हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 12 ☆ ☆ किससे माँगे क्षमा ? ☆ ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक कहानी   “किससे मांगे क्षमा?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 12  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ किससे माँगे क्षमा ?

 

आज बेटी को विदा करने के बाद मन बहुत उदास था आँसू है जो थमने का नाम ही नहीं ले रहे।इतने में कहीं से एक स्वर उभरा आज जो हुआ वह सही था या पहले जो मैंने निर्णय किया था तुमने वह सही था ।

दिमाग के सारे दरवाजे खिड़कियाँ खुल गई और मन विचारों के सागर में गोते लगाने लगा पहुंच गए कई वर्ष पीछे…..

दरवाजे पर आहट हुई दरवाजा खोलते ही पड़ोस के अंकल ने कहा… कि आज हमने तुम्हारी बहन को किसी सरदार के साथ स्कूटर पर जाते देखा है।

मेरा तो जैसे खून ही खौल गया। बस इसी प्रतीक्षा में थे कब शुभा घर आए और उस तहकीकात की जाए. जैसे ही शुभा का घर में प्रवेश हुआ मैंने तुरंत पूछा “वह कौन सरदार था जिसके पीछे तुम बैठी थी।”

शुभा अचकचा गई ।

बोली “क्या हुआ भैया आप किसकी बात कर रहे हैं?”

“देखो शुभा बातें बनाने का समय नहीं है सीधे-सीधे से मेरे सवाल पर आओ.”

शुभा सर नीचे करके खड़ी हो गई उसके के पास मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं था।

“मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ जिसके जवाब की मुझे प्रतीक्षा है।”

“जी भैया, वह मेरा दोस्त है और मैं उसके साथ जीवन बिताना चाहती हूँ।”

“तुम्हारा यह सपना कभी पूरा नहीं होगा।”

तभी पिताजी ने कहा – “बेटा एक बार देख सुन तो लो, शायद पसंद आ जाए। जात पात से क्या होता है?”

“पिताजी हम हिंदू हैं और हम किसी दूसरे समाज में जाना पसंद नहीं करेंगे।”

“हम नहीं चाहते कि हमारी बहन किसी सरदार को ब्याही जाए. अब तेरा जाना घर से बंद अगर मिलने मिलाने की कोशिश की तो काट देंगे।”

“जहाँ हम तेरा सम्बंध करेंगे वहीं तुझे करना पड़ेगा।”

लेकिन हमारे किसी भी सम्बंध से बहन तैयार नहीं हुई बोली – “मैं शादी ही नहीं करूंगी।” तब अंततोगत्वा सरदार के साथ बहन का विवाह मंदिर में हो गया हम लोगों ने उस दिन से बहन से सम्बंध तोड़ दिए. माता पिता को भी आगाह कर दिया गया कि आप भी उससे सम्बंध नहीं रखेंगे।

कुछ वर्षों बाद पता चला की बहन बीमारी से पीड़ित होकर इस दुनिया को छोड़ कर चली गई उसका एक बेटा भी है। लेकिन तब भी मेरे मन में कोई भाव जागृत नहीं हुये। माँ तड़पती थी रोती थी लेकिन मैंने कहा –  “ऐसी बहन से ना होना ज़्यादा बेहतर है।”

आज किसी ने मुझे अतीत में पहुंचा दिया ।मुझे महसूस हो रहा है इतिहास अपने आप को दोहराता है।

कई वर्ष बीत जाने के बाद जब मेरी बेटी का रिश्ता नहीं हुआ तो मेरी बेटी ने मुझसे कहा – “पापा मेरे ऑफिस में काम करने वाला मेरा साथी सुब्रतो है।” तब हमने कहा- “ठीक है हम लोग चलकर उसका घर परिवार दिखाएंगे।”

तब एक क्षण को भी यह-यह ख्याल नहीं आया कि बेटी भी उसी दिशा की ओर जा रही है जिस दिशा को मेरी बहन गई थी। हमने उस बंगाली परिवार के रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया और धूमधाम से विवाह किया।

क्या हुआ भाई आँखे क्यों नम हो गई.

