डॉ . प्रदीप शशांक
हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * उधार प्रेम का बंधन है * – श्री रमेश सैनी
श्री रमेश सैनी
उधार प्रेम का बंधन है
(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का व्यंग्य – “उधार प्रेम का बंधन है”।)
आज रामलाल की दूकान पर पान खाने पहुँच गया। पान खाकर पैसे देने लगा तो उन्होंने नोट देखकर कहा – भैया छुट्टे नहीं हैं। तब मैंने कहा – कल ले लेना। तब नई-नई चिपकी सूक्ति की ओर इशारा किया जिसमें लिखा था – उधार प्रेम की कैंची है। दूसरी ओर इशारा किया, वहाँ लिखा था – आज नगद कल उधार। बस मेरा भेजा उखड़ गया – क्या तमाशा है, यह सब गलत है, इस संबंध में भ्रम फैला रहे हो तुम। मैंने कहा तो यह सुनकर वह मुस्करा दिया। उसकी मुस्कराहट में व्यंग्य छिपा था, जो मुझे अंदर तक भेद गया। अब वक़्त आ गया है कि उन्हें एक लम्बा डोज़् पिलाऊं। वैसे उनकी आदत है साल-छः महीने में एक लम्बे डोज़् की। तभी वे काफी समय तक ठीक रहते हैं।
रामलाल जी आप गलतफहमी मत पालिए आज उधार का जमाना है – उधार बिन सब सून। उधार प्रेम का बंधन है। उधार से प्रेम के रिश्ते बनते हैं और लम्बे चलते हैं। नहीं चलते हैं तो चलाना पड़ता है। उधार ऐसा माध्यम है जिसमें दोनों पक्षों को प्रेम सम्बंध बनाए रखना पड़ता है। इससे ऐसी संभावना बलवती रहती है कि सम्बंध बने रहेंगे। ऐसे सम्बंध में हर रंग और स्वाद मौजूद रहता है। आप उधार ले लो, उधार देने वाला आपकी पूरा ध्यान और खोज-ख़बर रखने लगता है। वह समय-समय पर आपको फोन करता है। कभी-कभी आपके घर भी आ जाता है, यह पता लगाने के लिए आप ठीक-ठाक तो हैं न…। आप ठीक रहेंगे तो उधार भी चुका ही देंगे। यहाँ वह याचक सा हो जाता है। अपने पैसे की सलामती के लिए वह भगवान से दुआ मांगता है कि आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें। प्रसन्नता का निर्णय उधार देने वाला करता है। आप बीमार हैं तो आपको इलाज के लिए पैसा दे देता है ताकि आप ठाक हो जाएं। वरना उसकी उधारी…? पहले उधारी शर्म की बात मानी जाती थी। मगर आज वही शान की बात है – कि देखो हमारी औकात इतनी है, कि लोग हमें उधार देने खड़े रहते हैं।
मान लीजिए कि उधार अब एक फैशन हो गया है। आपके पास इतना पैसा है कि आपका काम आसानी से चल सकता है। फिर भी आप उधार लेते हैं। टी.व्ही., फ्रिज, सिलाई मशीन, मिक्सी, मोबाइल, प्रेशर कुकर, माइक्रोवेव आदि अनेक चीज़् बाजार में हैं जो आपके घर आने को उतावली हैं। बस आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए, एक-एक कर वे घर आने लगेंगी। इज्जत का फालूदा न निकले इसलिए पहले लोग उधार छिपाते थे। पर इसके उलट अब प्रचार करते हैं कि उन्होंने मकान, गाड़ी या किसी अन्य चीज़् – जो उनका सम्मान बढ़़ाती है – के लिए लोन लिया है। मतलब यह कि घर में जो महँगी नई चीज़् है वह लोन की। अब यह बताना पड़ता है कि कौन सी चीज़् बिना लोन के खरीदी गई है। जो लोग लोन नहीं लेते उन्हें पिछड़ा समझा जाता है। और जो पिछड़ा नहीं दिखना चाहते या कहलाना चाहते वे लोन लेकर कुछ ने कुछ खरीदते ज़रूर हैं।
‘उधार विकास की कुंजी है।’ इसके बिना विकास रूपी ताला खुल नहीं सकता। उधार से आप सम्पन्न हो जाते हैं। उधार से आपके पास हर चीज़् पलक झपकते आ सकती है। विकास की गति तीव्र हो जाती है। बस इशारा करना पड़ता है। उधार का बंधन ऐसा अटूट है कि आदमी उसमें जकड़ जाता है। उधार या कहें लोन के लिए एक बात और निहायत ज़रूरी है… कि आप उधार लो और भूल जाओ… वरना आप हर पल तनाव में रहोगे। यह काम अगले का है कि वह आपका ख़्याल रखे। मतलब ‘टेंशन लेने का नहीं देने का…।’ अपन यह कह सकते हैं कि अधार टेंशन मुक्त जीवन का अवसर देता है। बस, आपमें उधार लेने का टेलेण्ट होना चाहिए कि आप अवसर का लाभ उठा सकें। जो लोग उधार लेकर टेंशन में रहते हैं उनके लिए ‘बेवकूफ’ से अच्छा शब्द किसी कोश में नहीं।
‘उधार की महिमा अपरम्पार है।’ जिसने इस सूक्ति वाक्य को समझ लिया उसका इहलोक तो संवर ही गया, परलोक भी सुधर जाता है। आगे आने वाली पीढ़ियाँ आपको याद कर इस रास्ते पर आत्मविश्वास से विकास रथ पर सवार हो आगे बढ़ती जाती हैं।
यह संसार विचित्र है। यहाँ उधार देने वालों की कतार लगी रहती है। आप एक से उधार मांगते हो और कई लोग कतार तोड़ आप पर झपट्टा मारने के दौड़ पड़ते हैं। इसलिए उधार लेने वालों के आजकल भाव बढ़े हुए हैं। उधार देने वाले से उधार लेने वाले अब बड़े माने जाने लगे हैं।
