श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’
(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है पति द्वारा रूपवान एवं विद्वान किन्तु दृष्टिबाधित पत्नी के साथ भावुकता में हुए प्रेमविवाह के परिणाम पर आधारित कहानी “दृष्टिकोण”।)
निकल!” सुमित अपनी दृष्टिबाधित पत्नी दिव्या को धक्के मारता हुआ घर के द्वार तक ले आया।
“मैं कहीं नहीं जाऊंगी, ये तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी घर है!” दिव्या नेपति से किसी तरह स्वयं को छुड़ाते हुए कहा।
“ये घर तेरा कैसे हुआ, जरा मैं भी तो सुनूँ? क्या तेरे बाप ने दहेज में दिया था, तुझे तो खाली हाथ मेरे गले डाल दिया था तेरे बाप ने, मैं अब और नहीं सह सकता तुझे, जहाँ तेरा मन करे जा, पर मेरा पीछा छोड़,” सुमित ने पुनः दिव्या की बाजू पकड़ कर दरवाजे की ओर धकेलते हुए कहा।
“पर मेरा कुसूर क्या है, तुम मुझ से इतनी नफ़रत क्यों करते हो?” दिव्या ने सुमित से दृढ़ स्वर में पूछा।
“कुसूर? तुम्हारा अंधी होना क्या कम कुसूर है? मैं आखिर तुझे कब तक ढोता रहूँ?” सुमित ने गरजते हुए कहा।
“क्या तुम्हें मेरी ये प्रकाशहीन आँखें उस दिन नहीं दिखाई दी थीं, जब रात-दिन मेरे तथा मेरे माता-पिता की मिन्नतें करते नहीं थकते थे? तब तो तुम मेरी खूबसूरती के गीत गाया करते थे। कहाँ गयीं वे बातें जब कहते थे, “आँखें नहीं हैं तो क्या हुआ, पढ़ी-लिखी तो हो, दिल तो तुम्हारा सुन्दर है, निश्पाप है? फिर अब मुझ में अचानक क्या परिवर्तन आ गया?” दिव्या ने पूछा।
“उसी एक भूल की तो सजा भुगत रहा हूँ अभी तक!” सुमित ने दिव्या का हाथ छोड़ते हुए कहा और कुछ सोचता हुआ अंदर चला गया।
दरअसल, दिव्या और सुमित दोनों कॉलेज में एक ही कक्षा में पढ़ा करते थे। दिव्या न केवल पढ़ाई में सर्वश्रेष्ठ थी, बल्कि बला की खूबसूरत थी। सभी की सहायता करना उसका स्वभाव था। जो विद्यार्थी कक्षा से अनुपस्थित रहते अथवा जिन्हें कुछ समझ नहीं आता, वे दिव्या के पास आते और दिव्या भी उन्हें संतुष्ट करके ही भेजती। सभी सहपाठी उसका बड़ा आदर करते थे।
सुमित भी दिव्या से कभी-कभी कुछ पूछने आ जाया करता था। धीरे-धीरे उसका मिलना दिव्या से बढ़ने लगा। लेकिन यह मिलना अब पहले वाला नहीं रहा था। वास्तव में दिव्या उसे अब अच्छी लगने लगी थी। अब आलम यह हो गया कि किसी-न-किसी बहाने, सुमित सदैव दिव्या के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता। एक-दो बार दिव्या ने उसे कह भी दिया, “सुमित, यदि तुम इधर-उधर घूमते ही रहोगे तो पढ़ाई कब करोगे? यही समय है पढ़ लोगे तो जीवन भर सुख पाओगे!”
