हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 143 ☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मम्माँज़ स्पेशल। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 143 ☆

☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्माँ! आपने हमारे लिए सत्तू क्यों भेज दिया ?

गाँव से लाए थे, थोड़ा तेरे लिए भी भेज दिया ऋतु, अच्छा होता है, गर्मी में पेट में ठंडक देता है। क्यों, क्या हुआ ?

माँ! क्या जरूरत है गाँव से चीजें ढ़ोकर लाने की? ऑनलाईन ऑर्डर करो घर बैठे सब मिल जाता है आजकल। बिना मतलब गाँव से इतना बोझा उठाकर लाओ।

अरे, अपने गाँव की पड़ोस की काकी ने बड़े प्यार से खुद बनाकर दिया है तेरे लिए। घर के बने सत्तू की बात ही कुछ और है। ये कंपनी वाले पता नहीं क्या मिलावट करते होंगे उसमें।

 सारी दुनिया ऑनलाईन शॉपिंग कर रही है। कंपनी वाले आपको ही खराब चीजें भेजेंगे? और अच्छा नहीं हुआ तो वापस कर दो, पैसे वापस आ जाते हैं।

‘अच्छा, ऐसा भी होता है क्या? हमें नहीं पता था। हमने तो अपनी माँ को ऐसे ही करते देखा था बेटा!। जब साल – दो साल में मायके जाना होता था, माँ वापसी के समय न जाने कितनी चीजें साथ में बाँध देती थी। लड्डू, मठरी, बेसन के सेव, गुड़, सत्तू और भी बहुत कुछ। आजकल तुम लोग हर चीज के लिए यही कहते रहते हो कि सब ऑनलाईन मिल जाता है, ऑर्डर कर लेते हैं। खरीद लो भाई सब ऑनलाईन, अब नहीं भेजेंगे कुछ। क्या करें माँ का दिल है ना!’ – सरोज ने झुंझलाते हुए कहा।

‘अरे! गुस्सा मत होईए, हम तो इसलिए कह रहे थे कि ट्रेन से सामान लाने में आपको परेशानी होती होगी, सामान बढ़ जाता है, सँभालना मुश्किल होता है और कोई बात नहीं है। ‘

‘हम पुरानी पीढ़ी के हैं बेटा। अब तुम लोग ऑनलाईन और गूगल युग के हो। जो चाहिए घर बैठे मँगा लो और जो कुछ पूछना हो तो गूगल गुरु हैं तुम्हारे पास, हमारे जैसों की क्या जरूरत?’ – सरोज के स्वर में थोड़ी मायूसी थी।

‘अच्छा छोड़ि‌ए यह सब, यह बताइए आपने हमें अपने हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू क्यों नहीं भेजे’ – ऋतु ने माँ को मनाते हुए कहा।

‘क्यों बेसन के लड्डू ऑनलाईन नहीं मिलते क्या, वह भी ऑर्डर कर लो, हम क्यों मेहनत करें’ — सरोज थोड़ी नाराजगी जताते हुए बोली।

‘हमें पता था गुस्से में आप यही बोलेंगी’ – ऋतु ने हँसते हुए कहा। ‘हमें कुछ नहीं पता माँ, आपके बनाए लड्डू खाने का बहुत मन हो रहा है। आपके हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू इतने स्वादिष्ट होते हैं कि नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता है। हॉस्टल में लड़कियों से छुपाकर रखना पड़ता था, नहीं तो एक दिन में ही सब खत्म। ‘मम्माँज़ स्पेशल लड्डू’ आपके सिवाय दुनिया में कोई भी नहीं बना सकता मम्माँ ! ’

‘अच्छा – अच्छा, अब माँ को मक्खन लगाना बंद कर, भेज दूँगी बेसन के लड्डू’ और दोनों फोन पर जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #181 – हाइबन – “कोबरा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक हाइबन – “कोबरा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 181 ☆

☆ हाइबन- कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था।  वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