उधार लेने और देने से चरित्रगत परिवर्तन भी आ जाते हैं। ऐसे लोग सामान्य धारा से अलग दिखते हैं। देने वाले के चेहरे पर आत्मविश्वास टपकता-टपकता सा दिखाई देता है। चेहरे पर कठोरता आ जाती है। रहम का भाव केवल उधार देते वक़्त दिखाता है। उसकी भाषा विकसित हो जाती है। माषा में माँ-बहन से सम्बंधित मृदु वचन धारा प्रवाह निकलने लगते हैं। उसकी सहनशक्ति विकसित हो जाती है। कज़र्दाता चाहता है कि उसे ब्याज मिलता रहे। मूलधन न भी मिले तो चलेगा। वह उपदेशक हो जाता है। साधुओं के बाद वही अर्थतंत्र और बाजार तंत्र की व्यवस्था को समझता समझाता है। एक सिद्ध पुरुष की तरह उसे अपने ऊपर पैसा खर्चना अपमान लगता है। सिर्फ उधार लेने वाले से पैसा खर्च करवाना अपना उसे धर्म प्रतीत होता है।
इसी तरह उधार लेने वाले के चरित्र में भी आमूल परिवर्तन आ जाता है। उसमें माँ-बहन से सम्बंधित वचन सुनने और सहने की क्षमता बढ़ जाती है। कभी-कभार एकाध हाथ भी सह लेता है। वह पैसे की महत्ता को समझने लगता है। उसे पैसे लौटाने की अपेक्षा लटकाने में अधिक विश्वास रहता है। वह छुपा-छुपी के खेल में भी माहिर हो जाता है, बहाने बनाना सीख जाता है। समय आने पर बहानों का, वह रक्षा कवच की तरह भलीभाँति उपयोग करने लगता है। उसमें एक कला और विकसित हो जाती है। वह टोपी बदलना सीख कर अपनी टोपी दूसरे, तीसरे को पहनाने की कुशलता हासिल कर लेता है। यह अद्भुत कला अर्थतंत्र में जादुई महत्व रखती है। और उधार लेने की कला से ही यह गुण पनपता विकसित होता है।
बड़े-बड़े लोग और उनकी कम्पनियाँ उधार लेना अपनी शान समझती हैं। खुद का पैसा लगाना उन्हें बेवकूफी लगती है। वह कम्पनी, कारख़ाना, प्रतिष्ठान खोलने के लिए सरकार या बैंक को चूना लगाते हैं। उनको लगता है पराये चूने से पान का रंग और स्वाद बढ़ जाता है। ‘‘हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा।’’ बिन पैसे का खेल और उसका मजा। मतलब बाय वन गेट वन फ्री। मतलब धंधा चल कर रफ़्तार पकड़ गया तो पैसा चुका दिया और साख बनाकर दुगना उधार ले लिया और न चला तो कुण्लली मार कर चिंता का त्याग कर चुपचाप बैठ जाओ। देश में न बैठ सको तो विदेश में आसन जमा लो। चिन्ता फिर सरकार करेगी या बैंक। बस कोशिश यह होनी चाहिए कि उधार इतना हो कि सरकार या बैंक वसूलते वसूलते थक जाएँ, पर वसूल न कर पायें। प्रतिभाशालियों के लिए यह बहुत आसान है। इसमें शान तो बनती ही है मुफ़्त में प्रचार भी मिलता रहता है। इसमें राजयोग और तंत्रयोग का सहयोग मिलना निहायत ज़्ारूरी है अन्यथा उधार योजना में आपकी सफलता संदेह से परे नहीं।
अभी कुछ समय पहले की बात है। एक उद्योगपति शराब पिलाकर पहले दूसरों को हवा में उड़ाते रहे। फिर उन्होंने सोचा कि ख़ुद ही क्यों न उड़ा जाये। सरकार, बैंक और अन्य शासकीय संस्थाओं की मदद से वे हवा में उड़ने लगे। फिर उन्होंने इतनी ऊंचाई पर उड़ान भरी कि सबके होश उड़ गये। मदद देने वाले और उसमें हाथ बंटाने वालों के तो हाथ-पाँव ही फूल गए। वे उड़ते गये… ऊंचे और ऊंचे… जब उन्हें समझ में आया कि अब ज़्यादा उड़ना ख़तरनाक होगा तो अपनी लेंडिंग विदेश में कर ली। अब जिम्मेदार लोग उनकी लेंडिंग देश में कराने के प्रयास में जी जान से लगे हैं। अब वह बड़ा उधारची है। यह सब उधार का कमाल है।
अब यही लफड़ा देश के मामले में है। देश का विकास करना है तो उधार लो भी और दो भी। उधार नहीं दोगे तो कोई माल को नकद नहीं खरीदेगा और माल डंप होगा। उधार और विकास का चोली-दामन का सम्बंध है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। एक दूसरे के बिना दोनों असहाय।
मुझे रोकते हुए रामलाल ने कहा – भाई साहब बस करो अब। मैं पूरी तरह समझ गया। मुझे माफ कर दो। आपसे पैसा मांगकर हमने गल्ती कर दी। आप अब उधार ही रहने दें। रामलाल ने खड़े होकर भाई साब से माफी मांगने लगे और भाई जी पीक को दूकान के बाजू में थूककर आगे बढ़ गये।
© रमेश सैनी , जबलपुर
हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * तलाश एक अदद प्रेमिका की * – डॉ . प्रदीप शशांक
डॉ . प्रदीप शशांक
तलाश एक अदद प्रेमिका की
पिछले कुछ दिनों से श्रीमती जी हमारी साहित्यिक गतिविधियों पर जरूरत से ज्यादा नजर रखने लगीं थीं । उनकी पैनी निगाहैं न जाने हमारे किस अन किये अपराध को ढूंढने में लगी रहती थीं। जब उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो आखिर एक दिन मुझसे पूछ ही बैठीं- “क्यों जी, शादी के पूर्व आपकी कोई प्रेमिका थी क्या?”
