हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ नेताजी लौट कर घर आए ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆ नेताजी लौट कर घर आए ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “नेताजी लौट कर घर आए”।)

नेताजी वापिस घर आ गए, उनको वापिस आना ही था। यह पहले से तय था, नहीं वे तय कर के गये थे कि वे वापिस आएंगे। नेताजी जाते ही हैं वापिस आने के लिए। उनसे अपना खूंटा छोड़कर जाया नहीं जाता, वे जाते हैं, लाभ के लिए और वापिस आते हैं लाभ के लिए। लाभ उनके जीवन का मर्म है और यह मर्म उन्होंने जल्दी समझ लिया था। अतः नेताजी इस कार्य में कभी गलती नहीं करते हैं। वे जाते हैं, अर्थात् भागते हैं, बाहरी दीन-दुनिया की खबर लेते हैं, अनेक प्रकार के व्यंजनों का रसास्वाद लेते हैं, थोड़ा बहुत ठोकर खाते हैं, भागते-भागते भी अनेक ठौर बदल लेते हैं। वे कभी ध्यानस्थ भी हो जाते हैं। जब वे ध्यान की स्थिति में होते हैं, तब नेताजी के चेला-चपाटी कहते हैं – जीवन के मर्म का संधान करने हेतु भजन कर रहे हैं और भजन के लिए ध्यान जरूरी है। नेताजी ध्यानस्थ मुद्रा में जरूर होते हैं मगर अपनी आँखें खुली रखते हैं। सी.सी.टी.वी. कैमरे की तरह दुनिया पर नज़्ार रखते हैं। जब भी मौसम उनके अनुकूल दिखा वे पल्टी मारकर वापिस आ जाते हैं। पल्टी मारना उनका विषेष गुण है। यह गुण उन्होंने सांप से सीखा है। वे सीखने से परहेज नहीं करते हैं। जो चीज उनके काम की होती है उससे वे सीख लेते हैं। गिरगिटान से रंग बदलना। पहले उनके सिर पर गाढ़े चटक लाल रंग की टोपी होती थी, पर अब भगवा मिक्स पहनते हैं। उन्हें किसी रंग से परहेज नहीं। परहेज प्रतिबंध लगाता है। वे सब चीजें खुली रखते हैं। इससे रंग बदलने में आसानी होती है। वे सिर्फ ऊपरी चोला बदल लेते हैं, पर अंदर सत्ता प्रेम बरकार रहता है और वे प्रेम में कभी धोखा नहीं देते। इससे उनकी सत्ता प्रेम की विश्वसनीयता बनी रहती है। इस प्रेम की खातिर वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। प्रेम बरकार रहे अतः उसमें कोई दखलंदाजी नहीं होती। मच्छर की तरह वे काटते हैं जिससे आदमी मरता नहीं है, वरन् बुखार जन्य हो जाता है। उनका कहना है – भागदौड़ करते रहो। शांत बैठ गये तो लोग भूल जाएंगे। इस कारण वे भागते रहते हैं।

वे अभी ताज़ातरीन मात्र चैबीस घंटे के लिए भागे थे। इसके पहले वे अनेक बार भागे और लम्बे समय के लिए भागे। इस बार सदल भागे थे। उनका कहना है – सबका साथ सबका विकास। उन्हें अपनी चिन्ता के साथ सबकी चिन्ता सताती है और जो बूढ़े हो गए उनसे कहते हैं – तुम धीरे-धीरे चलो मैं वापिस यही मिलूंगा। उन्हें पता है, उन्हें वापिस आना है। इस बार जल्दी वे नये अवतार में वापिस आ गए। उनका रंग बदला हुआ था। उनके रंग बदलने से कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगे, मगर वे इसकी परवाह नहीं करते हैं। वे संस्कृति और साहित्य में भी विष्वास करते हैं, अतः वे भागने को कला कहते हैं और इस कला में वे पारंगत हो गए हैं। लोग अब उन्हें कलाबाज कहने लगे हैं। अतः वे समय-समय पर कलाबाजी दिखाते रहते हैं।

कुछ दिन पहले प्रेमी वापिसी संघ, बिहारी वापिसी संघ, आधुनिक विदेष सेवा वापिसी संघ आदि ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी कि उन्होंने वापिसी की मूल आस्था का अपमान किया है। इससे उन सबके मन में ठेस पहुँची है इसलिए उन्होंने उन पर मानहानि का दावा ठोक दिया है। प्रेमी वापिसी संघ का कहना है – हमारा मूल मंत्र है, ‘प्रेम करो भागो’ और पलटो। प्रेम में कभी-कभी जरूरत के हिसाब से पलटना पड़ता है। एक प्रेमिका ने बताया कि प्रेमी मालदार था। उसने नया मोबाइल दिया, उसे रिचार्ज कराता था। होटल, तफरीह आदि कराता था। नये-नये कपड़े आदि का खर्च वहन करता था। प्रेमिका ने बदले में उसे सिर्फ आष्वासन पर स्थिर रखा। कहीं किसी के साथ भाग न जाए और भागे तो सिर्फ मेरे साथ। उसके नेक विचार देख मैंने सोचा कि इसके साथ भागा जा सकता है। हम भाग गए मुम्बई। भागने के लिए इससे आइडियल शहर इंडिया में कोई नहीं। यह शहर भागने वालों के लिए स्वर्ग है। हम लोग स्वर्ग ही भागे थे – वापिस न आने के लिए। भला स्वर्ग से कौन वापिस आता है। दूसरे दिन प्रेमी बाथरूम में था और उसके मोबाइल पर फोन आया। मैंने उठा लिया – अगला पूछने लगा – अबे इतने दिन से तू कहाँ है? तू हमसे बचकर नहीं भाग सकता। हम तुझे पाताल से स्वर्ग तक खोज लेंगे। तू गायब हो गया या किसी को ले भागा। बता मेरा पैसा कब वापिस करेगा? वरना करूं पुलिस में रिपोर्ट। तेरा भण्डाफोड़ कर दूंगा। इस तरह दिन भर तीन चार लोगों के फोन आए। अब उसका भाण्डा फूट चुका था। मैंने सोचा यह तो फोकट, कड़का आदमी है। इसके साथ क्या जीवन बिताना। मेरी कुण्डली जाग्रत हुई और मैं वापिस आ गयी। थोड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ और फिर शांत हो गया। हम वापिस आने का रास्ता खुला रखते हैं, अतः वापिस आने का अधिकार हमारा है, पर यह नेताजी को यह शोभ नहीं देता है।

हमारे मुहल्ले का सुन्दर, गौरवर्ण, बलिष्ठ लड़का मुम्बई भाग गया। पता लगा वह हीरो बनने गया है। उसकी माँ चिन्ता से बेहाल हो रही है। तब लड़के के बाप ने कहा – तू चिंता मत कर। थोड़े दिन बाद वापिस आ जाएगा। कुछ दिन किसी ढाबे में बरतन मांजेगा, आखिर वह हमारा बेटा है। उसकी रगों में हमारा ही खून दौड़ रहा है। हम भागे थे, हीरो बनने, फिर वापिस आ गये। यह हमारी खानदानी परम्परा है। तू बिल्कुल चिन्ता मत कर, भागते हैं वापिसी के लिए ही। वापिस आने पर हम उसे खंूटे से बांध देंगे। जैसा हमारे बाप ने किया था। खूंटा आदमी को स्थिर रखता है। सीमा बता देता है कि तू इसके आगे नहीं जा सकता है। खूंटा से बंधा आदमी भाग नहीं सकता, बस उछलकूद कर सकता है। बंदर के समान कुलाटी मार सकता है। कुलाटी मारना भी एक कला है। यह कला भागकर वापिस आने पर आती है।

