हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 3 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 3 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – पगली का बचपन बीता, विवाह हुआ, ससुराल आई पगली, सुहागरात के दिन मिली नशे की पीड़ा ने एक अनकही कहानी  को जन्म दिया जिसे पगली न तो मायके में किसी को सुना सकतीं थी न तो लज्जा के चलते ससुराल में—-अब आगे पढ़े—-)

पगली अपने पति के पांवो के पास बैठी अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहा रही थी। उसी समय पड़ोस में चल रहे किसी विवाह समारोह में नाट्यनर्तकी द्वारा गाया गया दर्द भरा गीत ढ़ोल नगाड़े की थाप पर फिजाओं में तैरता पगली के कान से टकराया था—

सुन ले पुकार सजना,
आइ तेरे द्वार सजना,
दिल में मिलन की लिए कामना।
दिल है बेकरार मेरा,
मैंने चाहा प्यार तेरा
तूं है किस जहाँ में मेरे साजना ।। 1।।

तूं है नशे में हाय,
घडी मिलन की बीती जाये,
दिल में बेकरार मेरे साजना।
ये दिल रोये जार जार,
मैं तो चाहूं तेरा प्यार,
पड़ा बेखबर है घर आंगन।। 2।।

कैसी घड़ी ये आयी,
मिल के भी मिल ना पायी,
उठ के तो देख मेरे साजना।
मैं तो हूँ कन्या कुंवारी,
तुझपे नशा है भारी,
दिल का मिलन हो कैसे साजना।। 3।।

छम छम बाजे चूड़ी पायल,
मोरा करेजवा घायल,
कैसे मिलन की करूं याचना।
सुनले पुकार  सजना,
आइ तेरे द्वार  सजना।। 4।।

इस प्रकार दर्द को लेकर फिजां में तैरती लोक नर्तकी के गीतों की आवाज़ उसके कानों मे पड़ी तो गीत का दर्द
और पगली की परिस्थितियों का सामंजस्य उसके दिल के जख्म को और गहरा कर गया। वह सिसक उठी पगली।  उसके कपोलों से बहते आंसुओं की धार मदहोश पति के पैरों पर गिर रही थी। इन परिस्थितियों में पगली को याद हो आई भैरव बाबा द्वारा सुनाई गई कृष्ण सुदामा की मित्रता की कथा। और हठात मुह से निकल पड़े ये शब्द—

पानि परात को हाथ छु यो नहि,
नैनन के जल से पग धोयो।

कितना सामंजस्य था दोनो घटनाओं में एक तरफ भगवान अपने आंसुओं से भक्त के पांव पखार रहा था तो दूसरी तरफ एक पतिव्रता अपने आंसुओं, से कलयुगी पति भगवान के चरण धो रही थी।  दोनों में भावों का अंतर था जहां दोनों मित्र भावों के सागर में गोते लगा रहे थे। वही पगली के आंसुओं और पीड़ा का कोई मोल नही था।

सुहागरात बीत चली थी, सेज पर सजी बेला और गुलाब की लडियाँ और पंखुडियां अब भी दिल में हसरतें लिए उनके मिलन की साक्षी बनने की तमन्ना सहेजे हसरत भरी आखों से देख रही थी। रात बीत चली थी।  सुहाग सेज की यह अजीबोगरीब दास्ताँ न तो ससुराल में न तो मायके में पगली अपने माँ बाप को तथा सखियों को सुना सकती थी। ये कहानी एक मात्र पगली की ही हो ऐसा नही है हजारों पगलियां आज भी समाज में घुटन और पीड़ा ले जी रही हैं जिनके दुख और पीड़ा का कोई अंत नही है।

 

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -4 – खुशियों भरे दिन 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “ग्रहण ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆

☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ 

 

बहू! दोपहर १२ बजे से सूर्यग्रहण लग रहा है। आज ऑफिस में ही कुछ खा लेना। ग्रहण में कुछ खाते नहीं है।

