हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – * “मैंने उस दर्द को सीने में छुपा रक्खा है” * – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

“मैंने उस दर्द को सीने में छुपा रक्खा है”

(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की  एक सार्थक एवं मार्मिक –प्रेरणास्पद कथा।) 

तुमने मुझसे पूछा है कि जब मैं 26 साल में विधवा हो गई थी तो फिर से प्रेम करके पुनर्विवाह क्यों नहीं कर लिया। संतान पैदा कर लेतीं, बुढ़ापे का सहारा हो जाता। चैन सुख से जीवन गुजर जाता। ये देशभक्ति, देश सेवा, समाजसेवा के चक्कर में क्यूं पड़ गईं ?

तुम्हारे सवाल का जबाब देना थोड़ा मुश्किल सा है क्योंकि तुम नहीं समझ पाओगे, न्यायालय नहीं समझ पाया, जो अपने आपको देशभक्त कहते हैं ऐसे बड़े नेता नहीं समझ पाए।

दरअसल 25 साल में मेरी शादी बीएसएफ के एक बड़े अधिकारी से हुई, शादी के बाद हम पति पत्नी ने तय किया था कि बच्चा दो साल बाद पैदा करेंगे, होने वाली संतान को ऐसे संस्कार देंगे कि वह बेईमानी, भ्रष्टाचार, लफ्फाजी का विरोध करे और उसके अंदर देशसेवा के लिए जुनून पैदा हो। शादी के बाद उनकी पोस्टिंग कुछ बेहद खतरनाक इलाकों में हुई, उन दिनों माओवादियों का आतंक अपनी चरम सीमा में था। मेरे बहादुर पति में रणनीति कौशल अदभुत था उनके कर्तव्य के जज्बे और समाज के लिए बेहतर करने की उनकी जिजीविषा विख्यात थी। नक्सल आपरेशन के दौरान चरमपंथियों के साथ हुई आमने सामने की लड़ाई में अचानक उनके शहीद हो जाने की खबरों से मेरी पूरी दुनिया धराशायी हो गई, मेरे इर्दगिर्द जो कुछ भी था नष्ट हो गया……. वे बक्से में आये तिरंगे में लिपटे हुए……

मैं बहुत रोई, रोते-रोते मुझे याद आया कि उन्होंने हमेशा मुझसे मजबूत बने रहने के लिए कहा था और ये भी कहा था कि हमारी संतान देशसेवा के लिए हमेशा न्यौछावर रहेगी। रोते रोते मेरे अंदर देशभक्ति और देशसेवा का जज्बा पैदा हो गया। मैंने उनके पोस्टमार्टम होने के पहले डाक्टर से अनुनय-विनय किया कि हमारा परिवार देश के लिए मर मिटा है स्वतंत्रता आंदोलन में हमारे श्वसुर के पिता शहीद हुए थे अभी उनका एकमात्र नाती और मेरे बहादुर पति नक्सल आपरेशन के दौरान शहीद हो गए। पीढ़ियों से देशसेवा के लिए बलिदान देने में हमारा परिवार आगे रहा है। मैंने रोते हुए डाक्टर से मांग की कि पोस्टमार्टम के पहले मृत पति का स्पर्म संरक्षित किया जाए ताकि मैं शहीद की पत्नी आईव्हीएफ तकनीक से मां बनकर संतान पैदा कर सकूं और होने वाली संतान को देशसेवा के लिए देश को समर्पित कर सकूं। गृहस्थ जीवन में मातृत्व सुख पाना हर महिला का सपना होता है और अधिकार भी। परिवार के सभी लोग भी चाहते हैं कि वंश बढ़े और चले…… पर डाक्टर एक ना माना, वह केसरिया गमछा डालकर पोस्टमार्टम करने जब चल पड़ा तो मैंने प्रतिशोध किया, मीडिया के लोगों को बुला लिया। बाद में डाक्टर और मीडिया के लोगों ने सलाह दी कि न्यायालय से ऐसा आदेश प्राप्त करें।

