हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47 ☆ माइक्रो व्यंग्य – ईगो का ईको ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47

☆ माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको ☆ 

बीस साल पहले हम साथ साथ एक ही आफिस में काम करते थे। पर वे हमारे सुपर बाॅस थे, गुड मार्निंग करो तो देखते नहीं थे, नमस्कार करो तो ऐटीकेट की बात करते थे। जब हेड आफिस से हमारे नाम पुरस्कार आते तो देते समय सबके सामने कहते कि इनके यही सब दंद फंद के काम है बैंक का काम करने में इनका मन लगता नहीं। हेड आफिस से प्रशंसा पत्र आते तो दबा के रख लेते।

जब तक रिटायर नहीं हुए तब तक फेसबुक में हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट को इग्नोर करते रहे। हार कर जब रिटायर हुए तो बेमन से हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। पिछले दो साल से उन्हें फेसबुक में लिखा आने वाला वाक्य “हैपी बर्थडे टू यू” बिना श्रम के हम भेज देते थे। वे पढ़ कर रख लेते थे। कुछ कहते नहीं थे रिटायरमेंट के हैंगओवर में रहते।  इस बार से हमने न्यु ईयर की हैप्पी न्यु ईयर भी भेजने लगे। थैंक्यू का मेसेज तुरंत आया हमें बहुत खुशी हुई। मार्च माह में इस बार गजब हुआ जैसई हमनें “हैपी बर्थ डे टू यू” भेजा वहां से तुरंत रिप्लाई आई, “आपका हैप्पी बर्थडे का संदेश ऊपर भेजा जा रहा है। साहब का अचानक हृदयाघात से निधन हो गया था जाते-जाते कह गये थे कि सब मेसेज ऊपर फारवर्ड कर देना फिर मैं देख लूंगा।  जाते समय वे आपको याद कर रहे थे और उनकी इच्छा थी कि आप भी उनके साथ चलते……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 50 ☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘निरगुन बाबू की पीड़ा’। वास्तव में कुछ पात्र हमारे आसपास  ही दिख जाते हैं, किन्तु , उन्हें हूबहू अपनी लेखनी से कागज़ पर उतार देना, डॉ परिहार सर  की लेखनी ही कर सकती है।  ऐसा लगता है जैसे अभी हाल ही में निर्गुण बाबू से मिल कर आ रहे हैं। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 50 ☆

☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆

निरगुन बाबू चौबीस घंटे पीड़ा से भरे रहते हैं। उन्हें संसार में अच्छा कुछ भी नहीं दिखता। सब भ्रष्टाचार है, सत्यानाश है, बरबादी है।

सबेरे दूधवाला दूध देकर जाता है तो निरगुन बाबू पाँच मिनट तक पतीले को हिलाते खड़े रहते हैं। कहते हैं, ‘देखो, पानी में थोड़ा सा दूध मिलाकर दे गया। ये बेपढ़े लिखे लोग हमारे कान काटते हैं। दुनिया बहुत होशियार हो गयी।’

सब्ज़ी लेने जाते हैं तो सब्ज़ीवालों से घंटों महाभारत करते हैं। घंटों भाव-ताव होता है। कहते हैं, ‘ठगने को हमीं मिले? हमें पूरा बाजार मालूम है। हमें क्या ठगते हो?’  तराजू में से आधी सब्ज़ी निकालकर वापस टोकरी में फेंक देते हैं। कहते हैं, ‘यह सड़ी सब्जी हमारे सिर मत मढ़ो। जानता हूँ कि तुम बड़े होशियार हो।’

सब्ज़ी की तौल के वक्त निरगुन बाबू की चौकन्नी नज़र तराजू के काँटे पर रहती है। हिदायत चलती है—-‘पल्ले पर से हाथ हटाओ। जरा और ऊपर उठाओ। पल्ला नीचे जमीन पर धरा है। डंडी मत मारो।’ तराजू उठाए उठाए सब्ज़ीवाले का हाथ थरथराने लगता है, लेकिन निरगुन बाबू का शक दूर नहीं होता। घर लौटकर कहते हैं, ‘साले सब चोर बेईमान हैं। ठगने के चक्कर में रहते हैं।’

उनकी नज़र में मोची भी बेईमान है और धोबी भी। चप्पल सुधरवाकर कई मिनट उसको उलटते पलटते हैं। फिर भुनभुनाते हैं, ‘दो टाँके मारे और दो रुपये ले लिये। लूट मची है।’

कपड़े धुल कर आने पर निरगुन बाबू उनमें पचास धब्बे ढूँढ़ निकालते हैं। पचास जगह सलवटें बताते हैं।  ‘ससुरे मुफ्त के पैसे लेते हैं। इससे अच्छा तो घर में ही धो लेते।’

नुक्कड़ का बनिया उनकी नज़र में पक्का बेईमान है। कम तौलता है, खराब माल देता है और ज़्यादा पैसे लेता है। यानी सर्वगुणसंपन्न है। लेकिन उससे निरगुन बाबू कुछ नहीं बोलते क्योंकि महीने भर उधार चलता है। उधार का तत्व उनकी तेजस्विता का गला घोंट देता है।

उनके बच्चों के मास्टर बेईमान हैं। कुछ पढ़ाते लिखाते नहीं। जानबूझकर उनके सपूतों को फेल कर देते हैं। एक मास्टर को उन्होंने घर पर पढ़ाने के लिए लगाया था। लेकिन पढ़ाई के वक्त निरगुन बाबू उसके आसपास ही मंडराते रहते थे। नतीजा यह कि एक महीना होते न होते वह मास्टर भाग गया।

राशन की लाइन में लगने वालों को निरगुन बाबू बताते हैं कि कैसे अच्छा राशन खराब राशन में बदल जाता है। बस में बैठते हैं तो सहयात्रियों  को बताते हैं कि कैसे बसों के टायर-ट्यूब और हिस्से-पुर्ज़े बिक जाते हैं। ट्रेन में बैठते हैं तो भाषण देते हैं कि कैसे रेलवे के बाबू लोग पैसे बनाते हैं।

निरगुन बाबू देश के भ्रष्टाचार के चलते-फिरते ज्ञानकोश हैं। एक एक कोने के भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें है। भ्रष्टाचार सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, लाइलाज है। दुनिया चूल्हे में धरने लायक हो गयी है।

भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले निरगुन बाबू साढ़े दस बजे अपने दफ्तर के सामने ज़रूर पहुँच जाते हैं, लेकिन ग्यारह बजे तक सामने वाले पान के ठेले पर खैनी मलते रहते हैं। निरगुन बाबू नगर निगम के जल विभाग में हैं। ग्यारह बजे कुरसी पर पहुँचने पर यदि उन्हें कोई शिकायतकर्ता इंतज़ार करता मिल जाता है तो उनका माथा चढ़ जाता है। कहते हैं, ‘क्यों भइया, रात को सोये नहीं क्या? हमारे दरसन की इतनी इच्छा थी तो हमसे कहते। हम आपके घर आ जाते।’ आधे घंटे तक मेज कुरसी खिसकाने और पोथा-पोथी इधर उधर करने के बाद उनका काम शुरू होता है।

हर दस मिनट पर निरगुन बाबू दोस्तों से गप लड़ाने या बाथरूम जाने के लिए उठ जाते हैं और उनकी कुरसी खाली हो जाती है। शिकायतकर्ता खड़े उनका इंतज़ार करते रहते हैं। कोई कुछ कहता है तो निरगुन बाबू जवाब देते हैं, ‘आदमी हैं। कोई कोल्हू के बैल नहीं हैं कि जुते रहें।’

हर घंटे में वे चाय के लिए खिसक लेते हैं। लंच टाइम एक से दो बजे तक होता है, लेकिन वे पौन बजे कुरसी छोड़ देते हैं और ढाई बजे से पहले कुरसी के पास नहीं फटकते। लोग काम के लिए घिघियाते रह जाते हैं।

पौने पाँच बजे फिर निरगुन बाबू कुरसी छोड़ देते हैं और पान के ठेले पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनका भाषण शुरू हो जाता है, ‘भइया, बाल पक गये, लेकिन ऐसा अंधेर और भ्रष्टाचार न देखा। दुनिया ससुरी बिलकुल चूल्हे में धरने लायक हो गयी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 4 ☆ व्यंग्य – स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट।  दान महात्मय पर रचित  अकल्पनीय रचना । कोरोना का खौफ इस तरह बैठता जा रहा है कि स्वप्न  में  भी कोरोना और सामाजिक परिवेश के चित्र दिखाई देने लगे हैं। फिर स्वप्न को स्वप्न की ही दृष्टि से देखना चाहिए, जाति, धर्म और राजनीति की दृष्टि से  कदापि नहीं। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 47 ☆ 

☆ व्यंग्य – स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट 

दानं वीरस्य भूषणम्.गुरूजी ने उन्हें जीवन मंत्र समझाया  था कि ये सारे करेंसी नोट तो यहीं रह जाते हैं, ऊपर तो केवल दान, दया,मदद की कोमल भावना के नोट ही चलते हैं.इस भाव को उन्होने जीवन में अपना लिया था और इस दृष्टि से निश्चित ही वे बड़े पुण्यात्मा थे.  उन्होने सबकी सदैव हर संभव मदद की थी. प्रधान मंत्री सहायता कोष की ढ़ेर सारी रसीदें उनके पास सुरक्षित हैं. १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध का मौका रहा हो, कहीं भूकम्प आया रहा हो या बाढ़ की विपत्ति से देश प्रभावित हुआ हो, अकाल पड़ा रहा हो या आगजनी की विपदा आई हो,उनसे जितना बन पड़ा मुक्त हृदय से उन्होने सहयोग किया. पहले चैक से राशि भेजते थे, फिर ड्राफ्ट का जमाना आया, सीधे खाते में राशि जमा करने का मौका आया और अब तो घर बैठे नेट बैंकिंग से या मोबाईल एप के जरिये ही मदद पहुंचाने की  सुविधायें दी जाने लगी हैं. कुछ निजी संस्थानो को उनके इस भामाशाही नेचर का ज्ञान जाने कैसे हो जाता है ? शायद वे सहायता कोष के डाटा बेस में सेंध लगा लेते हैं, क्योंकि उनके पास कोकिल कंठी युवा लडकियो के स्वर में उन संस्थाओ को भी दान देने की प्रार्थना के फोन आने लगते हैं. वे यथा संभव उन्हें भी निराश नही करते. मतलब उन्होने स्वयं की ऐसी दानी प्रोफाईल बना ली थी कि चित्रगुप्त जी को स्वर्ग में उनकी सीट आरक्षण में कहीं कोई अंदेशा न हो.

चीन से कोरोना क्या आया वैश्विक महामारी फैल गई, इससे पहले कि वे इस पेंडेमिक राहत कोष में किसी तरह का कोई दान धर्म कर पाते इस पावन धरा पर उनका जीवन काल पूरा हो गया. लाकडाउन के चलते सड़कें, गलियां,शहर सब वैसे ही वीरान थे, बिना ट्रेफिक में फंसे मिस्टर एम राज अर्थात यमराज आ धमके. उन्होंने प्रसन्न मन, धरा को त्याग वासांसी जीर्णानी यथा विहाय को ध्यान रख नश्वर शरीर त्याग गोलोक गमन किया.अपने दान धर्म पर उन्हें भरोसा था,  मन ही मन उन्होने सोचा चलो अब स्वर्ग में अप्सराओ के नृत्य, गंधर्वो का संगीत सुनने का समय आ गया है. लेकिन यह क्या जैसे ही वे स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे उनको द्वार पाल ने रोक लिया. उन्हें लगा यार गलती हो गई मैं दान की संभाल कर रखी रसीदें तो ला  ही नहीं पाया. उन्होने स्वयं को कोसा अरे कम से कम उनकी स्कैन कापी डिजिटल लाकर में डाल ली होतीं तो आज काम आतीं. फिर उन्हें ध्यान आया कि हां इनकम टैक्स रिटर्न में तो हर बार रसीदें लगाईं थी और एट्टी जी में उसकी छूट भी ली थी, मतलब सारे दान के डिटेल्स रिकवर करने के चांसेज हैं. वे द्वार पाल को कोने में ले जाकर अपने टैक्स रिटर्न्स निकलवाने के लिये पैन नम्बर बताना चाहते थे, जो उन्हें जगह जगह लिखते हुये मुखाग्र याद हो गया था. किन्तु वे ऐसा कुछ करते इससे पहले ही उन्होने देखा कि द्वार पर एक सुंदर नर्स और एक डाक्टर भी थे, जो लोगों के माथे पर पिस्तौल सा यंत्र ताने लोगों का तापमान ले रहे थे, नर्स गले से स्वाब, नाक से नेजल एस्पिरिट निकाल रही है, और सारी पुण्यात्माओ को बेवजह २१ दिनो के क्वेरेंटीन में स्वर्ग से बाहर बनाये गये टेंट के कैम्प में भेजा जा रहा था. उन्हें कुछ गुस्सा भी आया कैसे भगवान हैं जो चाइना के कोरोना से जीत नही पाये हैं. किंतु जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये का ध्यान कर उन्होने सब्र से काम लिया और सारे सेंपल देकर लाइन से क्वेरेंटीन कैंम्प की ओर बढ़ चले. वहां पहले से ही कुछ जमाती पलंग पर जमे दिखे, पूछा तो पता हुआ कि कब्रिस्तान फुल चल रहे थे इसलिये हूरों की वेटिंग के लिये कुछ इंटर रिलीजन एग्रीमेंट हुआ है जिसके चलते इस केम्प में सीट्स खाली होने से इन लोगों को यहां रखा गया था. वे पलंग पर लेट ही रहे थे कि एक कर्कश आवाज आई कब तक लेटे रहियेगा, उठिये चाय बनाइये, आज आपकी बारी है. गहरी तंद्रा टूट गई. पत्नी चाय बनाने का आदेश दे रही थी, रामदीन की छुट्टी कर दी थी उन्होंने और बारी बारी से पति पत्नी किचन का जिम्मा संभाल रहे थे. उन्होंने चाय का पानी चढ़ाते हुये तय किया आज पी एम केयर फंड में ग्यारह हजार डाल देंगे, आखिर परलोक भी तो सुधारना है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 2 ☆बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #2 ☆