तकलीफ तब होती है, जब बेटा या बेटी भाग जाती है, वापिस न आने के लिए। माँ दरवाजे पर बाट जोहती है, कि अब आ रहा/रही है। उसकी आँखें पथरा जाती हैं, पर बेटा या बेटी वापिस नहीं आते। वह अपनी पत्नी के साथ चला जाता है दूर, बहुत दूर विदेष। वापिस न आने के लिए और माँ को विष्वास दिला जाता है, वह वापिस आएगा, जरूर आएगा, पर वहाँ से वापिस आना सरल नहीं है। जैसे बचपन में मैदान में भाग जाता था और अंधेरा होने पर वापिस आ जाता था। भागो, खूब भागो, पर समय से वापिस आ जाओ। वापिस आना, साथ निभाना, या अटूट वादा है और वापिस आओ अपना वादा निभाओ।

 

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 6 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (6)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  छठवाँ उत्तर  दुर्ग, (छत्तीसगढ़) के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री  विनोद साव जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

दुर्ग (छत्तीसगढ़) से व्यंग्यकार श्री विनोद साव 
धारदार शब्दों और विचारों की चाबुक की फटकार हो :
लेखक को घोड़े की आंख जैसा बताते हुए जो मुहावरा यहां गढ़ा गया है यह अपने मूल रूप में लेखक की दृष्टि को बहुत व्यापक बनाता है क्योंकि घोड़े की आंखों पर चमड़े का पट्टा  (horse blinders) या जिसे घोड़ा ऐनक भी कहा जाता है – इसको लगाने से पहले घोड़े की दृष्टि बहुत व्यापक थी. घोडा अपने आगे पीछे बहुत दूर तक देख लेता था. पर अपनी इस विशेषता के कारण घोडा बिदकता भी था और उसकी रफ़्तार में कमी आ जाती थी. इसलिए उसकी व्यापक दृष्टि को नियंत्रित करने और उसके गंतव्य व लक्ष्य को निर्धारित करने के लिए उसकी आंखों पर चमड़े का पट्टा लगाया गया और उसके मुंह पर रस्सी बांधकर घोड़े पर लगाम भी कसा गया.
आज के संदर्भ में लेखक खुद ही अपनी आँखों पर चमड़े का चपड़ा लगाकर बैठ गया है और अपनी दूरदृष्टि को सीमित कर गया है. यह सरकार, प्रशासन और उसकी व्यवस्था से डरा सहमा हुआ लेखक है जो कोई पंगा लेने से भागता है. यह सुविधाभोगी लेखक दिनोंदिन दुनियांदार होता जा रहा है और साहित्य से इतर अपना कैरियर बनाने में जुटा हुआ है और लिखने पढने में कम और विमोचन, सम्मान, अभिनन्दन कराने और पुरस्कार झपटने में अधिक लगा हुआ है. उसकी किसी भी रचना से उसका बायोडाटा कई गुना बड़ा हो गया है. घोडा तो शक्ति व गति का द्योतक है उससे हर क्षमतावान मशीन का ‘हॉर्सपावर’ तय होता है पर यह लेखक तो अपनी निरर्थक रचनाओं की पाण्डुलिपि और बायोडाटा को अपने ऊपर लादकर किसी गदहे की भांति हांफते हुए पुरस्कारों के पहाड़ खोज रहा है. इस गदहे को लगाम लगाकर उसे साहित्य का घोडा बनाने की ज़रुरत है. विशेषकर व्यंग्यकारों को तो अपने समय की राजनीति और सामाजिक, धार्मिक दुर्दशा पर हस्तक्षेप करने का साहस करना चाहिए जैसा उनके पुरोधा लेखक परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल व अन्यान्य करते आए हैं. उसको अपने लेखन को लगाम की तरह इस्तेमाल करने आना चाहिए ताकि उसके सामने व्यवस्था का जो घोडा बेलगाम हो रहा है उसकी पीठ पर अपने धारदार शब्दों और विचारों की आक्रामकता की चाबुक वह फटकार सके.
– विनोद साव, मो. 9009884014
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ अविश्वासं फलम् दायकम् ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆ अविश्वासं फलम् दायकम् ☆

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य। )

 

विश्वास बनाये रखने को कहते हैं.  “विश्वासं फलम् दायकम्”  ढ़ाढ़स बंधाने के काम आता है. भक्त बाबा जी के वचनो पर मगन झूमता रहता है.  सदियो से “विश्वासं फलम् दायकम्” का मंत्र फलीभूत भी होता रहा है . अपना सब कुछ , घरबार छोड़कर नवविवाहिता नितांत नये परिवार में इसी विश्वास की ताकत से ही चली आती है और सफलता पूर्वक नई गृहस्थी बसा कर उसकी स्वामिनी बन जाती है. भरोसे से ही सारा व्यापार चलता है.

पर जब मैं नौकरी के संदर्भ में देखता हूं, योजनाओ की जानकारियो के ढ़ेर सारे फार्मेट देखता हूं और टारगेट्स की प्रोग्रेस रिपोर्ट का एनालिसिस करते अधिकारियो की मीटिंगो में हिस्सेदारी करता हूं तो मुझे लगता है कि इनका आधारभूत सिद्धांत ही  अविश्वासं फलम् दायकम् होता है. किसी को किसी के कहे पर कोई भरोसा ही नही होता , स्मार्टफोन के इस जमाने में हर कोई फोटो प्रूफ चाहता है .  “इफ और बट” वादो के दो बड़े दुश्मन होते हैं . अधिकारी लिखित सर्टिफिकेट से कम पर कोई भरोसा नहीं करता . अविश्वासं फलम् दायकम् के बल पर  वकीलो की चल निकलती है, एफीडेविट, और पंजीकरण के बिना न्यायालयो के काम ही नही चलते. अविश्वास के बूते ही रजिस्ट्रार का आफिस सरकार का कमाऊ पूत होता है.

भरी गर्मी में पसीना बहाते चुनावी रैलियां और भाषण करते नेताओ को देखकर विश्वास करना पड़ता है कि इन सब को वोटर पर और तो और खुद की की गई कथित जनसेवा पर तक तन्निक भी भरोसा नही है . वरना भला जिस नेता ने पांच सालो तक वोटर की हर तरह से खिदमत की हो उसे अपने लिये मुंए वोटर से महज एक वोट मांगने के लिये इस तरह साम दाम दण्ड भेद , मार पीट , लूट पाट , खून खराबा न करवाना पड़ता . बेवफा वोटर को लुभाने के लिये जारी सारे घोषणा पत्र , वचन पत्र और संकल्प पत्र यही प्रमाणित करते हैं कि राजनेता वोटर संबंध अविश्वासं फलम् दायकम् के मंत्र पर ही काम करते हैं . चुनाव जीतने से पहले नेता वोटर पर अविश्वास करता है और चुनाव जीत जाने के बाद खुद पर वोटर के अविश्वास को प्रमाणित करने में जुटा रहता है . अविश्वास का ही फल होता है कि शर्मा हुजूरी कुछ जन कल्याण के काम हो ही जाते हैं , क्योकि बजट खतम करने की एक लास्ट डेट होती है , अविश्वासं फलम् दायकम् के चलते ही काम के लिये पर्सु॓एशन किया जाता है, कुछ काम समय पर हो जाते हैं.आाकड़ो में सजा हुआ विकास दरअसल अविश्वासं फलम् दायकम् का ही सुफल होता है.   इसलिये कुछ भरोसे लायक पाना हो तो भरोसा ना करिये.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

विवेक रंजन  श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆पकौड़ा डॉट कॉम ☆– श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆पकौड़ा डॉट कॉम ☆

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य। श्री विवेक जी ने जीभ से लेकर पेट तक और राजनीतिक पकौड़ों से लेकर ऑन लाइन तक कुछ भी नहीं छोड़ा। विवेक जी को ही नहीं मुझे भी भरोसा है कि कोई न कोई तो पकौड़ा डॉट कॉम पर काम कर ही रहा होगा जिसकी फ्रेंचाईजी विदेशों से लेकर हमारे घर के आस पास खुलेगी।) 