पैर में सांप~

बंद आंखें के खड़ा

नवयुवक।

~~~~~~~

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-08-2020 

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 33 – ताक झांक…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ताक झांक।)

☆ लघुकथा – ताक झांक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

माँ अच्छा हुआ जो मैं आपके साथ तीर्थ में जगन्नाथ पुरी आई।

बहुत कुछ देखने और सीखने को मिल रहा है। देखो माँ जो हमारे साथ ट्रेन में महिला थी उसे सब लोग सहयात्री कैसे बुरा भला बोल रहे हैं। देखो जरा इसे, अपने अंधे पति को लेकर आई है क्या जरूरत है इसको…।

माँ ये लोग मंदिर की लाइन में दर्शन के लिए खड़े हैं लेकिन बुराई कर रहे हैं।

माँ ! उस महिला के पास चलते हैं।

उसे देखकर बहुत हिम्मत मिलती है ।

आप यहां खड़े रहो मैं उसे अपने साथ यहां पर बुला लेती हूँ।

नमस्कार पहचाना हम आपके सामने वाली सीट पर बैठे ट्रेन में बैठे थे।

हां पहचाना।

देखो न लोग कैसे कह रहे हैं?

मेरे पति की पहले आंखें थी धीरे-धीरे आंखों में कुछ रोग हो गया और उनकी दृष्टि चली गई मेरी नजर से वह दुनिया देखते हैं। वे देख नहीं सकते पर महसूस तो सब कुछ करते हैं।

बच्चे तो सब बाहर चले गए हैं लेकिन नौकरी कर रही थी। दोनों बच्चे खुश हैं। नाम के लिए दो बेटे हैं।

हम उनके लिए भर हैं। हम उनके लिए बोझ हैं ।

मैं गवर्नमेंट स्कूल में  टीचर थी। अब रिटायर हो गई हूं घर में बैठकर अकेले क्या करूंगी?

हम दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले है। क्या मुझे जीने का हक नहीं ?

रीमा ने धीरे से कहा-

बिल्कुल है आंटी।

चलिये आंटी आप मां के और मेरे साथ वहां पर खड़े हो जाइए तो हम चारों एक साथ रहेंगे।

काश! एक बिटिया होती दो बेटे नहीं..,

और वह रोने लगते हैं।

आंटी मेरे भी पिताजी नहीं है।

मां ने मुझे मुश्किल से पाला है मैं उनके साथ रहती हूं।

अब मैं छुट्टी में उनके साथ घूमती फिरती रहती हूं।

जीवन है तो क्यों ना हम हॅंस कर जिये।

बेटा तुमने बहुत अच्छी बात कही चलो अब हमारी यात्रा और अच्छी हो जाएगी हम लोग भगवान के दर्शन करते।

बहन जी आपकी बेटी बहुत प्यारी है।

लेकिन लगता है आजकल की दुनिया में लोगों के पास बहुत समय है, दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करने का…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 112 – जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 112 –  जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मां और पिता के 100% सुरक्षाकवर शिशु वत्स की यात्रा को आगे बढ़ने से नहीं थाम सकते क्योंकि जीवन सिर्फ संरक्षित होकर आगे बढ़ते जाने का नाम नहीं है,ये तो विधाता की योजनाबद्ध प्रक्रिया है जिसमें उसका अगला पड़ाव होता है भिन्नता,सामंजस्य, उत्सुकता,अपने जैसा कोई और भी होने का अहसास.शिशु के व्यक्तित्व के अंकुरित होने की अवस्था. और ये इसलिये आ पाती है कि अब प्रविष्ट होते हैं भाई और बहन, बहुत थोड़े से आयु में बड़े और साथ ही पेट्स भी. ये कहलाते हैं हमजोली जो अपने साथ लाते हैं खिलंदड़पन. अब सिर्फ खिलौने से काम नहीं चलने वाला बल्कि साथ खेलने वाला भी अपनी ओर खींचता है और ये काम तीनों ही बहुत सहजता और सरलता से करते हैं. पेट्स भी समझ जाते हैं कि ये हमारे जैसा ही है, हमारा मालिक नहीं बल्कि हमजोली है जिसका रोल न तो सिखाने का है न ही अनुशासित करने का बल्कि ये तो खेल खेल में अनजाने में वह सिखा जाने वाला है जो प्रतिस्पर्धा के साथ जीतने का गर्व या हारने पर फिर जीतने की कोशिश करना सिखाता है और खास बात भी यही है कि यहां जीत घमंडमुक्त और हार निराशा मुक्त होती है. हर खेल का प्रारंभ हंसने से और अंत भी हंसने से ही होता है. पेट्स भी खेल के आनंदरस में बाल खींचने या कान उमेठने की पीड़ा उसी तरह भूल जाते हैं जैसे जन्म देने की खुशी में प्रसवपीड़ा.

