हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10 ☆ ज़िंदगी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “ज़िंदगी ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10☆

 

☆ ज़िंदगी ☆

 

मैंने अपनी पत्नी को कहा, “आज उमेश चाय पर आ रहा है.”

“क्या !” पत्नी चौंकते हुए बोली, “पहले नहीं कहना चाहिए था ?”

मैंने पूछा, “क्यों भाई, क्या हुआ ?”’

“देखते नहीं, घर अस्तव्यस्त पड़ा है. सामान इधर उधर फैला है. पहले कहते तो इन सब को व्यवस्थित कर देती. वह आएगा तो क्या सोचेगा? मैडम साफ सुथरे रहते है और घर साफ सुथरा नहीं रखते हैं.”

“वह यहीं देखने तो आ रहा है. शादी के बाद की जिंदगी कैसी होती है और शादी के पहले की जिंदगी कैसी होती है ?”’

“क्या !” अब चौंकने की बारी पत्नी की थी, “क्या, वह भी शादी कर रह है.”

मैं ने कहा, “ हां,” और पत्नी घर को व्यवस्थित करने में लग गई. ताकि शादीशुदा जिंदगी व्यवस्थित दिखें.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कागज की नाव ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी के शब्द चयन एवं शैली  मौलिक है। )

 

☆ कागज की नाव ☆

 

मनोहर लाल अपने कमरे की  खिड़की से बाहर का नजारा देख रहे थे, तपती गर्मी के बाद झमाझम बारिश हो रही थी जिससे वातावरण में ठंडक का अहसास घुल रहा था। बहुत दिनों की तपन के बाद धरती भी अपनी प्यास बुझाकर मानो तृप्ति का  अनुभव कर रही हो।

बारिश की बड़ी बड़ी बूंदों से लान में पानी भर गया था और वह पानी तेजी से बाहर निकल कर सड़क पर दौड़ रहा था । मनोहरलाल को अपना बचपन याद आ गया, जब वे ऐसी बरसात में अपने भाई बहनों के साथ कागज की नाव बनाकर पानी में तैराते थे और देखते थे कि किसकी नाव कितनी दूर तक बहकर जाती है। जिसकी नाव सबसे दूर तक जाती थी वह विजेता भाव से सब भाई बहनों की ओर देखकर खुशी से ताली बजाकर पानी में छप-छप करने लगता था।

उनकी इच्छा पुनः कागज की नाव बनाकर लान में तैराने की हुई , अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु उन्होंने अपनी आलमारी से एक पुरानी कॉपी निकालकर उसका एक पेज फाड़कर नाव बनाई और उसे कुर्ते की जेब में रखकर अपने कमरे से बाहर आये। आज रविवार होने से  बेटा, बहु और नाती भी घर पर ही थे। ये तीनों ड्राइंग रूम में अपने अपने मोबाइल में व्यस्त थे।

वे  धीमे कदमों से ड्राइंग रूम से बाहर निकल ही रहे थे कि बहु ने आवाज देते हुए पूछा – “पापाजी इतनी बारिश में बाहर कहाँ जा रहे हैं? जरा सी भी ठंडी हवा लग जावेगी तो आपको  सर्दी हो जाती है फिर पूरी रात छींकते, खांसते रहते हैं, देख नहीं रहे हैं कितनी तेज बारिश हो रही है ऐसे में लान में क्या करेंगे, अपने कमरे में ही आराम कीजिये।”

वह चुपचाप मुड़े एवं अपने कमरे की ओर बढ़ गये उनका एक हाथ कुर्ते की जेब में था जिसकी मुठ्ठी में दबी कागज की नाव बाहर आने को छटपटा रही थी।

बेटे, बहु और नाती अपनी आभासी दुनिया में खोये पहली बरसात की फ़ोटो पोस्ट कर उस पर मिल रहे लाइक कमेंट्स पर खुश हो रहे थे।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 10 – दावत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “दावत”। इस लघुकथा ने  संस्कारधानी जबलपुर, भोपाल और कई शहरों  में गुजारे हुए गंगा-जमुनी तहजीब से सराबोर पुराने दिन याद दिला दिये। काश वे दिन फिर लौट आयें। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के लिए नमन।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 10 ☆

 

☆ दावत ☆

 

दावत कहते ही मुंह में पानी आ जाता है। एक भरी भोजन की थाली जिसमें विभिन्न प्रकार के सब्जी, दाल, चावल, खीर-पूड़ी, तंदूरी, सालाद, पापड़ और मीठा। किसी का भी मन खाने को होता है।

