हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 195 – जल संरक्षण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 195 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌧️जल संरक्षण🌧️

बिजली और पानी का मेल जन्म-जन्मांतर होता है। बिजली का चमकना और पानी का गिरना मानो ईश्वर का वरदान है मानव जीवन के लिए।

एक छोटा सा ऐसा गाँव जहाँ उंगली में गिने, तो सभी के नाम गिने जा सकते हैं।

उस गाँव में पीने के पानी के लिए एक तालाब और निकासी, स्नान, पशु पक्षी, और सभी कामों के लिए एक तालाब।

गाँव वाले इसका बखूबी पालन करते। चाहे कोई देखे या ना देखें।

“बिजली” वहाँ की एक तेज तर्रार उम्र दराज समझदार महिला। जैसा नाम वैसा गुण। पानी का संग्रहण पानी बचाओ और पानी की योजनाओं को थोड़ा बहुत समझती और उस पर अमल भी करती।

बातों से भी सभी को ठिकाने लगाने वाली। उसकी एक बहुत ही अच्छी आदत पानी संग्रह करने की।

घर में उसके यहां सीमेंट की बड़ी टंकी और जितने भी बड़े बर्तन, गंजी, गगरी, कसेडी, बाल्टी और जो भी बर्तन उसे समझ में आता, बस पानी से भरकर रख लेती। और कहती पानी को उतना ही फेंकना, जिससे औरों को तकलीफ न हो।

जब कभी पानी की परेशानी आती लोग दूर दूसरे गांव में सरपंच को खबर देते और फिर शहर से पानी का टैंक आता।

पानी का मोल गाँव वाले भली-भाँति जानते थे। कहने को तो सरकारी टेप नल लगा था, परंतु पथरीले गाँव और पानी का स्तर नीचे होने के कारण वहाँ पानी नहीं के बराबर आता।

आज अचानक लगा कि गाँव में पीने का पानी दूषित हो गया है।सभी एक दूसरे का मुँह तक रहे थे। सरपंच से बात होने में पता चला कि कुछ हो जाने के कारण तालाब का पानी पीने योग्य नहीं रहा। और पानी का टैंक शाम तक ही आ पाएगा।

बच्चे बूढ़े सभी परेशान। तभी किसी ने हिम्मत कर बिजली से जाकर कहा कि… “आज वह सभी को पानी पिला दे। साँझ टैक्कर से सब तुम्हारे घर में पानी भर देंगे।” गाँव वाले हाथ जोड़ बिजली से पानी मांग रहे थे।

आज तो बिजली अपने पानी बचाने और संग्रह कर रखने के लिए अपने आप को धन्य मानने लगी। सभी को पीने का पानी, निस्तार का पानी थोड़ा-थोड़ा मिल गया। राहत की सांस लेने लगे।

खबर हवा की तरह फैल गई। मीडिया वाले शहर से आ गए। सरपंच अपने मूंछों पर ताव देते अपने गाँव की तारीफ करते बिजली के साथ शानदार तस्वीर खिंचवाई ।

‘जल ही जीवन है, जल है अनमोल, समझे इसका मोल।’

जिस गाँव को कभी कोई जानता नहीं था। कभी पेपर पर नाम नहीं छपा था। आज बिजली के पानी बचाकर, अपने गाँव का नाम रौशन कर दिया।

बिजली और पानी संरक्षण। आज एक नई दिशा। सभी बिजली के गुण गा रहे हैं। सरपंच की तरफ से गाँव के मध्य बिजली को सम्मानित किया गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 87 – देश-परदेश – गर्मी की छुट्टियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 87 ☆ देश-परदेश – गर्मी की छुट्टियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गर्मी की दो माह की छुट्टियां याने बच्चों को आगामी वर्ष के लिए रिचार्ज होने का सुनहरा अवसर होता था।

गर्मी की छुट्टी मतलब ” ननिहाल चलो” मै और मेरे बड़े भाई अम्मा जी के साथ अपने अस्थाई निवास मुम्बई से रेल द्वारा दिल्ली आकर बस यात्रा से ननिहाल जोकि बुलंदशहर जिले के डिबाई नामक छोटे से कस्बे में स्थित है,पहुंच जाते थे।

पूरा कस्बा हमारे आने का इंतजार कर रहा होता था।घर पहुंचते ही बड़े भैया तो खेत में लगे हुए रहट पर जल क्रीड़ा करते रहते थे। हमारे लिए घर का  कुआं होता था।आरंभ में कुएं से पानी निकलना हमारे लिए कठिन कार्य होता था। दो तीन दिन में तो दस्सीयों बाल्टी पानी की खींच लेते थे।वो बात अलग थी,कई बार बाल्टी पानी में गिर जाती थी।

मामा लोग लोहे के कांटे से बाल्टी बाहर निकाल कर प्यार से कहते थे, हमारी नाजुक मुम्बई की गुड़िया, ये तेरे बस का नहीं है। हमें बता दिया कर।एस

आज तो घर के हर कोने में नल है,पर गर्मी में कुएं के ठंडे जल का स्नान दिन भर आज के ए सी से भी ठंडा रखता था।

कुएं में शाम के समय तरबूज़ को पानी में तैरने दिया जाता था। प्रातः काल का वो ही कलेवा होता था। नाना जी की पहेली”खेलने की गेंद,गाय का चारा,पीने को शरबत,खाने को हलवा… याने की तरबूज़।

तरबूज़ के छिलके को काटते समय सफाई से कार्य कर ही घर में रखी हुई गाय को चारा दिया जाता था ।घर में सभी गाय को “राधा” के नाम से बुलाते थे। हम सब भी उसके शरीर पर हाथ फेर कर प्रतिदिन उससे आशीर्वाद लेते थे।

