हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 80 ☆ लघुकथा – सही मार्ग ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “सही रास्ता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 80 – साहित्य निकुंज ☆

 लघुकथा – सही रास्ता

उषा का आज कॉलेज में पहला दिन था। उसे कुछ अजीब सा लग रहा था और नौकरी लगने की खुशी भी बहुत थी ।

स्टाफ रूम पहुंची सभी ने उसका स्वागत किया।

विभागाध्यक्ष ने उसे टाइम टेबिल दिया । इस वर्ष उसे फाइनल की ही क्लास मिली थी।

आज जब वह क्लास लेने गई तब बच्चों ने उसका स्वागत किया। और एक छात्र सुनील ने तो उसे गुलाब का फूल लाकर दिया और बोला “हार्दिक स्वागत है मेम ।”

उषा ने …”प्यार से थैंक्स कहा।”

उषा पढ़ाने लगी। उषा कई दिन से महसूस कर रही थी  कि सुनील का पढ़ने में मन नहीं लगता और वह केवल आंखें फाड़ करके देखता ही रहता है उसे।

रोज कॉलेज छूटने पर कॉलेज के बाहर मिलता है न जाने क्या है उसके मन में ?

शायद यह उम्र ही ऐसी है।

उषा ने सोचा .. कि कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा वरना यह बच्चा अपनी पढ़ाई से हाथ धो बैठेगा।

अगले दिन जब कॉलेज के गेट पर सुनील मिला तो उसने सुनील से कहा .. “मेरे साथ घर चलोगे।”

सुनील खुशी खुशी उषा के साथ घर चला गया।

उषा ने सुनील को बैठाया और चाय नाश्ता करवाया। तब तक उषा के बच्चे भी लौट आए स्कूल से।  आपस में मिलवाया। सुनील सभी से मिलकर बहुत खुश हो गया।

बच्चों ने पूछा मम्मी यह “भैया कौन है।”

उषा ने कहा …. “इन्हें तुम मामा कह सकते हो।”

“क्यों सुनील यह रिश्ता तुम्हें मंजूर है?”

सुनील तुरंत मैम के चरणों में झुक गया। बोला.. “आपने मुझे सही मार्ग दिखाया। आपने मेरी आंखें खोल दी।”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 59 ☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘पचास पार की औरत’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद सार्थक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 59 ☆

☆  लघुकथा – पचास पार की औरत ☆

सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी सी हो रही थी,  क्यों,  यह उसे भी पता नहीं। बस मन कुछ उचट रहा था। बेटी की शादी के बाद से अक्सर  ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और  वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। वैसे तो परिवार में सब ठीक ठाक था, फिर भी रह-रहकर मन में निराशा और अकेलापन महसूस होता। दरअसल वह कभी घर में अकेली रही ही नहीं, अकेले घूमने–फिरने की आदत भी नहीं थी उसे। यही फुरसत और अकेलापन अब उसे खल रहा था, पर कहे किससे।

उसने कहीं पढा था कि 45 की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं और मन पर भी इसका असर पडता है, तो यह मूड स्विंग है क्या? वह सोच रही थी कि मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्या?  अपने में ही उलझी हुई सी थी कि फोन की घंटी बजी,  बेटी का फोन था – क्या कर रही हो मम्मां! बर्थडे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब? इस प्रश्न का जबाब ना देकर वह बोली – अरे कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थडे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा 35-40 के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा। इसी के साथ विचारों का सिलसिला चल पडा, पचास की उम्र की महिलाओं की स्थिति कुछ वैसी ही होती है जैसे पंद्रह – सोलह साल की लडकियों की, जिन्हें ना छोटा समझा जाता है ना बडा। कुछ बडों जैसा बोल दिया तो डांट पडती है कि ज्यादा दादी मत बनो, और कोई काम नहीं किया तो सुनने को मिलता – इतनी बडी हो गई सहूर नहीं है, बिचारी बच्ची करे तो क्या करे? शायद वह भी आज उम्र के ऐसे ही पडाव पर है। अब पति कहते हैं – पहले कहती थी ना आराम के लिए समय  नहीं मिलता,  अब जितना आराम करना है करो। बेटी समझाती है घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द- गिर्द ही घूमने की आदी है। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको? हैलो मम्मां कहाँ खो गईं? बेटी फोन पर फिर बोली। अरे यहीं हूँ, बोल ना। बताया नहीं आपने क्या करेंगी बर्थडे पर। अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ बहुत काम हैं। फोन रखकर उसने आँसू पोंछे, ये आँखें भी ज्यादा ही बोलने लगीं हैं अब।

