हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * ए.टी.एम. में प्रेम * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

ए.टी.एम. में प्रेम

(e-abhivyakti में सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का स्वागत है।) 

जब ए.टी.एम. नहीं थे तब सबको एक तारीख का इंतजार रहता था, भले यह इंतजार  से 2 तारीख से चालू हो जाता था। यह इंतजार सुनहरे सपनों की तरह था जो महीना भर साथ रहता था। मर्दों को एक तारीख का बहाना मिल जाता ‘‘घबड़ाओ नहीं एक तारीख को तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा। इस इंतजार में शेष समय शांति से बीत जाता। बच्चे भी खुश  और उनकी मां भी खुश । एक तारीख से हफ़्ते भर पहले पत्नी के उलझे बाल संवरने लगते। चेहरे पर रंग-रोगन की चमक आ जाती।  शाम को पत्नी सज-संवरकर तीखी मुस्कान से स्वागत करती। यह सिलसिला हफ़्ता भर चलता। इन दिनों सूखे में भी हरियाली रहती और पति भी चाहता था कि एक तारीख को सारी मांग पूरी कर दे। यह नाटक सिर्फ आखिरी दिनों में ही करना पड़ता और आखिरी दिनों में गीले आटे से सने हाथ, उलझी जुल्फों के साथ ओरिजनल साफ-सुथरी षकल दिखती। एक तारीख तो खास होती, उस दिन सोला टका नगद तनख्वाह मिलती, न कोई झंझट न कोई लफड़ा। ये भारतीय परिवार के अच्छे दिन थे। यह भी अधिक दिन नहीं चल पाया।

एक दिन सरकारी फरमान आ गया, आप लोगों का वेतन आपके खाते में डाल दिया जायेगा। जिस दिन से पत्नियों ने बैंक वाला फरमान सुना तबसे वे जरूरत  के समय ही समर्पित और शेष दिन अपनी मर्जी की जि़्न्दगी जीतीं। बैंक के भी मजे थे, नया-नया खाता था। पासबुक शानदार कवर चढ़ाकर रखते थे। बच्चे पासबुक को बड़ी ललक भरी नज़रों से देखते थे। उनकी इच्छा होती कि उसे स्पर्श कर लें, पर तुरन्त डांट पड़ जाती – यह गंदी हो जायेगी, यह बहुत कीमती चीज़ है। पत्नी को तो पासबुक दिखाते ही नहीं। अगर वह कहती – अपनी पासबुक दिखाओ। तब हम उसे टरका देते – तुम्हारे हाथ गंदे हैं, खराब हो जायेगी या अभी समय नहीं है, बाद में देख लेना। कुछ इसी तरह के बहाने बना देते और उसे पासबुक से दूर रखते। पढ़ी-लिखी पत्नियों के खतरे अधिक हैं और फायदे कम, वे पैसे के मामले में समझदार अधिक होती हैं, पासबुक में जमा राशि  पर उनकी नज़र  रहती है, अतः सावधान रहना पड़ता है।

बैंक से पैसे निकालने के हमने अनेक तरीके ईजाद  किये। जिस दिन पैसा निकालने बैंक जाते, उस दिन हमारी खास सेवा- सुश्रुशा होती। खाली चाय नहीं, साथ में तगड़ा नाश्ता भी होता। हमको सजा-संवरा देख मोहल्ले वाले टोक देते – ‘‘गुप्ता जी बैंक जा रहे हो!’’ जाने के पहले हम चैकबुक निकालते, बच्चों को दिखाते, देखो इसे चेक कहते हैं। इस कागज के टुकड़े पर बैंक वाला हमें पैसे दे देगा। चेक को बुक से सावधानी से अलग करते, दो-चार बार उलटते-पलटते, फिर पत्नी से पूछते – ‘‘कितना लाना है।’’ वह जितना बताती उससे अधिक पैसा निकालते, शेष अपनी जेब में और बाकी से थमा देते। चेक में रकम भरते, अंकों में लिखते और दस्तखत करने के पूर्व दो चार बार बारीकी से चैक करते – यदि स्कूल और काॅलेज की परीक्षाओं में कापी जमा करने के पहले इतनी बारीकी से चैक करते तो शायद अपनी इस स्थिति का मलाल न रहता – तब दस्तख़त करते, फिर अपने ही दस्तख़त पर मंत्र-मुग्ध होते – ‘‘क्या शानदार हैं, क्या पाॅवर है हमारे दस्तख़तों में।’’ बैंक जाते, दो-चार लोगों से मेल मुलाकात करते – ‘‘देखो हमारा भी बैंक में खाता है, या हम भी बैंक वाले हैं। उसका रुआब ही अलग होता। पहले बैंक में खाता होना एक स्टेटस था। पर आज बैंक से लोन लेना स्टेटस होता है। लोग शान से बताते हैं – ‘हमने फलाने बैंक से इतना लोन लिया है। हमारी इतनी लिमिट हो गयी है। खाते में बिना पैसे के इस लिमिट तक पैसा निकाल सकते हैं। क्या उधार लेना सम्मान की बात हो गयी है? कि लोन लो और वापिस मत करो। लोन लो, भूल जाओ। टेंशन मत लो। फिर तो बैंक का टेंशन हो जाता है, आपका टेंशन, बैंक का टेंशन । आप टेंशन-मुक्त।

खैर दिन गुजरने लगे। चैक से पैसे निकलते रहे। फिर एक दिन एक दिन एक दुर्घटना घटी एक दिन बैंक से पैसे निकालने गये कि बाबू ने फार्म पकड़ा दिया और कहा – ‘‘बस नीचे सुन्दर हस्ताक्षर कर दो, शेष  फाॅर्म हम भर देंगे। अब अगले महीने से हमारे पास पैसे लेने मत आना। आपके पास एक कार्ड आएगा, जिससे बाहर लगी मशीन से ज़रूरत  के मुताबिक पैसा निकाला जा सकता है। हमने कहा – ‘‘मशीन से कैसे पैसा निकालेंगे।’’ तब उसने कहा – ‘‘आप कार्ड लेते आना, हम तरीका समझा देंगे।‘‘ एक दिन कार्ड आ गया, जिसे लेकर हम बैंक पहुंचे और बाबू से कहा, अब बताओ इससे कैसे निकलेगा पैसा? उसने पैसा निकालने का तरीका समझाया, जो आसान था। एक मित्र ने बताया, इसे मात्र कार्ड भर न समझो, यह लक्ष्मी है, लक्ष्मी! इसे संभाल कर रखो। तब से हम उसे पूजते, एहतियात बरतते और पत्नी-बच्चों से बचाकर लाॅकर में रखते।

इस तरह जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी कि एक दिन नोटबंदी की घोषणा हो गयी। मशीन ने नोट उगलना बंद कर दिया। अब स्थिति यह हो गयी कि बैंक और मशीनों में ‘नोट देने रुकावट के लिए खेद’ का बोर्ड लगा दिया गया। बैंक के सामने लंबी लाइन लग गईं। अब अख़बारों में समाचार और विज्ञापन छपेंगे कि फलानी जगह का फलाना एटीएम बंद है, अतः आप कष्ट  न करें। इससे एटीएम का नये ढंग से उपयोग होने लगा।

अब अपना पैसा भी लाईन में लगकर लो। बैंक वाला तो, ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।’ अपना पैसा लो और अपमान ब्याज में, मन चाहा पैसा भी नहीं ले सकते हैं। जितना मशीन कहेगी, उतना ही मिलेगा, वह भी जेन्टलमेन की भांति कतार में लगकर। अब मशीन भी धोखा दे देती, उसका पूरा आदेश का  पालन करो, फिर अंत में कह देती है, पैसा नहीं है, कष्ट के लिए खेद है। कभी-कभी तो यह स्थिति आई कि गार्ड बाहर से ही टरका देता। हम एक दिन पड़ौस के एटीएम पहुंचे, बाहर गार्ड साहब ने दूर से ही रोका, ‘बाबूजी मशीन में रुपया नहीं है।‘ हमने कहा, ‘कोई बात नहीं, अपना बेलेंस पता कर लेंगे।’

– उससे क्या फायदा?

– अपना जमा पैसा मालूम हो जायेगा।

– कोई फायदा नहीं मशीन बंद है।

अंदर से कुछ खटपट की आवाज़ आ रही थी। हमारा संवाद सुन एक युवा जोड़ा लगभग चिपका हुआ बाहर निकला। दोनों हाथों में हाथ डाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये।

मैंने पूछा – यह क्या है?

गार्ड ने कहा – प्रेम…!

– प्रेम, मशीन में प्रेम, पर मशीन तो बंद है।

– सर, मशीन बंद है पर उसका ए.सी. चालू है। बहुत सुकून मिलता है उन्हें।

– और तुम क्या कर रहे हो?