यही बचपन है, यही बालपन है और यही संपूर्ण रामायण का बालकांड भी.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 201 – सिसकती बूँदें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सिसकती बूँदें”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 201 ☆

🌻 लघु कथा🌻 🌧️सिसकती बूँदें🌧️

चंचल हिरनी सी उसके दो नैन, बस इंतजार ही तो कर रहे थे। कई वर्षों से वह चाह रही थी कि घर वालों के साथ सुधांशु उसका अपना हो जाए।

शायद परदेस से आने के बाद मन बदल जाए। सावन हरियाली चारों तरफ छाने लगी थी। मन भी पिया मिलन के सपने संजोए उस पल को तक रही थी, कि कब वह घड़ी आए और उसमें वह व्याकुल धरा सी और अमृत बूँद बनकर वे समा जाए।

महक जाए सोंधी खुशबू से घर आँगन, सारा परिवार और फिर मनाने लगे त्यौहार शायद उसकी कल्पना कल्पना ही रह गई।

शुचि ने जैसे ही पलकों को खोल सामने देखना चाहा बारिश बंद हो चुकी थी। परंतु अभी भी तेज गर्जन की आवाज से वह उसी प्रकार से डरने लगी, जैसे सुधांशु खड़ा गरजती आवाज में कह रहा हो – दरवाजा खोलो कितनी देर लग रही हो। दरवाजा खोलते ही सुधांशु के साथ साथ ही साथ बिल्कुल आधुनिक लिबास में सुंदर सी नवयौवना  गृहप्रवेश करने लगी।

शुचि को समझते देर नहीं लगी वह ठहरी गांव की अनपढ़ शायद इसीलिए वह पीछे सरकती चली गई। तेज बिजली कौंध गई। बारिश की बूँदों का चारों तरफ तेज हवा के साथ गिरना आरंभ हुआ।

आँगन में कपड़े उठते शुचि के चेहरे पर सिसकती बूँद आज बहुत कुछ बोलती, परंतु बस फिर एक तेज आवाज और गिरती सिसकती बूँदें धीरे-धीरे पलकों को छोड़ हाथों के सहारे साड़ी के पल्लू तक पहुंच गई थी।

शायद बारिश की बूँदें भी शुचि की इस दशा पर सिसक-सिसक कर गिरने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 251 ☆ कथा-कहानी – वह नहीं लौटा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – वह नहीं लौटा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 251 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ वह नहीं लौटा 

 उस दिन खरे साहब दफ्तर से लौटे तो उनके स्कूटर के पीछे एक युवक सवार था। लंबे-लंबे हाथ पाँव, लंबा दुबला चेहरा, पैर में रबर की चप्पलें, तीन-चार दिन की बढ़ी दाढ़ी और लंबे-लंबे रूखे बाल। शायद महीनों से उनमें तेल नहीं लगा होगा। उसके चेहरे पर निस्संगता और बेपरवाही का भाव था।

दोपहर को खरे साहब का फोन श्रीमती सुधा खरे के पास आ चुका था— ‘बड़ी मुश्किल से एक डेली वेजर की नियुक्ति करायी है। शाम को लेकर आ रहा हूँ।’

सुधा देवी तभी से उत्तेजित हैं। बेसब्री से खरे साहब के लौटने की प्रतीक्षा कर रही हैं। बाइयाँ तो काम के लिए मिल जाती हैं, लेकिन उन्हें ज़्यादा निर्देश नहीं दिये जा सकते। पलटकर जवाब दे देती हैं और चार आदमी के सामने इज्जत का फ़ालूदा बना देती हैं। ज़्यादा बात बढ़ जाए तो काम छोड़ने में एक मिनट नहीं लगातीं। फिर अपनी इज्ज़त ताक में रखकर चिरौरी करते फिरो।