मुँह धोकर वह शीशे के सामने खडी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। आँखों के आसपास काले घेरे बढ गए थे,  चेहरे पर उम्र की लकीरें भी साफ दिखने लगी थीं। चेहरे को देखते – देखते शरीर पर ध्यान गया, थकने लगी है अब। थोडा सा काम बढा,  फिर दो दिन आराम करने को मन करता है। शीशे में देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश की,  सुना था- शीशे के सामने खडे होकर मुस्कुराओ तो मन खुशी से भर जाता है। वह मुस्कुराने लगी – हाँ शायद बदल रहा है मन,  कुछ कह भी रहा है –  इस उम्र तक अपने लिए सोचा ही नहीं, पर अब तो सोचो। आधी जिंदगी परिवार में सिमटे रहो और बाकी उसकी याद में। खुद  मत बदलो और जमाने से शिकायत करते फिरो, यह तो कोई बात नहीं हुई। निकलना ही होगा उसे अपने बनाए इस घेरे से जो उसके आगे के जीवन को अपनी चपेट में ले रहा है। अब भी अपने लिए नहीं जिऊँगी तो कब? उसने कपडे बदले,  रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75 – हाइबन- जैसे का तैसा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- जैसे का तैसा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75☆

☆ हाइबन- जैसे का तैसा ☆

प्रकृति की हर चीज बदलती है । मगर कुछ चीजें आज भी ज्यों के त्यों बनी हुई है। जी हां, आपने सही सुना । हम कछुए की ही बात कर रहे हैं ।

इस प्रकृति में कछुआ ही ऐसा प्राणी है जो करोड़ों वर्ष से जैसा का तैसा बना हुआ है। इसका जन्म तब हुआ था जब छिपकली, सांप, डायनासोर भी नहीं थे । यानी आज से 20 करोड़ों वर्ष पहले भी कछुआ इसी तरह दिखता था।

प्राकृतिक रूप से बिल्कुल शांत रहने वाले कछुए का खून उसी की तरह बिल्कुल ठंडा होता है। इसके शरीर में कहीं बाल नहीं होते हैं। आमतौर पर कछुए की उम्र 50 से 100 साल तक होती है । मगर 300 प्रजातियों वाले कछुए की उम्र 200 से 400 साल तक पाई गई है ।

इसका कवच बहुत ही कठोर होता है। इसी कारण इसकी पुराने समय में ढाल भी बनाई जाती थी। कठोर कवच वाले कछुए का शेर भी शिकार नहीं कर पाता है।

नदी किनारा~

कछुए पर झपटा

नन्हासा शेर।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-02-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ रोशनदान ☆ श्री हरिप्रकाश राठी

श्री हरिप्रकाश राठी

(सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री हरिप्रकाश राठी जी ने यूनियन बैंक ऑफ़ इण्डिया से स्वसेवनिवृत्ति के पश्चात स्वयं को साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। श्री राठी जी अपनी साहित्य सेवा के लिए अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं। इसके अंतर्गत ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति श्रेष्ठ कथा सृजन पुरस्कार 2018, पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, विक्रमशीला विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा उत्कृष्ट कथा सृजन हेतु राजस्थान रत्न, राष्ट्रकिंकर नई दिल्ली द्वारा संस्कृति सम्मान, मौनतीर्थ फाउंडेशन उज्जैन द्वारा मानसश्री सम्मान, वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान, जोधुपर मेहरानगढ़ से निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती (यूपी) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी एवं यूनेस्को द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘रोशनदान’।) 

☆ कथा कहानी ☆ रोशनदान ☆ श्री हरिप्रकाश राठी ☆ 

नित्य की तरह ऑफिस से घर पहुंचा तब तक सांझ का झुरमुटा फैल चुका था। घर के ठीक सामने स्थित बगीचे में खड़े नीम, पीपल आदि ऊंचे पेड़ों पर पक्षियों का शोर बढ़ने लगा था। मैंने दरवाजा खोलकर स्कूटर भीतर पार्क किया, डाक के डिब्बे में रखे दो-तीन पत्र बिना उन पर तवज्जो दिये उठाए एवं भीतर चला आया। आज एक विचित्र तरह की अन्यमनस्कता मुझे घेरे हुई थी, दिन भर ऑफिस में कार्य भी बहुत था एवं दो बार बॉस से अकारण बहस भी हुई। मुझे अकडू़ बॉस जरा नहीं सुहाते, दिन भर पिलो, जी-हजूरी करो फिर यह देखते ऐसे हैं मानो कह रहे हों बरखुरदार ! मैं हूं तो आप नौकरी में हैं अन्यथा छकड़ी याद आ जाती। अरे, यह क्यों नहीं सोचता तू भी हमसे है, दिन भर तेल तो हम ही निकालते हैं तेरा तो इत्ता-सा कार्य है कि ऊपर हेडऑफिस को रिपोर्ट भेजना कि इन मासूमों का कित्ता तेल निकाला है। कीडे़ पड़ें साले को।