– सर मशीन बंद है, तो हम भी पुण्य कमा रहे हैं।

© रमेश सैनी 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – *सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक  कस्बे   से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदान किए जाने वाले अवार्ड/ सम्मान /पुरस्कार  आदि  पर  एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

मुझे मेरे व्यंग्य की सचाई, निरंतरता, भाषा और कटाक्ष की क्षमता के लिये कोई भी बड़ी, छोटी साहित्यिक संस्था कभी भी शाल , श्रीफल ,स्मृति चिन्ह व सम्मान पत्र और हो सके तो कुछ नगदी से सम्मानित कर सकती है. इससे उस संस्था और पुरस्कार का ही गौरव बढ़ेगा. मैं तो जैसा लिख रहा हूं, छप रहा हूं, लिखता छपता ही रहूंगा. सच को सच कहना गर्व का विषय ही होता है. ग्राम पीपरीकंला, पोस्ट आफिस झुंझनी की विश्व साहित्य विकास परिषद ने पोस्टकार्ड लिखकर मुझे सूचित किया है कि वे मात्र १००० रुपये सदस्यता शुल्क जमा करने पर मुझे व्यंग्य सम्राट के खिताब  से अलंकृत करना चाहते हैं, जिसके लिये मेरा चयन संस्था की विद्वत समिति कर चुकी है.

हमारा परिवार लेखकीय परिवार है. हमारा नाम, पता, ईमेल और फोन नम्बर तक हमारी रचनाओ के साथ सार्वजनिक है. मतलब उतनी  जानकारी जितनी के लिये आधार कार्ड या फेसबुक की गोपनीयता नीति पर अदालतो में जिरह हुये हम यूं ही सार्वजनिक किये बैठे हैं. इसके चलते मेरी पत्नी को भी इंटरनेशनल बायोग्राफिक इंस्टीट्यूट, मिशिगन से “वूमन आफ द ईयर” अवार्ड के आफर महज १०० डालर में, लेदर कवर हार्ड बाउंड बुक में फोटो सहित परिचय प्रकाशन के साथ घर बैठे आ चुके हैं, किताब की एक प्रति के साथ में मेटल इम्बोस्ड मेडल भी पंजीकृत डाक से मिलना था. पर चूंकि मैं तो अपनी पत्नी को पहले ही “वुमन आफ सेंचुरी” के सम्मान से सम्मानित कर चुका था अतः उसने विनम्रता पूर्वक यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ठुकरा दिया. भले ही हम इस तरह के पुरस्कारो के लिये स्वयं को सर्वथा अयोग्य पाते रहे हैं, पर मेरे शहर के अनेक स्वनाम धन्य रचनाकारो के ऐसे पुरस्कारो से सम्मानित होने के फोटो सहित बाक्स न्यूज अखबार के सिटी पेज पर पढ़कर उन्हें बधाई देने के अवसर हमें जब तब मिलते रहते हैं. ये अवार्ड उनके बायोडाटा को और लम्बा कर देते हैं, साथ ही अगले अवार्ड के लिये पृष्ठभूमि भी बना देते हैं.

मुझे ज्ञात हुआ है कि सूरज को उसकी निरंतरता, ओजस्विता, ताप, प्रकाश और इन दिनो नान कंवेशनल इनर्जी में सोलर लाइट्स के क्षेत्र में प्रयुक्त होने पर मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड घोषित किया गया है.

जिस तरह इन दिनो  अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप साहब पर व्यंग्य हो रहे हैं, हमारे व्यंग्यकारो ने भी उन पर व्यंग्य उपन्यास लिखने की पहल की है,  मैं सोच रहा हूं मित्रो से चर्चा करूंगा कि व्यंग्यकार एसोशियेशन की ओर से सम्माननीय राष्ट्रपति ट्रंप साहब के नाम पहला अंतर्राष्ट्रीय लालू व्यंग्य पर्सनेलिटी अवार्ड घोषित करवा ही दूं  . इससे देश के वैश्विक सांस्कृतिक संबंध सुढ़ृड़ करने में व्यंग्य की  भूमिका का भी निर्वहन हो सकेगा. यदि यह पुरस्कार देने के लिये अमेरिका के स्थानीय एड्रेस की जरूरत होगी तो मेरे पुत्र के न्यूयार्क  दफ्तर का पता दिया जा सकता है.  मित्रो के कई बच्चे इन दिनो अमेरिका में हैं, उनका प्रतिनिधि मण्डल व्हाईट हाउस पहुंचकर ससम्मान राष्ट्रपति जी को इस व्यंग्य सम्मान से अवार्डित कर सकेगा. मैं तो यहां से बैठे बैठे ही अपने पहले ट्वीट से ही उन्हें बधाई दे दूंगा. ये और बात है कि हमारे इस अवार्ड की वहां का विपक्ष और अखबार कितनी चर्चा करेंगे यह हम नही जानते.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – शहर में टहलने का आनन्द – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

शहर में टहलने का आनन्द

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का  एक बेहतरीन व्यंग्य। )

उस दिन डॉक्टर को दिखाने गया तो उन्होंने बड़ी देर तक ठोक-बजा कर देखा,फिर बोले, ‘आपने अपने इस लाड़ले शरीर को बैठे बैठे खूब खिलाया पिलाया है। अब कुछ टहलना-घूमना, हाथ-पाँव चलाना शुरू कर दीजिए, वरना किसी दिन बिना नोटिस दिये यमराज आपका जीव समेटने के लिए आ जाएंगे।’

मेरा फिलहाल दुनिया छोड़ने का मन नहीं था। अभी धंधा उठान पर चल रहा था।घर धन-धान्य से भर रहा था।पत्नी-संतानें प्रसन्न थीं।ऐसे में दुनिया छोड़ना घाटे का सौदा होगा।दुनिया तभी छोड़ना चाहिए जब धंधा मंदी की तरफ चलने लगे और पत्नी-संतानें सदैव मुँह फुलाये रहें।

डॉक्टर की बात से घबराकर मैंने सबेरे टहलने के लिए अपनी कमर कस ली।दूसरे दिन सबेरे उठकर दीर्घकाल बाद सूर्य भगवान के दर्शन किये, फिर यह देखने लगा कि मुहल्ले का कौन सरफिरा सबेरे सबेरे घूमने निकलता है ताकि एक से भले दो हो जाएं।जल्दी ही मुझे सामने बैरागी जी दिख गये। बैरागी जी की खूबी यह है कि वे चलते-फिरते अपने आप से ही बात करते रहते हैं।बात की रौ में उनका सिर, चेहरा और हाथ जुंबिश करते रहते हैं।मैंने सोचा इनके साथ घूमने जाऊंगा  तो ये कुछ देर के लिए अपने आप से बात करने से बच जाएंगे।बैरागी जी भी मेरे प्रस्ताव पर खासे खुश हुए।

लेकिन दो दिन में ही मुझे पता चल गया कि बैरागी जी की बेचैनी का राज़ क्या था।दरअसल वे सारे वक्त शेयरों के गुणा-भाग में लगे रहते थे।मुझे वे दो दिन तक बिना साँस लिए समझाते रहे कि कौन सा शेयर उठ रहा है, कौन सा गिर रहा है और किन शेयरों में पैसा लगाने से चाँदी ही चाँदी हो सकती है।उन्होंने यह भी बताया कि बीच में जब शेयरों के दाम ज़्यादा गिर गये थे तब सदमे के मारे उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था।

शेयरों की मुसलसल मार से दो दिन में ही मेरा दिमाग सुन्न हो गया और तीसरे दिन मैंने बैरागी जी को मरे-मरे स्वर में बता दिया कि तबियत ढीली होने के कारण मैं टहलने की स्थिति में नहीं हूँ।बैरागी जी तीन दिन तक बड़ी उम्मीद से मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते रहे ताकि शेयरों के बारे में मेरा कुछ और ज्ञानवर्धन कर सकें।फिर मायूस होकर उन्होंने आना बन्द कर दिया और शायद अपने आप से गुफ्तगू करना फिर शुरू कर दिया।

बैरागी जी के न आने का इत्मीनान करने के बाद मैं अकेला ही टहलने निकल पड़ा।ज़ाहिर है मैंने उन सड़कों का चुनाव किया जिन पर बैरागी जी से टकराने का अन्देशा नहीं था।

मैं लंबे कदम रखता, झपटता चल रहा था कि तभी मेरे बगल से तीन चार नौजवान टी शर्ट और हाफ-पैंट पहने ‘जागिंग’ करते हुए निकले।मुझे अच्छा लगा।मन में आया कि मैं भी थोड़ी दौड़ लगा लूँ, कि तभी जाने कहाँ से प्रकट होकर कुत्तों का एक पूरा कुनबा उन नौजवानों के पीछे पड़ गया।उन्होंने नौजवानों को पछियाना तभी बन्द किया जब उन्होंने दौड़ना बन्द कर दिया।मेरी समझ में आ गया कि शहर की सड़कों पर दौड़ना अक्लमंदी की बात नहीं है।

मेरे आगे एक सज्जन एक लंबे-चौड़े कुत्ते की ज़ंजीर थामे घिसटते हुए से चल रहे थे।अचानक कुत्ता बीच सड़क पर रुककर बड़ी शंका का निवारण करने लगा और उसके स्वामी मुँह उठाकर इत्मीनान से बादलों की खूबसूरती निहारने लगे।मुझे उनकी इस ग़ैरज़िम्मेदारी पर ख़ासा ग़ुस्सा आया।मन हुआ उन्हें दो चार बातें सुनाकर नागरिक के रूप में उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास कराऊँ,लेकिन कुत्ते की कद-काठी और उसकी ख़ूँख़्वार शक्ल देखने के बाद मैंने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।