“बात यह है दिव्या, मैं चाह कर भी तुम से दूर नहीं रह पाता। दरअसल, मैं तुम से प्यार करने लगा हूँ।” सुमित ने दिव्या के सामने अपने प्यार का इज़हार करते हुए कहा।
“सुमित मुझे इस प्रकार का भद्दा मज़ाक कतई पसंद नहीं है! ऐसा प्यार भावावेश की कमजोर बैसाखियों पर टिका होता है, जो जरा-सी तेज हवा के साथ उड़ जाता है और हल्की-सी तेज धूप में कुम्हला जाता है। ईश्वर के लिए मुझ से इस तरह का मज़ाक फिर कभी मत करना!” कह कर उसने अपने हेंड-बैग से फोल्डिंग स्टिक निकाली और कक्षा की ओर बढ़ गयी।
सुमित हदप्रद-सा बैठा दिव्या को जाते हुए देखता रहा। जब दिव्या उसकी आँखों से ओझल हो गयी तो वह गहरी सोच में डूब गया। बहुत देर तक सोचते रहने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब वह दिव्या के बिना जी नहीं सकेगा। दिव्या ही अब उसकी जिन्दगी है। क्या हुआ अगर उसकी आँखों में रोशनी नहीं है, उसके अलावा तो उसमें सब कुछ है। सुन्दर है, सुशील है, विदूषी है, एक आँखें न होने से क्या इतने गुण कम हो जाते हैं? नहीं, अब कुछ भी क्यों न करना पड़े, मैं अब उसके बिना नहीं रह सकता।
अगले दिन पुनः उसने दिव्या का हाथ पकड़ कर अपने घनिष्ठ मित्रों के सामने प्यार में सैकड़ों कसमें खाईं और जीवन भर साथ निभाने का वादा किया। उसके मित्रों ने भी उसे समझाया, मगर उसपर तो प्यार का भूत सवार था, किसी के समझाने का उस पर असर न हुआ। एक मित्र ने उसे परामर्श दिया कि वह पहले अपने माता-पिता से पूछ कर देखे कि क्या वे एक दृष्टिबाधित लड़की को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं? कहीं ऐसा न हो कि बेचारी दिव्या का जीवन नष्ट हो जाए। अन्य मित्रों ने भी उसके इस विचार का समर्थन किया।
संध्या काल जब वह अपने घर गया तो उसने अपनी माँ से इस विषय में बात की, जिसने
अपना फरमान सुना दिया कि यदि तुम अपनी मर्ज़ी से विवाह कर रहे हो तो अपना बोरिया
-बिस्तर बाँध कर इसी समय घर से निकल जाओ। उसी बीच उसके पिता भी घर पहुँच गये।
माँ-बेटे के बीच होती बहस को विराम देने के उद्देश्य से पूछा, “भाई ऐसा क्या हो गया, जो माँ-बेटे के बीच आज ठनी हुई है? क्या कोई हमें भी कुछ बताएगा?”
तुम्हारा लाड़ला ही बताएगा, मुझ से क्या पूछते हो? तुनक कर उनकी पत्नी ने उत्तर दिया।
“हाँ, सुमित चलो तुम्हीं बताओ कि मामला क्या है? उन्होंने पुत्र की ओर घूमते हुए पूछा।
पिता का प्रश्न सुनते ही सुमित ने आँखें झुका लीं और चुपचाप वहाँ से उठ गया। उसके जाने के पश्चात् रामदेव जी ने पत्नी के नजदीक पहुँच कर उसके कंधे पर हाथ रख कर बड़े प्यार से पूछा, “क्या बात है, आज मूड कैसे बिगड़ा हुआ है हमारी सरकार का?”