मोहल्ले में कल्लन काले खाँ चाचा की आटा चक्की की दुकान। अब तो सिविल लाइन वार्ड और मार्ग हो गया। पहले तो पहचान आटा चक्की, मंदिर के पास वाली गली। कल्लन  काले खाँ को सभी कालू चाचा कहते थे। क्योंकि उनका रंग थोड़ा काला था। कालू चाचा की इकलौती बेटी शबनम और हम एक साथ खेलते और पढ़ते थे।

शाम हुआ आटा चक्की के पास ही हमारा खेलना होता था। स्कूल भी साथ ही साथ जाना होता। दो दिन से शबनम स्कूल नहीं आ रही थी।

हमारे घर में क्यों कि मंदिर है उसका यहाँ आना जाना कम होता था। बड़े बुजुर्ग लड़कियों को किसी के यहाँ बहुत कम आने जाने देते हैं।

समय बीता एक दिन शाम को शबनम बाहर दौड़ते हुए आई और बताने लगी ” सुन मेरा ‘निकाह’ होने वाला है। अब्बू ने मेरा निकाह तय कर लिया। हमने पूछा “निकाह क्या होता है?”

उसने बहुत ही भोलेपन से हँसकर कहा “बहुत सारे गहने, नए-नए कपड़े और खाने का सामान मिलता है। हम तो अब निकाह करेंगे। सुन तुम्हारे यहां जो “शादी” होती है उसे ही हम मुसलमान में “निकाह” कहा जाता है।” इतना कहे वह शरमा कर दौड़ कर भाग गई। हमें भी शादी का मतलब माने बुआ-फूफा, मामा-मामी और बहुत से रिश्तेदारों का आना-जाना। गाना-बजाना और नाचना। मेवा-मिठाई और बहुत सारा सामान। उस उम्र में शादी का मतलब हमें यही पता था।

ख़ैर निकाह का दिन पास आने लगा कालू चाचा कार्ड लेकर घर आए। हाथ जोड़ सलाम करते पिताजी से कहे  “निकाह में जरूर आइएगा बिटिया को लेकर और दावत वहीं पर हमारे यहाँ  करना है।” बस इतना कह वह चले गए।

घर में कोहराम मच गया दावत में वह भी शबनम के यहाँ!! क्योंकि हमारे घर शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था। लेकिन पिताजी ने समझाया कि “बिटिया का सवाल है और मोहल्ले में है। हमारा आपसी संबंध अच्छा है, इसलिए जाना जरूरी है।”

घर से कोई नहीं गया। पिताजी हमें लेकर शबनम के यहाँ पहुँचे। उसका मिट्टी का घर खपरैल वाला बहुत ही सुंदर सजा हुआ था। चारों तरफ लाइट लगी थी शबनम भी चमकीली ड्रेस पर चमक रही थी। जहां-तहां मिठाई और मीठा भात बिखरा पड़ा था। हमें लगा हमारी भी शादी हो जानी चाहिए। जोर-जोर से बाजे बज रहे थे और कालू चाचा कमरे से बाहर आए उनके हाथ में नारियल औरकाजू-किशमिश का पैकेट था। उन्होंने पिताजी को गले लगा कर कहा “जानता हूँ भैया, आप हमारे यहाँ दावत नहीं करेंगे पर यह मेरी तरफ से दावत ही समझिए।”

पिताजी गदगद हो गए आँखों से आँसू बहने लगे। ये खुशी के आँसू शबनम के निकाह के थे या फिर दावत की जो कालू चाचा ने कराई। हमें समझ नहीं आया। पर आज भी शबनम का निकाह याद है।

शबनम का निकाह और दावत दोनों कुबूल हुई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

☆ संजय दृष्टि  – सीढ़ियाँ

“ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से  35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज़ करता है और टिकाये रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ श्रृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, श्रृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

 

हरेक की  जीवनयात्रा सार्थक हो। 

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #9 ☆ चाँटा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  बाल लघुकथा  “चाँटा”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #9 ☆

 

☆ चाँटा ☆

 

रोज की तरह प्रार्थना हुई. छात्र पंक्तिबद्ध जाने लगे,‘‘ ठहरो !’’ तभी बाहर से आते हुए प्रधानाध्यापक की आवाज गूँजी.

“आज सभी छात्रों के नाखून, कपड़े व बालों की साफ सफाई देखी जाएगी.”

