डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – पत्रिका के साझेदार ☆
शर्मा जी ने टेबिल पर रखी ‘ज्योति’ पत्रिका उठा ली,बोले, ‘नियमित मंगाते हैं क्या?’
‘हाँ’, मैंने कहा।
‘बहुत बढ़िया’, उन्होंने पन्ने पलटते हुए कहा। थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए, बोले, ‘ज़रा इसे ले जा रहा हूँ। पढ़कर लौटा दूँगा।’
वह पत्रिका का नया अंक था। मैंने मुरव्वत के मारे दे दिया। तीन दिन बाद पत्रिका वापस आयी, जवान से बूढ़ी होकर।
फिर हालत यह हुई कि पत्रिका का नया अंक आने के दूसरे दिन शर्मा जी के चिरंजीव दरवाज़े पर उपस्थित होने लगे। ‘बाबूजी ने पत्रिका मंगायी है।’ चिरंजीव पुराना अंक वापस लेकर आते और नये की मांग पेश करते।
धीरे धीरे शर्मा जी ने समय-अन्तराल को छोटा करना शुरू किया और इतनी प्रगति की कि इधर ‘हॉकर’ अंक देकर गया और उधर उनके चिरंजीव उसे मांगने के लिए प्रकट हुए। किसी तरह टाल-टूल कर दूसरे दिन तक अपने पास रख पाता।
फिर एक बार अंक नहीं आया। मैं इंतज़ार करता रहा। एक दिन ‘हॉकर’ रास्ते में टकराया तो मैंने अंक के बारे में पूछा। वह आश्चर्य से बोला, ‘आपको मिला नहीं क्या? शर्मा जी ने मुझसे रास्ते में ले लिया था। कहा था कि आपको दे देंगे।’
मैंने झल्लाकर उसे आगे के लिए वर्जित किया और शर्मा जी के घर से पत्रिका मंगायी। वह राणा सांगा की काया लिये हुए आयी। शर्मा जी ने खेद का कोई शब्द नहीं भेजा।
अगले अंक के पदार्पण के साथ ही चिरंजीव फिर हाज़िर। मैंने चिढ़कर कहा, ‘बाबूजी से कहना पहले मैं पढ़ूँगा फिर दूँगा। इतनी जल्दी मत आया करो।’
दूसरे दिन रास्ते में शर्मा जी मिले तो मुँह टेढ़ा करके निकल गये। दुआ-सलाम भी नहीं हुई। करीब पंद्रह दिन तक यही चला। वे मुझे पूर्व की ओर से आते देखते तो पश्चिम दिशा का अवलोकन करने लगते। मैंने भी कमर कस ली। उनका ही रास्ता पकड़ लिया। मैं भी उनको अपना मुख दिखाने के बजाय पीठ दिखाने लगा।
शर्मा जी समझ गये कि तरीका गलत हो गया, इस तरह तो पत्रिका के निःशुल्क पठन से गये। उन्होंने रुख बदला। एक दिन बत्तीसी हमारी तरफ घुमायी, बोले, ‘क्या बात है भाई? आजकल कुछ कुपित हो क्या? बातचीत भी नहीं होती।’
मैंने कहा, ‘आप ही कहाँ बातचीत करते हैं, महाराज। मुझसे क्या कहते हैं?’
वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘अरे नहीं भाई, कुछ घरेलू परेशानियाँ आ गयी थीं। चिन्ताओं में मग्न रहता था। आप तो हमारे बंधु हैं।’
चिरंजीव फिर दरवाज़े पर दस्तक देने लगे, लेकिन थोड़ी सावधानी के साथ।
पत्रिका का एक अंक जो शर्मा जी की सेवा में गया तो कई दिन तक लौट कर नहीं आया। उसे मैं सुरक्षित रखना चाहता था। मैंने एक दिन उसके लिए शर्मा जी के घर के तीन चक्कर लगाये। शर्मा जी तीनों बार नहीं मिले। गाँव से उनके पिताजी पधारे थे, तीनों बार उन्हीं से साक्षात्कार हुआ। सफेद नुकीली मूँछों वाले तेज़-तर्रार आदमी।
पहली बार उन्होंने पूछा, ‘कहिए भइया जी, क्या काम है?’ मैंने कहा, ‘ज़रा एक पत्रिका लेनी थी।’ वे बोले, ‘बबुआ थोड़ी देर में आ जाएगा। तब पधारें।’ बबुआ तो नहीं मिला, तीनों बार बाबूजी ही मिले। तीसरी बार तनिक भृकुटि वक्र करके बोले, ‘आप पत्रिका खरीद क्यों नहीं लिया करते?’ मैंने उन्हें समझाया कि उनके सुपुत्र के पास जो पत्रिका है वह दास की गाढ़ी कमाई से खरीदी हुई है। उन्होंने तुरंत नरम होकर खेद प्रकट किया। पत्रिका का वह अंक अंतर्ध्यान ही रहा। शर्मा जी से पूछने पर उत्तर मिलता, ‘हाँ, ढूँढ़ रहा हूँ।’
फिर एक दिन वह अंक खुद हमारे घर में प्रकट हुआ। उस पर मेरे छोटे सुपुत्र की कुछ कलाकारी थी, इसलिए पहचान गया। मैंने पूछा, ‘यह कहाँ से आयी? यह तो अपनी है।’ मेरा बड़ा पुत्र बोला, ‘लेकिन यह तो मैं खरे साहब के यहाँ से पढ़ने को लाया हूँ।’ मैंने खरे साहब से कहलवाया कि वह पत्रिका मेरी है। खरे साहब भागे भागे आये, बोले, ‘नहीं साहब, आपकी कैसे हो सकती है? यह तो हम जोशी जी के घर से लाये थे।’ मैंने कहा, ‘आप चाहे जोशी जी से लाये हों या जोशीमठ से, यह पत्रिका मेरी है और मैं इस पर पुनः अपना अधिकार स्थापित करना चाहता हूँ।’ वे बहुत घबराये, बोले, ‘ऐसा गज़ब मत करिए। मैं इसे जोशी जी को वापस कर देता हूँ। आप उनसे बखुशी ले लीजिए।’
मैंने जासूस का चोला पहना और पता लगाया कि यह गंगा कौन कौन से घाटों से बहती हुई घूमकर अपने उद्गम पर आयी थी। पता चला कि वह अंक शर्मा जी के घर से चलकर सिंह साहब, दुबे जी, रावत साहब, सिन्हा साहब तथा जोशी जी के यहाँ होता हुआ खरे साहब के घर अवतरित हुआ था। बीच की कोई कड़ी मुझे उस पत्रिका का मालिक मानने को तैयार नहीं हुई, इसलिए मैंने उसे ‘थ्रू प्रापर चैनल’ शर्मा जी के घर की तरफ ढकेलना शुरू किया। लेकिन वह अंक वापस शर्मा जी तक नहीं पहुंचा। लौटते लौटते वह बीच में कहीं तिरोहित हो गया और अब तक गुमशुदा है।
शर्मा जी से जब मैं आखिरी बार शिकायत करने गया तो उन्होंने गहन खेद प्रकट किया,यहाँ तक कि वे खेद प्रकट करते हुए मेरे साथ चलकर मुझे घर तक छोड़ गये। लौटते समय मेरे फाटक पर रुककर उन्होंने सिर खुजाया, फिर अपनी टटोलती आँखों को मेरे चेहरे पर गड़ाकर बोले, ‘नया अंक तो पढ़ चुके होंगे?’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश