(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “बने रहो….”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 ☆
☆ लघुकथा — बने रहो…. ☆
मोहन को चार डाक बना कर देना थी। महेश से कहा तो महेश बोला,” लाओ कागज ! अभी बना देता हूं,” कह कर महेश ने कागज लिया। जानकारी भरी। जोड़ लगाई ।
” 9 धन 6 बराबर 14 ।” फिर अचानक बोला, ” अरे ! यह तो गलत हो गया। 9 धन 6 बराबर 16 होता है।” कहते हुए उसने जोड़ के आंकड़े को घोटकर 14 के ऊपर 16 बना दिया।
तभी अचानक माथे पर हाथ रख कर बोला, ” साला ! दिमाग भी कहां जा रहा है ? 9 धन 6 तो 15 होते हैं।”
” हां, यह ठीक है।” जैसे ही महेश ने यह कहा तो मोहन बोला, ” यह क्या किया सर ? जानकारी में काटपीट ?”
” कोई बात नहीं सर । एक कागज और दीजिए । अभी नई बना देता हूं, ” कह कर महेश ने दूसरा कागज लिया। कॉलम खींचे। मगर यह क्या ? एक कालम छूट गया था।
” सर! यह क्या किया? आपने तो एक कालम ही छोड़ दिया?”
यह सुनकर महेश बोला,” अच्छा! देखें। कौन सा कॉलम छूटा है ?” कहकर महेश ने माथे पर हाथ रख कर कहा,” अरे! यार एक और कागज दो ।अभी बना देता हूं।”
बहुत देर से पत्रवाहक यह सब देख रहा था । वह खड़ा होते वह बोला, ” सर! मुझे देर हो रही है । आप डाक बनाकर भेज दीजिएगा। मैं चलता हूं।”
” अरे! नहीं सर जी। मोहन ने हड़बड़ा कर कहा, ” आप थोड़ी देर बैठिए। मैं स्वयं बनाकर दे देता हूं।”
मोहन के यह कहते हुए ही महेश हमेशा की तरह मुस्कुरा कर अपने तकिया कलाम वाक्य को धीरे से सीटी बजा कर दोहराने लगा, “बने रहो पगला, काम करेगा अगला।”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर
“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”, ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक पढ़ा रहे थे।
“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़बान पर होता है ज़हर। ज़बान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगीभर टीसता है। ..जो ज़िंदगीभर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”
जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
असहमत को भोपाल जाना था तो अपनी आदत के अनुसार सुबह सुबह की जनशताब्दी ट्रेन से जाने का त्वरित निर्णय अर्धरात्रि को लिया गया.तो सुबह सुबह की रेलगाड़ी को प्लेटफार्म पर बिना टिकट खरीदे चढ़ने का विचार उस वक्त बदलना पड़ा जब गाड़ी के आने के पहले टिकट काउंटर से टिकिट लेने के लिये समय पर्याप्त और लाईन लगभग नहीं थी.“एक हबीबगंज”असहमत ने कम शब्दों में समय की बचत की पर काउंटर पर बैठे सज्जन के पास समय ही समय था तो बोले “हबीबगंज नहीं मिलेगा”
“जनशताब्दी के लॉस्ट स्टाप का टिकिट नहीं मिलता क्या?”
“मिलता है पर कमलापति बोलो तो मिलेगा.”
असहमत अपना समय यहां बर्बाद करने की जगह सुबह की पहली चाय का रसास्वादन करना चाहता था. फिर भी बोल उठा “अच्छा कमलापति त्रिपाठी के नाम पर ही दे दो वैसे हमारा नाम असहमत है,तात्या टोपे परेशान तो नहीं करेगा?”
“ये तात्या टोपे का रेल में क्या काम, मजाक करते हो वो भी हमसे?”
असहमत : “तो शुरु किसने किया?”
काउंटर : “अरे यार कुछ पढ़ा लिखा करो,कम से कम अखबार ही बांच लो.”
असहमत: “सब डिज़िटल है,मोबाईल है न हमारा,चार्ज भर करना है बस”
काउंटर : “तो तुमको मालुम नहीं पडा़ कि विश्वस्तरीय बनने से हबीबगंज स्टेशन का नाम अब कमलापति हो गया है.”