भीतर आकर बेड पर लेट गया हूं। मैं ऑफिस से आकर सबसे पहले यही करता हूं तत्पश्चात कुछ देर बाद उठकर भोजन की व्यवस्था करता हूं। अकेले आदमी को हजार दर्द  हैं। सुगंधा थी तो आते ही गर्म चाय मिल जाती थी, साथ में पकौड़े, स्नैक्स भी होते थे पर वह भी लड़-भिड़कर ऐसे पीहर गई कि वहीं की होकर रह गयी। आज इस बात को भी एक वर्ष होने को आया। ओह! ऐसे भी कोई रूठता है भला ! इगो इतना कि गरज है तो खुद लेने आओ जैसे उस दिन मैंने घर से धक्का देकर निकाला हो। खुद ही बिगड़ी थी। अभी तो शादी किये दो वर्ष हुए हैं। यह औरतें होती ही ऐसी हैं। इनके मां-बाप भी तो इनको शह देते हैं। कौन कहता है बेटियां पराया धन होती हैं मुझे तो ये पीहर की ऐसी फिक्सड डिपोजिट लगती है जिस पर मियाद तक न लिखी हो। जब रूसे उधर प्रयाण। पति मरे इनकी बला से। सोचते-सोचते मैं कुढ़ गया।

कोई आसमान नहीं गिर गया था उस दिन। मैंने जब कहा आज होटल ताज में डिनर लेते हैं तो बोली, “हरगिज नहीं ! इन फाइव स्टार होटलों में जाने की औकात है तुम्हारी। घर में इन-मीन जरा सी तनख्वाह आती है वह भी तवे की बूंदों की तरह पन्द्रह-बीस रोज में उड़ जाती है। बस, जैसे-तैसे घर चलता है।’’ कहते हुए उसके चेहरे पर परेषानी के भाव उभर आए।

“उस दिन तुम्हारे मम्मी-पापा आए और हमें ताज चलने को कहा, तब तो तुरत मान गई थी। वहां पूरे एक घण्टा बैठे चहक रही थी। बस मैंने क्या कह दिया उखड़ गई।’’ मैंने नहले पर दहला दिया। औरत को सीधा जवाब देना चाहिए वरना सर पर चढ़ जाती है।

“उस दिन मेज़बान वे थे, उनकी हैसियत है, वे अफॉर्ड कर सकते हैं, हमें हमारे बजट में चलना होगा। कुछ जिम्मेदारी सीखिए। यूं दार्षनिकों की तरह दीवारें देखने से घर नहीं चलता। ’’ इस बार उसकी आवाज पहले से तेज थी।

“घर फिर क्या तुम चलाती हो ?’’ मेरी आवाज उससे भी तेज थी।

“जी हां ! आप कमाते हैं तो मैं उसका प्रबंधन करती हूं। झक नहीं मारती, बस जस-तस धकियाती हूं। मि. मनीष, शेखचिल्ली की तरह बादलों में घोंसला नहीं बनाती।’’ इस बार उत्तर देते हुए वह लगभग चीख पड़ी।

“यू आर इम्पोसिबल सुगंधा! तुम्हें मेरे मूड की केाई दरकार नहीं। तुम्हें तो बस अपने हिसाब से नाव खेनी है। यूं चप्पू दांये-बांये चलने लगे तो चल गई गृहस्थी। खैर ! तुम्हारे साथ खुदा भी नहीं रह सकता।’’ मैंने पूरी भड़ास एक श्वास में निकाल दी।

“अच्छा! यह मुंह और मसूर की दाल। टाट का लंगोटा और फाग खेलूं। अरे मैं नहीं होती तो घर आपके भरोसे अब तक कबूतरखाना बन जाता। यू आर मोर देन इंम्पोसिबल। ’’ इस बार उत्तर देते हुए उसके होठ फड़कने लगे।

इस घटना के बाद घर में चुप्पी छा गई। उसका रौद्ररूप देख मैंने स्वयं को ज़ब्त किया। इसके आगे तो बस लठ बजना बाकी था। रात बिस्तर पर आई तो चेहरा ऐसा था मानो देखकर भस्म कर देगी।