अम्माजी, मैं ये सब नहीं मानती, ऑफिस से आकर ही खाना खाऊँगी।

सासू माँ को उसका उत्तर पसंद नहीं आया। सास-ससुर दोनों उसकी निंदा में उलझ गए। ये आजकल की बहुएँ थोड़ा पढ़-लिख क्या गई अपने सामने किसी को कुछ समझती नहीं। बहू की निंदा से जो सिलसिला शुरू हुआ वह परिवार के कई सदस्यों को टटोलता हुआ बहुत देर तक चलता रहा—– भगवान ! सुजाता जैसी लड़की किसी को न दे, ब्राह्मण की लड़की कायस्थों में चली गई, नाक कटा दी हमारी। अरे, अपने महेश को देखो। रिश्तेदारों से माँग-माँगकर लड़की की शादी निपटा ली। जाते समय मिठाई का एक टुकड़ा भी नहीं दिया। छोटा भाई है तो क्या? माना एक लड़की और है शादी के लिए, बेटा भी अभी पढ़ ही रहा है- तो क्या? हमारी तो बेकदरी हुई शादी में। घराती क्या खाना नहीं खाते, शादी ब्याह में?

और अपनी दया बहन जी। पति का शुगर बढ़ा हुआ है- तो क्या आफत आ गई? आलू नहीं खायेंगे, भिंडी बनाओ। अपना बैठी रहेंगी हमें काम पर लगा देंगी…… पर निंदा चलती रही। दोपहर १२ बजे से ग्रहण था। उसके पहले ही भरपेट नाश्ता करके दोनों बैठे थे। चार बजे के बाद ही कुछ खाना था। दोनों को कोई काम था नहीं और भरपेट निंदा में बहुत बल था- ‘पर निंदा परं सुखम्।‘

दूरदर्शन पर सूर्यग्रहण पर निरंतर चर्चा चल रही थी। ग्रहण से जुडे मिथकों की वास्तविकता बतायी जा रही थी। अंधविश्वासों का ग्रहण से कोई संबंध नहीं है। गंगा स्नान से पाप धुल जाते तो दुनिया में पापी रह ही नहीं जाते ?

टी.वी. देखते देखते सास-ससुर की चर्चा फिर शुरू हो गयी| हम दोनों ने क्या पाप किए हैं जो बिना खाए-पिए बैठे ग्रहण हटने का इंतजार कर रहे हैं। आशा ! हम दोनों ने तो कभी किसी की बुराई भी नहीं की। कबीर का दोहा मुझे याद आ रहा था-

‘निंदक नियरे राखिये —

कबीर के निंदक को मैं तलाश रही थी। ग्रहण मुझे वहाँ स्पष्ट दिख रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 28 ☆ हिल मिलकर चल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद बालकथा “हिल मिलकर चल” बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों के लिए भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #28 ☆

☆ हिल मिलकर चल ☆

जीभ अपनी धुन में चली जा रही थी. तभी उस ने देखा कि वह ट्राफिक में फंस गई. चारों ओर मोटर कार ट्रक चल रहे है. वह बीच में है. निकलने का रास्ता नहीं है. वह घबरा कर दौड़ी. अचानक एक ट्रक उस के ऊपर से गुजर गया. उस का एक भाग कट गया.

वह जोर से चींखीं,‘‘ ऊंई मां, मरी. कोई बचाओ ?’’

‘‘क्या हुआ ? क्यों चींख रही हो ?’’ दांत ने डपट कर जीभ से कहा.

जीभ चौंकी. उस ने इधर उधर नजर दौड़ाई. वह अपने मुंह में सुरक्षित थी. पास का दांत उसे डपट रहा था.

‘‘तू कहां खो गई थी. तूझे मालुम नहीं पड़ता है. मेरे दांत को बदरंग कर दिया.’’