पकौड़े विशुद्ध देसी  फास्ट फूड है. राजनीति ने पकौड़ो को  रोजगार से जोड़कर चर्चा में ला दिया है. मुझे भरोसा है जल्दी ही कोई स्टार्ट अप पकौड़ा डाट काम नाम से शुरू हो जायेगा. जो घर बैठे आनलाइन आर्डर पर पकौड़े उपलब्ध कराने की विशेषता लिये हुये होगा. वैसे दुनियां भर में खाने खिलाने का कारोबार सबसे सफल है. बच्चे का जन्म हो, तो दावत्, लोग इकट्ठे होते हैं, छक कर जीमतें हैं। बच्चे की वर्षगांठ हो, तो लोग इकट्ठे होते हैं- आशीष देते हैं-  खाते हैं, खुशी मनाते हैं. बच्चा परीक्षा में पास हो, तो मिठाई, खाई-खिलाई जाती है.  नौकरी लगे तो पार्टी-जश्न और डिनर. शादी हो तो भोजन, अब तो रिटायरमेंट पर भी सेलीब्रेशन की फिजा है और तो और मृत्यु तक पर भोज होता है। आजीवन सभी भोजन के भजन में लगे रहते हैं.

कहावत भी है- ’पीठ पर मार लो पर पेट पर मत मारो’. कुछ लोग जीने के लिये खाते हैं, पर ऐसा लगता है कि ज्यादा लोग खाने के लिये ही जीते हैं. सबके पेट के अपने अपने आकार हैं. नेता जी बड़े घोटाले गुटक जाते हैं, और डकार भी नहीं लेते. वे कई-कई पीढ़ियों के पेट का इंतजाम कर डालना चाहते हैं. महिलाओं के पेट में कुछ पचता नहीं है इधर कुछ पता चला, और उधर, उन्होंने नमक मिर्च लगाकर, संचार क्रांति का लाभ उठाते हुए, उस खबर को मोबाईल तरंगों पर, संचारित किया. सबके अपने-अपने स्वाद, अपनी-अपनी पसंद होती है. मथुरा के पंडित जी मीठे पेड़े खाने के लिए प्रसिद्ध है.  बगुला जिस एकाग्रता से मछली पकड़ने के लिये तन्मय होकर ध्यानस्थ रहता है, वह उसकी पेट पूजा, उसी पसंद की अभिव्यंजना ही तो है. भोजन के आधार पर शाकाहारी, मांसाहारी का वर्गीकरण किया गया है. सारे विश्व में अब विभिन्न देशों के व्यंजन सुलभ हो चले हैं.  टी वी पर रेसिपी शोज की टीआरपी बूम को देखते हुये फूड चैनल तक लांच हो चुके हैं.  लंदन में दिल्ली के छोले भटूरे और पराठे मिल जाते हैं. तो  घर-घर चाईनीज व्यंजन लोकप्रिय हो रहे हैं. रेसिपी की पुस्तकें छप रही है, और वैचारिक पुस्तकों से ज्यादा प्रसार के साथ, खरीदी-पढ़ी अजमाई जा रही हैं.

भोजन परोसने की शैली, भोजन की गुणवता के आधार पर दावत की सफलता के चर्चे बाद तक याद किये जाते हैं. नववधू को, पहली रसोई बनाने पर, उसे नेग- उपहार दिये जाने की संस्कृति है, हमारी. मॉ, बहन, पत्नी रोटी के साथ जो प्यार-जो स्नेह, जो मनुहार, परोसती हैं, वह किसी कीमत पर अच्छे होटल में दुर्लभ होता है. कहावत है ’पुरूष के दिल में उतरने का रास्ता उसकी जीभ से होकर जाता है’. जिस पर सदियों से नव विवाहितायें प्रयोग करती आ रही हैं, तरह-तरह के पकवान बना कर पति को अपना बना लेती है, और घर वालो को बेगाना.

एक बार बादशाह अकबर भोजन कर के उठे तो बीरबल ने उन्हें भूखा कह दिया, अकबर ने बीरबल से अपनी बात सिद्ध करने का कहा, अन्यथा मृत्युदण्ड के लिये तैयार रहने को. बीरबल ने 56 प्रकार की प्रसिद्ध मिठाईया बुलवाई, ना, ना करते हुय भी अकबर, मिठाई चखते हुये, एक-एक प्रकार की मिठाई, एक एक तोला खाते चले गये, और भरपेट भोजन के बाद भी एक सेर मिठाई खिलाकर बीरबल ने अकबर को भूखा सिद्ध कर दिया। पेट की भूख से जो निजात पा लेते हैं, उन्हें प्रसिद्धि, मान सम्मान की भूख, संग्रह की भूख, धन वैभव की भूख व्यस्त रखती है।  जब सब कुछ एकत्रित हो जाता है, तो इस सब को पाने की दौड़ में बेतहाशा दौड़ा शरीर इतना टूट जाता है कि मधुमेह के चलते मीठा नहीं खा सकते, ब्लड प्रेशर के चलते तला नहीं खा सकते.

कही पांच रुपये में थाली तो कही एक रुपये किलो खाद्यान्न की योजनाये सरकारे चलाती दिखती है, नेता जी की जेबें भर जाती हैं पर जनता का पेट नही भर पाता. अकाल पड़ा,  एक गरीब मृत पाया गया. नेता पक्ष प्रतिपक्ष में द्वंद छिड़ गया.  भूख से मौत पर, सरकार के विरूद्ध बयान बाजी हुई.  पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई- मौत का कारण भूख नहीं कुपोषण की बीमारी पाई गई.  गरीबी की इस बीमारी का निदान क्या है? भूख इस बीमारी का लक्षण है.  गोदामों में भरा अनाज इसे नहीं मिटा सकता.  ऐसी सामाजिक संरचना, जिसमे सबको काम के अवसर, शिक्षा के अवसर, विकास के अवसर मिलें, ही इसका निदान है. इस नाम पर चुनाव लड़े और जीते जाते हैं ,कभी चाय पाइंट पर तो कभी  पकोड़े डाट काम पर ढ़ोल मंजीरे की थाप के साथ भोजन भजन जारी रहता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मॉम है कि मानती नहीं ☆ श्री शांतिलाल जैन 

श्री शांतिलाल जैन 

☆ मॉम है कि मानती नहीं ☆

(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का आधुनिक समाज को आईना दिखाता हुआ एक सटीक, सार्थक एवं सामयिक व्यंग्य।)

माय मॉम इज द बेस्ट मॉम. उन्होंने मुझे कभी रोने नहीं दिया. आया-माँ बताती हैं कि जब मैं अबोध शिशु था, तभी से, जब जब रोने लगता मॉम यूट्यूब पर ‘लकड़ी की काठी’  लगाकर फ़ोन थमा देतीं. ऊंगली पकड़कर चलना सिखाने की उम्र में मॉम ने मुझे मोबाइल चलाना सिखा दिया था. मॉम का दूसरावाला स्मार्टफ़ोन मुझे हमेशा थप्पड़ खाने से बचाता. होता ये मैं मॉम से कुछ न कुछ पूछने की भूल कर बैठता. एक बार मैं जोर का थप्पड़ खाते खाते बचा जब मैंने पूछा  – “मॉम ये सन ईस्ट से ही क्यों राइज करता है?”

“आस्क योर डैड”

“मॉम होली पर कलर क्यों लगाते हैं ?”

“आय डोंट नो.”

“मॉम, सम्स करके ले जाने हैं कल.”

“अभी मिस आएगी तेरी, ट्यूशन वाली, कराएगी.”

“मॉम प्लीज. आप कराओ ना.”

