हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य।  आलेख का प्रथम भाग आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी कल के अंक में आप पढ़ सकेंगे। )

 

☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 1 ☆

ज्यादा पुरानी बात नही है, जब साहित्य जगत में व्यंग्य की स्वतंत्र विधा के रूप में स्वीकारोक्ति ही नही थी.  पर आज लगभग प्रत्येक अखबार का संपादकीय पृष्ठ कम से कम एक व्यंग्य लेख अवश्य समाहित किये दिखता है. लोग रुचि से समसामयिक घटनाओ पर व्यंग्यकार की चुटकी का आनंद लेते हैं. वैसे व्यंग्य अभिव्यक्ति की बहुत पुरानी शैली है. हमारे संस्कृत साहित्य में भी व्यंग्य के दर्शन होते हैं. हास्य, व्यंग्य एक सहज मानवीय प्रवृति है. दैनिक व्यवहार में भी हम जाने अनजाने कटाक्ष, परिहास, व्यंग्योक्तियो का उपयोग करते हैं. व्यंग्य  आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता  है. मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास्य को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है. आनंद के साथ हास्य का सीधा संबंध है.हास्य तन मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है.

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य कई प्रश्न खड़े करता दिखता है जैसे क्या अखबार में लिखे जाने वाला कॉलम से व्यंग्य का स्तर गिर रहा है..?   इतने सारे लोग व्यंग्य लिख रहे हैं, फिर भी समाज सुधार की दिशा में वह इंपैक्ट क्यों पैदा नहीं हो रहा है, जो अकेले कबीर ने कर दिखाया है?

व्यंग्य लेखन के लिए क्या-क्या विशेषतायें  जरूरी हैं..?  वर्तमान में किन विषयों पर व्यंग्य लेखन जरूरी है..?  महिला व्यंग्यकारो की सहभागिता कितनी और कैसी है ?   क्या स्टैंडअप कॉमेडियन व्यंग्यकार के लिए खतरा है..?  पंच लाईनर क्या होते हैं, एक-दो लाइनों से कैसे व्यंग्य पैदा किया जाता है ? हिंदी व्यंग्य के लिए वर्तमान समय कैसा  है ? व्यंग्य की  समीक्षा या आलोचना साहित्य की क्या आवश्यकता और उपयोगिता  है ? एक ही विषय पर  अनेक रचनाकार लिखते हैं किन्तु सब की अभिव्यक्ति भिन्न होती है, ऐसा क्यो ?  क्या वर्तमान व्यंग्य लेखन में कथ्य का संकट  है ?  हास्य और व्यंग्य में सूक्ष्म अंतर  होता है, इसे लेकर, पाठक और लेखक क्या समझते हैं ? क्या व्यंग्यकार घटनाओं के मूल तक पहुंच पाता है?  क्या व्यंग्य लेखन सचमुच सामाजिक दायित्व का निर्वाह कर पा रहा है ?

प्रायः सास पर आरोप लगता है कि वह बहुओ पर ताने कसती हैं,शायद घर परिवार में बहू को घुल मिल जाने के लिये स्वयं सारे लांछन सहकर भी सासें यह करती रही हैं.  या नये छात्रो को कालेज के वातावरण में घुलने मिलने के लिये परिचय करने के लिये जो सकारात्मक बातचीत का वातावरण  सीनियर्स बनाते है वह भी किंचित व्यंग्य का व्यवहारिक पक्ष ही हैं. नकारात्मक  विकृत स्वरूप में यह रेगिंग बन गया है, जो गलत है.

साहित्य की दृष्टि से  मानवीय वृत्तियों को आधार मानकर व्याकारणाचार्यों ने ९ मूल मानवीय भावों हेतु  ९ रसों का वर्णन किया है. श्रंगार रस अर्थात रति भाव, हास्य रस अर्थात हास्य की वृत्ति , करुण रस अर्थात शोक का भाव, रौद्र रस अर्थात क्रोध, वीर रस अर्थात उत्साह, भयानक रस अर्थात भय, वीभत्स रस अर्थात घृणा या जुगुप्सा, अद्भुत रस अर्थात आश्चर्य का भाव तथा शांत रस अर्थात निर्वेद भाव में सारे साहित्य को विवेचित किया जा सकता है. वात्सल्य रस को १० वें रस के रूप में कतिपय विद्वानो ने अलग से विश्लेषित किया है, किन्तु मूलतः वह श्रंगार का ही एक सूक्ष्म उप विभाजन है. रसो की  यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है.

हमारा प्राचीन संस्कृत साहित्य भी हास्य व्यंग्य से भरपूर है. कालिदास के रचना कौशल का यह एक उदाहरण दृष्टव्य है.

राजा भोज ने घोषणा की थी कि जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिल ही नहीं पाता था क्योंकि  मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही उसे दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। किंवदंती के अनुसार कालिदास ने एक श्लोक सुनाकर दरबारियो की  बोलती बंद कर दी थी। श्लोक में कवि ने दावा किया कि राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर पिता को ऋणमुक्त करें और इस पर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख दिए ही जाएँ। इसमें दोनो ही स्थितियो में राजा को व्यय करना ही होता इस तरह “कैसा छकाया” का भाव बड़ी सुंदरता से सन्निहित है:

हास्य का प्रादुर्भाव असामान्य आकार, असामान्य वेष, असामान्य आचार,  असामान्य अलंकार, असामान्य वाणी, असामान्य चेष्टा आदि भाव भंगिमा द्वारा होता है.  इन वैचित्र्य के परिणाम स्वरूप जो असामान्य स्थितियां बनती हैं वे  चाहे अभिनेता की हो, वक्ता की हो, या अन्य किसी की उनसे हास्य का उद्रेक होता है. कवि कौशल द्वारा हमें  रचना में इस तरह के अनुप्रयोग से  आल्हाद होता है, यह विचित्रता हमारे मन को पीड़ा न पहुंचाकर,  हमें गुदगुदाती है, यह अनुभूति ही हास्य कहलाता है. हास्य के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष होता है. घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी किंतु किसी उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण उसे हँसी का पात्र बना  देगा.

युवा महिला श्रंगार करे तो उचित ही है किंतु किसी  बुढ़िया का अति श्रंगार परिहास का कारण होगा  कुर्सी से गिरनेवाले को देखकर  हम हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरने वाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी. अर्थात  हास्य का भाव परिस्थिति के अनुकूल होता है.

ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन)। ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि विट, सैटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है.  पैरोडी (रचना परिहास अथवा विरचनानुकरण) भी हास्य की एक विधा है जिसका संबंध रचना कौशल से है. आइरनी का अर्थ कटाक्ष या परिहास है. विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है. अपनी रचना द्वारा पाठक में हास्य के ये अनुभाव उत्पन्न करा देना हास्यरस की  रचना की सफलता  है.

व्यंग्य के पुराने प्रतिष्ठित सशक्त हस्ताक्षरो में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल जी का नाम लिया जाता है. बाबा नागार्जुन को व्यंग्यकार के रूप में नही पहचाना जाता पर मैं जब जब नागार्जुन को पढ़ता हूं मुझे उनमें छिपा व्यंग्यकार बहुत प्रभावित करता है.. वे हमेशा जन कवि बने रहे और व्यंग्यकार हमेशा जन के साथ ही खड़ा होता हैं.

नागार्जुन की विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां. हैं……
प्रतिबद्ध हूं/
संबद्ध हूं/
आबद्ध हूं…जी हां,शतधा प्रतिबद्ध हूं
तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, और उनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति रही है. उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि

‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘,‘अब तो बंद  करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है.

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘
की ये पंक्तियाँ देखिए………….
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं.  हिन्दी कविता में नागार्जुन जनकवि और व्यंग्यकार के रूप में खड़े मिलते हैं. नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है.  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था,

“फटी भीत है छत चूती है…” उनका यह व्यंग्य क्या आज भी देश भर के ढ़ेरों गांवो के शाला भवनो का सच नहीं है?

आकृति का बेतुकापन मोटापा, कुरूपता, भद्दापन, अंगभंग, अतिरिक्त नजाकत, तोंद, कूबड़, नारियों का शारीरिक रंग, आदि विषयों पर हास्यरस की रचनाएँ हो चुकी हैं. उल्लेखनीय है कि एक समय का हास्यास्पद विषय शाश्वत हास्यास्पद विषय हो, ऐसा नहीं होता. सामाजिक स्थितियो के अनुरूप मान्यतायें बदल जाती हैं.  आज अंग भंग, विकलांगता आदि हास्य के विषय नहीं माने जा सकते अतएव अब इन पर हास्य रचनाएँ करना हास्य की सुरुचि का परिचायक नही माना जाएगा, संवेदनशीलता ने इन प्राकृतिक शारीरिक  व्याधियों को हास्य की अपेक्षा करुणा का विषय बना दिया है.

नारी के प्रति सम्मान के भाव के चलते उन पर किये जाने वाले व्यंग्य भी अब साहित्यिक दृष्टि से प्रश्नचिन्ह के घेरे में आ चुके हैं.

जातिगत व्यवहारो पर पहले व्यंग्य किये गये हैं किन्तु अब ऐसा करना सामाजिक दृष्टि से विवादास्पद होता है.