उनके इस सवाल पर हमने आश्चर्य चकित हो उनकी ओर देखते हुए उनसे ही पूछा – “क्यों, क्या बात है ? आज तुम्हारी तबियत तो ठीक है न।” “अरे तबियत खराब हो मेरे दुश्मनों की, में सिर्फ यह पूछ रही हूँ कि तुम्हारी कोई प्रेमिका है या नहीं । क्योंकि हमने पिछले दिनों टी.व्ही. में देखा था जिसमें तुम्हारे ही जैसे लेखक ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि ये सब लिखने की प्रेरणा मुझे अपनी प्रेमिका से ही मिलती है, पत्नी से नहीं।”
श्रीमती जी के इतने दिनों की जासूसी का रहस्य मुझे आज समझ आया था कुछ देर तो हम चुप रहे फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और श्रीमती जी से कहा -“अरी भागवान, उसने जो कहा ठीक ही कहा । प्रेमिका की प्रेरणा से रचनाकार महान हो जाता है किंतु पत्नी की प्रेरणा से अच्छे से अच्छा लेखक भी आटा, दाल, तेल, घी, शक्कर के प्रपंच में उलझकर सिर्फ आदमी रह जाता है । लेकिन मेरी बन्नो यदि मेरी कोई प्रेमिका होती तो मैं भी उसकी प्रेरणा से शादी से पहले श्रंगार रस का कवि एवं शादी के बाद उसकी याद में विरह रस का कवि बनकर कविता के आकाश की ऊंचाइयां नाप रहा होता । दोनों ही स्थिति में मेरी जिंदगी में रस तो होता , लेकिन हमारी किस्मत इतनी अच्छी कहां जो हमें एक प्रेमिका भी नसीब होती । यही तो मेरी बदकिस्मती है तभी तो मैं कवि न बनकर व्यंग्यकार बन गया हूँ, हाय तुमने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मेरी वर्षों से सोई हुई तमन्ना को जगा दिया है अब तुम्हीं बताओ में कैसे प्रेमिका की तलाश करूं।”
श्रीमती ने मुझे कल्पना के सागर में गोते लगाने से पहले ही यथार्थ के कठोर धरातल पर पटकते हुए कहा – “बस बस बहुत हो गयी आपकी ये रामायण, आप मुझसे ही मेरी सौतन का पता पूछने चले हैं, खबरदार जो ये ख्याल भी अब मन में लाया, नहीं तो आपकी इस रामायण के बाद में अपनी महाभारत की तैयारी शुरू करूं।”
श्रीमती जी के चंडी रूप का ध्यान आते ही हमने उन्हें शांत कर कहा -“बस देवी जी, फिलहाल महाभारत के ये एपिसोड अभी शुरू मत कीजिये, दर्शक (यानि हमारे बच्चे) अपने घरेलू महाभारत के दृश्य देख देख कर बोर हो चुके हैं।”
हमारे दिमाग में प्रेमिका ढूढ़ने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। बस क्या था हम घर से थोड़ा सज संवर कर निकले, कालोनी में प्रेमिका ढूंढना बेकार था क्योंकि बहुत जल्दी पोल खुलने की संभावना रहती है और वैसे भी कालोनी की प्रायः सभी खूबसूरत विवाहित- अविवाहित कन्यायें हमें अंकल जी के लेबिल से नवाज चुकी हैं । अतः हमने अपना प्रेमिका ढूंढो अभियान कालोनी के बाहर से ही प्रारंभ किया । सड़क पर हर आती जाती लड़की में मैं अपनी प्रेमिका की छवि ढूढ़ने लगा ।
दो तीन दिन में यहां से वहां भटकता रहा, बहुत सी प्रेमिकाएं नजर आईं लेकिन वे सब किसी और की थीं , मेरी कोई भी प्रेमिका नजर नहीं आ रहीं थीं । एक दिन मेरे मित्र ने मुझे सलाह दी कि यार क्या तुम यहाँ से वहां भटकते फिर रहे हो । अरे प्रेमिका चाहिये तो लड़कियों के कालेज के पास खड़े हो जाओ, एक ढूढोगे हजार मिलेंगी । हमने अपने मित्र की नेक? सलाह मानकर अपने खिचड़ी बालों पर हाथ फेर लड़कियों के कॉलेज के पास खड़ा हो गया । कुछ देर इधर उधर ताकने के बाद में निराश होकर घर लौटने ही वाला था कि मुझे एक रूपसी बाला नजर आयी जो मेरे नजदीक से इठलाती बलखाती एक तिरछी चितवन और मोनालिसा सी मुस्कान बिखेरती आगे बढ़ गई ।
मेरा दिल अचानक बल्लियों उछला (ऐसा तो श्रीमती जी को शादी के बाद पहली बार देखकर भी नहीं उछला था) और दिल से बस यही आवाज निकली – “यूरेका -यूरेका” यानी पा लिया, पा लिया । और दिल के हाथों हम मजबूर होकर उस रूपसी बाला के पीछे हो लिये, हमारे कदम उस रूपसी के हमकदम होने को बेताब थे और हम ख्यालों में खोये प्रेमिका पा जाने की खुशी में फूले न समा रहे थे तभी हमारे गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद हुआ और हम ख्यालों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की सड़क पर जा गिरे और हमारे कानों में ‘मारो साले को’ की आवाजें थोड़ी देर तक गूंजती रहीं और हम पर लातों घूसों की बारिश होती रही ।
हमें जब होश आया तो हम अस्पताल के बिस्तर पर थे और हमारे चारों ओर हमारे परिचितों के साथ ही पुलिस के सिपाही भी थे , उनमें एक खाकी वर्दी वाली महिला पर नजर पड़ी तो हमारे होश पुनः फाख्ता हो गये क्योंकि जिसे हमने समझा था प्रेमिका, वह निकली महिला पुलिस ।
बस जनाब आगे का किस्सा क्या सुनायें , आप लोग खुद समझदार हैं ।
हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * रिटायरमेंट का चैक * – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
रिटायरमेंट का चैक
(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य कथा।)
महीने का आखिरी दिन होता है और तोप गाड़ी फैक्ट्री के गेट के सामने ढोल – ढमाके और डांस इंडिया डांस का नजारा देखने लायक होता है। इतनी भीड़ बढ़ जाती है कि ट्रेफिक जाम हो जाता है, रंग गुलाल और फूलों से सड़क तरबतर हो जाती है। हर महीने की आखिरी तारीख को तोप गाड़ी फैक्ट्री से दस – पन्द्रह लोग रिटायर होते हैं और उनके परिवार, रिश्तेदार और दोस्त भाई ढोल – ढमाके के साथ फैक्ट्री के गेट के सामने डेरा डाल देते हैं। अनुमान है कि ठंड के नौ महीने बाद पैदा हुए लोग जुलाई – अगस्त में ज्यादा रिटायर होते हैं।
आज जानकी प्रसाद का भी रिटायरमेंट है नात – रिश्तेदार और मोहल्ले वाले ढोल – नगाड़ों एवं सजी बग्घी लेकर जानकी प्रसाद का इंतजार कर रहे हैं। गेट के सामने भीड़ ज्यादा बढ़ रही है ढोल – ढमाकों का शोर बढ़ रहा है क्योंकि आज अधिक लोग रिटायर हो रहे हैं जो लोग रिटायर होकर चैक लेकर बाहर आ गए हैं उनके खेमे में उछलकूद बढ़ गई है डांस हो रहे हैं। फूल माला की बिक्री अचानक बढ़ गई है ढोल की थाप पर सब लोग थिरक रहे हैं।
वो देखो माला पहने जानकी प्रसाद फैक्ट्री गेट के सुरक्षा गार्ड से गले मिलकर बिदा ले रहे हैं उनको देखते ही उनके रिश्तेदारों में बिजली सी कौंध गई, ढोल – नगाड़े बजने चालू हो गए मोहल्ले वाले थिरकने लगे। बहू-बेटे फूल माला लेकर दौड़ पड़े और देखते देखते जानकी फूलों से लद गए, चारों तरफ हबड़धबड़ मच गई, रंग गुलाल से रंग गए। दोनों बहू बेटे खुशी से झूम कर नाचने लगे। डांस चालू… ढोल में तेजी… सजी बग्घी तैयार, युवाओं की टोली का सरसराहट लिए नागिन डांस…. वीडियो की बहार…. तड़ा तड़…. भड़ा भड़… सब तरफ उत्साह, उमंग, थिरकन दिख रही है पर इन सबके पीछे नेपथ्य में चुपचाप वो चालीस लाख का चैक हंस रहा है जो रिटायरमेंट में जानकी को मिला है जिसमें बहुओं एवं बेटों की उम्मीद के पंख लग गए हैं। मोहल्ले वालों और रिश्तेदारों की रिटायरमेंट पार्टी के छप्पन व्यंजन में नजर है इसलिए डांस करके ज्यादा उचक रहे हैं।
सजी हुई चमचमाती बग्घी में जानकी प्रसाद दूल्हे जैसे बैठ चुके हैं। सामने एक चैनल वाले ने माइक अड़ा दिया, पूछ रहा है अब कैसा लग रहा है ? नाईट ड्यूटी जब लगती थी तो काम करते थे कि सो जाते थे ? फैक्ट्री के अंदर जुआ – सट्टा में भाग लिया कि नहीं ?