हमने हाथ जोड़कर कहा – “आज आपने हमारी आँखे खोल दी”

बहन बेटी के रिश्ते में कितना फर्क किया हमने।जो आज निर्णय लिया है वही पहले लिया होता तो शायद बहन हमारी आज जीवत होती। आज अंतर्मन धिक्कार रहा है मैं आज क्षमा मांगने के लायक भी नहीं रहा।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆ परीक्षा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “परीक्षा”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆

 

☆ परीक्षा ☆

 

मैंने परीक्षाकक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”

मैडम ने “थैंक्स” कहा और बाहर चली गई और मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहें बरबस छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे. यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी.

छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे. मुझसे से रहा नहीं गया. एक छात्र से पूछ लिया,  “ये गलत उत्तर किस ने बताए हैं?”

सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने!”

“ये सभी उत्तर गलत हैं”  मैं जोर से चिल्लाया, “सभी अपने उत्तर काट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखो. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 14 – सुघड़ बहू ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “सुघड़ बहू ”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 14 ☆

 

☆ सुघड़ बहू ☆

 

माधवी  बहुत सुशील संस्कार वान लड़की शादी से दुल्हन बन कर ससुराल आई। कुछ दिनों के बाद सभी मेहमानों के जाने के बाद घर के सदस्य बच गये। वहां एक बहुत ही खराब आदत थी, खाना खाने के बाद उसी थाली में कुल्ली कर हाथ धोने की। जो माधवी को  कहीं से भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने अपने पतिदेव से कही, उन्होंने भी कह दिया हमारे यहां सभी ऐसा ही करते है। तुम नया कुछ नहीं कर सकती।

माधवी ने भी सब को अच्छी आदत डालने का बीडा उठाया।

खाना परोसने के बाद वह वहीं खड़ी रहती। एक हाथ में पानी और दूसरे हाथ पर हाथ धोने वाला बर्तन। सबको हाथ धुलाती थी। और फिर बर्तन बाहर रख कर आ जाती थी। सबको बहुत बुरा लगता था। कई बातें भी बनती थी। परन्तु जो गलत था उसे वह सुधार रहीं थीं। धीरे-धीरे सभी को समझ आने लगा। वास्तव मे जो जूठे बर्तन उठाये जिसमें सुबह शाम हाथ धोकर कुल्ला किया जाये, तो उसको कितना खराब लगता होगा।

अब तो सब बाहर एक निश्चित जगह पर जाकर हाथ धोने लगे। पतिदेव भी खुश थे कि जो अच्छा काम है। उसे अपना लेना चाहिए। अब तो देखा-देखी सभी इस का ख्याल करने लगे।

माधवी सब के लिये अब “सुघड़ बहु ‘बन गई। उसे भी एक नयी पहल पर अच्छा लगा। अपनी जीत पर मुस्कुराने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆ हाउसवाइफ ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “हाउसवाइफ ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆

 

☆ हाउस वाइफ ☆

 

वह भरे-पूरे परिवार में रहती थी जहा उसे काम के आगे कोई फुर्सत नहीं मिलाती थी. मगर फिर भी वह उस मुकाम तक पहुच गई जिस की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है.

उस ने कई दिग्गजों को हरा कर “मास्टर शेफ” का अवार्ड जीता था. यह उस की जीवन का सब से बड़ा बम्पर प्राइज था.

“आप  अपनी जीत का श्रेय किसे देना चाहती है ?” एक पत्रकार ने उस से पूछा

“मैं एक  हाउस वाईफ हूँ और मेरी जीत का श्रेय मेरे भरे- पूरे परिवार को जाता है जिस ने नई-नई डिश की मांग कर-कर के मुझे एक बेहत्तर कुक बना दिया. जिस की वजह से मैं ये मुकाम हासिल कर पाई हूँ.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 11 – करे कोई भरे कोई ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  लघुकथा  “करे कोई भरे कोई। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 11 ☆

 

☆ करे कोई भरे कोई ☆  

 

यार रमेश, ये अंकल आँटी को क्या हो गया है, आजकल दोनों बच्चों – पिंकी व रिंकू को हम लोगों से दूर-दूर क्यों रखने लगे हैं?