प्रकृति या स्वभाव का बेतुकापन  उजड्डपन, बेवकूफी, पाखंड, झेंप, चमचागिरी, अमर्यादित फैशनपरस्ती, कंजूसी, दिखावा पांडित्य का बेवजह प्रदर्शन, अनधिकार अहं, आदि बेतुके स्वभाव पर भी रचनाकारों ने अच्छे व्यंग किए हैं.

परिस्थिति का वैचित्र्य,  समय की चूक,समाज की असमंजसता में व्यक्ति की विवशता आदि विषय भी हास्य के विषय बनते हैं. वेश का बेतुकापन, हास्य पात्रों नटों और विदूषकों का प्रिय विषय  रहा है और प्रहसनों, रामलीलाओं, रासलीलाओं, “गम्मत”, तमाशों आदि में इस तरह के हास्य प्रयोग बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं.

नाटकीय साधु वेश, अंधानुकरण करनेवाले फैशनपरस्तों का वेश,बेतरतीब पहनावे,  “मर्दानी औरत” का वेश आदि ऐसे बेतुके वेश हैं जो रचना के विषय बनते हैं। वेश के बेतुकेपन की रचना भी आकृति के बेतुकेपन की रचना के समान प्राय: हल्केपन की ही प्रतीक होती है. कपिल शर्मा के प्रसिद्ध हास्य टी वी शो में वे दो पुरुष पात्रो को नारी वेश में निरंतर प्रस्तुत कर फूहड़ हास्य ही उत्पन्न करते हैं  ।

हकलाना वाणी का वैचित्र्य है,  इसी तरह बात बात पर तकिया कलाम लगा कर बोलना जैसे “जो है सो”, शब्द स्खलन करना अर्थात स्लिप आफ टंग, अमानवीय ध्वनियाँ निकालना जैसे मिमियाना, रेंकना, अथवा फटे बांस की सी आवाज, बैठे गले की फुसफुसाहट आदि, शेखी के प्रलाप, गप्पबाजी, पंडिताऊ भाषा, गँवारू भाषा, अनेक भाषा के शब्दों की खिचड़ी, आदि को भी हास्य का विषय बनाया जाता है.

फूहड़ हरकतें, अतिरंजना, चारित्रिक विकृति, सामाजिक उच्छ्रंखलताएँ, कुछ का कुछ समझ बैठना, कह बैठना या कर बैठना, कठपुतलीपन  या रोबोट की तरह यंत्रवत् व्यवहार जिसमें विचार या विवेक का प्रभाव शून्य हो,  इत्यादि व्यवहारो को भी हास्य का विषय बनाये जाते हैं.

हास्य के लिए, चाहे वह परिहास की दृष्टि से हो या उपहास अर्थात संशुद्धि की दृष्टि से, किसी भी तरह की असामान्यता  बहुत महत्वपूर्ण है.

कटाक्ष तथा व्यंग्य की मूल विषय वस्तु ही पात्र का व्यवहार होता है. प्रभाव की दृष्टि से  हास्य या तो  परिहास की कोटि का होता है या उपहास की कोटि का.  अनेक रचनाओं में हास परिहास, संतुष्टि और संशुद्धि दोनों भावो का मिश्रण भी होता है। परिहास और उपहास दोनों के लिए लक्ष्य पाठक को ध्यान में  रखना आवश्यक है.   धार्मिक मान्यताओ या विद्रूपताओ पर व्यंग्य समान धर्मावलंबियों को तो हँसा सकता है पर दूसरे धर्म के अनुयायियो पर व्यंग्य उनकी भावनाओ को आहत कर सकता है.

व्यंग्य की सफलता इसमें  है कि उपहास का पात्र  व्यक्ति हो या समाज वह  अपनी त्रुटियाँ समझ ले परंतु संकेत करने वाले रचनाकार का अनुगृहीत भी हो  और उसे “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” की तरह  न देखे.  बिना व्यंग्य के हास्य को परिहास समझा जा सकता है.

वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का  विस्तार हुआ है।आज पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध, स्वतंत्र सामयिक कटाक्ष के व्यंग्य लेख आदि  विधाओं में हास्यरस के अनुकूल साहित्य लिखा जा रहा है। वर्तमान युग के प्रारंभ के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।

व्यंग्य हमेशा से कमजोर के पक्ष में लिखा जाता रहा है, मैं इसी लिये कहा करता हूं कि व्यंग्यकारो का यदि कोई इष्ट देवता हो तो वे खाटू श्याम होंगे, क्योकि महाभारत के कथानक के अनुसार भीम के पुत्र घटोत्कच्छ का पुत्र बर्बरीक, भगवान कृष्ण के वरदान स्वरूप आज हर हारते हुये के साथ होते हैं, उन्हें खाटू श्याम नाम से पूजा जाता है.

व्यंग्य सदा से सत्ता के विरोधी पक्ष में शोषित के साथ खड़ा रहा है. जब देश में अंग्रेजी साम्राज्य था उनकी प्रत्यक्ष आलोचना का सीधा अतएव साहित्य का सा अर्थ कारागार होता था तब रचनाकारों ने, विशेषत: व्यंग्य और उपहास का मार्ग ही पकड़ था और स्यापा, हजो, वक्रोक्ति, व्यंगोक्ति आदि के माध्यम से सुधारवादी सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न किया था. व्यंग्य में प्रतीक के माध्यम से आलोचना तथा ब्याज स्तुति की जाती थी. सिनेमा से पहले  विभिन्न नाटक मंडलियां तम्बू लगाकर शहर शहर घूम कर हास्य नाटक करती थीं, जिनके लिये प्रचुर हास्य साहित्य परिवेश, समय के अनुरूप लिखा गया. इनमें बीच बीच में गीतो की प्रस्तुति भी होती थी जिसमें जन सामान्य  के मनोरंजन के लिये हल्का हास्य होता था.

भारतेंदुकाल के बाद महावीरप्रसाद व्दिवेदी काल आया जिसमें हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यंजना प्रणालियों का  परिष्कार एवं विस्तार हुआ.  नाटकों में केवल हास्य का उद्देश्य लेकर मुख्य कथा के साथ जो एक अंतर्कथा या उपकथा विशेषत: पारसी थिएट्रिकल कंपनियों के प्रभाव से चला करती थी वह व्दिवेदीकाल में प्राय: समाप्त हो गई और हास्य के उद्रेक के लिए विषय अनिवार्य न रह गया।

सूर्य कांत त्रिपाठी निराला जी ने सुंदर व्यंगात्मक रचनाएँ लिखी हैं और उनके कुल्ली भाठ, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, कुकूरमुत्ता आदि प्रसिद्ध है।

वर्तमान काल में उपेंद्रनाथ अश्क ने “पर्दा उठाओ, परदा गिराओ” आदि कई नई सूझवाले एकांकी लिखे हैं। डॉ॰ रामकुमार वर्मा का एकांकी संग्रह “रिमझिम” इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया है। उन्होंने स्मित हास्य के अच्छे नमूने दिए हैं। देवराज दिनेश, उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, प्रभाकर माचवे, जयनाथ नलिन, बेढब बनारसी, कांतानाथ चोंच,” भैया जी बनारसी, गोपालप्रसाद व्यास, काका हाथरसी, आदि  रचनाकारों ने अनेक विधाओं में रचनाएँ की हैं और हास्य साहित्य को समृद्ध किया है। भगवतीचरण वर्मा का “अपने खिलौने” हास्य उपन्यासों में विशिष्ट स्थान रखता है। यशपाल का “चक्कर क्लब” व्यंग के लिए प्रसिद्ध है।
कृष्णचंद्र ने “एक गधे की आत्मकथा” आदि लिखकर व्यंग्य लेखकों में यश प्राप्त किया. गंगाधर शुक्ल का “सुबह होती है शाम होती है” की विधा नई है।

राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंद दास, श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, डॉ॰ बरसानेलाल जी, वासुदेव गोस्वामी, बेधड़क जी, विप्र जी, भारतभूषण अग्रवाल आदि के नाम भी गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में साहित्य में हास्य व्यंग्य लेखन भी किया है।

अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के “सुभाषित आणि विनोद” नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, “गुलिवर्स ट्रैवेल्स” का, “डान क्विकज़ोट” का, सरशार के “फिसानए आज़ाद” का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।

आधुनिक युग में जहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी जैसे व्यंग्यकारो ने व्यंग्य आलेखो को स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया वहीं हास्य कवितायें मंच पर बहुत लोकप्रिय हुईं. इनमें अनेक कवियो ने तो छंद बद्ध रचनायें की जो प्रकाशित भी हुईं पर इधर ज्यादातर ने चुटकुलों को ही थोड़ी सी तुकबंदी करके मुक्त छंद में अपने हाव भाव तथा मंच पर प्रस्तुति  की नाटकीयता व अभिनय से लोकप्रियता हासिल की.