बड़ा लड़का आ गया, एक हजार रुपये की न्यौछावर कर पत्रकार को दी, जब तक जानकी प्रसाद ने बोल ही दिया – रात सोने के लिए बनी है इसलिए घर हो या फैक्ट्री सोना जरूरी था और सीधी सी बात है कि जब नाईट ड्यूटी लगती थी तो मनमाना ओवरटाइम भी मिलता था। पत्रकार डांस करते हुए अगले ठिकाने तरफ बढ़ गया था। इतने सारे रिटायरमेंट हुए हैं कि सारी सड़कों में जाम लग गया है डांस मोहल्ला डांस चल रहा है। ट्रेफिक पुलिस वाले परेशान हैं जाम की खबर एसपी तक पहुंच गई है और पुलिस फोर्स पहुंच गई है, डांस की भीड़ को तितर-बितर करने डंडे भी चलाये नहीं जा सकते इसलिए पुलिस वाले ढोल की थाप पर मटक रहे हैं। जानकी प्रसाद ये सब देख देख मस्त हो रहा है आज न गांजा मिला है न भाँग, पर मजा उनसे ज्यादा मिल रहा है। सबसे बड़ा जुलूस जानकी का है क्यूँ न हो, जानकी विनम्र रहा है रामलीला में रावण के रोल में हिट हुआ है, लाल झंडे के साथ नारे लगवाने में पापुलर रहा है, मधुर मुस्कान से दिलों को जीता है, अहीर नृत्य में हर बार टॉप पर रहा है तभी न इतने सारे लोग डांस करके पसीना बहा रहे हैं। जानकी को अचानक धर्मपत्नी याद आ गई, वो लेने नहीं आई.. वो घर में थाली सजाकर दिया जलाकर इंतजार कर रही होगी। जानकी को बग्घी में दूल्हे जैसा सुख मिल रहा है फर्क इतना है कि दूल्हे बनकर तन्दुरस्त घोड़े में बैठे थे और आज बग्घी को बुढ़िया घोड़ी खींच रही है। डांस करती टोलियाँ मस्ती में चूर हैं उसे याद आया…. चालीस साल पहले जब बारात निकली थी तो डांस के चक्कर में गोली चल गई थी 30-35 बरातियों को पुलिस पकड़ कर ले गई थी….
जुलूस घर पहुंचने वाला है, घरवाली देख कर दंग हो जाएगी उसको आज समझ आ जाएगा कि दमदार आदमी मिला है। चैक की चिंता में बेटे बहू ने रास्ते भर पानी को पूछा, इसका मतलब चैक में दम तो है। बेटे बहू जानकी से ज्यादा खुश दिख रहे हैं और बीच-बीच में चैक ठीक से रखने की हिदायत भी दे रहे हैं।
रिटायरमेंट ग्रांट पार्टी के लिए मुंबई से बार-बालाओं को खास तरह के डांस के लिए बुलाया गया है रिश्तेदार और मोहल्ले वाले भी इस खबर से खुश हैं।
पान की दुकानों में आजकल डब्बू अंकल के चर्चे चल रहे हैं। विदिशा की शादी के डांसिंग अंकल ने सड़ा सा डांस क्या कर दिया, मुख्यमंत्री ने एंबेसडर बना दिया, स्थूलकाय डब्बू अंकल की नचनिया देह के थिरकने से सोशल मीडिया कांप गया, गोविंदा का दिल थरथराके डांस करने लगा। कुछ जले भुने ताली बजा बजाकर कहने लगे डब्बू अंकल नर है कि नारी कि ……. ।
जानकी ने चालीस साल फैक्ट्री में नौकरी करी। फैक्ट्री की नौकरी में समय पर गेट के अंदर घुसने का बड़ा महत्व है, हर दिन का जेल जैसा है। सुबह सात बजे हूटर बजने के साथ घुसो, शाम को हूटर बजने पर साईकिल लेकर भागो, चालीस साल में जानकी ने इतना ही सीखा है। चालीस साल पहले जुगाड़ से फैक्ट्री में भर्ती हो गई थी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे। लड़किया के बाप ने फैक्ट्री की नौकरी देख के शादी कर दी थी। बारात में सबने गेटपास वाला आई कार्ड देखा था जिसमें नाम के आगे जानकी प्रसाद अहीर लिखा था और दांत निपोरते फोटो लगी थी। सो रिटायरमेंट की पार्टी में धर्मपत्नी के मायके के लोगों की भीड़ रही। सबने खूब मस्ती की, बार-बालाओं के भड़काऊ डांस को देखकर सब पगलाए रहे फिर सबने पेट भर खाया पिया और पार्टी में जानकी प्रसाद तगड़े से उतर गए।
दो चार दिन तो शान्ति रही फिर बहू बेटों को चैक की सेहत की चिंता सताने लगी तब धर्मपत्नी ने चैक छुपा कर संदूक में रखा और अलीगढ़ का ताला लगा दिया।
एक रात जानकी को सपना आया कि चैक को चूहे कुतर रहे हैं तब संदूक से चैक निकाला गया। जानकी चैक लेकर बैंक पहुंचे, बैंक वालों ने चैक देखा और जमा करने से इंकार कर दिया। खाता जानकी प्रसाद यादव के नाम पर था जबकि चैक जानकी प्रसाद अहीर के नाम पर जारी हुआ था। आधार कार्ड देखा गया उसमें भी जानकी प्रसाद यादव लिखा था। जब चैक जमा नहीं हुआ तो जानकी ने बैंक वालों को बताया कि चालीस साल पहले फैक्ट्री में जानकी प्रसाद अहीर के नाम से भर्ती हुए थे। ज्यादा पढ़े लिखे नहीं है तो नये जमाने के लड़कों ने खाता खोलने के फार्म में यादव लिख दिया होगा और आधार भी उसी नाम से बना होगा। क्या है कि जबसे लालू, मुलायम, शरद बड़े नेता बने हैं तब से नयी उमर के लड़कों को यादव लिखने का शौक चरार्या है, जे सालों ने खाते में यादव लिखवा के चैक को डांस करने मजबूर कर दिया है बैंक वाले ने सलाह दी कि फैक्ट्री से जानकी प्रसाद यादव के नाम का चैक बनवा लो तब खाते में चैक जमा हो जाएगा।