मैंने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया, जज से गुहार लगायी – ” मी लार्ड… मेरे पति नक्सल आपरेशन के  बहादुर बड़े अधिकारी थे जो नक्सलियों से आमने सामने की लड़ाई के दौरान शहीद हो गए। पति के मरणोपरांत उनके स्पर्म से आईव्हीएफ तकनीक के सहारे वह मां बनना चाहती है, गृहस्थ जीवन में मातृत्व सुख पाना हर महिला का सपना होता है और अधिकार भी। परिवार के सभी लोग भी चाहते हैं कि उनका वंश बढ़े और चले। इसलिए न्यायालय से हाथ जोड़कर विनती है कि मृत पति के पोस्टमार्टम के पहले पति का स्पर्म संरक्षित करने के लिए सरकार को आदेश देंवे।”

जज साहब का कहना था कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान द्वारा तैयार सहायक प्रजनन तकनीक नियम के मसौदे के अनुसार भारत में यह दिशा निर्देश तो हैं कि यदि मौत के पहले स्पर्म संरक्षित किया गया हो तो मरणोपरांत उसके इस्तेमाल से गर्भधारण किया जा सकता है लेकिन मरणोपरांत स्पर्म संरक्षित करने का स्पष्ट प्रावधान नहीं है।

मैंने फिर गुहार लगाई – “मी लार्ड…. चैक गणराज्य में ऐसा प्रावधान तो है और अन्य देशों में भी मरणोपरांत स्पर्म संरक्षण के प्रावधान हैं। इंसान तो इंसान है वह इसी धरती पर पैदा हुआ है इसलिए इंसानियत के नाते एक शहीद की विधवा के मातृत्व सुख के सपने को साकार करने के लिए उसके पक्ष में निर्णय लेने हेतु निवेदन है। मेरा नेक इरादा है कि मैं वंशवृद्धि के लिए मां बनकर अपनी संतान को देशसेवा के लिए समर्पित करना चाहतीं हूं। इस देश में राजनैतिक दांव-पेंच के निपटान के लिए रात में भी कोर्ट खोली जा सकती है। समलैंगिकों को उनकी मर्जी के अनुसार उनके अधिकार दिए जा सकते हैं। बड़े बड़े मानव अधिकारों के संगठन के लोग अपनी मंहगी गाड़ियों में बड़े बोर्ड लगाकर अपने जलवे दिखा रहे हैं, बड़े बड़े नेता सरकार और न्यायालय के निर्णय की परवाह न करते हुए मंदिर निर्माण के लिए बयानबाजी कर रहे हैं। लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा देकर समाजिक विकृति पैदा की जा सकती है। धारा 377 लायी जा सकती है तो शहीदों की विधवाओं के सपने और उनके अधिकार देने में क्यों दिक्कत आ रही है जबकि एक शहीद की विधवा शपथपत्र देकर वादा कर रही है कि होने वाली संतान को देश की रक्षा के लिए न्यौछावर कर देगी।”

सरकार ने सरोगेसी नियमन विधेयक पास जरूर कर दिया है पर इस तकनीक का एक स्याह पक्ष यह भी रहा है कि इससे कोख बेचने वाली सरोगेट माताओं को शारीरिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, विडंबना है कि अपनी कोख बेचकर दूसरों को संतान सुख देने वाली महिलाओं को इसके एवज में उचित पैसे और मान सम्मान भी नहीं दिया जाता, वे आर्थिक और शारीरिक शोषण की शिकार होतीं हैं।

“मी लार्ड….. आर्मी, बीएसएफ, पुलिस, डिफेंस जैसे विभागों में काम करने वालों के परिवारों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए मेरी मांग उचित है अतः सरकार को तुरंत आदेश दिए जाएं कि मृत पति के पोस्टमार्टम के पहले स्पर्म संरक्षित किया जाए।”