जीभ ने नजर उठा कर दाढ़ को देखा. वह सफेद से लाल हो चुकी थी. उस का रंग बदरंग हो गया था. तभी उसे अपने कोने पर दर्द हुआ. वहां नजर दौड़ाई. जीभ का एक भाग दांत से कट गया था.

‘‘देख कर काम नहीं करती हो.’’ दाढ़ ने कहा,‘‘ अंधी हो कर चल रही थी. समझ में नहीं आता है. आखिर हम कब तक बचाते. तुम हमारे बीच आ ही गई.’’

जीभ परेशान थी. उसे दर्द हो रहा था. दाढ़ का इस तरह बोलना उसे अच्छा नहीं लगा. वह चिढ़ पड़ी,‘‘अबे अकल के लट्ठ ! कब से मुझे परेशान कर रहा है. एक तो तूने ध्यान नहीं रखा. मुझे काट दिया. फिर जोरजोर से बोल कर मुझे डरा रहा है.’’

दांत को जीभ से इस तरह बोलने की आशा नहीं थी. वह मुलायम जीभ को मुलायम लहजे में बोलने की आशा कर रहा था. दांत स्वयं कठोर था. मगर, जीभ कठोर भाषा में बोलेगी, यह वह नहीं जानता था.

दांत चिढ़ गया,‘‘ अबे ओ लाल लंगूर. एक तो गलती करती हो और ऊपर से शेर बनती हो. जानती हो, तुम्हारा काम, मेरे बिना नहीं चल सकता है. इसलिए मुझ से संभल कर बातें कर करों. समझी ?’’

जीभ कब पीछे रहने वाली थी. उस का काम बातबात पर जोर ज़ोर से चलना था. कोई उसे उलटा सीधा बोले, उसे समझाएं, यह वह कैसे बर्दाश्त कर सकती थी,‘‘ अबे जा. किसी और को डराना. तेरे बिना भी मेरा काम चल सकता है.’’

दांत को भी गुस्सा आ गया,‘‘ क्या कहा. तेरा, मेरे बिना भी काम चल सकता है.’’ यह कहते हुए दांत जीभ की ओर लपका. दांत की सेना को अपने ऊपर आता देख कर जीभ तालू से चिपक गई.

जीभ जानती थी कि वह दांत के हमले से पहले ही घायल हो चुकी है. यदि वापस दांतों ने हमला कर दिया तो उस के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे. मगर, वह जबान चलाने में पक्की थी. इसलिए उस ने कहा,‘‘अबे ओ. बेसूरे की तान. तेरा, मेरे बिना नहीं चलना काम.’’

‘‘देखते हैं किस का, किस के बिना काम नहीं चलता है ?’’ दाढ़ ने चुनौती दी.

जीभ कब पीछे रहने वाली थी,‘‘हां हां देख ले. कौन हारता है ?’’

जीभ ने अपना काम बंद कर दिया. दांत भूखा था. उसे प्यास लग रही थी. मगर, वह बर्दाश्त करता रहा. उस के ऊपर खाने की गंदगी लगी हुई थी. उसे समझ में नहीं आया कि उसे कैसे साफ करें.

दांत ने अपने आप को जोर से हिलाया. मगर, उस पर लगी गंदगी साफ नहीं हुई. जीभ ने स्वाद भेजना बंद कर दिया था. मुंह में पानी आना बंद हो गया.

दांत पर लगी मिर्ची से दांत जलने लगे.

जीभ पर मिर्ची लगी हुई थी. वह भी जलने लगी. उस ने मुंह में पानी लाने के लिए संदेश भेजा. मुंह में पानी आ गया. मगर, वह अंदर नहीं जा रहा था. दांत ने हिलना बंद कर दिया था. जीभ की जलन कम नहीं हुई.

जीभ ने चिल्लाने की कोशिश की. मगर दांत ने हिलना बंद कर दिया था. जीभ बोल नहीं पाई. बंद मुंह में जीभ हिलती रही मगर आवाज बाहर नहीं निकल रही थी.