सुधा देवी को इन बाइयों का स्वभाव आज तक समझ में नहीं आया। जैसे भविष्य की, बाल-बच्चों की ज़िन्दगी की कोई चिन्ता नहीं। हाथ का काम जहाँ का तहाँ छोड़ा और चलती बनीं। कहाँ से इतनी हिम्मत और इतनी बेपरवाही जुटा पाती हैं? उन्हें याद है जब पहली बार खरे साहब सस्पेंड हुए तो वे इतनी परेशान हुईं कि दस हज़ार रुपये ज्योतिषियों और टोने-टोटके वालों को दे डाले। खरे साहब के शरीर से जाने कितने भूत और जिन्न निकल कर नये ठिकानों को प्रस्थान कर गये,तब जाकर खरे साहब वापस बहाल हुए। उसके बाद खरे साहब तीन चार बार और सस्पेंड हुए,और वे समझ गयीं कि यह सब नौकरी में चलता रहता है। सस्पेंड होने से अब न किसी की इज्ज़त जाती है, न नौकरी।

सुधा देवी दफ्तर का आदमी चाहती थीं क्योंकि कच्ची नौकरी वाला आदमी बहुत बर्दाश्त कर लेता है। रगड़कर काम लो तब भी पलट पर जवाब नहीं देता। नौकरी पक्की होने की उम्मीद में गैरवाजिब हुक्म भी बजाता रहता है।

खरे साहब आदमी को लेकर पहुँचे तो सुधा देवी ने सर से पाँव तक उसका जायज़ा लिया। वह सुधा देवी को हल्का सा सलाम करके खड़ा हो गया। सुधा देवी ने उसका लंबा कद,लंबे दुबले हाथ पाँव और कुल मिलाकर हुलिया देखा। वे समझ गयीं कि यह आदमी ज़्यादा काम का नहीं।

इसकी बनक बताती है कि इसके हाथ पाँव फुर्ती से चल ही नहीं सकते। देखने से ही एंड़ा बेंड़ा लगता है।

सुधा देवी ने कुछ असंतोष से पति से पूछा, ‘यह नमूना कहाँ से उठा लाये?’

खरे साहब सवाल सुनकर भिनक गये। बोले, ‘तुम्हें तो सब नमूने लगते हैं। डेली- वेजेज़ में ट्रेन्ड आदमी कहाँ मिलेगा? जिनकी नौकरी पक्की हो गयी है वे किसी के घर पर काम नहीं करना चाहते। कहते हैं झाड़ू पोंछा के लिए जेब से पैसा खर्च करके आदमी रखो, यह हमारा काम नहीं है। सब अपने अधिकार जानते हैं।’

सुधा देवी का खयाल है कि उनके पति प्रशासन में कच्चे हैं, इसलिए ये सब काम उनसे नहीं होते। उनके अपने दादाजी ज़मींदार हुआ करते थे, ऐसे रोबदार ज़मींदार कि कब जूता उनके पाँव में रहे और कब हाथ में आ जाए, जान पाना मुश्किल था। उनका खयाल है कि प्रशासन क्षमता उन्हें विरासत में मिली है और एक बार मौका मिल जाए तो वे दुनिया को सुधार दें। खरे साहब चूँकि किरानियों के वंशज हैं, इसलिए शासन करना उनके बस में नहीं।

सुधा देवी ने समझ लिया कि अब इसी आदमी से काम चलाना है, इसलिए मीन-मेख  निकालने से कोई फायदा नहीं। लेकिन काम कैसे चले? यह आदमी चलता है तो लंबे-लंबे पाँव लटर- पटर होते हैं। खड़ा होता है तो कमर को टेढ़ा करके कमर पर हाथ रख लेता है। बर्तन माँजता है तो उसकी रफ्तार देखकर सुधा देवी का ब्लड प्रेशर बढ़ता है। बर्तनों पर गुज्जा ऐसे चलाता है जैसे उन पर चन्दन लेप रहा हो। बर्तनों की गन्दगी साफ करते में मुँह पर वितृष्णा का भाव साफ दिखायी पड़ता है। झाड़ू लगाता है तो हर पाँच मिनट में रुक कर कमर में हाथ लगाकर उसे सीधी करता है। लंबी-लंबी लटें बार-बार मुँह पर आ जाती हैं। उन्हें हटाने में ही काफी समय जाता है।

सुधा देवी के पास मनचाहा काम लेने के लिए एक ही रास्ता है— सारे वक्त आदमी के सिर पर चढ़े रहो। युवक का नाम गोविन्द है। गोविन्द बर्तन धोता है तो सुधा देवी बगल में खड़ी रहती हैं। बताती हैं कि कहाँ-कहाँ चिकनाई रह गयी। ‘जरा जोर से रगड़ो। कुछ खा पीकर नहीं आये क्या?’

