नवरात्रि विशेष
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज प्रस्तुत हैं नवरात्रि पर विशेष लघुकथा “आलोचक बुद्धि… “। )
☆ लघुकथा – आलोचक बुद्धि… ☆
दुर्गोत्सव पर्व पर भक्तवृन्द की भारी उपस्थिति के साथ मंदिर में आरती हो रही थी।
इसी बीच आज के कार्यक्रम में आमंत्रित मुख्य अतिथि के रूप में स्थानीय नेता जी का आगमन हुआ।
अग्रिम पंक्ति में खड़े समिति के गणमान्य नागरिकों में एक-दूसरे के सूचनार्थ खुसर-फुसर के साथ वे सब शांति से भीड़ को चीरते हुए नेताजी की अगवानी को दौड़ पड़े।
ससम्मान उन्हें भीड़ में रास्ता बनाते हुए देवी प्रतिमा के सम्मुख ले आये।
समापनोपरांत स्वभावानुसार रामदीन मुझसे कहने लगा – बंधु! अभी आपको कुछ गलत नहीं लगा?
क्या गलत हो गया भाई? मैंने जानना चाहा
बोले वे,- आरती के मध्य अपने स्थान से किसी का हटना यह तो गलत ही है न? फिर नेता जी तो आरती में सम्मिलित होने ही आये थे, दो-चार मिनट वहीं खड़े रहते तो उन्हें व समिति वालों को देवी जी कोई श्राप तो नहीं दे देती।
सच पूछो तो इनका पूरा ध्यान भक्ति भाव और देवीजी की अपेक्षा नेता जी और उनसे मिलने वाले चढ़ावे में अधिक था।
भाई रामदीन! आप जो कह रहे हो, शायद ठीक ही हो, वैसे मेरे विचार से अपने यहाँ आमंत्रित किसी भी विशिष्ट व्यक्ति का स्वागत-सम्मान करना, यह आयोजन समिति द्वारा अपने दायित्वों के निर्वहन की दृष्टि से तो मुझे उचित ही लगता है, हमारी संस्कृति भी तो यही कहती है हमें।
हाँ, तुम्हें तो उचित लगेगा ही, आखिर तुम भी तो उसी लाबी के हो।
अच्छा! कुछ पल के लिए मान भी लें कि, मैं उसी लाबी का हूँ, पर बंधु – यह तो बताओ कि, उस समय देवी माँ की आरती के बीच आप का ध्यान कहाँ था?
इस अनपेक्षित प्रश्न पर रामदीन मौन था।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 9893266014