“जान मत खा मेरी.” मन किया था मॉम का कि एक जोर का थप्पड़ रसीद कर दें. बुदबुदाईं वे, थोड़ी देर चैन से व्हाट्सएप भी नहीं देखने देता. रुककर बोलीं – “थोड़ा कीप क्वायट बेटा. हाऊ मच बकर बकर यू आर डूइंग.  पता नहीं कब सुधरेगा ये लड़का. सुधरेगा भी कि नहीं. ” वे अपना टेबलेट फोर-जी छोड़कर उठीं, टेम्पर पे कंट्रोल किया, दूसरावाला स्मार्ट फ़ोन उठाया और कहा – “बेटा,  प्ले इट फॉर थोड़ी देर”. यही नहीं उन्होंने मेरे चिक पर किस करते हुवे एक सेल्फी ली और इन्स्टाग्राम पर पोस्ट कर दी. फ़ोन मुझे मार से हमेशा बचाता रहा. अब समझ गया हूँ, जब मॉम फेसबुक पर ऑनलाइन हों तब मैं उसे बिलकुल डिस्टर्ब नहीं करता. हाँ, उस दिन मॉम का गाल चूमना मुझे अच्छा लगा और सेल्फी की फोटो ग्रुप की बाकी मम्मियों को. लाइक्स के इतने अंगूठे मिले मॉम को कि वे मुझे खाना देना भूल ही गईं.

ऐसा नहीं है कि मॉम को मेरी भूख का ख्याल नहीं रहता. बल्कि इस पर तो उन्हें क्लब में बेस्ट मॉम का अवार्ड मिला है. एन आईडियल मॉम. मेरे लिए टाईम निकालना जानती है. क्या नहीं रखा है  फ्रिज़ में. सेंडविचेस, मैगी, चाऊमिन, पास्ता, पिज़्ज़ा, फ्रोजन फ़ूड, चोकलेट्स, कोल्ड ड्रिंक्स. दो मिनिट में तैयार. बाकी फिफ्टी एट मिनिट इन बॉक्स में.

एक बार एक राईम में मैंने गार्डन देखा, फ्लावर देखे, मंडराती तितलियाँ देखीं,  ऑल एनीमेटेड. मॉम ने प्रॉमिस किया है, पक्का, एक बार वे मुझे सच्ची-मुच्ची के गार्डन में जरूर ले जायेंगी. इन दिनों मैं बहुत मुटा गया हूँ. किसी ने मॉम को ध्यान दिलाया तो उन्होंने कहा – डोंट वरी, बेरियाटिक सर्जरी करा दूँगी. वो एक ‘केयरिंग मॉम’ है.

एक दो बार ऐसा हुआ कि टॉयलेट तक जाने से पहले ही मेरी पॉट्टी निकल गई. तब से मॉम रिस्क नहीं लेती, डायपर पहनाकर ही रखती है. अब मैं पॉट्टी के बाद भी दो-तीन घंटे बिना क्लीन कराये घूम सकता हूँ. मोबाइल मेरा ट्वेंटी-फोर बाय सेवेन का साथी भले हो, ये दिया तो मॉम ने ही है ना, शी इज द बेस्ट मॉम.

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 5 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (5)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  पांचवा उत्तर  जबलपुर के  प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री  राकेश सोहम जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

जबलपुर से व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी – 5

सवाल बड़ा पेंचीदा है। क्योंकि इसमें बचने का मार्ग ही नहीं छोड़ा। या मैं कहूं सवाल गलत है। दो आप्शन हैं और दोनों स्थिति बंधन की हैं। मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। घोड़े की आंख बंधी होती है और लगाम तो है ही बंधन का प्रतीक। लगाम घोड़े को नियंत्रित करके उस ओर देखने को मजबूर करती है जिस मार्ग पर उसे बढ़ना है। खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से  कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।

एक तर्किक चिंतक के अनुसार कोई भी सोच शाश्वत् नहीं होती। सोच परिवेश से बनती वह प्रभावित होती है। यही सोच चिंतन की गहराई में उतरकर परिमार्जित होती है। फिर कलाकार या साहित्यकार की कृति के रूप में ढल जाती है। कितने नए पुराने साहित्यकारों की कृतियां आज भी दशा दिशा दे रहीं हैं।

खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से  कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।

सवाल बड़ा पेंचीदा है। क्योंकि इसमें बचने का मार्ग ही नहीं छोड़ा। या मैं कहूं सवाल गलत है। दो आप्शन हैं और दोनों स्थिति बंधन की हैं। मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। घोड़े की आंख बंधी होती है और लगाम तो है ही बंधन का प्रतीक। लगाम घोड़े को नियंत्रित करके उस ओर देखने को मजबूर करती है जिस मार्ग पर उसे बढ़ना है। खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से  कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

श्री विजयानंद विजय मुजफ्फरपुर बिहार से लिखते हैं – 6

भौतिकवाद की आँधी में, आधुनिकता के घोड़े पर सवार मनुष्य आज वक्त की रफ्तार से भी तेज दौड़ने की कोशिश कर रहा है, इससे बिलकुल बेपरवाह और लापरवाह कि हकीकत की जमीन क्या है, हमारा वजूद क्या है, हमारी हैसियत क्या है, हमारी औकात क्या है, हमारी सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा क्या है।बस, हम अंधानुकरण की मानसिकता में जी रहे हैं…कृत्रिम, बनावटी और दिखावे की संस्कृति के कहीं-न-कहीं पोषक बनते हुए।

नैतिक मूल्यों के भयंकर क्षरण के इस दौर में जहाँ मर्यादाएँ टूट रही हैं, मान्यताएँ खंडित हो रही हैं, परंपराएँ सूली पर चढ़ी हैं, आदर्श तार-तार हैं, अपसंस्कृतिकरण प्रबल है, आचार-व्यवहार सतही हो चले हैं, वहाँ लेखक, रचनाकार, कलाकार समय और समाज की आँखें खोलता है,उन्हें आइना दिखाता है, वास्तविकता से साक्षात्कार कराता है, हमें जगाता है, सजग-सचेष्ट करता है कि हममें वो सबकुछ बचा रहे, जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है, ताकि हम मनुष्य कहलाने योग्य बने रहें।

हम पृथ्वी के सबसे ज्ञानवान प्राणी समझे, माने, जाने और पहचाने जाते हैं, मगर हमारा यह ज्ञान कहाँ तिरोहित हो जाता है, जब हम परम स्वार्थ में डूबकर स्वजनों के ही दुश्मन बन जाते हैं, उनका अहित करते-सोचते हैं ? वक्त का मिजाज और स्वार्थ जब इंसान पर हावी होता है, तो वह उसकी पूरी सोच और विचारधारा पर हावी होने लगता है।जब यह नकारात्मक दिशा की ओर उन्मुख होता है, तो ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, नफरत की आग मन और विचार के साथ-साथ घर-समाज-राष्ट्र को भी भस्मसात करने पर उतारू हो जाती है।यह आत्मघाती प्रवृत्ति किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकती।यहीं रचनाकार, लेखक, कलाकार, सृजनधर्मी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जहाँ उसे दिग्भ्रमित, दिशाहीन होती पीढ़ी को भटकाव से बचाकर समाज और राष्ट्रहित में उच्च आदर्शों और प्रतिमानों की स्थापना की ओर ले जाना होता है।यहाँ फटकार भी जरूरी है, चोट भी जरूरी है, कटाक्ष भी जरूरी है और प्यार-मनुहार भी जरूरी है, अपेक्षित अंकुश और लगाम भी जरूरी है। जरूरी है कि लेखक और रचनाकार अपनी भूमिका, अपने दायित्व, अपने कर्त्तव्य को समझें और समाज-राष्ट्र की दशा व दिशा सुधारने में अपना सकारात्मक सहयोग दें।

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम से लिखती हैं -7

लेखक समाज रूपी घोड़े का क्या है  ?