बात यहीं नहीं रुकी। अगले दस दिन तक लांछन-प्रतिलांछन का दौर चलता रहा। तब मुझे पता चला वह मुझे लेकर क्या-क्या सोचती है, यहीं नहीं उसने कितने कपोलकल्पित भ्रम पाल रखे हैं। मैं उसकी याददाष्त देखकर दंग रह गया। यहां दो दिन पुरानी बात याद नहीं रहती। हद तो तब हुई जब उसने एक दिन फालतू बातों की उल्टी कर दी। जाने क्या-क्या बकती रही। आपको पराई औरतें सूंघने की आदत है। दिनभर जाने किस-किस से बतियाते रहते हो। देर रात तक सखियों से बकवास चैट करते हो। इतना कहकर भी वह रुकी कहां, आप में जरा भी मैनर्स नहीं है, मेहमान आते हैं तो खुद ही खुद बोलते हो, अरे उनकी भी तो सुनो। आधा तीतर आधा बटेर की तरह लोग क्या पूछते हैं, आप क्या उत्तर देते हैं। उन्हें कुछ सर्व करती हूं तो आधा आप खा जाते हो। भगवान जाने किस अज्ञात देव को भोग चढ़ाते रहते हो। कभी एक ही ड्रेस चार दिन चलती है तो कभी रोज नयी ड्रेस चाहिए। अजी़ब उल्टी खोपड़ी हो। ऑफिस में जाने किस-किस से झगड़कर आते हो। वहां का सारा तनाव यहां लाते हो एवं ठीकरा हम  पर फोड़ते  हो । एक बॉस तो बताओ जिससे आपकी बनी हो ! लोग तो मिट्टी के बॉस तक को मनाकर रखते हैं।’’

यह मेरे सब्र की इंतिहा थी। प्रत्युत्तर में मैंने भी उसकी हजार कमियां बताई। मैं स्वयं मेरे मीन-मेख निकालने के अंदाज पर दंग था। बात बढ़ती गई एवं फिर इतनी बढ़ी कि वह उसी रात अटैची लेकर पीहर चली गई। धीरे-धीरे रिष्तों में बर्फ जम गई। कानपुर मेरे मां-बाप ने उसे मनाने का प्रयास किया, ससुराल भी वहीं था, सास-श्वसुर ने मुझे समझाया पर हम अड़े रहे। ऐसी कम तैसी। दिन बीते, महीने समाप्त हुए एवं अब पूरा एक वर्ष भी गुजर गया।

बेड पर यही सोचते-सोचते मेरी खोपड़ी गरमा गई। यकायक मैं चौंका। घर के अन्य कार्य मेरे जहन में तैरने लगे। मैं पलंग से उठकर बाहर आया। मेरी नज़र डाइनिंग टेबल पर रखे पत्रों पर पड़ी। मैंने अनमने, असहज एक पत्र उठाया ,इसे खोला, खाली लिफाफा डस्टबिन में डाला एवं पत्र पढ़ने लगा। मैंने पढ़ना प्रारम्भ ही किया था कि मोबाइल बजा, बॉस का फोन था, मि. इस बार आपके टारगेट्स पूरे नहीं हुए हैं, अब मात्र बीस दिन बचे हैं, इन्हें पूरा करो वरना अंजाम आप खुद जानते हैं। यह कोढ़ में खाज जैसी बात थी। तनाव में भेजा घूम गया।

मैं डाइनिंग टेबल से कुर्सी खींचकर वहीं धंस गया। आज सुगंधा होती तो मन बांट लेता पर अब क्या, भुगतो। बीता समय लौटकर आता है भला! मैंने पुनः पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया। पत्र टाइप किया हुआ था। ऊपर कानपुर एवं पांच दिन पहले की तारीख लगी थी, नीचे सुगंधा के हस्ताक्षर थे। मैं बल्लियों उछल पड़ा। मेरे लिए यह किसी महान आष्चर्य से कम न था। सुगंधा झुक सकती है यह मेरी कल्पना से परे था। घर के छोटे-छोटे युद्धों में जब भी ठन जाती, मैं ही पहलकर उसे मनाता था। अच्छा है पीहर में रहकर अक्ल तो आई। अब वहां का दम भरेगी तो दस बार सोचेगी। मेरे मन के अज्ञात कोने में कहीं विजय-दुदुंभी बजने लगी। मैंने इस बार मनोयोग से पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया –

प्रिय !