☆ बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद

‘हेलो डियर एपल, तुम यहाँ कैसे?’ – कचरे के ढेर पर पड़े केले ने सेब से पूछा.

‘हुआ ये कि एक थे जानकी दादा, उन्होंने किलो भर ख़रीदा. थोड़ी दूर जाकर उनको पता चला कि विक्रेता असलम था तो वे मुझे यहाँ फेंक गये. कहते हैं मैं मुसलमां हो गया हूँ, और आप?’

‘अपन की भी वोई कहानी.’ – केले ने कहा – ‘आबिद भाई ने परचेस तो कर लिया था, मगर घर पहुँचने से पहले उन्हें किसी ने बताया कि वेंडर कैलास था, वो मुझे यहाँ पटक गये. बोला कि मैं हिन्दू हो गया हूँ.’

‘यार कुछ भी कहो, ठौर सही मिला है अपन को. आस-पास थोडा कचरा जरूर है मगर है जगह धर्म निरपेक्ष. सर्वसमावेशी. निरापद. शांत. निर्विवाद.’

‘सही कहा दोस्त, अब तो ये साले इंसान सेब, केले, अंगूर, अनार का भी धरम तय करने लगे. मेरा जन्म तो हिमाचल में दौलतरामजी के बगीचे में हुआ. इस लिहाज से तो मैं पैदाइशी हिन्दू हुआ.’

‘डेफिनेशन बाय बर्थ से चलें तो अपन भी मोमेडन ही हुवे. मेरा प्लेस ऑफ़ बर्थ जलगाँव के अहमद मियां का फार्म है.’

‘दोस्त, मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि हमारा धर्म उगानेवाले से तय होगा कि बेचनेवाले से? प्रकृति ने तो हमें भूख मिटाने के धर्म में दीक्षित करके भेजा था, इसमें हिन्दू-मुसलमान कहाँ से आ गया?’

‘पता नहीं यार, कोई वाट्सअप नाम की चीज़ है आदमियों की दुनिया में, शायद तक तो उसी से हुआ है. बहिष्कार की अपीलें चल रहीं हैं वहाँ. बहरहाल, ये बताओ कि वे अगर तुम्हें खा लेते और उसके बाद उनके नॉलेज में आता तब क्या होता?’

‘अंगुली गले में फंसा के उल्टी करते, फिर तीन बार कुल्ले करके शुद्धि कर लेते.’ ऊssssssक्क. उलटी की आवाज़ की मिमिक्री कर दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया. तभी शेष कचरे में से जोर जोर से हंसने आवाज आई. उन्होंने पूछा तुम कौन हो?

‘मैं अधर्म हूँ.’

‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो और इतनी जोर-जोर से क्यों हंस रहे हो?’

‘वो जो असलीवाला धर्म है ना वो मुझे बार बार कचरे में डाल जाता हैं. मैं बजरिये भक्तों के धर्म को ही जार जार करने निकल पड़ता हूँ. देखो इस विपत्तिकाल में भी लोग मुझे कम एक दूसरे को ज्यादा निपटा रहे हैं. अपन की चाँदी है तो क्यों नहीं हंसे?….अभी यहाँ हूँ, कुछ देर में वाट्सअप पर रहूँगा, फिर चीखते चैनलों में, फेक न्यूज में, डॉक्टर्ड वीडिओ में, फिर पढ़े-लिखे दिमागों में, हाथ के पत्थरों में, जलते टायरों में, आंसू गैस के गोलों में, रबर की बुलेटों में, फिर…..फिर….’, फिर चुप्पी मार गया अधर्म.

‘माय डियर बनाना, अब हम क्या करेंगे?’

‘चेरिटी करेंगे. जस्ट वेट. पुलिस की नज़र बचाकर आती ही होंगी पन्नी बीननेवाली औरतें, हम उनके खाने के काम आयेंगे.’

‘वो किस धरम की हैं?’

‘जो लोग कचरे में से बीन कर पेट भरते हैं वे धरम-करम के फेर में नहीं पड़ते. समझो कि वे भूख के धरम की हैं. नाक चढ़ाना उनके चोंचले हैं जिनके हाथ में थर्टी थाउजंड का स्मार्ट फ़ोन और दो जीबी डाटा डेली खरीदने का दम है.’

‘तब तो हम हमेशा ही पन्नी बीननेवालियों के काम आया करेंगे.’ – सेब ने खुश होकर कहा.

‘नहीं दोस्त, नहीं हो पायेगा, इंसान की फितरत तुम जानते नहीं. प्लान्स ये हैं कि साईन बोर्ड पर ही लिखवा दें – कैलास हिन्दू केला भंडार, असलम मोमेडन फ्रूट स्टोर्स जैसा कुछ. खाये-पिये अघाये लोगों की फितरतें हैं – ये यहाँ से नहीं खरीदो, वो वहाँ से नहीं खरीदो.’ – केले ने समझाया.