मैं फफक – फफक कर रोती रही पर किसी ने कुछ नहीं सुना, सब अपनी नौकरी बचाने की चिंता में मेरी मांग को अनदेखा कर रहे थे, और बूढ़े सास – श्ववसुर को लोगों ने भड़का के डरा दिया कि सरकार और न्यायालय की पेचीदगियों में पड़ोगे तो बेटे की डेडबाडी खराब हो जाएगी…. बेटे की आत्मा की शांति के लिए जरूरी है कि उसका समय पर दाह संस्कार कर दिया जाए…… मैं मजबूर थी। रोते रोते आंखों में आंसू सूख गए थे। तब से मैं ये जान गई कि उनकी आत्मा की शांति के लिए शहीदों के परिवारों और शहीदों की विधवाओं की बेहतरी के लिए काम किया जाए और अपनी पीड़ा और ख्वाहिश को विस्तार देते हुए दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ा जाए।

शहीद होंने के कारण सरकार पैसे और नौकरी तो दे देगी पर न्यायालय और सरकार मेरे बहादुर पति के स्पर्म की कुछ बूंदे नहीं दे पाई जिससे मातृत्व सुख से वंचित एक शहीद की विधवा बिलखती रह गई, पर मैं हिम्मत नहीं हारने वाली, आखिरी दम तक आर्मी, बीएसएफ, पुलिस, डिफेंस वालों की ऐसी पीड़ित बहनों के लिए लड़ती रहूंगी।

मैं देख रही हूँ कि मेरी बातों को सुनकर तुम्हारी आँखें नम हो रहीं हैं और नम आँखों से सहानुभूति छलक रही है पर मेरे दिल दिमाग में मेरे बहादुर पति की आखिरी दम तक देश सेवा की भावना मेरे अन्दर गुबार बनकर फैल गई है। और सुनो सहानुभूति छलकाने वालों से मुझे कोई सहानुभूति नहीं है, ऐसे लोगों से मैं सख्त नफरत करतीं हूं।

तुमने प्रश्न किया है इसलिए मैं बता देना चाहती हूं कि मैंने गांव गांव के ऐसे युवकों के घरों को ढूंढ लिया है जिन्होंने बहकावे में आकर नक्सलवाद का रुख किया और मुठभेड़ में मारे गए, नाहक ही उनके बच्चे अनाथ हो गए। इन दिनों ऐसे बच्चों को गोद लेकर उनको अच्छा नागरिक बनाने के प्रयास में व्यस्त हो गईं हूं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – * “गम” ले * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

“गम” ले 
सिर पर रखी बड़ी टोकरी में तीन -चार गमले लिये एक  वृद्ध महिला कालोनी में ” ले गमले …. ले गमले ” की आवाज लगाती  हुई  आ रही थी ।
श्रीमती जी ने उसे आवाज देकर बुलाया ,उसके सर पर रखी टोकरी को अपने हाथों का सहारा देकर नीचे उतरवाया और उससे पूछा – “कितने के दिये ये गमले ?”
उसने कहा- “ले लो बहन जी , 100 रुपये में एक गमला है ।” श्रीमतीजी ने महिला सुलभ स्वभाव वश मोलभाव करते हुए एक गमला 60 रुपये में मांगा ।
“बहिन जी , नही पड़ेगा । हम बहुत दूर से सिर पर ढोकर ला रहे हैं , धूप भी तेज हो रही है । जितनी जल्दी ये गमले बिक जाते तो हम घर चले जाते । आदमी बीमार पड़ा है घर पर ,उसके लिए दवाई भी लेकर जाना है । ऐसा करो बहिनजी ये तीनों गमले 250 रुपये में रख लो ।”
श्रीमती जी ने कहा –“3 गमले रखकर क्या करेंगे।”
“ले लो बहिनजी, दो गमले लिये हम और कितनी देर भटकेंगे ।” कहते हुए उसके चेहरे पर उदासी छा गई ।
श्रीमती जी ने उसके चेहरे पर छाये गम के बादलों को हटाते हुए उससे तीनों गमले खरीद लिये ।
250 रुपये अपने बटुए में रखते हुए उसके चेहरे पर जो खुशी एवं सन्तोष के भाव झलक रहे थे ,उसे देखकर श्रीमती जी को भी यह अहसास हो गया था कि 250 रुपये में किसी के गम ले कर यदि उसे थोड़ी खुशी दे दी तो सौदा बुरा नही है ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
जबलपुर (म . प्र .)