लेखक समाज रूपी घोड़े की आँख और लगाम दोनों है क्योंकि जन साधारण लेखक की आँख से देखता है। फिल्म नाटक आदि के द्वारा लेखक जो परोसता है। वही जन सामान्य खाने की कोशिश करता है और इस घोड़े की लगाम तो शत प्रतिशत लेखक के ही हाथ में होती है। लेखक अपनी लेखनी की लगाम से समाज रूपी घोड़े के विचारों को बदलने की ताकत रखता है इसलिए लेखक को बहुत सोच समझकर अपनी लगाम का प्रयोग करना चाहिए।

लगाम में कसावट होनी चाहिए। लगाम ढीली छोड़ते ही घोड़े की चाल बदल जाती है। वे भटकने लगता है। लेखक पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। तभी महान कवि गुप्त जी ने कहा था –

“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।”

कभी कभी एक सार्थक पंक्ति भी हृदय के तारों को झंकृत कर देती है।मस्तिष्क को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि तलवार से अधिक ताकत लेखनी में होती है।

लेखनी एक साथ लाखों लोगों को घायल कर सकती है। दिमाग में उत्पन्न विचारों, कल्पनाओं को कागज पर उकेरना एक लेखक की कला है। लेखक को लेखन से पहले यह सोचना चाहिए कि वह क्यों लिखना चाहता है? उससे समाज को क्या लाभ व हानि होगी। लेखक के लिए समाज का लाभ सर्वोपरि होना चाहिए।

एक अच्छा लेखक जब लिखने बैठता है तो हर पहलु के बारे में सोचकर उसे पूर्ण करता करता है।

लेखन शतरंज के खेल की तरह है फर्क सिर्फ इतना है की यहां आखिरी चाल सबसे पहले सोची जाती है।

फिल्म या टी. वी लेखन लेखकों पर एक बोझ होता है। उनकी अपनी पहचान विलुप्त हो जाती है। उसको जैसा कहा जाता है वह उसी दिशा में लिखता चलता है। पर सच्चे लेखक को यह सब स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे समाज को सदैव सकारात्मक और प्रेरणार्थक ही देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी भी लेखक की सोच निश्चित ही उसके व्यक्तित्व का ही हिस्सा होती है, लेकिन वो अपने लेखों में उन्हें पूरी ईमानदारी से प्रतिबिंबित करता है या नहीं, ये निश्चित करना अत्याधिक कठिन है।

लेखक का जैसा गहरा रिश्ता समाज से होना चाहिए वैसा आज नहीं है। लेखक को जिस तरह अपनी परंपरा,अपने आज और अपने भावी कल के बीच का पुल होना चाहिए वैसा पुल वो नहीं बन पा रहा है। घोड़े की लगाम ढीली पड़ती जा रही है। जिसका कारण है कि आज लेखक तो बहुत है पर प्रेमचंद नहीं हैं। जो भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के दौर में भारतीय जीवन में आए बदलाव और स्थाई-सी हो चुकी समस्याओं के द्वंद्व और उससे उबरने की छटपटाहट को शब्दों में बयां कर सके।

(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ पार्टियों में कोहराम ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ पार्टियों में कोहराम ☆

(लोकतन्त्र के महापर्व पर डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक  सामयिक एवं सटीक व्यंग्य।)  

 

पार्टियों में इस वक्त भगदड़ का आलम है।सब तरफ बदहवासी है।बात यह हुई कि एक पार्टी ने जन-जन की प्यारी, दर्शकों की आँखों की उजियारी, परम लोकप्रिय ठुमका-क्वीन और जन-जन के प्यारे, दर्शकों के दुलारे झटका -किंग को फटाफट पार्टी में शामिल करके लगे-हाथ चुनाव का टिकट भी पकड़ा दिया है।चुनाव का टिकट एकदम ठुमका-क्वीन और झटका-किंग की पसंद का दिया गया है ताकि उन्हें जीतने में कोई दिक्कत न हो।तबसे उनके क्षेत्र के उनके भक्त टकटकी लगाए बैठे हैं कि कब भोटिंग हो और वे अपने दुलारे कलाकारों की सेवा में अपने भोट समर्पित करें।

विरोधी पार्टियों वाले बदहवास दौड़ रहे हैं। लगता है जैसे कोई बम फूट गया है। बुदबुदा रहे हैं—–‘दिस इज़ अनफ़ेयर। हिटिंग बिलो द बेल्ट।हाउ कैन दे डू इट?’

विरोधी पार्टियों के वे उम्मीदवार परेशान हैं जो ठुमका-क्वीन और झटका-किंग के चुनाव-क्षेत्र से खड़े होने वाले हैं।आँखों में आँसू भरकर कहते हैं, ‘भैया, हम जीत गये तो मूँछ ऊँची होना नहीं है और अगर हार गये तो नाक कट कर यहीं सड़क पर पड़ी दिखायी देगी।नाक पर रूमाल रखकर चलना पड़ेगा।अगली बार पता नहीं पार्टी टिकट दे या नहीं।कहाँ फँस गये!’

सभी दूसरी पार्टियों ने अपने सीनियर कार्यकर्ताओं को आदेश जारी कर दिया है कि तत्काल जितनी ठुमका-क्वीन और जितने झटका-किंग राज्य में मिल सकें उन्हें भरपूर प्रलोभन देकर झटपट पार्टी में ससम्मान शामिल करायें। उन्हें तुरंत उनकी पसंद का चुनाव टिकट नज़र किया जाएगा। इस काम के लिए हर पार्टी ने दो दो हेलिकॉप्टर मुकर्रर कर दिये हैं ताकि काम तत्काल हो और दूसरी पार्टी वाले क्वीनों और किंगों को झटक न लें।

ज़्यादा बदहवास उस पार्टी के उम्मीदवार हैं जिसने सबसे पहले क्वीन और किंग को अपने पाले में खींचा है। क्वीन और किंग के चुनाव -क्षेत्र से जिनको टिकट मिलने की उम्मीद थी उनकी नींद हराम है। वे बड़े नेताओं के सामने गिड़गिड़ा रहे हैं——-‘सर, यह क्या किया? हमारे चुनाव-क्षेत्र का टिकट क्वीनों और किंगों को दे दिया तो हम कहाँ जाएंगे? सर, हम तीस साल से पार्टी की सेवा कर रहे हैं। तीन बार लगातार चुनाव जीते हैं।’

जवाब मिलता है, ‘जीते हो तो लगातार मलाई भी तो खा रहे हो। कौन सूखे सूखे सेवा कर रहे हो। पंद्रह साल में आपकी संपत्ति में जो बरक्कत हुई है उसकी जाँच करायें क्या?’

बेचारा उम्मीदवार बगलें झाँकने लगता है।

बड़े नेताजी समझाते हैं, ‘सवाल ‘विन्नेबिलिटी’ का है।हमें किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है।क्वीन और किंग की पापुलैरिटी जानते हो?एक ठुमका मारते हैं तो सौ आदमी गिर जाता है। दो तीन लाख भोट तो आँख मूँद के आ जाएगा। आपकी सभा में तो सौ आदमी भी इकट्ठा करने के लिए पाँच सौ रुपया और भोजन का प्रलोभन देना पड़ता है। पार्टी की भलाई का सोचो। सत्ता हथियाना है या नहीं?’

उम्मीदवार आर्त स्वर में कहता है, ‘सर, यही हाल रहा तो एक दिन सदनों में कोई पालीटीशियन नहीं बैठेगा। सब तरफ किंग और क्वीन ही दिखायी पड़ेंगे। तब कैसा होगा, सर?’

