डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा “अपने घर का सुख”। यह लघुकथा हमें एक सकारात्मक सन्देश देती है। जीवन में सब को सब कुछ नहीं मिलता। जिन्हें अपने घर का सुख मिलता है उन्हें अपने नीरस जीवन का दुःख है तो कहीं समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो किसी भी तरह अपने घर पहुँचने के लिए बेताब है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 24 ☆
☆ लघुकथा – अपने घर का सुख ☆
मम्मां क्या है ये ? थोडी देर तो बाहर जाने दो ना, प्लीज.
नहीं बेटा! मैं तुझे घर के बाहर जाने नहीं दे सकती, तुझे मालूम है ना देश के हालात, कोरोना के कारण कितना बडा संकट छाया है पूरे विश्व पर. सबको अपने घर पर ही रहना है, घर पर रहकर ही इसे बढने से थोडा रोका जा सकता है.
सब जानता हूँ पर तुझे भी पता है ना माँ कि मैं घर में नहीं रुक सकता. करूँ क्या सारा दिन घर में बैठकर ?
हॉस्टल में क्या करता था सारा दिन ?
उसके चेहरे पर मुस्कुराहट दिखी — अरे हॉस्टल में तो फुल धमाल, मस्ती, घूमना-फिरना, पार्टी – और पढाई? क्लासेस??
वह सकपका गया हाँ – आँ अरे! वो तो होती ही है पर हॉस्टल में कोई बोर हो सकता है भला? उफ! ऐसा तो कभी नहीं जैसे मैं इस समय घर में पक रहा हूँ. आज दस दिन हो गए, अभी तो पंद्रह दिन और काटने हैं. लग रहा है जैसे कैद होकर रह गया हूँ घर में – उसने मायूस चेहरा बनाते हुए कहा.
सरिता समझ रही थी कि आज के ये बच्चे जिन्हें बाहर घूमना – फिरना, ज़ोमैटो, स्विगी से खाना मंगा – मंगाकर खाना खाने की आदत पड गयी है इन्हें घर मैं बैठकर दाल-चावल, रोटी खाना अब कहाँ भायेगा ? एक – दो दिन की छुट्टियों में घर का खाना और और मम्मी- पापा से दुलार करना बहुत अच्छा लगता है लेकिन अब तो —– सरिता ने लंबी साँस भरी.
सरिता लगातार कोशिश कर रही थी कि घर में सकारात्मक माहौल बना रहे, इसके लिए वह बेटे और पति को कभी कुछ अच्छी और नई–नई चीजें बनाकर खिलाती. कभी छत तो कभी लॉन में तीनों बैठकर चाय–कॉफी पीते थे, लेकिन जिन्हें घर में टिकने की आदत ही ना हो उनके लिए दिन काटने मुश्किल हो रहे थे. पति ने एक – दो बार कहा भी – यार, कैसे रह लेती हो तुम सारा दिन घर में ? तुम भी बोर हो जाती होगी, है ना ? उसने शून्य निगाहों से पति की ओर देखा, बोली कुछ नहीं, सोचा छोडो इस समय, उसने अपने विचारों को झटक दिया.
बेटे का मन बहलाने के लिए उसने टी.वी. चला दिया. सभी न्यूज चैनल यही दिखा रहे थे कि प्रधानमंत्री की इक्कीस दिन के लॉकडाउन की घोषणा के कारण देश भर में दूसरे राज्यों से आए मजदूर अपने – अपने घर जाने के लिए परेशान होने लगे.घर जाने के सारे साधन ट्रेन, बस आदि बंद हो गए थे लेकिन गरीब मजदूर किसी भी तरह अपने घर पहुँचना चाहते थे. सामान की गठरी सिर पर रखे और एक हाथ से बच्चे को थामे वे चले जा रहे थे. घबराकर वे भूखे – प्यासे अपना परिवार लेकर पैदल ही निकल पडे. वे जानते थे कि अपने घर पहुँचकर किसी तरह भी रह लेंगे लेकिन दूसरे राज्य में बिना नौकरी, खाली हाथ, बीबी-बच्चों को क्या खिलाएंगे ? सरकार प्रयास कर रही है लेकिन वे जल्दी से जल्दी अपनों के बीच पहुँचना चाहते थे.
बेटा बडी गंभीरता से मजदूरों के पलायन की खबरें सुन रहा था. कैसे छोटे- छोटे बच्चे अपने माता पिता का हाथ पकडे और कुछ गोदी में, रात दिन चलकर अपने घर की आस में चले जा रहे थे. गरीब मजदूरों की अपने घर जाने की व्याकुलता ने उसे बेचैन कर दिया था. सरिता ने देखा बेटे की आँखों में आँसू भरे थे, वह माँ के पास आया और उसके गले में दोनों हाथ डालकर बडे प्यार से बोला – मम्मां मैं कितना लकी हूँ ना कि ऐसे समय में कितने आराम से आप सबके साथ अपने घर में बैठा हूँ, अगर मैं भी घर नहीं आ पाता तो? सरिता ने बडे प्यार से बेटे के सिर पर हाथ फेरा, वह यही तो समझाना चाहती थी.
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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