आपसे अलग हुए अब एक वर्ष होने को आया। सच पूछो तो यह एक वर्ष मैंने पल-पल आपका इंतजार करते हुए बिताया है। अनेक बार तो मेरी नज़रें सड़क पर बिछ जाती कि तुम अब आए, अब आए पर तुम नहीं आए। कई बार तुम मेरे ख्वाबों में आते। ओह मनीष! तुम इतने कठोर कब से हो गये? कहां तुम एक पल  भी मेरे बिना नहीं रह सकते थे, जीने-मरने की कसमें खाते थे और अब एक अरसा होने को आया। मुझे आश्चर्य है इस पूरे वर्ष में तुमने फोन तक नहीं किया। क्या मैं इतनी बुरी थी कि तुम मेरा हाल तक न जानते?

आज पूरे दिन आपकी याद आंखों में तैरती रही। बहुत देर स्वयं को संयत किया फिर लगा आपको पत्र लिखूँ, आखिर ऐसा जीवन कितने समय तक बिताया जा सकता है? कभी-कभी तो लगता जो अधिकार, स्वायत्तता पति के घर में है, वह पीहर में नहीं है। अनेक बार यह भी लगता कि अब मम्मी-पापा की आंखों में खटकने लगी हूं, हालांकि उन्होंने कहा कुछ भी नहीं पर उनकी बेबसी, मजबूरी मैं समझ सकती हूं। कल पड़ौस की आण्टी मम्मी को बता रही थी कि कॉलोनी के निवासी मुझे एवं आपको लेकर जाने क्या-क्या भ्रम पाले हैं। ऐसे वातावरण में मेरा दम घुटने लगा है।

तुम्हें नहीं लगता हमें इन सब बातों पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए। माना मुझमें कुछ दोष हैं, आपको अधिकार भी था कहने का लेकिन क्या हर बात आंखें फाड़कर कहना आवष्यक है ? अगर मैंने आपको घर के अनुरूप जिम्मेदार बनने को कहा तो क्या गलत कहा? अनेक घर किसी न किसी सदस्य के गैर जिम्मेदारना व्यवहार से ही तबाह हुए हैं। फिर अपने ही तो अपनों को कहते हैं। प्रेम असंख्य अनकहे अधिकार आपकी झोली में डालता है। गृहस्थी में कुछ बचत भी चाहिये, तंगी में कौन संगी बनता है। पैसे की महत्ता तब पता चलती है जब पैसा नहीं रहता। तब कौड़ी-कौड़ी दांतों से चबाते हैं।

आप रात में अनेक बार बिना ऑफिस कार्य के अपनी सहकर्मी स्त्रियों से बातें करते थे, उनसें घण्टों चैट करते, यही मैं करती तो आप सह लेते? अगर आप ईमानदारी से हृदय पर हाथ रखकर सोचें तो मैंने यह दोष आपके एवं परिवार के हित के लिए ही बताए थे।

प्रिय ! अब हम और समय बरबाद नहीं करेंगे। मैं जानती हूं मैंने तुम्हें कितना मिस किया है। बस , पत्र मिलते ही मुझे लेने आ जाओ, मैं यहां अब एक पल भी नहीं रुकना चाहती।

तुम्हारी

सुगंधा

 

पत्र पढ़कर मैं भीतर तक भीग गया। आंखों में आंसू तैरने लगे। ओह सुगंधा ! यू आर सो ग्रेट। रह-रहकर उसका प्रेम, अहसास, सेवा याद आने लगे। उसने इतना कुछ दिया और तुमने क्षणभर में बिसरा दिया। इतना अहंकार! जिन मुद्दों पर बात बिगड़ी क्या वे दोष तुममें नहीं हैं? सोचते-सोचते लगा जैसे मुझसे कोई गंभीर अपराध हो गया है एवं मैं अपने ही चिन्तन के कटघरे में खड़ा चिल्ला रहा हूं। हां, यह दोष मुझमें हैं बस मैं सुधरना ही नहीं चाहता था। मैं एक ऐसे प्रमादवन में गुजर रहा था जहां आगे मात्र दुःखों का दावानल था।

मैं दूसरे ही दिन कानपुर के लिए रवाना हो गया। मेरा अचानक यूं ससुराल पहुंचना सबके लिए आश्चर्य था। हर्षातिरेक सुगंधा मुझे देखते ही रो पड़ी। उसकी गड्ढों में धंसी आंखें देखकर मैं भीतर तक कांप गया। मैं मेरी निष्ठुरता को धिक्कारने लगा। आंखों से धुंध छंट गई। मेरा खून सूखने लगा। ओह सुगंधा, मैने तुम्हें अकारण इतना कष्ट दिया। एक दिन रुककर मैं पुनः उदयपुर लौट आया।