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – कपूत / कुमाता ? – डॉ . प्रदीप शशांक 

डॉ . प्रदीप शशांक 

कपूत / कुमाता ?
(e-abhivyakti में डॉ प्रदीप शशांक जी का स्वागत है।)
उत्कर्ष की  अवांछनीय हरकतें दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं । गलत दोस्तों की संगत में रहकर वह पूरी तरह बिगड़ चुका था । उत्कर्ष की हरकतों से वह बहुत परेशान रहती थी । वह उसे बहुत समझाने की कोशिश करती किन्तु उत्कर्ष के कानों में जूं तक  न रेंगती ।
उत्कर्ष के पिता की  मृत्यु के पश्चात उसने यह सोचकर अपने आप को संभाला था कि अब उसका 24 वर्षीय पुत्र ही उसके बुढ़ापे का सहारा बनेगा , किन्तु वह सहारा बनने की जगह उसके शेष जीवन में दुखों का पहाड़ खड़ा करता जा रहा था ।
जुआ ,सट्टा एवं शराब की बढ़ती लत के कारण आये दिन घर पर उधार वसूलने आने वालों से वह बेहद परेशान हो गई थी । आखिर उसने उत्कर्ष के व्यवहार से परेशान होकर अपने ह्रदय को कड़ा करते हुए  एक कठोर निर्णय लिया ।
कुछ दिन बाद समाचार पत्रों में आम सूचना प्रकाशित हुई ——- मैं श्रीमती शोभना  पति स्व. श्री मयंक, अपने पुत्र उत्कर्ष के आचरण, दुर्व्यवहार एवं अवगुणों से व्यथित होकर  अपनी समस्त चल अचल संपत्ति से  उसे बेदखल करती हूँ । अगर भविष्य में उसके द्वारा  किसी भी व्यक्ति / संस्था से कोई भी  सम्पत्ति सम्बन्धी, उधार सम्बन्धी या अन्य लेनदेन किया जाता है तो वह स्वयं उसका देनदार होगा —– ।
उसके चेहरे पर विषाद पूर्ण संतोष का भाव था तथा उसे विश्वास था कि समाज उसके पुत्र की करतूतों को जानकर उसे कुमाता नहीं समझेगा  ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
जबलपुर (म . प्र .)

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – भविष्य से खिलवाड़ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

भविष्य से खिलवाड़

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की  एक विचारणीय लघुकथा। आपके लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। )

टॉल टैक्स पर जैसे ही ट्रेफिक रूका अनगिनत बच्चे कोई  टिश्यू पेपरस,कोई गाड़ी विंडोज के लिए ब्लेक जालियां, कुछ गुलाब के फूल बेचने वाले आ खड़े हुए ,उनमें कुछ बच्चे ऐसे ही भीख मांग रहे थे ;लेकिन इक बच्चा ऐसा भी था जो मिट्टी के तवे बेच रहा था। चुपचाप हर गाड़ी के पास जाकर तवे लेकर चुपचाप खड़े हो जाता। कुछ लोग उन सबको भगा रहे थे।कछ भाव ही नहीं दे रहे थे।

ज्यादातर बच्चे जिद करके समान बेचने की कोशिश कर रहे थे। भीख मांगने वाले बच्चों ने तो परेशान करके रख दिया था।लेकिन तवा बेचने वाला बच्चा चुपचाप हर गाड़ी के पास एक क्षण तवा खरीदने को कहता ,नहीं अपेक्षित जवाब मिलने पर आगे बढ जाता। तभी गाडिय़ों की कतार में खड़ी गाड़ी में से किसी नौजवान ने शीशा उतार इशारे से उसे अपने पास बुलाया। और बगैर तवा खरीदे उसे दस का नोट थमा दिया।