सेब सोच रहा है इससे तो ईडन गार्डन में ही अच्छा था. काश वहीं लटका रह जाता. न तो आदिम आदम को धरम से कोई मतलब रहा था, न हव्वा को. मानव सभ्यता रिवाईंड हो जाये तो मजा आ जाये.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 49 ☆ व्यंग्य – महामारी पर भारी शायर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘महामारी पर भारी शायर’। डॉ परिहार सर का इस बार का कैरेक्टर वास्तव में कैरेक्टर ही है। वैसे शायर शब्द से अंदाजा तो आप ने लगा ही लिया होगा।  शायर भारी कैसे पड़ा ? इसके लिए तो आपको रचना पढ़नी ही पड़ेगी। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 49 ☆

☆ व्यंग्य – महामारी पर भारी शायर ☆

मुहल्ले में अफ़रा-तफ़री थी। पूरा लॉकडाउन लगा था, घरों से निकलने की सख़्त मुमानियत थी। लेकिन लोग थे कि बेवजह प्रकट होने से बाज़ नहीं आ रहे थे। पुलिस उन्हें हाँकते हाँकते परेशान थी। पाँच को भगाती तो दस पैदा हो जाते।

अचानक पुलिस इंस्पेक्टर के पास एक नौजवान आकर खड़ा हो गया। महीनों की बढ़ी दाढ़ी और बाल, तुचड़े-मुचड़े कपड़े। लगता था महीनों से नहाया नहीं है। देखते ही ‘सोशल डिस्टांसिंग’ की इच्छा होती।

इंस्पेक्टर को सलाम करके बोला,  ‘सर, ख़ाकसार को लोग ‘ज़ख़्मी’ के नाम से जानते हैं। शायर हूँ। शहर का बच्चा बच्चा मेरे अशआर का दीवाना है। आपकी परेशानी देखकर मन हुआ कि आप की कुछ मदद करूँ। कौम की ख़िदमत करना अपना फर्ज़ मानता हूँ। मैंने इस महामारी पर कुछ नज़्में लिखी हैं। लोगों को सुनाऊँगा तो वे आपका नज़रिया समझेंगे और आपका काम हल्का हो जाएगा। मुझे एक कुर्सी और मेगाफोन दिलवा दें तो मैं अभी काम में लग जाऊँगा।’

इंस्पेक्टर साहब उसकी बात से प्रभावित हुए। कुर्सी और मेगाफोन का इंतज़ाम हो गया और ‘ज़ख़्मी’ साहब अपना रजिस्टर निकाल कर तत्काल शुरू हो गये। थोड़ी देर में इंस्पेक्टर साहब ड्यूटी बदलकर चले गये।

दूसरे दिन सबेरे लौटे तो पाया ‘ज़ख़्मी’ साहब, दीन-दुनिया से बेख़बर, पूरे जोश के साथ अपनी नज़्में पढ़ने में लगे हैं। उनकी बुलन्द आवाज़ पूरे वातावरण में गूँज रही थी। बाकी सब तरफ सन्नाटा था। कहीं चिरई का पूत भी दिखायी नहीं पड़ता था।

इंस्पेक्टर को देखकर ‘ज़ख़्मी’ साहब अपना कलाम बन्द करके खड़े हो गये, बोले, ‘देख लीजिए सर, अपनी नज़्मों का कैसा असर हुआ है। कोई घरों से बाहर नहीं निकल रहा है। इस मुहल्ले के लोग यकीनन अच्छी शायरी के कद्रदाँ हैं।’

इंस्पेक्टर साहब ने संतोष ज़ाहिर किया। इधर उधर नज़र घुमायी तो देखा सामने खिड़की में कई सिर इकट्ठे हैं और उन्हें पास आने का इशारा किया जा रहा है। इंस्पेक्टर साहब खिड़की के पास पहुँचे तो उनमें से एक बन्दा हाथ जोड़कर बोला, ‘सर, कल हमसे बड़ी गलती हुई जो हमने आपकी हुक्मउदूली की। लेकिन इस शायर को यहाँ छोड़कर आपने हमें बड़ी सज़ा दे दी है। ये हज़रत जब से शुरू हुए हैं तबसे पाँच मिनट को भी बन्द नहीं हुए। एक ही सुर में लगातार पढ़े जा रहे हैं। हम रात भर सो नहीं पाये। अब हमें बर्दाश्त नहीं हो पायेगा। हम इस महामारी से मरें न मरें, इनकी शायरी से यकीनन मर जाएंगे। इन्हें यहाँ से रुख़्सत करें। हम वादा करते हैं कि आगे आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’

इंस्पेक्टर वापस आये तो ‘ज़ख़्मी’ साहब ने पूछा, ‘सर,ये लोग क्या कह रहे थे?’

इंस्पेक्टर साहब ने जवाब दिया, ‘आपकी तारीफ कर रहे थे। आपकी शायरी उन्हें बहुत पसन्द आयी। शुक्रिया, अब आप तशरीफ़ ले जाएं।’

‘ज़ख़्मी’ साहब बोले, ‘यह मेरा कार्ड रख लीजिए। फिर कभी मेरी ज़रूरत पड़े तो याद कीजिएगा। मैं फौरन हाज़िर हो जाऊँगा। कौम की ख़िदमत करना मेरा फर्ज़ है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆ दो गज दूरी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “दो गज दूरी।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆

☆ दो गज दूरी

एक तो रिश्तों में वैसे ही दूरियाँ बढ़ रहीं थीं  दूसरा ये भी ऐलान कर दिया कि दो गज दूरी बहुत जरूरी ।  आजकल सभी विशेषकर युवा पर्सनल स्पेस को ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए  ऑन लाइन रिश्तों का चलन बढ़ गया है । इसकी सबसे बड़ी खूबी ;  इसमें नखरे कम झेलने पड़ते हैं । जब तक मन मिले तब तक फ्रेंड बनाओ अन्यथा अनफ्रेंड करो । ऐसा फ्रेंड किस काम का जो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े लाइक न करता हो ।