डाइनिंग टेबल पर मैं फिर सुगंधा के साथ बैठा चाय पी रहा था। ओह! यह कैसा सुखभरा दिन था। लगा जैसे मन के बगीचे में असंख्य पक्षी एक साथ चहक उठे हांे। बातों ही बातों में सुगंधा ने मुस्कुराकर बात छेड़ी –

“यह एकाएक आपको बोध आया कैसे? अब पता चला बीवी के बिना घर कितना सूना होता है।’’

“ओह डार्लिंग! तुम्हारे पत्र ने मेरी आंखें खोल दी।’’ मैंने चाय का सिप लेते हुए उत्तर दिया।

“मैंने तो तुम्हें कोई पत्र लिखा ही नहीं।’’ उसकी आंखें आश्चर्य से लबालब थी।

“अब रहने दो। दिन अच्छे आए हैं तो उन्हें झूठे विनोद से मत बिगाड़ो।’’ उत्तर देते हुए मैंने पत्र लाकर उसके हाथ में थमाया।

उसने पत्र पढ़ा, भीतर ही भीतर मुस्कुराई एवं पत्र वहीं रख दिया। मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आंखों में भी वही आश्चर्य था जो मेरी आंखों में था।

तभी दरवाजे पर बेल बजी। घर के पड़ौस में रहने वाले भार्गव अंकल दरवाजे पर खड़े थे।

वे मुस्कुराते हुए भीतर आए, हमारे साथ चाय पी एवं जाते हुए धीरे से मेरी ओर देखकर बेाले, “यह पत्र मैंने लिखा था। पत्र पर झूठे दस्तखत भी मैंने ही बनाए थे।  कोई पन्द्रह रोज पूर्व सुगंधा का पत्र आया, जिसमें अंकलजी, इनका ध्यान रखना आदि ऐसी ही कुछ बातें लिखी थी। मैं ताड़ गया। सुगंधा ने इस पत्र के बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं कहने को लिखा था। उस दिन पत्र पढ़कर लगा सुगंधा तुम्हें कितना चाहती है। मैंने टेलीफोन पर बात कर उससे सारी विगत ली। मुझसे भला वह सच कैसे छुपाती। तुमसे भी मेरी जब-तब बात होती तो मैं तुम्हें उसे मिस करता हुआ देखता। तुम्हारी आंखें सदैव उसी को ढूंढती हुई-सी लगती।’’ कहते-कहते अंकल चुप हो गये।

हम दोनों आश्चर्यमुग्ध थे। उन्होंने अपनी सूझबूझ से हमारा घर पुनः बसा दिया।  आज मुझे समझ आया कि बुजुर्ग अंधेरे घरों के रोशनदान होते हैं।

वे उठकर बाहर जाने लगे तो मुझे लगा आज अंकल नहीं, घर से कोई देवदूत लौट रहा था।

©  श्री हरिप्रकाश राठी

दिनांक: 06/08/2019

संपर्क – सी-136, कमला नेहरू नगर प्रथम विस्तार, जोधपुर – 342 009

मोबाइल– 9414132483

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…हम सब जानते हैं कि साँप भी ज़हरीला प्राणी है। लेकिन हर साँप में ज़हर नहीं होता। साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”, ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक ज़हरीले प्राणियों के बारे में पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़ुबान पर होता है ज़हर। ज़ुबान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगीभर टीसता है। ..जो ज़िंदगीभर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 77 – लघुकथा – लाइक्स वाली दादी…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर विनोदपूर्ण लघुकथा  “लाईक वाली दादी….। आज सोशल मीडिया हमारे जीवन में हावी हो गया है।  हम सब  सोशल मीडिया की दुनिया में सीमित होते जा रहे हैं और आपसी मेलजोल की जगह लाइक्स और कमैंट्स लेते जा रहे हैं। इस लघुकथा के माध्यम से  सोशल मीडिया से उपजे विनोद का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘लाईक वाली दादी’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 77 ☆

? लघुकथा – लाईक वाली दादी …. ?