उसने कई बच्चों को ऐसे ही दस के नोट पकड़ा दिये। आज के जमाने में उसकी दयालुता देख एकबारगी खुशी हुई, लेकिन तुरंत उन मासूम बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी। लगने लगा कि वास्तव में इनकी इतनी मजबूरी है या फिर इनके माँ-बाप को आदत हो गई है। कटोरा लेकर ऐसे खड़ा कर देते हैं ,इनको काम करने की आदत कैसे पड़ेगी। हममे से कई दयालु लोग उनको भीख देकर उनका भविष्य और अधिक असुरक्षित कर रहें है। अगर हम सब मन को थोड़ा कठोर कर उन्हें भीख की बजाए उन्हें पढ़ाने की ठान ले,अच्छे विचारों से उनका मनोबल उंचा करे ताकि वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें।हम पैसों से नहीं वरन् सही मार्गदर्शक बन उनकी मदद करें।जो विकलांग हैं उनकी उनके हिसाब से अपेक्षित मदद करे।

अभी सोच विचार में ही थी कि तवा बेचने वाला बच्चा मेरी गाड़ी के पास आकर बोलने लगा,”दीदी तवा खरीद लो,मेरी मदद हो जायेगी।”एक बार मेरा मन भी किया और  पर कठोरता बरत बोला कि नहीं मुझे जरूरत नहीं है।कुछ और बोल पाती उससे पहले टॉल टैक्स पर मेरा नंबर आगया था।
ऋतु गुप्ता

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – कार की वधू-परीक्षा – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