नेताजी कहते हैं, ‘तो आपकी छाती क्यों फटती है? सदन में सुन्दर और स्मार्ट चेहरे दिखेंगे तो आपको बुरा लगेगा क्या? एक अंग्रेज लेखक हुए हैं—-आस्कर वाइल्ड। उन्होंने एक जगह लिखा कि सुन्दर चेहरे वालों को ही दुनिया पर राज करना चाहिए। सदनों में सुन्दर चेहरे रहेंगे तो दर्शक सदन की कार्यवाही देखने में ज़्यादा दिलचस्पी लेंगे। सदन में सदस्यों की उपस्थिति भी सुधरेगी। हम जो कर रहे हैं समझ बूझ के कर रहे हैं। ज़्यादा टाँग अड़ाने की कोशिश न करें। हमको इनडिसिप्लिन की बातें पसंद नहीं हैं।’

उम्मीदवार अश्रुपूरित नयनों के साथ विदा हुए।

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆सांप कौन मारेगा? ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

☆ सांप कौन मारेगा ?☆

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  ने बड़ी  दुविधा में डाल दिया।  एक तो “बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा?” इस मुहावरे से परेशान थे  और  अब पाण्डेय जी  ने ये मुहावरा  कि “साँप  कौन मारेगा?” बता कर डरा  दिया।  यहाँ तो कई लोगों की जान पर आ पड़ी है। लो, अब आप ही तय करो कि साँप कौन मारेगा?”

विक्रम और बेताल पहले जैसे अब नहीं रहे। जमाना बदला तो जमाने के साथ वे दोनों बदल गए। झूठ झटके का सहारा लेकर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते। बात बात में चौकीदार और चोर पर बहस करने लगते। चौकीदार की गलती से एक बैंक में सांप घुस गया। चौकीदार गेट पर बैठकर ऊंघता रहा और एक छै – सात फुट का जहरीला काला नाग धीरे से बैंक के अंदर घुस गया। हडकंम्प मच गया। उसी समय बैंक के बाहर से विक्रम और बेताल गुजर रहे थे। भगदड़ मची हुई थी तभी विक्रम ने बेताल से पूछा – बताओ बेताल… यदि किसी बैंक में सांप निकल आये, तो सांप मारने की ड्यूटी किसकी है ?

बेताल प्रश्न को सुनकर दंग रह गया फिर बहस करने लगा कि जब पिछली बार बैंक में माल्या और नीरव जैसे कई लोग घुस कर तीस पेतींस करोड़ ले उड़े थे तब तो ये प्रश्न नहीं पूछा था अब बेचारा सांप घुस गया है तो टाइम पास करने के लिए नाहक में हमसे आंखन देखी सुनना चाह रहे हो। विक्रम नाराज हो गया तब बेताल थोड़ी देर सोचता रहा फिर याद आया तो अपनी पुरानी शैली में बताने लगा – देखो भाई…… एक बार हम एक बैंक घूमने गए रहे, चौकीदार से कुछ पूछा तो उसने दाढ़ी में हाथ फेरते हुए हाथ मटका कर आगे तरफ ऊंगली दिखा दी। आगे बढ़े तो काऊंटर की मेडम ने हमें बिना देखे आगे जाने को कहा, फिर आगे वाले से पूछा तो उसने ईशारे से आगे तरफ के लिए ऊंगली दिखा दी। आगे गए तो वहां बाथरूम था सोचा चलो इत्मीनान से धार मारके एक काम निपटा दें। सब हाथ मटका कर ऊंगली दिखाते रहे और कोई काम बना नहीं। बाहर निकलने लगे तो चौकीदार प्रधानमंत्री स्टाइल में चौकीदार की खूबियों पर भाषण दे रहा था और भाषण सुनते सुनते एक सांप धीरे से घुसकर एकाउंटेंट की टेबिल के सामने फन काढ़कर खड़ा हो गया। बैंक में हड़कंप मच गया। कैश आफीसर और काउंटर वाले कैश खुला छोड़कर आनन फानन बैंक के बाहर भागने लगे। ग्राहक सांप – सांप चिल्ला कर भागे। बड़े बाबू और चौकीदार खिड़की से मजे ले लेकर झांकने लगे। अंदर फन फैलाए सांप और डरावना सन्नाटा……..

ब्रांच मैनेजर को सन्नाटे की हवा लगी तो वह कुर्सी में बैठा बैठा सन्न रह गया, उसने आव देखा न ताव इमर्जेंसी बेल बजाना चालू कर दिया। कोई असर नहीं हुआ कोई नहीं आया तो वह भी कुर्सी पटक कर जान बचाने बाहर भागा। बाहर भीड़ में सांप और खतरनाक सांप के किस्से कहानियां रहस्य और रोमांच से कहे और सुने जा रहे थे। जैसे ही ब्रांच मैनेजर बाहर पहुंचा कुछ बिना रीढ़ वाले लोग चमचागिरी के अंदाज में बोले – सॉरी सर… आपको खबर नहीं कर पाए कि ब्रांच में सांप…………

चौकीदार ने खिड़की से झांक कर ब्रांच मैनेजर को बताया कि एक काला जहरीला नाग फन काढ़कर अपने एकाउंटेंट के सामने खड़ा है, एकाउंटेंट अपनी कुर्सी में ‘काटो तो खून नहीं’ की मुद्रा में डटे हुए हैं।

समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए छोटी जगह थी यहां कोई सांप पकड़ने वाला भी नहीं था। वन विभाग के कुछ कर्मचारियों ने बताया कि सांप को मारने से आपके ऊपर जे और जे धारा लग जाएंगी। बहुत देर से सोचा -विचारी चल रही थी और खतरनाक सांपों के नये नये दिलचस्प किस्सों में सब व्यस्त थे बेचारे एकाउंटेंट की कोई बात ही नहीं कर रहा था। बहुत देर हो गई तो पुराना बदला निकालने का मौका पाकर नेता टाइप के बड़े बाबू ने खीसें निपोरते हुए एक जुमला फेंका। बोला – साब, सांप को मारने का प्रबंध किया जाए….. बहुत काम पड़ा है और जल्दी जाना भी है क्योंकि आज की चुनावी सभा में चौकीदार साहब का भाषण भी सुनना है। बड़े बाबू के व्यंग्यगात्मक जुमले को सुनकर सब हें हें करने लगे तो ब्रांच मैनेजर ने गुस्से में आकर बड़े बाबू को आदेश दिया कि वो जल्दी से जल्दी सांप मारके बाहर लाये। कर्मचारी संघ के नेताओं के कान खड़े हो गए, सब आपस में एक दूसरे को देखने लगे, पीछे से आवाज आई सांप मारना एकाउंटेंट की ड्यूटी में आता है। अधिकारी संघ के नेता ने सुना तो उसने एकाउंटेंट का बचाव करते हुए बैंक का सर्कुलर का संदर्भ दे दिया कि बैंक का इनीसियल वर्क करना अधिकारी की ड्यूटी में नहीं आता सांप जब मर जाएगा तो अलटा पलटा के उसके मरने की घोषणा ब्रांच मैनेजर करके  सांप मारने का श्रेय वो चाहे तो ले सकता है। टेंशन बढ़ रहा था और मामला यूनियनबाजी का रूप ले रहा था और उधर सांप और एकाउंटेंट आपस में एक दूसरे पर नजर गढ़ाए राजनैतिक हथकंडों की बात सुन रहे थे।

मामला बिगड़ता देख ब्रांच मैनेजर रूआंसा हो गया था। उसने रीजनल आफिस को फोन लगाकर बताया कि बैंक में जहरीला नाग घुस गया है, ये छोटी जगह है यहां सांप मारने वाला कोई नहीं है और वन विभाग के कुछ लोग सांप मारने पर लगने वाली खतरनाक धाराओं पर चर्चा कर रहे हैं।

पहले तो रीजनल मैनेजर ने ब्रांच मैनेजर की हंसी उड़ाई कहने लगा – डिपाजिट लाने की कोई कोशिश करते नहीं हो अब सांप आ गया तो उससे भी नहीं निपट सकते। सांप का ब्रांच में घुसना यह संकेत है कि कोई बड़ा डिपाजिट तुम्हारे यहां आने वाला है। सांप की पूजा करो दूध – ऊध पिलाओ, अगरबत्ती लगाओ…… और ये बताओ कि तुम्हारे रहते ये सांप ने घुसने की हिम्मत कैसे कर ली। किसी बात पर कंट्रोल नहीं है तुम्हारा….. तुम्हारा चौकीदार क्या कर रहा था चौकीदार के रहते सांप बिना पूछे कैसे घुस गया। ये चौकीदारों ने ही मिलकर बैकों को लुटवा दिया। तीस चालीस करोड़ लेकर भाग गए।ऐसे समय ये चौकीदार लोग आंख बंद कर लेते हैं। सांप के बारे में ठीक से पता करो कहीं वो रूप बदल कर तो नहीं आया है। चौकीदार का तुरंत एक्सपलेशन काल करो तुरंत मेमो दे दो, और सुनो तुम्हारे यहां का चौकीदार के बारे में बताओ…….