“पत्नी ने उनका हाथ झटकते हुए मुँह फेर कर कहा, “अपने लाड़ले से ही पूछिये, आज-कल वह कॉलेज में पढ़ने नहीं, बल्कि इश्क लड़ाने जाता है। किसी अंधी लड़की से प्यार करने लगा है और कहता है, उसी से विवाह करेगा। जिसके जी में जो आए करे, मैं तो घर में केवल रोटियाँ बनाने के लिए हूँ।”
पत्नी की बात सुन कर रामदेव भी गम्भीर हो गये। प्यार तो उन्होंने भी किया था, पर बद्किसमती से अपनी प्रेमिका को पत्नी नहीं बना सके थे। वे अपने अतीत में डूब गये। नहीं, जो उनके साथ हुआ है, वे अपने पुत्र के साथ ऐसा अन्याय कदापि नहीं होने देंगे, वे उसके साथ हैं, अपने ही हृदय में उन्होंने एक निश्चय कर लिया। उसके पश्चात वे अपने पुत्र के पास गये और उसके पास बैठ कर सारी बातें सुनीं। उसके बाद उन्होंने कहा, “देखो सुमित तुम विवाह अपनी पसंद की लड़की से करना चाहते हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मेरी सलाह है कि अपने निर्णय पर एक बार पुनः विचार करो, क्योंकि वह लड़की जैसा तुम बता रहे हो, सामान्य नहीं है, दिव्यांग है। कहीं ऐसा न हो कि तुम विवाह के मामले में जल्दबाजी कर रहे हो। मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि बाद में किसी तरह की समस्या पैदा हो।
“मैं कई बार सोच चका हूँ, मैं उसका जीवन भर साथ निभाऊंगा। मैं उसे अपनी आँखों से दुनिया दिखाऊंगा।” सुमित ने पिता को भरोसा दिलाते हुए कहा।
“तो ठीक है, मेरी ओर से कोई रोक नहीं है, तुम शौक से विवाह करो, मेरा समर्थन है”।
रामदेव जी ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए अपनी स्वीकृति दे दी।
खुशी से जैसे सुमित पागल ही हो गया था। उस रात उसे नींद नहीं आई और प्रातः होते ही कॉलेज के लिए निकल गया। अभी कोई भी नहीं आया था। वह गेट के पास ही अपने मित्रों का इंतजार करने लगा। जैसे ही वे आए, दौड़ कर वह उनके गले लग गया और अपनी खुशी उनके साथ साँझा की। उसके बाद वे दिव्या से मिले। दिव्या ने कहा, “देखो सुमित, अभी तुम्हें मैं बहुत सुन्दर लग रही हूँ। इसका कारण तुम जानते हो? इसका कारण है तुम्हारा मेरी सुन्दर काया के प्रति क्षणिक आकर्षण। जिस दिन ये आकर्षण समाप्त हो जाएगा, मेरे लिए तुम्हारे दिल में न प्यार बचेगा और न ही सहानुभूति। अतः मैं तुम्हारे भावावेश में लिए इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ। तुम इस विषय पर दोबारा ठंडे दिमाग से विचार करो। तुम मेरी जिस खूबसूरती पर मर-मिटे हो, एक दिन इसका तुम्हारे लिए कोई महत्व नहीं होगा। उस समय पछताने से अच्छा है कि तुम मेरा ही नहीं, अपितु अपना भी भला-बुरा समझ लो।”
प्रेरणा ने दिव्या की इस बात का समर्थन किया। उसकी देखा-देखी और मित्र भीउसे अपने निर्णय पर पुनः विचार की सलाह देने लगे।
सुमित ने अपने निर्णय पर दृढ़ रहते हुए अपना फैसला पुनः दोहराते हुए कहा कि चाहे दुनिया इधर-से-उधर हो जाए, पर उसका निर्णय यही रहेगा। उसके पश्चात् सभी मित्रों ने दिव्या को समझाते हुए सलाह दी, “देखो दिव्या, तुम्हें इतना प्यार करने वाला पति मिल रहा है तो इस अवसर को तुम्हें जाने नहीं देना चाहिये। ऐसे सुखद अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते।”
दिव्या ने उनकी बात सुनकर पुनः कहना प्रारम्भ किया, “तो ठीक है, यदि तुम्हारे पिता जी विवाह के लिए तैयार हैं तो उन्हें मेरे घर भेजिये ताकि आगे बात बढ़ सके।”
सुमित ने वैसा ही किया। रामदेव जी दिव्या के पिता जी से मिले और उन्हें विवाह के लिए तैयार कर लिया। लेकिन सुमित की माँ किसी तरह भी राजी न हुई। हालाँकि विवाह भी हो गया और दिव्या सुमित के घर आ गयी, मगर माँ का क्रोध न शांत होना था, न हुआ। सुमित को माँ की नाराजगी के कारण अपने दूसरे मकान में जाना पड़ा। घर चलाने के लिए सुमित ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और एक निजी कम्पनी में क्लर्क की नौकरी कर ली और दिव्या ने कॉलेज जारी रखा। आखिर उसने प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे बी.एड में आसानी से प्रवेश मिल गया। बी.एड समाप्त होते ही उसे अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी।