कार की वधू-परीक्षा
इस वर्ष  दीपावली के अवसर पर घर के द्वार पर कार खड़ी होगी, जिससे मेरी शान बढ़ेगी, इसलिये अब कार लेना ही होगी, ऐसा संकल्प हमारे मित्र रामबाबू ने कर ही लिया। उनकी इस प्रतिज्ञा में ऐसी ध्वनि सुनाई दी मानो वे कह रहे हों- ‘बस, इस सहालग में घर में बहू लानी ही है’।
रामबाबू और हम तीन मित्र, दीपावली पूर्व के उजास से चमचमाते बाजार में एक कार के शोरूम  में प्रवेश  कर गये। द्वार पर ही एक  षोडशी ने चमकते दांत दिखा कर हमारा स्वागत किया जिसे देखकर मुझे लगा कि अब तो कार खरीद कर ही जाना पड़ेगा। शोरूम के अन्दर का वातावरण एकदम स्वयंवर जैसा दिख रहा था जहां एक वधू का वरण करने कई-कई राजा उपस्थित थे। देखकर भ्रम होता था मानो भारत से गरीबी हट गई है।
हम एक ओर खड़े होकर यहां-वहां देख ही रहे थे कि अचानक एक और मेकअप-रंजित बाला हमारे सामने प्रकट हुई और पूछा- कौन सा मॉडेल देखेंगे सर ? हमारे एक रसिक मित्र के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा ‘आप जैसा’ ! सेल्सगर्ल की झेंप को मिटाने के लिये तीसरे ने कहा- हमारा मतलब, एकदम लेटेस्ट तकनीक, कम ईंधन खपत, ज्यादा जगह, मजबूत और बजट कीमत वाली दिखाईये प्लीज। यह कथन कुछ यों लगा मानो लडके का पिता कह रहा हो, कन्या शिक्षित , सुन्दर, गृहकार्य में दक्ष, समझदार, पूरे घर को लेकर चलने वाली, सेवाभावी, सहनशील, संगीत में निपुण आदि-आदि वाली हो।
खैर, हमें एक चमचमाती कार के सामने ले जाकर खडा कर दिया गया और वो कन्या उसके गुणों को ऐसे बताने लगी जैसे वधू का पिता अपनी बेटी की झूठी विशेषताओं को बखानता है।
सब कुछ सुनकर रामबाबू के कंठ से खुर्राट बाप जैसी लम्बी हूँ निकली और उसने कार की एक प्रदक्षिणा की और कहा- इसकी कीमत कितनी है? सेल्सगर्ल ने कन्यापक्ष की सी विनम्रता से कहा- सर, आप गाडी पसंद तो कीजिये, कीमत तो वाजिब लग जायेगी। हम तो आज आपको इस गाड़ी में बिठा कर ही विदा करेंगे।
अब तो दोनों पक्षों में दहेज के सेटलमेंट-सी चर्चा आरम्भ चल पड़ी। रामबाबू कोई दाम लगाते, तो सेल्सगर्ल उसके साथ कोई ऑफर जोड़ कर कंपनी की कीमत पर टिकी रहती।
अंततः रामबाबू ने हमारी ओर गहरी नजरों से देखा और गंभीर वाणी में उस सेल्सगर्ल से कहा- ‘ठीक है मैडम, हम आपको चार दिन में जवाब देते हैं; और भी शोरूम में जरा देख लेते हैं। आखिर जिंदगी भर का मामला है ‘।
ये वातावरण वैसा ही बन गया कि जब भरपेट पोहा, समोसा, मिठाई, चाय के साथ कन्या का इंटरव्यू लेने के बाद लड़के का पिता जाते-जाते यही शब्द लड़की वालों को सुनाता है। इसे सुनकर कन्या के माता-पिता और दसियों ऐसे इंटरव्यू झेल चुकी बेचारी लडकी भी समझ जाती है कि ‘हमारे भरोसे मती रहना’ । अब सेल्सगर्ल की बारी थी- उसने चेहरे पर जमाने भर की मुस्कुराहट और स्वर में ज्यादा से ज्यादा विनम्रता लाकर रामबाबू की बजाय हम लोगों से कहा- सर लोग, आप यहां से पैदल जा रहे हैं ये हमारे लिये शर्म की बात है, हम तो सर को बेस्ट मॉडल दे रहे हैं, आप कहेंगे तो लोन भी करवा देंगे, और सर लोग, क्या आप मेरी इतनी सी बात नहीं मानेंगे? इसके बाद उसके चेहरे पर जो दीनतामिश्रित मुस्कान उभरी उसे नजर अंदाज कर पाना हम किसी के लिये सम्भव नहीं रहा।
रामबाबू ने ठाकुरों की-सी शान भरी आवाज में कहा- मैडम, मैं तो तैयार नहीं था, पर अब क्या करें, हमारे इन दोस्तों की बात को मैं टाल नहीं सकता और आपको भी नाराज नहीं कर सकता। चलिये, बिल बनवा ही दीजिये, हम यही गाड़ी लेकर घर जायेंगे।
इतना सुनकर दो समय की रोटी के लिये मेहनत कर रही उस मासूम सेल्सगर्ल के चेहरे पर आया संतोष ठीक वैसा ही था जैसा लड़की के लिये वरपक्ष की हां सुनकर वधू के माता-पिता के चेहरे पर दिखाई देता है।
©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – अनूठी बोहनी – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

अनूठी बोहनी —–

 

साँझ होने को आई किन्तु आज एक पैसे की बोहनी तक नहीं हुई।

बांस एवं उसकी खपच्चियों से बने फर्मे के टंग्गन में गुब्बारे, बांसुरियाँ, और फिरकी, चश्मे आदि करीने से टाँग कर रामदीन रोज सबेरे घर से निकल पड़ता है।

गली, बाजार, चौराहे व घरों के सामने कभी बाँसुरी बजाते, कभी फिरकी घुमाते और कभी फुग्गों को हथेली से रगड़ कर आवाज निकालते ग्राहकों/ बच्चों का ध्यान अपनी ऒर आकर्षित करता है रामदीन ।

बच्चों के साथ छुट्टे पैसों की समस्या के हल के लिए वह अपनी  बाईं जेब में घर से निकलते समय ही कुछ चिल्लर रख लेता है। दाहिनी जेब आज की बिक्री के पैसों के लिए होती