जानकी प्रसाद की दौड़ फैक्ट्री तरफ बढ़ने लगी, फैक्ट्री का बाबू एक न माना बोला – चालीस साल से फैक्ट्री के रिकॉर्ड में जानकी प्रसाद अहीर चल रहा था तो चैक भी वही नाम से बनेगा। बाबू ने सलाह दे दी कि कोई दूसरे बैंक में जानकी प्रसाद अहीर नाम से खाता खोल कर जमा कर दो। अब तक जानकी समझ चुका था कि लापरवाही में किसी का बस नहीं है। सलाह सुनकर जानकी बैंक दर बैंक भटकने लगा पर किसी बैंक ने खाता नहीं खोला इसप्रकार चालीस लाख का चैक तीन महीने तक बैंक से फैक्ट्री और फैक्ट्री से बैंक डांस करता रहा पर किसी को दया नहीं आयी। नब्बे दिन बाद एक बैंक वाले ने कह दिया चैक तो मर चुका है अब कोई काम का नहीं रहा। चैक का जीवनकाल तीन महीने का था, जानकी के काटो तो खून नहीं….. अचानक दिमाग में विस्फोट सा हुआ और जानकी का दिमाग खिसक गया…… अंट-संट बकने लगा..कभी नाचने लगता… कभी रोने लगता…. तंग आकर बहू – बेटों ने घर से निकाल दिया।
अब वो कभी बैंक के सामने कभी फैक्ट्री के गेट पर बड़बड़ाता, चिल्लाता, रोने लगता, डांस करने लगता, लोग भीड़ लगाकर मजा लूटते। एक दिन चैक लेकर फैक्ट्री के गेट में जबरदस्ती घुसने की कोशिश की तो सिक्योरिटी गार्ड ने डण्डा पटक दिया, चैक डांस करते हुए जेब से बाहर गिरा तो जानकी झुक कर नाचने लगा… नाचते नाचते वहीं गिरा और मर गया……….
© जय प्रकाश पाण्डेय
हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * ठंड है कि मानती नहीं * – डॉ . प्रदीप शशांक
डॉ . प्रदीप शशांक
ठंड है कि मानती नहीं
सुबह सुबह पड़ोसी लाल कंपकंपाते हुए, दोनों हाथों को रगडते हुए हमारे यहाँ आ धमके और आते ही हमारे ऊपर प्रश्न दाग दिया — ” सिंह साहब, ये ठंड कब जायेगी ? अब तो जनवरी भी खत्म हो गई है । आप तो कहते थे कि मकर संक्रांति के बाद तिल तिल करके ठंड कम होने लगती है । लेकिन कम होने की जगह यह तो बढ़ती ही जा रही है । अब आप ही बताइये ऐसा क्यों हो रहा है ?”
हमने पड़ोसी लाल को आराम से सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए श्रीमती जी को अदरक वाली चाय बंनाने को कहा । फिर पड़ोसी लाल की ओर मुखातिब होते हुए कहा — “आप क्यों इतना घबरा रहे हो, मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार यह जो ठंड पड़ रही है यह लंदन से आयातित है, अपने यहां ठंड का स्टॉक खत्म हो गया था न इसलिये लंदन से ठंड मंगवायी है ।जिस वजह से कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों पर भारी बर्फ बारी होने से ठंड का दौर कुछ लम्बा खिंच गया है लेकिन जैसे दिये की लौ बुझने से पहले और तेजी से जलने लगती है उसी प्रकार ठंड का यह आखिरी दौर है । ठंड अब कुछ दिनों की मेहमान है । हमें मालूम है कि आप रजाई में दुबके दुबके बोर हो गये हैं और रजाई से छुटकारा पाना चाहते हैं । अभी तक आप सिकुड़े हुए थे,अब अकड़ना चाहते हैं ।”
पड़ोसी लाल ने मुस्कराते हुए कहा –” सिंह साहब, अच्छा है जो वैज्ञानिकों ने बता दिया, नहीं तो विपक्ष सरकार पर ही इतनी ठंड पड़ने का आरोप लगाकर सरकार से इस्तीफा मांगने लगता । आप तो जानते हैं, बहुत दिन हो गये सिकुड़े हुए, सिकुड़ने का यही हाल रहा तो फिर सिकुड़े सिकुड़े ही अकड़ न जायें ।इस बार की ठंड में ऐसी घटनायें कुछ ज्यादा ही हो रही हैं । ऐसे में वास्तविक रूप से अकड़ने का मौका हाथ से न निकल जावे । अब तो अकड़ दिखाने का मौका आ गया है, देखो बजट भी पेश हो गया है । बजट के हलुआ का प्रसाद जो केवल वित्त मंत्रालय के अधिकारियो , नेताओं के अलावा किसी को भी प्राप्त न हो पाता था, इस बार किसान, मजदूर गरीबों के साथ ही मध्यम वर्ग को भी मिल गया है । चुनावी वर्ष में ये सभी अकड़ने को तैयार हैं लेकिन ठंड है कि मानती नहीं । वसन्त भी एक कोने में दुबका खड़ा है इस इंतजार में कि ठंड जाए तो फिर मैं चहुँ ओर अपना जलवा बिखेरकर जनमानस को बौराना शुरू करूं । बसन्ती बयार भी बहने को बेताब हैं । लेकिन रह रहकर चलने लगती शीत लहर के कारण वह भी ठिठक जाती हैं । युवा वर्ग भी अपना वसन्त ( वेलेंटाइन डे ) मनाने की तैयारी में है, वह भी अपने शरीर पर लदे जैकेट,स्वेटरों से छुटकारा पाने के लिये छटपटा रहा है । किसान कर्ज के बोझ तले दबा है ।उसके पास न रजाई है न स्वेटर वह ठंड से कंपकंपा रहा है और सरकार कर्ज माफी का अलाव जलाकर खुद अपनी ठंड दूर कर रही है । बेरोजगार सिकुड़ रहा है नोकरी की आस में, कब नोकरी मिले और वह भी अकड़ दिखा सके ।”