असहमत : “अच्छा जैसे पहले कभी कोकाकोला का बदला था,शायद फर्नाडिस थे जो विदेशी के बदले स्वदेशी पेय पसंद करते थे. चलो ठीक है कमलापसंद ही दे दो एक”
काउंटर : “कमलापसंद नहीं कमलापति बोलो, रट लो नहीं तो पिट जाओगे कहीं न कहीं”
भीड़ के दबाव और समय के अन्य उपयोग की खातिर असहमत उसी मूल्य पर टिकिट लेकर लाईन से बाहर आया. छुट्टे वापसी की उम्मीद सरकारी विभागों से करना नादानी होती है और असहमत न तो नादान था न मूर्ख पर उसकी मुंहफटता उसे अक्सर फंसाती रहती थी. स्टेशन की चाय पीने से आई ताज़गी और ऊर्जा का उपयोग असहमत ने विंडो सीट पाने में किया और आराम से रात की बाकी नींद पूरी करने में लग गया. लगभग एक घंटे के पहले ही नींद खुली तो सुबह के नाश्ते की चाहत ने गोटेगांव के स्टेशन वाले पांडे जी के आलूबोंडों की याद दिला दी. स्वाभाविक रुप से समीपस्थ यात्री से पूछा : “गोटेगांव निकल गया क्या?”
सहयात्री सज्जन थे और मजाकिया भी ,बोले “भाईसाहब कितने साल बाद इस रूट पर जा रहे हैं गोटेगांव जो पहले छोटा छिंदवाड़ा भी कहलाता था अब उसका नाम बहुत पहले ही श्रीधाम हो चुका है और वो स्टेशन निकल चुका है.आपको श्रीधाम उतरना था क्या?”
असहमत : “नहीं जाना तो भोपाल है, टिकिट हबीबगंज…..” अचानक टिकिट देने वाले की सलाह याद आ गई तो फौरन भूल सुधार किया गया और हबीबगंज की जगह कमलापति हो गया.
सहयात्री पढ़े लिखे भोपाल वासी ही थे (भोपाली और पढ़ालिखा पर्यायवाची शब्द हैं) मुस्कुराते हुये बोले : “समय लगता है, होशियार हो जो हबीबगंज से सीधे कमलापति पर आ गये वरना लोग हबीबगंज से पहले कमलापसंद और फिर धीरे धीरे कमलापति पर आते हैं. हम तो जब रेलयात्रा करना हो तो ऑटो वाले को हबीबगंज ही बोलते हैं ताकि टाईम से पहुंच जायें. बंबई को मुबंई बनने में भी टाईम लगा जबकि वहां का प्रेशर तो आप समझ सकते हो.”
असहमत ने बड़े भोलेपन से दो सवाल पूछे, पहला “अब सुरक्षित और स्वादिष्ट नाश्ता किस स्टेशन पर मिल सकता है?” और दूसरा कि – “स्टेशन का सिर्फ नाम बदला है या कुछ और भी?”
सहयात्री : “बेहतर है अब भोपाल में ही पेटपूजा करें जो आपके स्वाद और सुरक्षा दोनों की दृष्टि से उपयुक्त है.आखिर प्रदेश की राजधानी है तो उसके हिसाब से इमेज़ बिल्डिंग हर भोपालवासी का परम कर्तव्य है.और जहां तक बात रेल्वेस्टेशन की है तो पूरी तरह विश्वस्तरीय बनाया गया है. अब आगे मेंटेन करने का काम सिर्फ रेल्वे का नहीं बल्कि यात्रियों का भी है, याने विश्वस्तरीय यात्रा के दौरान वांछित जागरूकता.”
नाम पर चली चर्चा पर जब बात इतिहास को गलत ढंग से पढ़ाये जाने पर आई तो असहमत बोल ही उठा: “हम तो इतिहास की पुस्तक उसी बुक स्टोर से खरीदते थे जो हमारे शिक्षक कहा करते थे.” मौजूद राजनीति के चतुर सहयात्री असहमत की मासूमियत पर मुस्कुराने लगे. अचानक किसी संगीत प्रेमी सहयात्री के मोबाइल पर ये गीत बजने लगा “नाम गुम जायेगा,चेहरा ये बदल जायेगा,मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे” तो असहमत अपनी हाज़िरजवाबी के बावज़ूद क्या भूलूं क्या याद करूं की उलझन में उलझ गया और उसकी यात्रा,”भूखे पेट न भजन गोपाला “की भावना के साथ जारी रही.