प्रकृति,पशु धन का सम्मान होते हमने अपने ननिहाल में ही देखा था। उत्तर प्रदेश को”आम प्रदेश” कहना भी गलत नहीं होगा। दिन भर आमों को बर्तन में डूबो कर, उनकी गर्मी निकाल कर ही ग्रहण किया जाता था।

रात्रि खुले आंगन में बर्फ से ठंडा दूध और आम ये ही भोजन होता था। आम दशहरी से आरंभ होकर बनारसी लंगड़े तक हज़म किए जाते थे।बसआम बिना गिनती के खाने का चलन था,हमारे ननिहाल के आंगन में।

रात्रि शयन खुली छत में बिना पंखे के सोना,आज सिर्फ स्वपन में ही संभव है।दोपहर के भोजन में पड़ोसियों के विभिन्न व्यंजन,कच्चे आम के आचार के साथ कब पच जाते थे,पता ही नही चलता था।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – आदिवासी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है पारिवारिक डोर की एक सत्य बयानी पर आधारित लघुकथा “आदिवासी।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — आदिवासी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

{ पारिवारिक डोर की एक सत्य बयानी पर आधारित लघुकथा }

आधुनिक सभ्यता के दीवानों ने अपने लिए अनिवार्यता बना ली थी कि जहाँ भी खड़े हों वहाँ झूमता, गाता, खनकता सा शहर हो। यही नहीं, ये लोग जहाँ भी जाएँ शहर की कल्पना इनके साथ जाए। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की बात थी। शहर के रहने वाले कुछ लोग हवाई जहाज से सुदूर यात्रा पर निकले थे। नीचे एक सुरम्य स्थान दिखने पर उन्होंने अपना हवाई जहाज एक मैदान में उतारा था। वास्तव में ऊपर से तो सुरम्य स्थान की झलक मात्र मिली थी। हवाई जहाज से उतरने पर जब वहाँ उनके पाँव पड़े थे तब उन्हें वास्तविक सुरम्यता का पता चला था। विशाल पर्वत के प्रपात से दुग्ध जैसी जलधारा नीचे की ओर सरकती आती थी। प्रदूषण के मटमैले धुएँ से अछूता आसमान और शांत वातावरण दोनों मानो समंवित रूप से ऐसी प्रतीति लिख कर थमा रहे थे कि पढ़ कर देख लो तुम लोगों के स्वागत के लिए तैयारी पहले हो चुकी थी। गलती तुम्हारी है जो अब आए हो।

वह ठौर ऊँचे पेड़ों और छतनार जंगल के बीच होने से शहरियों का मत हुआ था यहाँ की जमीन आदिम युग से मानवी पाँवों से अनछुई पड़ी हुई है। पर ऐसा नहीं था। वास्तव में यहाँ की जमीन मानवी पाँवों की जानकारी रखती थी। पेड़ों की घनी छाँव में छोटे छोटे घर थे। शहरियों ने आगे बढ़ने पर यहाँ के जन जीवन की बड़ी ही कुतूहलता से साक्षात्कार किया था। यह आदिवासियों का बसेरा था। कंद मूल पर इनका जीवन पलता था। नदी होने से इन्हें पानी का अभाव पड़ता नहीं था। शायद पानी का वरदान इनके माथे पर पहले लिखा गया हो इसके बाद ये लोग यहाँ आए हों। कहीं से विस्थापन भी इनका दुर्भाग्य हो सकता था। कपडों का ढाँचा इन्हें मालूम तो न था। पर तन ढँकना इन्हें आता था। छोटे बच्चे, औरतें, किशोर लडके लड़कियाँ और पुरुष भिन्न — भिन्न घरों के हो कर भी एक परिवार जैसे लगते थे।

आगन्तुकों ने शहर की कल्पना में पगे होने से तत्काल अपनी योजना बना ली थी। आदिवासियों को कहीं और बसा दिया जाता या खदेड़ दिया जाता। इसके बाद यहाँ उनका अपना शहर उगा होता। जैसा सोचा गया वैसा होना बहुत जल्द शुरू हो जाता। पर पहले ही दिन आगन्तुकों में से दो मर्दों की हत्या हो गई थी। आगन्तुकों के साथ औरतें तो थीं। फिर भी यहाँ की औरतों पर उनकी नजर थी। इसी नृशंसता के परिणाम में उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। खून से लथपथ दोनों शवों को जानवरों के जबड़ों के लिए फेंक दिया गया था।

कुछ ईश्वर प्रदत्त प्रज्ञा और कुछ अपनी सामाजिकता से इन आदिवासियों को बोध था अपनी औरतों की रक्षा करना इनका अखंड उत्तरदायित्व है।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

08 – 06 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #173 – लघुकथा – एक और फोन कॉल… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा एक और फोन कॉल..)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 173 ☆

☆ लघुकथा – एक और फोन कॉल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

फोन की घंटी बजती तो पूरे परिवार में सन्नाटा छा जाता। किसी की हिम्मत ही नहीं होती फोन उठाने की। पता नहीं कब, कहाँ से बुरी खबर आ जाए। ऐसे ही एक फोन कॉल ने तन्मय के ना होने की खबर दी थी।  तन्मय कोविड पॉजिटिव होने पर खुद ही गाडी चलाकर गया था अस्पताल में एडमिट होने के लिए। डॉक्टर्स बोल रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक है। उसके बाद उसे क्या हुआ कुछ समझ में ही नहीं आया।अचानक एक दिन अस्पताल से फोन आया कि तन्मय नहीं रहा।  एक पल में  सब कुछ शून्य में बदल गया। ठहर गई जिंदगी। बच्चों के मासूम चेहरों पर उदासी मानों थम गई।  वह बहुत दिन तक समझ ही नहीं सकी कि जिंदगी  कहाँ से शुरू करे। हर तरह से उस पर ही तो निर्भर थी अब जैसे कटी पतंग। एकदम अकेली महसूस कर रही थी अपने आप को। कभी लगता क्या करना है जीकर ? अपने हाथ में कुछ है ही नहीं तो क्या फायदा इस जीवन का ? तन्मय का यूँ अचानक चले जाना भीतर तक खोखला कर गया उसे।

