़े शब्दों में अपनी बात खतम करने का भरोसा दिलाने वाले अक्सर माइक छोड़ना भूल जाते हैं…….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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