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #66 – यात्रा बहुत छोटी है ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक बुजुर्ग महिला बस में यात्रा कर रही थी। अगले पड़ाव पर, एक मजबूत, क्रोधी युवती चढ़ गई और बूढ़ी औरत के बगल में बैठ गई। उस क्रोधी युवती ने अपने बैग से कई बुजुर्ग महिला को चोट पहुंचाई।
जब उसने देखा कि बुजुर्ग महिला चुप है, तो आखिरकार युवती ने उससे पूछा कि जब उसने उसे अपने बैग से मारा तो उसने शिकायत क्यों नहीं की?
बुज़ुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया: “असभ्य होने की या इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आपके बगल में मेरी यात्रा बहुत छोटी है, क्योंकि मैं अगले पड़ाव पर उतरने जा रही हूं।”
यह उत्तर सोने के अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है: “इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।”
हम में से प्रत्येक को यह समझना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा समय इतना कम है कि इसे बेकार तर्कों, ईर्ष्या, दूसरों को क्षमा न करने, असंतोष और बुरे व्यवहार के साथ जाया करना मतलब समय और ऊर्जा की एक हास्यास्पद बर्बादी है।
क्या किसी ने आपका दिल तोड़ा? शांत रहें।
यात्रा बहुत छोटी है।
क्या किसी ने आपको धोखा दिया, धमकाया, धोखा दिया या अपमानित किया? आराम करें – तनावग्रस्त न हों
यात्रा बहुत छोटी है।
क्या किसी ने बिना वजह आपका अपमान किया? शांत रहें। इसे नजरअंदाज करो।
यात्रा बहुत छोटी है।
क्या किसी पड़ोसी ने ऐसी टिप्पणी की जो आपको पसंद नहीं आई? शांत रहें। उसकी ओर ध्यान मत दो। इसे माफ कर दो।
यात्रा बहुत छोटी है।
किसी ने हमें जो भी समस्या दी है, याद रखें कि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।
हमारी यात्रा की लंबाई कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि यह अपने पड़ाव पर कब पहुंचेगा।
(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी की अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है। अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत। २०१९ में भारत सरकार के विद्वान लेखकों की सूची में आपका नाम दर्ज । प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदत्त। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न। पूर्व में आपकी लघुकथाओं का मराठी अनुवाद ई -अभिव्यक्ति (मराठी ) में प्रकाशित।
हम समय-समय पर आपकी लघुकथाओं को अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक संवेदनशील लघुकथा मौन मुस्कुराहट। )
खूबसूरत रिसोर्ट चहुंओर ओर भव्य नजारे शाही विवाहोत्सव, व्यवस्था देखते ही बनती थी इन सबके बीच सिर से पैर तक सजी सुनयना मुखड़े पर मुस्कुराहट लिये आने वाले हर आगंतुक का पूरी मुस्तैदी से ख्याल रख रही थी। कहीं कोई चूक ना हो जाये रात्री दस बजने को थे पैरों मे दर्द के बावजूद चेहरे की मुस्कुराहट ज्यों की त्यों कायम थी।
अनेक खाली कुर्सियां सुनयना को निहार रही थी लेकिन चाह कर भी वह बैठ नहीं सकती थी । अंतत: घर पहुँचते पहुँचते पैरों के दर्द ने चेहरे की मुस्कुराहट को आँसुओ मे विलीन कर दिया। सुनयना का मन घायल था क्योंकि-
‘ इन सबके बावजूद कल पैरों को पुनः इसी तरह चलना और चेहरे को फिर इसी तरह मुस्कुराना होगा क्योंकि वह वेटर जो ठहरी ‘
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान !’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 77 ☆
☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆
शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि दीवाली की रात घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब- अमीर सभी घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली- पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पडीं।
एक झोपडी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपडी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो-चार फूल चढे थे और एक दीपक यहाँ भी मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोडे से खील – बतासे एक कुल्हड में रखे हुए थे।
लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढी स्त्री। जिसने उसकी झोपडी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपडी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढी स्त्री ने कहा कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे ? जमींदार ने लज्जित होकर बूढी स्त्री को उसकी झोपडी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।
जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खडे थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह – जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी ,मंदिर में भी खान – पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह- तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साडी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से बोला – ‘एक बुढिया की झोपडी लौटाने से मेरे नाम की जय-जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोडकर बोला – यह धन – दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘
जमींदार की बात सुन लक्ष्मी जी गहरी सोच में पड गईं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “विजय”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 94 ☆
☆ लघुकथा — विजय ☆
“पापाजी! आपके पास इतनी रीवार्ड पड़े हैं, आप इनका उपयोग नहीं करते हो?”