वे दो दिन पहले इस की चेतावनी दे चुके थे. सभी कक्षाध्यापक अपनी अपनी कक्षा के छात्रों के नाखून, कपड़े व बाल देखने लगे.

“क्यों रे! तेरे बाल कैसे हो रहे हैं. ” मोहन सर चिल्ला कर बोले, “देख तेरे बुश्शर्ट की कॉलर”.  उन्होंने उस छात्र की गंदी कालर पकड़ कर कहा, “ये कितनी गंदी हो रही है.”

छात्र उद्दंड था. तपाक से बोला, “सर ! पहले अपने बुश्शर्ट की कॉलर देख लीजिए. वह कितनी गंदी हो रही है.” उस का जवाब सुन कर सभी छात्र हँसने लगे. तभी प्रधानाध्यापक ने चिल्ला कर कहा, “चुप. ये क्या तमाशा लगा रखा है.’’ फिर वे उद्दंड छात्र की ओर देख कर बोले,  “तू यहाँ रूक.” फिर अन्य छात्रों को तेज आवाज में कहा, “बाकी सब अपनी अपनी कक्षा में चल दो.”

सभी छात्र चुपचाप चले गए. इधर उद्दंड छात्र घबरा रहा था. अब उसे चाँटे लगना तय है.

मगर, मोहन सर, बहुत शर्मिंदा थे. छात्र ने सभी के सामने उन्हें जोरदार शब्दों का चाँटा जो मार दिया था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #9 – कृतज्ञता ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक भावप्रवण लघुकथा    “कृतज्ञता ”। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 9 ☆

 

☆ कृतज्ञता ☆

 

लगभग अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का।  पीछे बैग टांगे अपने सफर पर था। शायद कहीं परीक्षा देने जा रहा था। एक लंबी यात्रा पर हम भी निकले थे। बड़े स्टेशन पर ट्रेन के रूकते ही सभी अपने अपने जरूरत का सामान पानी, नाश्ता, भोजन, चाय और किताबें लेने के लिए चल पड़े। किताब की दुकान पर किताब देख ही रहे थे कि वो लड़का भी आकर ‘प्रतियोगिता  दर्पण’ देखने लगा। दुकान वाले ने जोर की डांट लगाई “फिर आ गये चलो भगो!!!!”

ट्रेन छूटने की जल्दी और उसकी मासूमियत देख हमने कहा “चलो लेकर जाओ।“ उसकी ट्रेन चलने का संदेश दे रही थी। किताब हाथ में लेकर दूसरे हाथ की  मुट्ठी  में बन्द मुड़ा तुड़ा नोट फेंका और दौड कर ट्रेन पर चढ गया।

जाते समय उसके चेहरे पर जो संतुष्टि और क्रृतज्ञता के भाव थे। शायद वह हजारों रू दान करने से भी नहीं मिल पाते।

बाद में पता चला कि रू 35 कम पड़ रहे थे उस किताब को लेने के लिए ।

एक छोटा सा सहयोग; हो सकता है उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण और उपयोगी बन गया हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ ज़िम्मेदारी ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं / स्वार्थ और बच्चों के प्रति कर्तव्य के निर्वहन पर आधारित एक संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा।)

 

☆ ज़िम्मेदारी ☆

 

उमा अपने पति के देहान्त के बाद अपने घर में अकेले रह रही थी, दोनों बच्चों की शादी हो चुकी थी। बेटी के घर में रहना नहीं चाहती थी, बेटा-बहु ले जाने को तैयार नहीं थे बेचारी किसी ने किसी तरह अपना वक्त गुजार रही थी। पति की मौत ने उसे तोड़ डाला था बेटे के दो बच्चे हो चुके थे।

बेटा-बहु दोनों ही नवोदय स्कूल में सेवारत थे। अब बच्चों की परवरिश की दिक्कत आने लगी थी। काम वाली के सहारे बच्चों को छोड़ना सुरक्षा के लिहाज से तो सही था ही नहीं, खर्चा भी मोटा होता।

बहु ने बेटे से कहा,,” क्यों ऩ हम माँ जी को अपने पास ले आये ,उनका मन भी लग जाएगा व अपनी समस्या भी हल हो जायेगी”। बेटा तो कुछ दिन से यह चाह ही  रहा था। क्योंकि समाज की थोड़ी परवाह थी उसे। उस माँ के संस्कार भी बाकी थे उसमें; लेकिन पत्नी के  डर की वजह से चुप था।