हाँ  शुभम् मैं भी तो इसी बात से हैरान हूँ। मैंने जब रामदीन दद्दा से पूछा तो वे अपना ही रोना ले बैठे, बोले- कुछ दिनों से बहू बेटे, दोनों बच्चों को उनके कमरे में आने से रोकने लगे हैं।

बता रहे थे वे- आजकल सब दूर यही सब चल रहा है।

उनके एक बुजुर्ग मित्र देवीदीन को तो उनके डॉक्टर बेटे बहू ने मुँह पर ही बोल दिया कि, वे बच्चों से दूरी बना कर रखें। उनके कारण पूछने पर उन लोगों ने स्वास्थ्य का हवाला दिया कि, बड़ी उम्र में शरीर में कई अज्ञात रोगाणु छिपे रहते हैं, इसलिए……

यार रमेश क्या सटीक कारण खोजा है, डॉक्टर बहू बेटे ने अपने ही पिता को बच्चों से दूर रखने का।

वैसे शुभम्- असली कारण मुझे कुछ और ही लग रहा है जो अब कुछ कुछ समझ में भी आ रहा है।

दरअसल आये दिन अखबारों और टी.वी. चैनलों पर बाल यौन उत्पीड़न की कुत्सित घटनाओं को देख सुन कर सभी माँ-बाप अपने बच्चों की सुरक्षा को ले कर काफी भयभीत व आशंकित हैं। शायद इसी भय के चलते सब के साथ उनके अपने भी संदेह के घेरे में आने लगे हैं।

रमेश, यह तो सही है कि  ऐसे हालात में सतर्कता और सावधानी रखना जरूरी हो गया है, पर ऐसे में जो साफ़ सुथरे निश्छल मन के स्नेही स्वजन हैं उनके दिलों पर क्या गुजरेगी।

गुजरना तो है शुभम्- गुजर भी रही है, तभी तो हम इस पर चर्चा कर रहे हैं। क्या करें समाज का ताना बाना ही ऐसा है, सुनी है ना वे सारी कहावतें – कि “एक पापी पूरी नाव को डूबा देता है”,

“दूध का जला छांछ भी फूँक कर पीता है”  या “करे कोई भरे कोई”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 13 – मेहंदी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “मेहंदी”यह रंग बिरंगा जीवन जीने का दूसरा अवसर नहीं मिलता, जिसे जीने का सबको बराबर हक है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 13 ☆

 

☆ मेहंदी ☆

 

कंचन अपने माता-पिता की इकलौती संतान । गोरा रंग और सुंदरता के कारण उसका नाम कंचन रखा गया। कंचन के पिताजी की रंगो और मेहंदी की छोटी सी दुकान । उन रंगों से खेलना कंचन को बहुत भाता था। हमेशा मेहंदी से हाथ रचाई रखना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गई थी। बहुत शौकीन सजने संवरने की।

समय बीतता गया, कंचन बड़ी हुई। घर में शादी की बात चलने लगी। कंचन जो अब तक मेहंदी – महावर लगा रही थी। अब उसके माथे मांग सिंदूर लगने जा रहा था।

शादी बहुत ही साधारण तौर पर हुई क्योंकि कंचन के पिताजी ज्यादा खर्च करने के लायक नहीं थे। कंचन के रूप- गुण के कारण ससुराल वाले उनका भी खर्चा उठाने के लिए तैयार हो गए। बस और क्या चाहिए। कंचन शादी विदा होकर अपने ससुराल पहुंच गई। पर उसके मन में बार-बार शंका हो रही थी कि आखिर क्यों इतना एहसान किया जा रहा है।

ससुराल पहुंचने पर कंचन को धीरे-धीरे पता चला कि उसका अपना पति बहुत ही बीमार रहता है। डॉक्टर ने उसे जवाब दे दिया है। पर कंचन बेचारी क्या करती। दूसरे दिन ही पति की बीमारी शुरू हुई और मौत हो गई।

कंचन मौन मूक से देखती रही। अभी तो उसने ठीक से पति को देखा भी नहीं और विधवा हो गई।

खैर सब अपने कर्मो का फल है ऐसा सब  कहने लगे। परंतु कंचन समझ ना पा रही थी कि इसमें उसका क्या कसूर।

दूसरे ही दिन से कंचन को सफेद साड़ी दे दिया गया। जिस कंचन को सब रंगों से इतना लगाव था वह तो पूरी सफेद बन चुकी।