खिन्न मन से रामदीन अँधेरा होने से पहले घर लौटते हुए रास्ते में एक पुलिया पर कुछ देर थकान मिटाने के लिए बैठकर बीड़ी पीने लगा। उसी समय सिर पर एक तसले में कुछ जलाऊ उपले और लकड़ी के टुकड़े रखे मजदुर सी दिखने वाली एक महिला एक हाथ से ऊँगली पकड़े एक बच्चे को लेकर उसी पुलिया पर सुस्ताने लगी।

गुब्बारों पर नज़र पड़ते ही वह बच्चा अपनी माँ से उन्हें दिलाने की जिद करने लगा। दो चार बार समझाने के बाद भी बालक मचलने लगा, तो उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे डांटने लगी  कि,

दिन भर मजूरी करने के बाद जरा सी गलती पर ठेकेदार ने आज पूरे दिन के पैसे हजम कर लिए और तुझे फुग्गों की पड़ी है।। बच्चा रोने लगता है।

पुलिया के एक कोने पर बैठे रामदीन का इन माँ-बेटे पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।

वह उठा और रोते हुए बच्चे के पास गया । एक गुब्बारा, एक बांसुरी और एक फिरकी उसके हाथों में दे कर सर पर हाथ रख  उसे चुप कराया। फिर अपनी बाईं जेब में हाथ डालकर  उसमें से इन तीनो की कीमत के पैसे निकाल कर अपनी दाहिनी जेब में रख लिए।

अचानक हुई इस अनूठी और सुखद बोहनी से प्रसन्न मन मुस्कुराते हुए रामदीन घर की ओर चल दिया।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – संवादहीन भ्रम….. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

संवादहीन भ्रम…..

हृदय की बायपास सर्जरी करवा कर रामदीन कुछ दिन भोपाल में विश्राम के बाद बहु-बेटे के साथ आ गया।

ऑपरेशन के बाद सारे परिचित , शुभचिंतक वहां घर पर मिलने आते रहे। इन सब के बीच  कालोनी में ही रहने वाले अपने अंतरंग मित्र शेखर की अनुपस्थिति रह-रह कर कचोटती रही।

अपने मित्रों की सूची में जब भी शेखर की बात आती, रामदीन विषाद व रोष से भर जाता। एक वर्ष बीतने को आया किन्तु इस अवधि में न तो शेखर की ओर से  और न, ही रामदीन की ओर से परस्पर एक दूसरे से सम्पर्क कर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास हुआ।

इतने अनन्य मित्र की इस बेरुखी से स्वाभाविक ही शेखर के प्रति रामदीन के मन में खीझ भरी इर्ष्या ने घर कर लिया था। समय बेसमय जब भी मित्र की याद आते ही मुंह कसैला सा होने लगता था।

वर्षोपरान्त रामदीन का पुनः मेडिकल चेकअप के लिए भोपाल जाना हुआ। वहां अस्पताल में अनायास ही शेखर से सामना हो गया, देखकर हतप्रभ रह गया।

देखा कि- शेखर अपनी पत्नी का सहारा लिए कंपकंपाते हुए डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल रहा है।

पता चला कि, रामदीन के ऑपरेशन के समय से ही वह पार्किसंस की असाध्य बीमारी से ग्रसित चल रहा है।

विस्मित रामदीन के मन में अनजाने ही संवादहीनता के चलते मित्र शेखर के प्रति उपजे अब तक के सारे कलुषित भाव एक क्षण में साफ हो गए।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – बाजार……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

बाजार…….