दोनों माँ को लेने गाँव पहुँच गये। उनको इतने दिनों बाद देख कर वह कुछ अचंभित हई; लेकिन माँ तो माँ ही होती है। अपने आँसू छुपाते हुए कहने लगी , “बेटा सब ठीक तो है ना, कैसे हो तुम सब लोग? बच्चे क्यों नहीं आये”? बिना उत्तर सुने सवाल पर सवाल करती रही। उनको मुँह-हाथ धोने की बोल उनके लिए चाय बनाने चली गई। बेटा पीछे-पीछे रसोई में गया और बताया सब ठीक हैं बच्चे स्कूल का काम ज्यादा था इसलिए घर पर ही रह गये। बातों ही बातों में जाहिर कर दिया कि वे उसे अपने साथ ले जाने के लिए आये हैं। फटाफट जाने की तैयारी कर ले।

चाय देकर वह अपने कमरे में आ गई वह सोचने लगी व साथ जाने के लिए मना कर दे; लेकिन बच्चों का दिल तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं थी। वह चुपचाप कपड़े व जरूरत की चीजें पैक करने लगी। मन ही मन बुडबुडा रही थी कि यहाँ तो सब की यादें बसी हैं। उसके जानने वाले बहुत हैं कुछ दिन की बात तो अलग थी मगर हमेशा के लिए वहाँ जाना ……..।

बच्चे चाहें कितने ही बड़े क्यों न हो जाये माँ-बाप के फर्ज कभी पूरे नहीं होते। यह जिम्मेदारी भी उसे निभानी ही पड़ेगी।

यही विचार कर घर पर ताला लगा बच्चों के साथ घर से निकल गई। जब तक घर आँखों से ओझल न हो गया वह गाड़ी से बाहर झाँक कर देखती रही।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ नासमझी ☆ – श्री नरेंद्र राणावत

श्री नरेंद्र राणावत

☆ नासमझी ☆

पिछले दिनों जालौर शहर में रात्रि आवास हुआ।

उसी मध्यरात्रि तेज बारिश हुई। जल संधारण की कोई व्यवस्था नहीं थी । छत का पानी व्यर्थ ही बह गया।

सुबह हुई। परिवार के मुखिया ने अपनी पत्नी को आवाज लगाई- “बाथरूम में बाल्टी रखना टांके से पानी भरकर नहा लूँ।”

पत्नी बोली- “टंकी तो कल ही खाली हो गई है, नल अभी तक आया ही नहीं।”

रात को बारिश से उठी सौंधी गंध और टीन पर घण्टों तक टप-टप के मधुर संगीत ने जलसंग्रहण सन्देश की जो कुंडी खटखटाई थी, उसे नासमझों ने जब अनसुना कर दिया तो सुबह होते ही सूरज ने भी अपनी आँखें तरेरी, तपिश बढ़ाई और सभी को पसीने से तरबतर कर दिया।

 

???

© नरेंद्र राणावत  ✍?

गांव-मूली, तहसील-चितलवाना, जिला-जालौर, राजस्थान

+919784881588

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆ खाके ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “खाके”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆

 

☆ खाके ☆

 

गोपाल ‘खाके’ फिल्म के विरोध के लिए रूपरेखा बना रहे थे. किस तरह फिल्म के पोस्टर फाड़ना है ? कहाँ  कहाँ विरोध करना है ? किस किस को ज्ञापन देना है ? किस साइट पर क्या क्या लिखना है ? ऐसी अधार्मिक फिल्म का विरोध होना ही चाहिए जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाए.

तभी ‘खाके’ फिल्म के निर्माता ने प्रवेश किया.

“अरे! आप.” गोपाल चकित होते हुए बोले, “आइए बैठिए, मोहनजी”, कहते हुए उन्होंने नौकर से इशारा किया. वह चाय-पानी रख कर चला गया.

मोहनजी कुछ बोलना चाहते थे. उन्होंने मेरी ओर देखा.

“ये अपने ही आदमी है,” गोपाल ने आश्वस्त किया, “आप इन के सामने निश्चिन्त हो कर अपनी बात कह सकते हैं.”

“अच्छा जी,” कहते हुए मोहनजी ने एक सूटकेस सामने रख दिया. “आप ने बहुत अच्छा प्रचार किया है. आप ‘खाके’ फिल्म का जितना विरोध करेंगे उतनी ही यह फिल्म फेमस होगी.

“आप का आयडिया अच्छा है. इसलिए आप इस के विभिन्न दृश्यों की जम कर आलोचना कीजिए. बताइए कि इस में क्या-क्या खराब है?”