ऐसी ही एक उदास शाम को फोन की घंटी बज उठी, बेटी ने फोन उठाया।  अनजान आवाज में कोई कह रहा था – ‘बहुत अफसोस हुआ जानकर कि कोविड के कारण आपके मम्मी –पापा दोनों नहीं रहे।  बेटी ! कोई जरूरत हो तो बताना, मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में ही रहता हूँ।’

बेटी फोन पर रोती हुई, काँपती आवाज में जोर–जोर से कह रही थी – ‘मेरी मम्मी जिंदा हैं, जिंदा हैं मम्मा। पापा को कोविड हुआ था, मम्मी को कुछ नहीं हुआ है। हमें आपकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना  मम्मी —‘

और तब से वह जिंदा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 106 – बैंक: दंतकथा: 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  बैंक: दंतकथा: 3

☆ कथा-कहानी # 106 –  बैंक: दंतकथा: 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अविनाश अतीत में गोते लगाते रहते  पर मोबाईल में आई नोटिफिकेशन टोन ने उन्हें अतीत से वर्तमान में ट्रांसपोर्ट कर दिया. आंचलिक कार्यालय की घड़ी रात्रि के 8 बजे के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी. पर मोबाईल में वाट्सएप पर आया केके का मैसेज उन्हें लिफ्ट में ही रुककर पढ़ने से रोक नहीं पाया।

मैसेज : Dear AV, Mr. host of the month, what will be the menu of sunday lunch ?

Reply from AV : It will be a secret surprise for both of us, only Mrs. Avantika Avinash & Mrs. Revti Kartikay know. But come on time dear Sir. Reply was followed by various whatsapp emojis which were equally reciprocated by KK.

अविनाश और कार्तिकेय की दोस्ती सही सलामत थी, मजबूत थी. ये दोस्ती ऑफिस प्रोटोकॉल के नियम अलग और पर्सनल लाईफ के अलग से, नियंत्रित थी. हर महीने एक संडे गेट टु गेदर निश्चित ही नहीं अनिवार्य था जिसकी शुरुआत फेमिली लंच से होती थी, फिर बिग स्क्रीन टीवी पर किसी क्लासिक मूवी का लुत्फ़ उठाया जाता और फाईनली अवंतिका की मसाला चाय या फिर रेवती की बनाई गई फिल्टर कॉफी के साथ ये चौकड़ी विराम पाती. जब कभी मूवी का मूड नहीं होता या देखने लायक मूवी नहीं होती तो कैरमबोर्ड पर मनोरंजक और चीटिंग से भरपूर मैच खेले जाते. ये चीटिंग कभी कभी खेले जाने वाले चेस़ याने शतरंज के बोर्ड पर भी खिलाड़ियों को चौकन्ना बनाये रखती. शतरंज के एक खिलाड़ी की जहाँ knight याने घोडों के अटेक में महारत थी, वहीं दूसरा खिलाड़ी बाजी को एंडगेम तक ले जाने में लगा रहता क्योंकि उसे पैदलों याने Pawns को वजीर बनाने की कला आती थी।घोड़े और पैदल शतरंज के मोहरों के नाम हैं और उनकी पहचान भी.

जहाँ अविनाश और अवंतिका प्रेमविवाह से बंधे युगल थे वहीं रेवती का चयन, कार्तिकेय के परंपराओं को  कसकर पकड़े उनके पेरेंट्स की पसंद से हुआ था. मिसेज़ रेवती कार्तिकेय जी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं पर उससे भी बढ़कर सांभर बनाने की पाककला में पीएचडी थीं. उनका इस कहावत में पूरा विश्वास था कि दिल तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत, सुस्वादु भोजन के रूप में पेट से होती है.

तो इस मंथली लंच टुगेदर के होस्ट कभी अविनाश होते तो कभी कार्तिकेय।महीने में एक बार आने वाले ये सुकून और आनंददायक पल, कुछ कठोर नियमों से बंधे थे जहाँ बैंक और राजनीति पर चर्चा पूर्णतया वर्जित थी. स्वाभाविक था कि ये नियम रेवती जी ने बनाये थे क्योंकि उनके लिये तीन तीन बैंकर्स को झेलना बर्दाश्त के बाहर था।

कार्तिकेय जानते थे कि कैरियर के लंबे सफर के बाद पुराने दोस्त से मुलाकात हुई है और पता नहीं कब तक एक सेंटर पर रहना संभव हो पाता है, तो इन खूबसूरत लम्हों को दोनों भरपूर इंज्वाय करना चाहते थे. वैसे इस बार लंच का मेन्यु, अविनाश की बनाई फ्राइड दाल, अवंतिका की बनाई गई मसालेदार गोभी मटर थी और देखी जा रही मूवी थी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत “नमकहराम”. और जो गीत बार बार रिपीट किया जा रहा था वो था

दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं

बड़ी मुश्किल से मगर, दुनियां में दोस्त मिलते हैं

दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है

सच कहता हूँ सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है

उम्र भर दोस्त मगर साथ चलते हैं, दिये जलते हैं

ये फिल्म देख रहे दोनों परिवारों का पसंदीदा गीत था और हो सकता है कि शायद कुछ पाठकों का भी हो.