दांत को भूख लगी. उस ने मुंह खोल लिया. रोटी मुंह में ली. चबाई. मगर, यह क्या ? रोटी जहां पड़ी थी, वही पड़ी रही. रोटी को पलटाने वाली जीभ चुपचाप पड़ी थी. दांत रोटी को नहीं खा पाया.

दाढ़ ने कटर दांत से कहा,‘‘ भाई, रोटी काटो.’’

कटर दांत रोटी काट चुका था,‘‘ इसे कोई उलटे पलटे तो मैं दूसरी जगह से रोटी काटूं,’’ उस ने असमर्थता जताई.

दाढ़ बोली, ‘‘तब तो मैं भी रोटी को पीस नहीं पाऊंगी.’’

जीभ को प्यास लग रही थी. उस ने पानी पीने के लिए संदेश भेजा. हाथ ने गिलास उठाया. मुंह तक लाया. मगर, दांत ने काम करने से मना कर दिया. मुंह नहीं खुला. जीभ पानी नहीं पी पाई.

जीभ समझ गई कि दांत के बिना उस का काम नहीं चल सकता है. दांत को अपने को साफ करना था. वह भी चाहता था कि पानी मुंह में आ जाए. मगर, वह जीभ को सबक सीखाना चाहता था. इसलिए कुछ नहीं बोला पाया.

एक दाढ़ बहुत बूढ़ी हो गई थी. वह गिर कर मरने वाली थी. उस ने मजबूत दाढ़ से कहा,‘‘ बेटा ! मुंह मैं रह कर जीभ से लड़ना अच्छी बात नहीं है.’’

यही बात उस ने जीभ से कही,‘‘ बेटी ! तुम्हारा काम दांत के बिना नहीं चल सकता है. दांत का काम तुम्हारे बिना नहीं चल सकता है. दोनों जब एक दूसरे की सहायता करोगे तब ही मुंह का काम चलेगा.

‘‘अन्यथा, न मुंह बोल पाएगा. न खा पाएगा. दांत भोजन को पीसेगे, मगर उसे पलटेगा कौन ? जीभ बोलेगी, मगर दांत के बिना उस का उच्चारण नहीं हो पाएगा . इसलिए बिना एकदूसरे की किसी का काम चलने वाला नहीं है.’’

जीभ यह बात समझ चुकी थी. दाढ़ को भी इस बात का पता चल गया था. दोनों का एकदूसरे के बिना काम चलने वाला नहीं है.

जीभ बोली, ‘‘हां दादा, गलती मेरी थी. मैं ध्यान से काम नहीं कर रही थी. इस कारण आप के बीच में आ गई. आपं ने अनजाने में मुझे काट लिया.’’

इस पर दांत ने कहा,‘‘ नहीं नहीं बहन, गलती तुम्हारी नहीं, हमारी है. हम ने अपने बहन की रक्षा नहीं की.’’

यह सुनते ही जीभ की आंखें भर आई. वह अपने दांतभाई के गले से लिपट कर रोने लगी,‘‘भाई, मुझे माफ कर देना. मैं इतनी सी बात समझ नहीं पाई कि हिलमिल कर रहने में ही भलाई है.’’

‘‘हां बहन, यह बात मैं भी भूल गया था,’’ कहते हुए दांत ने काम करना शुरू कर दिया.

जीभ भी चलने लगी.

दांत की सफाई हो गई. उस की प्यास बूझ गई. जीभ की जलन बंद हो गई.