“बेटी! मुझे क्या खरीदना है जो इनका उपयोग करुँ,” कहते हुए पापाजी ने बेटी की अलमारी में भरे कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन वाले सामान के ढेर को कनखियों से देखा। जिनमें से कई एक्सपायर हो चुके थे।
“इनमें 25 से लेकर 50% की बचत हो रही है। हम इसे दूसरों को बेचकर 50% कमा सकते हैं।”
” हूं।” धीरे से करके पापाजी रुक गए।
तब बेटी ने कहा,” आप मुझे अपना फोन दीजिए। मैं आपको 50% की बचत करके देती हूं।”
” मेरे लिए कुछ मत मंगवाना। मुझे बचत नहीं करना है,” पापाजी ने जल्दी से और थोड़ी तेज आवाज में कहा,” मैं इतनी सारी बचत कर के कहां संभालता फिरूंगा।”
यह सुनते ही बेटी का पारा चढ़ गया, ” पापाजी, आप भी ना, रहे तो पुराने ही ख्यालों के। आप को कौन समझाए कि ऑनलाइन शॉपिंग से कितना कमा सकते हैं?”
” हां बेटी, तुम सही कहती हो। पुराने जमाने के हम लोग यह सब करते नहीं हैं, नए जमाने वाले सभी यही सोचते हैं कि वे खरीदारी करके 50% कमा रहे हैं,” कहते हुए पापा जी ने बेटी को अपना मोबाइल पकड़ा दिया, ” बेटी, तुझे जो उचित लगे वह मंगा लेना। मुझे तो अब इस उम्र में कुछ बचाना नहीं है।”
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा “प्रकाश की ओर…..”। )
☆ तन्मय साहित्य #106 ☆
☆ प्रकाश की ओर….. ☆
“यार चंदू! इन लोगों के पास इतने सारे पैसे कहाँ से आ जाते हैं, देख न कितने सारे पटाखे बिना जलाये यूँ ही छोड़ दिए हैं। ये लछमी माता भी इन्हीं पर क्यों, हम गरीबों पर मेहरबान क्यों नहीं होती”
दीवाली की दूसरी सुबह अधजले पटाखे ढूँढते हुए बिरजू ने पूछा।
“मैं क्या जानूँ भाई, ऐसा क्यों होता है हमारे साथ।”
“अरे उधर देख वो ज्ञानू हमारी तरफ ही आ रहा है , उसी से पूछते हैं, सुना है आजकल उसकी बस्ती में कोई मास्टर पढ़ाने आता है तो शायद इसे पता हो।”
“ज्ञानु भाई ये देखो! कितने सारे पटाखे जलाये हैं इन पैसे वालों ने। ये लछमी माता इतना भेदभाव क्यों करती है हमारे साथ बिरजू ने वही सवाल दोहराया।”
“लछमी माता कोई भेदभाव नहीं करती भाई! ये हमारी ही भूल है।”
“हमारी भूल? वो कैसे हम और हमारे अम्मा-बापू तो कितनी मेहनत करते हैं फिर भी…”
“सुनो बिरजू! लछमी मैया को खुश करने के लिए पहले उनकी बहन सरसती माई को मनाना पड़ता है।”
“पर सरसती माई को हम लोग कैसे खुश कर सकते हैं” चंदू ने पूछा।
“पढ़ लिखकर चंदू। सुना तो होगा तुमने, सरसती माता बुद्धि और ज्ञान की देवी है। पढ़ लिख कर हम अपनी मेहनत और बुद्धि का उपयोग करेंगे तो पक्के में लछमी माता की कृपा हम पर भी जरूर होगी।”
पर पढ़ने के लिए फीस के पैसे कहाँ है बापू के पास हमें बिना फीस के पढ़ायेगा कौन?”