तो खामोश मित्रों और मान्यवरों, ये दंतकथा अब इन परिवारों की समझदारी और दोस्ती को नमन कर यहीं विराम पाती है।हो सकता है फिर कुछ प्रेरणा पाकर आगे चले, पर अभी तो शुभकामनाएं और धन्यवाद !!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 26 – बातों का वजन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बातों का वजन।)

☆ लघुकथा – बातों का वजन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

तुम लोगों ने बहुत ही अच्छा पिकनिक का प्रोग्राम बनाया, आज तो आनंद आ गया। मां नर्मदे का दर्शन पूजन आरती सब कुछ हो गया इतना सुख और आनंद मिला नाव से उतरते हुए रागिनी जी ने अपनी सखी नेहा से कहा।

नेहा बहन आनंद तो आया पर देखो यहां घाट पर कितनी दुकान लगा ली है जरा भी जगह नहीं छोड़ी है और बर्तनों की सफाई भी यहीं पर कर रहे हैं यह लोग।

अपनी बात नेहा  पूरी नहीं कर पाई थी….. तभी अचानक एक महिला ने कहा बहन जी आप लोग यहां आकर किटी पार्टी करती हैं और चली जाती हैं दीपदान भी करती हैं तो सामान हमारी दुकान से मिलेगा, और यह शाम की आरती के बर्तन है हम उसे साफ कर रहे हैं ।

आपके घरों का कचरा फूल और मूर्तियां भी तो आप यहां पर डालते हो और क्या नाले का पानी यहां पर आकर  मिलता है। आप घरों में मशीन (प्यूरीफायर) का पानी पीती हैं।

यह जल भरकर ले जाती है पूजा करती हैं क्या आप पीती भी हैं ?

मेरी बात पर गौर करना, मेरा नाम आराधना है। गरीब हैं तो क्या हुआ लेकिन मैं भी पोस्ट ग्रेजुएट हूं।

उसकी बात सुनते नेहा, रागिनी  सभी सखियों के चेहरे पर एक चुप्पी छा जाती है और सभी चुपचाप  अपने गाड़ी की तरफ शीघ्रता से कदम बढ़ाती है ।

 तभी  एक सखी ने कहा – बहन तोल  कर बोलना चाहिए?

 बातों में भी वजन होता है आज पता चला…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 244 ☆ कहानी – ‘मलबे के मालिक’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम एवं हृदयस्पर्शी कहानी – मलबे के मालिक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 244 ☆

☆ कहानी – मलबे के मालिक

बलराम दादा अब निस्तेज हो गये हैं। दुआरे पर कुर्सी डाले ढीले-ढाले बैठे रहते हैं। चाल-ढाल में पहले जैसी तेज़ी और फुर्ती नहीं रही। चेहरे पर झुर्रियों का मकड़जाल बन गया है। आँखों में भी पहले जैसी चमक नहीं रही। मोटे फ्रेम वाला बेढंगा चश्मा उनकी सूरत को और अटपटा बना देता है।

घर में भी अब पहले जैसी रौनक नहीं रही। आठ दस साल पहले तक यह घर आदमियों के आवागमन और उनकी आवाज़ों से गुलज़ार रहता था। बलराम दादा के पास भी गाँव के दो-चार लोगों की बैठक जमी रहती थी। अब ज़्यादातर वक्त घर में सन्नाटा रहता था। कभी किसी के आने से यह सन्नाटा टूटता है, लेकिन फिर जल्दी ही मौन दुबारा पसर जाता है।

बलराम दादा के पिता ने काफी ज़मीन- ज़ायदाद बनायी थी। वे राजा की सेवा में थे और उन दिनों ज़मीन का कोई मोल नहीं था। बलराम के पिता दूरदर्शी थे, उन्होंने राजा साहब की मेहरबानी और अपनी कोशिशों से काफी ज़मीन हासिल कर ली। दुर्भाग्य से उनकी असमय मृत्यु हो गयी और परिवार की ज़िम्मेदारी छब्बीस साल के बलराम के ऊपर आ गयी।

पिता ने अपने जीते ही बच्चों में ज़मीन का बँटवारा कर दिया था, इसलिए आगे कोई मनमुटाव की संभावना नहीं थी। बच्चों की पढ़ाई के लिए पास के शहर में किराये का मकान ले लिया था जिसमें बलराम के तीन भाई और एक बहन रहते थे। बहन बलराम से छोटी थी। देखभाल के लिए एक सेवक सपत्नीक रख दिया था। बलराम की पढ़ाई में रुचि बारहवीं के बाद खत्म हो गई थी और वे घर पर ही रह कर खेती के कामों में पिता का हाथ बँटाने लगे थे। उनका विवाह भी हो गया था।

पिता की मृत्यु के बाद बलराम चकरघिन्नी हो गये थे। सबेरे से मोटर-साइकिल पर निकलते तो लौटने का कोई ठिकाना न होता। समय से ज़मीनों की जुताई-बुवाई, ज़रूरत पड़ने पर अपने ट्रैक्टर के अलावा और ट्रैक्टरों और दूसरे उपकरणों का इन्तज़ाम, मज़दूरों की व्यवस्था, लोन की किश्तें जमा करने की फिक्र, इन्द्र देवता   के समय से कृपालु न होने की चिन्ता— सारे वक्त यही उधेड़बुन लगी रहती। बिजली का कोई ठिकाना न था। आठ-आठ दस-दस घंटे गायब रहती। अचानक रात को दो या तीन बजे आ जाती तो तुरन्त उठकर पंप चलाने के लिए भागना पड़ता। गाँव से हिलना-डुलना भी मुश्किल था। कभी एक-दो दिन के लिए कहीं जाते तो चित्त यहीं धरा रहता। मज़दूरों की बड़ी समस्या थी। अब मज़दूरों को आसपास चल रहे निर्माण कार्यों में अच्छी मज़दूरी मिल जाती है, इसलिए अब वे गाँव में कम मज़दूरी पर काम करने को राज़ी नहीं होते।