हास्य, मंचीय कविता में अधिक लोकप्रिय हुआ.गद्य के रूप में  हास्य व्यंग्य ज्यादातर अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर नियमित स्तंभो के रूप में प्रकाशित हो रहा है. विशुद्ध व्यंग्य की पत्रिकायें भी छप रही हैं जिनमें प्रेम जनमेजय की व्यंग्य यात्रा, अनूप श्रीवास्तव की अट्टहास, जबलपुर से  व्यंग्यम,  सुरेश कांत ने हाल ही हैलो इण्डिया शुरू की है. कार्टून पत्रिकायें तथा बाल पत्रिकायें जैसे लोटपोट, नियमित पत्रिकाओ के हास्य व्यंग्य विशेषांक, हास्य के टी वी शो, इंटरनेट पर ब्लाग्स में हास्य व्यंग्य लेखन, फेस बुक पर इन दिनो जारी अनूप शुक्ल, उडनतश्तरी की व्यंग्य की जुगलबंदी सामूहिक तथा व्यक्तिगत व्यंग्य संकलन आदि आदि तरीको से हास्य व्यंग्य साहित्य समृद्ध हो रहा है.   ज्यादातर मंचीय कवि इनी गिनी रचनाओ के लिये ही प्रसिद्ध हुये हैं. जिस कवि ने जो छंद पकड़ा उसकी ज्यादातर रचनायें उसी छंद में हैं. महिला रचनाकारों ने सस्वर पाठ व प्रस्तुति के तरीको से मंचो पर पकड़ बनाई है.

क्रमशः …..2

शेष कल के अंक में …..

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ♥ ब्राण्डेड-वर-वधू ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ब्राण्डेड-वर-वधू”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ☆ 

 

ब्राण्डेड-वर-वधू

 

हर लड़की अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करती है, पर जल्दी ही, वह कहने लगती हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है? इसी तरह प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग में पत्र-पत्रिकाओं, रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।

 

नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सासकी एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं। यहाँ आकर मेरा व्यंग्य लेख भी व्यंग्य से ज्यादा एक सीरियस निबंध बनता जा रहा है। मेरे व्यंग्यकार मन में विवाह की इस समस्याका समाधान ढूँढने का यत्न किया । मैंने पाया कि यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू माँ से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिन्दगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।

अब जब वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग की बात आती है तो मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराने की। यूँ तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं। माधुरी दीक्षित जी ने तो एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला रखा था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है, पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है। यूँ तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर हमारे समय में जब से ब्राण्डेड `हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदी हैं पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम, कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है। और तो और स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं।

हाल ही एक समाचार पढ़ा कि अमुक ट्रेन को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिला है। मुझे उस ट्रेन में दिल्ली तक सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहाँ विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे, मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है, तो कोई समुद्र में। हाल ही भोपाल में एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं, उधार लेकर भी बड़ी शान शौकत से बहू लाते हैं, विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी। लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा। भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा।

इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन पर लेबल लगाने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही कोई व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूँ कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ, पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका व्रत रखेगें।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ गुरुकुल और कुलगुरु ☆ श्री विनोद साव

श्री विनोद साव 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकर श्री विनोद साव जी का  गुरु पूर्णिमा पर विशेष व्यंग्य “गुरुकुल और कुलगुरु”।)

 

☆ व्यंग्य – गुरुकुल और कुलगुरु ☆

 

परंपराओं की इस दुनिया में  गुरुकुल और कुलगुरु भी एक प्राचीन परंपरा रही है। हमारी शिक्षा प्रणाली का  यह  प्रारंभिक रूप  पहले  ऋषि मुनियों के कब्जे में था। अब  न ऐसे  ऋषि तपस्वी रहे  और ना उनका  कब्जा रहा। गुरुकुल व्यवस्था  एक पाठशाला के समान थी जिसमें एक गुरु  और उनके  कुल  शिष्य  हुआ करते थे। एक गुरु से  शिक्षा प्राप्त करने वाले  शिष्यों का समूह  उस  गुरु के कुल के रूप में जाना जाता था। आज के विद्यालयों के समान  तब  गुरुकुल में  अनेक गुरु  नहीं होते थे। इसलिए  वह एक  अध्यापक गुरुकुल का प्रधान तो  होता था लेकिन अध्यापक नहीं।

गुरु को यदि कुल के पार्श्व में लगा दें तब यह कुलगुरु बन जाता है.  गुरुकुल में गुरु आगे होते थे और शिष्यों का कुल पीछे.  कुलगुरु में कुल का वर्चस्व होता था जहाँ गुरु को जाना पड़ता था.  गुरुकुल में शिष्य गुरु के पास जाते थे तो कुलगुरु शिष्यों के घर जाते थे.  एक गुरुकुल में गुरु विश्वामित्र हुए तो एक कुल के कुलगुरु वशिष्ठ हुए.  कुछ गुरुओं ने अपने को भगवान का अवतार भी घोषित कर दिया जहाँ वे ‘योग से भोग’ लगाने तक का सारा कारोबार सशुल्क निपटाते हैं.

आजकल यह दोनों परंपरा कहीं-कहीं संगीत के उस्तादों व उनके शागिर्दों के बीच, कुछ धर्माश्रमों तथा वहां से उपजी साध्वियों के मध्य और राजनीति में दलाली करने वालों के बीच काफी फल फूल रही है। कुछ गुरुओं ने अपने को भगवान का अवतार भी घोषित कर दिया है। इनके शिष्य त्याग तपस्या में चंदा एकत्र करके अपने आश्रमों को भेजते हैं जहां एयर कंडीशन महलों वह एयर कंडीशन कारों में रहने वाले कुछ गुरु ‘संभोग से समाधि’ लगाने तक का सारा कारोबार निपटाते हैं। मथुरा में ऐसा ही एक गुरुकुल है कृपालु कुंज जहां के कृपालु महाराज अपनी शिष्याओं पर कृपा करते हुए नागपुर में रंगे हाथ गिरफ्तार हुए थे।

राजनीति में गुरुकुल से ज्यादा कुलगुरु परंपरा दिखाई देती है. यहाँ राजनेताओं का ‘कुल’ किसी न किसी गुरु के इशारे पर नाचता है. इन कुलगुरुओं के शिष्य कई कई देशों के राष्ट्र-नायक, मंत्री, राज्यपाल व सचिव जैसे प्रभावशाली लोग होते हैं.  ये सत्ता की दलाली करने, निगमों-प्रतिष्ठानो में अपने प्रिय भक्तों को नामज़द करवाने, भक्तो को योगासन करवाने से लेकर स्विस बैंक में खाता खुलवाने, देश की सुरक्षा का भार उठाते हुए हथियारों की खरीद-फरोख्त में हाथ बंटाने की गूढ़ शिक्षा अपने भक्तों को वक्त-बेवक्त देते रहते हैं.

अब आज की शिक्षा प्रणाली में इस परंपरा का निर्वाह देखें तो आज के स्कूल का एक मास्टर गुरुकुल और कुलगुरु दोनों की भूमिकाएं एक साथ निभा देता है. जब वह पढाने जाता है तो उसका स्कूल एक गुरुकुल होता है. फिर वही मास्टर शिष्यों के घर जाकर टयूशन पढाता है तब वह कुलगुरु बन बैठता है.  आज शिष्य जिस गुरुकुल में जाते हैं वहीं का गुरु उनका कुलगुरु भी होता है. वे दिन में ‘गुरुकुल’ में पढते हैं और शाम को ‘कुलगुरु’ से पढते हैं.  एक ही मास्टर गुरुकुल और कुलगुरु दोनों की आमदनी अकेला हजम कर जाता है. वह गुरुकुल में शिष्य को फेल कर अपने को कुलगुरु बनाये जाने को बाध्य करता है. ऐसा कर लेने के बाद वह मूर्ख शिष्य को मेरिट में लाने का चमत्कार कर दिखाता है.

आज जो शिष्य गुरुकुल और कुलगुरु दोनों ही जगह सुर में सुर मिलाएगा वही अपने ‘केरियर’ को बेसुरा होने से बचाकर चैन की बंसी बजायेगा.

 

सौजन्य: विनोद साव के संग्रह

(‘मैदान-ए-व्यंग्य’ से )

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 5 ☆ अमीर बनाने का साफ्टवेयर ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अमीर बनाने का साफ्टवेयर ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 5 ☆ 

 

☆ अमीर बनाने का साफ्टवेयर ☆

 

युग इंटरनेट का है।सब कुछ वर्चुएल है. चांद और मंगल पर भी लोग प्लाट खरीद और बेच रहे है. धरती पर तो अपने नाम दो गज जमीन नहीं है, गगन चुम्बी इमारतों में, किसी मंजिल के किसी दडबे नुमा फ्लैट में रहना महानगरीय विवशता है, पर कम्प्यूटर के माध्यम से अंतरजाल के जरिये दूसरी दुनियाँ की राकेट यात्राओं के लिये अग्रिम बुकिंग हो रही है, इस वर्चुएल दुनियां में इन दिनों मैं बिलगेट्स से भी बडा रईस हूँ.

हर सुबह जब मैं अपना ई मेल एकाउण्ट, लागइन करता हूं, तो इनबाक्स बताता है कि कुछ नये पत्र आये है. मैं उत्साह पूर्वक माउस क्लिक करता हूँ, मुझे आशा होती है कि कुछ संपादकों के स्वीकृति पत्र होगें, और जल्दी ही में एक ख्याति लब्ध व्यंग्यकार बन जाऊंगा, पत्र पत्रिकायें मुझ से भी अवसर विशेष के लिये रचनाओं की मांग करेंगे. मेरी मृत्यु पर भी जाने अनजाने लोग शोक सभायें करेंगे, शासन, मेरा एकाध लेख, स्कूलों की किसी पाठ्यपुस्तक में ठूंस कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेगा, हो सकता है मेरे नाम पर कोई व्यंग्य अलंकरण बगैरह भी स्थापित हो जावे. आखिर यही सब तो होता है ना, पिछले सुप्रिसद्व व्यंग्य धर्मियों के साथ।

पर मेरी आशा निराशा में बदल जाती है, क्योंकि मेल बाक्स में साहित्यिक डाक नहीं, वरन अनजाने लोगो की ढेर सी ऐसी डाक होती है, जिससे में वर्चुएली कुछ और रईस बन जाता हं.