पड़ोसी लाल की चिंता की वजह अब समझ आयी । हमने कहा — “आप तो ऐसे चिंता कर रहे हैं जैसे इस देश के चौकीदार आप ही हो । अरे भाई ठंड का क्या है ,आज नहीं तो कल चली ही जायेगी । लेकिन आपको भी मालूम है कि ठंड के जाते ही गर्मी अपना असर दिखाने लगेगी इसलिए कुछ दिन और ठंड का मजा ले लो । फिर गर्मी के साथ साथ चुनावी गर्मी का भी आनन्द उठाना।”
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * फूलों के कद्रदाँ * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
फूलों के कद्रदाँ
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी – रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत * – श्री शांतिलाल जैन
श्री शांतिलाल जैन
नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी – रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नवीन , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य । इसके संदर्भ में मैं कुछ लिखूँ/कहूँ इससे बेहतर है आप स्वयं पढ़ें और अपनी राय कमेन्ट बॉक्स में दें तो बेहतर होगा।)
समानान्तर नोबेल पुरस्कार समिति ने रसायन शास्त्र, भौतिकी और चिकित्सा विज्ञान श्रेणी में अलग अलग पुरस्कार देने की बजाए वर्ष 2019 का विज्ञान समग्र पुरस्कार प्रोफेसर रामप्रबोध शास्त्री को देने का निर्णय किया है. चयन समिति के वक्तव्य के कुछ अंश इस प्रकार हैं.
प्रो. शास्त्री ने कौरवों के जन्म की मटका टेक्नोलॉजी को आईवीएफ टेक्नॉलोजी या टेस्ट ट्यूब बेबीज से रिलेट किया है. उन्होंने बताया कि उस काल में मटका-निर्माण की कला अपने चरम पर थी. कुम्भकार मल्टी-परपज मटके बनाया करते थे. गृहिणियों का जब तक मन किया मटका पानी भरने के काम लिया. जब संतान पाने का मन किया, उसी में फर्टिलाइज्ड ओवम निषेचित कर दिए. मटका टेक्नोलॉजी परखनलियों के मुकाबिल सस्ती पड़ती थी. सौ से कम कौड़ियों में काम हो जाता था और बेबीज के पैदा होने की सक्सेज रेट भी हंड्रेड परसेंट थी. सौ के सौ बालक पूर्ण स्वस्थ. नो इशू एट द टाईम ऑफ़ डिलीवरी कि पीलिया हो गया, कि इनक्यूबेटर में रखो. वैसे आवश्यकता पड़ने पर उसी मटके को उल्टा रख कर इनक्यूबेटर का काम भी लिया जा सकता था. इस तरह उन्होंने मॉडर्न टेक्नॉलोजी को प्राचीन टेक्नॉलोजी से रिलेट तो किया ही, प्राचीन टेक्नॉलोजी को बेहतर निरुपित किया. प्रो. शास्त्री का दावा है कि उन्होने जो रिलेटिविटी कायम करने का काम किया है उससे दुनिया भर के वैज्ञानिक तो चकित हैं ही अल्बर्ट आईंस्टीन की आत्मा भी चकित और मुदित है.
प्रो. शास्त्री ने महाभारत काल में संजय की दिव्य-दृष्टि को लाईव टेलीकास्ट से भी रिलेट किया है. पूर्णिया, बिहार से प्रकाशित साईंस जर्नल ‘प्राचीन विज्ञानवा के करतब’ में प्रो. शास्त्री ने बताया कि टीवी का अविष्कार प्राचीन विज्ञान का ही एक करतब है. संजय की दिव्यदृष्टि और कुछ नहीं बस एक डीटीएच चैनल था जो युध्द का सीधा प्रसारण किया करता था. आज भी नियमित रूप से योगा करने से ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त की जा सकती है. एक बार दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तो आप केबल की मंथली फीस और नेटफ्लिक्स का खर्च बचा सकते हैं. उन्होंने अपने अनुसन्धान कार्य से यह भी सिद्ध किया है कि इन्टरनेट तब भी था. नारद मुनि केवल मुनि नहीं थे, वे गूगल टाईप एक सर्च इंजिन थे जिन्हें दुनिया-जहान की जानकारी थी.
प्रो. शास्त्री की अन्य उपलब्धियों में पक्षियों की प्रजनन प्रक्रिया के अध्ययन के उनके निष्कर्ष भी हैं. वे बताते हैं कि मोर संसर्ग नहीं किया करते. मोर रोता है तो उसके आंसू पीने से मोरनी गाभिन हो जाती है. वे अब इस परियोजना पर कार्य कर रहे हैं कि यही प्रक्रिया होमो-सेपियंस, विशेष रूप से मानव प्रजाति में कैसे लागू की जा सकती है. उनके अनुसन्धान के सफल होते ही सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन आने की संभावना है.