जीभ और दांत दोनों चमक कर हंसने लगे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 28 – गुदड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  इस भौतिकवादी  स्वार्थी संसार में ख़त्म होती संवेदनशीलता पर एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “गुदड़ी”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 28 ☆

☆ लघुकथा – गुदड़ी ☆

अमरनाथ और भागवती दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन यापन कर रहे थे। उनका एक बेटा सरकारी नौकरी पर था। बड़े ही उत्साह से उन्होंने अपने बेटे का विवाह किया। बहू आने पर सब कुछ अच्छा रहा, परंतु वही घर गृहस्थी की कहानी।  बूढ़े मां बाप को घर में रखने से इनकार करने पर बेटे ने सोचा मां पिताजी को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं। और कभी कभी देखभाल कर लिया करेंगे।

अमरनाथ और भागवती बहुत ही सज्जन और पेशे से दर्जी का काम किया करते थे। भागवती ने बचे खुचे कपड़ों से एक गुदड़ी बनाई थी। जिसे वह बहुत ज्यादा सहेज कर रखती थी। हमेशा अपने सिरहाने रखे रहती थी। जब वृद्ध आश्रम में जाने को तैयार हो गए तो बेटे ने कहा…. तुम्हें घर से कुछ चाहिए तो नहीं। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटे मुझे मेरी गुदड़ी दे दो। जो मैं हमेशा ओढती हूं।  बेटे को बहू ने टेड़ी नजर से देखकर कहा.. वैसे भी यह गुदड़ी हमारे किसी काम की नहीं है, फेंकना ही पड़ेगा दे दो। फटी सी गुदड़ी को देख अमरनाथ भी बोल पड़े.. क्यों ले रही हो जहां बेटा भेज रहा है। वहां पर कुछ ना कुछ तो इंतजाम होगा। परंतु भागवती अपनी गुदड़ी को लेकर गई।

वृद्ध आश्रम पहुंचने पर मैनेजर ने उन दोनों को रख लिया और सभी वृद्धजनों के साथ रहने को जगह दे दी। दोनों रहने लगे।

कुछ दिनों बाद इस सदमे को अमरनाथ बर्दाश्त नहीं कर सके और अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। बेटे ने खर्चा देने से साफ मना कर दिया। अस्पताल में खर्च को लेकर वृद्धा – आश्रम वालों भी कुछ आनाकानी करने लगे। तब भागवती ने कहा.. आप चिंता ना करें पैसे मैं स्वयं आपको दूंगी। उन्होंने सोचा शायद  बुढ़ापे की वजह से ऐसा बोल रही हैं।

भागवती ने अपनी गुदड़ी एक तरफ से सिलाई खोल नोटों को निकालने लगी। जो उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में बचाकर उस गुदड़ी पर जमा कर रखी थी। सभी आश्चर्य से देखने लगे अमरनाथ जल्द ही स्वस्थ हो गए। पता चला कि खर्चा पत्नी भागवती ने अपने गुदड़ी से दिए।

उन्होंने आश्चर्य से अपने पत्नी को देखा और कहा.. तभी मैं कहूं कि रोज  गुदड़ी की सिलाई कैसे खुल जाती है और रोज उसे क्यों सिया  किया जाता है। अब समझ में आया तुम वास्तव में बहुत समझदार हो। भागवती ने  हंस कर कहा.. घर के कामों में बच  जाने के बाद जो बचत होती थी मैं भविष्य में नाती पोतों के लिए जमा कर रही थी, परंतु अब बेटा ही अपना नहीं रहा। तो इन पैसों का क्या करूंगी। यह आपकी मेहनत की कमाई आपके ही काम आ गई।

स्वस्थ होकर दोनों वृद्ध आश्रम को ही अपना घर मानकर रहने लगे। बेटे को पता चला उसने सोचा मां पिताजी को घर ले आए उसके पास और भी कुछ सोने-चांदी और रुपए पैसे होंगे। परंतु अमरनाथ और भागवती ने घर जाने से मना कर दिया उन्होंने हंसकर कहा मैं और मेरी ‘गुदड़ी’ भली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 2 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 2 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – जन्म लेने के बाद सोलहवां बसंत आते आते पगली का विवाह हो गया, पगली की डोली  ससुराल की तरफ बढ़ चली।  अब आगे पढ़े——–)