समय गुज़रने के साथ बलराम के भाई पढ़-लिख कर काम-धंधे से लग गये। दो की अपने शहर में ही नौकरी लग गयी, जब कि छोटा राजनीति में अपनी पैठ बनाने में लग गया। उसमें शुरू से ही राजनीतिज्ञों के गुण थे। जल्दी ही वह अपने भाइयों के लिए संकटमोचक बन गया क्योंकि आजकल राजनीति से बेहतर कोई कवच नहीं है। तीनों भाइयों और बहन की शादियाँ भी हो गयीं और तीनों भाई शहर में मकान बनाकर स्थापित हो गये। बलराम अब भी अपना चैन हराम करके सबके हिस्से की ज़मीन सँभालने में लगे थे।

बलराम ने भाइयों के लिए बड़े आँगन में अलग-अलग कमरे बना दिये थे। कमरे तो भाइयों के थे, लेकिन उनकी चाबी बलराम की पत्नी के पास रहती थी। घर के मेहमान साझा होते थे। वे किसी के भी कमरे में ठहर जाते थे। गर्मियों में तीनों भाई अपने बच्चों को गाँव भेज देते। तब घर में भयंकर हल्ला-गुल्ला मचता। सब तरफ बच्चों की फौजें दौड़ती फिरतीं। बलराम की पत्नी की व्यस्तता बढ़ जाती। दिन भर बच्चों की फरमाइशें।  कहीं चोट न खा जाएँ इसकी फिक्र। शहर के बच्चे गाँव की खुली जगह और चढ़ कर खेलने लायक पेड़ों को देखकर मगन हो जाते। गाँव वाले बलराम के घर में मचती चीख-पुकार को कौतूहल से देखते। बलराम कुर्सी पर बैठे, अपने कुटुंब की बढ़ती बेल को देखकर पुलकित होते रहते।

लेकिन भाइयों और उनकी पत्नियों के बीच कुछ खिचड़ी पकने लगी थी। अभी तक भाई अपनी ज़रूरत के हिसाब से गल्ला गाँव से ले जाते थे, लेकिन अब अपनी ज़मीन अपने कब्जे में लेने और मिल्कियत का सुख लेने की इच्छा बलवती हो रही थी। उनकी पत्नियाँ भी कमर में चाबियों का झब्बा खोंसने के लिए आतुर हो रही थीं। उन्हें यह शिकायत थी कि जेठ जी हर साल खेती की आमदनी का हिसाब क्यों नहीं देते। क्या इतनी बड़ी खेती में कुछ और नहीं बचता होगा?

बलराम इससे बेख़बर थे। वे अपने को परिवार का मुखिया मानते थे और उन्हें इस बात का बड़ा गर्व था कि सब भाई एक हैं और सब उनके आज्ञाकारी हैं। भाइयों को देने के बाद गल्ले से ही खेती के सारे खर्च पूरे होते थे और कई बार बलराम को ऋण लेने की स्थिति आ जाती थी। वे भाइयों से कुछ माँगते नहीं थे, लेकिन भाइयों की नियमित कमाई होने के चलते उनसे मदद की उम्मीद ज़रूर करते थे। लेकिन भाई जब भी मिलते, शहर के बड़े खर्चों का रोना शुरू कर देते, और बलराम को उनसे कुछ कहने की हिम्मत न होती।

भाइयों के अपनी ज़िन्दगी में व्यवस्थित होने के बाद बलराम उम्मीद करते थे कि भाई उनके दो बेटों को अपने पास रखकर उनके पढ़ने- लिखने की व्यवस्था करें, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। उन्होंने कई बार भाइयों को अपनी कठिनाइयों का संकेत दिया था, लेकिन वे उनके इशारों को अनदेखा करते रहे थे। सभी के पास कोई न कोई बहाना था। हर बार आश्वासन मिलता था कि कुछ दिन और रुक जाएँ, फिर रख लेंगे। लाचार, बलराम ने एक बेटे को उसके मामा के पास भेज दिया था, दूसरे ने शहर में अपने एक दोस्त के साथ रहने की व्यवस्था कर ली।

अब भाइयों का सब्र टूट रहा था। उन्होंने आपस में सलाह करके गांँव के त्रिवेनी पंडित को राज़ी किया कि वे बलराम को समझाएँ कि भाइयों को उनकी ज़मीन सौंप दें। त्रिवेनी पंडित बलराम के पास पहुँचे। बोले, ‘भैया, अब ये इतनी जिम्मेदारियाँ क्यों लादे हो? भाई सयाने हो गये हैं, उनकी जमीन उन्हें सौंप कर हलके हो जाओ। फालतू का बोझ लिये फिर रहे हो।’

सुनकर बलराम की भौंहें चढ़ गयीं। तल्ख स्वर में बोले, ‘बड़ी अच्छी नसीहत दे रहे हो। जब हमें तकलीफ नहीं है तो आपको क्या तकलीफ हो रही है? भाइयों ने तो आज तक कुछ कहा नहीं, आपके दिमाग में यह बात कैसे आयी?’