आगे बढ़ा तो कई घरों की चारदीवारी के किनारे लगे फूलदार वृक्षों से फूल तोड़ते कई लोग दिखे।इनमें पुरुष स्त्री, बाल वृद्ध सभी थे।मकान-मालिक भीतर सो रहे थे और ये संभ्रांत लोग अवसर का लाभ उठाकर निःसंकोच फूलों पर हाथ साफ कर रहे थे।ऐसे ही एक पुष्पप्रेमी ने मुझे बताया था कि चोरी के फूलों से पूजा करने पर पूजा ज़्यादा फलदायक होती है।

थोड़ा आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे किनारे शहर का सुपरिचित नाला चलने लगा।यह नाला शहर की जीवन-रेखा है।यह शहर के वजूद में उसी तरह पैवस्त है जैसे आदमी के शरीर में रक्तवाहिनी नलिकाएं होती हैं।शहर में जहाँ भी जाइए, इसकी बहार दिखायी देती है।शहर की गन्दगी का वाहक यह नाला कई घरों के ऐन दरवाज़े से बहता है।इन घरों में लगातार इसकी सुगंध बसी रहती है और सदैव इसके जल का दर्शन-लाभ होता रहता है।

आगे सड़क एक पुल पर चढ़ जाती है, जिस पर घूमने वालों की गहमागहमी रहती है।घूमने के अलावा यहां और उद्देश्यों से भी लोग आते हैं।एक सज्जन नियमित रूप से पुल के फुटपाथ पर शीर्षासन करते हैं जिससे घूमनेवालों का बिना टिकट मनोरंजन होता है। कुछ लोग पी.टी.करने की शैली में फुटपाथ पर उछलते कूदते दिखते हैं।यहाँ बूढ़ों के कई गोल नियमित रूप से जमते हैं और देर तक जमे रहते हैं।मुझे यह भ्रम था कि ये बूढ़े परलोक और पाप-पुण्य की बातें करते होंगे, लेकिन यह मेरा मुग़ालता ही निकला।जब उनकी बातों पर कान दिया तो पता चला कि उन्हें परलोक के अलावा अनेक ग़म हैं।एक गोल में पेंशन पर मिलने वाले कम मंहगाई भत्ते का रोना रोया जा रहा था तो दूसरे में मियादी जमाओं पर घट गये ब्याज का स्यापा हो रहा था।एक और गोल एक ऐसी लड़की की चर्चा में मगन था जो पड़ोस के लड़के के साथ पलायन कर गयी थी।

इन दृश्यों से बचने के लिए मैंने दूसरे दिन पास के पार्क में घूमने की सोची, लेकिन वहां प्रवेश करने पर मेरा साक्षात्कार आदमियों के बजाय आराम फरमा रहे सुअरों और कुत्तों से हुआ, जिन्होंने मुझे नाराज़ नज़रों से देखा।वहाँ पालिथिन की इस्तेमाल की हुई थैलियाँ और बासा,सड़ता हुआ खाना सब तरफ बिखरा था और कुत्ते और सुअर दावत का मज़ा ले रहे थे।पता चला कि नगर का विकास प्राधिकरण उस पार्क को शादी-ब्याह के लिए किराये पर उठा देता था और फिर कई दिन तक यही दृश्य उपस्थित होता था।वहाँ की सफाई की ज़िम्मेदारी कुत्तों, सुअरों और कचरा बीनने वालों पर छोड़ दी गयी थी।

अगली सुबह फिर मैं पूरे उत्साह में ऐसी सड़क के अन्वेषण के लिए निकल पड़ा जहाँ कुत्ते आदमी को न पछयाते हों,सुअरों के दर्शन न होते हों और कुत्ता-स्वामी अपने ख़ूँख्वार कुत्तों को सड़क के बीच में फ़ारिग़ न कराते हों।

© डॉ कुन्दन सिंह परिहार

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – कोहरे की लफड़ेबाजी – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

कोहरे की लफड़ेबाजी 

(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का यह विचारणीय व्यंग्य)

गांव की सर्द कोहरे वाली सुबह में बाबू फूंक फूंक कर चाय पी रहा था और उधर गांव भर में हल्ला मच गया कि कोहरे के चक्कर में गंगू की बहू बदल गई। शादी के बाद बिदा हुई और चार रात बाद अब जाके शर्माते हुए गंगू ने ये बात अपने बाबू को बतायी। बाबू सुनके दंग रह गए बाबू को याद आया कोहरे के चक्कर में सब गाड़ियां बीस – बाईस घंटे लेट चल रहीं थीं कई रद्द हो गई थीं स्टेशन पर धकापेल भीड़ और आठ – दस बरातों के बराती…….
भड़भड़ा के गाड़ी आ गई थी तो जनरल बोगी में रेलमपेल भीड़ के रेले में घूंघट काढ़े तीन चार बहूएं भीड़ में फंस गई और गाड़ी चल दी, दौड़ कर गंगू बहू को पकड़ कर शौचालय के पास बैठा दिया और खुद बाबू के पास बैठ गया। चार स्टेशन के बाद गंगू की बारात उतर गई। क्या करे कोई यात्रियों और बारातियों की बेहिसाब भीड़…………
बाबू के काटो तो खून नहीं……. अपने आप को समझाया  । खैर, अब क्या किया जा सकता है भगवान तो जोड़ी बनाकर भेजता है। अग्नि को साक्षी मानकर फेरे हुए थे….. 14 वचन हुए थे, पर बदमाश कोहरा तुमने ये क्या कर दिया…. अब क्या हो सकता है चार रात भी गुजर गईं…. हार कर बाबू घूंघट और कोहरे की कलाबाजी को कोसता रहा। गांव वालों ने कहा बेचारा गंगू भोला भाला है शादी के पहले गंगू को लड़की दिखाई नहीं गई नाऊ और पंडित ने देखी रही अच्छा घर देखके जल्दबाजी में शादी हो गई, गंगू की गलती नहीं है गंगू की हंसी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। गंगू निर्दोष है।
थोड़ा सा कुहरा छटा तो सबने सलाह दी कि शहर के थाने में सारी बातें बता देनी उचित रहेगी सो बाबू गंगू को लेकर शहर तरफ चल दिए। थाने पहुंच कर सब हालचाल बताए तो पुलिस वाले ने गंगू को बहू चोरी के जुर्म में बंद कर दिया। बाबू ने ईमानदारी से बहुत सफाई दी कि कोहरे के कारण और सब ट्रेनों के लेट होने से ऐसा धोखा अनजाने में हुआ। उस समय कोहरा और ठंड इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। पुलिस वाला एक न माना कई धाराएं लगा दीं। बाबू बड़बड़ाया ईमानदारी का जमाना नहीं रह गया जे कोहरे ने अच्छी दिक्कत दे दी और नया लफड़ेबाजी में फंस गए ऊपर से कई लाख के सोना चांदी पहने असली बहू भी न जाने कहाँ चली गई।
कोहरे के कुहासे में एक सिपाही बाबू को एक किनारे ले जाकर जेब के सब पैसे छुड़ा लिये। बाबू को फिर से पूछताछ के लिए इस बार थानेदार ने अपने चेम्बर में बुलाया।
इस तरफ अंगीठी में आग तापते कई सिपाही बतखाव लगाए थे कोहरा और ठंड के साथ सरकार को गलिया रहे थे। कोहरे की मार से सैकड़ों ट्रेनों के लेट होने की चर्चा चल रही थी रेल वाले सुपर फास्ट का पैसा लेकर रेलगाड़ी पैदल जैसी चला रहे हैं हजारों बेरोजगार लड़के-लड़कियां इन्टरव्यू देने से चूक रहे थे शादी विवाह के मुहूर्त निकल रहे थे कोहरे से हजारों एक्सीडेंट से बहुत लोग मर रहे थे और थाने में ज्यादा केस आने से काम बढ़ रहा था…. बाबू चुपचाप खड़ा सुन रहा था और गंगू अंगीठी की आग देखकर रजाई की याद कर रहा था।   बाबू से नहीं रहा गया तो दहाड़ मार के रोने लगा…… एक सिपाही ने उठकर बाबू को दो डण्डे लगाए और चिल्ला कर बोला – कोहरे की मार से सूरज तक नहीं बच पा रहा है और तुम कोहरा का बहाना करके अपराध से बचना चाहते हो। अपराधी और निर्दोष का अभी सवाल नहीं है……. फंसता वही है जो मौके पर हाथ आ जाए और सीधी सी बात है कि ठंड में बड़े साहब को खुश करना जरूरी है। हमें तुम्हारी परेशानी से मतलब नहीं है हमें तो साहब की खुशी से मतलब है। बाबू कुकरते हुए चुपचाप बैठ गया।
शाम हो चुकी थी कोहरा और गहरा गया था, थानेदार मूंछों में ताव देकर खुश हो रहा था थानेदार ने सिपाही को आदेश दिया – भले रात को कितना कुहरा फैल जाए पर बहू को बयान देने के लिए बंगले में उपस्थित कराया जाय………..
कोहरा सिर्फ कोहरा नहीं होता, कोहरा जब किल्लत बन जाता है तो बहुत कुछ हो जाता है। बाबू कोहरे को लगातार कोसे जा रहा है और बड़बड़ाते हुए कह रहा है ये साला कोहरा तो हमारे लिए थानेदार बन गया। और थानेदार कोहरे और ठंड में रजाई के सपने देख रहा था बहू को बंगले में कोहरा और ठंड के साथ बुलवाने का बहाना कर रहा है। गरीबी का भगवान भी साथ नहीं देता ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता………..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – अब हम सब रिजर्व – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

अब हम सब रिजर्व

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

रिजर्वेशन से अपना पहला परिचय तब हुआ था जब हम बहुत छोटे थे और ट्रेन की टिकिट पुट्ठे की, सच्ची की टिकिट की तरह की छोटी सी टिकिट ही होती थी.  मेरे जैसे सहेजू बच्चे सफर के बाद उसका संग्रह किया करते थे. यात्रा की तारीख उस टिकिट पर पंच करके बिना स्याही के केवल इंप्रेशन से अंकित की जाती थी.  पहले टिकिट विंडो से खरीदी गई  फिर काले कोट वाले टी सी साहब को वह दिखाकर पापा ने बर्थ रिजर्व करवाई थी. और हम लोग बड़े ठाठ से आरक्षित डब्बे में अपनी आरक्षित सीट पर सफर के लिये बैठे थे. वैसे जब मेरी बड़ी भांजी छोटी  सी थी तो, उसे हर बच्चे की तरह नानी मामा के पास बहुत अच्छा लगता था, जब भी वह कोई शैतानी करती तो मेरी माँ  उसे डराने के लिये मुझसे कहती कि इसका रिजर्वेशन करवाओ, वापसी का स्वगत अर्थ समझ कर वह नन्ही परी सी बच्ची तुरंत हमारा कहना मान जाती थी.
अब इसका यह  अर्थ कतई न लगाया जावे कि कहना मनवाने के लिये रिजर्वेशन का प्रयोग देश के प्रबुद्ध मतदाताओ के साथ भी किया जा सकता है. गाड़ी में पैट्रोल रिजर्व में आ जाता है तो लाल बत्ती का इंडीकेटर ब्लिंक होने लगता है, या बहुत अधिक रिजर्व व्यक्तित्व के लोग आत्मकेंद्रित होते हैं, इस दृष्टि से भले ही रिजर्व का भावार्थ सकारात्मक न हो पर  रिजर्व सीट पर बैठने के ठाठ ही अलग हैं. मूवी जाने से पहले आनलाइन सीट रिजर्व करके कार्नर सीट पर पत्नी के साथ बैठ कर भुट्टे की लाई को पाप कार्न के रूप में मंहगें दामो पर खरीद कर खाने से फिल्म का आनंद बढ़ जाता है. जिसके प्रभाव से अगले दिन फिल्म के विषय में मित्रो के साथ बात करते हुये एक गंभीर क्रिटिक नजरिया अपने आप पैदा हो जाता है. डिनर के लिये रेस्ट्रां जाने से पहले यदि टेबिल बुक कर ली जाती है तो ए सी डायनिंग हाल में पहुंचने पर जिस अदा से सफेद वर्दी में सजा हुआ, कलगी वाला वेटर आपको इज्जत से बैठाता है, सर्विस चार्ज अपने आप वसूल हो जाता है. सीट रिजर्व होने की ही महिमा होती है कि हवाई जहाज में सुंदर परिचारिकायें मुस्करा कर दरवाजा छेंककर आपका ऐसा स्वागत करती हैं, जो शादी के बाद जूता चुराई के समय हसीन साली मण्डली द्वारा मनुहार भरे स्वागत की याद दिला देता है.
अपार्टमेंट के पार्किंग लाउंज में यदि आपके फ्लैट का नम्बर आपकी कार के लिये लिखा हो या आफिस की पार्किंग में डेजिगनेशन से पार्किंग स्पेस आरक्षित हो तो कभी भी आओ कार पार्क करने का ठाठ ही निराला होता है. कहने का अर्थ है कि रिजर्वेशन  मनोबल बढ़ाता  है, बड़प्पन का अहसास करवाता है, भीड़ से अलग कुछ विशिष्ट बनाता है.अतः जो लोग समानता के नाम पर रिजर्वेशन के खिलाफ हैं, मैं उनके खिलाफ खड़े लोगो का पुरजोर समर्थन करता हूं.  रिजर्वेशन के मजे हर भारतवासी तक पहुंचे यह चुनी हुई सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होनी ही चाहिये.
मेरे जैसे जितने टैक्स पेयर अपनी मेहनत से कमाये गये रुपयो के बल पर अपने लिये इस तरह के रिजर्वेशन के ये ठाठ खरीद सकते हैं , वे तो स्वतः धन्य हैं. उन्हें फिर से धन्यवाद. जो बेचारे जन्मना पिछड़ी जाति में, या संविधान की अनुसूची में दर्ज जातियो में पैदा हो गये हैं, उन्हें भी
धन्यवाद कि उन्हें रिजर्वेशन के ठाठ दिलवाने के लिये कम से कम आज की सरकार को कुछ नही करना पड़ रहा. पर मैं हृदय से आभारी हूं पक्ष विपक्ष के नेताओ का जिनके समर्थन से राज्य सभा, लोकसभा, चुनाव सभा हर जगह दस प्रतिशत ही सही पर हर पिछड़े हुये भारतवासी को जिसे और किसी जुगाड़ से रिजर्वेशन का स्वाद नही मिल पा रहा था, उन्हें भी यह सर्वाधिक आर्कषक फल चखने को मिलने की जुगत बन सकी है. अब जो विघ्न संतोषी यह तर्क कर रहे हैं कि भाई दस ही क्यो ?  ग्यारह , बारह या बीस क्यो नही ? उनसे मेरा प्रतिसवाल है कि दशमलव पद्धति है, दस के दम से शुरुवात हुई है, भविष्य में  चुनावो के लिये मांगें करने तोड़ फोड़ करने के स्कोप भी तो बाकी रहने
चाहिये.
इसलिये बिना सवाल किये खुश होने का समय है, आज हम सब आरक्षित हैं. रिजर्वेशन के मजे लूटिये हर भारत वासी के माथे पर गर्व के वे भाव आ जाने चाहिये जो रिजर्व सीट पर बैठते हुये आते हैं , जब वेटर आपके लिये कुर्सी खींचकर आपको उस पर पदासीन करता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन 

(विश्व हिन्दी दिवस 2018 पर विशेष)

(श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री विवेक जी का विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे आयोजनों  पर एक सार्थक व्यंग्य।)

इन दिनो मेरा घर ग्लोबल विलेज की इकाई है. बड़े बेटी दामाद दुबई से आये हुये हैं , छोटी बेटी लंदन से और बेटा न्यूयार्क से. मेरे पिताजी अपने आजादी से पहले और बाद के अनुभवो के तथा अपनी लिखी २७ किताबो के साथ हैं . मेरी सुगढ़ पत्नी जिसने हिन्दी माध्यम की सरस्वती शाला के पक्ष में  मेरे तमाम तर्को को दरकिनार कर बच्चो की शिक्षा कांवेंट स्कूलों से करवाई  है, बच्चो की सफलता पर गर्वित रहती है. पत्नी का उसके पिता और मेरे श्वसुर जी के महाकाव्य की स्मृतियो को नमन करते हुये अपने हिन्दी अतीत और अंग्रेजी के बूते दुनियां में सफल अपने बच्चो के वर्तमान पर घमण्ड अस्वाभाविक नही है.  मैं अपने बब्बा जी के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी की गौरव गाथायें लिये उसके सम्मुख हर भारतीय पति की तरह नतमस्तक रहता हूँ. हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि तमाम अंग्रेजी दां होने के बाद भी मेरी बेटियो की हिन्दी में साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं  और उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे अपनी  दस बारह पुस्तकें प्रकाशित करवाने हेतु  भागमभाग, और कुछ के लिये  प्रकाशन व्यय तक देना पड़ा रहा हो पर बेटियो की पुस्तके बाकायदा रायल्टी के अनुबंध पत्र के साथ प्रकाशक ने स्वयं ही छापी हैं. ये और बात है कि अब तक कभी रायल्टी के चैक के हमें दर्शन लाभ नही हो पाये हैं. तो इस भावभूमि के संग जब हम सब मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन के पूर्व घर पर इकट्ठे हुये तो स्वाभाविक था कि  हिन्दी साहित्य प्रेमी हमारे परिवार का विश्व हिन्दी सम्मेलन घर पर ही मारीशस के सम्मेलन के उद्घाटन से पहले ही शुरु हो गया.