जब पगली की डोली मायके से चली तो वह कल्पना लोक के  सतरंगी इन्द्रधनुषी संसार में खोई हुई थी। जहाँ एक तरफ घर गाँव माँ-बाप का साथ छूटने की पीड़ा थी तो दूसरी तरफ ससुराल में नवजीवन के सुखों की कल्पना उसके मन के किसी कोने से झांक रही थी। लेकिन उसने अपने भविष्य की कोई कल्पना नही की थी कि भविष्य के गर्भ में पल रहा दुर्भाग्य रूपी अजगर उसकी खुशियाँ लीलने की ताक में बैठा है। उसकी डोली सर्पीली पगडंडियों से होती हुई ससुराल पहुँच कर गाँव के बाहर बने एक मंदिर परिसर में जा कर रूक गई थी। और उस परिसर के अगल बगल छोटे छोटे बच्चे-बच्चियाँ नई नवेली दूल्हन देखने की चाह में डोली के आसपास मंडरा रहे थे। नई दूल्हन का चेहरा देखने की चाह दिल में मचल रही थी।

कभी कभी कोई बच्चा या बच्ची शरारतवश डोली का पर्दा हटाता तो पगली शर्मो हया  से लाज की गठरी बन डोली के कोने में सिमट जाती।

अब गाँव घरों की महिलाओं ने उसे देवी माई के दर्शन कराये, दूधों नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद दिया, अरमानों के सागर में गोते लगाती पगली की डोली उसके ससुराल में आ लगी थी। जहाँ पगली का भविष्य उसका ही इंतजार कर रहा था।

उस दिन नई बहू का स्वागत बुजुर्ग महिलाओं तथा नव यौवनाओं ने हर्षोल्लाष के साथ मंगल गीतों से किया था।

उस समय पगली अपने भाग्य पर इतरा उठी थी, वह अपनी कर्मनिष्ठा मृदुल व्यवहार से ससुराल में सबकी आंखों का तारा बन बैठी थी। गाँव की महिलायें उसके रूप सौन्दर्य तथा प्रेम व्यवहार की कायल हो गई थी वे उस का गुणगान तथा सास ससुर के भाग्य की सराहना करते थकती नहीं थी। उसने अपने स्नेह व्यवहार से सबका मन जीत लिया था, वह बच्चों की प्यारी मीठी बातों से खिलखिलाती हंस पड़ती, तो मानो वह अपने बचपने के दिनों में वापस चली जाती।

अब पगली की जिंदगी में वह दिन भी आया, जिस का  इंतजार हर नई नवेली दूल्हन करती है। उसके ससुराल में सुहाग रात की तैयारियां जोर शोर से चल रही थी, और पगली पिया मिलन की आस मन में लिए अपने भविष्य का ताना बाना बुनने मे व्यस्त थी। सारे घर आंगन को गाय के गोबर से लीपा पोता गया था। आंगन मेंजौ  के आटे से चौक पूरा गया, तुलसी और चंद्रमा की पूजा के साथ भगवान सत्यनारायण की कथा भी हुई। गाँव की नव वधुओं ने ढोलक की थाप पर मंगल गीत भी गाये, उस दिन मित्रों, रिश्तेदारों तथा समाज के लोगों को सुस्वादु भोजन के साथ बहू भोज भी दिया गया, लोगों ने उसके मंगल भविष्य की मंगल कामना भी की, महिलाओं ने पुत्रवती अखंड सौभाग्यवती  होने का आशीर्वाद दिल से दिया, उस समय उसके ससुराल में संपन्नता अपनी चरम सीमा पर थी, उसकी ननदों  तथा भाभियों ने उसकी सुहाग सेज को बेला और गुलाब की लड़ियों से सजाया, सुहाग सेज पर बिछी बेला और गुलाब की पंखुड़िया कोमल स्पर्श  नर्म एहसास दिलानें को आतुर थी।  उसमें सबके अरमानों की खुश्बू समाहित थी।