मुझे लगता है कि दोहरे चरित्र और मल्टिपल चेहरे की ही तरह ई मेल के इस जमाने में भी हम डाक के मामले में दोहरी व्यवस्था के दायरे में है. अपने विजिटिंग कार्ड पर, पत्र पत्रिका के मुख पृष्ठ पर, वेब एड्रेस और ई मेल एड्रेस लिखना, स्टेटस सिंबल मात्र बना हुआ है. जिन संपादको को मैं ई मेल के जरिये फटाफट लेख भेजता हूँ, उनसे तो उत्तर नहीं मिलते, हाँ जिन्हें हार्ड प्रिंट कापी मैं डाक से भेजता हूँ, वे जरूर फटाफट छप जाते हैं, मतलब साफ है, या तो साफ्टवेयर, फान्टस मिस मैच होता है, या मेल एकाउंट खोला ही नहीं जाता क्योंकि पिछली पीढी के लोगो ने पत्रिका का चेहरा सामयिक और चमकदार बनाने के लिये ई मेल एकाउण्ट क्रियेट करके उसे मुख पृष्ठ पर चस्पा तो कर लिया है, पर वे एकाउण्ट आपरेट नहीं हो रहे. वेब साईट्स अपडेट ही नहीं की जाती, हार्ड कापी में ही इतनी डाक मिल जाती है कि साफ्ट कापी खोलने की आवश्यकता ही नहीं पडती।ई सामग्री अनावरित, अपठित वर्चुएल रूप में ही रह जाती है.

सरकारी दफ्तरों में पेपर लैस आफिस की अवधारणा के चलते इन दिनों प्रत्येक जानकारी ई मेल पर, साथ ही सी.डी.पर और त्वरित सुविधा हेतु हार्ड कापी पर भी बुलाते है. समय के साथ चलना फैशन है.

यदि मेरे जैसा कोई अधिकारी कभी गलती से, ई मेल पर कोई संदेश अपने मातहतो को प्रेषित कर, यह सोचता है कि नवीनतम तकनीक का प्रयोग कर सस्ते में, शीध्रता से, कार्य कर लिया गया है, तो उसे अपनी गलती का आभास तब होता है, जब प्रत्येक मातहत को फोन पर अलग से सूचना देनी पडती है, कि वे कृपया अपना ई मेल एकाउण्ट खोलकर देखें एवं कार्यवाही करें.

ई वर्किग का सत्य मेरे सम्मुख तब उजागर हुआ, जब मेरे एक मातहत से प्राप्त सी.डी. मैने अपने कम्प्यूटर पर चढाकर पढनी चाही. वह पूर्णतया ब्लैंक थी. पिछले अफसर के कोप भाजन से बचने के लिये, कम्प्यूटर पर जानकारी न बनने पर भी, वे लगातार कई महीनों से ब्लैंक सी.डी. जमा कर देते थे. और अब तक कभी पकडे नहीं गये थे. कभी किसी बाबू ने कोई पूछताछ करने की कोशिश की तो सी.डी. न खुलने का, साफ्टवेयर न होने या सी. डी. करप्ट हो जाने का, वायरस होने वगैरह का स्मार्ट बहाना कर वे उसे टालू मिक्चर पिला देते थे. ई गर्वनेंस का सत्य उद्घाटित करना हो तो पांच-दस सरकारी विभागों की वेब साईटस पर सर्फिग कीजिये. नो अपडेट… महीनों से सब कुछ यथावत संरक्षित मिलेगा अपनी विरासत से लगाव का उत्कृष्ट उदाहरण होती हैं ये साइट्स.

सरकारी वर्क कल्चर में आज भी ई वर्किग, युवा बडे साहब के दिमाग का फितूर माना जाता है.  अनेक बडे साहबों ने पारदर्शिता एवं शीघ्रता के नारे के साथ, पुरूस्कार पाने का एक साधन बनाकर, प्रारंभ करवाया। हौवा खडा हुआ विभाग का वेब पेज बना. पर साहब विशेष के स्थानांतरण के साथ ही ऐसी वेब साईट्स का हश्र हम समझ सकते हैं.

कुछ समझदार साहबों ने आम कर्मचारी की ई अज्ञानता का संज्ञान लेकर विभाग के विशिष्ट साफ्टवेयर, विशेष प्रशिक्षण, एवं कम्प्यूटर की दुनियाँ में तेजी से होते बदलाव तथा कीमतों में कमी के चलते, कमाई के ऐसे कीर्तिमान बनाये, जिन पर कोई अंगुली भी नहीं उठा सकता।मसला ई गर्वनेंस का जो है।बौद्विक साफ्टवेयर कहाँ, कितने का डेवेलेप हो यह केवल बडे, युवा साहब ही जानते है.

अस्तु, जब से मैने एक नग ब्लाग बनाकर अपना ई मेल पता सार्वजनिक किया है, मैं दिन पर दिन अमीर होता जा रहा हूं, वर्चुएल रूप में ही सही. गरीबी उन्मूलन का यह सरल, सुगम ई रास्ता मैं सार्वजनिक करना चाहता हूँ.  इन दिनों मुझे प्रतिदिन ऐसी मेल मिल रही है. जिनमे मुझे लकी विनर, घोषित किया जाता है. या दक्षिण अफ्रीका के किसी एड्वोकेट से कोई मेल मिलता है, जिसक अनुसार मेरे पूर्वजों में से कोई ब्लड रिलेशन, एअर क्रेश में सपरिवार मारे गये होते  मेरी संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार यह पढकर मुझे गहन दुख होना चाहिये, जो होने को ही था, कि तभी मैने मेल की अगली लाइन पढी.  मेल के अनुसार अब उनकी अकूत संपत्ति का एकमात्र स्वामी मैं हूँ, और एडवोकेट साहब ने बेहद खुफिया जांच के बाद मेरा पता लगाकर, अपने कर्तव्य पालन हेतु मुझे मेल किया है. और अब लीगल. कार्यवाहियों हेतु मुझ से कुछ डालर चाहते हैं.

मैं दक्षिण अफ्रीका के उस समर्पित कर्तव्य निष्ठ एड्वोकेट की प्रशंसा करता हुआ अपने गांव के उस फटीचर वकील की बुराई करने लगा, जो  गाँव के ही पोस्ट आफिस में जमा मेरे ही पैसे, पास बुक गुम हो जाने के कारण, मुझे ही नहीं दिलवा पा रहा है. यह राशि मिले तो मैं अफ्रीका के वकील को उसके वांछित डालर देकर उस बेहिसाब संपत्ति का स्वामी बनूं, जिसकी सूचना मुझे ई मेल से दी गई है. इस  पत्र के बाद लगातार कभी दीवाली, ईद, क्रिसमस, न्यूईयर आदि फेस्टिवल आफर में, कभी किसी लाटरी में, तो कभी किसी अन्य बहाने मुझे करोडों डालर मिल रहे हैं, पर उन्हें प्राप्त करने के लिये जरूरी यही होता है कि मैं उनके एकाउंट में कुछ डालर की प्रोसेसिंग फीस जमा करूँ.  मैं गरीब देश का गरीब लेखक, वह नहीं कर पाता और गरीब ही रह जाता हूँ तो इस तरह, नोशनल रूप से मैं इन दिनों बिल गेट्स से भी अमीर हूँ अपने एक अदद, फ्री, ई मेल एड्रेस के जरिये.

जब मैंने ई मेलाचार के इस पक्ष को समझने का प्रयत्न किया तो ज्ञात हुआ कि ई मेल एड्र्सेस, खरीदे बेचे जाते हैं, कोई है जो मेरा ई मेल एड्र्स भी बेच रहा है।स्वयं तो उसे बेचकर अमीर बन रहा है, और मुझे मुर्गा बनाने के लिये, अमीर बनाने का प्रलोभन दिया जा रहा है।अरबों की आबादी वाली दुनियां में 2-4 लोग भी मुर्गा बन जाये तो, ऐसे मेल करने वालों को तो, बेड बटर का जुगाड हो ही जायेगा ना, हो ही जाता है.