प्रो. शास्त्री ने बायोलॉजिकल एन्थ्रोपोलॉजीकल स्टडीज को लेकर जो शोध-पत्र सबमिट किया है उसमें उन्होंने इस अवधारणा को भी ख़ारिज किया है कि हमारे पूर्वज बन्दर, चिम्पांजी या गोरिल्ला थे. इसके लिए वे सल्कनपुर के जंगलों में कई बार एक्सपेडिशन पर भी गए और बहुत ढूँढने की कोशिश की, कोई तो ऐसा आदमी मिले जिसने बन्दर को आदमी में बदलते देखा हो. अफ़सोस उन्हें कोई ऐसा नहीं मिला. स्वयं का वंशवृक्ष बहुत पीछे जाने पर भी सरयूपारीय ब्राह्मण ही मिला. अंततः उन्होंने इस अवधारणा को सिरे से ख़ारिज कर दिया है कि हमारे पूर्वज बन्दर थे.
प्रो. शास्त्री ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी महत्पूर्ण कार्य किया है. जहाँ अन्य वैज्ञानिक कुछेक सालों का आगे का सूर्य और चन्द्र ग्रहण अनुमानतः बता पाते हैं, प्रो. शास्त्री का डिजाइन किया हुआ लाला रामनारायण रामस्वरूप, जबलपुरवाले का पंचांग देखकर कोई भी पंडित हजारों वर्ष आगे के ग्रहण का समय बता सकता है.
प्रो. शास्त्री ने पर्यावरण के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया है. हवा में घटती ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए b3t1=O2 का नया फ़ॉर्मूला ईज़ाद किया है. वे सिद्ध करके बताते हैंकि तीन या उससे अधिक बतखें(b3) पानी के एक तालाब(t1) में तैरने से सिक्स पीपीम अतिरिक्त ऑक्सीजन (O2) का निर्माण होता है. सबसे कम बतखें दिल्ली में हैं इसीलिए वहां वायु प्रदूषण सर्वाधिक है.
प्रो. शास्त्री अपनी अवधारणाओं, निष्कर्षों को साईंस जर्नलों तक सीमित नहीं रखते बल्कि उसे दीक्षांत समारोहों, विज्ञान परिषदों, विज्ञान मेलों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, विश्व विद्यालयों, के अलावा राजनैतिक मंचों पर भी संबोधित करते हुए तार्किक ढंग से रखते हैं. इस प्रकार वे विज्ञान के प्रसार के क्षेत्र में कार्ल सेगान और स्टीफन हॉकिंस को भी पीछे छोड़ते हैं. आनेवाले समय में जिम्मेदार मंचों पर हमें उनसे और प्रो.रा.प्र.शा. स्कूल ऑफ़ साईंसेस के विद्यार्थियों से ऐसे और भी आकलन पढ़ने, सुनने को मिलेंगे.
अंत में, प्रो. शास्त्री ने रिलेटिंग मॉडर्नसाईन्स विथ प्राचीन भारत विज्ञान की जो नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी दी हैं,सरकारें अब उनका संज्ञान ले रही हैं. सरकार और शोध संस्थाएँ अनुसन्धान के क्षेत्र में हो रहे डुप्लीकेशन पर गंभीरता से विचार कर रही हैं. व्हाय टू रिइनवेंट अ व्हील. जो अनुसंधान हजारों वर्ष पूर्व हो चुके हैं उनकी वर्तमान परियोजनाओं को बंद करके संसाधनों की बचत की जा सकती है. आर्यावर्त में हज़ारों वर्ष पूर्व हो चुके अनुसन्धान गर्व के विषय हैं. जब गर्व से ही काम चला सकता हो तो इतनी प्रयोगशालाएँ चलाना ही क्यों ? समान्तर नोबेल पुरस्कार चयन समितिइस विचार से शत-प्रतिशत सहमति रखती है. इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र में दिये गए प्रो. रामप्रबोध शास्त्री के अवदान का सम्मान करते हुए उन्हें वर्ष 2019 के विज्ञान समग्र का पुरस्कार दिए जाने की सर्वसम्मति से अनुशंसा करती है.
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * बापू बड़े काम की चीज * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
बापू बड़े काम की चीज
© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – *एक शेरनी सौ लंगूर* – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
जय प्रकाश पाण्डेय
एक शेरनी सौ लंगूर
(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का यह सटीक व्यंग्य)
© जय प्रकाश पाण्डेय
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * ए.टी.एम. में प्रेम * – श्री रमेश सैनी
श्री रमेश सैनी
ए.टी.एम. में प्रेम
(e-abhivyakti में सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का स्वागत है।)
जब ए.टी.एम. नहीं थे तब सबको एक तारीख का इंतजार रहता था, भले यह इंतजार से 2 तारीख से चालू हो जाता था। यह इंतजार सुनहरे सपनों की तरह था जो महीना भर साथ रहता था। मर्दों को एक तारीख का बहाना मिल जाता ‘‘घबड़ाओ नहीं एक तारीख को तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा। इस इंतजार में शेष समय शांति से बीत जाता। बच्चे भी खुश और उनकी मां भी खुश । एक तारीख से हफ़्ते भर पहले पत्नी के उलझे बाल संवरने लगते। चेहरे पर रंग-रोगन की चमक आ जाती। शाम को पत्नी सज-संवरकर तीखी मुस्कान से स्वागत करती। यह सिलसिला हफ़्ता भर चलता। इन दिनों सूखे में भी हरियाली रहती और पति भी चाहता था कि एक तारीख को सारी मांग पूरी कर दे। यह नाटक सिर्फ आखिरी दिनों में ही करना पड़ता और आखिरी दिनों में गीले आटे से सने हाथ, उलझी जुल्फों के साथ ओरिजनल साफ-सुथरी षकल दिखती। एक तारीख तो खास होती, उस दिन सोला टका नगद तनख्वाह मिलती, न कोई झंझट न कोई लफड़ा। ये भारतीय परिवार के अच्छे दिन थे। यह भी अधिक दिन नहीं चल पाया।