अब दिन ढलता जा रहा था।  शाम होने को आई।  उसको उस पल का पल-पल इंतजार था जिसकी कामना हर दुल्हन करती है।  अपने दिल में अरमानों की माला लिए तथा आंखों मे रंगीन सपने सजाये सुहाग सेज के निकट जमीन पर बैठी पगली अपने साजन के आने का इंतजार नींद से बोझिल आंखों से कर रही थी।

दरवाजे पर होने वाली हर आहट पर उसकी धड़कन बढ़ जाती, उसका इंतजार खत्म नही हुआ, बल्कि उसकी घड़ियाँ लम्बी होती चली गई। रात आधी बीतते। उसका मन किसी अज्ञात भय आशंका से कांपने लगा था। वह पिंजरे में कैद मैंना पक्षी की तरह छटपटा उठी थी।

एक तरफ वह भय आशंका से ग्रस्त हो छटपटा  रही थी।  दूसरी तरफ उसका पती सुहागरात रंगीन बनाने के लिए मित्रों के साथ जाम पे जाम टकराये जा रहा था।  इसकी पगली को भनक भी नही लगी थी। वह जब भी उठने का प्रयास करता मित्र मंडली आग्रही बन उसे रोक लेती और फिर एक बार पीने पिलाने का नया दौर शुरू हो जाता।  नशा हर पल गहरा होता जा रहा थ।  आधी रात के बाद पति महोदय ने नशे में झूमते झामते सुहाग कक्ष में दस्तक दी। लेकिन, सुहाग कक्ष की देहरी पार नही कर सके थे।  नशे की अधिकता से भहरा कर देहरी पर ही गिर पड़े थे।  यह सब देख पगली का हृदय दुख और पीड़ा से हाहाकार कर उठा था।  वह आने वाले भविष्य की दुखद कल्पना कर रो उठी थी। फिर भी अपनी कोमल बाहों से सहारा दे अपने पति को सुहाग सेज तक लाने का असफल प्रयास किया था।

लेकिन भारी शरीर संभालने में खुद गिरते-गिरते बची थी।  नशे की अधिकता से एक बार वह फिर लड़खड़ाया था और गिर गया था।  देहरीं पर पंहुच कर सुहाग सेज तक, नशे में बंद अधखुली आंखों से उसे सुहाग सेज मीलों दूर नजर आ रही थी, जिसे वह हाथ बढ़ा कर छूना चाहता था।

अब एक बेटी अपने अरमानों का गला घोंटे जाने  पे रोने के सिवा कर ही क्या सकती थी? ऐसे में उसकी पीड़ा समझने वाला सिवाय गोविन्द के और कौन हो सकता था।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -3 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “दुःख में सुख”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆

☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ 

 

माँ की पीठ पहले की अपेक्षा अधिक झुक गयी थी । डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है साथ ही याददाश्त भी कमजोर हो जाती है।

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो हर समय की बात हो गयी थी। कई बार परेशान होकर वह खुद ही कह उठती- पता नहीं क्या हो गया है ? लगता है मैं पागल होती जा रही हूँ। कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ?

झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही कराह उठती। झुकी पीठ में टीस उठती। फिर वही सिलसिला दूसरे दिन का……..

बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। अपनी आयु और स्वास्थ्य भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता होती कि बेटे-बहू का कोई कड़वा बोल बेटियों के कानों में न पड़ जाए। उपेक्षा का भाव बेटियों को नजर ना आ जाए। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए और खुद को प्रसन्न दिखाने के लिए वह गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ हँसती, खेलती, खिलखिलाती…….. ?