अब मुझे पूर्वजों के अनुभवों से बनाई गई कहावतों पर संशय होने लगा है. कौन कहता है कि ’’लकडी की हांडी बार-बार नहीं चढती ’’ ? कम से कम अमीर बनाने के ये मेल तो यही प्रमणित कर रहे है, अब मैं यह भी समझने लगा हूं कि मैं स्वयं को ही बेवकूफ नहीं समझता.  मेरी पत्नी, सहित वे सब लोग भी जो मुझे इस तरह के मेल कर रहे है, मुझे विशुद्व बेवकूफ ही मानते हैं, वे मानते हैं कि मै उनके झांसे में आकर उन्हें उनके बांधित ’ डालर ’ भेज दूंगा. पर मैं इतना भी बेवकूफ नहीं हूँ मैंने वर्चुएल रईसी का यह फार्मूला निकाल लिया है, और बिना एक डालर भी भेजे, मैं अपनी बर्चुएल संपत्ति  एकत्रित करता जा रहा हूँ, तो आप भी अपना एक ई मेल एकांउट बना डालिये ! बिल्कुल फ्री, उसे सार्वजनिक कर डालिये. और फिर देखिये कैसे फटाफट आप रईस बन जाते है. वर्चुएल रईस.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक व्यंग्य कविता  दूरदर्शी दिव्य सोच – बनाम – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी…….। 

डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी ने बिना किसी लाग -लपेट के जो कहना था कह दिया और जो लिखना था लिख दिया।  अब इस व्यंग्य कविता का जिसे जैसा अर्थ निकालना हो निकलता रहे।  सभी साहित्यकारों के लिए विचारणीय व्यंग्य कविता।  फिर आपके लिए कविता के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स तो है ही। हाँ, शेयर करना मत भूलिएगा।

आप आगे पढ़ें उसके पहले मुझे मेरी दो पंक्तियाँ तो कहने दीजिये:

अब तक का सफर तय किया इक तयशुदा राहगीर की मानिंद।

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको ।

  • हेमन्त बावनकर )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #6 ☆

 

☆  दूरदर्शी दिव्य सोच 

बनाम———————

मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆  

 

आत्ममुखी एकाकी,  80 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार  के नगर में होने वाले सभी आयोजनों में उनके एकाएक सदाबहार, मुखर उपस्थिति का कारण पूछने पर उन्होंने जो बताया, सुनकर सुखद आश्चर्य से अचम्भित हुए बिना न रह सका——

“स्मृति स्मारक निर्माण, गली-मुहल्ले, चौराहे पर स्वमूर्ति स्थापना, मरणोपरांत राष्ट्रीय अलंकरण के अवसर आदि के सुंदर ख्वाब सजाए आगे की तैयारियों के तहत जीवन की सांध्यबेला में ये चहल-पहल कर भव्य शवयात्रा के अपने गुप्त एजेंडे का ज्ञान कराया उन्होंने” ।

अमरत्व प्राप्ति के उनके इस दिव्य प्रखर सूत्र से प्रभावित हो एक कविता का सृजन हुआ।

आप भी पढ़ें और अपने लिए भी कुछ सोचें :-

 

मृत्यु पूर्व, खुद की

शवयात्रा पर करना तैयारी है

बाद मरण के भी तो

भीड़ जुटाना जिम्मेदारी है।

 

जीवन भर एकाकी रह कर

क्या पाया क्या खोया है

हमें पता है, कलुषित मन से

हमने क्या क्या बोया है,

अंतिम बेला के पहले

करना कुछ कारगुजारी है।

मृत्युपूर्व खुद की शवयात्रा

पर करना………

 

तब, तन-मन में खूब अकड़ थी

पकड़  रसूखदारों  में  थी

बुद्धि,  ज्ञान, साहित्य  सृजन

प्रवचन, भाषण नारों में थी,

शिथिल हुआ तन, मन बोझिल

इन्द्रियाँ स्वयं से हारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

होता नाम निमंत्रण पत्रक में

“विशिष्ट”,  तब जाते थे

नव सिखिए, छोटे-मोटे तो

पास फटक नहीं पाते थे,

रौबदाब तेवर थे तब

अब बची हुई लाचारी है।

मृत्युपूर्व……

 

अब मौखिक सी मिले सूचना

या अखबारों में पढ़ कर

आयोजन कोई न छोड़ते

रहें उपस्थित बढ़-चढ़ कर,

कब क्या हो जाये जीवन में

हमने बात विचारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हंसते-मुस्काते विनम्र हो

अब, सब से बतियाते हैं

मन – बेमन से, छोटे-बड़े

सभी को गले लगाते हैं,

हमें पता है, भीड़ जुटाने में

अपनी अय्यारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

मालाएं पहनाओ हमको

चारण, वंदन गान करो

शाल और श्रीफल से मेरा

मिलकर तुम सम्मान करो,

कीमत ले लेना इनकी

चुपचाप हमीं से सारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हुआ हमें विश्वास कि

अच्छी-खासी भीड़  रहेगी तब

मिशन सफल हो गया,खुशी है

रामनाम सत होगा जब,

जनसैलाब देखना, इतना

मर कर भी सुखकारी है। मृत्युपूर्व…….

 

हम न रहेंगे, तब भी

शवयात्रा में अनुगामी सारे

राम नाम है सत्य,

साथ, गूंजेंगे अपने भी नारे,

मरकर भी उस सुखद दृश्य की

हम पर चढ़ी खुमारी है

मृत्युपूर्व……………

 

शव शैया से देख हुजुम

तब मन हर्षित होगा भारी

पद्म सिरी सम्मान, प्राप्ति की

कर ली, पूरी तैयारी,

कहो-सुनो कुछ भी, पर यही

भावना सुखद हमारी है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ याददाश्त उधारी पर ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

(आदरणीय श्रीमति समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में स्वागत है। हम पूर्व में आपके व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है” की समीक्षा प्रकाशित कर चुके हैं। आप व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम भविष्य में आपके उत्कृष्ट साहित्य से अपने पाठकों को रूबरू कराते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य याददाश्त उधारी पर।)

 

व्यंग्य – याददाश्त उधारी पर 

 

स्लो पॉयजन मतलब आज के जीने की खुराक। शर्तिया…। रामबाण…। न मिले तो सांसें उखडऩे लगे। फ़क्र करना होगा कि जमाना बदल चुका है। खुली सांस और शुद्ध जल नाकाफी है। है भी नहीं…। हाशिये पर जीने वाले भी इसकी गिरफ्त से दूर नहीं…। नौजवान और उनकी तोंद भी इसी की शिकार हैं। मानो तोंदियापन फ़ैशन सा हो गया हो। फिर भी चस्का ऐसा कि भले बेरियाट्रिक सर्जरी करानी पड़ जाए लेकिन इसकी लत न छोडेंगे भाई…।

चलो, एक परसेंट छोड़ भी देते हैं तो दुनिया आगे और हम पीछे रह जाएंगे। दुनिया से कदमताल करना है तो आमरण इस जहर के साथ जीना होगा। किसी भीष्म प्रतिज्ञा की तरह। ऐसी प्रतिज्ञाएं अक्सर चीर और हरण जैसे वाकये को होते रहने में सहायक होती हैं। अमरकथाओं में कभी पढ़ते कि फलानी रानी अपने लला की खातिर अपने ही राजा पर स्लो पॉयजन का इस्तेमाल करतीं। गद्दी हथियाने…।

भारत सबसे आगे है विश्व में। कर लो गर्व। लेकिन किस पर करोगे॰॰॰। सेल्फ़ी मोड से मरने वालों की संख्या पर॰॰॰। या उन पर जिनका कैमरा घटना के आगे चलता है। और वे ख़ुद उसके पीछे।

ये हमारी गूगल आंटी नुमा रानी हैं न…। सर्वेसर्वा…। हमारे जीने का तरीका सेट करने वाली…। ओहदे में किसी राजमाता से कम नहीं…। भटकने से बचाती चलती है। सही रास्ता दिखाने वाली…। चुन चुनकर…। कोशिश करती रहती हैं कि भीड़ भाड़ से दूर रहें हम सब…। कहीं फंस न जाएं, पूरा दारोमदार उसके बोलने पर…। मतलब उसकी ज़रा सी चूक पर हम चूके। क्या पता आगे खाई हो। एक खाई से निकलकर दूसरी खाई में गिरे। फिर भी भारत की गलियों का रास्ता न है इसके पास। सिर ऊँचा कर सकते हैं कि हमारे पास पानवाला है।

न बड़े बुजुर्गों की जरूरत। न उनके अनुभवों की…। ऐसा कोई माई का पुत्तर नहीं जो इस रानी का राजा ना हो। भाई, हर किसी को हक है राजसी ठाठबाट का…। मनुष्य की खासियत ही है जो न मिला उसी के पीछे भागना। गूगल रानी मिलने के बाद कहां जरूरत अपनी रानी की। उसमें इतना हुनर की आत्मीय रिश्तों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। प्रेम कहानियाँ ख़रीद लीं हैं भाई…। और क्या चाहिए? घर में न राजा बचा, न रानी। एक समय पांडवों को अज्ञातवास के लिए दर दर भटकना पड़ा। पर हम खुशनसीब हैं…। भाग्यशाली हैं…। हम अपने ही घर में अज्ञातवास की तरह रहते।

गूगल रानी धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में प्रकट हो जाती। सही गलत के सारे भेद होते इसके पास। कभी वृहन्नला तो कभी नकुल सहदेव। और भीम के रूप में तो अक्सर गदा सिर पर मारती। जरा डांट के, इतना सा उत्तर नहीं आता मूरख। ये रहा तुम्हारे प्रश्न का सही उत्तर।