दोस्ती होती ही तभी है;  जब आप एक दूसरे को लाइक करते हो । कहते हैं  न, सूरज अपने साथ  एक नया दिन लेकर आता है , तो ऐसे ही एक दिन सुबह – सुबह सात समंदर  पार से  कोरोना जी  भी आ धमके । जब कोई आता है तो पूरे घर की दिनचर्या बदल जाती है ; खासकर मध्यमवर्गीय परिवार की क्योंकि वे लोग दिखावे की दौड़ में खुद को शामिल कर लेते हैं । ऐसे समय में हम लोग अच्छा – अच्छा बना कर खाते और खिलाते हैं । ऐसा ही कुछ इस समय भी हो रहा है । दिन भर रामायण व महाभारत के पात्रों की चर्चा व चिंतन अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों की जीवन शैली में शामिल हो कर महक- चहक रहा है । अपनी संस्कृति से  जुड़े होने की घोषणा हम तभी करते हैं जब मेहमान घर पर हो, तो बस ये अवसर आया विदेशी मेहमान हमारे साथ – साथ रहने की इच्छा लिए आ धमका और हम देखते ही रह गए ;  क्या करते । इसकी नियत पर शक तो शुरू से ही था ,  जो दिनों दिन पुख्ता भी होता जा रहा है  पर हम तो अतिथि देवो भव की परंपरा के पोषक हैं तो स्वागत सत्कार कर रहे हैं ।

इक्कीसवीं सदी चल रही है,  हर युग की अपनी कोई न कोई विशेष उपलब्धि रही है । जब इतिहास लिखा जायेगा तो कलियुग की सबसे बड़ी उपलब्धि  तकनीकी को ही माना जायेगा । इसकी  सहायता से सब कार्य ऑन लाइन होने लगे हैं  ।  लाइन लगाने में तो वैसे भी हम लोग बड़े उस्ताद हैं ; इसका अभ्यास नोटबन्दी के दौरान खूब किया है । अब ये भी सही है कि हर पल कुछ न कुछ नया करते रहना चाहिए । सो हर कार्य शुरू हो गए नए बदलावों के साथ ।  लॉक डाउन में अर्थव्यवस्था भले ही डाउन हुई हो पर घरेलू हिंसा अप ग्रेड हो रही है । अरे भई  जहाँ  चार बर्तन होंगे तो आवाज तो उठेगी ही । मामला भी ऑन लाइन ही सुलझाया जा रहा है ।   बड़ा आंनद आयेगा जब  वीडियो अदालत होगी,  ऐसे में बहसबाजी का दौर तब तक चलेगा जब तक सर्वर डाउन न हो जाये । कुछ भी कहें इक्कीसवीं सदी की बीमारी भी दो हाथ आगे निकली । चमगादड़ से आयी या प्रयोग शाला से ये तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं किंतु कहाँ- कहाँ मानवता के दुश्मन पनप रहे हैं इतना जरूर बताती जा रही है । कोई इसे कोरोना मैडम कहता है तो कोई कोरोना सर जी कह कर इसको सम्मानित कर रहा है । अरे भाई हम लोग सनातन धर्म को मानते हैं जहाँ हर प्राणी में ईश्वर का वास  देखा जाता है ।  सो सम्मान तो बनता है । अब ये बात अलग है कि ये वायरस है जिसे ज्यादा प्यार पाकर बहक जाने की आदत है । सबको जल्दी ही पोजटिव करता है । और द्विगुणित होकर बढ़ते हुए चलना इसका स्वभाव है । अब इसे कौन बताए कि हम लोग हम दो हमारे दो से भी दूर होकर हम दो हमारे एक पर विश्वास करते हैं । तुम्हारी दाल यहाँ नहीं गलने वाली । हमारे यहाँ तो जैसा अन्न वैसा मन ही सिखाया गया है अतः हम लोग चमगादड़ों से नाता नहीं जोड़ते । कुछ लोग भटके हुए प्राणी अवश्य हैं ; जो  भोजन और भजन को छोड़कर माँसाहार की ओर भटकते हैं ; वे भले ही तुम्हारी सेवा करें पर जैसे ही समझेंगे कि तुम्हारी सोच सही नहीं है । तुमसे खराब वाइव्स आ रही है तुम्हें रफा दफा कर देंगे ।

जब दिमाग ठंडा हो तो लोग आराम से कार्य करते हैं वैसे ही कारोना जी को भी ठंडेपन से ज्यादा ही मोह है ये साँस की नली की गली को ही ब्लॉक कर देता है । ब्लॉक करना तो इसकी  पुरानी आदत है । गर्मी पाते ही रूठ जाता है । सारे देशभक्त इसे भागने हेतु दिन -रात एक कर रहे हैं पर ये भी पूरी शिद्दत से गद्दारों को ढूंढ कर उनको उकसाता है ; कहता है मेरा साथ दो खुद भी जन्नत नशी बनों औरों को भी बनाओ । अनपढ़ लोग इसकी बातों में आ रहे हैं ; तो कुछ दूर से ही  इसके समर्थन में अपनी राजनैतिक रोटी सेंक रहे हैं ।

जिस दिन से इंटरनेट शुरू हुआ ऑन लाइन सम्बंधो पर तो सभी ने वर्क शुरू किया । इस दौरान बहुत से फेसबुकिया रिश्तेदार भी बने ।  सारे  कार्य इसी से शुरू हो गए,  ऐसा लगने लगा मानो हम सब अंतरिक्ष में जाकर ही दम लेंगे पर ये अतिथि है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा । ये जाए तो हम सब की जीवनरूपी रेल पुनः पटरी पर दौड़ें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 1 ☆ डिझाईनर टोंटियों के दौर में ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  ने हमारे आग्रह पर ई- अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  लिखना स्वीकार किया है जिसके लिए हम  आपके ह्रदय से आभारी हैं।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है उनका एक सार्थक व्यंग्य “डिझाईनर टोंटियों के दौर में ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #1 ☆