मेरे घर पर आयोजित इस विश्व हिन्दी सम्मेलन का पहला ही  महत्वपूर्ण सत्र खाने की मेज पर इस गरमागरम बहस पर परिचर्चा का रहा कि चार पीढ़ीयो से साहित्य सेवा करने वाले हमारे परिवार में से किसी को भी मारीशस का बुलावा क्यो नही मिला? पत्नी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुये स्पष्ट कनक्लूजन प्रस्तुत किया कि मुझमें जुगाड़ की प्रवृत्ति न होने के चलते ही ऐसा होता है. मैने अपना सतर्क तर्क दिया कि बुलावा आता भी तो हम जाते ही नही हम लोगो को तो यहाँ मिलना था और फिर विगत दसवें सम्मेलन में मैने व पिताजी दोनो ने ही भोपाल में प्रतिनिधित्व किया तो था! तो छूटते ही पत्नी को मेरी बातो में अंगूर खट्टे होने का आभास हो चुका था उसने बमबारी की,  भोपाल के उस प्रतिनिधित्व से क्या मिला? बात में वजन था, मैं भी आत्म मंथन करने पर विवश हो गया कि सचमुच भोपाल में मेरी भागीदारी या मारीशस में न होने से न तो मुझे कोई अंतर पड़ा और न ही हिन्दी को. फिर मुझे भोपाल सम्मेलन की अपनी उपलब्धि याद आई वह सेल्फी जो मैने दसवें भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन के गेट पर ली थी और जो कई दिनो तक मेरे फेसबुक पेज की प्रोफाईल पिक्चर बनी रही थी.

घर के वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पत्नी ने  प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया था.  दामाद जी के सम्मुख उसने उसके पिताजी के महान कालजयी पुरस्कृत महाकाव्य देवयानी की सुरक्षित प्रति दिखला, मेरे बेटे ने उसके ग्रेट ग्रैंड पा यानी मेरे बब्बा जी की हस्तलिखित डायरी, आजादी के तराने वाली पाकेट बुक साइज की पीले पड़ रहे अखबारी पन्नो पर मुद्रित पतली पतली पुस्तिकायें जिन पर मूल्य आधा पैसा अंकित है ,  ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उन्हें पालीथिन के भीतर संरक्षित स्वरूप में दिखाया. उन्हें देखकर पिताजी की स्मृतियां ताजा हो आईं और हम बड़ी देर तक हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत की बातें करते रहे. यह सत्र भाषाई सौहाद्र तथा  विशेष प्रदर्शन का सत्र रहा.

अगले कुछ सत्र मौज मस्ती और डिनर के रहे. सारे डेलीगेट्स सामूहिक रूप से आयोजन स्थल अर्थात घर के  आस पास भ्रमण पर निकल गये. कुछ शापिंग वगैरह भी हुई. डिनर के लिये शहर के बड़े होटलो में हम टेबिल बुक करके सुस्वादु भोजन का एनजाय करते रहे. मारीशस वाले सम्मेलन की तुलना में खाने के मीनू में तो शायद ही कमी रही हो पर हाँ पीने वाले मीनू में जरूर हम कमजोर रह गये होंगे. वैसे हम वहाँ  जाते भी तो भी हमारा हाल यथावत ही होता . हम लोगो ने हिन्दी के लिये बड़ी चिंता व्यक्त की. पिताजी ने उनके भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद में हिन्दी अर्थ के साथ ही अंग्रेजी अर्थ भी जोड़कर पुनर्प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिससे अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे भी गीता समझ सकें. प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया. मैंने विशेष रूप से अपने बेटे से आग्रह किया कि वह भी परिवार की रचनात्मक परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिये हिन्दी में न सही अंग्रेजी में ही साहित्यिक न सही उसकी रुचि के वैज्ञानिक विृयो पर ही कोई किताब लिखे. जिस पर मुझे उसकी ओर से  विचार करने का आश्वासन मिला . बच्चो ने मुझे व अपने बब्बा जी को कविता की जगह गद्य लिखने की सलाह दी. बच्चो के अनुसार कविता सेलेबल नही होती. इस तरह गहन वैचारिक विमर्शो से ओतप्रोत घर का विश्व हिन्दी सम्मेलन परिपूर्ण हुआ. हम सब न केवल हिन्दी को अपने दिलो में संजोये अपने अपने कार्यो के लिये अपनी अपनी जगह वापस हो लिये वरन हिन्दी के मातृभाषी  सास्कृतिक मूल्यों ने पुनः हम सब को दुनियां भर में बिखरे होने के बाद भी भावनात्मक रूप से कुछ और करीब कर दिया.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – मन तेरा प्यासा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मन तेरा प्यासा

रिमझिम रिमझिम बरसात हो रही है,फिर भी प्यास लगी है। गर्मागर्म पकोड़े बन रहे हैं , और बेरोजगारों की प्यास बढ़ती जा रही है।  श्रीमती जी मोबाइल से  ये गाना बार बार सुना रही है………

“रिमझिम बरसे बादरवा,

मस्त हवाएं आयीं,

पिया घर आजा.. आजा.. ”

बार बार फोन आने से गंगू नाराज होकर बोला – देखो  श्रीमती जी अभी डिस्टर्ब नहीं करो बड़ी मुश्किल से गोटी बैठ पायी है। अभी गेटवे आफ इण्डिया में समंदर के किनारे की मस्त हवाओं का मजा लूट रहे हैं, तुम बार बार मोबाइल पर ये गाना सुनवा कर डिस्टर्ब कर रही हो ,…….. यहां तो और अच्छी सुहावनी रिमझिम बरसात चल रही है और मस्त हवाएं आ रहीं हैं और जा रहीं हैं। फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी के साथ रिमझिम फुहारों का मजा आ रहा है। भागवान चुपचाप सो जाओ.. इसी में हमारी और तुम्हारी भलाई है, नहीं तो लिव इन रिलेशनशिप के लिए ताजमहल होटल सामने खड़ी है… अब बोलो क्या करना है। होटल में कमरा बुक करा लूं क्या मनमोहनी के लिए……….. उधर से पत्नी की आवाज आयी – फालतू में पैसे खर्च मत करो ये फैसबुकी फ्रेंड् जेब की पूरी सफाई करा लेते हैं। तुम समझ नहीं रहे हो। सुनो भागवान इतना हम सब समझते हैं। और सुनो जी बार बार फोन नहीं लगाना नहीं तो मनमोहनी को शक हो जाएगा। तुम तो जानती हो कि जीवन भर  लोन ले लेकर तुम्हें सब तरह की सुख सुविधाएं हमने दीं हैं, और तुम एक दिन के लिए ऐश भी नहीं करने दे रही हो, ईष्या से जल रही हो, और सुनो मुझे तो ये तुमसे ज्यादा सुंदर लग रही है सेव जैसे लाल गाल और गुलाबी ओंठ बहुत सुहावने लग रहे हैं। एक काम करो तुम अभी नींद की गोली खाकर चुपचाप सो जाओ …….. ।

बरसात हो रही है और ताजमहल होटल के सामने गंगू और फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी भीगते हुए नाच रहे हैं पीछे से गाने की आवाज आ रही है…….

“बरसात में हमसे मिले तुम,

सजन तुम से मिले हम,   बरसात में, ”

जब नाचते नाचते दोनों थक गए, तो गंगू बोला – गजब हो गया 70 साल से बरसात के साथ विकास नहीं बरसा और इन चार साल में बरसात के साथ विकास इतना बरसा कि सब जगह नुकसान ही नुकसान दिख रहा है। झूठ को सच की तरह बोलो और जनता को बुद्धू बनाकर राज करो। आम आदमी और मीडिया को सच कहने में  पाबंदी है। जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले हम कुछ नहीं बोलेगा, मीडिया में लिखेगा तो जुल्म हो जाएगा।

एक काम करते हैं चलो  पिक्चर में बैठते हैं वहां अंधेरा भी रहता है, खूब मजा आयेगा। सुनो प्यारी मनमोहनी सिनेमा हाल के अंधेरे में चैन खींचने वाले और जेबकट बहुत सक्रिय हो गए हैं, तो मेरी ये चैन और मेरा पर्स अपने थैले में सुरक्षित रख लो, पर्स में 20-30 हजार रुपये पड़े हैं सम्भाल कर रखना। गंगू सीधा और दयालु किस्म का है,सब पर जल्दी विश्वास कर लेता है। बड़े पर्दे पर फिल्म चालू हो गई है गाना चल रहा है………

‘मुझे प्यास, मुझे प्यास लगी है

मेरी प्यास मेरी प्यास को बुझा देना…… आ….के.. बुझा…. ‘

पूरा गाना देखने के बाद गंगू बड़बड़ाते हुए बोला – बड़ी मुश्किल है मुंबई में, समुद्र में हाईटाइड का माहौल है, जमके बरसात मची है सब तरफ पानी ही पानी है और इसकी प्यास कोई बुझा नहीं पा रहा है सिर्फ़ चुल्लू भर पानी से प्यास बुझ जाएगी, बड़ा निर्मम शहर है, हमको तो दया आ रही है और मनमोहनी तुमको…….?

जबाब नहीं मिलने पर गंगू ने अंधेरे में टटोला, बाजू की कुर्सी से मनमोहनी गायब थी चैन भी ले गई और पर्स भी……….