त्रिवेनी सिटपिटा कर बोले, ‘हम तो आप के भले की बात कर रहे हैं। आपको बुरा लगा हो तो छोड़िए।’

बलराम बोले, ‘हम सब समझते हैं। हम सब भाई मिलकर रह रहे हैं, इसलिए आपकी छाती पर साँप लोटता है। आप चाहते हैं कि हमारे घर में भी और घरों जैसा बाँट- बखरा हो जाए।’

त्रिवेनी पंडित हड़बड़ाकर कर उठ गये। चलते चलते बोले, ‘माफ करो भैया, हमें क्या लेना देना।’

त्रिवेनी पंडित का मिशन विफल होने के बाद भाइयों और उनकी पत्नियों ने समझ लिया कि अब लिहाज तोड़े बिना काम नहीं चलेगा। अगली बार भाई और उनकी पत्नियाँ योजना बना कर आये। वे एक कमरे में इकट्ठे हो जाते और बड़ी भाभी को सुना सुना कर टिप्पणियाँ करते। छोटा भाई और उसकी पत्नी सबसे ज़्यादा मुखर थे। कहा जाता, ‘अरे भाई, मालिक बनने का बड़ा शौक है। दूसरे की जमीन दबाकर राज कर रहे हैं। जमीन हमारी है लेकिन कुछ बोल नहीं सकते। कोई सलाह देता है तो उस पर लाल-पीले होते हैं। त्रिश्ना खतम नहीं होती न।’

भाभी के कान में अमृत-वचन पड़े तो उन्होंने बात बलराम तक पहुँचा दी। बलराम आसमान से ज़मीन पर आ गये। समझ गये कि वे अभी तक खुशफहमी में थे। उन्हें पहले ही समझ लेना चाहिए था।

उन्होंने भाइयों को बुलाकर उनकी ज़मीनों के कागज़ात सौंप दिये। भाइयों ने थोड़ा ऊपरी संकोच दिखाया— ‘क्या जल्दी है? आप देख तो रहे हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं है’, फिर हाथ बढ़ाकर कागज़ ले लिये। बड़ी भाभी ने उनके कमरों की चाबियाँ भी उन्हें सौंप दीं। भाइयों की पत्नियाँ अब स्वामित्व के एहसास से मगन थीं। घर की चीज़ों के मायने अब सब के लिए बदल गये थे। सब कुछ वही था, लेकिन कहीं कुछ था जो दरक गया था। जो कमरे कल तक अपने थे, अब पराये लगने लगे थे।

भाई अपने अपने कमरों का कब्ज़ा पाकर खुश थे। इनकी देखभाल करेंगे। रिटायरमेंट के बाद यहीं लौटेंगे। जन्मभूमि से अच्छी कौन सी जगह हो सकती है? ज़मीनों की जुताई-बुवाई की जद्दोजहद शुरू हो गयी। लेकिन शहर के लोग जल्दी ही समझ गये कि यह काम उनके बस का नहीं है। चौबीस घंटे की ड्यूटी थी। ज़रा सी ग़फलत हुई और फसल गयी। एक साल की खींचतान के बाद जमीनें बटाई पर उठा दी गयीं। लेकिन उसमें भी आशंका बनी रहती थी। भरोसे का बटाईदार मिलना मुश्किल था।

भाइयों ने बलराम के सामने प्रस्ताव रखा कि वे ही उनकी ज़मीनें बटाई पर ले लें। उन्हें सुझाया कि उन्हें कुछ और आमदनी हो जाएगी और भाई निश्चिंत रहेंगें। लेकिन बलराम अब भ्रमों से मुक्त हो गये थे। बोले, ‘नहीं भैया, अब हम से नहीं होगा। मेरे पास जितनी जमीन है उसी से फुरसत मिलना मुश्किल है। पिताजी की विरासत मानकर अब तक किसी तरह सँभाल लिया। अब मुझे माफ करो।’

घर में बने अपने कमरों में शुरू में भाइयों ने खूब दिलचस्पी दिखायी। बीच-बीच में आना, ज़रूरी मरम्मत कराना। फिर धीरे-धीरे आने का अन्तराल बढ़ने लगा। कमरों की उपेक्षा होने लगी। कमरे खपरैल वाले थे। धीरे-धीरे वे बैठने लगे। ऊपर से बारिश का पानी आकर कमरों को बरबाद करने लगा। भाइयों को अब उन कमरों में पैसा लगाना पैसे की बरबादी लगने लगी थी। जब रहना ही नहीं है तो पैसा क्यों लगाना? वही पैसा शहर के मकान में लगे तो कुछ ‘रिटर्न’ मिलेगा।

मनभेद होने के बाद भाइयों के परिवारों का आना कम हो गया। आते भी, तो पहले जैसा प्यार और उत्साह न रहता। बच्चों का व्यवहार भी पहले जैसा नहीं रहा। बड़ों के व्यवहार का उनके ऊपर असर हो रहा था। भाइयों के कमरों के बाहर एक एक बल्ब लगा था जिसका स्विच भीतर था। पहले बड़ी भाभी इन्हें जला दिया करती थीं। अब चाबी न होने के कारण वह हिस्सा रात भर प्रेत- निवास बना रहता था। पहले भाइयों के ससुराल से जो रिश्तेदार आते थे वे एक-दो दिन बलराम के पास ज़रूर टिकते थे, अब वे अपनी बहन बेटी से मिलकर शहर से ही लौट जाते थे।

कुछ दिन में कमरे ज़मीन पर पसरने लगे और देखते ही देखते वे मलबे के ढेर में तब्दील हो गये। बलराम उन्हें ध्वस्त होते देखते थे, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते थे। जब कमरे मलबे के ढेर बन गये तो मलबे को समेटकर एक तरफ कर दिया गया। अब वह खाली जगह सिर्फ टूटे संबंधों का स्मारक बन कर रह गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – दुखिया रहे न कोई – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है सामाजिक विडंबनों पर आधारित एक कथा दुखिया रहे न कोई।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ — दुखिया रहे न कोई — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

{इस लघुकथा का मूल बीज : मॉरिशस भी ऐसी सामाजिक विडंबनाओं से बच नहीं पाया है।}

सुबह गाँव का बूढ़ा तेजू पंडित सुकन के घर आने पर बोला, “पंडित भयवा, सतिया का छोटा बेटा न रहा। तुमको ही कारज संभालना है। वही बोलने आया हूँ।”

कारज संभालना था तो पंडित सुकन संभाल लेता। अभी शोक प्रकट करना था। उसके मुँह से निकला, “सतिया पर फिर बिपदा आई। हे भगवान !”