☆ डिझाईनर टोंटियों के दौर में

एक विनम्र सलाह है श्रीमान, जब कभी किसी नये बाथरूम में जाना पड़े तो टोंटियों के साथ थोडा संभलकर बर्ताव कीजियेगा. एक छोटी सी भूल आपका करियर बर्बाद कर सकती है. उस दिन, एक बड़े होटल के कन्वेन्शन सेन्टर में ऑफिस की एक इम्पोर्टेन्ट मीटिंग  में चल रही थी.  बाथरूम जाना पड़ा.  हाथ धोने के लिये नल चलाया तो सर के ऊपर फव्वारा चल पड़ा. बंद करने के लिये नॉब दबाया तो साईड का मिस्टिक शॉवर चल पड़ा. तेजी से बंद करने की कोशिश में फव्वारा एक ओर से बंद होता तो दूसरी ओर खुल जाता. जो नॉब लेफ्ट में खुलती वो राईट में पानी फेंकती. जो राईट में खुलती वो सेंटर भिगो देती. आड़े, तिरछे, गोल, ऊपर, सामने से लहराते से फव्वारे को जब तक अपन पूरी तरह बंद कर पाते तब तक देर हो चुकी थी. अपन की जगह किसी हिंदी सिनेमा की नायिका होती तो जबरदस्त हिट सीन होता. अपन की फिलिम तो पिट चुकी थी. नेपथ्य से सुनायी दिया – भीगे कपड़े मीटिंग अटेंड करने नहीं देंगे और एमडी साब तुम्हें घर जाने नहीं देंगे शांतिबाबू. मुगलेआज़म की सलीम अनारकली टाईप मामला था. बहरहाल, मौका मुआईना कर बॉस ने ऐसी जगह ट्रान्सफर करने का मन बना लिया जहाँ डिब्बा लेकर दिशा मैदान जाना पड़ेगा और बाल्टी से पानी खेंच के कुएं की पाल पर नहाना पड़ेगा. नो टोंटी नो झंझट. उनका अभिमत स्पष्ट था, जो आदमी पानी की टोंटी सही से नहीं खोल सकता हो वो कम्पनी के परफोर्मेंस की टोंटी क्या खोल पायेगा.

ये खूबसूरत, आकर्षक, डिझाईनर मगर उलझनभरी टोंटियों का दौर है श्रीमान. टोंटियों के नये निज़ाम में जरूरत न केवल सही टोंटी पहचानने की है बल्कि उसे किस दिशा में खोलना है यह जानना भी जरूरी है. अपन तो अक्सर लेफ्ट में खोलकर खौलते पानी में हाथ जला बैठते हैं, अनुकूल पानी तो इन दिनों राईट साईड में बह रहा है. कैसे खोलना है – ये भी लाख टके सवाल का है. कभी अपन नॉब पुश करते हैं, कभी ऊपर करके देखते हैं, कभी लिफ्ट करके साईड में घुमाकर ट्राय करते हैं तो कभी टोंटी के अगले हिस्से को घुमाकर देखते हैं. तरह तरह के जतन करना पड़ते हैं तब जाकर खुल पाती है टोंटी. कभी कभी तो समझ ही नहीं पड़ता कि बाथरूम की दीवार में जो ठुकी है वो टोंटी है कि खूंटी. भूत सूनी हवेलियों में ही नहीं रहा करते हैं, नलों में भी रहते हैं. हाथ टोंटी के नीचे ले जाते हैं तो पानी चालू हो जाता,  हटाओ तो बंद. फिर चालू फिर बंद. टोंटी नहीं हुई पहेली हो गई श्रीमान. एअरपोर्ट के वाटरकूलर की टोंटी तो ऐसी उजबक् कि पानी पीने के लिये आपको गर्दन ऊँट से उधार लेनी पड़े. नल जहां से मुड़ता है वहां न मुंडी फंसा पाते हैं न अंजुरी ठीक से भर पाती है. टोंटी खुलेगी कहाँ से – जानने के लिये कूलर की परकम्मा करनी पड़ती है.

अपन तो जिंदगी में सही टोंटी पहली बार में कभी खोल ही नहीं पाये. हमारे दफ्तर में हैं कुछ सफल सहकर्मी. वे सही टोंटी पहचानते है, उसे किस दिशा में, कैसे और कितना खोलना है यह भी जानते हैं. जितने वे टोंटी खोलने की कला में पारंगत हैं उतने ही बंद करने में निपुण हैं. कौनसी टोंटी कब और कहाँ से बंद करना है, उनसे सीखे कोई.  वे जो टोंटी खोलते हैं उसमें से माल ही माल टपकता है. वे गीले नहीं होते, गच्च होते हैं. कभी कभी वे अपनी बचाने के फेर में दूसरों की टोंटी उखाड़ फैंकते है.  साले राजनीति में होते तो मोटी धार की टोंटियों से खेल कर रहे होते. जब तक खेलते तब तक खेलते, फिर   उखाड़ कर ले जाते.

बहरहाल, किस्से की नैतिक शिक्षा ये श्रीमान कि टोंटियों के साथ थोडा संभलकर बर्ताव कीजियेगा वरना वे ऐसा बर्ताव करेंगी कि आप न सूखे रह पायेंगे न सुखी.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 48 ☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा’।  मल्लूभाई जैसे बहुत सारे चरित्र आपके आस पड़ोस में मिल जायेंगे, किन्तु ऐसे  सजीव चरित्र को हूबहू किसी रचना में उतारने क्षमता तो डॉ परिहार जी की  लेखनी में ही है। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 48 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆

लॉकडाउन लगने पर मल्लूभाई दफ्तर से घर में ऐसे गिरे हैं जैसे पानी में से खींची गयी कोई मछली ज़मीन पर गिरती है। जिस दफ्तर में दिन के दस घंटे गुज़रते थे और जो घर से भी बड़ा घर बन गया था, उसके दर्शन को आँखें तरस गयीं। रोज़ शाम साढ़े पाँच बजे घर आते थे, फिर चाय वाय पीकर सात बजे दफ्तर के क्लब के लिए भागते थे। वहाँ दो घंटे दोस्तों के साथ मस्ती होती थी। कैरम, शतरंज के साथ चाय-पकौड़े के दौर चलते थे। इतवार को भी दो तीन घंटे के लिए दोस्त वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। दफ्तर में रोज़ हज़ार-पाँच सौ ऊपर के मिल जाते थे, जिसकी बदौलत बीवी-बच्चों पर रुतबा बना रहता था। अब वह रुतबा छीज रहा था।

अब मल्लूभाई बनयाइन-लुंगी पहने घर में मंडराते रहते हैं। हर खिड़की पर रुककर झाँकते हैं, फिर लंबी साँस खींचते हैं। इसके बाद आगे बढ़ जाते हैं। बाहर सड़कों पर सन्नाटा और वीरानी है। इधर उधर डंडाधारी पुलिसवालों के सिवा कोई नहीं दिखता।

मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘देखो, हर खराबी में कुछ अच्छाई होती है। अब हम फुरसत हैं तो घर के काम में आपकी मदद करेंगे। अभी आपका काम बढ़ गया है, हम मदद करेंगे तो आपको कुछ राहत मिलेगी। ‘

पत्नी उन्हें जानती है। जवाब देती है, ‘देखते हैं कितनी मदद करते हो।’

मल्लूभाई पहले साढ़े सात बजे उठ जाते थे, अब दस बजे तक नाक बजाते, मनहूसियत फैलाते, सोते रहते हैं। उनके आसपास  पत्नी काम करती रहती है, लेकिन उन्हें  कोई फर्क नहीं पड़ता।

उठ कर नहा धो कर दो घंटे पूजा में बैठते हैं। पत्नी कहती है, ‘पहले तो आधे घंटे में पूजा हो जाती थी, अब दो घंटे तक क्या करते हो?’