गंगू को काटो तो खून नहीं, रो पड़ा, क्या जमाना आ गया प्यार के नाम पर ऐसी लुटाई….. वाह री बरसात तू गजब करती है जब प्यास लगती है तो फेसबुक फ्रेंड पर्स लेकर भाग जाती है………. ।

पिक्चर भी गई हाथ से। पर्स के साथ चैन और पूरे पैसे लुट

जाने से गंगू दुखी है सिनेमा हाल के बाहर चाय पीते हुए गंगू भावुकता में आके फिर गाने लगा……….

“मेरे नैना सावन भादों,

फिर भी मेरा मन प्यासा, ”

चाय वाला बोला गजब हो गया साब, चाय भी पी रहे हो और मन को प्यासा बता रहे हो, आपकी आंखों में सावन भादों के बादल छाये हैं और बरसात भी हो रही है तो मन प्यासा कैसे हो सकता है। … मन तो भीगा भीगा लग रहा है और नेताओं जैसे गधे की राग में चिल्ला रहे हो ‘मेरा मन प्यासा’……..

चाय वाले आप नहीं समझोगे…. बहुत धोखाधड़ी है इस दुनिया में….. खुद के नैयनों में बरसात मची है पर हर कोई दूसरे के नैयनों का पानी पीकर मन की प्यास बुझाना चाह रहा है। घरवाली के नयनों का पानी नहीं पी रहे हैं, बाहर वाली के नयनों के पानी से प्यास बुझाना चाहते हैं।

अरे ये फेसबुक और वाटस्अप की चैटिंग बहुत खतरनाक है यार, फेसबुक फ्रेंड से चैटिंग इस बार बहुत मंहगी पड़ गई…. रोते हुए गंगू फिर गाने लगा…………

“जिंदगी भर नहीं भूलेगी,

ये बरसात की रात,

एक अनजान हसीना से,

मुलाकात की रात, ”

चाय वाला बोला-

– चुप जा भाई चुप जा ‘ये है बाम्बे मेरी जान…..’

दुखी गंगू रात को ही घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, शूटिंग देखते देखते भावुकता में गाने के साथ गंगू भी नाचने लगा……..

” मेघा रे मेघा रे…….. “गाने में हीरोइन लगातार झीने – झीने कपड़ों में भीगती नाच रही है और देखने वालों का दिल लेकर अचानक अदृश्य हो जाती है म्यूजिक चलता रहता है और गंगू के साथ और लोग भी भीगते हुए नाचने लगते हैं हैं, सुबह का चार बज गया है शूटिंग बंद हो गई है, गंगू और कई लोग नाचते नाचते और ठंड से कंपकपाते हुए गिरकर ढेर हो गए। किसी ने 108 ऐम्बुलेंस बुलवा दी, सब अस्पताल में भर्ती हो गये । नर्स गर्म हवा फेंक रही है पर गंगू अभी भी बेहोश पड़ा है। सुबह आठ बजे पता चला कि सीवियर निमोनिया और फेफड़ों में तेज इन्फेक्शन से गंगू की सांसे रुक गईं हैं। डाक्टर ने गंगू को मृत घोषित कर दिया है ……….

दो घंटे बाद गंगू की शव यात्रा पान की दुकान के सामने रुकती है, पान की दुकान में गाना बज रहा है….

“टिप टिप बरसा पानी,

पानी ने आग लगाई, ”

गाना सुनकर मुर्दे में हरकत हुई……. सब भूत – भूत चिल्लाते हुए बरसते पानी में भाग गए ……… ।

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck

© जय प्रकाश पाण्डेय

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – पोथी पढ़ि पढ़ि : ढ़ाई से तीन होते अक्षर – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

पोथी पढ़ि पढ़ि : ढ़ाई से तीन होते अक्षर
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नवीन व्यंग्य जिसमें सभ्यता के विकास  के नवीनतम दौर में युवा डेटिंग के तीन अक्षर पढ़कर पंडित हो रही बिंदास और बेफ़िक्र युवा  पीढ़ी की विचारधारा को परत दर परत उघाड़ा है। )
ये सभ्यता के विकास का नवीनतम दौर है जिसमें युवा डेटिंग के तीन अक्षर पढ़कर पंडित हो रहे हैं – बिंदास और बेफ़िक्र
“अंकल मैं परसों नहीं आ पाऊंगा. मेरी डेट है.”
“रविवार को कौनसी कोरट कचहरी खुली रहती है जो तुम्हारी डेट है ?”
“वो नहीं अंकल – लव वाली डेट. आई ऐम गोइंग ऑन डेट विथ माय न्यू डेट.” – भतीजे आर्यन का ये कथन यमक अलंकार का अंग्रेजी प्रयोग नहीं है श्रीमान. यहाँ पहला डेट शब्द रोमांस के लिए प्रयोग किया गया है और दूसरा श्रेया के लिए. मैंने कहा – “अगले रविवार को चले जाना. घर में सत्यनारायण की कथा रखी है और तुम नहीं आओगे ?”
“नहीं ना अंकल. बड़ी मुश्किल से श्रेया तैयार हुई है. कब से उसे ट्राई कर रहा था. तीन बार अथर्व के साथ डेट पर जा चुकी है. फर्स्ट टाईम मेरे साथ जाने वाली है. मना कर दूंगा तो वो मुझे कॉवर्ड समझेगी और फ्रेंड्स बैकवर्ड.”
“तुम पहले भी तो किसी के साथ कहीं गए थे ?”
“मैं ना अवनि को दो बार और कनु को एक बार डेट कर चुका हूँ. वे मुझे लाईफ पार्टनर के लायक लगी नहीं. नाऊ, देखते हैं इफ श्रेया से मैच हो पाता है तो.”
“उनको कैसे जानते थे तुम ?”
“टिंडर पर मुलाकात हुई थी अंकल. डेटिंग का बेस्ट ऐप है. मैंने अवनि की प्रोफाइल देख कर राईट स्वाईप करा उसने मेरा प्रोफाइल देख कर राईट स्वाईप करा – मैच हो गया. एक दूसरे से चैट करी और एक दूसरे के डेट हो गए.”
“अभी कहाँ है वो ?”
“पता नहीं अंकल. दो बार की डेटिंग के बाद शायद उसने मुझे लेफ्ट स्वाईप कर दिया है. फिनिश. नाऊ नो इन्फो. वोई कनु के साथ भी हुआ.”
“तुम्हारी दो एक्स हैं !!”
“कम है अंकल. आजकल दो-तीन एक्स तो ये जो गाँव-वाँव से पढ़ने आते हैं उनके होते हैं. कमला, विमला, किशन, गणेश टाईप के लड़के-लड़कियाँ. कॉलेज में जिसके जितने ज्यादा एक्स वो उतना ही एडवांस. विमला तो डिप्रेशन में चली गयी है. थर्ड ईयर में आ गई है बट अभी तक उसका एक भी ब्वॉय फ्रेंड नहीं बन पाया.”
“ओके,  डैड को क्या कहोगे ? घर में इतने मेहमान होंगे और तुम ?”
“वोई तो टेंशन है अंकल. बट आप हो ना ! प्लीज डैड को भी संभालियेगा. कथा पिछलेबार वाली है ना. यू टेक केयर ऑफ़ लीलावती एंड कलावती. मेरा तो श्रेया के साथ जाना बहुत जरूरी है, नहीं गया तो लॉस हो जाएगा.”
“कैसा लॉस ?”
“वो क्या है अंकल कि सुब्बी बहुत कपड़े फाड़ रहा है. श्रेया को डेट करना चाह रहा था. टिपिकल साउथ इंडियन. ईडियट अभी तक चांवल में रसम मिलाकर हाथ से खाता है. और क्या तो नेम उसका – सुब्रा… आगे क्या था वो …मण्यहम. सुब्रामण्यहम. श्रेया तो उसका नाम बोल भी नहीं पाती. उसने तो सुब्बी को ब्लॉक कर दिया है. लेकिन अक्की है, अनिंदो है, विरल है. श्रेया को डेट करने की विश करने वालों की लाईन लगी है अंकल. मैं कथा में आया तो फ्रेंड्स में मेरी कथा हो जायेगी, प्लीज.”
“चलो ठीक है – बीच में टाईम मिले तो आकर के प्रसाद ले जाना उसके लिये.”
“अपन की कौनसी लता-पत्र-बेल होनेवाली है अंकल. फोर्टी किलोमीटर दूर है रिसोर्ट, बीच में कैसे आ पायेंगे ? सारा इन्वेस्टमेंट वेस्ट हो जाएगा.”
“प्रेम में इन्वेस्टमेंट कैसा ?”
“अंकल, कॉस्टली पड़ती है डेटिंग. इटालियन फरेरो के चोकलेट्स ले जाने पड़ते हैं. अरमानी का परफ्यूम लगाना पड़ता है. जीन्स तो फटी हुई चल जाती है बट टी शर्ट डेट की लाईक की होना. श्रेया को मेजेंटा पसंद है – मैंने फ्लोरिस्ट को बोलकर मेजेंटा कलर की ट्यूलिप का बुके आर्डर किया है. बाय-द-वे, आपने भी तो आंटी को डेट किया होगा कभी ?”
“घोड़े की नाल ठुके जूते का तला दिखाकर तुम्हारे दादाजी ने कहा था – लड़की देखने जा रहे हो तो ज्यादा सवाल मत करना. मुँह से निकले तो बस ये कि लड़की पसंद है. तब से न तुम्हारी काकी को किसी और का ख्याल आया न मुझे.”
“आपके जमाने ईश्क नहीं किया करते थे ?”
“करते थे राजकपूर नर्गिस टाईप के लोग सेल्युलाईड के पर्दे पर या शिरी-फरहाद कहानियों में.”
“फरहाद बेवकूफ था अंकल. पहाड़ तोड़ कर नहर बनाने में जान दे दी. पहाड़ के उस पार जो नेटवर्क अवेलेबल होता – एक सिम उस कंपनी की भी ले सकता. हर डेट के लिए अलग अलग सिम. लक्झरी कॉटेजेस बने हैं पहाड़ पे. ईजिली डेट कर सकते थे दोनों. जान क्यों देने का ?”
“उस पवित्र प्रेम को तुम समझ नहीं पाओगे आर्यन. जस्ट गो एंड एन्जॉय.”
“एन्जॉय नहीं अंकल ये तो लाईफ के स्ट्रगल हैं. लव करना इतना आसान नहीं है. बहुत स्ट्रगल करना पड़ता है ! टेंशन सा बना रहता है कब कौन अपन की डेट को अपनी डेट बना ले. अपनी वाली को सेव करते हुवे दूसरे की को डेट पर ले जाने में बहुत एफर्ट्स लगते हैं.”
ठीक ही कह रहा होगा आर्यन. युवा पीढ़ी पर आधे अक्षर का अतिरिक्त बोझ आ गया है. कभी प्रेम के ढ़ाई अक्षर पढ़कर पंडित हुआ जा सकता था अब तीन अक्षर डेटिंग के पढ़ने पड़ते हैं. लेकिन इससे भगवान का काम आसान हो गया है – अब उनको जोडियाँ स्वर्ग से बना कर भेजना नहीं पड़तीं. बच्चे खुद बना लेते हैं. ‘ओके’ – मैंने कहा.
कुछ क्षणों के बाद……. “खड़े क्यों हो ? जाओ तुम्हें देर होगी.”
“वो अंकल …फ्यू बक्स मिल जाते तो… ज्यादा नहीं… ओनली फाइव-के…. मना मत करना माय डियरेस्ट अंकल. मेरी सर्विस लगने ही वाली है. आई विल रिटर्न…. अंकल प्लीज. नई डेट है, बिल को फुट नहीं किया तो वो फिर से अथर्व के साथ चली जायेगी…थैंक यू अंकल… बाय…..डैड को मत बताना.”
आर्यन मुद्राएँ भी ले गया, इज़ाज़त भी, और श्रेया को तो ले ही गया होगा. ये सभ्यता के विकास का नवीनतम दौर है जिसमें युवा डेटिंग के तीन अक्षर पढ़कर पंडित हो रहे हैं – बिंदास और बेफ़िक्र
© श्री शांतिलाल जैन 
मोबाइल : 9425019837