महीने भर बाद माता-पिता जी ले गए अपनी बिटिया को अपने घर। जैसे खुशियां उनके घर से कोसों दूर चली गई है। कंचन अब अपनी दुकान पर भी नहीं बैठती थी। गुमसुम से एक जगह बैठी मिलती। बस अपने आप में खोई हुई। पास में ही कंचन के साथ पढ़ाई करने वाला लड़का कौशल पढ़ाई कर बाहर नौकरी पर चला गया था। जो कंचन को बहुत प्यार करता था। इसका पता उसे तब चला जब वह फिर लौट कर अपने घर आया हुआ था।

एक दिन पिताजी किसी काम से शहर से बाहर गए थे। कंचन की माँ अपने घर का काम कर रही थी। और कंचन दुकान पर बैठी, सफेद साड़ी में। उसी समय वह आया और लाल रंग और मेहंदी देने को कहा। पर कंचन ने मना कर दिया की वह रंगों को हाथ नहीं लगाएगी। कौशल ने फिर कहा “मुझे लाल रंग चाहिए।” कंचन ने गुस्से से कहा “तो फिर खुद ले लो और लगा लो।” बस कौशल को तो इसी की प्रतीक्षा थी। उसने लाल रंग निकाला और कंचन की सफेद साड़ी को सर से पांव तक लाल कर दिया। “ये क्या किया?” कंचन घबराहट से उठ खड़ी हुई।

माँ पीछे से मंद-मंद मुस्कुराते हुए बाहर आई और कौशल से बोली “ले जा मेरी कंचन को, मेहंदी महावर और लाल सिंदूर लगा कर। मेरी कंचन को रंगों से बहुत प्यार है।”

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 13 – लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “एक पुरस्कार समारोह”।  ईमानदारी वास्तव में  नीयत से जुड़ी  है। समाज में व्याप्त ईमानदारी के स्तर को डॉ परिहार जी ने बेहद खूबसूरत अंदाज में प्रस्तुत किया है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 13 ☆

 

☆ लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह  ☆

कलेक्टरेट के चपरासी दुखीलाल को दस हजार रुपये से भरा बटुआ एक बेंच के पास पड़ा मिला। उसने उसे खोलकर देखा और सीधे जाकर उसे कलेक्टर साहब की टेबिल पर रखकर छाती तानकर सलाम ठोका। कलेक्टर साहब ने दुखीलाल की बड़ी तारीफ की।

दुखीलाल की ईमानदारी की खबर पूरे कलेक्टरेट में फैल गयी। जिस तरफ भी वह जाता, लोग शाबाशी देते। कुछ लोग उसकी तरफ इशारा करके दूसरों को बताते, ‘यही दुखी लाल है, दस हजार का पर्स लौटाने वाला।’ दुखी लाल का सीना एक दिन में तीन इंच बढ़ गया।

सिर्फ उसके साथी झगड़ू ने उसके आत्मगौरव के गुब्बारे में सुई टोंचने की कोशिश की। झगड़ू बोला, ‘वाह रे बुद्धूलाल! हाथ में आये दस हजार सटक जाने दिये। तुमसे नईं संभलते थे तो हमें दे देते, हम संभालकर रख लेते।’ दुखी लाल ने उसे डपटा, ‘चुप बेईमान!’ और झगड़ू ताली पीटकर हँसा, ‘जाओ जुधिष्ठिर, जाओ।’

उसी दिन नगर के प्रसिद्ध समाज सेवक चतुर लाल जी पर्स पर अपना दावा पेश करके, प्रमाण देकर रुपया ले गये। दूसरे दिन नगर की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘फुरसत’ की ओर से दुखी लाल का अभिनंदन किया गया। चतुर लाल भी उसमें हाज़िर हुए।

समारोह में दुखी लाल की ईमानदारी की खूब प्रशंसा हुई। उसे माला पहनायी गयी और अभिनंदन-पत्र दिया गया। चतुर लाल भी बोले। उन्होंने कहा, ‘दुखी लाल के काम से साबित होता है कि हमारे देश में अभी भी ईमानदार और सही रास्ते पर चलने वाले लोग हैं। दुखी लाल का काम लाखों को ईमानदारी की प्रेरणा देगा। भाई दुखी लाल ने मुझे बड़े नुकसान से बचाया है, इसलिए मैं उन्हें एक हजार रुपये की राशि की तुच्छ सी भेंट देना चाहता हूँ। मेरा अनुरोध है कि वे इसे स्वीकार करें।’