गोविन्द झाड़ू लगाता है तो सुधा देवी पीछे-पीछे डोलती हैं। कहाँ-कहाँ जाले लगे हैं, इशारा करके बताती हैं। फर्नीचर पर जहाँ धूल रह जाती है वहाँ उँगली चला कर बताती हैं। किवाड़ों और पर्दों को हटाकर अटकी छिपी गन्दगी दिखाती हैं। गोविन्द को लगता है यह सफाई का काम खत्म नहीं होगा। एक कोने से मुक्ति मिलती है तो सुधा देवी की उँगली दूसरे कोने की तरफ उठ जाती है। गोविन्द के लिए यह समझना मुश्किल है कि इतनी सफाई क्यों ज़रूरी है। कहीं थोड़ा बहुत कचरा रह जाए तो क्या फर्क पड़ेगा? कचरे की तलाश में इतनी ताक-झाँक करना क्यों ज़रूरी है?

यह स्पष्ट है कि गोविन्द को साहबों के घर में काम करने का अभ्यास नहीं है। खरे साहब, सुधा देवी या उनके बच्चों से बात करने में उसके स्वर में कोई अदब-लिहाज नहीं होता। आवाज़ जैसी कंठ से निकलती है वैसी ही बहती जाती है। कहीं नट-स्क्रू नहीं लगता। शब्दों के चयन में भी कोई होशियारी नहीं होती। जो मन में आया बोल दिया। सुधा देवी के लिए यह स्थिति बड़ी कष्टदायक है। किसी के भी सामने अक्खड़ की तरह कुछ भी बोल देता है। दो भले लोगों के बीच चल रही बातचीत में हिस्सेदारी करने लगता है। दिन में दस बार दुनिया के सामने सुधा देवी की नाक कटती है।

गोविन्द के साथ बड़ी मुश्किलें हैं। घर में सब्ज़ी बेचने और दूसरे कामों से आने वाले मर्द- औरतों से बात करने में उसे बड़ा रस आता है। जाने कहाँ-कहाँ की बात करता है। कुछ अपनी सुनाता है, कुछ दूसरों की सुनता है। बतियाते, हँसते बड़ी देर हो जाती है। सुधा देवी सुनतीं, अपना खून जलाती रहती हैं। काम भले कुछ न हो, लेकिन ऊँचे स्वर में बात करना, हा हा ही ही करना बर्दाश्त नहीं होता। इशारे में कुछ समझाओ तो कमबख्त की समझ में आता नहीं।

जब तक आदमी खाली बैठा रहता है तब तक सुधा देवी का खून सनसनाता रहता है। नौकर का खाली बैठना उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। जब तक उसे फिर से किसी काम पर न लगा दें तब तक उनका किसी काम में मन नहीं लगता।

जिस कॉलोनी में खरे साहब रहते हैं उसके मुहाने पर सुरक्षा के लिए एक गार्ड रखा है जिसका वेतन कॉलोनी वाले सामूहिक रूप से देते हैं। सेना का रिटायर्ड हवलदार है, नाम चरन सिंह। बहुत दुनिया देखा हुआ, पका हुआ आदमी है। आदमी को बारीकी से पहचानता है। गोविन्द को देखता है तो उसके ओंठ नाखुशी से फैल जाते हैं। बुदबुदाता है— ‘यूज़लेस। एकदम अनफिट।’ उसकी नज़र में गोविन्द फौज के लिए किसी काम का नहीं है। इसे तो लेफ्ट राइट सिखाने में ही महीनों लग जाएँगे। लेकिन उससे बात करने में उसे मज़ा आता है क्योंकि गोविन्द की बातों पर अभी शहर की चतुराई और मजबूरी का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। खरी खरी बात करता है।

दो-तीन दिन में गोविन्द पलट कर सुधा देवी को जवाब देने लगा है। ‘कर तो रहे हैं’, ‘आप तो पीछे पड़ी रहती हैं’, ‘सुन लिया, आप बार-बार क्यों दुहरा रही हैं?’ और ‘थोड़ा दम लेने दीजिए, आदमी ही तो हैं।’ सुधा देवी उसका जवाब सुनकर एक क्षण अप्रतिभ हो जाती हैं, लेकिन जल्दी ही उसकी प्रतिक्रिया को परे धकेल कर फिर मोर्चे पर डट जाती हैं। नौकरों की प्रतिक्रिया पर ध्यान देने लगे तो काम हो चुका।

लेकिन पाँच छः दिन में बाद ही विस्फोट हो गया। गोविन्द बाँस में झाड़ू बाँधकर बाहर दीवारों के जाले झाड़ रहा था और सुधा देवी हाइफन की तरह थोड़ा सा फासला रखकर उससे नत्थी उसके पीछे-पीछे घूम रही थीं। एकाएक उसने बाँस ज़ोर से ऐसा ज़मीन पर पटका कि  सुधा देवी की हृदयगति रुक गयी। चिल्ला कर बोला, ‘हमें नहीं करना ऐसा काम। आप हमेशा सिर पर खड़ी रहती हैं। हम आदमी नहीं हैं क्या?’