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – कचरा बड़े काम की चीज  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कचरा बड़े काम की चीज 

एक समय गंगा तीरे व्यंग्य – कुम्भ की एक मढ़ैया के पास कचरे का ढेर लग गया। मढ़ैयाधारी संत पुराण पढ़ रहे थे और सूत जी सुन रहे थे, अचानक कचरे में बम की खबर से सब भागने लगे और चारों तरफ हवा में अफवाह फैल गई….” कचरे में बम बम…. । खबर सुनकर कुछ नागा बाबा गा – गा कर नाचने लगे…………

” सिर्फ़ तुम्हारे हैं हम,

सह लेंगे सारे गम,

चाहे कचरे का बम, ”

श्री सूत जी बाहर धूनी जमाकर बैठ गए। कचरे की लकड़ियों को धो-पौंछकर धूनी जलने लगी। कचरे में बम बम करते अघोरी बाबा लोग कचरे में बैठकर चिलम का मजा लेने लगे, कुछ अघोरी उसी कचरे को जलाकर मांस भूनने लगे जब मांस मदिरा पेट में चली गई तो धूनी की राख तन में मली गई शरीर के बाल कचरे में बम बम करते दिखे तो राम रहीम और आशा बापू याद आ गये।

सब मस्ती से बैठ गए तो सूत जी बोले – एक समय ऊंघते – अनमने सतपुड़ा के जंगल के किनारे बसे गांव का गंगू बेरोजगारी, गरीबी से परेशान भूख एवं प्यास से बेचैन होकर पास के शहर की तरफ भटकने लगा। कचरे में भूख शांत करने की चीजें ढ़ूडने लगा, खाने का तो कुछ नहीं मिला पर अमीर और सुंदरियों द्वारा फेंके परफ्यूम के एल्युमीनियम के खोके और अन्य ऐसे समान मिले जिससे गंगू के अंदर न्यूटन जैसी सोच सवार हो गई उसके अंदर जुनून पैदा हो गया, सब जगह के कचरों के ढेर से उसने एल्युमिनियम के टुकड़े बटोरना चालू किया फिर उस कचरे से सुंदर करैहा (कढ़ाई) बनाना चालू कर दिया। चारों तरफ उसकी करैहा (कढ़ाई) की मांग होने लगी। खूब बिक्री बढ गई।मुंबई जैसे महानगरों में पांच सितारा होटलों में रेस्टोरेंट में कचरे से बनी करैहा सजावट के काम आने लगी। जब गंगू खाने कमाने लगा तो सेल्स टैक्स वाले तंग करने लगे, कहने लगे – कच्चा माल यदि कचरे से उठाया तो कचरा तो सरकार का है इसलिए कचरे की चोरी का केस बन गया। प्रदूषण बोर्ड के अधिकारी बोले – भट्टी जलाने से प्रदूषण फैलता है आसपास के सतपुड़ा के जंगल अनमने हो रहे हैं, गंगू बोला – साब उस तरफ की बड़ी फैक्ट्री की चिमनी से उगलते धुंए से ऐसा हो शायद।प्रदूषण अधिकारी बोला – मंत्री जी की फैक्ट्री से तो प्रदूषण कभी नहीं होता।। अनेक विभाग के अधिकारी बाबू रोज रोज, तरह तरह से गंगू को तंग करने लगे तो गंगू ने परेशान होकर फांसी लगा ली इस तरह गंगू की बेरोजगारी गरीबी दूर हो गई। कचरे में उसका तन जल गया और हवा उस राख को उड़ा कर मंत्री के बेटे की फैक्ट्री तरफ ले गई।

सूत जी बोले – इस प्रकार कोई गरीब बेरोजगार यदि सब विभागों को प्रसाद चढ़ाए बिना अपनी गरीबी बेरोजगारी दूर करता पाया जायेगा तो उसकी दुर्गति गंगू जैसी होना निश्चित है।गंगू के भाई और बहुत से बेरोजगारों ने अब एक नया काम चालू किया है बेरोजगार तालाबों में में कचरा फेंक कर कीचड़ पैदा करते हैं फिर कीचड़ में उच्चकोटि के कमल पैदा कर नेताओं को बेचे जाते हैं सरकार बेरोजगारी दूर करने का इसे अच्छा उपाय बता रही है। सूत जी को बोलते बोलते प्यास लग गई अतः…….

इति कचरे में बम बम कथा प्रथम अध्याय समाप्त।

द्वितीय अध्याय – – 

श्री सूत जी ने कहा – कि … हे    श्रेष्ठ अहंकारी, लोभी और मौकापरस्त लोगो.. एक शहर में एक कवि रहता था उसे अपने आप में कवि होने का बहुत घमंड था हालांकि सब उसे कचरा कवि कहते थे क्योंकि वह कचरा कविताएँ लिखता था। सुबह सुबह मुंडेर पर चाय पीते हुए कचरा बीनने आने वाली मधुमती पर बेचारा कवि मोहित हो गया और नित्य कचरा बीनती मधुमती और कचरे के ढेर पर उसने सैकड़ा भर कचरा कविताएँ लिख डालीं, जब  मधुमती झुकती तो कविराज भी खड़े होकर झुकते फिर बैठते फिर खड़े होते…… पड़ोसी के पूछने पर कि आप सुबह-सुबह बालकनी में बार बार झुकते – बैठते खड़े क्यों होते हैं ? तो कविराज का जबाब होता कि जैसे सुबह – सुबह आप आंख बंद करके योग करते हो वैसे ही हम बालकनी में आंख खोलकर एक्सरसाइज करते हैं। कविराज ने कचरे और मधुमती की कविताओं का कविता संग्रह छपवाया, जुगाड़ लगाकर विमोचन में तालियां ठुकवायीं और पुरुस्कार का जुगाड़ भी कर लिया पर कचरे बीनने वाली मधुमती अभी भी कचरा बीन रही है, फटे ब्लाऊस और कचरे से उठाई साड़ी अभी भी पहन रही हैं और उस पर लिखी कविताएँ खूब धन यश बटोर रहीं हैं, कचरे के कारण कविराज बम – बम कर रहे हैं। सूत जी के लस्सी पीने का समय हो गया था अतः……