यह सुन कर मैं चकित रह गया. मेरे मन में मंथन चलने लगा. मेरा ध्यान भटक गया.

एक ओर सूटकेस में पड़े नोट मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे, वहीं दूसरी ओर गोपाल का यह रूप मुझे चकित कर रहा था.

“वाह! क्या तरीका निकाला है आप ने, “मोहनजी कहे जा रहे थे, “आप का भी प्रचार हो गया और मेरी फिल्म भी हिट हो गई.”

यह सुन कर मैं ‘खाके’ फिल्म की सार्थकता पर विचार करने लगा. फिल्म सार्थक है या ये लोग ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #8 – सगुन ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सगुन ”। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 8  ☆

 

☆ सगुन ☆

 

सभ्रांत परिवार बड़ा घर हर तरफ से सभी चीजों से परिपूर्ण। वहाँ पर सिर्फ शासन दादी माँ का। किसी को कुछ देना, किसी के यहाँ जाना, किसी के यहाँ आना, क्या खाना, क्या बनाना सब कुछ दादी माँ ही तय करती थी। दादाजी ने सब कुछ उन्हीं पर छोड़ रखा था। 3 – 3 बेटे – बहुओं का घर। बच्चे भी बहुत। काम वाली बाई का आना – जाना लगा रहता था। दूर से ही उसको सामान फेंक कर देना जैसे दादी की दिनचर्या बनी हुई थी। बाई की बहुत ही सुंदर बिटिया अपनी माँ के साथ आ जाती थी। दादी उसे भी रोटी फेंक कर देती थी। सब कुछ देती परन्तु छुआछूत की भावना बहुत भरी हुई थी। बाई की बिटिया जिसका नाम सगुन था हमेशा कहती अपनी माँ से कि “क्यों हमसे इतना घृणा करती है”

माँ हमेशा एक ही जवाब देती “बड़े लोग हैं बिटिया यहाँ ऐसे ही व्यवहार होता है।” दिन जाते गए सगुन भी बड़ी होने लगी। माँ के साथ अब काम में भी हाथ बंटा लेती थी। उसके काम करने के तरीके से दादी थोड़ा प्रसन्न रहती थी। कभी सिर पर तेल लगाना, कभी पाँव दबाना बहुत ही लगन से करती थी। परन्तु, दादी यह सब काम कराने के बाद स्नान करती थी। सगुन के मन में एक लकीर बन गई थी ‘कि हम सब काम करते हैं साफ-सफाई से रहते भी हैं पर फिर भी हम से इतनी नफरत क्यों हैं?’ इसका जवाब किसी के पास नहीं था। सगुन बच्चों के साथ खेलती पर किसी को छूने या उसके साथ बैठने का अधिकार नहीं था।

एक दिन की बात है घर के आँगन पर सगुन अपना बैठे-बैठे खेल रही थी। घर के बाकी सदस्य लगभग सभी एक पारिवारिक कार्यक्रम में बाहर गए हुए थे। दादी धूप में खाट पर बैठी कुछ पढ़ रही थी। अचानक उनको सिर दर्द और चक्कर आने लगा। आँखें ततरा गईं पर बोल नहीं पा रही थी। सगुन ने देखा दादी गिर पड़ी है और दौड़ कर नल से पानी डिब्बे में लाकर उनके ऊपर छिड़कने लगी और जल्दी से सिर मलने लगी। पानी का घूंट जाते ही दादी जी को कुछ अच्छा लगा। सगुन पास पड़ोस सबको बुलाकर ले आई। तुरन्त अस्पताल ले जाया गया। 3-4 दिन बाद जब दादी घर आई सभी सदस्यों ने दादी के ठीक होने पर प्रसाद मिठाई बाँटना चाहा और सब लेकर आए। आसपास सभी खड़े थे।

दादी की कड़क आवाज आई “सगुन को भुलाकर लाओ”। सभी ने सोचा कि सामान को शायद सगुन हाथ लगाई है अब तो खैर नहीं पर कोई कुछ ना बोल सके। सगुन डरते- डरते अपनी माँ के साथ आई। दादी ने कहा आज से हमारे घर में सभी शुभ काम सगुन के हाथों होगा।

सभी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे समझ आने पर और जोरदार तालियों से सगुन के ‘शगुन’ बांटने का काम होने लगा। सगुन को कुछ समझ नहीं आया पर आज बहुत खुश थी। अपने को सब के बीच पाकर माँ भी मुस्कुरा उठी। खुशी से आंसू बहने लगे। अब सगुन “शगुन” बन गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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