मतलब मेमोरी कन्ज्यूम करने की जरूरत ही कहाँ  बचती है। हरेक को सांइटिस्ट थोड़े बनना है। हमारा दिमाग किसी लैंडफिल साइट से कम न बचा, भाई। दाएं बाएं की साइटें देख देख के डंपिंग गारबेज बन चुका है। याददाश्त फीकी पड़ जाए तो अब दादी नानी के नुस्खों की भी जरूरत नहीं। कौन खाए बादाम और कौन करे बादाम के तेल से चंपी। इतनी चकल्लस का टेम नयि है सहाब…। बहुत बिजी हैं सब। बिजी विदाउट बिजनेस। लेकिन ऐसा नहीं कह सकते…। रानी ने अपने चारों ओर पूरे विश्व का नेटवर्क जो बनाके रखा है। सर्फिंग करनी पड़ती है। बताओ आखिर, जानकारी हासिल करनी चैइये कि नयी करनी चैइये…?? लेकिन अगले दो मिनट के बाद उस जानकारी की मृत्यु होना भी सुनिश्चित है। क्या करें, याददाश्त भाड़ में भुंज रही हो तो ऐसा होना संभव है।

गूगल रानी का आलम किसी युनीसेक्स सलून की तरह है। कोई लिंगभेद नहीं…। सबके लिए बराबर। वो ऑर्डर देती है और हम सब मानते हैं। जैसे किसी कद्दावर देश का राष्ट्रपति। मतलब पूरी दुनिया मुट्ठी में कर रखी है इस रानी ने…। फिर किस बिनाह पर अमेरिका, चीन या अरब वर्ल्ड शेखी बघार रहे॰॰॰। न शोख, न कमसिन…। फिर भी बस लोग कायल हुए जा रहे इसके। सही को सही के साथ साथ सही को गलत और गलत को सही ठहराने की अभूतपूर्व क्षमता है…। इस पावर के आगे सभी नतमस्तक हैं। तिल का ताड़ और ताड़ से तेल निकलवाने की क्षमता रखती हैं बहनजी….। सारा कंट्रोल उसके हाथ में। और अब हम भिखारी बने फिर रहे हैं। याददाश्त के नाम पर थोड़ी दे दे रे बाबा….।

© श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 7 – व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बिना पूँछ का जानवर ” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 7 ☆

 

☆ व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆

ज्ञानी जी के साथ मैं होटल की बेंच पर बैठा चाय पी रहा था।ज्ञानी जी हमेशा ज्ञान बघारते थे और मैं भक्तिभाव से उनकी बात सुनता था। इस समय उनकी नज़र सामने दीवार पर लगे पोस्टर पर थी। उसमें सुकंठी देवी के गायन की सूचना छपी थी। कार्यक्रम की तिथि आज ही की थी।

ज्ञानी जी ने पोस्टर पढ़कर मुझसे पूछा, ‘शास्त्रीय संगीत समझते हो?’

मैंने हीन भाव से उत्तर दिया, ‘न के बराबर, ज्ञानी जी!’

ज्ञानी जी विद्रूप में ओंठ टेढ़े करके बोले, ‘जानते हो? संगीत और कला के बिना आदमी बिना पूँछ का जानवर होता है!’

मैंने लज्जित होकर दाँत निकाल दिये।

वे बोले, ‘चलो, आज हम तुम्हें संगीत का ज्ञान देंगे। आज तुम इस कार्यक्रम की दो टिकट खरीदो।’

मैं राज़ी हो गया। कार्यक्रम शाम के सात बजे से था। मैं टिकट खरीदकर साढ़े छह बजे ज्ञानी जी के घर पहुँच गया। पता चला वे शौचालय में हैं। पन्द्रह मिनट बाद वे तौलिये से हाथ पोंछते हुए प्रकट हुए। उन्होंने दस मिनट और तैयार होने में लगाये । फिर हम निकल पड़े। रास्ते में भगत के पान के डिब्बे पर ज्ञानी जी रुके। एक पान मुँह में दबाया और चार बँधवा लिये । फिर मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘पैसे चुका दो।’ मैंने चुपचाप पैसे चुका दिये क्योंकि यह सब मेरा संगीत-बोध जागृत करने के लिए किया जा रहा था।

ज्ञानी जी की ढीलढाल का नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग हॉल में घुसे तब सुकंठी देवी का गायन शुरू हो चुका था। लोगों के घुटनों से टकराते हुए हम लोग अपनी सीटों पर पहुँच गये।

बैठते ही ज्ञानी जी बोले, ‘वाह,  भीम पलासी राग चल रहा है।’

उनकी बगल में बैठा चश्मेवाला आदमी तेज़ी से घूमकर बोला, ‘जी नहीं, केदार है।’

ज्ञानी जी का मुँह उतर गया। वे मेरी तरफ झुककर धीरे से बोले, ‘भीमपलासी को केदार भी कहते हैं।’

मैंने सिर हिला दिया।

जब सुकंठी देवी ने दूसरा आलाप लिया तब ज्ञानी जी बगल वाले आदमी को बचाकर मुझसे धीरे से बोले, ‘मालकोश राग का आलाप है।’

तभी आलाप खत्म करके सुकंठी देवी बोलीं, ‘अभी मैं आपको राग जैजैवन्ती सुना रही थी।’

ज्ञानी जी मेरी तरफ झुककर बोले, ‘दोनों में कोई खास फर्क नहीं है।’

गायन शुरू हो गया और ज्ञानी जी सिर हिला हिलाकर अपनी कुर्सी के हत्थे पर ताल देने लगे। तभी बगल वाला आदमी गुस्से में बोला, ‘गलत ताल मत दीजिए।’

ज्ञानी जी सिकुड़ गये। फिर मेरी तरफ झुककर बोले, ‘यह भी बिना पूँछ का जानवर है। कुछ जानता नहीं इसलिए मुझसे लड़ता है।’

मैंने फिर सिर हिलाया।

अब ज्ञानी जी शान्त होकर बैठे थे। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उनकी आँखें बन्द हो गयीं थीं और सिर छाती की तरफ झुक गया था। दो मिनट बाद उन्होंने आँखें खोलीं और मुझे अपनी ओर ताकता पाकर बोले, ‘यह मत समझना कि मैं सो रहा था। जब आदमी संगीत में पूरा डूब जाता है तो उसे अपनी खबर नहीं रहती।’

मैंने सिर हिलाया।

थोड़ी देर बाद पुनः उनकी आँखें बन्द हो गयीं और सिर छाती से टिक गया। इस बार उनकी नाक से बाकायदा शास्त्रीय संगीत के स्वर निकलने लगे। चश्मे वाला आदमी आग्नेय नेत्रों से उनकी तरफ देखने लगा। मैंने धीरे से उन्हें हिलाया। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक नेत्र खोला। मैंने कहा, ‘आप तो खर्राटे भर रहे हैं।’

वे हँसकर बोले, ‘यही तो तुम्हारी नासमझी है। जब मन संगीत से भर जाता है तो संगीत के समान स्वर शरीर से निकलने लगते हैं। जो तुम सुन रहे थे वह खर्राटे नहीं, सुकंठी देवी के संगीत की प्रतिध्वनि थी।’

मैं चुप हो गया।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वे सो रहे थे और उनके ओठों के किनारे से लार बहकर उनके कुर्ते की सिंचाई कर रही थी। मैंने उन्हें फिर जगाया, कहा, ‘ज्ञानी जी! आपके मुँह से लार बह रही है।’

ज्ञानी जी के माथे पर बल पड़ गये । वे बोले, ‘नादान! जिसे तू लार समझता है वह वास्तव में संगीत-रस है। जब मन संगीत-रस से सराबोर हो जाता है तो थोड़ा-बहुत रस इसी तरह उबल कर बाहर निकल जाता है।’

मैं फिर चुप्पी साध गया।

और थोड़ी देर में कार्यक्रम समाप्त हो गया। सब लोग उठ-उठ कर बाहर जाने लगे। मैंने धीरे से उन्हें एक-दो बार उठाया लेकिन वे गहरी नींद में ग़र्क थे। आख़िरकार जब उन्हें ज़ोर से हिलाया तब उन्होंने नेत्र खोले।

अपने आसपास देखकर वे उठ खड़े हुए। अंगड़ाई लेकर बोले, ‘तो देखा श्रीमान, यही शास्त्रीय संगीत का रस,यानी उसका आनन्द होता है। इसी तरह मेरे साथ दो-चार बार सुनोगे तो बिना पूँछ के जानवर से इंसान बन जाओगे।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘अन्तरात्मा का उपद्रव’ से)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ चुनाव प्रबंधन में एमबीए : एडमिशन ओपन्स ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “चुनाव प्रबंधन में एमबीए : एडमिशन ओपन्स ” एक नयी शैली में। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ चुनाव प्रबंधन में एमबीए : एडमिशन ओपन्स ☆☆

 

एक प्रतिष्ठित बी-स्कूल की काल्पनिक वेबसाईट के अंग्रेज़ी में होम-पेज का बोलचाल की भाषा में तर्जुमा कुछ कुछ इस तरह है :-

हम हैं भारत के तेजी से बढ़ते बी-स्कूल, और हम प्रारम्भ करने जा रहे हैं – ‘चुनाव प्रबंधन में एमबीए’.

चुनावों में प्राईवेट पॉलिटिकल कंसल्टेंट्सी के तेज़ी से बढ़ते कारोबार और इस क्षेत्र में प्रबंधन स्नातकों के कॅरियर की असीम संभावनाओं को हमारे संस्थान ने पहचाना और आपके लिए खास तौर पर डिझाईन किया है – ‘चुनाव प्रबंधन में एमबीए’.