वह गर्मी की रात, थकी-हारी माँ छत पर लेटी थी। इलाहबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। माँ नाती-पोतों से घिरी लेटी है। हवा चले, इसके लिए वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है-  चिडिया ,कौआ ,तोता  सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे। बच्चों के लिए अच्छा खेल था। माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी- बेटी खुश रहा करो। बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरुरी है यह। जब से हर बात भूलने लगी हूँ मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी कड़वी बात थोड़ी देर असर करती है फिर कुछ याद ही नहीं रहता। किसने क्या कहा, क्यों कहा, क्या ताना मारा……. कुछ नहीं। यह कहकर माँ ने लंबी साँस भरी।

बोलते-बोलते माँ कब सो गयी पता नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी। माँ के विश्वास ने ठंडी हवा भी चला दी थी। मुझे डॉक्टर की कही बात याद आ रही थी लेकिन माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ लिया था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆ गणना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक सार्थक लघुकथा  “गणना ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆

☆ गणना ☆

 

अनीता बहुत परेशान थी.  250 बच्चों की गणना करना, फिर उन्हें जातिवार बांटना, लड़का- लड़की में छांटना – यह वह अकेली कर नहीं पा रही थी . आखिर थक हर कर अपने एक शिक्षक साथी से कहा , “आप मेरी गणना करवा दीजिए.”

साथी मुंहफट था “मैं आप  का काम करवा देता हूँ, बदले मुझे क्या मिलेगा ?”

“जो आप चाहे,” कहने को अनीता कह गई, मगर बाद में उस ने बहुत सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि घर से दूर रह कर यह गठबंधन करने में ही उसे ज्यादा फायदा है. अन्यथा वह यहाँ अकेली नौकरी नहीं कर पाएगी. इसलिए चुपचाप साथी के साथ गणना करने चल दी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संभावनाएं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  संभावनाएं

बारिश मूसलाधार है। हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम बारफ़्तार दौड़ रही थी।

आज का दिन संभावनाओं से भरा हो।

 

संजय भारद्वाज

[email protected]

प्रात: 8:18, 7.12.2019

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पैबंद ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक शिक्षाप्रद एवं प्रेरक लघुकथा पैबंद)

 

लघुकथा – पैबंद  ☆

 

बरात बिदा हुई। रोती रोती नई दुल्हन श्यामा कब नींद में खो  गई पता ही नहीं चला।

एकाएक नींद खुली,  पता लगा बरात ससुराल  द्वारे पहुंच चुकी है। परछन के लिए सासु माँ दरवाजे पर आ खडी हुईं। ज्यों ही हाथ उठाया बहू को परछन कर  टीका लगाने के लिए—कि ब्लाउज की  बाँह के पास पैबंद दिखाई पड़ा नई बहू को।

कठोर पुरातनपंथी दादी सास और  माँ के पुछल्ले लल्ला–अपने ससुर जी के बारे में बहुत सुन रखा था आने वाली बहू ने। उसी समय मन ही मन संकल्प लिया कि बस  अब पैबंद और नहीं, कभी नहीं । आज सासु माँ नये कपड़ों में – परछन की नई साड़ी नये बलाउज में मेरी अगवानी करेंगी और आगे से पैबंद कभी नहीं !

– – – और अगली सुबह रिश्तेदारों ने देखा कि एक नहीं दो दो नई नई बहुएं नजर आ रहीं हैं घर में— सासजी भी कितने वर्षों में आज पहली बार बहू जैसी सजी सँवरी हैं और – – दादी सासु माँ के लाडले लल्ला नई बहू के महाकंजूस  ससुरजी—एक कोने में उखड़े उखड़े से बैठे हैं और अपनी पूजनीय माताजी से  बतरस का आनंद ले रहे हैं।

पास खड़ी – – दूल्हा भाई से छोटी चार  ननदें कृतज्ञ नजरों से  ही मानों भाभी की आरती उतार रहीं हैं और भविष्य उनका भी सुधर गया है वे सभी  आश्वस्त हैं।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 – प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा  “ प्रेम ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 27 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ☆

 

रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते  देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता  उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।

एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।

एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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