“मैं वही बताने तो आया हूँ तम्हे, हमारी बस्ती में एक मास्टर साहब पढ़ाने आते है किताब-कॉपी सब वही देते हैं, चाहो तो तुम लोग भी उनसे पढ़ सकते हो।”
चंदू और बिरजू ने अधजले पटाखे एक ओर पटके और ज्ञानु की साथ में चल दिए।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
“असहमत ” से दूसरी मुलाकात मोबाइल स्टोर में हुई. हमने जिज्ञासावश पूछ लिया क्या नया मोबाइल फोन लेने आये हो जिसका नाम अब स्मार्ट फोन हो गया है.
जवाब : देखिये सर आजकल तो हर राहचलता स्मार्ट फोन रख रहा है तो अगर स्मार्ट फोन रखने से स्मार्टनेस आती तो क्या बात होती.
हमने कहा कि भाई ये फोन के लिये उपयोग में आ रही शब्दावली है. आदमी तो वही है, बदला नहीं है. गुडमॉर्निंग गुड नाईट क्या पहले नहीं होते थे, जन्मदिन पर बधाई फोन पर कब कब और किस किस को दिया करते थे, निधन की RIP का संदेश हर जाने अनजाने को किस लिये देते हैं जबकि न तो मृतक उन्हें पढ़ सकता न ही उसके परिजनों को ये संदेश सांत्वना दे पाते हैं.
जन्मदिन पर किसी अज़ीज दोस्त से चंद मिनिट हंसी मजाक कर लेना या उसको बर्थडे पार्टी के लिये मजबूर करने और फिर मित्रों की चंडाल चौकड़ी के साथ पार्टी सेलीब्रेट करने का आनंद ही अलग है जो ये वाट्सएपी फोन कभी नहीं समझ पायेंगे.
वाट्सएप नामक मृगमरीचिका की तो बात ही अलग है. जब तक आदमी इससे अनजान रहता है, बड़ा शांत, स्थिरचित्त और आनंदमय रहता है. पर जैसे ही वो इस एप के मकड़जाल में घुसा तो उसकी स्थिति “अभिमन्युः ” हो जाती है. पहले सुप्रभात फिर बधाई और सांत्वना और फिर गूगल से कॉपी कर कर के विद्वत्ता झाड़ने का शौक उसमें दोस्तों और परिचितों को लाईक के आधार पर वर्गीकृत करने की आदत विकसित कर देता है. लगता यही है कि ये मोबाइल क्रांति पहले तो नयापन को समझने की प्रकृति प्रदत्त उत्सुकता के चलते लोगों को पास लाती है और वे ये छद्मवादी समीपता का आनंद लेते रहते हैं पर धीरे धीरे नयेपन के प्रति आकर्षण उसी तरह कम हो जाता है जैसे….. के प्रति आकर्षण. फिर वही स्वाभाविक मानवीय दुर्बलतायें हावी होने लगती हैं जो पास आये दिलों के दूर जाने के बहाने बन जाती हैं. चूंकि मुलाकातें होती नहीं हैं या बहुत कम होती हैं तो गलतफहमियों के दूर होने की संभावनायें जो कि मिलने से संभव हो पातीं, अब तकनीकी दौर में कम हो जाती हैं.
फोन से दोस्तियां बनती नहीं हैं बल्कि दोस्तियों में गर्मजोशी की आंच ठंडी होने के ज्यादा चांसेस रहते हैं. हर संबंध चाहे वो दोस्ती हो या प्रेम आंखों के मिलने से, एक दूसरे की धड़कनों के स्पंदन को महसूस करने से पक्का होता है. मीडिया या टेक्नालाजी पर सिर्फ फ्रॉड और धोखाधड़ी ही हो पाते हैं. शायद इसलिए ही ये गीत सालों पहले लिख दिया गया कि “दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं ” इस दिल्लगी शब्द में टेक्नालाजी भी जोड़ना मुनासिब होगा क्योंकि ये गीत लिखने के उस दौर में टेक्नालाजी शब्द का प्रचलन नहीं था.
यार, आदरणीय असहमत जी हम तो आपको हास परिहास के लिये ढूंढ़ते हैं और आप बड़ी बड़ी गहरी बातें कर जाते हो, पता नहीं वो ये सब पसंद करते भी हैं या “छोटा मुँह बड़ी बात ” का सिक्सर मारकर बॉल बाउंड्री के पार भेज देते हैं.
“असहमत” ने अंत में बड़ी बात कह दी कि “देखिये सर, अगर मुझसे दोस्ती की है तो मेरी छाया याने ‘असहमति’ से मत डरिये”.आप वही करिये जो दिल को सही लगे.