इति कचरे में बम बम कथा द्वितीयो अध्याय समाप्त भयो

तृतीय अध्याय – 

सूत जी बोले – हे विरोधी पार्टी वालो स्वच्छता अभियान की फोटो और लफड़ेबाजी देखकर परेशान न हो, टीवी वाले पैसे लेकर जिन लोगों को झाड़ू पकडे़ दिखा रहे हैं उन सबके दिमाग में कचरा भरा हुआ है, भले सफेद झक पाजामा कुर्ता पहनकर कचरा साफ करने का नाटक कर रहे हों पर कचरा फैलाने में इन्हीं का अहम रोल होता है। झाडू पकड़ के कचरे तरफ देखने भर से कई दंदी – फंदियों ने करोड़ों अरबों की कमाई कर डाली। हर मोहल्ले से डोर टू डोर कचरा उठाने का बहाना बनाने वाली कंपनियां कई करोड़ का वारा-न्यारा कर चुकीं हैं। बड़ी बड़ी तोंद निकाले सेठ कचरे से बिजली बनाने के बड़े बड़े संयंत्र लगाकर सरकार को खूब उल्लू बना रहे हैं। लोगों को उल्लू बनाने आनंदम् विभाग के ये हाल है कि लोग घर के अनुपयोगी कपड़े कचरा समझकर नगर परिषदों के पिंजरे में डाल रहे हैं दो चार दिन बाद नगर परिषद् वाले रात को सारे कपड़े ट्रक पोंछने वालों को बेचकर जेब गर्म कर रहे हैं।

बड़े लोगों के लिए कचरा बड़े काम की चीज है ऐश-अय्याशी करके नवजातों को कचरे में फेंकने से कचरे घर पटे पड़े हैं। नेता लोग नदियों में कचरा फिकवाते हैं फिर फोटो खिंचवाने सफाई अभियान चलाते हैं।

नोटबंदी के समय 1000 – 500 के कचरा नोटों को काट-काट कर कचरा बनाया गया था कचरे में गांधी जी की कहीं कटी नाक पड़ी थी कहीं कटा चश्मा, तो कहीं कटा मस्तक पडा़ था, फिर इस कचरे को ईंट बनाने वाले को कचरे के भाव से बेचा गया था। सूत जी बताते बताते रोने लगे भूख – प्यास से व्याकुल हो गए थे इसलिए………

इति कचरे में बम बम कथा तृतीयो अध्याय समाप्त।

अध्याय चार – 

सूत जी के कहने पर कचरे वाले बम बम बाबा ने बताया कि अस्थि – मज्जा, कफ वात पित्त के इस तन में ईर्ष्या, द्रोह क्रोध मोह का कचरा भरा पड़ा है। मूर्खता के अहंकार का कचरा इतना खतरनाक होता है कि मूर्खता भरा इंसान खुद को पूरे ब्रम्हांड का सर्वज्ञानी मान लेता है और हर बात में अपनी उल्टी टांग घुसेड़ता है जो साश्वत सत्य होता है उसमें भी अपनी टांग घुसेड़कर बल, पद धन और यश प्रतिष्ठा के अहंकार के कचरे से ढंकने का प्रयास करता है बड़ा पद मिल जाने पर कचरा फैलाना और कचरे साफ करने का दिखावा करने में अपनी शान मानता है। बम बम बाबा ने बताया कि मन को वश में नहीं करने से मन में कचरे का भण्डार लगता जाता है तरह तरह का कचरा खुद ही खुद बढ़ता जाता है ये कचरा कभी आंखों से कभी कानों से कभी मुंह से घुसता है, आजकल सोशल मीडिया के कचरे की भरमार हो गई है यदि समझदारी से काम नहीं लिया तो सोशल मीडिया का कचरा तन मन सबको बर्बाद कर देगा फिर हर जगह कचरे में बम ही बम का कचरा मिलेगा। बम के डर से बम बम बाबा को उल्टी हो गई इसलिए…………

इति कचरे में बम बम कथा बंद……… ।

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck

© जय प्रकाश पाण्डेय

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – जीडीपी आगे नागरिक पीछे – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

जीडीपी आगे नागरिक पीछे
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का व्यंग्य  जीडीपी आगे नागरिक पीछे आपको जीडीपी की सांख्यिकीय  बाजीगरी के खेल और साधारण नागरिक की व्यथा पर विचार करने के लिए अवश्य मजबूर कर देगा।)
अश्विन एक नंबर से फेल हो गया. आधे नंबर का सवाल गलत हुआ और आधा नंबर माइनस मार्किंग में चला गया. नौकरी में भर्ती की प्रतियोगितात्मक परीक्षा. सीधा, सिंपल, स्ट्रेट जीके का सवाल. तीसरी तिमाही में भारत की जीडीपी दर कितनी थी ?सुबह के अखबारों में 6.8  प्रतिशत थी. परीक्षा देकर बाहर निकला तब तक दोपहर के अख़बारों में 7.2 प्रतिशत बताई गई थी. कॉपी चेक हुई उस दिन 9.7 प्रतिशत का आंकड़ा सामने आया. वही समयकाल, वही सांख्यिकी संस्थान, वही अर्थशास्त्री.मीडिया भी वही, श्रेय लेने वाला जननायक भी वही मगर आंकड़ा बदल गया. जीडीपी की गुगली से अश्विन अकेला आउट नहीं है – आप भी तो हैं. देश चीन से आगे निकल गया और आप हैं कि पान की गुमटी से आगे नहीं जा पा रहे. आंकड़े आप पढ़ नहीं पाते, पढ़ लें तो जान नहीं पाते, जान लें तो समझ नहीं पाते कि जैसे जैसे जीडीपी बढ़ती जाती है वैसे वैसे आप पीछे क्यों होते जाते हैं. आंकड़ों में ग्रोथ तो है जॉब नहीं है. उत्पादन है, सामान है खरीदने के पैसे नहीं हैं. स्कूल है, कॉलेज है, दवा है,डॉक्टर है, पाँच सितारा अस्पताल है, बस आपकी पहुँच में नहीं हैं. इतना पढ़कर ही खुश हो लेते हैं कि हम पीछे रह गए तो क्या देश तो आगे बढ़ा. अंगुली काली कराने और मशीन का खटका दबाने के बीच के तीस सेकण्ड में जीडीपी याद नहीं रहती,जाति याद रहती है.
जाति के ख्याल ने अश्विन को इष्टदेव का स्मरण कराया. साष्टांग प्रणाम करके उसने पूछा – हे संकटमोचन, मेरा उत्तर कहाँ गलत हुआ. आप ही बताइये तीसरी तिमाही में वृद्धि  की वास्तविक दर कितनी थी ? पवनपुत्र बोले– चीर के अपना सीना दिखाना आसान है सही सही जीडीपी बता पाना मुश्किल है. हमारे युग में न जीडीपी हुआ करे थी ना चुनाव. होते तो एक-दो चुनाव तो इसी मुद्दे पर निपट जाते कि चौदह साल के भरत भाई सा. के कार्यकाल में जीडीपी ज्यादा बढ़ी कि बड़े भैया के अयोध्या वापस आने के बाद विकास तेज़ हुआ. तुलसीदासजी ने दस हज़ार से ज्यादा दोहे, सोरठे लिखे मानस में मगर एक चौपाई में भी जीडीपी का उल्लेख नहीं करा. वरना आर्यावर्त के जननायकों में होड़ लग जाती कि हमने त्रेतायुग से ज्यादा विकास करा. बहरहाल, सांख्यिकी के बाज़ीगरों से पता करके अगलीबार बता पाउँगा.
अश्विन ने कहा – कोई बात नहीं प्रभु, इतना तो समझ ही गया हूँ कि आंकड़े महज़ आंकड़े नहीं होते. वे जादुई मिट्टी होते हैं. हार्वर्ड ग्रेजुएटेड दरबारी वित्तीय जादूगर उनसे वैसी आकृति बनाकर दिखा सकते हैं जैसी जननायक को पसंद आती है. जितनी देर में आप समंदर लाँघ पाते हैं उससे कम देर में वे पिछले दस पंद्रह साल की जीडीपी ग्रोथ रेट बदल लेते हैं. वे वन-टू-का-फोर, फोर-टू-का-सिक्स-इलेवन करने में निष्णात हैं. मौका-ए-जरूरत उसी कच्ची गीली मिट्टी से कीचड़ बनाकर जननायक को हेंडओवर कर देते हैं कि लो महाराज चुनाव आ गया है – फैंको इसे सामनेवाले पे.
तीन परिक्रमा देकर निकल गया अश्विन, उसके साथ उसकी पूरी पीढ़ी है,जॉब पोर्टल्स हैं, उन पर सबके सीवी हैं, बस साक्षात्कार के बुलावे बाकी हैं. आयेंगे, घबराईये मत,जननायक कह रहा है जीडीपी बढ़ रही है.
© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टीटी नगर, भोपाल, मोबाइल  9425019837

Please share your Post !

Shares
image_print