राजनीति इन दिनों सर्वाधिक लाभ देने वाले व्यापार क्षेत्र में तब्दील हो गई है. पिछले कुछेक दशकों में राजनीति में विनिवेश करने वालों ने छप्परफाड़ प्रॉफ़िट कमाया है. यहाँ कमाई इतनी अधिक हैं कि बहुत से कारोबारी तो खुद राजनेता हो गये हैं. कुछ बिग कार्पोरेट्स ने परिवार के एक दो सदस्यों को ही राजनीति में उतार दिया है, तो कुछ ने अपने प्रतिनिधियों पर जनप्रतिनिधि का चेहरा चढ़ा कर सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करा दी है. लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है. इसके लिए चुनाव जीतना पड़ता है. बड़े कारोबारियों को जीत के लिए हुनरमंदों की तलाश है.

हम जीत दिला सकने वाले हुनरमंद तैयार करते हैं.

विजन :

पेशेवर युवा तैयार करना जो हैंडसम फीस के बदले किसी भी पार्टी को, कभी भी होनेवाले चुनावों में कहीं से भी जीत दिलवा सके.

मिशन :

कि ऐसी मार्केटिंग स्किल्स विकसित करना जो लोकतन्त्र के बाज़ार में ब्रांडेड जननायक को बहुमत से सेल-आउट कर सके,

कि हायकमान की जमीनी कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेतृत्व पर निर्भरता समाप्त करना,

कि मानव संसाधन का ऐसा आधार तैयार करना जहां हायकमान कंट्रोल रूम से ईलेक्शन मेनेज कर सकें,

कि ऐसे पेशेवर युवा तैयार करना जो किसी विचारधारा बंधें न हो,

कि फीस ही जिनकी विचारधारा हो,

वैल्यूज :

जीत दिलानेवाला हर मूल्य नैतिक मूल्य है.

सिलेबस इन ब्रीफ़ :

पहले सेमेस्टर में हम कवर करते हैं डाटा मेनिपुलेशन. हम आंकड़े गढ़ना सिखाते हैं. आंकड़े जाति के, धर्म के, भाषा के,आय के, घृणा के, वैमनस्य के, ध्रुवीकरण के, आंकड़े सच्चाईयों से परहेज  के, आंकड़े झूठ से छबि चमकाने के. हम आंकड़े गायब करना भी सिखाते हैं – आंकड़े बेरोजगारी के, आंकड़े किसानों की आत्महत्या के, आंकड़े भय, भूख, भटकाव के. हम आपको ऐसे प्रवीण करेंगे कि आप अपने क्लाईंट से पूरे आत्मविश्वास से झूठ बुलवा सकें. हम सिखाएँगे आपको मुद्दे गढ़ना. मुद्दे भटकाने वाले, मुद्दे डराने वाले, मुद्दे भड़काने वाले, मुद्दे भरम के, मुद्दे जो गैर-जरूरी हों मगर बेहद जरूरी लगें. हम सिखाएँगे वादों की भूल-भूलैया में ले जाकर वोटर को उस जगह छोड़ आना जहाँ वो पाँच साल तक चलता रहे और पहुँचे कहीं नहीं. बाहर निकले तो फिर उसी भूल-भूलैया में घुसने को मचल मचल जाये. वो लुट जाये, मगर खुश हो कि वाह क्या लूटा है सर आपने, मजा आ गया !! नारे गढ़ने की कला का विशेष प्रशिक्षण इसी सत्र में दिया जावेगा. नारे जो वोटर के दिल को छू जाये मगर विवेक की बत्ती बुझा दे.

दूसरे सेमेस्टर में हम आपको क्लाईंट की सकारात्मक, एंटी-क्लाईंट की नकारात्मक खबरें प्लांट करना सिखाएँगे. झूठ में सच का छींटा मार कर क्लाईंट के पक्ष में वोटर का मानस बदल देने की कला में आपको पारंगत कराया जाएगा. मीडिया प्रबंधन भी ऐसा कि हर समय दीखे तो बस आपका क्लाईंट दीखे, सुनाई दे तो बस आपका क्लाईंट सुनाई दे,खुशबू आये तो बस आपके क्लाईंट की, हवाओं में, फिजाओं में, घटाओं में, जल में, थल में, नभ में, अखबार में, रेडियो पे, टीवी पे, मोबाइल पे, होर्डिंग्स पे, पेशाबघर की दीवारों पर चिपके इश्तेहारों तक पे हर तरफ तेरा ही जलवा टाइप. लोग कहें बस अब और कोई ब्रांड नहीं चलेगा. इसी ब्रांड का जनप्रतिनिधि पैक कर दीजिये, कीमत बस एक वोट.

तीसरे सेमेस्टर में हम आपको सिखाएँगे डेमोक्रेसी के पालिका बाज़ार में डिमांड के अनुरूप साँचा बनाना और क्लाईंट को उसमें ढ़ालना. क्लाईंट ढ़ल नहीं पा रहा, उससे पैदल चला नहीं जाता, धूप तेज़ लगती है, धूल से एलर्जी है, बम्बे का पानी पीने से डरता है तो कोई बात नहीं – आप उनसे जनसम्पर्क मत कराईये,  रोड शो करा लीजिए. जीप पर बैठाकर निकालिए, हाथ जुड़वाईये नहीं, लहरवाईए, दोनों ओर. आप तय करेंगे कि वे कब प्रसाद खाएँ कब इफ्तार में जाएँ, मंदिर जाएँ तो किस मंदिर जाएँ, किस कलर का उत्तरीय डाले, धोती पहने कि पायजामा, पायजामा नाड़ीवाला हो कि बटनवाला, जेब फटी रखें कि साबुत. नंगे तो वे अंदर से हैं ही, जीत के लिये जरूरी हो तो वे अनावृत भी रोड शो करने को तैयार हैं. बस आप उनके कान में फूँक भर दें. जीत के रास्ते निकालना हम आपको सिखाएँगे. आखिर आप चुनाव प्रबंधन के गुरु बनने की राह पर जो हैं.

चौथे सेमेस्टर में आपको अपोजिशन में सेंध लगाने का लाईव असाइन्मेंट दिया जायेगा. विपक्ष में से चुन चुन कर विधायकों, सांसदों को जस का तस शीशे में उतारना है आपको. उनकी खरीद फरोख्त के नये नये तरीके ईज़ाद करने हैं. डील डन कराने की कला विकसित करनी है. असाइन्मेंट उस राज्य में करना है जहाँ चुनाव निकट हैं. वहाँ चुनावों से पहले कम से कम दो सांसदों या बारह विधायकों का पाला बदलवाना है. आपके पास सांसदों, विधायकों की डील के लिये पाँच से पच्चीस करोड़ तक का बजट रहेगा. असाइन्मेंट सफलतापूर्वक कंपलीट करना अनिवार्य है आखिर मोटी-मनी दांव पर जो होगी.

कॅरियर नेक्स्ट :

चलिये, अब आप हैं लोकतन्त्र के बाज़ार में प्रत्याशियों की मार्केटिंग के मैनेजमेंट गुरू.

अपना स्टार्ट-अप शुरू कर सकते हैं. अलग अलग तरह के पैकेज ऑफर कर सकते हैं – सिर्फ सर्वे कराना है, मुद्दे सुझाना है, बूथ मैनेज करना है, डॉक्टर्ड वीडियो सरकुलेट करना है, बिना सामने आए किसी का चरित्र हनन करना है, कोरट-कचहरी, आयोग, प्रशासन को अपने साँचे में ढ़ाल कर मोटी फीस वसूल कर सकते हैं.

बड़े अवसर आपके सामने हैं, भुनाईये इन्हें. नामी और ऊंचे कार्पोरेट्स कंसल्टेंट्स को मोटी फीस चुका कर पूरा चुनाव अपने पक्ष में कर लेने की योजना पर काम कर रहे हैं. कुछ कमी रही तो मोटी रकम चुकाकर दल बदल करा लेंगे. ये बात और है कि वे जन भागीदारी को सत्ता से दूर करके डेमोक्रेसी के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं लेकिन आपको डेमोक्रेसी से क्या लेना-देना ? आप तो अपने कॅरियर पर ध्यान दीजिये. नये दौर में चुनावों में जीत के लिए एक ऐसा हाईप बनाया जाता है जिसे पूरा कर पाना क्लाईंट के लिये संभव नहीं होता या जो राष्ट्र समाज के लिए दीर्घकालीन रूप से खतरनाक हो, लेकिन वो कंसल्टेंसी फर्म का सिरदर्द नहीं है. आपको क्या ? आपको तो बस जीत दिलाना है, फीस अंटी में डालनी है और अगले प्रोजेक्ट पर लग जाना है. बिंदास काम करिये, आपकी फीस चुनाव आयोग के निर्धारित खर्च का हिस्सा नहीं है.

अपना स्टार्ट-अप शुरू करना नहीं चाहते हैं तो हम कैंपस भी कराते हैं. हम अपने स्टूडेंट्स को इलेक्शन कंसल्टेंसी के क्षेत्र में ऊँचा मुकाम दिलाने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं.

एक आकर्षक, स्वर्णिम, उज्जवल कॅरियर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है. तो सोच क्या रहे हैं ? सीटें सीमित हैं – जल्दी कीजिये. एडमिशन ओपन्स.