… सर, हमारा चौकीदार एक नंबर का झटकेबाज है चुपके से चोरी भी करवा देता है और हर ग्राहक को अपने हाथ में चौकीदार लिखने की सलाह देता है। हमारा चौकीदार कहता है कि हर आदमी के अंदर एक चौकीदार रहता है और हर व्यक्ति कभी तन से कभी मन से चोरी करता है।

सर जी, चौकीदार सांप को मारने पर राजनीति कर रहा है सबको सांप मारने की ड्यूटी बता रहा है और सांप को मजाक बना लिया है।

-सूनो ब्रांच मैनेजर.. यदि सांप मारने कोई तैयार नहीं है,  तो तुम सांप को मारो और कन्फर्म करो।

सर जी, सांप को मैं कैसे मार सकता हूं मैं तो यहाँ का ब्रांच मैनेजर हूं। ब्रांच मैनेजर सांप मरेगा तो बैंक की चारों तरफ छबि खराब हो जाएगी और वन विभाग वाले मुझ पर धाराएं लगाकर मेरी नौकरी चाट लेंगे।

तो ठीक है ब्रांच मैनेजर….

जांच कमेटी बना कर जांच करायी जाए कि सांप को घुसेड़ने में किसकी राजनीति है। जांच रिपोर्ट लेकर एक घंटे में किसी को रीजनल आफिस भेजा जाए।

जी सर।

ब्रांच मैनेजर ने रीजनल मैनेजर से हुई चर्चा को सब स्टाफ को बताया और रिपोर्ट लेकर कौन रीजनल आफिस जाएगा इसके लिए सबसे पूछताछ की। ब्रांच मैनेजर ने सबके सामने खड़े होकर पूछा कि जो भी स्टाफ बैंक खर्चे से तुरंत रीजनल आफिस जाना चाहता है वो अपना हाथ हाथ उठाए…..

ब्रांच मैनेजर और ग्राहक देखकर दंग रह गए कि एकाउंटेंट की कोई चिंता नहीं कर रहा और बैंक खर्च पर सब शहर जाना चाह रहे हैं।

तब विक्रम ने बेताल से पूछा – क्यों बेताल सभी ने तुरंत अपने अपने हाथ क्यों उठा दिये?

तब बेताल ने बताया कि बैंक का रीजनल आफिस पास के शहर में था और हर स्टाफ शहर जाकर अपने व्यक्तिगत कार्य निपटाना चाहता था तो बैंक खर्चे पर टीए डीए बनाने का मोह सबके अंदर पैदा हो गया।

फिर विक्रम ने बेताल से पूछा – फिर आखिर रीजनल आफिस कौन गया ?

बेताल ने बताया कि सबको तो भेजा नहीं जा सकता था जिसका हाथ नहीं उठा था वहीं जाने का हकदार था। इसलिए ब्रांच मैनेजर के सिवाय कौन जाता उसके भी बाल बच्चे बीबी शहर में रहते हैं और उनके सब्जी भाजी का भी इन्तजाम करना जरूरी था।

विक्रम ने  पूछा कि फिर सांप का क्या हुआ ?

सांप रीजनल आफिस के आदेश के इंतजार में अभी भी खड़ा है और एकाउंटेंट मूर्छित होकर कुर्सी पर लटक गया है। बाहर चौकीदार चौकन्ना खड़ा पब्लिक से पूछ रहा हैकि इस बार किसकी सरकार बनेगी…

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सवाल एक – जवाब अनेक – 4 – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जवाब अनेक (4)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  चौथा उत्तर  दैनिक विजय दर्पण टाइम्स , मेरठ से कार्यकारी संपादक श्री संतराम पाण्डेय जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

मेरठ से श्री संतराम पाण्डेय जी  ___4  

(श्री  संतराम पाण्डेय जी मेरठ से दैनिक  विजय दर्पण टाइम्स के कार्यकारी संपादक हैं।) 

सवाल-आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज   के घोड़े की आंख है या लगाम?

-संतराम पाण्डेय-

मूल प्रश्न पर आने से पहले हम एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। लेखक है क्या? वह क्या कर सकता है? इसका जवाब यही है कि लेखक में बहुत शक्ति है। वह कुछ भी कर सकता है।

संत तुलसीदास का कार्यकाल (1511-1623 ई.) ऐसा समय था, जब भारतीय समाज भटका हुआ था। इतिहास की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि उस वक्त देश में लोदी वंश, सूरी वंश, मुगल वंश (1526 से लेकर 1857 तक, जब मुगल वंश का शासन समाप्त हुआ) का शासन था। भारतीय समाज बिखरा हुआ था। उसमें एक डर बसा हुआ था। वह खुलकर अपनी बात भी नहीं कह सकता था। ऐसे वक्त में उसे कोई राह दिखाने वाला भी नहीं था। तब संत तुलसीदास का जन्म हुआ। संत बनने के बाद निश्चित रूप से उन्होंने समाज की दयनीय हालत को देखा होगा। लेकिन, एक संत क्या कर सकता था। वह किसी से न तो खुद लड़ सकता था और न ही किसी को लडने की सलाह दे सकता था। ऐसे में उन्हें यह समझ में आया होगा कि इस वक्त भारतीय समाज को एक सूत्र में बांधने और उसके मन से डर निकालने की जरूरत है और उसी वक्त उनके द्वारा राम चरित मानस की रचना की गई। भारतीय समाज उसमें रच बस गया। वह कहीं एकत्र होता तो अपनी गुलामी की बात न करके राम के प्रति भक्ति की बात करता। उन्होंने समाज को एक दिशा दी। समाज बदलने लगा था।

आते हैं लेखक के समाज के घोडे की आंख होने या लगाम होने की। एक लेखक निश्चित रूप से समाज के घोड़े की आंख है। शर्त यही है कि उसका लक्ष्य तय हो। समाज के घोड़े की आंख। यानी, घोड़े की आंख आजाद नहीं होती। इच्छा यही रहती है कि वह उतना ही देखे, जितना समाज चाहे। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि समाज की जरूरत के हिसाब से ही घोड़ा देखे। घोड़े की आंख की प्रकृति यह है कि उसकी दृष्टि का दायरा लगभग 180 डिग्री तक है। इसलिए घोड़े की दृष्टि में आसपास का क्षेत्र और कुछ हद तक पीछे का भी रहता है। ऐसे में घोड़ा बहुत कुछ देखता है। इसलिए उसके भटकने की संभावना ज्यादा रहती है। बहुत कुछ देखकर घोड़ा बिदक जाता है और इससे नुकसान की गुंजाइश बन ही जाती है।

घोड़ा तो घोड़ा है। लेखक में घोड़े की प्रकृति तो है लेकिन वह आत्मनियन्ता है। उसमें स्वयं को नियंत्रित करने की क्षमता होती है, घोड़े में नहीं। जिस लेखक में स्वयं को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं होती, उसके भटकने की प्रबल संभावना रहती है और समाज को नुकसान पहुंचाने का कारण बन जाता है। इसलिये यह कहना उपयुक्त है कि लेखक सशर्त समाज के घोड़े की आंख है।