दूसरी ओर शनैः-शनैः सुमित के सिर से प्यार का भूत उतरने लगा। वह बात-बात पर दिव्या के साथ उलझने लगता। कई बार तो बात इतनी बढ़ जाती कि सुमित कई-कई दिन के लिए घर से गायब हो जाता। उसकी माँ सदैव उसके कानों में विष उड़ेलती रहती। वह सदैव एक ही राग अलापती, “सुमित, तू ने मेरे अरमानों में आग लगा दी। गाज़ियाबाद वाले अब भी मेरे पीछे पड़े हैं। बेटा, यदि तू एक बार मुझे अपनी स्विकृति दे दे, फिर देख, तेरी जिंदगी मैं कैसे बदल देती हूँ। लड़की अभी एम.फिल में पढ़ रही है और उसके पिताजी एक फ्लैट और कार देने को तैयार हैं। मुझे सोच कर बता दे ताकि मैं आगे बात कर सकूँ”। उसी दिन से सुमित के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह दिव्या पर छोटी-सी बात पर भी झल्ला जाता और उसे खरी-खोटी सुनाने लगता। बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक पहुँच गयी कि दिव्या से छुटकारा पाने का उपाय ढूँढ़ने लगा। अब सुमित को माँ के अलावा और किसी की बात भाती ही नहीं थी। वह उसी के बताए रास्ते पर पालतू कुत्ते के समान दौड़ रहा था।
अगले दिन नित्य की भाँति दिव्या उठते ही अपने दैनिक कार्यों में जुट गयी। उसने अपने तथा सुमित के लिए नाश्ता तैयार किया, तदोपरांत वह विद्यालय के लिए तैयार होने लगी। तैयार हो कर उसने सुमित का नाश्ता लगा दिया और उसे आवाज़ दी। सुमित भी नाश्ते की मेज पर गुमसुम आ बैठा। दिव्या ने चाय बना कर प्याला सुमित के सामने रख दिया और स्वयं भी नाश्ता करने लगी। सुमित चाय पीकर उठ गया, नाश्ते को उसने हाथ भी न लगाया। जब दिव्या ने नाश्ता समाप्त कर के बर्तन उठाए तो सुमित का नाश्ता ज्यों का त्यों पाया। उसने सुमित को आवाज दी और नाश्ता न करने का कारण पूछा। वह बोली, “सुमित तुम नाराज़ तो मुझ से हो, नाश्ते ने क्या बिगाड़ा है? प्लीज़ खा लो!”
“नहीं, मुझे भूख नहीं है,” सुमित ने कहा।
उसके बाद दिव्या ने भी अधिक जिद न की। बर्तन किचन में रखकर वह अपने कमरे में आई और पर्स उठा कर विद्यालय के लिए रवाना होते हुए कहा, “मैं जा रही हूँ, दरवाजा बंद कर लो!”
लेकिन सुमित ने उत्तर में कुछ न कहा और दरवाजा बंद करने आ गया। बाहर निकल कर दिव्या ने रिक्शा लिया और विद्यालय पहुँच गयी।
दिन भर वह अपने और सुमित के विषय में ही सोचती रही। जब उसकी छुट्टी हुई तो उसने घर के लिए रिक्शा ले लिया और घर के दरवाजे पर जा उतरी। दरवाजे पर ताला लटका था, अतः उसने अपने पर्स से चाबी निकाली और ताला खोलने लगी। परन्तु ये क्या! सुमित घर का ताला बदल गया था। उसने मोबाइल निकाला और सुमित को कॉल कर दिया। सुमित ने फोन उठाया तो दिव्या ने दूसरा ताला लगाने का कारण पूछा। उसने कहा, “अब से मेरा और तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं, तुम जहाँ चाहे रहो, इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए बंद हो गये हैं। वैसे तुम्हें कल तक तलाक का नोटिस भी मिल जाएगा और मुझे आज के बाद कभी फोन नहीं करना, समझी!”
फोन कट गया था, मगर मोबाइल अब भी उसके कान से लगा था। उसे अपने कानों पर जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि सुमित इतना भी नीचे गिर सकता है। एक बार तो वह घबराई, परन्तु उसने दूसरे ही पल स्वयं को सम्भाल लिया और अपने मन में जैसे कोई कठोर निश्चय कर के वह पुनः उसी रिक्शे पर बैठ गयी।
© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’
दिल्ली