तेजू के जाते ही कान लगा कर सुनने वाले पंडित सुकन के बेटे रामावतार ने कहा, “देखा न रे बप्पा, भगवान किस तरह छप्पर फाड़ कर देता है। अब हजार की मेरी मांग पूरी कर देना।”

बेटा रामावतार कल रात से अपने बाप से हजार रुपया मांग रहा था। पर बाप देने की स्थिति में नहीं था। पिछले कई दिनों से धार्मिक अनुष्ठान के लिए कहीं से बुलावा न आने की हालत में वह फकीरी झेल रहा था। अब माना कि अरथी जलाने का काम मिला, लेकिन हजार तो न मिलता। बाप बेटे के बीच बहस चली तो बेटे ने उसे डाँट कर कहा, “अब बहुत महंगाई आ गई है। पाँच सौ को हजार कहना।”

अपने बेटे रामावतार से डरने वाला पंडित सुकन फिर भी डट कर कहता रहा ऐसा कह न पाएगा। पर बेटे रामावतार ने ढिठाई से कहा, “तुम्हें कहना तो होगा। अपना वह गीत खूब गवा देना जो गवाते रहते हो। फिर कलेजे पर चढ़ कर बैठ जाना। देने वाला बाप बोल कर देगा।”

बेटे रामावतार का इशारा बाप के इस गीत की ओर था —

“दुखिया रहे न कोई

संसार सुखी होई”

वह अपने यजमानों के यहाँ शादी, जन्म – दिवस, मृत्यु हर अवसर पर यही गवाता था।

पंडित सुकन मानो हजार मांगने और हजार न मांगने जैसी दो धारों में बँट कर अंत्येष्टि के मंत्र बाँचने गया। बेटे रामावतार ने उसे मूर्ख मान कर कितना भी कोसा, इसका उसे दुख नहीं था। उसका झुकाव तो अपने इस दुख की ओर होता चला जा रहा था बेटे रामावतार को हजार देने की संभावना हो सकती है, लेकिन उसे हजार मांगने का साहस होने वाला नहीं है।

उसने सतिया के यहाँ एक महीना पहले उसके बड़े बेटे की अंत्येष्टि की थी। मांगा था तो पाँच सौ। यह बहुत था, लेकिन उसे मिला था। ज्यादा लेने से उसे स्वयं थोड़ी आत्म पीड़ा हुई थी।

श्मशान में सतिया के छोटे बेटे का शव – दाह पूरा हुआ। वहाँ से लौटने पर घर में विधियाँ की जा रही थीं। पंडित सुकन ने देर तक सब से गवाया —

दुखिया रहे न कोई

संसार सुखी होई

इस गीत के साथ विधियाँ पूरी हुईं और अब पंडित सुकन दक्षिणा ले कर जाता। वह इसी के लिए ठहरा हुआ था और सतिया स्वयं उसे देने के लिए हड़बड़ी में थी। विधवा सतिया ने जितना दिया उसने संदेह की दृष्टि से देखते हुए कहा, “यह तो आधा है सतिया।”

सतिया नहीं मानती आधा है। बात दोनों के लिए वहीं पहुँची एक महीना पहले सतिया के बड़े बेटे की मृत्यु हुई थी। पंडित सुकन ने ही तो अनुष्ठान पूरा किया था और उसके कहने पर सतिया ने पाँच सौ ही तो दिया था। सतिया ने उसे यह याद दिलाया तो वह बोला, “दोहरी महंगाई आ गई है न सतिया।”

पंडित सुकन का मतलब हजार रुपए से था। वह महंगाई के नाम पर अब तो मानो भूखा – प्यासा हो कर ‘हजार’ कहता ही चला जा रहा था। सतिया अब कैसे उसका कहा न मानती। अपने पास पर्याप्त पैसा न होने से उसने मृत्यु के अवसर पर आए हुए परिवार के लोगों से मांग कर दिया।

पंडित सुकन इस गर्व से अपने घर चला अपने बेटे रामावतार की हजार रुपए की मांग वह पूरी कर सकता था।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

01 – 06 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #172 – बाल कथा – कलम की पूजा… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा कलम की पूजा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 172 ☆

☆ बाल कथा – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्रेया ने जब घर कदम रखा तो अपनी मम्मी से पूछा, “मम्मीजी! एक बात बताइए ना?” कहते हुए वह मम्मी के गले से लिपट गई।

“क्या बात है?” श्रेया मम्मी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हो पूछा, “आखिर तुम क्या पूछना चाहती हो?”

“यही कि गुरुजी अपनी कलम की पूजा बसंत पंचमी को क्यों करते हैं?” श्रेया ने पूछा तो उसकी मम्मी ने जवाब दिया, “यह भारतीय संस्कृति और परंपरा है जिस चीज का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है हम उस को सम्मान देने के लिए उसकी पूजा करते हैं।

“इससे उस उपयोगी चीज के प्रति हमारे मन में अगाध प्रेम पैदा होता है तथा हम उसका बेहतर उपयोग कर पाते हैं।”

“मगर बसंत पंचमी को ही कलम की पूजा क्यों की जाती है?” श्रेया ने पूछा।

“इसका अपना कारण और अपनी कहानी है,” मम्मी ने कहा, “क्या तुम वह कहानी सुनना चाहोगी?”