सुधा देवी इस अप्रत्याशित घटना पर अकबका गयीं। उन्होंने घूम कर इधर-उधर देखा कि कोई उनके इस अपमान का साक्षी तो नहीं है। फिर हकला कर बोलीं, ‘क्या? यह क्या तरीका है? काम कैसे नहीं करेगा?’

गोविन्द अपने दुबले पतले पंजे उठाकर बोला, ‘नहीं करेंगे। आप हमेशा पीछे-पीछे घूमती रहती हैं। यह काम कराने का कौन सा तरीका है?’

सुधा देवी तमक कर बोलीं, ‘पीछे-पीछे न घूमें तो तुम्हें कामचोरी करने दें? आधा काम होगा, आधा पड़ा रह जाएगा।’

गोविन्द अपना हाथ उठाकर बोला, ‘हमें नहीं करना आपका काम। हम जा रहे हैं। साहब को बता दीजिएगा।’

सुधा देवी कुछ घबरा कर बोलीं, ‘ऐसे कैसे चला जाएगा? कोई मजाक है क्या?’

गोविन्द पलट कर बोला, ‘हाँ मजाक है। आपका कर्जा नहीं खाया है।’

उसने अपनी साइकिल उठाई और लंबी-लंबी टाँगें चलाता हुआ निकल गया। सुधा देवी कमर पर हाथ धरे हतबुद्धि उसे जाते देखती रहीं।

चरन सिंह दूर से सारे नज़ारे को देख रहा था। गोविन्द के ओझल हो जाने के बाद धीरे-धीरे चलता हुआ सुधा देवी के पास आ गया। बोला, ‘नासमझ है। गाँव से आया है। अभी समझता नहीं है। कुछ दिन ठोकर खाएगा, फिर समझ जाएगा। अभी दुनिया नहीं देखी है। आप फिकर मत करो। कल वापस आ जाएगा।’

सुधा देवी ने अपने गड़बड़ हो गये आत्मसम्मान को समेटा, फिर दर्प से बोलीं, ‘जब पेट में रोटी नहीं जाएगी तब होश आएगा। बहुत अकड़ता है।’

उनके भीतर जाने के बाद चरन सिंह के ओठों पर हँसी की हल्की रेखा खिंच गयी।

खरे साहब के दफ्तर से आने पर सुधा देवी ने झिझकते हुए उन्हें सूचना दे दी। खरे साहब निर्विकार भाव से बोले, ‘कौन सी नई बात है? तुम्हारे साथ हमेशा यही होता है। कल आ जाए तो अपना भाग सराहना।’

दूसरे दिन सवेरे आँख खुलते ही सुधा देवी का ध्यान पिछले दिन की घटना पर गया। उन्हें भरोसा था कि गोविन्द लौटकर आएगा। भूख बड़े से बड़े अकड़ू की अकड़ ढीली कर देती है। यह किस खेत की मूली है। ताकत एक पाव की नहीं है, लेकिन अकड़ रईसों जैसी है।

उसके आने का वक्त हुआ तो सुधा देवी बेचैन आँगन में घूमने लगीं। सारे विश्वास के बाद भी कहीं खटका था कि कहीं न आया तो। प्रतिष्ठा का सवाल था।

दिन चढ़ने लगा लेकिन गोविन्द का कहीं पता नहीं था। सुधा देवी भीतर घूमते घूमते ऊबकर बाहर आ गयीं। सामने फैले रास्ते पर बार-बार नज़र डालतीं। चरन सिंह अपनी ड्यूटी पर तैनात था। उसने उनकी तरफ एक बार देखकर मुँह फेर लिया।

अचानक एक दस बारह साल का लड़का खड़खड़ करती साइकिल पर आया और चरन सिंह से कुछ पूछ कर उनकी तरफ बढ़ आया। उनके सामने आकर बोला, ‘गोविन्द गाँव चला गया। कह गया कि बता आना कि अब नहीं आएगा।’

सुधा देवी का मुँह उतर गया। बड़ी कोशिश से गला साफ कर बोलीं, ‘ठीक है। अच्छा हुआ।’ लड़का मुड़ने लगा तो पीछे से बोलीं, ‘अब आये तो कहना हमारे घर आने की जरूरत नहीं है।’

लड़का ‘अच्छा’ कह कर आगे बढ़ गया और सुधा देवी पराजित सी घर की तरफ चल दीं। चरन सिंह ने फिर उनकी तरफ देखा और चेहरे पर फैल रही मुस्कान को छिपाने के लिए चेहरा घुमा लिया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “ख़बरें” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा – “ख़बरें“.)

☆ लघुकथा – ख़बरें ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल 

– बिस्कुट लेने गई लड़की का अपहरण। अबोध बच्ची के साथ बलात्कार।

– किसी लड़की के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार।

रोज-रोज अखबारों में ऐसी अनेकों ख़बरें पढ़ने मिल रही है पूरा माहौल गरमा गया है।

लोग कह रहे थे – यह क्या हो रहा है। सरकार क्या कर रही है आखिर?