अब लगाम की बात करते हैं। एक लेखक अपनी लेखनी से समाज की दिशा तय करने की सामथ्र्य रखता है। वह समाज को नियंत्रित भी करता है। समाज को भटकने से बचाता भी है। जैसे कि संत तुलसीदास ने अपने समय में समाज को भटकने से बचाया। क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम? तो माकूल जवाब मेरी नजर में यही है कि एक आदर्श लेखक समाज के घोड़े की आंख भी है और लगाम भी।

आज के संदर्भ की बात करते है तो पाते है कि कुछ लेखक न तो समाज के घोड़े की आंख ही बन पा रहे है और न ही लगाम। वह न घर के हो रहे हैं और न ही घाट के। स्वार्थ ने ऐसे लेखकों को भटका दिया है। इसके बावजूद अधिकांश लेखक ऐसे हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से समझौता नहीं किया और वह समाज के घोड़े की आंख भी बने और लगाम भी। घोड़े की आंख पर चश्मा बांधकर उसकी दृष्टि के दायरे को 30 डिग्री तक सीमित किया जा सकता है लेकिन एक लेखक की दृष्टि के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता। उसकी आंख पर पट्टी नहीं बंधी जा सकती। वह सब कुछ देखता है और विषम परिस्थितियों में भी वह अपने भटकने की संभावना को स्वयं ही खारिज कर देता है। समाज हित में भी यही है कि एक लेखक समाज की आंख का घोड़ा भी बना रहे और लगाम भी।

बता दें कि इंसानी जीवन में घोड़े का इस्तेमाल इंसान अपने फायदे के लिए करता आया है और लेखक का भी इस्तेमाल समाज हित में ही हुआ है। वर्तमान संदर्भ में लेखक बहु उद्देशीय बन गया है। वह बहुत कुछ एक साथ करना चाहता है और देखना चाहता है। ऐसे में वह भटकाव का शिकार भी हुआ है। इससे बचने की जरूरत है। जरूरत यह भी है कि लेखक समाज के घोड़े की आंख भी बना रहे और लगाम भी।

 

-संतराम पाण्डेय

कार्यकारी संपादक, दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ

मो. 9412702596, 8218779805

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सवाल एक – जबाब अनेक – 2 – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जबाब अनेक (2 एवं  3)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का  एक प्रश्न के विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  दूसरा उत्तर लखनऊ से विख्यात व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक श्री अलंकार रस्तोगी जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

लखनऊ से श्री अलंकार रस्तोगी जी  ___2 

(श्री अलंकार रस्तोगी जी लखनऊ से प्रसिद्ध कवि, व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक हैं।) 

इस सवाल पर मेरी यह नितांत व्यक्तिगत राय है और इससे सहमत होना कतई आवश्यक नही है। भाई मुझे तो ऐसा लगता है कि लेखक एक समाज के लिए लगाम की तरह नही बल्कि उस कसी हुई लगाम की तरह होता है जैसी लगाम राणा प्रताप के घोड़े के लगी हुई थी। बस पुतली फिरी नही कि  चेतक मुड़ जाता था। विशेषकर एक व्यंग्यकार के पास तो समाज मे विसंगतियां देखकर उसे सही दिशा देने की लगाम तो होती ही है। अगर वह लगाम बनता है तो उसे आंखे बनने की ज़रूरत ही नही है क्योंकि आँखे भले ही गलत देखें लेकिन कसी हुई लगाम उसे अपने मार्ग से विचलित नही होने देती है। एक लेखक के पास वह शक्ति और ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने हर शब्द से समाज के अंदर वह वांछित परिवर्तन ला सके जिससे समाज अपने अपने कुत्सित स्वरूप से अवगत भी हो और उसमें सुधार भी ला सके।

  • अलंकार रस्तोगी, व्यंग्यकार लखनऊ


सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

सवाल एक, जबाब अनेक : ब्रजेश कानूनगो __ 3 

(श्री ब्रजेश कानूनगो जी  25 सितंबर 1957 को  देवास  जन्मे सेवानिवृत्त बैंकर हैं। आपका साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकों में  व्यंग्य संग्रह – पुनः पधारें, सूत्रों के हवाले से, मेथी की भाजी और लोकतंत्र। कविता संग्रह- धूल और धुंएँ के पर्दे में,इस गणराज्य में,चिड़िया का सितार, कोहरे में सुबह।  कहानी संग्रह – ‘रिंगटोन’। बाल कथाएं- ‘फूल शुभकामनाओं के।’ बाल गीत- ‘ चांद की सेहत’। उपन्यास- ‘डेबिट क्रेडिट’ एवं  आलोचना (साहित्यिक नोट्स) – ‘अनुगमन’ हैं ।

संप्रति: इंदौर से सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।)

प्रश्न – आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

उत्तर – –

जहां तक इस सवाल की बनावट की बात है वह कुछ इस तरह होना चाहिए कि ‘ क्या लेखक वर्तमान दौर में समाज की आंख है या लगाम?

मेरा मानना है कि समाज लोगों, प्रकृति,पर्यावरण,जीव जंतु,पशु पक्षी सबको शामिल करके बनता है। यदि इसमें मनुष्य शामिल है तो वहां केवल आंख और लगाम का जिक्र करके मुद्दे को सीमित नहीं किया जा सकता। पूरे समाज को हम मात्र एक घोड़ा नहीं मान सकते। समाज का एक व्यापक स्वरूप, रीति नीति और मस्तिष्क के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की क्षमता का होना भी स्वीकार करना होगा।

घोड़े की आंखों के आसपास यदि तांगा मालिक पट्टियां लगाकर केवल एक दिशा में देखने को बाध्य कर देता है तो ऐसा किसी सच्चे लेखक के साथ करना लगभग असंभव होगा। इसी तरह केवल लेखक के हाथ में ही समाज की लगाम नहीं होती।अनेक बल और घटक होते हैं जिससे समाज की रीति नीति तय होती है। सरकारों और सत्ताधारियों की लोक कल्याणकारी नीतियों और विचारधारा की भूमिका भी बहुत कुछ भविष्य की दिशा तय करती है। एक समय राष्ट्रीयकरण को विकास और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता है तो आगे ‘निजीकरण’ में विकास के रास्ते खोजे जाने लगते हैं।यह एक महज उदाहरण है। ऐसी अनेक बाते होती हैं जो समाज को दिशा देती हैं।

जहां तक इस काम में एक सजग लेखक की भूमिका का सवाल है उसका काम लोगों के  हित में समाज में मौजूद विषमताओं, असमानताओं, साधन,सुविधाओं के समान वितरण की विसंगतियों की ओर इशारा करना होता है ताकि उन पर नीति निर्माताओं और कार्यान्वयन के जिम्मेदारों का ध्यान आकर्षित हो। मेरा यह भी मानना है कि लेखक की भूमिका सदैव सत्ता और सरकार के विपक्ष की तरह होना चाहिए चाहे सत्ता में उसके प्रिय और उसकी अपनी विचारधारा के लोग ही क्यों न बैठे हों।उसकी जिम्मेदारी सत्ता से ज्यादा जनता के दुख दर्दों के साथ होना चाहिए।

गंदे पानी में दो बूंद फिटकरी पानी को शुद्ध करने का काम करने का प्रयास करती है, समाज में सच्चे और ईमानदार लेखक की भी लगभग यही भूमिका होती है। वर्तमान समय में लेखक को तांगे में जुटे घोड़े में बदलने के प्रयास दिखाई देते हैं उससे सचेत रहने की जरूरत है। किसी भी गणराज्य में समाज की लगाम तो अंततः संविधान और जनता के हाथों में होती है। इसमें विचलन तो कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।

  • श्री ब्रजेश कानूनगो

(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

 

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