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भूखे भजन न होय गोपाला”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ 

 

☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆

 

शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की विवेचना की जाती है.  सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में  प्रयोग किया जाता है. जलोटा जी ने भजन के माध्यम से धन, नाम एश्वर्य और जसलीन सहित दो चार और पत्नियो का प्रेम पाकर अंततोगत्वा  बिग बास के घर को अपना परम गंतव्य भले ही बनाया है पर इसमें दो राय नही हैं कि उनके स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.

भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना, ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब याद करके आनंद लेना भी भजन का ही एक प्रकार है. भजन का गूढ़ अर्थ होता है,  प्रीति पूर्वक सेवा.  प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहाँ मन लगाता है.

चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें,  भजन दरअसल प्रीति है.  प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को  ही भजन मानते हैं . चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.

“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है और वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नही की थी, खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब,  आत्म सम्मान को त्याग सर झुकाकर हम अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.

गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं, माशूका से  एकाकार होने जैसा एटर्नल  लव  गजल को जन्म देता.  कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा शबाब के सैलाब से गुजर रही है.

कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जसलीन तो कोई राधा के चक्कर रुक्मणी में ही उलझ जाता है.

यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि मय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो. वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढूँढकर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.

कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूँढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनों को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है जन्नत की जगह, भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले.

जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये ले अलग होकर बेटा  पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा  माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं, तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभुति का अभाव.  पर यह सत्य जानकर भी   अधिक  समझ नही पाते।

जो भी हो पर हम आप जो रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं,  वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को राम रहीम और आशाराम बना देते है, किसी को जसलीन ले जाते देखते है तो कोई  रामरहीम बेटी बोलकर बोटी चबाते मिलता है ।

जनता के लिए “भूखे भजन न होय गोपाला” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है. लेकिन, जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा  मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है” एक नयी शैली में। मैं निःशब्द हूँ, अतः आप स्वयं  ही  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆ नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है ☆

 

तुम अभी तक गये नहीं बुद्धिजीवी ?

कमाल करते हो यार. देश बदल रहा है. ये नया इंडिया है. यहाँ बुद्धिजीवी होना एक गाली हो गया है.

माना कि तुम अपनी प्रतिभा और अध्ययन का उपयोग मुल्क की बेहतरी के लिए करना चाहते हो, मगर ट्रोल्स और उनके प्रवर्तक हिंसक हो जाने की सीमा तक तुमसे असहमत हैं. वे लगातार तुम्हें देश छोड़ कर जाने के लिये कह रहे हैं और तुम हो कि अभी तक यहीं टिके हुवे हो ?

हमें याद है जब तुम पहली बार ट्रोल हुये थे. एक डरावना सपना देखा था तुमने और उसे सार्वजनिक रूप से साझा कर दिया था. कुछ कुछ इस तरह था वो कि सपने में तुम अपनी निजी लायब्रेरी में हो. कुछ मशालची उसकी तरफ बढ़ रहे हैं. राजकीय मशालची. किले के मशालची. सम्राट के प्रहरी. रात के गहन अंधकार में मशाल जलाकर सिंहासन के इर्द गिर्द पहरा देने वाले. साया भी सिंहासन की ओर बढ़ता दिखे तो इसी मशाल से फूँक देते उसे. जरा सी शंका हो तो तस्दीक करने की भी जरूरत नहीं समझते. तेल भी है उनके पास, आग भी और जला दिये जानेवाली अथॉरिटी भी. इसे जेनुईन एनकाउन्टर कहा जाता है. कुछ एनकाउन्टर स्पेशियलिस्ट मशाल लिए लायब्रेरी की तरफ बढ़ रहे हैं. तुमने पूछा – यहाँ क्यों आये हो ? मशालचियों में से एक ने आगे आकर कहा – हमारा राजा ज्ञानी है. राजा को जो ज्ञान है वो इन किताबों में नहीं है और जो इन किताबों में है वो राजा के काम का नहीं. इसलिए इन किताबों की जरूरत नहीं है. वे आगे बढ़े और लायब्रेरी में आग लगा दी. तुम नींद में से घबराकर उठ बैठे और एक नज़र किताबों की ओर डाली, मुतमईन हुए कि अभी तो बच गई हैं वे. कितने दिन बच पायेगी ? कोई सिरफिरा कभी दिन के उजाले में सच में इधर निकल आया और छुआ दी मशाल तो कोई क्या कर लेगा ?

स्वप्न से तुम डरे कि राजा? कि दोनों ? राजा विचार से डरा. तुम विचार नष्ट कर दिये जाने की संभावना से डरे. स्वप्न साझा करते ही अपशब्दों की वर्चुअल मशाल थामे ट्रोल्स की एक बड़ी फौज तुम पर पिल पड़ी थी. कहलाया गया – बुद्धिजीवियों ने बेड़ा गर्क किया है देश का. वे खुद निकल जाएँ देश से वरना हम सीमा पर खड़ा करके उस तरफ़ धकेल देंगे. अनगिन बार ट्रोल होने के बाद भी तुम यहीं टिके हुवे हो बुद्धिजीवी.

तुम्हारी अपनी तरह का देशप्रेम तुम्हें जाने से रोक रहा है. तुमने वेल्फेयर इकॉनामिक्स की बात की – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने सांप्रदायिक सद्भाव की बात की – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने सत्ता के केन्द्रीकरण के खतरों से आगाह किया – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने आवारा पूंजी के खतरे बताए – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने वनवासियों के अधिकारों की रक्षा का सवाल उठाया – तुम्हें अर्बन नक्सली कहा गया, तुमने लोगों के खाने-पीने में पसंदगी की स्वतन्त्रता की  बात की – तुम्हें बिका हुआ बुद्धिजीवी कहा गया. तुमने मानवाधिकारों की रक्षा की बात की – तुम्हें विद्रोही कहा गया. हर उस विचार को जो सिंहासन और उससे जुड़े श्रेष्ठी वर्ग के हितों के खिलाफ रहा आया – उसे राजद्रोही विचार की श्रेणी में रखकर गलियाँ दी गईं. कोई तुम्हें बगावती कह रहा है, कोई तुम्हें देश छोड़ देने की सलाह दे रहा है. कितना ट्रोल हो रहे हो फिर भी यहीं बने हुये हो बुद्धिजीवी ?

तुमने सभ्यताओं के उत्थान और पतन के अपने अध्ययन में लिखा है कि जो समाज अपने विचारकों, विद्वानों, चिंतकों, विदूषियों, कवियों, साहित्यकारों, संगीत, नाटक और कला के साधकों का सम्मान नहीं करता वो पतन के मार्ग पर चल निकलता है. इस रास्ते पर चल निकले तो बीच से लौटना संभव नहीं होता. क्या तुम्हें समकालीन समय समाज में ऐसा ही नहीं लगता बुद्धिजीवी ? तुमने पढ़ा है, बहुत पढ़ा है. बहुत लिखा भी है और बहुत रचा भी. शोध किये,  पेपर लिखे, रिकमण्डेशंस दीं, प्रजेन्टेशन्स दिये. जो लिखा वो व्यापक मनुष्यता के हित में लिखा. जो कहा समूची कायनात में फैली इंसानियत को बचाने के लिए कहा. तुम्हें मिले सम्मानों और पुरस्कारों की एक लंबी सूची है. इसके बरक्स जो तुम्हें गालियां दे रहे हैं वे ? दरअसल, वे हांक दिये गये हैं भेड़ों की तरह. पहले उनका मानस कुंद किया गया फिर उनके हाथों में थमा दी गई मशाल. अंधेरा भगाने के लिए नहीं, समाज में आग लगाने के लिये. ऐसे में तुम चले जाओ वरना एक दिन वे तुम्हें तुम्हारी पसंदीदा किताबों सहित जला देंगे, बुद्धिजीवी.

बहुधा हमें तुम पर तरस आता है बुद्धिजीवी. तुम इतने सेंसिटिव क्यों हो ? तुम रेशनल बातें क्यों करते हो ? तुम भीड़ के साथ बह जाना क्यों नहीं जानते ? जो ट्रोल्स बुद्धिजीवियों को सहन नहीं कर पाते हैं उन्होने तुम पर ही असहनशील होने का ठप्पा जड़ दिया है. विचारकों के तुम्हारे समूह को गैंग कहा जाने लगा है गोया तुम अपराधियों के समूह का हिस्सा हो. तुम पर यूनिवर्सिटी में गबन के, पद के दुरुपयोग के, चरित्रहीनता के आरोप लगाये गये तब क्या तुम्हारे मानस में ये सवाल उठा कि तुमने विचार की सत्ता को राजसत्ता से ऊपर रखकर कोई गलती की है ? समाज के आखिरी आदमी के लिए तुम्हारे मन में इतनी पीड़ा क्यों है ? तुम बुद्धिजीवी क्यों हुवे ? और हुवे हो तो अभी तक गये क्यों नहीं बुद्धिजीवी ?

अभी भी समय है, तुम चले जाओ बुद्धिजीवी. नये निज़ाम में कोई तुम्हें सुकरात की तरह जहर पीने को नहीं कहेगा, मार दिये जाने के तरीके बदल गये हैं. एक दिन तुम्हें मार तो दिया ही जायेगा और किसी को भनक तक नहीं लगेगी. इसके पहले कि महाराजा उस डरावने स्वपन को हकीकत में अनुवादित करवा दे तुम चले ही जाओ बुद्धिजीवी.

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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