उन्होंने राशि निकालने के लिए जेब में हाथ डाला कि इतने में दरवाज़े पर खाकी वर्दी दिखायी पड़ी और एकाएक चतुर लाल सब छोड़छाड़ कर अपनी धोती की लाँग संभालते हुए दूसरे दरवाज़े से भाग खड़े हुए। समारोह में अव्यवस्था फैल गयी।

दरवाज़े में से खुद पुलिस अधीक्षक हॉल में आये। उन्होंने कमरे में नज़र दौड़ायी और पूछा, ‘कहाँ गया वह समाज सेवक का बच्चा? बदमाश ने झूठा दावा पेश करके दूसरे का रुपया ले लिया।’

दुखीलाल मुँह फाड़े सब देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ वाह! क्या दृश्य है? ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह सामयिक लघुकथा  “वाह! क्या दृश्य है?“अत्यंत हृदयस्पर्शी है ।  वर्तमान में देश के विभिन्न राज्यों में भारी बारिश की वजह से बाढ़ की स्थिति बनी हुई है । यह लघुकथा उन्होने लगभग 12 वर्ष पूर्व बाढ़ की विभीषिका पर लिखी थी।)

 

? वाह! क्या दृश्य है ? ?

 

रमुआ पीपल के पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर बैठा अपने चारों ओर दूर-दूर तक फैली अथाह जल राशि को देख रहा था ।

गांव के नजदीक बने बांध के भारी वर्षा से टूट जाने के कारण अचानक आई बाढ़ से पूरे गाँव में पानी भर जाने से कच्चे मकान ढह गये थे और गाँव के लोगों के साथ ही ढोर जानवर भी बहने  लगे थे । बाढ़ के पानी में बहते हुए उसके हाथों  में पीपल की डाल आ गई थी, जिसे उसने मजबूती से पकड़ उस पर चढ़कर अपने आप को किसी तरह बहने से बचा लिया था ।

पेड़ पर बैठे हुए आधा दिन एवं पूरी रात बीत गई थी । भूख प्यास के मारे उसका बुरा हाल था । बाद का पानी उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था, कहीं से कोई सहायता मिलती नजर नहीं आ रही थी। उस पर रह-रह कर बेहोशी छा रही थी । तभी उसे दूर आसमान पर हेलिकॉप्टर के आने की आवाज सुनाई दी । हेलिकॉप्टर उसी ओर आ रहा था । एक पल के लिये उसके मुर्दा हो रहे शरीर में जान आ गयी  । हेलिकॉप्टर के नजदीक आने पर उसने पूरी ताकत से मदद के लिये आवाज लगाई, किंतु हेलिकॉप्टर की गड़गड़ाहट में उसकी आवाज दबकर रह गई । नजदीक से निकलते हेलिकॉप्टर में उसने एक सफेद खद्दरधारी को प्रसन्नचित्त मुद्रा में दुरबीन आंखों से लगाये देखा । उस खद्दरधारी के चेहरे के भाव से उसे महसूस हुआ जैसे वह कह रहे हों – वाह! क्या दृश्य है ।

हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट दूर होती जा रही थी और रमुआ अपने आपको पूरे होश में रखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन वह सफल न हो सका । अंततः वह चेतनाशून्य होकर बाढ़ के पानी में बह गया ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – लघुकथा ☆ देश प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  द्वारा  स्वतन्त्रता दिवस   के अवसर पर  रचित लघुकथा देश प्रेम । )

 

  देश प्रेम  

 

छोटा सा गांव साधारण बस्ती। हिन्दूओं के मुहल्ले में एक रशीद खान का मकान। मुसलमान होने के कारण उन्हें ज्यादा किसी के दुख सुख में नहीं बुलाया जाता था। परंतु रशीद मियां सब को अपना समझ हमेशा जा कर खड़े हो जाते। चाहे उन्हें कितना भी बुरा भला कहे। गांव में सभी त्योहार खुशियाली से मनाया जाता। रशीद मियां भी सब में शामिल होते। पर सब उनका मजाक उड़ाया करते।