हरिनिवास पंडित शहर के मध्य में जूते-चप्पलों का एक भव्य शो रुम चला रहे हैं।

सामने ही इस्माइल मियां पूजन सामग्री की दुकान खोले बैठे हैं।

ठाकुर बलदेव सिंग की किराना दुकान पुरे क्षेत्र में प्रसिद्द है, समीप ही संपत राय महाजन ने फल-फूल तथा सब्जियों की भरी दुकान सजा रखी है।

इधर दलित दयाराम की सोने-चांदी की दुकान अलग ही चमचमा रही है।

रामकृष्ण सर्राफ बिस्किट, बेकरी आयटम व चिप्स /कुरकुरे थोक में बेच रहे है,  थोड़े आगे ही नुक्कड़ पर हरी प्रसाद हरिजन की हॉटल/ भोजनालय में खाने वालों की दिनभर भीड़ लगी रहती है।

इस बार निगम के चुनाव में भारी बहुमत से विजयी, सत्संगी- शारदा देवी नगर के महापौर पद को सुशोभित कर रही है और  कृषि उपज मंडी के मुख्य आढ़तिया पद को सरदार प्रीतम सिंग जी।

उधर गांव  के अधिकांश खेतों को शहरी लोग संभालने लग गए हैं, तो ग्रामीण युवक शहरों में इधर-उधर दुकानों में काम कर रहे हैं।

स्थिति यह है कि, शहर गांव की तरफ और गांव शहर की तरफ दौड़ लगा रहे हैं।

बाजार के ये सारे सुखद दृश्य देख कर रामदीन को ये लगता है कि, हमारा देश सामाजिक समरसता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

किन्तु समाज के मौजूदा हालात देखकर रामदीन को यह भी लगता है कि,

इस नव विकसित बाजारू परिदृश्य के बावज़ूद जातीय, सामाजिक एवं सांप्रदायिक सद्भाव कहीं पीछे छूटता जा रहा है,   जिसके बारे में सोचने का किसी के पास समय नहीं है।

बदलते परिवेश में एक ओर रामदीन प्रसन्न है तो दूसरी ओर खिन्न भी।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – लायक  – डॉ भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

 

लायक 

आज अचानक माँ का फ़ोन आया “सोनी घर आ गई है ।कह रही अब वह नहीं जायेगी ।”

पर बेटा ” आशू फोन करके मना रहा है पर इसका कहना है अलग रहेंगे तो ही मैं वापस आउंगी ।”

आशू का कहना है “मैं माता-पिता को नहीं छोड़ सकता।रहेंगे तो साथ ही रहेंगे।”

यह सब सुनकर हमसे नहीं रहा गया हम उसे  समझाने चले गए।

सब याद आने लगा जब हमने रिश्ता बताया था और माँ ने सब देखकर चन्द दिनों में सोनी की शादी कर दी थी।और माँ शादी करके निश्चिन्त हो गई थीं।परंतु कुछ दिनों बाद से  ही माँ का फोन आता रहता सोनी खुश नहीं है आये दिन छोटी -मोटी बात पर विवाद होता रहता है ।आशू तो बस माँ का ही दामन थामे है उसे कुछ दिखाई नहीं देता।

हमने भी फोन पर कहा..” यह क्या कह रही हो ।कुछ नही होता धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।”

वह बोली “मैं बहुत एडजेस्ट कर रही हूँ दीदी।”

होली का त्यौहार था उन सबको भी बुला लिया। सास, पति, नन्द सभी आये और सबका समझौता करवा दिया। सभी खुश थे और सबसे ज्यादा हम खुश थे,  हमने ही शादी करवाई थी ।जब सब चलने लगे माँ ने सोनी से कहा…” बेटा अब अच्छे से रहना छोटी-छोटी बाते तो होती रहती है इतना सुनते ही सोनी बोली .. सास की और इशारा करके “इनका मुंह बंद रहे तो सब ठीक है।”

इतना सुनते ही उन्होंने विदा का सामान पटका और बेटे को बोली …”चल बेटा अब इसको यहीं रहने दे ये हमारे लायक नहीं है।”

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – मानसिकता/मंहगे दीये – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

दीपावली पर विशेष 


डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

मानसिकता/मंहगे दीये

दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे।

फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली।

इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया।

कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।

“क्या भाव से दे रहे हो यह दीये?”

“आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं।”

“अरे!  इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत?”

“बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं।”

“अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो।”

दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहाँ भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।

“ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये।”

“बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए….”

घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था –

“ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं।”

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’


 

दीपावली पर विशेष 

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