एक दिन सरकारी फरमान आ गया, आप लोगों का वेतन आपके खाते में डाल दिया जायेगा। जिस दिन से पत्नियों ने बैंक वाला फरमान सुना तबसे वे जरूरत के समय ही समर्पित और शेष दिन अपनी मर्जी की जि़्न्दगी जीतीं। बैंक के भी मजे थे, नया-नया खाता था। पासबुक शानदार कवर चढ़ाकर रखते थे। बच्चे पासबुक को बड़ी ललक भरी नज़रों से देखते थे। उनकी इच्छा होती कि उसे स्पर्श कर लें, पर तुरन्त डांट पड़ जाती – यह गंदी हो जायेगी, यह बहुत कीमती चीज़ है। पत्नी को तो पासबुक दिखाते ही नहीं। अगर वह कहती – अपनी पासबुक दिखाओ। तब हम उसे टरका देते – तुम्हारे हाथ गंदे हैं, खराब हो जायेगी या अभी समय नहीं है, बाद में देख लेना। कुछ इसी तरह के बहाने बना देते और उसे पासबुक से दूर रखते। पढ़ी-लिखी पत्नियों के खतरे अधिक हैं और फायदे कम, वे पैसे के मामले में समझदार अधिक होती हैं, पासबुक में जमा राशि पर उनकी नज़र रहती है, अतः सावधान रहना पड़ता है।
बैंक से पैसे निकालने के हमने अनेक तरीके ईजाद किये। जिस दिन पैसा निकालने बैंक जाते, उस दिन हमारी खास सेवा- सुश्रुशा होती। खाली चाय नहीं, साथ में तगड़ा नाश्ता भी होता। हमको सजा-संवरा देख मोहल्ले वाले टोक देते – ‘‘गुप्ता जी बैंक जा रहे हो!’’ जाने के पहले हम चैकबुक निकालते, बच्चों को दिखाते, देखो इसे चेक कहते हैं। इस कागज के टुकड़े पर बैंक वाला हमें पैसे दे देगा। चेक को बुक से सावधानी से अलग करते, दो-चार बार उलटते-पलटते, फिर पत्नी से पूछते – ‘‘कितना लाना है।’’ वह जितना बताती उससे अधिक पैसा निकालते, शेष अपनी जेब में और बाकी से थमा देते। चेक में रकम भरते, अंकों में लिखते और दस्तखत करने के पूर्व दो चार बार बारीकी से चैक करते – यदि स्कूल और काॅलेज की परीक्षाओं में कापी जमा करने के पहले इतनी बारीकी से चैक करते तो शायद अपनी इस स्थिति का मलाल न रहता – तब दस्तख़त करते, फिर अपने ही दस्तख़त पर मंत्र-मुग्ध होते – ‘‘क्या शानदार हैं, क्या पाॅवर है हमारे दस्तख़तों में।’’ बैंक जाते, दो-चार लोगों से मेल मुलाकात करते – ‘‘देखो हमारा भी बैंक में खाता है, या हम भी बैंक वाले हैं। उसका रुआब ही अलग होता। पहले बैंक में खाता होना एक स्टेटस था। पर आज बैंक से लोन लेना स्टेटस होता है। लोग शान से बताते हैं – ‘हमने फलाने बैंक से इतना लोन लिया है। हमारी इतनी लिमिट हो गयी है। खाते में बिना पैसे के इस लिमिट तक पैसा निकाल सकते हैं। क्या उधार लेना सम्मान की बात हो गयी है? कि लोन लो और वापिस मत करो। लोन लो, भूल जाओ। टेंशन मत लो। फिर तो बैंक का टेंशन हो जाता है, आपका टेंशन, बैंक का टेंशन । आप टेंशन-मुक्त।
खैर दिन गुजरने लगे। चैक से पैसे निकलते रहे। फिर एक दिन एक दिन एक दुर्घटना घटी एक दिन बैंक से पैसे निकालने गये कि बाबू ने फार्म पकड़ा दिया और कहा – ‘‘बस नीचे सुन्दर हस्ताक्षर कर दो, शेष फाॅर्म हम भर देंगे। अब अगले महीने से हमारे पास पैसे लेने मत आना। आपके पास एक कार्ड आएगा, जिससे बाहर लगी मशीन से ज़रूरत के मुताबिक पैसा निकाला जा सकता है। हमने कहा – ‘‘मशीन से कैसे पैसा निकालेंगे।’’ तब उसने कहा – ‘‘आप कार्ड लेते आना, हम तरीका समझा देंगे।‘‘ एक दिन कार्ड आ गया, जिसे लेकर हम बैंक पहुंचे और बाबू से कहा, अब बताओ इससे कैसे निकलेगा पैसा? उसने पैसा निकालने का तरीका समझाया, जो आसान था। एक मित्र ने बताया, इसे मात्र कार्ड भर न समझो, यह लक्ष्मी है, लक्ष्मी! इसे संभाल कर रखो। तब से हम उसे पूजते, एहतियात बरतते और पत्नी-बच्चों से बचाकर लाॅकर में रखते।
इस तरह जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी कि एक दिन नोटबंदी की घोषणा हो गयी। मशीन ने नोट उगलना बंद कर दिया। अब स्थिति यह हो गयी कि बैंक और मशीनों में ‘नोट देने रुकावट के लिए खेद’ का बोर्ड लगा दिया गया। बैंक के सामने लंबी लाइन लग गईं। अब अख़बारों में समाचार और विज्ञापन छपेंगे कि फलानी जगह का फलाना एटीएम बंद है, अतः आप कष्ट न करें। इससे एटीएम का नये ढंग से उपयोग होने लगा।
अब अपना पैसा भी लाईन में लगकर लो। बैंक वाला तो, ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।’ अपना पैसा लो और अपमान ब्याज में, मन चाहा पैसा भी नहीं ले सकते हैं। जितना मशीन कहेगी, उतना ही मिलेगा, वह भी जेन्टलमेन की भांति कतार में लगकर। अब मशीन भी धोखा दे देती, उसका पूरा आदेश का पालन करो, फिर अंत में कह देती है, पैसा नहीं है, कष्ट के लिए खेद है। कभी-कभी तो यह स्थिति आई कि गार्ड बाहर से ही टरका देता। हम एक दिन पड़ौस के एटीएम पहुंचे, बाहर गार्ड साहब ने दूर से ही रोका, ‘बाबूजी मशीन में रुपया नहीं है।‘ हमने कहा, ‘कोई बात नहीं, अपना बेलेंस पता कर लेंगे।’
– उससे क्या फायदा?
– अपना जमा पैसा मालूम हो जायेगा।
– कोई फायदा नहीं मशीन बंद है।
अंदर से कुछ खटपट की आवाज़ आ रही थी। हमारा संवाद सुन एक युवा जोड़ा लगभग चिपका हुआ बाहर निकला। दोनों हाथों में हाथ डाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये।
मैंने पूछा – यह क्या है?
गार्ड ने कहा – प्रेम…!
– प्रेम, मशीन में प्रेम, पर मशीन तो बंद है।
– सर, मशीन बंद है पर उसका ए.सी. चालू है। बहुत सुकून मिलता है उन्हें।
– और तुम क्या कर रहे हो?
– सर मशीन बंद है, तो हम भी पुण्य कमा रहे हैं।
© रमेश सैनी