बीच-बीच में कहीं से क्या यह खबर नहीं आना चाहिए – हम क्या कर रहे हैं? हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या? और क्या हम सब सबसे पहले इन खबरों को चटकारे लेकर नहीं पढ़ रहे हैं ?

यह प्रश्न चिन्ह हमारे सामने आकर क्यों नहीं खड़ा होता है आखिर आखिर!

* * * *

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुंह दिखाई… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा मुंह दिखाई

? लघुकथा – मुंह दिखाई… ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

बहुत धूमधाम से शादी सम्पन्न हुई। अगले दिन वधू की मुंह दिखाई की रस्म अदा होनी थी। सभी रिश्तेदार बड़ी उत्सुकता से इंतजार कर रहे थे, देखें सास अपनी बहू को मुंह दिखाई में क्या देती है?

बहूू जब पूूूरी तरह से तैयार होकर आई तो सास के चरण छूए। सास ने आशीर्वाद में सर पर हाथ फेरा फिर पूछा- “बहुुरानी क्या चाहिए तुम्हें मुंह दिखाई में..?”

‘दुल्हन, आज तो तुम्हारा दिन है। जडाऊ कंगन मांग लो’ एक रिश्तेदार ने कहा,

‘अरे नहीं हीरे का नेकलेस मांग लो… ‘दूसरे ने कहा हंसी ठठ्ठा चलने लगा। तीसरे ने कहा- ‘अपने लिए गाड़ी मांग लो…’ दुल्हन भी सभी के साथ मंद-मंद मुस्करा रही थी और सास भी लेकिन सास के मन में कुछ धुकधुकी भी होने लगी। रिश्तेदारों की बातों में आकर कहीं बहू सचमुच कोई ऐसी मांग न रख दे जिसे वे पूरी न कर सके।

कुछ समय तक चुहलबाजी, हंसी ठठ्ठा चलता रहा। फिर सास ने बहू से कहा- ‘हां बहू, क्या चाहिए तुम्हें?’

‘मम्मी जी, जब मैं बहुत छोटी थी तो मेरे पिताजी का देहांत हो गया था, पिता का प्यार क्या होता है कभी जाना ही नहीं। माँ ने ही दोनों बहनों को पाला पोसा है। मैं चाहती हूँ आपके प्यार आशीर्वाद के साथ-साथ पापा जी का प्यार भी मिले ताकि मैं भी पिता के प्यार को अनुभव कर सकूं। बस और कुछ नहीं चाहिए मुझे __‘बहू ने बड़ी विनम्रता से कहा। सारे रिश्तेदारों की आंखों में बहू के प्रति प्रशंसा के भाव नजर आने लगे थे। सास ने बहू के सिर पर हाथ फेरा उसके माथे पर चुंबन जड़ा और उसे अपने अंक में भींच लिया।

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 32 – पत्थर दिल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पत्थर दिल।)

☆ लघुकथा – पत्थर दिल श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दादी ओ दादी दरवाजा खोलो जोर-जोर से बाहर घंटी बजने की और दरवाजे को पीटने की आवाज आ रही थी।

कौन है मुझे परेशान कर रहा है दोपहर में चैन से सोने भी नहीं देता कमला जी धीरे-धीरे दरवाजे की ओर आई।

दादी में चीकू हूं ।

दोपहर में चैन से मुझे सोने क्यों नहीं देते हो घर के सामने पार्क होना भी एक मुसीबत हो गई है?

आज मुकेश नहीं आया है आप लोग बगीचे से स्वयं अपनी गेंद ले लो और मुझे तंग मत करो?

कमला जी ने जोर से चीकू से कहा।

दादी मुझे गेंद नहीं चाहिए मेरे दोस्त बंटी को चोट लग गई है थोड़ी सी हल्दी दे दीजिए उसे बहुत जोर से खून निकल रहा है।

आज मुकेश नहीं आया है इसलिए घर का काम भी नहीं हुआ है और खाना भी नहीं बना है खाना मैंने बाहर से ऑर्डर देकर मंगवाया है, कुछ भी नहीं मिलेगा।

मेरी बड़ी कोठी को देखकर सब लोग जलते हैं और तुम बच्चे अपने घर में क्यों नहीं जाते हो आए दिन कुछ न कुछ मांगने चले आते हो 1 दिन कुछ दे दिया तो रोज-रोज चले आओगे अपने घर जाओ और अपनी मां से मांगो।

दादी भी तो मां होती है मेरा घर थोड़ा दूर है मेरे दोस्त का बहुत खून निकल रहा है आप कुछ दवाई बता दीजिए जिससे उसका खून बंद हो जाए।