सकारात्मक सोच जीवन में नई ऊर्जा भर देती है। ऐसे ही कोरोना काल में पड़ोस में रहने वाली दीप्ति को बिटिया हुई। देखभाल के लिए उसके मम्मी पापा लखनऊ ले गए।

लगभग आठ महीने के बाद बच्ची को लेकर दीप्ति बहू घर आई। क्योंकि, उसकी सासु माँ का अचानक अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। तब तक आवागमन के साधन नहीं शुरू हुए थे। घर में आना-जाना शुरु हो गया। सासु माँ की सहेलियां, पड़ोस की सभी मिलने आने लगी। बच्ची सभी को देखते ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती। यहां तक कि उसकी और सगी दादी को भी वह देखकर रोती थी।

मोहल्ले में चर्चा का विषय बन गया। ‘हाय बाई! कैसे देखन जाएं उसकी मोड़ी तो जाते ही रोने लगती है।’ सासू माँ की एक सहेली जिसका आना जाना तो कम होता था परंतु समय के अनुसार वह मोबाइल और फेसबुक के कारण सभी समाचार प्राप्त कर लेती थी।

वे थोड़ी आधुनिक विचार की थी। दीप्ति की शादी से लेकर डिलीवरी तक का हालचाल वह व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही शेयर और लाइक करती। दीप्ति भी बच्ची की तस्वीर लगातार दो चार दिनों में डालती रहती। सभी में लाइक और गुड कमेंट लिखा करती थी सहेली आंटी।

वह देखने घर पहुंच गई। दीप्ति बच्ची को उस समय खाना खिला रही थी। सासु माँ बोली – “अभी ये रोना शुरु कर देगी। बात भी नहीं करने देगी।” परंतु यह क्या बच्ची तो सहेली आंटी को देखते ही खिल – खिलाकर हंसने लगी।

सभी आश्चर्य से देखने लगे। लिटाए हुए बेबी को सहेली ने गोद में उठा कर लेना चाहा। सभी ने मना किया। परंतु वह गोद में ले कर हंसते हुए स्वयं खिलखिलाती बच्ची को गोद में उठाकर कहने लगी- “इसको मालूम है मैं फेसबुक में सबसे ज्यादा लाइक करने वाली दादी हूँ। इसको भी पता है लाइक नहीं करुंगी तो???”

सभी का मुँह खुला का खुला ही रह गया। भाई साहब जो अब तक चुप थे कहने लगे- “मैं भी आज फ्रेंड रिक्वेस्ट जल्द ही भेज रहा हूँ। एक बार फिर हंसी फूट पड़ी। ??

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा 

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और  खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 4:56 बजे, 26.6.19 )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 81 ☆ लघुकथा – आपदा  में  अवसर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “आपदा  में  अवसर“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 81

☆ लघुकथा – आपदा  में  अवसर ☆

राधा बाई को हाथ पैर में सूजन की शिकायत होने पर पति रामप्रसाद ने अस्पताल में भर्ती करवा दिया। कोविड के मरीजों से अस्पताल हाऊसफुल था। बेड खाली नहीं थे। एक रात जमीन पर लिटाया गया, सुबह कोरोना मरीज की मृत्यु से एक बेड खाली हुआ तो उस बिस्तर में राधा बाई को लिटा दिया गया। राधा बाई को कोरोना नहीं था पर बेड मिलने से अस्पताल के सब लोग उससे भी कोविड मरीज की तरह व्यवहार करने लगे, रात भर राधा कराहती रही और दूसरी रात राधा की मृत्यु हो गई। प्रोटोकॉल के तहत रामप्रसाद को लाश नहीं दी गई। राधा बाई की मौत किन परिस्थितियों में कब और क्यों हुई, किसी को नहीं मालूम।

बेरहम व्यवस्था ने रामप्रसाद को पत्नी की मुखाग्नि देने के अधिकार से वंचित कर दिया। एक महीने भटकने के बाद मुक्ति धाम से मिले डेथ सर्टिफिकेट में मौत की तारीख़ 25 अगस्त लिखी थी, और अस्पताल से मिले डेथ सर्टिफिकेट में मौत की तारीख़ 28 अगस्त लिखी देख रामप्रसाद को राधा पर दया आ गई, बेचारी अभागी राधा दो बार मरी, पर दोनों बार नेगेटिव रिपोर्ट के साथ मरी। प्रोटोकॉल के तहत लाश ठिकाने लगाने वाले ठेकेदार को राधा फायदा करा गई, उसे राधा के नाम पर दो बार पेमेंट हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ औरत ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा औरत

इस लघुकथा का सुश्री माया महाजन द्वारा मराठी भावानुवाद आप इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>>>☆ जीवनरंग : लघुकथा– बाई  (भावानुवाद) सुश्री माया महाजन ☆