मल्लूभाई जवाब देते हैं, ‘पहले सिर्फ अपने परिवार के लिए प्रार्थना करता था, अब इस मुसीबत में पूरी दुनिया के लिए प्रार्थना करता हूँ। एक एक देश का नाम लेता हूँ। फिर अपने देश पर आकर एक एक राज्य का नाम लेता हूँ। इसके बाद अपने राज्य के एक एक ज़िले का नाम लेता हूँ। फिर अपने शहर में आकर एक एक मुहल्ले का नाम लेता हूँ, और फिर अपनी कॉलोनी के एक एक घर का नाम लेता हूँ। फिर अपने परिवार और आपके मायकेवालों के नाम लेता हूँ। मैंने सब की लिस्टें बना ली हैं। अब इतनी लम्बी पूजा में दो घंटे से कम क्या लगेंगे?’

पत्नी चुप हो जाती है। भोजन करते करते मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘आप से कहा था कि कुछ काम मेरे लिए छोड़ दिया करो। आप छोड़ोगी नहीं तो हम क्या करेंगे?’

पत्नी व्यंग्य से कहती हैं, ‘आपसे क्या कहें?आपके पास काम के लिए टाइम ही कहाँ होता है।’

मल्लूभाई शर्मीली हँसी हँस कर मौन साध लेते हैं।

शाम को पत्नी मल्लूभाई से कहती है, ‘ज़रा बाहर निकलकर देखो, कोई सब्ज़ीवाला दिखे तो सब्ज़ी ले आओ। आज कोई ठेलेवाला नहीं आया।’

मल्लूभाई आज्ञाकारी भाव से कपड़े बदलते हैं और थैला उठाकर बाहर निकल जाते हैं।

डेढ़ घंटा गुज़र जाता है, लेकिन सब्ज़ी लेने गये मल्लूभाई लौट कर नहीं आते। पत्नी घबरा जाती है। मन में कई दुश्चिंताएं उठती हैं। कहीं पुलिस ने तो नहीं बैठा लिया।

परेशान होकर फोन लगाती है। उधर से जवाब मिलता है, ‘अरे, सड़क पर कोई पुलिसवाला नहीं दिखा, सो टहलते हुए खरे साहब के यहाँ आ गया। कई दिनों से मिल नहीं पाया था। बस आई रहा हूँ।’

नौ बजे मल्लूभाई खाली थैला हिलाते हुए आ जाते हैं। सफाई देते हैं, ‘सब सब्ज़ी वाले इतनी जल्दी गायब हो गये। तुम चिन्ता न करो। सबेरे ठेले वाले आएंगे, नहीं तो मैं कल पक्का ला दूँगा। कल सबेरे जल्दी उठ जाऊँगा तो सब्ज़ी भी देख लूँगा और घर के कुछ काम भी निपटा दूँगा।’

सबेरे नौ बजे तक ठेले नहीं आये तो पत्नी ने मल्लूभाई को हिलाया,कहा, ‘अभी तक कोई ठेला नहीं आया। ज़रा उठकर बाहर देख लो।’

मल्लूभाई नींद में हाथ उठाकर बुदबुदाते हैं, ‘चिन्ता मत करो। मैं अब्भी उठ कर सब देख लूँगा। सब हो जाएगा। बस अब्भी उठता हूँ।’

इतना बोलकर वे करवट लेकर फिर अपनी सुख-निद्रा में डूब जाते हैं।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 45 ☆ व्यंग्य – अप्रत्यक्ष दानी शराबी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “अप्रत्यक्ष दानी शराबी।  श्री विवेक जी  का यह व्यंग्य सत्य के धरातल पर बिलकुल खरा उतरता है। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 45 ☆ 

☆ अप्रत्यक्ष दानी शराबी 

देश ही नही, दुनियां घनघोर कोविड संकट से ग्रस्त है.सरकारो के पास धन की कमी आ गई है. पाकिस्तान तो दुनिया से खुले आम मदद मांग रहा है,” दे कोविड के नाम तुझको करोना बख्शे”. अनुमान लगाये जा रहे हैं कि शायद करोना काल के बाद केवल चीन और भारत की इकानामी कुछ बचेंगी, बाकी सारे देशो की अर्थव्यवस्था तो कंगाल हो रही है. महाशक्ति अमेरिका तक की जी डी पी ग्रोथ माईनस में जाती दिख रही है. ऐसे संकट काल में हमारे देश में भी सरकार ने जनता से पी एम केयर फंड में मदद के लिये आव्हान किया है. दानं वीरस्य भूषणम्. अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुये सांसदो, विधायको ने अपने वेतन में कटौती कर ली है. सरकारी कर्मचारियो ने अपना एक दिन का वेतन स्वेच्छा से दान दे दिया है. सरकार ने कर्मचारियों के मंहगाई भत्ते की वृद्धि पर रोक लगाकर उसे अगले वर्ष जुलाई तक फ्रीज कर दिया है. अनेक सामाजिक संस्थाओ,  मंदिरों, गुरुद्वारो के द्वारा लंगर चलाये जा रहे हैं. सहयोग से ही इस अप्रत्याशित विपदा का मुकाबला किया जा सकता है. जन मानस के मन में घरों में बंद रहते करुणा के भाव जाग रहे हैं. अच्छा है.