स्कूलों में ध्वजारोहण का कार्यक्रम 15 अगस्त —26 जनवरी का होता तो सब कहते ये रशीद मियाँ देश प्रेम क्या जानेगा? इसे तो कुछ मतलब ही नहीं है। परंतु रशीद मियां सब की बातों को सुन अनसुना कर देते थे। दिन बीतते गए।

15 अगस्त राष्ट्रीय पर्व आया गांव में सभी खुश थे तिरंगा फहराने की बात को लेकर। बाहर से भी आदमी आते थे। इस बार ज्यादा तैयारी हो रही थी क्योंकि  अधिकारियों ने बताया कि एक महत्वपूर्ण पुरस्कार गाँव में किसी व्यक्ति को मिलने वाला है। जिसने अपने होशियारी से गाँव को नष्ट होने से बचा लिया। दुश्मन के मंसूबे  को अपने सूझबूझ से नष्ट किया है। सभी हैरान थे ऐसा कौन सा व्यक्ति है। जिसको इतनी  चिन्ता है। गाँव के सभी लोग एकत्रित हुए। बीच गाँव के स्कूल प्रांगण में सभी कार्य पूर्ण होने के बाद वह घड़ी आ गई जिसका सभी को इंतज़ार था। माइक से एनाउंस किया गया कि आदरणीय रशीद खान आगे आये और ये सम्मान ग्रहण कर हमें अनुग्रहीत करें। सभी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। किसी के मुँह से कुछ बोल नहीं निकले। रशीद मियाँ को सब मुसलमान कहकर उनका देश प्रेम को लेकर मजाक उड़ाया जाता था। आज उनके कारण ही सब गाँव वाले बच गए और एक नया जीवन मिला। रशीद खान को सम्मानित कर सभी बहुत खुश हुए। पर सभी अपने व्यवहार से शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था हम तो दिखावे में देश भक्ति करते हैं। पर असली देश भक्त तो रशीद खान निकले।

पूरा गांव आज रशीद खान को बधाई दे रहा है और रशीद मियाँ अपने को सब के बीच पा कर बहुत खुश थे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12 ☆ माँ तो माँ है! ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “माँ तो माँ है!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12☆

 

☆ माँ तो माँ है!☆

 

रमा अपने बेटे को छाती से चिपका कर रो पड़ी, “सुनते हो जी ! कुछ करो ना ? ” उस की बोली निकल नहीं पा रही थी.

आज शाम से ही रमा के बेटे को उलटी दस्त होने लगे थे. जो रूकने का नाम नहीं ले रहे थे. उस ने डॉक्टर को दिखाया. दवा पिलाई. मगर दस्त थे कि बंद नहीं हुए. यह देख कर रमा अपने पुत्र को गोद में ले कर रात भर बैठी रही. वह अपनी सब सुधबुध खो चुकी थी.

तभी रमा के पति अविनाश की आँखें लग गई.

यह देख कर रमा चिल्लाई, “ये क्या है?” वह लगभग चीख पड़ी थी, “हमारा बेटा बीमार पड़ा है और आप नींद निकाल रहे है ?”

अविनाश हड़बड़ा कर उठ बैठा, “क्या हुआ ?”

“मेरे पुत्र की हालत देखो. इस के लिए कुछ भी करो. यह ठीक नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगी.”  वह तड़फ उठी, “तुम क्या जानो. माँ क्या होती है ?”

यह सुन कर अविनाश की आँखें फटी की फटी रह गईं, “माँ अपने बच्चे के लिए इतने दुख-दर्द झेलती है ?”

“हाँ, और नहीं तो क्या?” रमा कहने को तो कह गई. मगर, जब अविनाश को उठते हुए देखा तो पूछ बैठी, “अब कहाँ चल दिए ?”

“अपनी बीमार माँ को अनाथालय से लेने,” अविनाश ने कहा और अनाथालय की ओर चल दिया,  “माँ तो माँ होती है. चाहे वह तुम जैसी माँ हो या मेरे जैसे बेटे की माँ?’’

यह सुन कर रमा की आँखों में भी आँसू आ गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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