बहाने मत बनाओ यहां कुछ नहीं मिलेगा यहां से भाग जाओ।

कमला जी ने सोचा यदि इसे दया करके आज मैंने हल्दी दे दी तो रोज का कुछ ना कुछ लगा रहेगा…।

पोते और बेटों ने छोड़ दिया है और तुम अकेली इस घर में भूत की तरह रहती हो सब लोग तुम्हें ठीक ही कहते हैं मैं तो  सामान के बहाने हाल समाचार लेने को खटखट किया करता था लेकिन तुम तो पत्थर दिल हो पड़ी रहो अकेले। चीकू रोता हुआ वहां से चला जाता है।

कमला जी – हां सच कह रहा है तू मैं तो पत्थर हूं…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 – रिश्तों की तुरपाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा रिश्तों की तुरपाई ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌳 रिश्तों की तुरपाई 🌳

ये लघुकथा का शीर्षक मेरी अपनी कृति रिश्तो की तुरपाई है।

पेशे से वकील हजारीलाल (एच लाल) । गंभीर, तीक्ष्ण बुद्धि, मधुर व्यवहार, सौम्य, शांत, उनके पास न जाने कितने केस आते और सबकी पैरवी भी करते।

सदैव सुलझाते हुए परिणाम सुखद दिलाते हैं। पारिवारिक, घरेलू विवाद, बँटवारा, आपसी मतभेद के केस को ज्यादा महत्व देते थे और एक मौका उसे सुधारने का जरूर देते थे।

शायद इसे ही अच्छे वकील की पहचान कह सकते हैं। फीस की राशि पर कोई कंप्रोमाइज नहीं करते थे। बल्कि आम वकील से दुगना फीस लेते।

मनुष्य को तो सरल सहज और कोर्ट के चक्कर लगाना ना पड़े। इसलिए भी एच लाल की पैरवी सभी को बहुत पसंद आई थी।

उम्र का पड़ाव और तजुर्बा दोनों से परिपक्व, आज उसके स्वयं के बेटा बहू जिन्होंने अपनी पसंद से, दूर पढ़ते समय ही अपने जीवन की फैसला कर लिया।

विवाह के बंधन में बनने का निर्णय ले चुके थे दोनों प्राइवेट कंपनी में काम करते थे न जाने कब दूरियाँ बन गई। अभी ठीक से गृहस्थी का सामान भी नहीं आया और बेटे और बहू को गलतफहमी की वजह से एक छत के नीचे अजनबी की तरह रहना पड़ रहा था।

तेज बारिश और सावन का महीना लगते ही बागों में हरियाली होती है धरा की सुंदरता बढ़ जाती है।

आज कोर्ट से लौटते समय वकील साहब के हाथों में सुंदर दो छोटे-छोटे पौधे थे। उन्होंने पौधे को बेटा बहू को बुला कर देते हुए कहा… तुम दोनों अलग तो हो ही रहे हो क्यों ना अपने अलग होने की निशानी के तौर पर इन पौधों को यहाँ बगीचे पर लगा दो।

ताकि जब कभी किसी को बताना पड़े तो मुझे बताते हुए कह सकूँ कि यह पौधा मेरे बेटा बहू के तलाक के कारण लगाया गया है।

मगर मेरी शर्त है कि यह दोनों पौधे को सहेजने और बड़ा करने के लिए कम से कम एक वर्ष तक मेरी शर्तों पर तुम दोनों को इन पौधों की सेवा करना है।

जिसका पौधा ज्यादा सुंदर बड़ा और अच्छा होगा कि उसी के पक्ष में निर्णय जाएगा।

आज बेटे बहू दोनों को वकील साहब ने बुलाया और निर्णय की बात रखी।

निर्णय का इंतजार हो रहा था। पौधे तो दोनों के बराबर लगे हुए थे। चश्मे के अंदर से आँखों को पोंछते हुए आज वकील साहब (पिताजी) बने दोनों को गले लगाए।

अनुभव कर रहे थे की पीठ के पीछे बेटा बहू के हाथ एक दूसरे के हाथ में जुड़ा हुआ था। पश्चाताप से सरोबार बेटा बहू अपने पिताजी के कारण अपनी गलतफहमियों को दूर कर चुके थे।

आज सावन का पावन महीना हाजारी लाल फिर से एक बार अपने केबिन में जाकर वकालत की किताबों की जगह ‘रिश्तों की तुरपाई’ पढ़ रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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