“हां!” श्रेया बोली, “सुनाइए ना वह कहानी।”

“तो सुनो,” उसकी मम्मी ने कहना शुरू किया, “बहुत पहले की बात है। जब सृष्टि की संरचना का कार्य ब्रह्माजी ने शुरू किया था। उस समय ब्रह्माजी ने मनुष्य का निर्माण कर लिया था।”

“जी।” श्रेया ने कहां।

“उस वक्त सृष्टि में सन्नाटा पसरा हुआ था,” मम्मीजी ने कहना जारी रखा, “तब ब्रह्माजी को सृष्टि में कुछ-कुछ अधूरापन लगा। हर चीज मौन थीं। पानी में कल-कल की ध्वनि नहीं थी।

“हवा बिल्कुल शांति थीं। उसमें साए-साए की ध्वनि नहीं थी। मनुष्य बोलना नहीं जानता था। इसलिए ब्रह्माजी ने सोचा कि इस सन्नाटे को खत्म करना चाहिए।

“तब उन्होंने अपने कमंडल से जल निकालकर छिटका। तब एक देवी की उत्पत्ति हुई। यह देवी अपने एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में पुस्तक व माला लेकर उत्पन्न हुई थी।

“इस देवी को ब्रह्माजी की मानस पुत्री कहा गया। इसका नाम था सरस्वती देवी। उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा से वीणा वादन किया।”

“फिर क्या हुआ मम्मीजी,” श्रेया ने पूछा।

“होना क्या था?” मम्मीजी ने कहा, “वीणा वादन से धरती में कंपन हुआ। मनुष्य को स्वर यानी- वाणी मिली। जल को कल-कल का स्वर मिला। यानी पूरा वातावरण से सन्नाटा गायब हो गया।”

“अच्छा!”

“हां,” मम्मीजी ने कहा, “इसी वीणा वादन की वर्ण लहरी से बुद्धि की देवी का वास मानव तन में हुआ। जिससे बुद्धि की देवी सरस्वती पुस्तक के साथ-साथ मानव तन-मन में समाहित हो गई।”

“वाह! यह तो मजेदार कहानी है।”

“हां। इसी वजह से माघ पंचमी के दिन सरस्वती जयंती के रुप में हम बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते हैं,” मम्मी ने कहा, “इस वक्त का मौसम सुहावना होता है। ना गर्मी,  ना ठंडी और ना बरसात का समय होता है। प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है।

“फसल पककर घर में आ चुकी होती है। हम धनधान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। इस कारण इस दिन बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करके इसे धूमधाम से मनाते हैं।

“चूंकि शिक्षक का काम शिक्षा देना होता है। वे सरस्वती के उपासक होते हैं। इस कारण कलम की पूजा करते हैं,” मम्मी ने कहा।

“तब तो हमें भी कलम की पूजा करना चाहिए।” श्रेया ने कहा, “हम भी विद्यार्थी हैं। हमें विद्या की देवी विद्या का उपहार दे सकती है।”

“बिल्कुल सही कहा श्रेया,” मम्मी ने कहा और श्रेया को ढेर सारा आशीर्वाद देकर बोली, “हमारी बेटी श्रेया आजकल बहुत होशियार हो गई है।”

“इस कारण वह इस बसंत पंचमी पर अपनी कलम की पूजा करेगी,” कहते हुए श्रेया ने मैच पर पड़ी वीणा के तार को छेड़ दिया। वीणा झंकृत हो चुकी थी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-12-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 25 – अधूरी ख्वाहिश ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अधूरी ख्वाहिश।)

☆ लघुकथा – अधूरी ख्वाहिश श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मन में तो गुस्सा भरा है पर मीठी आवाज में बोल रेनू ने अब प्यार से अपने पति मयंक से कहा- देखो जी मम्मी आजकल मेरे मेकअप के समान को लेकर रोज शाम को क्या करती है, सारा सामान इधर-उधर भी बिखेर देती हैं। मुझे तो मेकअप करने की कभी-कभी जरूरत पड़ती है पर ये रोज शाम को तैयार होकर कभी घर में या कभी किसी के यहां जाकर नाचना गाना, वीडियो रील्स, बनाना जाने क्या-क्या करती हैं? आप समझा दो ऐसा नहीं चलेगा या इन्हें कुछ देर के लिए कहीं छोड़ आओ मैं थोड़ी देर शांति से रहना चाहती हूं।

मम्मी जी थोड़ी देर के लिए मंदिर में क्यों नहीं जाती है लोग कहते हैं की बहू के आने के बाद और एक उम्र के बाद पूजा पाठ करना चाहिए या इन्हें तीर्थ यात्रा पर भेज दो। अब तो पूरे मोहल्ले का डेरा यहीं आंगन में रहता है। कुछ दिनों बाद यह घर धर्मशाला न बन जाए?

पति ने उसकी ओर आंखें बड़ी करके देखा और कहा मुझे पता है इस उम्र में क्या शोभा देता है?

मां ने टीवी मोबाइल और जाने कितने बदलते दौर को देखा है।

 तुम्हें भी कभी किसी काम करने को, तुम्हारे कपड़ों को। किसी भी तरह का तुम्हारे ऊपर भी अंकुश नहीं लगाया है मां ने दादा-दादी के साथ भी रही है और हम सबको दो भाई बहनों को पालकर बड़ा किया। आज अगर वह खुश रहती हैं और अपने जीवन जीने का कोई रास्ता ढूंढा है तो तुम उसमें  क्यों बांधा डाल रही हो? तुम्हारी तरह उनकी भी तो एक जिंदगी है।अपना सामान उन्हें सारा मेकअप का दे दो तुम ऑनलाइन ऑर्डर कर लो या मेरे साथ चलकर खरीद लो।

अधूरी ख्वाहिश पूरी तो करके देखो क्या सुख मिलता है वह तुम स्वयं समझ जाओगी।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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