☆  लघुकथा – औरत

शहर की तमाम महिला समितियों ने मिलकर महिला दिवस पर महिला अत्याचार विरोधी संगोष्ठी का आयोजन किया ।बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं एकत्रित हुईं। कलेक्टर, कमिश्नर, मेयर के अलावा कुछ नेता भी पत्नियों सहित आमंत्रित थे। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर खुलकर चर्चा की गई जिसमें दहेज उत्पीड़न,परिवार द्वारा शोषण, कामकाजी महिलाओं का सहकर्मी पुरुषों द्वारा यौन उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या जैसे मुद्दों पर खुली बहस हुई। इन मुद्दों को लेकर प्रस्ताव पारित किए गए ।

दिनभर की व्यस्तता के पश्चात थकी हारी माधुरी घर पहुंची तो रात हो चली थी। खाने से निबटने के बाद वह निढाल सी पलंग पर पड़ी तो पति ने अपनी ओर खींचा। माधुरी ने कहा – “आज मैं बहुत थक गई हूं…..”

पति आवेश से दहाड़ उठा – “सारा दिन भाषण, नारेबाजी, स्टेज पर डोलने से थकान नहीं हुई और मुझे देखते ही थकान होने लगी? समझती क्या है अपने आप को?”

पति द्वारा पिटने और उसकी हवस पूरी करने के पश्चात मौन सिसकियों के बीच वह सोच रही थी, आज उसने यही मुद्दा तो उठाया था – पति द्वारा शोषण, उपेक्षा, प्रताड़ना का आखिर पत्नी कैसे सामना करे? कब तक यह सब सहन करे?  इसका हल क्या है? उसके उठाए मुद्दे पर प्रस्ताव पारित किया गया था। उस लोगों ने बधाई दी थी। अब उसे महसूस हो रहा था मानो बधाई देने वाले लोग उस पर फब्तियां कस रहे हैं, उसका उपहास उड़ा रहे हैं  – “देखा, चली थी क्रांतिकारी बनने ….मत भूलो, तुम औरत हो औरत ……..”

 

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ अप्रत्यक्ष इलाज ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा अप्रत्यक्ष इलाज  

☆ लघुकथा – अप्रत्यक्ष इलाज ☆

“माँ अमित से कहो मेरा सामान न छुआ करें मुझे पसंद नहीं है” सुमित बड़बड़ाया।

माँ बोली ..”तुम्हारा छोटा भाई ही तो है और तुम कितने चिड़चिड़े हो।”

अगले दिन सुमित ऑफिस के लिए तैयार हुआ रुमाल रखने के लिए जेब में हाथ डाला तो एक कागज था निकाल कर पढ़ा “हैव ए नाइस डे फ्रॉम खुशबू।” उसे बड़ा अच्छा लगा। अब वह जितनी बार कपड़े निकालता जेब में से पुर्जे में कुछ ना कुछ अच्छा लिखा होता। तुम्हारा स्वभाव बहुत अच्छा है, तुम बहुत अच्छे हो। ऐसी ही छोटी-छोटी पंक्तियों से थोड़े ही दिनों में उसका स्वभाव पूरी तरह बदल गया। गुस्सा हवा हो गया।

एक दिन उसने भाई को अलमारी से कपड़े निकालते देखा तो प्यार से कहा तुम मेरा सारा सामान मुझसे बिना पूछे ले सकते हो बस कपड़े मैं तुम्हें निकाल कर दूँगा।

फिर माँ से पूछ कर लॉन्ड्री के कपड़ों के बहाने खुशबू को ढूंढने गया।

काउंटर पर सरदार अंकल और एक अपाहिज लड़की बैठी थी उसने पूछा ..”मेरे कपड़े कौन धोता प्रेस करता है?”

अंकल जी बोले ..”बेटा यह तो मेन शॉप है यहां से कितने सारे धोबी के यहां  कपड़े जाते हैं बता नहीं पाऊँगा।” उसके जाते ही सरदार जी ने बाजू में बैठी लड़की से कहा ..”बेटा तुम्हें ढूंढते हुए यहां तक आ गया पर तुम्हें पहचान नहीं पाया।”

खुशबू बोली ..”अंकल दरअसल हमारी कल्पना हकीकत से बहुत ज्यादा खूबसूरत और परफेक्ट होती है। वो तो  एक दिन इसकी मम्मी को यहां फोन पर बात करते सुना कि मेरा बेटा बहुत चिड़चिड़ा है। मैं बहुत दुखी हूँ तब मैंने सोचा कि मैं चल तो नहीं सकती पर अपने शब्दों से ही किसी के जीवन को बदल दूं और कई बार अप्रत्यक्ष रूप से किया गया इलाज बहुत कारगर होता है लेकिन अब से उस पुर्जे की जरूरत नहीं पड़ेगी।”

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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