मीडिया प्रेमी ऐसे दान वीर भी सामने आये जिनने  किलो भर चावल दिया और भीड़ एकत्रित कर अपने चमचों सहित हर एंगिल से  पूरा फोटो सेशन ही करवा डाला. दूसरे ही दिन नगर समाचार के पन्नो पर प्रत्येक अखबार में ये दान वीर सचित्र विराजमान रहे. फेसबुक और व्हाट्सअप पर उनकी विज्ञप्तियां अलग प्रसारित होती रहीं. दरअसल ऐसे लोगों के लिये संकट की इस घड़ी में मदद का यह प्रयास भी उनके कैरियर के लिये निवेश मात्र था. जो भी हो मुझे तो इसी बात की प्रसन्नता है कि किसी बहाने ही सही जरूरतमंदो तक छोटी बड़ी कुछ मदद पहुंची तो. एक सज्जन रात दो बजे एक गरीब बस्ती में गाड़ी लेकर पहुंचे, एनाउंस किया गया कि जरूरत मंदो को प्रति व्यक्ति एक किलो आटे का पैकेट दिया जावेगा, जिन्हें चाहिये आकर ले जावें. अब स्वाभाविक था रात दो बजे अधनींद में वही व्यंक्ति एक किलो आटा लेने जावेगा, जिसे सचमुच आवश्यकता होगी, कुछ लोग जाकर आटे के पैकेट ले आये. सुबह जब उन्होने उपयोग के लिये आटा खोला तो हर पैकेट में १५ हजार रु नगद भी थे. गरीबों ने देने वाले को आषीश दिये. सच है गुप्त दान महादान. बायें हाथ को भी दाहिने हाथ से किये दान का पता न चले वही तो सच्चा दान कहा गया है.

एक बुजुर्ग कोविड की बीमारी से ठीक होकर अस्पताल से बिदा हो रहे थे, डाक्टर्स, नर्सेज उन्हें चियर अप कर रहे थे. तभी उन्हें लगाये गये आक्सीजन का बिल दिया गया, उनके उपचार में उन्हें एक दिन  सिलेंडर से आक्सीजन दी गई थी. पांच हजार का बिल देखकर वे भावुक हो रोने लगे, अस्पताल के स्टाफ ने कारण जानना चाहा तो उन्होने कहा कि जब एक दिन की मेरी सांसो का बिल पांच हजार होता है तो मैं भला उस प्रकृति को बिल कैसे चुका सकता हूं जिसके स्वच्छ वातावरण में  मैं बरसों से सांसे ले रहा हूं. हम सब प्रकृति से अप्रत्यक्ष रूप से जाने कब से जाने कितना ले रहे हैं.

मेरा मानना है कि सबसे बड़ा दान अप्रत्यक्ष दान ही होता है. और टैक्स के द्वारा हम सबसे सरकारें भरपूर अप्रत्यक्ष दान लेती हैं . टैक्सेशन का आदर्श सिद्धांत ही है कि जनता से वसूली इस तरह की जावे जैसे सूरज जलाशयों से भाप सोख लेता है, और फिर सरकारो का आदर्श काम होता है कि बादल की तरह उस सोखे गये जल को सबमें बराबरी से बरसा दे. मेरे आपके जैसे लोग भले ही  केवल ठेठ जरूरत के सामान खरीदते हैं, पर अप्रत्यक्ष दान के मामले में हमारे शराबी भाई हम सबसे कहीं बड़े दानी होते हैं.शराब पर, सिगरेट पर सामान्य वस्तुओ की अपेक्षा टैक्स की दरें कही बहुत अधिक होती ही हैं. फिर दो चार पैग लगाते ही शराबी वैसे भी दिलेर बन जाता है. परिचित, अपरिचित हर किसी की मदद को तैयार रहता है. वह खुद से ऊपर उठकर खुदा के निकट पहुंच जाता है. इसलिये मेरा मानना है कि सबसे बड़े अप्रत्यक्ष दानी शराबी ही होते हैं. उनका दान गुप्त होता है. और इस तर्क के आधार पर मेरी सरकार से मांग है कि लाकडाउन में बंद शराब की दुकानों को तुरंत खोला जावे जिससे हमारे शराबी मित्र राष्ट्रीय विपदा की इस घड़ी में अपना गुप्त दान खुले मन से दे सकें.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 16 ☆ जागते रहो ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर समसामयिक रचना “जागते रहो।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 16 ☆

☆ जागते रहो

जागते रहो , जागते रहो कहने- सुनने का दौर तो न जाने कब का चला गया । अब तो लॉक अप को खारिज कर लॉक डाउन का वक्त आ गया है । बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि हमेशा उन्नति करो पर ये क्या हमको तो बचने हेतु डाउन होने का सहारा ही एक मात्र उपाय दिख रहा है ।

एक दूसरे को डाउन करने की होड़  तो सदियों से चली आ रही थी ।  पीकर डाउन , शटर डाउन ,अप डाउन तो जानते थे  पर चीनी कृपा से लॉक डाउन  कैसा होता है ये जानने व  समझने का सौभाग्य आखिरकार मिल ही गया ।

अच्छे दिनों की उम्मीद को थामें हम सभी मन ही मन प्रसन्न थे पर अनुभव यही है  कि जब भी कुछ अच्छा होता दिखता है ; तो लोगों की नजर लगते देर नहीं लगती । वैसा ही कुछ सबके साथ हुआ,  जाने कहाँ से कोरोना महाराज चीनी चादर ओढ़कर पधार गए और रंग में भंग हो गया। अरे भाई अपना सारा व्यापार तो वे यहीं पर करते थे । होली के रंग से दीवाली की झालर व क्रिसमस  ट्री सब आपके बनाये सामानों से ही निखर रहा था ।  और तो और आपने कृत्रिम नींबू मिर्च भी बना कर सबके घरों और दुकानों तक पहुँचा दिए । लॉफिंग बुद्धा तो वैसे ही ड्राइंग रूम में बैठकर हँसता है कि अपनी सनातनी परंपरा को निभाने के बजाए हम पर विश्वास करते हो ।  नकली सिक्को की पोटली, कछुआ, बैम्बू , पिरामिड, क्रिस्टल में उन्नति ढूंढ रहे हो , अब भुगतो ।

जब भी कोई समस्या आती है तो साथ में समाधान अवश्य लाती है । ऐसे संकट के दौर में हम लोगों को याद आयी योग व आयुर्वेद की । ॐ मंत्र ने सबको मानसिक संबल दिया । इसी के साथ  अपने धर्म ग्रथों का पारायण करते हुए  भारतीय संस्कृति से बच्चों को जोड़ने का प्रयास भी इन दिनों लगभग हर घर में चल रहा है ।  नीम, तुलसी, गिलोय , एलोवेरा, आँवला आदि का सेवन भी  प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने हेतु किया जा रहा है ।

अभी तो शुरुआत है समय रहते जागो अपने पूर्वजों की थाती पर गर्व करो ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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